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शैलजा पाठक की कविताएं

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शैलजा पाठक की ये कविताएं मेल में मिलीं। इन्‍हें पढ़ना शुरू किया तो लगा एक अनगढ़ वृत्‍तान्‍त के कई सिरे खुलते जा रहे हैं। यह स्‍त्री होने और उस होने को लिखने का वृत्‍तान्‍त है। इसमें कई संवाद हैं, जो बिना कोई बड़ा और बनावटी बयान दिए गम्‍भीर जिरह में बदलते जाते हैं। बहनें शीर्षक कविता के दो भाग एकबारग़ी तो असद ज़ैदी की कविता की याद में ले जाते हैं, लेकिन जल्‍द ही अपना उतना ही मौलिक आवेग भी महसूस कराते हैं। इन कविताओं का स्‍वर कुछ खिलंदड़ा, आसपास बोलने-बतियाने जैसे आत्‍मीय ताप से भरा है। आप भी देखिए और महसूस कीजिए कि असल जीवन की कठिन बातें किस तरह विमर्शादि का कुहासा चीर कर धूप-सी बिखरती-फैलती हैं।
***   

कमाल की औरतें 

औरतें भागती गाड़ियों से तेज भागती है 
तेजी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़
इनके छूट रहे सपने हैं
धुंधलाते से पास बुलाते से सर झुका पीछे चले जाते से
ये हाथ नही बढाती पकड़ने के लिए
आँखों में भर लेती है जितने समा सकें उतने

ये भागतीं हिलतीं कांपतीं सी चलती गाड़ी में ..जैसे परिस्थितियों में जीवन की

निकाल लेती हैं दूध की बोतल ..खंघालती हैं
दो चम्मच दूध और आधा चीनी का प्रमाण याद रखती हैं
गरम ठंढा पानी मिला कर बना लेती हैं दूध
दूध पिलाते बच्चे को गोद से चिपका ये देख लेती हैं बाहर भागते से पेड़
इनकी आँखों के कोर भींग जाते हैं फिर सूख भी जाते है झट से

ये सजग सी झटक देती हैं डोलची पर चढ़ा कीड़ा
भगाती हैं भिनभिनाती मक्खी मंडराता मच्‍छर
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए
ये खड़ी रहती हैं एक पैर पर

तुम्हारी आँख झपकते ही ये धो आती हैं हाथ मुंह
मांज आती हैं दांत खंघाल आती है दूध की बोतल
निपटा आती हैं अपने दैनिक कार्य
इन ज़रा से क्षणों में ये अपनी आँख और अपना आँचल तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं

ये अँधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल
निकाल लेती हैं दवाई की पुडिया तुम्हारा झुनझुना
पति के ज़रुरी कागज़,यात्रा की टिकिट
जिसमे इनका नाम सबसे नीचे दर्ज़ है

अँधेरी रात में जब निश्चिन्त सो रहे हो तुम
इनकी गोद का बच्चा मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा
ये आँख फाड़ कर बाहर के अँधेरे को टटोलती हैं
जरा सी हथेली बाहर कर बारिश को पकड़ती हैं
भागते पेड़ों पर टंगे अपने सपनों को झूल जाता देखती हैं
ये चिहुकती हैं बडबडाती हैं अपने खुले बाल को कस कर बांधती है

तेज भाग रही गाडी की बर्थ नम्बर ५३ की औरत
सारी रात सुखाती रही बच्चे की लंगोट नैपकिन खिडकियों पर बाँध बाँध कर
भागते रहे हरे पेड़ लटक कर झूल गए सपनों की चीख बची रही आँखों में
भींगते आंचल का कोर सूख कर भी नही सूखता
और तुम कहते हो की कमाल की औरतें हैं
ना सोती है ना न सोने देती हैं
रात भर ना जाने क्या क्या खटपटाती हैं ...............
***

वही मैं वही तुम 

दर्द को कूट रही हूँ
तकलीफ़ों को पीस रही हूँ
दाल सी पीली हूँ
रोटी सी घूम रही हूँ
गोल गोल
तुम्हारे बनाये चौके पर

जले दूध सी चिपकी पड़ी हूँ
अपने मन के तले में
अभी मांजने हैं बर्तन
चुकाना है हिसाब
परदे बदलने हैं
आईना चमकाना है
बिस्तर पर चादर बन जाना है
सीधी करनी है सलवटें

बस पक गई है कविता
परोसती हूँ

घुटनों में सिसकती देह
और वही
चिरपरिचित तुम ...........
*** 
 
बहनें १ 

कुछ कतरनों में हमनें भी सहेजी है
नैहर की थाती

हमारे बक्से के तले में बिछी
अम्मा की पुरानी साड़ी
उसके नीचे रखी है पिताजी की वो तमाम चिठ्ठियाँ
जो शादी के ठीक बाद हर हफ्ते लिखी थी

दो तीन चादी का सिक्का जिसपर बने भगवान् की सूरत उतनी नही उभरती
जीतनी उस पल की जब अपनी पहली कमाई से खरीद कर
भाई ने धीरे से हाथ में पकड़ा दिया ये कह कर
बस इतना ही अभी

तुम्हें नही पता तुम्हारा इतना ही कितना बड़ा होता है कि
भर जाती है हमारी तिजोरी

कि अकड़ते रहते हैं हम अपने समृद्ध घर में ये कहते
भैया ने बोला ये दिला देंगे वो दिला देंगे

हद तो ये भी कि भाभी के दिए एक मुठ्ठी अनाज को ही
अपने घरों के बड़े छोटे डिब्बों में डालते ये कह कर कि जब तक
नैहर का चावल साथ है ना
हमारे घर में किसी चीज़ की कमी नही ...

किसी को ये सुन कर बुरा लगता है की
परवाह किये बगैर

पुरानी ब्लैक न वाइटफोटो में हमारे साथ साथ वाली फोटो है ना
सच वो समय की सबसे रंगीन यादों के दिन थे

हाँ पर अम्मा की गोद में तुम बैठे हो
हम आस पास खड़े मुस्करा रहे हैं
हमे हमेशा तैयार जो रखा गया दूर भेजने के लिए

अच्छा वो मोटे काजल और नहाने वाली तुम्हारी फोटो देखकर
तुम्हें चिढ़ाने में कितना मज़ा आता
तुम्हारी सबसे ज्यादा फोटो है की शिकायत कभी नही की हमने
हमारे लिए तुम्ही सबसे ज्यादा रहे हमेशा

अब तुम बड़े हो गये हो
तुम्हारे चौड़े कंधे और चौड़ी छाती में
हम चिपक जाती हैं तितलयों की तरह
एक रंग छोड़कर उड़ जाना है दूर देश

कभी आ जाओ न अचानक ..बिना दस्तक दरवाजा खोल दूंगी ..तुम्हारी आहटों को जिया है हमने .... 
*** 
 
बहनें

बहनें हमेशा हार जाती है
कि खुश हो जाओ तुम
जबकि उन्हें पता है जीत सकती हैं वो भी

अजीब होती है... बड़ी हो जाती है तुमसे पहले
अपने फ्रॉक से पोछ देती है तुम्हारे पानी का गिलास
तुम पढ़ रहे हो ..भींग जाता है तुम्हारा हाथ
पन्ने चिपक जाते हैं

तुम कितनी भी रात घर वापस आओ
ये जागती मिलती हैं
दबे पाँव रखती है तुम्हारा खाना
तुम्हारे बिस्तर पर डाल देती हैं आज का धुला चादर
इशारे से बताती हैं ..अम्मा पूछ रही थी तुम्हें
काहे जल्दी नही आ जाते ..परेशान रहते हैं सब

बहनें तुम्हारी जासूस होती हैं ..बड़ी प्यारी एजेंट भी
माँ भी ..की इनकी गोद में सर धरे सुस्ता लो पल भर

बहनें तुम्हारे आँगन की तुलसी होती हैं
तुम्हारे क्यारी का मोंगरा
बड़े गेट के पास वाली रातरानी
आँगन के उपेक्षित मुंडेर की चिड़िया होती है भैया
पुराने दाने चुगते हुए तुम्हारे नए घरों का आशीष देती हैं

हमारी आँखों के कोर पर ठहरे रहते हो तुम
हम जतन से रखती हैं तुम्हें

बहनें ऐसी ही होती हैं ....
*** 

खूंटे से बंधा आकाश 

भीगे गत्ते से
बुझे चूल्हे
को हांकती
टकटकी लगाये ताकती
धुंए में आग की आस

जनम जनम से बैठी रही इया
पीढ़े के ऊपर
उभरी कीलों से भी बच के निकल
जाती है

धीमी सुलगती लकड़ियों में
आग का होना पहचानती है
हमारी गरम रोटियों में
घी-सी चुपड़ जाने वाली इया

घर की चारदीवारी में चार धाम का पुण्य कमाती
भीगे गत्ते को सुखाती
हमेशा बचाती रहीं
हवा पानी आग माटी
और अपने खूटे में बंधा आकाश ....
***

गाँव के रंग 

गाँव में पुआल
बचपन ..धमाल

पुवाल वाला घर
लुटे हुए आम ..गढ़ही में गिरा ..सुग्गा का खाया
पत्थर से तोडा की निहोरा से मिला
पकाए जाते थे
पर अक्सर पकने के पहले
खाए जाते थे

अक्सर पुवाल घर में मिलती थी
नैकी दुल्हल की लाल चूड़ियाँ टूटी हुई
और बिखरी होती थी
दबी खिलखिलाहटें

पुवाल से हम बनाते थे
दाढ़ी मूंछ हनुमान की पूँछ
दुल्हे की मौरी
कनिया की चूड़ी

पुवाल से भरी बैलगाड़ी पर
हम चढ़के गाते थे
हिंदी सिनेमा का गीत
दुनियां में हम आये है तो .....

उस घर के छोटे झरोखे से
दुलहिनें देखती थी हरा भरा खेत
उनके नैहर जाने वाली पगडण्डी
सत्ती माता का लाल पताका और धूल वाला बवंडर

अचानक पुवाल घर को छोड़कर
हम पक्के रस्ते से शहर आ गए

आज भी यादों की पुवाल में पकता है
बतसवा आम ..चटकती ही मुस्कराती चूड़ी
सिनेमा के गाने बदल गए गाँव भी बदल गया बाबा
पर बादल बरसते हैं तो माटी की महक से हुलस जाता है मन
नन्हके पागल ने लगा दी है बचे हुए पुवाल में आग

शहर के आसमान पर वही गाँव वाला बादल छाया है बाबा
अभी अभी हम दोनों की आँख मिली
और बरस पड़े .....
*** 
 
मेरी चोटी में बंधा फूल 

तुमने मुझे बेच दिया
खरीदार भी तुम ही थे
अलग चेहरे में

उसने नही देखीं मेरी कलाइयों की चूड़ियाँ
माथे की बिंदी .मांग का सिंदूर
उसने गोरे जिसम पर काली करतूतें लिखीं
उसने अँधेरे को और काला किया... काँटों के बिस्तर पर
तितली के सारे रंग क्षत-विक्षत हो गये

तुमने आज ही अपनी तिजोरी में
नोटों की तमाम गड्डियां जोड़ी हैं
खनकती है लक्ष्मी
मेरी चूड़ियों की तरह

चूड़ियों के टूटने से जखमी होती है कलाई
धुल चूका है आँख का काजल
अँधेरे बिस्तर पर रोज़ बदल जाती है परछाईयां
एक दर्द निष्प्राण करता है मुझे

तुम्हारी ऊँची दीवारों पर
मेरी कराहती सिसकियाँ रेंगती है
पर एक ऊँचाई तक पहुँच कर फ्रेम हो जाती है मेरी तस्वीर
जिसमे मैंने नवलखा पहना है

खूंटे से बंधे बछड़े सी टूट जाउंगी एक दिन
बाबा की गाय रंभाती है तो दूर बगीचे में गुम हुई बछिया भाग आती है उसके पास
मैं भी भागुंगी गाँव की उस पगडण्डी पर
जहाँ मेरी दो चोटियों में बंधा मेरे लाल फीते का फूल
ऊपर को मुह उठाये सूरज से नजरें मिलाता है .......
***
अनुनाद पर शैलजा पाठक पहली बार छप रही हैं- उनका स्‍वागत और समृद्ध रचनायात्रा के लिए शुभकामना भी।


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