सामाजिक-राजनीतिक दायित्व को वहन करने का दावा करने वाले किसी भी कवि के लिए ख़राब बात है कि ऐसी घटनाओं पर कविता लिखकर मुक्ति पा ली जाए। ऐसा कोई प्रयास मैंने कभी किया भी नहीं लेकिन अपने सामाजिक एकान्त में इन संघर्षों में रहने और लड़ने-भिड़ने के बाद कुछ दर्ज़ भी हो जाता है। ये एक पुरानी कविता है - ९६ के ज़माने की, लेकिन मुझे इधर इसकी एक शर्मिन्दा करती हुई याद आयी। ये कविता नहीं, एक शर्मिन्दगी है। बहुत पहले चोखेर बालीब्लाग पर लगी थी।
हाल में हुई घटना पहली नहीं है, न आखिरी होगी। हमने जो समाज रच डाला है, उसमें अमानवीयता, अनाचार और विक्षिप्तता के लिए बहुत सारी जगहें हैं। ये धूर्त और क्रूर लूमड़ आखेटक हर जगह लार टपकाते घूमते दिखते हैं, जो कुछ देह के साथ नहीं भी कर पाते, उसे अकसर भाषा में अंजाम देते हैं। स्कूल से, काम से घर लौटती लड़कियां इस भाषाई हिंसा का रोज़ सामना करती हैं।
नए वक्त की एक घटना को याद करते
तुम्हारे नीचे पूरी धरती बिछी थी
जिसे तुमने रौंदा
वह सिर्फ़ स्त्री नहीं थी
एक समूचा संसार था फूलों और तितलियों से भरा
रिश्तों और संभावनाओं से सजा
जो घुट गयी तुम्हारे हाथों तले
सिर्फ़ एक चीख़ नहीं थी
आर्तनाद था
समूची सृष्टि का
हर बार जो उघड़ा परत दर परत
सिर्फ शरीर नहीं था
इतिहास था
शरीर मात्र का
जिसे तुमने छोड़ा
जाते हुए वापस अपने अभियान से
ज़मीन पर
घास के खुले हुए गट्ठर -सा
उसकी जु़बान पर तुम्हारे थूक का नहीं
उससे उफनती घृणा का स्वाद था
वही स्वाद है
अब मेरी भी ज़ुबान पर !
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