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वागर्थ के विशेषांक दिसम्‍बर 2012 पर रंजीत वर्मा का आलेख - सौजन्‍य : हाशिया/रियाज़-उल-हक़

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इस बार की पोस्‍ट हाशिया से साभार ली जा रही है। कवि और संस्‍कृतिकर्मी रंजीत वर्मा ने वागर्थ के विशेषांक दिसम्‍बर 2012 के आयोजन के बहाने कविता के परिदृश्‍य पर एक सलीकेदार, सार्थक और विचारवान आलेख लिखा है, जिसे मैंने हाशिया पर पढ़ा। मुझे लगा कि 'कविता और कविता पर विचार' का ब्‍लाग होने के नाते इस आलेख को अनुनाद का हिस्‍सा बनाना अनिवार्य है। इधर 'नाइंटीज़' का उल्‍लेख हिंदी कविता की आलोचना में अकसर होने लगा है। मैं ख़ुद इसे 'नर्वस नाइंटीज़' की तरह देखता हूं। अचानक दिखाई देने लगी यह दशकीय  चेतना मुझे तो एक तरह की नर्वसनेस ही लगती है। इस तरह कुछ विचलनों पर बात भले सम्‍भव हो पाए  लेकिन कविता की सैद्धान्तिकी तय नहीं जा सकती। मुझ जैसे लोगों की राजनीति विचार और उसके लिए किए गए संघर्षों से तय होती है, कवियों के पांच-दस साल (नाइंटीज़ के मामले में तो दो-चार साल) इधर-उधर हुए जन्‍म से नहीं। अनुनाद अपने पाठकों से इस लेख को ग़ौर से पढ़ने और अपनी राय देने का अनुरोध करता है।      

हाशिया पर रियाज़-उल-हक़की टीप

दशकों के आधार पर कविताओं और कवियों की पहचान का चलन शुरू करना एक तरह से अज्ञेय द्वारा नई कविता-प्रयोगवादी कविता जैसी पहचानों का एक उदारीकृतपुनरुत्थान है. उदारीकृत इसलिए, क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवाद नई और प्रयोगशील रचनाधर्मिता से भी नफरत करता है और इसलिए उसकी सांस्कृतिक चेतना को एक राजनीति-निरपेक्ष (या राजनीतिक रूप से सेक्युलर’) वर्गीकरण चाहिए. विचारधाराओं के अंत, इतिहास के अंत और साम्यवाद के पतन के बाद तो बस तारीखें ही रह जानी थीं, इतिहास नहीं. इसलिए वादों के संदर्भ में कवियों और कविताओं की पहचान भी मुमकिन नहीं रही क्योंकि उससे विचारधारात्मक बू आती है इसलिए अब हिंदी पर दशकीय चेतना के आरोपण का दौर है. लेकिन मजेदार बात तो ये है कि दशक जाकर भी नहीं जाते और इस तरह नब्बे का दशक करीब डेढ-दो दशकों तक पसर जाता है (यह बीमारी हॉब्सबॉम दे गए, जिन्होंने लंबी उन्नीसवीं सदी की परिकल्पना की थी). इसके पीछे की राजनीति के बारे में विस्तार से कवि और सांस्कृतिक कार्यकर्ता रंजीत वर्मा




रंजीत वर्मा का आलेख

जिन स्थापनाओं को उन्होंने समझा था कि उन्हें वे एक विस्फोट की तरह रख रहे हैं वह बच्चों की पटाखेबाजी से ज्यादा साबित नहीं हुईं। जितनी मुद्राएं वे बना सकते थे उन्होंने बनायीं लेकिन सभी क्लाइमेक्स पर पहुंचने से पहले हास्यास्पद दिखने लगीं। बातों में इतनी ज्यादा विसंगतियां, इतने ज्यादा अंतरविरोध कि लगे जैसे कि कोई जुए में सब कुछ हार जाने के बाद अर्धबेहोशी में बड़बड़ा रहा हो। वे बताने निकले थे कि कितने काबिल हैं वे लेकिन अपनी नाकाबिलियत की पोल खोल बैठे। आठवें दशक के बाद की कविता पर वागर्थदिसंबर 2012 के अंक में छपे किसी भी लेख को आप देखें आपके मन में ऐसे ही ख्याल आऐंगे। लेकिन उन लेखों पर चर्चा करने से पहले जरूरी है कि लॉन्ग नाइन्टीजशब्दावली पर बात कर ली जाए क्योंकि यही मूल मंत्र है इस पूरे ढकोसले से भरे आयोजन का और विचारें कि आखिर इसका मकसद क्या है? लॉन्ग पर हम बाद में बात करेंगे। पहले हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि ये नाइन्टीज क्यों कह रहे हैं, एटीज क्यों नहीं कह रहे हैं क्योंकि हिंदी में ये अस्सी के बाद की कविताकह रहे हैं। यह नाइन्थ डिकेड जरूर है, लेकिन नाइन्टीज नहीं है यह। नाइन्टीज का मतलब नब्बे का दशक हुआ यानी कि शताब्दी का अंतिम दशक लेकिन अस्सी का हरगिज नहीं। क्या ये मूर्खता में ऐसा कह रहे हैं या इसके पीछे इनकी अपनी कोई सोच काम कर रही है।
 

क्या ये नाइन्टीज इसलिए कह रहे हैं क्योंकि इसकी शुरुआत सोवियत संघ के पतन के साथ हुई और ये यह बताना चाह रहे हैं कि अब आगे का समय कविता में साम्यवादियों का नहीं है। इसी वक्त बाजारवाद की तेज हवा भी चलनी शुरू हुई जिसकी चर्चा तो वे करते हैं लेकिन इसके भयानक आंधी का रूप ले लेने की बात वे नहीं करते जो अब तक ढाई लाख किसानों को लील चुका है और दूसरी ओर जिसने आदिवासियों का जीना मुहाल कर रखा है। क्योंकि अगर वे इसकी बात करेंगे तो उनके संघर्ष की भी बात करनी होगी जिसे माओवाद के नाम से जाना जाता है और जिसे नक्सलबाड़ी आन्दोलन की निरंतरता के रूप में देखा जाता है, जिसने पोस्को, वेदान्ता, जिंदल जैसी कॉरपोरेट ताकतों, जिन्हें भारत सरकार का संरक्षण भी प्राप्त है, द्वारा की जा रही प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर काफी हद तक अंकुश लगा रखा है।

चलिए अब हम इस नाइन्टीज को लॉन्ग के साथ पढ़ते हुए इसे समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर वे कहना क्या चाह रहे हैं। पहले ही पन्ने पर लिखा हुआ पढ़ने को मिलता है - लॉन्ग नाइन्टीजको मात्र एक साहित्यिक कालखंडके रूप में न देखा जाए वरन एक खास किस्म के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रवृत्तियों के बीज समय के रूप में देखा जाए, तो लॉन्ग नाइन्टीज आज भी सतत सक्रिय है। लॉन्ग नइन्टीजतब तक खत्म नहीं होगा जब तक कोई बड़ा प्रतिरोध का आंदोलन बाजार की दमनकारी आक्रामकता एवं उसकी दलाल सत्ताको छिन्न भिन्न कर कोई परिवर्तनकारी समय न रच दे।’’ यह उक्ति बद्रीनारायण के लेख से लेकर पत्रिका के पहले पन्ने पर चस्पां किया गया है। यानी कि इस वाक्य को वागर्थ के संपादक ने भी इस अंक के लिए बीज विचार के रूप में स्वीकार किया है। अगर संपादक ने ऐसा नहीं किया होता तो मैं इस पर विचार करने की जरूरत नहीं महसूस करता क्योंकि किसी फाउन्डेशन की गोद में बैठे बद्रीनारायण को मैं इस काबिल नहीं समझता कि उन्हें गम्भीरता से लिया जाए और जवाब दिया जाए। बहरहाल उनसे पूछा जाना चाहिए कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों से निरपेक्ष कोई साहित्यिक कालखंडभी होता है क्या? यहां तक कि अकवितावाद भी आजादी से मोहभंग और पूरे देश में व्याप्त बेरोजगारी और बदहाली से पैदा हुआ था। फिर भला कोई अस्सी के बाद की कविता को मात्र ‘‘साहित्यिक कालखंड’’ के रूप में कैसे देख सकता है? नहीं देख सकता है लेकिन यहां ‘‘खास किस्म के’’ पदावली का जो इस्तेमाल किया गया है उसका क्या मतलब है इसे कहीं भी बताने या समझाने की कोशिश नहीं की गयी है। और जब वही स्पष्ट नहीं है तो कैसे मान लिया जाए कि उसकी निरंतरता आज भी बरकरार है और तब तक बरकरार रहेगी जब तक कि ‘‘कोई बड़ा प्रतिरोध का आंदोलन बाजार की दमनकारी आक्रामकता एवं उसकी दलाल सत्ताको छिन्न भिन्न कर कोई परिवर्तनकारी समय न रच दे।’’ इस पूरे अंक में जितने भी लेख हैं उन्हें पढ़ कर कोई यह पता नहीं लगा सकता है कि यह प्रतिरोध कौन लोग करेंगे, कब करेंगे (या कर रहे हैं तो वे लोग कौन हैं, कहां कर रहे हैं और किस तरह कर रहे हैं) और इनकी कविता उनसे कैसे जुड़ती है? यह भी उन्होंने या किसी ने बताने की कोशिश नहीं की है कि दलाल सत्ता को उद्धरण चिह्न के अन्दर क्यों रखा गया है। क्या इसका मतलब यह नहीं निकलता कि वे वर्तमान में मौजूद सत्ता के तमाम रूपों के खिलाफ नहीं हैं बल्कि सिर्फ उस सत्ता के खिलाफ हैं जो दलाल है। यानी कि वे यह कहना चाह रहे हैं कि सभी सत्ताएं दलाल नहीं हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें बताना चाहिए था कि कहां है दलाल सत्ता और कहां नहीं है। और जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया है तो इसे क्यों नहीं सत्ता की दलाली मानी जाए।

दरअसल देखा जाए तो इस तरह की विसंगतियां तमाम लेखों में देखने को मिलेंगी लेकिन सभी पर अलग अलग विचार करना इस एक लेख में तो संभव नहीं है और देखा जाए तो इसकी जरूरत भी नहीं है क्योंकि वे सभी अंदर से इतने पोपले हैं कि सामने पूरी तरह खड़ा होने के पहले ही भरभरा कर गिर पड़ते है। यही कारण है कि हिन्दी में इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया है। फिर भी मेरी यह कोशिश रहेगी कि इनका जवाब दूं ताकि साहित्य में सार्थक बहस के लिए माहौल बन सके। संपादकीय को आधार लेख के तौर पर मैं ले रहा हूं और इसी पर बात करुंगा पर प्रसंगवश दूसरे लेखों का हवाला भी हो सकता है आ जाए। संपादकीय की पहली पंक्ति है – ‘‘यहां 1980 के बाद उभरे हिन्दी कवियों और उनकी कविता की मुख्य प्रवृत्तियों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है-लेकिन हिन्दी कविता की परम्परा के भीतर ही, और उसकी अगली कड़ी के रूप में ही इस कविता को देखने की यह विनम्र चेष्टा है।’’ इसका मतलब हुआ कि परम्परा के बाहर भी कविताएं लिखी जा रही हैं। वे लोग कौन हैं जो परम्परा के बाहर की कविताएं लिख रहे हैं और इन बाहर की कविताओं की कोई परम्परा है भी या नहीं और उसकी पहचान वे कैसे कर रहे हैं? यह सब उन्हें विस्तार से बताना चाहिए था। ठीक है वे उस पर बात नहीं करना चाहते हैं तो न करें लेकिन इतना तो उन्हें अवश्य कहना चाहिए था कि वे जिन कविताओं पर बात करने जा रहे हैं वे किस परम्परा से आती हैं। यह इसलिए जरूरी है बताना क्योंकि उस परम्परा का चयन उन्होंने किया है और वे खुद को भी उस पता नहीं कौन सी परम्परा का कवि मान रहे हैं तो उन्हे बताना तो चाहिए था कि वह है क्या। यहां अद्वैतवाद है तो द्वैतवाद भी है, कबीर का निर्गुण है तो तुलसी का सगुण भी है, आधुनिक युग में प्रगतिशीलों की एक सशक्त धारा है तो कलावादी भी पछाड़ खाते चल रहे हैं। एक द्वंद्वात्मकता हर समय दिखायी देती है लेकिन इस द्वन्द्वात्मकता पर आवरण चढ़ाने के लिए अजीब विसंगति और धुंधलके का सहारा लिया गया है।

कहा गया कि कविताओं का ‘‘दशकवार विभाजन गलत है’’ लेकिन दूसरी ही पंक्ति में महादशक की परिकल्पना कर डाली गयी। इतना ही नहीं बल्कि आठवें दशक के भूत को भी खड़ा किया गया और एक नकली युद्ध की रूपरेखा भी खींची गयी। दरअसल यह प्रपंच वे इसलिए रच रहे हैं ताकि आठवें दशक के भुला दिए गए कवि (यहां मैं आलोकधन्वा, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, गोरख पाण्डेय का नाम नहीं ले रहा क्योंकि वे दशक के नहीं बल्कि परिवर्तनकामी चेतना से लैस मार्क्सवादी विचारधारा के कवि हैं) और नौवें दशक वाले ये लोग जिन पर समय ने धूल की मोटी परत डाल दी है, को किसी तरह कविता के केंद्र में लाया जा सके। आठवें दशक और नौवें दशक के आठ गुण और अवगुण को मदन कश्यप ने अपने लेख में चिह्नित किया है जो गौर करने लायक है। आठवें दशक के बारे वे क्रम संख्या एक में कहते हैं, ’’एकता का आधार नक्सलवाद विरोध (नकारात्मक)’’ फिर क्रम संख्या सात में लिखते हैं ‘‘राजनीतिक सजगता बहुत अधिक।’’ यहां नकारात्मक या सकारात्मक उन्होंने कुछ नहीं लिखा है। अगर कुछ नहीं लिखा है तो इसका मतलब सकारात्मक हुआ। वे बताएं कि नक्सलवाद विरोध अगर नकारात्मक है तो राजनीतिक सजगता सकारात्मक कैसे है। आठवें दशक की शुरुआत ही होती है ’’गोली दागो पोस्टर’’ और ’’जनता का आदमी’’ जैसी वैचारिक रूप से लैस कविता से। नक्सलवाद एक विचारधारा है और विचारधारा के विरोध का नाम आठवां दशक है जिसे मदन कश्यप राजनैतिक सजगता का दशक कह रहे हैं जबकि यह विरोध नक्सलवादी विचार को नकारने तक ही सीमित था। उन्होंने कविता में कोई समानान्तर राजनीतिक लाइन नहीं खड़ी की थी। फिर इसे राजनीतिक सजगता वे क्यों कह रहे हैं?

यह सर्वविदित है कि दशक की अवधारणा राजनीतिक विचारधारा के निषेध पर टिकी है जबकि विचारधारा दशकों में न कैद होती है और न उसकी मोहताज होती है। बल्कि इसके उलट वह समय को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए सदैव संघर्षशील रहती है। इस काम के लिए उसे राजनीति की जरूरत पड़ती है, इतिहास की जरूरत पड़ती है और साहित्य की भी जरूरत पड़ती है जिसमें कविता भी आती है। दशकों को कविता की क्या जरूरत? वह क्यों राजनीतिक कविता को अपने अंदर समाहित करेगा। वे कविताएं नक्सलवाद की कविताएं हैं और जो उन कविताओं के विरोध में खड़ी हैं उन्हें भी कुछ नाम दिया जाना था तो उनके आकाओं ने उसे आठवें दशक की कविताका नाम दिया फिर उसी तर्ज पर नौवें दशक को भी खड़ा किया और दशकों के कवि की एक नयी परम्परा की शुरुआत की। विडंबना देखिए कि वे आज भी बेचैन हैं दशकों के कवि कहलाने के लिए जबकि आम जनता के खिलाफ उन्हीं की सरकारों ने युद्ध का एलान कर रखा है। आप समझ सकते है कि वे किनके साथ हैं।

एकांत श्रीवास्तव ने संपादकीय में हिन्दी साहित्य की परम्परा की दुहायी दी है और खुद को दशक का कवि बता रहे हैं तो क्या वे बतायेंगे कि कबीर, तुलसी, नागार्जुन, त्रीलोचन, केदार, निराला या मुक्तिबोध किन दशकों के कवि थे। और अगर वे किसी दशक के कवि नहीं थे तो फिर ये नौवें दशक का कवि बन कर किस परम्परा के होने का दंभ भर रहे हैं। दरअसल नौवें दशक की बात जो लोग कर रहे हैं उनमें से अधिकांश को उनके बचपन के दिनों में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार का झुनझुना थमा दिया गया था जिसे वे आज भी छोड़ नहीं पा रहे हैं जबकि इनमें से अधिकांश ने लिखना छोड़ दिया है। एकांत ने सत्रह कवियों के नाम गिनाए हैं और फिर खुद कहा है कि इनमें से सिर्फ आधा दर्जन लोग ही आज सक्रिय हैं। आश्चर्य है कि जब वे खुद इस बात को मान रहे हैं और सच भी यही है कि इनमें से कई ने पिछले दस साल से भी ज्यादा समय से कोई कविता लिखी ही नहीं है तो उनका नाम उन्होंने क्यों गिनाया जबकि कई ऐसे लोग जो लगातार अच्छा लिख रहे हैं उनकी कोई चर्चा उन्होंने नहीं की। मैं यहां उनके नाम नहीं लूंगा नहीं तो वे लड़ाई को छोटी कर देंगे और इसे कुछ नामों के बरअक्स कुछ नामों का खेल बना देंगे। अगर उन्हें शौक है कि वे वैसे ही लोगों को लिए फिरें जो नौवें दशक को अपने सीने से ठीक उसी तरह चिपकाए हुए हैं जैसे बंदरिया अपने बच्चे को मर जाने के बाद भी कलेजे से लगाये रहती है तो भला कोई क्या कर सकता है। इनका डर दरअसल यह है कि बाद की पीढ़ियां कविता में तेजी से चली आ रही हैं और इसके साथ ही नौवां दशक तेजी से पीछे छूटता जा रहा है जैसे कोई भी दशक छूटता है और इस गुजर चुके नौवे दशक के साथ कहीं वे भी गुजरे जमाने की चीज न हो जाएं। इसलिए ये लॉन्ग नाइन्टीज की बात कर रहे हैं ताकि लोगों को लगे कि आज भी उन्हीं का युग चल रहा है। मदन कश्यप ने नौवें दशक का गुण बताया है साम्राज्यवाद का विरोध लेकिन देखिए इनका सम्राज्यवादी रवैया ये अपने आगे और पीछे के दशकों को भी निगलने की तैयारी कर चुके हैं।

ये ग्राम संवेदना की बात करते हैं, ‘ग्राम वासिनी भारत माताकी दुहायी देते हैं लेकिन इनमें से एक भी कवि ने अपनी कविता में किसानों के दर्द को दर्ज नहीं किया जबकि सन नब्बे से अभी तक ढाई लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ये दंभ भरते हुए कहते है कि समर गाथासुनने के लिए अब किसी के कान अधीर नहीं थे’’ और खुद इनके पांच सौ के एक संस्करण सालों नहीं बिकते और जो बिकते हैं वह भी सरकारी खरीद की वजह से। ये 80 के बाद की कविता पर विचार करने बैठे हैं और सवाल 85 से 2012 के बीच की कविता को लेकर करते हैं और जवाब देने वाले अधिकांश 1990 से बात शुरू करते हैं क्योंकि उसी वक्त सोवियत संघ का विघटन हुआ था। दस साल ये यूं ही गटक जाते हैं क्योंकि इनका मकसद कम्युनिस्ट विचारधारा पर हमला करना था और इसके लिए इस घटना से बेहतर उदाहरण उनके पास कुछ और हो नहीं सकता था। मदन कश्यप अस्सी के दशक के नक्सलवादी विरोधियों को तो चिह्नित कर लेते हैं और उसे नकारात्मक भी बताते हैं लेकिन नब्बे के दशक में आए उन्हीं के गोत्र के लोगों को पहचानने की जगह वे खुद उन्हीं के साथ अपना नाम जोड़वाने के लिए जोड़तोड़ करते नजर आते हैं। क्या अस्सी के दशक की नकारात्मकता नब्बे के दशक में आते आते सकारात्मक हो गयी? और अगर हो गयी तो कैसे इसका जवाब उन्हें देना चाहिए।

पत्रिका ने जो आठ सवाल पूछे हैं उनमें पहला ही सवाल है कि ‘‘1990 के दशक में रूस के विघटन का हिन्दी कवियों और कविता पर क्या प्रभाव पड़ा?’’ विडंबना देखिए कि यह सवाल वे तब कर रहे हैं जब पूरे लैटिन अमेरिका में कम्युनिस्ट एक के बाद एक लगातार जीत हासिल कर रहे हैं, नेपाल में सैकड़ों साल से चले आ रहे राजतंत्र को वहां के माओवादियों ने लंबे संघर्ष के बाद उखाड़ फेंका है और यहां अपने देश में भी माओवादियों की सरगर्मियां इतिहास रच रही हैं। क्या ऐसा नहीं लगता कि कविता की ओर आती एक बार फिर उसकी धमक देख कर ही कब्र से दशक की अवधारणा का शव निकाल कर उसकी शिनाख्त का बहाना बनाकर वे बहस खड़ी कर रहे हैं? यह उनके लिए प्रतिकूल समय है और ऐसे प्रतिकूल समय में अपनी ओर ध्यान दिलाने का इससे अच्छा तरीका उनके पास कुछ और हो भी नहीं सकता था।

संपादकीय में दावा करते हुए कहा गया है कि ‘‘इस कविता ने स्नेहसिक्त भाषा में मनुष्य जीवन के विभिन्न संबंधों यथा-पिता, मां, भाई, बहन, बच्चे, पानी, दोस्त, प्रिया को भी व्यापक धरातल पर व्यक्त किया। कविता की वापसी घर की तरफ हुई।’’ याद कीजिये इन्हीं चीजों को चिह्नित कर अशोक वाजपेयी ने 1978 में कविता की वापसी की बात कही थी। ये उन्हीं के वंशज हैं। और देखिए इन्हीं चीजों को देख कर बाबा नागार्जुन ने अपनी कविता में क्या लिखा था - ‘‘क्रांति पास है, कांति दूर है, बुद्धू तुझको क्या दिखता है? आओ तुझको सैर कराऊं, घर में घुस कर क्या लिखता है?’’ दरअसल जिसे वे घर की ओर वापसी कह रहे हैं वह भाग कर घर में जा छुपने का मामला है। उन्हें पता है कि सरकार जनता के खिलाफ सेना उतार चुकी है और इनका अवसरवाद इन्हें सरकार के खिलाफ बोलने नहीं देता, इनका अवसरवाद इनके न्याय और अन्याय की समझ को कुंद कर चुका है। और यह घर भी क्या है? एक दशक है जो नब्बे का है और जो खंडहर का रूप ले चुका है जिसमें जहां-तहां बन आये कोटरों में धंसे छुपे ये बचपन के दिनों में थमा दिये गये अपने अपने झुनझुने लिए बैठे हैं। इनकी आवाज में नया झुनझुना पाने का रुदन है। विमल कुमार अपने लेख में एक जगह लिखते हैं -‘‘दरअसल हिन्दी कविता की उड़ान भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से लेकर साहित्य अकादमी पुरस्कार तक की है। आठवें दशक के कई कवियों की उड़ान यहीं तक है।’’ अजीबोगरीब तरीके से दोनों पंक्तियां गलत हैं चाहे इन्हें एक साथ पढ़ा जाए या अलग अलग। क्योंकि हिन्दी के तमाम कवि इस उड़ान में शामिल नहीं हैं। यह सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े कवियों का यथार्थ हो सकता है। और अगर यह बात उन कुछ कवियों के लिए कही जा रही है जिन्हें वे आठवें दशक का बताते हैं तब भी यह गलत है क्योंकि यह बात सिर्फ अरुण कमल पर लागू होती है। हां कुछ सालों बाद जब नौवें दशक के कवियों का नम्बर साहित्य अकादमी पाने का आएगा तब यह बात उन पर पूरी तरह फिट बैठेगी क्योंकि ये आए ही हैं भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार की नाव पर चढ़े और व्याकुल दिख रहे हैं साहित्य अकादमी का घाट लगने को।

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