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शिक्षक दिवस पर मेरे प्रिय समाज-राजनीति-साहित्‍य शिक्षक की याद

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मेरे प्रिय समाज-राजनीति-साहित्‍य शिक्षक
अपनी उधेड़बुनों में एक अज्ञानी कई तरह से उलझता है....मैं भी उलझता हूं....अगर ये उलझनें सच्‍ची हैं तो इनसे बाहर निकालने वाले लोग भी जीवन में हमेशा मौजूद होते हैं।  शुक्‍ल जी तो भक्तिसाहित्‍य को हतदर्प हिंदू जाति की अभिव्‍यक्ति बता कर चले गए और तुलसी की कविता भी धर्म और उससे जुड़े कट्टर कर्मकांडों में विलीन हो गई। नए समय में एक महान विचार ने हिंदी साहित्‍य और उस पर आधारित समझ को दिशा दी। हरिशंकर परसाई इस विचार के लिए बहुत जूझने-लड़ने वाले लेखक हैं। 'हैं'लिख रहा हूं...परसाई जी को पढते हुए 'थे'कभी लिख ही नहीं पाऊंगा। आज शिक्षक दिवस है और  मैं अपनी तर्कप्रणाली में उन्‍हें हमेशा से अपना सबसे बड़ा शिक्षक मानता हूं। ये पोस्‍ट अनदेखे इस अद्भुत शिक्षक को समर्पित है, जो मुझ जैसे हज़ारों के शिक्षक होंगे। परसाई जी ने मानस के चार सौ साल पूरे होने के अवसर मनाए जाने वाले उत्‍सव पर प्रतिक्रिया देते हुए एक तथ्‍य और तर्कपूर्ण लेख लिखा था, जिसका विकट  विरोध हुआ। मैं यहां उनके इस लेख का एक अंश प्रस्‍तुत कर रहा हूं...


हरिशंकर परसाई

तुसली के अनुभवों का क्षेत्र विशाल था। जीवन-चिंतन गहन था। जीवन की हर स्थिति के विषय में सोचा और और निष्‍कर्ष में नीति-वाक्‍य बोले -

परहित सरस धरम नहिं भाई 
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई

तमाम रामचरित मानस  नीति वाक्‍यों से भरा पड़ा है। ये काव्‍य नहीं 'स्‍टेटमेंट्स' (वक्‍तव्‍य) हैं।इनमें शाश्‍वत जीवनमूल्‍यों की अभिव्‍यक्ति की भी कोशिश है - 

सुर नर मुनि सबकी यह रीती
स्‍वारथ लागि करहिं सब प्रीती 

इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा। हर स्थिति पर जड़े गए नीति-वाक्‍य लोगों की ज़ुबान पर हैं और वे लोकप्रिय हैं। कविता रामचरित मानस में नहीं, गीतावली और कवितावली में है। मानस में कथा और नीति-वाक्‍य हैं। 

यह सही है कि सामन्‍ती समाज की सड़ी-गली मान्‍यताओं को तुलसी ने बल दिया। छोटे, कमज़ोर, दलित वर्ग को और कुचलने के लिए एक धार्मिक पृष्‍ठभूमि और मर्यादा का बल दे दिया। ये दलित लोग थे - स्‍त्री  और नीची जाति के लोग। पुनरावृत्ति होगी, पर -

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
पूजिय विप्र सील गुणहीना 
शूद्र न पूजिए जदपि प्रवीना 

यह सीधी ब्राह्मण की घृणा है। शबरी के बेर राम को खिलाने और गुह-निषाद को चरण धुलवाकर राम के गले लगाने का कोई अर्थ नहीं।

नारी के प्रति तुलसी की शंका और दुराग्रह भी बहुत है। पतिव्रत धर्म अच्‍छी चीज़ है, क्‍योंकि इससे पारिवारिक जीवन सुखी रहता है- हालांकि चालीस फीसदी परिवारों में रोते, पिटते और घुटते पतिव्रत धर्म निभा लिया जाता है। स्‍त्री के वर्गीकरण में तुलसी कहते हैं -

उत्‍तम कर अस बस मन माहीं
सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं 

पर दूसरी जगह कहते हैं -

भ्राता, पिता, पुत्र, भरतारी
पुरुष मनोहर निरखत नारी

इसमें वह 'उत्‍तम' वाली भी आती होगी। यह क्‍या विरोधाभास है... 

तो मानस चतुश्‍शती हो। धूम-धाम से हो। मगर सिर्फ़ जय-जयकार न हो। फिर कबीर समारोह हो। कबीर, जिसने अपनी ज़मीन तोड़ी, भाषा तोड़ी और नई ताक़तवर भाषा गढ़ी, सड़ी-गली मान्‍यता को आग लगाई, जाति और धर्म के भेद को लात मारी, सारे पाखंड का पर्दाफाश किया, जो पलीता लेकर कुसंस्‍कारों को जलाने के लिए घूमा करता था। वह योद्धा कवि था, महाप्राण था।
***
(परसाई रचनावली-4, पृष्‍ठ 431-432 से अविकल उद्धृत)  
  


मनोज की कविता पर कुछ नोट्स, जिन्‍हें शायद कविता होना था ....

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मनोज कुमार झा के पहले कविता संग्रह पर इस समीक्षा को कविसाथी अरुण देव ने अपनी ब्‍लागपत्रिका समालोचनके लिए किसी ज़िद की तरह लिखवाया था। मैंने अपने हड़कम्‍प और हड़बड़ी में बहुत कम समय में इसे लिखा...जाहिर है बहुत कुछ छूट गया। इधर मनोज के संग्रह को दुबारा पढ़ते हुए बहुत मन हुआ कि इसे अनुनाद पर भी लगाऊं...इस तरह शायद एक बार फिर शुक्रिया कह पाऊं मनोज को इतने अच्‍छे और इतने अपने संग्रह के लिए।
***
यद्यपि हिंसा...यद्यपि अनाचार....यद्यपि शोषण.... यद्यपि संकट.. यद्यपि रक्‍तपिपासु मुख विकराल...यद्यपि आतंक... आतंक के रूप नए-नए ... घात-आत्‍मघात ..... ऐसी ही दुविधा और हताशा में डाल देने वाली पदावलियों के बीच एक युवा कवि के पहले संग्रह का नामकरण होता है....इन सबको घूरता- पूरता हुआ-सा....तथापि जीवन  और ठीक यही मूल और मौलिक मुहावरा भी है मनोज की कविता का। मुश्किल में पड़े जीवन का छोटा-सा उत्‍सव जो उतना छोटा है नहीं, जितना दीखता है। यह तथापि है...पर इसके पीछे संघर्षों और पीड़ा के विकट आख्‍यान हैं। यह अधिक सांद्र है....इसका सरफेस टेंशन ज्‍़यादा है। इसमें जीवन-अनुभवों और राजनीतिक चेतना का गाढ़ा मेल है। मनोज ने नए ज़माने के नितान्‍त बौद्धिक लेखों का हिंदी में अनुवाद किया है, वो गणित और विज्ञान के ज्ञाता है पर जब कविता की भूमि पर उतरता है तो जैसे वीरेन डंगवाल के इस संकल्‍प को दुहराते हुए – पोथी पतरा ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव....  
***
मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाज़ार
जहां से अखंड पनही लिए लौट सकूं

कितनी मामूली और छोटी लग सकती है यह इच्‍छा पर इसका विस्‍तार गूंजता-सा जाता है। ग्‍लोबल गांव...हाइपर्रियल मुक्‍ताकाश....मल्‍टीनेशनल्‍स... ख़रीदोफ़रोख्‍़त की अनन्‍त सम्‍भावनाओं से भरे बाज़ार और महत्‍वाकांक्षाओं के घटाटोप में मेरे जनपद के साधारण कवि-मनुष्‍य की इच्‍छा कि हो सहने लायक बाज़ार जहां से अखंड पनही लिए लौट’सके वो...मेरे लिए महान वाक्‍य है यह.... और फिर वो पनही  कम-अज-कम आज की कविता में तो लुप्‍त और बरबाद हो रहे लोक और हिंदी जनपद की प्रतिनिधि, कितनी कोमलता और विश्‍वास से आती है मनोज की कविता में। इस असाधारण विनम्रता से कितने कवि बोल पाते हैं उस बात को, जो उतनी ही सख्‍़त है। हम देख पाते हैं कि उस पनही के अखंड बने रहने की इच्‍छा भी कोई मामूली इच्‍छा नहीं है....एक समूची सैद्धान्तिक बहस है।
***
इस कथा में मृत्‍यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है

इस संग्रह की पहली कविता शुरूआती पंक्तियां हैं ये .... कविता महज कविता नहीं, समूची कथा है ...इधर की कथा है.... नई सहस्‍त्राब्‍दी के आरम्‍भ की... और इसमें मृत्‍यु कहीं भी आ सकती है.... यह एक निश्चित अनिश्‍चय का मुहावरा है... यही हमारे समय का सबसे सधा हुआ मुहावरा भी है। लेकिन इस सबके बीच मनोज की ये अचूक जीवनदृष्टि, जिसमें -
गले में मफलर बांधे क्‍यारियों के बीच मंद-मंद चलते वृद्ध
कितने सुंदर लगते हैं

यह नुक्‍़ता और निगाह मनोज की अपनी सम्‍पदा है ....यह उसका स्‍वजनित-स्‍वनिर्मित अधिकार है...इस स्‍वर में हमारी पीढ़ी में कोई नहीं बोलता...बोल ही नहीं सकता...क्‍योंकि उसके पास हिंदी जनपद का जीवन उस मात्रा में अब नहीं रहा....जितना मनोज के पास है।  मनोज ने यह जीवन चुना है और इसकी क़ीमत चुकाई है पर बदले में उसके पास वह कविता है, जो अपने आप में अद्वितीय बनती जाएगी...आगे और भी।
***
मैं जहां रहता हूं वह महामसान है
चौदह लड़कियां मारी गईं पेट में फोटो खिंचाकर
और तीन मरी गर्भाशय के घाव से

मीडिया के सत्‍यमेव जयतेसे बहुत पहले मनोज की कविता का दृश्‍य है यह। यह यथार्थ की प्रस्‍तुति का तीसरा नहीं, पहला स्‍तर है ....ठेठ... जीवन के गरल से कंठ-कंठ तक भरा... पर इसने कितनों को उद्वेलित किया... हिंदी में अगर इस तरह के प्रसंगों के लिए भी पाठक समाज नहीं है तो फिर हमें उसकी ज़रूरत भी नहीं है... वह रहे अपने उसी तीसरे यथार्थ में... वही सच्‍चे-झूटे अनपढ़ अख़बारी पन्‍ने ... झलमल करते कम्‍प्‍यूटर... लगते रहें टैक्‍नोक्रेट्स की प्रतिष्‍ठा में चार चांद .... इस भूमि पर तो अंधेरे को गहराते ही जाना है...

मनोज जहां रहता है, वहां पाता है -

हम में से बहुतों का जीवन मृत सहोदरों की छायाप्रति है
हो सकता है मैं भी उन्‍हीं में से होऊं
कई को तो लोग  किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं
मृतक इतने हैं और इतने क़रीब कि लड़कियां साग खोंटने जाती हैं
तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोंइचे में
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान
वरना कैसे काट लेती है इतनी तेज़ी से

यह प्रेतग्रस्‍त जीवनभूमि है...यहां अहसास इतने विकट हैं कि हम दूर बैठे उनका अन्‍दाज़ा तक नहीं लगा सकते। इस जीवन में प्रतिशोध के भी अपने अलग दृश्‍य हैं -

इधर सुना है कि वो स्‍त्री जो मर गई थी सौरी में
अब रात को फोटो खिंचवाकर बच्‍ची मारने वालों  को
डराती है , इसको लेकर इलाक़े में बड़ी दहशत है
...  इस इलाक़े का सबसे बड़ा गुंडा मरे हुओं से डरता है           

 फिर इसी प्रेतग्रस्‍त जीवन में यह दुर्लभ जीवट और प्‍यार है ... यानी कवि का वही प्रिय तथापि जीवन -

इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्‍सा रखता है
एक स्‍त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े 
पति गए पंजाब फिर लौट कर नहीं आए
भुना चना फांकते बहुत अच्‍छा गाते थे चैतावर
***

जिसने भगाया मटर से सांड़ वही तो तोड़ ले गया टमाटर कच्‍चा

यह एक पंक्ति नहीं समकालीन जीवन का पूरा खाका है, जिसका सामना हम निजता से लेकर सामाजिकता और राजनीति तक करते हैं। पता नहीं क्‍यों मैं इस पंक्ति को बिहार में लालू के पराभव – नितीश के उभार से लेकर अब ब्रह्मेश्‍वर मुखिया की हत्‍या और बथानी टोला तक की स्‍मृतियों में घूमते देखने लगता हूं। इसी कविता में आगे आता है -

कुत्‍ते भौंकते क्‍यों नहीं मुझे देखकर, कैसे सूख गया  इनके जीभ का पानी
किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा
चारों ओर उठ गई बड़ी-बड़ी अटरियां तो क्‍या यही अब प्रेतों का चरोखर
लौट जाता हूं घर, लौट जाऊं मगर किस रस्‍ते -
ये पगडंडियां प्रेतों की छायाएं तो नहीं...

मनोज की कविता में मृत्‍यु है और प्रेत भी ....फिर भी यह जीवन की कविता है, क्‍योंकि इसमें प्रतीक्षा है... प्रतीक्षा करता यह कवि अब भी खड़ा है जहां कोयल के कंठ में कांपता है पत्‍तों का पानी’ यह प्रतीक्षा पीपल के नीचे  है... पीपल जो प्रतिश्रुतियों में प्रेतों का घर है... यह प्रतीक्षा इत्‍मीनान और सुकून में गई प्रतीक्षा नहीं है ....यह जीवन के उजाड़ के बीच उसे सिरजने वाले साथी की प्रतीक्षा है... ख़ुद मनोज की भाषा में ‘पियरा रहे पत्‍ते के धीरज से भी हरा हमारा धीरज’ इस प्रतीक्षा और धीरज का मोल उससे कहीं ज्‍़यादा है, जितना एकबारगी जान पड़ता है।
***

मैंने इस लिखत के आरम्‍भ में ही उन नए बौद्धिक विमर्शों का जिक्र किया है, जो हमारे जनपद में रिस कर आ रहे हैं। हम इस रिसाव और इसके उद्देश्‍य को समझते हुए भी, या तो उनके समर्थन में तर्क गढ़ते हुए उनके साथ जाना चाहते हैं, या उनसे बचकर निकलना चाहते हैं। जबकि वे ख़ुद में अतार्किक हैं और तर्क से परे अपनी उपलब्धियों को रेखांकित भी कर रहे हैं। यह सब उस तरफ़ का जीवन है, इस तरफ़ से जीना  क्‍या है, मनोज की इसी शीर्षकवाली ये कविता बताती है –

यहां तो मात्र प्‍यास-प्‍यास पानी,  भूख-भूख अन्‍न
और सांस-सांस भविष्‍य
वह भी जैसे तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह

घर को क्‍यों बांध रहे इच्‍छाओं के अंधे प्रेत
हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन

सुना है आसमान ने खोल दिए हैं दरवाज़े
पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा सकते हैं किसी तारे से अपनी बीड़ी

इतनी दूर पहुंच पाने का सत्‍तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह क्षण
थोड़ी और छांह कि बांध सकें इस क्षण के छोर 

सत्‍तू का अर्थ सब जानते होंगे,  पर अभिप्राय.....अर्थ जान लेने की विद्या का सहारा लेकर अब क्‍या लेखक से उसके लिखे का अभिप्राय-अधिकार भी छीन लिया जाएगा.... नहीं, इस अधिकार की रक्षा करनी होगी...आलोक धन्‍वा के पद में कहें तो हम जानते हैं  कुलीनता की हिंसा...हिंदी लेखन की कुलीनता भी कोई अदृश्‍य चीज़ अब नहीं है। प्रगतिशील कविता ने लम्‍बे समय तक कुलीनता को हाशिये पर रख छोड़ा था पर अब नए ज़माने में उसका फ्रेंच अकादमी से सीधे निर्यात किया जा रहा है। हमारे हथियार(रूपवादियों को कविता के सन्‍दर्भ में क्रूर लग सकता है यह शब्‍द) अब भी वहीं मौजूद हैं, जहां मुक्तिबोध ‘कुलीनता की ऐसी-तैसी’कर रहे थे...उसी कुलीनता की आंखों में आंखें डाल चिढ़ाते हुए कत्‍थई मुस्‍कान के साथ नागार्जुन पूछ रहे थे कि ‘अजी घिन तो नहीं आती’....हैरत नहीं है कि मनोज के संग्रह से गुज़रते हुए मुक्तिबोध याद आते हैं और नागार्जुन भी। यहां मुक्तिबोध सरीखे भयावह बिम्‍ब-प्रतीकों के बने भवन हैं और बाबा की-सी कटुतिक्‍त ठेठ अभिव्‍यक्ति  भी।  तभी तो इस गाढ़े मेल में पगी मनोज कविता ‘अर्थ’  के सन्‍दर्भ में इतनी साफ़ मांग रख पाती है –

इस तरह न खोलें हमारा अर्थ
कि जैसे मौसम खोलता है बिवाई
जिद है तो खोलें ऐसे
कि जैसे भोर खोलता है कंवल की पंखुड़ियां        

***
मैंने मुक्तिबोध का नाम अभी लिया है और इसी क्रम में उल्‍लेख करूंगा इस संग्रह की कुछेक लम्‍बी कविताओं में से एक ‘चांद पर हमारा हिस्‍सा’  के बारे में।  चांद की हिंदी कविता में अनेक स्‍मृतियां हैं...मुक्तिबोध से लेकर आलोक धन्‍वा तक। इस कविता में चांद कुछ और नहीं बनता, चांद ही रहता है लेकिन उसके ज़रिये एक आख्‍यान बनता  है.... सार्वजनिक से निजी तक आता हुआ पर वह निजता भी ऐसी कि सिर्फ़ कवि की नहीं, सबकी हो सकती है।
 
पराए ही रह गए पैर जो चले चांद पर
साथ गई तो थी हमारे पसीने की भी भाप
अगम गम हुआ, हमें क्‍या मिला
छला ही इस बड़ी छलांग ने

फिर कविता में वही लोकजीवन है ...निष्‍कलुष .... जितना कम विज्ञ, उतना ही बड़ा सिरजनहार। मनोज के हर काव्‍यानुभव के साथ यह विश्‍वास है कि छोटी-छोटी आम चीज़ों और प्रसंगों के संयाजन से बनता है जीवन...  महान और विशाल। इसी विशाल संयोजन में हामिद मियां की याद,  दुनिया में घूमती हुई ताक़त की चाक और उस पर बिगड़ती हुनर की लय, ऐसी ज़मीन जो मात्र बेचने के लिए ख़रीदी जाती है, पूरन-पात पर जलकण का टपटप बिम्‍ब, काग़ज़ की चौड़ी हथेली पर निबों की टिपटिप, अंग-विकल बीमार भाई की समकालीन याद - कोई खींच रहा जिसके शरीर से लहू द्रुतधावकों की शिराओं के लिए। द्रुतधावक हमारी समकालीनता में हर कहीं हैं.... अपनी शिराओं के लिए दूसरों का लहू खींचते हुए। इसी कविता में जीनशास्त्रियों, सभ्‍यता-संघर्ष के गुणकीलकों और स्‍वप्‍न समीक्षकों से पूछे गए जीवन के बुनियादी सवाल...यह सब कुछ सम्‍भव हुआ है एक विकल थरथराते हुए विनम्र संयोजन में।  यही मनोज  की कला है... उसका खून-पसीना है, जो उसके हिस्‍से की चांदरातों की थोड़ी-सी रोशनी में उसे कविता की दुनिया का श्रमिक बनाता है..... शर्म-सी आती है सोचकर कि ऐसे ही श्रम के अतिरिक्‍त मूल्‍य को भुनाते हैं हम लोग, जो दरअसल इस तरफ़ की दुनिया में उतना रहते ही नहीं।
***

इतनी कम ताक़त से बहस नहीं हो सकती
अर्ज़ी पर दस्‍तख़त नहीं हो सकते
इतनी कम ताक़त से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्‍न पात्रों से तो प्रभुओं के पांव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस

बेशक यह कम ताक़त है .....फिर भी यह वही ताक़त है, जहां घास थामती है रात का सिर ...यही वह जीवन भी जिसे तथापि कह-कह लगातार एक समूची दुनिया रचता है मनोज....चुनौती देता-सा कि यद्यपि में सिर खपाने वाले लोगो आओ,  बस सकते हो तो इस तथापि में बसो.... रचो रच सकते हो इसे अगर...
***

और अंत में...

मनोज कुमार झा
मनोज को भाषा के स्‍तर पर आंचलिक क्रियाओं, वचन और लिंग के प्रयोगों में सावधानी बरतनी चाहिए... यह कवि से विनम्र अनुरोध है मेरा। ऐसे अनेक शब्‍द हैं मनोज की कविता में, जो अपने आंचलिक असर में हिंदी के व्‍याकरण से खेल जाते हैं। मैं यहां लम्‍बी सूची दे सकता हूं... पर इतने सार्थक कविकर्म के जिक्र के बाद उसका उल्‍लेख फिलहाल बेमानी लग रहा है मुझे। कभी ज़रूरत आन पड़ी तो अलग से इस मसले पर बात करूंगा। मैं ख़ुद ज़बान पर चढ़ी अपनी पहली बोली गढ़वाली के असर में कुछ ऐसे ही प्रयोग कर जाता हूं...फिर अहसास होता है कि इस लिखे हुए को  मेरे अंचल से बाहर भी जाना है...वो भी पूरे अंचल को साथ लिए... तो कुछ सुधार करने पड़ते हैं। अभी तो कविता की दुनिया में मनोज का यह बेमिसाल हस्‍तक्षेप है और हम हैं ....जिसके प्रकाशन के लिए बतौर पाठक मैं भारतीय भाषा परिषद को शुक्रिया कहना चाहूंगा।
 ***

नरेश चन्‍द्रकर की कविताएं

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नरेश चन्‍द्रकर मेरे प्रिय अग्रज कवि हैं। उनकी आवाज़ इतनी शान्‍त, गहरी और मद्धम है कि कम ही सुनाई देती है। हिंदी कविता के नाम पर अकसर कोहराम मचा रहता है....तब यह कवि अपने सामाजिक एकान्‍त और वैचारिक प्रतिबद्धता में अपनी कविताएं सम्‍भव कर रहा होता है। इस कोलाहल में नरेश चन्‍द्रकर को सुनना एक अलग -आत्‍मीय और बेचैनी पैदा करने वाला अनुभव है। यहां जो तीन कविताएं हैं ...वे नेट पर अनेक जगह उपलब्‍ध हैं... पर मैं उन्‍हें अनुनाद के पेज के रूप में देखना चाहता था इसलिए उधार प्रेम की कैंची है से बिलकुल न डरता हुआ ये उधार इस अन्‍तर्जाल से साधिकार ले रहा हूं। ये ऐसी कविताएं हैं कि इन पर कुछ अधिक बोलने का प्रयास करना भी इनकी गरिमा को भंग करना होगा....

ज्ञान जी और नरेश चन्‍द्रकर की ये तस्‍वीर शरद कोकास जी से उधार 

मेज़बानों की सभा

आदिवासीजन पर सभा हुई
इन्तज़ाम उन्हीं का था
उन्हीं के इलाक़े में
शामिल वे भी थे उस भद्रजन सभा में
लिख-लिखकर लाए परचे पढ़े जाते रहे
ख़ूब थूक उड़ा
सहसा देखा मैंने
मेज़बान की आँखों में भी चल रही है सभा
जो मेहमानों की सभा से बिल्कुल
भिन्न और मलिन है!
***

स्त्रियों की लिखीं पंक्तियां

एक स्त्री की छींक सुनाई दी थी
कल मुझे अपने भीतर

वह जुकाम से पीड़ित थी
नहाकर आई थी
आलू बघारे थे
कुछ ज्ञात नहीं
पर काम से निपटकर
कुछ पंक्तियाँ लिखकर वह सोई

स्त्रियों के कंठ में रुंधी असंख्य पंक्तियाँ हैं अभी भी
जो या तो नष्ट हो रही हैं
या लिखी जा रही हैं सिर्फ़ कागज़ों पर
कबाड़ हो जाने के लिए

कभी पढ़ी जाएंगी ये मलिन पंक्तियाँ
तो सुसाइड नोट लगेंगीं
***

वस्‍तुओं में तकलीफ़ें

नज़र उधर क्यों गई ?

वह एक बुहारी थी
सामान्यसी बुहारी 
घर-घर में होने वाली 
सड़क बुहारने वालि‍यों के हाथ में भी होने वाली 

केवल 
आकार आदमक़द था 
खड़ेखड़े ही जि‍ससे 
बुहारी जा सकती थी फ़र्श 

वह मूक वस्तु थी 
न रूप 
न रंग 
न आकर्षण 
न चमकदार 
न वह बहुमूल्य वस्तु कोई 
न उसके आने से 
चमक उठे घर भर की आँखें

न वह कोई एंटीक‍ पीस 
न वह नानी के हाथ की पुश्तैनी वस्तु हाथरस के सरौते जैसी 

एक नज़र में फि‍र भी 
क्यों चुभ गई वह 
क्यों खुब गई उसकी आदमक़द ऊँचाई 

वह हृदय के स्थाई भाव को जगाने वाली 
साबि‍त क्यों हुई ?

उसी ने पत्नी-प्रेम की कणी आँखों में फँसा दी 
उसी ने बुहारी लगाती पत्नी की 
दर्द से झुकी पीठ दि‍खा दी 

उसी ने कमर पर हाथ धरी स्त्रियों की 
चि‍त्रावलि‍याँ 
पुतलि‍यों में घुमा दी 

वह वस्तु नहीं थी जादुई 
न मोहक ज़रा-सी भी 

वह नारि‍यली पत्तों के रेशों से बनी 
सामान्य-सी बुहारी थी केवल 

पर, उसके आदमक़द ने आकर्षित कि‍या 
बि‍न विज्ञापनी प्रहार के 
ख़रीदने की आतुरता दी 
कहा अनकहा कान में : 

लंबी बुहारी है 
झुके बि‍ना संभव है सफ़ाई 
कम हो सकता है पीठ दर्द 
गुम हो सकता है 
स्लिप-डिस्क 

वह बुहारी थी जि‍सने 
भावों की उद्दीपि‍का का काम कि‍या 

जि‍सने सँभाले रखी 
बीती रातें 
बरसातें 
बीते दि‍न 

इस्तेमाल करने वालों की 
चि‍त्रावलि‍याँ स्मृतियाँ ही नहीं 

उनकी तकलीफ़ें भी 

जबकि वह बुहारी थी केवल !!
*** 

रामजी तिवारी की कविताएं

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मैं ब्‍लागपत्रिकाओं में लगातार रामजी तिवारी की कविताएं पढ़ता रहा हूं। उनकी कविताओं में बोली-बानी अलग है...ठेठ देशज संस्‍कार वाली। उनमें ईश्‍वर और मिथक-पुराणों का स्‍वीकार-अस्‍वीकार भी देशज ही है, लेकिन उनके सरोकार अलग नहीं हैं - उनमें भूमंडल की दुर्नितियों से लड़ने का पूरा माद्दा है। ये कविताएं कहीं न कहीं हिंदी कविता की प्रगतिशील परम्‍परा से जुड़ती हैं और नए संकटों को समझते हुए उनका प्रत्‍याख्‍यान रचती हैं। अपने समाज और उसके बदलावों की समझ इन कविताओं में भरपूर है। रामजी तिवारी सिताब दियारानाम से एक लोकप्रिय ब्‍लाग का भी संचालन करते हैं। इन कविताओं के लिए शुक्रिया कहते हुए मैं अनुनाद पर उनके आगमन का स्‍वागत करता हूं।
रामजी तिवारी
***

रेडीमेड युग की पीढ़ी

धन,सत्ता और ऐश्वर्य के पीठ पर बैठी
कुलाँचे भरती इस बदहवास दुनिया में
किसके पास है वक्त
जानने,समझने और सोचने का
कौन रखता है आजकल ज़मीन पर पांव ,
जहाँ विचार बुलबुले की तरह
   उठते और बिला जाते हैं
   कैसे बन सकती है कोई धारा
   खेयी जा सके जिसके सहारे
   इस सभ्यता की नाव  |

   रेडीमेड युग की यह पीढ़ी
   रोटी और भात की जगह
   पिज्जा और बर्गर भकोसती ,
   बेमतलब की माथापच्ची को बिलकुल नहीं सोचती |
   कि क्यों जब खनकती हैं जेबें
   मैकडोनाल्ड और हल्दीराम की ,
   उसी समय चनकती है किस्मत
   रेंड़ी जैसे किसान की |

   रेमंड के शो रूम में गालों से
   सूतों की मुलायमियत मापने वाले दिमाग़
   नहीं रखते इस समझ के खाने ,
   व्यवस्था यदि उकडू बैठी हो तो
   इतने महीन और मुलायम धागों पर भी
   टांग सकते हैं लाखों अवाम
   अपने जीवन के अफ़साने |

कंक्रीट के जंगलों में रहते हुए
आश्चर्य नहीं वह यह कहने लगे ,
उगाते हैं लोहे को टाटा , सीमेंट को बिड़ला
घरों को बिल्डर , ऐसी ही माला जपने लगे |

उत्पाद है यह के.बी.सी. युग की
विकल्पों से करोड़पति बनने का देखती है सपना
श्रम तो बस मन बहलाता है ,
इस प्रश्न के लिए भी भले ही
लेनी पड़ती है उसे ‘विशेषज्ञ सलाह’
पिता की बहन से उसका रिश्ता क्या कहलाता है |

नैतिक विधानों को ठेंगे पर रखती हुई
नाचती रहती है प्रतिपल
ज्योतिषी की अनैतिक उँगलियों पर
नहीं हिचकती करने से कोई पाप ,
कोसती ग्रह नक्षत्रों की चाल को
किसी तरह काबू में करने को उतावली
अकबकाई गिरती है ढोंगियों के आँगन में
‘इसी मुहूर्त में चाहिए सवा करोड़ जाप ’ |

रेडीमेड युग के घाघ निकालते हैं ‘स्टाक’ से माल
‘बच्चा जब भी ज़रुरत हो आना’ ,
बानर की तरह घूरते – बुदबुदाते
बैठे चेलों की कतारों को दिखाते हुए
‘अरबों- खरबों जापों का रेडीमेड है ख़ज़ाना’ |

हम पौधों के साथ बीजों को संजोने वाले ,
डरते हैं देखकर संचालकों के करतब निराले |
कि इनके जीवन का रेडीमेड
जो इतनी आपाधापी में चलता जाए ,
कहीं इनके हमारे साथ - साथ 
इस सभ्यता के अंत पर भी लागू न हो जाए |
***

कल्पित सिद्धान्तों का भ्रम

उँगलियों को थामें शनि गुरू लगायत मंगल,
सुनहले पालने में लाकेट बन झूलते त्रिपुरारी
रोज लड़ते हैं उसके लिए दंगल |
रक्षासूत्र बन कलाईयों पर लिपटे
सत्यनारायण भगवान ,
मोबाइल में वाल पेपर बन
चीरते हैं सीना पवनसुत हनुमान ,
और बजते हैं फोन आने की धुन में
ओम् साईं , ओम् साईं, ओम् साईं राम |     
सुबह का बिलानागा एकघण्टा
धरती के गर्भ से पूजाघर में कैद
देवताओं के लिए ,
वों दौड़ता है नंगे पांव प्रतिवर्ष दरबार में
वैष्णवी जैसी माताओं के लिए |
प्रत्येक सावन में अखण्ड हरिनाम जाप ,
पूर्णाहुति पर होती है कथा
सब माया है , कैसा शोक ? कैसा संताप ...?

ये तो चन्द उदाहरण भर हैं
उसकी अगाध आस्था को देखने-सुनने के
पकड़ पाया मैं मतिमंद जिसे आधे-आधे में ,
हरि से जुड़े रहने की यह कथा
लगती अनन्त है हरि जितनी ही
अभिवादन का जवाब भी जब वह
देता है राधे-राधेमें |
तो कौन मानेगा कि जाँत रखकर
समाज की छाती पर प्रतिपल
यह मूंग भी दलता होगा ,
करता होगा ताण्डव नृत्य उसके कपाल पर
धन सत्ता और ऐश्वर्य के शिखर को चूमने के लिए
नैतिकताओं को चुटकियों से मसलता होगा |

अरे ठहरो ....!
भ्रम में वह नहीं हम हैं ,
कि होते हैं घटित कल्पित सिद्धांत भी
कार्यकारण और कर्मफल जैसे
जबकि जानता है जगत
बात बिलकुल बेदम है |
तभी तो इतने सारे ईश्वर भी मिलकर
नहीं बना सकते उसे एक अदना सा इन्सान ,
और न ही तमाम धर्मग्रन्थों में
बिन्दुओं की औकात रखने वाले
आतताइयों जितना ही
निर्धारित कर सकते हैं उसके लिए
कोई भी दण्ड विधान |                                                   
*** 

बिजूका

अपने कोने-अँतरों से निकलकर
वे पहुँचे थे मन्त्रों और
मुहावरों वाली दुनिया में हमारी ,
सामना हुआ उनका
हमारे समय की चमकती चीजों से
निकली आह ..! लम्बे शोध के बाद
यह कैसी दुनिया है तुम्हारी ..?

है यह एक जुआखाना ,
जिसने एक बार खेला लत लग गयी
लाख समझाता रहे जमाना |
और परिणाम तो पता ही था
दो चार की जीत , अधिकांश की हार
परन्तु हारने वाले इस आशा में
कि यह नहीं तो अगली
या इस नहीं तो उस जनम में
करेंगे जरूर बाजी का दीदार |

और डाकू
लगा दिया कनपटी पर आस्था का तमंचा
खत्म हुआ सोचना ,
उतरवा लिया दिल में रखी आत्मा
मस्तिष्क में रखा विवेक
और जेहन में रखी चेतना |

और पुजारियों का कर्जदार
जो हो चुका है अब कंगाल
लोगों से लेकर इनका उतार रहा है
पता नहीं उनकी इच्छा का कब रखेगा ख़याल ?

और दुनिया का सबसे बड़ा नियोजक
लघु कुटीर और भारी उद्योगों को
एक साथ संचालित करता जाए ,
मुनाफे की सुनिश्चित गांरटी जिसमे
और भविष्य में अपार सम्भावनाएँ |

और धोबी घाट
जहाँ कोई भी आततायी
अपने ऊपर लगे खून के धब्बे को
एक कथा सुनने का ढोंगकर धो डाले ,
कैसा पाप ? कैसा पुण्य ..?
वह अगली हत्या की निरापदता का
आशीर्वाद भी पा ले।

और प्रदर्शनी
जहाँ कोई भी मदान्ध आकर
अपने ऐश्वर्य का नंगा नाच कर जाए ,
कहलाने लगे वही दानवीर
जो चन्द मुहरों का तमाचा जड़ जाए |

और बिल्डरों का लठैत
जो सार्वजनिक स्थलों को कब्जियाता है ,
और पूरा गांव मोहल्ला
किसी बहरे की सनक का शिकार बन
सारी रात तारे गिना किरता है |

भनक लगी हमारी दुनिया को
मिला जब शोध पत्र
औरकी श्रृंखलाओं वाला ,
सब हँसे उन पर
चरितार्थ हुआ किस्सा
अन्धों के गाँव में हाथी वाला |

“तो क्या यह तुम्हारा आराध्य है ?”
वे ठठाकर हँसे
“ये तुम्हारा साध्य है ?”
चारे को बंशी में नाथने से
फँस तो सकती है मछलियाँ ,
माटी को उर्वर नहीं बनाया जा सकता
जानती समझती है दुनिया |
उसी तरह आत्मा से खदेड़कर
मूर्तियों में बिठाया गया ईश्वर
संभव है मुनीमगिरी जमा ले ,
परन्तु अशरफियों को गिनने वाली उँगलियाँ
नहीं रह पाती इतनी ताकतवर
गोवर्धन को उठाकर वे ईश्वर का दर्जा पा ले |

अपने फैलते जा रहे पेट को भरने के लिए तुम
समाज के खेत में धोखे की फसल उगाते हो ,
काटते हो सुविधानुसार
और उसी का गीत गाते हो |
सब जानते हैं जिसकी रखवाली में तुमने
एक बिजूका गढा है ,
इन लहलहाती फसलों के बीच जो
आराध्य के नाम से
तुम्हारी चाकरी में खड़ा है |
***

शिशु खारिज
(ब्रेख्त को याद करते हुए)
                                   
सबसे पहले वे                         
मेरी कविता के लिए आये ,
यह सोचकर कि कोई आत्ममुग्ध ना कह दे
मैंने आदर किया          
उनके लिए आसन भी बिछाए   |

फिर वे
कविता की विधा के लिए आये ,
मैं एक खारिज आदमी
उन्हें रोकने में कितना दाखिल हो सकता था
कोई मुझे बतलाये  ?

और फिर
उनके हाथों का खारिजी फन्दा
साहित्य की गर्दन पर कसता रहा ,
मैं बेबस सिवान बदर
डँडार पर खड़ा पैमाईश देखता रहा |

अब काम पूरा हुआ समझना
मेरी भूल थी ,
उनके खारिजी अश्वमेघ का घोड़ा
सारी रचनात्मक विधाओं को
एक-एक कर रौंदता रहा
चहुंदिस गुबार था, धूल थी |

   सोचता हूँ
   उस ‘शिशु ख़ारिज़’ के सामने
   तन कर खड़ा हो गया होता ,
   तो उसी पल उसी जगह
   वही ख़ारिज़ हो गया होता   |
***

तैयारी

राम हों या मोहम्मद
ईसा हों या बुद्ध
जीवन तो सबके साथ ऐय्यारी करता रहा ,
इम्तिहान भी सबका होता है इस पाठशाला में
इसलिए वह सदा तैयारी करता रहा  |

चहुँदिस उठता कोलाहल
कैसे पहुँचे उस तक कोई पुकार ,
निकालता खोंट कानों से , क्या पता
साथी ने लगाई हो आवाज , उसे डूबते हुए मजधार |

व्यवस्था के साथ सड़ने लगे हैं विचार भी
बची कौन सी जगह जो न बजबजाती हो ,
सोचकर छिनकता है नाकों को
आये तो पकड़ में वह दिशा
आदमियत की गन्ध जिधर से आती हो  |

जाँगर के पसीने से बहाता मैल को
इस त्वचा को जिसने जकड़ी है ,
जान सके अँधेरे में भी वह
वैतरणी पार करने के लिए उसने
गदहे या गाय की पूंछ पकड़ी है |

क्यों टपकाए लार
हर आती जातियों पर
सोचकर पर - दुखों से उसे मिलाता है ,
उतरता रहे अमृत का स्वाद
जीभ से होकर आत्मा तक
रास्ता सबको वह दिखाता है |

किसी भी आँधी से पैदा हुई धूल को
अपनी आँखों के पानी से साफ करते रहने की ,
सो सके निश्चिंत होकर वह
इनमे तैर सकेंगे अब
पुतलियों के साथ-साथ समाज के सपने भी |

अन्यथा वह तो जानता ही था
कि काई लगी इन्द्रियाँ
जीवन की परीक्षा में पूछे गये प्रश्नों को
समझ तक नहीं जायेंगी ,
और घण्टी बजने की आपाधापी में
आत्मा के पन्नों पर
माफ़ीनामा की इबारत लिख आयेंगी |

फिर कापी जाँचनेवाले
उस दयालु परीक्षक के पास देने को
सिफर के अलावा कौन सा अंक बचेगा ?,
और उसके अँधेरे समय पर इतिहास
चाहकर भी कितना उजाला रचेगा   ?...
***

नाम -  रामजी तिवारी 
शिक्षा -  स्नातकोत्तर (राजनीति विज्ञान)
सम्प्रति- भा.जी.वी.निगम में कार्यरत 
प्रतिष्ठितपत्र-पत्रिकाओ में
कविताएं ,कहानियां ,समीक्षाए और लेखप्रकाशित..
मो. न. 09450546312         
ब्लाग- sitabdiyara.blogspot.in 


प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं

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प्रेमचंद गांधी
जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्‍मे सुपरिचित कवि प्रेमचंद गांधी का एक कविता संग्रह ‘इस सिंफनी में’ और एक निबंध संग्रह ‘संस्‍कृति का समकाल’ प्रकाशित है। कवि ने कविता के बाहर भी समसामयिक  कला और संस्‍कृति के सवालों पर निरंतर लेखन किया है। कई नियमित स्‍तंभ लिखे। सभी महत्‍वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इनकी उपस्थिति रही है। कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान मिला।  विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की। कुछ नाटक भी लिखे, साथ ही टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया। दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा की, जिसका विवरण छपा और चर्चित हुआ है।

प्रेमचंद गांधी ने इधर काफ़ी प्रेम कविताएं लिखीं हैं और इन कविताओं का संग्रह जल्‍द छप रहा है। इधर के समय में प्रेम कविताओं के कुछ संग्रह आए हैं - मुझे हरि मृदुल, दुश्‍यन्‍त और जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव के नाम तुरत याद आ रहे हैं। हमारे युवा कवियों ने लगातार प्रेम कविताएं लिखीं, जिनमें गीत चतुर्वेदी और व्‍योमश शुक्‍ल का लिखा मेरी स्‍मृति में है। प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं भी इधर लगातार छप रही हैं। 

प्रेमचंद गांधी की प्रेम कविताएं एक ख़ास उम्र में सामने आ रही हैं, जिसे हम एक हद तक तपी और पकी हुई उम्र कह सकते हैं ... वरना तो एक प्रचलित धारणा रही है कि प्रेम कविताएं नई उम्र में लिखीं जातीं हैं और बाक़ी की उम्रों में स्‍मृति की तरह पढ़ी जातीं हैं। समकालीन हिंदी के कविता के हमारे अग्रजों में चन्‍द्रकांत देवताले और वीरेन डंगवाल ने हर नई-पुरानी उम्र में प्रेम कविता सम्‍भव की है और मुझे ख़ुशी है कि प्रेमचंद गांधी का नाम लगभग इसी सिलसिले को आगे बढ़ा रहा है। प्रचलित रूढ़ियों से परे इन कविताओं में प्रेम कई जानी-अनजानी दिशाओं में सम्‍भव हुआ है। अपनी बाक़ी बातें आनेवाले इस संग्रह के लिए सहेजकर अनुनाद पर इन कविताओं पर टिप्‍पणी करने का काम मैं अपने सुधी पाठकों पर छोड़ता हूं और इस पोस्‍ट के लिए अग्रज-मित्र कवि प्रेमचंद गांधी को शुक्रिया कहता हूं।    
***
सल्‍वाडोर डाली का प्रख्‍यात चित्र : तितली का भूदृश्‍य (गुगल इमेज से साभार)

संभावना की तरह मिलना

यह भी तो बसंत ही है
जिसमें हम मिले हैं
तमाम दूरियों के बावजूद
मैंने सिर्फ नाम से पहचाना तुम्‍हें कि
वही हो तुम
जिसकी तलाश थी मुझे
क्‍योंकि तुम्‍हारे नाम में ही छिपा था
वह अद्भुत तत्‍व
जो मैं पाना चाहता था बरसों से
तुम आईं मेरे जीवन में ऐसे
रेगिस्‍तान में आती है बारिश जैसे
पहला परिचय था नाम से हमारा
तुमने भी कैसे जाना होगा कि
सृष्टि में हमारा होना
सृष्टि की जरूरत है
जब सब तरफ खत्‍म हो रही थीं उम्‍मीदें
हम मिले
एक संभावना की तरह
यह मिलन महज संयोग नहीं है।
*** 

तुम्‍हारा आना

जैसे कोई नया बिंब
कविता में चला आये खुद-ब-खुद
शब्‍दों को नये अर्थ देता हुआ

जैसे कोई अकल्‍पनीय शब्‍द आये और
लयबद्ध कर दे पूरी कविता को
आंसू में नमक की तरह

असंख्‍य शब्‍दों की मधुमक्खियां
रचती हैं मेरी कविता
पता नहीं जीवन के कितने फूलों से
चुन कर लाती हैं वे रस
तुम्‍हारे आने और होने से ही
व्‍यापती है इसमें मिठास

मेरे मन के सुंदरवन में
नदी-सी बहती हो तुम
कामनाओं का अभयारण्‍य
तुम्‍हारे ही वजूद से कायम है

तुम्‍हारा होना
जैसे कविता में बिंब और शब्‍द
आंसू में नमक
शहद में मिठास
जंगल में नदी
जीवन में प्रेम।
*** 

प्रेम के दिन

कुछ तो अलग होते ही हैं
जब आसमान धरती के
इतना नजदीक आ जाता है कि
आप मनचाहा सितारा तोड़कर
प्रिय के बालों में लगा सकते हैं
फूल की तरह
और फूल तो खुद-ब-खुद
रास्‍तों में बिछे चले जाते हैं
चुंबनों की तरह

उन दिनों संकरी-तंग गलियों में भी
खिलने लगते हैं खुश्‍बू के बगीचे
लगातार चौड़ी होती सड़क के
बचे-खुचे पेड़ों पर परिंदे
बना लेते हैं घोंसले

बिना हील-हुज्‍जत के
खाकी वर्दी वाले कारिंदे
मामूली आदमी को बना लेने देते हैं
चौराहे पर कमाई का ठीया

एक मालिन बेचती है
नेता और देवताओं के लिए फूलमालाएं
प्रेमियों के लिए गुलाब मुफ्त देती है

अखबारों में न खबरें होती हैं
न ही विज्ञापन
ताजमहल,निशातबाग और
बेबीलोन के झूलते हुए बगीचों के साथ
संसार के सर्वाधिक सुंदर उद्यानों की तस्‍वीरें होती हैं वहां
टीवी के तमाम चैनल
खामोशी के साथ दिखाते हैं
प्रेम कथाएं और प्रेमगीत

सरकारें कूकती कोयल की तरह
चुपचाप पास कर देती हैं
प्रेम के समर्थन में सारे कानून
कहीं कोई विरोध नहीं होता

ऐसे दिन
इस पृथ्‍वी पर
नहीं हैं अभी
लेकिन कामना करने में क्‍या हर्ज है।
*** 

तुम्‍हारे बिना एक दिन

उदास राग में बजती सारंगी की तरह
गुजर जाता है एक दिन
जिसे अकेला सारंगीनवाज
किसी कब्रिस्‍तान में एक सूनी मजार पर बजाता है
बिना किसी साजिंदे के

कोई नहीं आता जैसे उजाड़ कब्रिस्‍तान में
न फातेहा पढ़ने ना फूल चढ़ाने
ऐसा भी होता है कोई एक दिन

यह तन्‍हाई का उर्स है
आंसुओं के आब-ए-जमजम से सराबोर
दिल की हर धड़कन गाती है
किसी की शान में नात
दर्द का रेला है जायरीनों जैसा
ज़ख्‍म हैं मेरे कि
फकीरों की लूटी हुई देग

किसके लिए गाते हो प्रेम
दीवानों की तरह
सुना है कोई मूरत ही नहीं
इस सनमखाने में।
*** 

टंगी हुई चीजों के बीच

एक ही खूंटी पर गुत्‍मगुत्‍था हैं
जींस और सलवार
बोसीदा कमरे में यह इकलौती खूंटी
राधाकृष्‍ण की तस्‍वीर और
सरकारी कैलेंडर की तारीखों में
दूध का हिसाब समेटे
लरजती है गुरुत्‍वाकर्षण में

टांगे जा सकने वाला
बहुत-सा सामान है
इस छोटे-से कमरे में
मसलन कुरता और कमीज
जो फर्श के बिस्‍तर पर
सिमटे हैं पूरी जल्‍दबाजी में
सिरहाने के पास
खादी का एक झोला
खिड़की के पास फर्श पर रखे
स्‍टोव पर टिका है अखबार बिछाकर और
थाम रखा है हिफाजत से
लेडीज पर्स को उसने

यूं तो उस तस्‍वीर को भी
दीवार पर टंगा होना चाहिए
जो खिड़की के नीचे बने ताक में
मसालों और रसोई के सामान के बीच
एक युवा दंपति की मुस्‍कान बिखेर रही है

छोटे-से बिस्‍तर पर बिछी
इस चादर को धुलने के बाद
अलगनी पर टंगा होना चाहिए था
जिसे एक बार उल्‍टा कर
फिर से बिछा दिया गया है

एक सूटकेस पर दो बैग
उन पर एक कंबल और रजाई
फिर उन पर कपड़ों की एक ढेरी
यानी बहुत-सी ऐसी चीजें
जिन्‍हें दीवार पर टंगा होना चाहिए

यूं हर दीवार पर ढेरों निशान हैं
जीवन में बहुत गहरा धंसने की इच्‍छा के साथ
खूंटी ठोकने की कोशिशों के, लेकिन
दुनिया की दीवारें कहां पैबस्‍त होने देती हैं
एक सामान्‍य आदमी को
इसलिए वह कीलों को मोड़ देती है
मुड़ी हुई कीलों की तरह
अपने ही भीतर धंसते दो प्राणी
सिमटे हुए हैं इस बिस्‍तर पर
एक ही चादर के भीतर
कमरे में जिस तरह सामान
एक के ऊपर एक रखा है
यूं लगता है जगह सिर्फ दीवार पर बची है
क्‍या इन दो युवाओं को भी
दीवार पर नहीं होना चाहिए
अपना एक निजी स्‍पेस बनाते हुए।
***

एक सरल वाक्‍य

एक सरल वाक्‍य के सहारे
न जाने कितने बीहड़ों में चला जाता हूं
भाषा की दुरुह पगडंडियों पर चलते हुए
एक सरल वाक्‍य तक आता हूं
इस जोखिम भरे समय में
जब साफ-साफ कुछ भी कहना
खतरे से खाली नहीं
हर बात के हजार मतलब हैं
कोई भी वक्‍तव्‍य गैर-राजनैतिक नहीं
मैं मनुष्‍य के मन की
सबसे गहरी राजनैतिक बात कहता हूं
मैं तुम्‍हें प्‍यार करता हूं
यानी एक सीधा-सरल वाक्‍य लिखता हूं।
***

तुम्‍हारी अनुपस्थिति में

रोज़ सुबह निकलता हूं घूमने के लिये
मैं हवा की हथेलियों पर
लिखता हूं तुम्‍हारा नाम और
गहरी सांस लेता हूं
हवा मुझे दुलराती है
थपकियां देती है
तुम्‍हारे नाम के अंतरिक्ष में
बांहें फैलाता हूं मैं और
खुद को भूल जाता हूं
तुम्‍हारे नाम की पृथ्‍वी पर घूमता हूं मैं
और लिपट-लिपट जाती है पृथ्‍वी मुझसे
एक दिन मैं इसी में विलीन हो जाउंगा
मेरा नाम तुम्‍हारे नाम में घुलता चला जायेगा
जिंदगी का एक नया सफहा खुलता चला जायेगा।
*** 

आंसुओं की लिपि में डूबी प्रार्थनाएं

सूख न जायें कंठ इस कदर कि
रेत के अनंत विस्‍तार में बहती हवा
देह पर अंकित कर दे अपने हस्‍ताक्षर
सांस चलती रहे इतनी भर कि
सूखी धरती के पपड़ाये होठों पर बची रहे
बारिश और ओस से मिलने की कामना
आंखों में बची रहे चमक इतनी कि
हंसता हुआ चंद्रमा इनमें
देख सके अपना प्रतिबिंब कभी-भी

देह में बची रहे शक्ति इतनी कि
कहीं की भी यात्रा के लिये
कभी भी निकलने का हौसला बना रहे
होठों पर बची रहे इतनी-सी नमी कि
प्रिय के अधरों से मिलने पर बह निकले
प्रेम का सुसुप्‍त निर्झर।
***

तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर

फूलों की घाटी में
प्रकृति ने आज ही खिलाये होंगे
सबसे सुंदर-सुगंधित फूल
आसमान के आईने में
पृथ्‍वी ने देखा होगा
अपना अद्भुत रूप

पक्षियों ने गाये होंगे
सबसे मीठे गीत
तुम्‍हारी पहली किलकारी में
कोयल ने जोड़ी होगी अपनी तान
सृष्टि ने उंडेल दिया होगा
अपना सर्वोत्‍तम रूप
तुम्‍हारे भीतर
आज ही के दिन
कवियों ने लिखी होंगी
अपनी सर्वश्रेष्‍ठ कविताएं
संगीतकारों ने रची होंगी
अपनी सर्वोत्‍तम रचनाएं
आज ही के दिन
शिव मुग्‍ध हुए होंगे
पार्वती के रूप पर
बुद्ध को मिला होगा ज्ञान
फिर से जी उठे होंगे ईसा मसीह
हज़रत मुहम्‍मद ने दिया होगा
पहला उपदेश।
***

बारिश में प्रेम

भंवरे को कमल में क़ैद होते
मैंने नहीं देखा
एक अद्भुत लय और ताल में बरसती बारिश
और धरती के बीच
तुम्‍हारा-मेरा होना
जैसे समूचे ब्रह्माण्‍ड के
इस अलौकिक उत्‍सव में शामिल होना

हमारी तमाम इंद्रियों को झंकृत करता
यह बरखा-संगीत
गुनगुना रही है वनस्‍पति
हवा के होठों पर
बूंदों की ताल पर
रच रहा है क़ुदरत की हर शै में
हमारे सिर पर आसमान
पैरों में पहाड़
बरसता जल हमारे रोम-रोम से गुज़रता
पहाड़ से नदी, नदी से सागर जायेगा
अगले बरस हमें फिर नहलायेगा
आओ
अब सम पर आ चुकी है बारिश
हम कामना करें
अगले बरस जब बरसे पानी तो
उसमें आंसुओं का खारापन न हो
और न हो ऐसी बारिश
जो आंखों से भी बहती देखी जा सके
लो अब रवींद्र संगीत में
डूबती जा रही है बारिश

ध्‍वनिल आह्वान मधुर गम्‍भीर प्रभात-अम्‍बर माझे
दिके दिगन्‍तरे भुवनमन्दिरे शांति-संगीत बाजे। *
* कविगुरु रवींद्र नाथ टैगोर की काव्‍य-पंक्तियां
***  

आवाज़

वह आई और कानों के रास्‍ते
रोम-रोम में व्‍याप गयी
उसे अपने भीतर मैं महसूस करता हूं
सांस और लहू की तरह

उसके आने का कोई तय वक्‍त नहीं
कभी वह मरुस्‍थल में भटके मेघ-सी आती है
तो कभी चूजों को दाना-पानी देती
चिडि़या की तरह बार-बार
वह जब भी आती है
नये रूप में आती है
एक पुराने दोस्‍त के यक़ीन जैसी
खिलखिलाती हुई अल्‍हड़ हंसी जैसी
उसका कोई मुकम्मिल चेहरा नहीं
बच्‍चे के स्‍वप्‍न में उड़ती
सफ़ेद परी-सी है वह
या चांद-सितारों की मनभावन
रोशनी जैसी कुछ-कुछ या
फूलों के खिलने पर मुस्‍कुराती क़ुदरत जैसी
मैं उस आवाज़ का चेहरा
कभी नहीं बना सकूंगा
ऐसा लगता है जैसे वह
किसी और की नहीं
मेरी ही आवाज़ है
कहीं और से आती हुई।
***

दर्द बांटता हूं

तुम्‍हें चोट लगी है
मैं दुखी हूं बहुत
मुझे होना चाहिये था वहां
तुम्‍हारे साथ
तुम्‍हें संभालने के लिए
ग़र हम साथ होते तो
तुम इस तरह बेध्‍यान नहीं होती
मेरे ख़यालों में
सुनो
जहां लगी है चोट तुम्‍हें
वहीं मुझे भी दर्द होता है
मैं दर्द बांटता हूं
तुम प्‍यार बांटते रहना।
***

प्‍यार की पीली धूप में

कोहरे में लिपटी हुई सुबह
जैसे तुम्‍हारे चेहरे पर गेसू
यह सिंदूरी सूरज
तुम्‍हारे माथे की बिंदिया-सा
ये उड़ान भरते परिन्‍दे
तुम्‍हारी आंखों में तैरते शरारे जैसे
सर्दियों की यह कंपकंपाती हवा
जैसे तुमने बुदबुदाया हो
नींदों में मेरा नाम
कांपते होठों से बेआवाज़

हमारे प्‍यार की पीली धूप है यह
हम दोनों को गरमाती हुई
तुम बैठो यहां
सूरज की सुनहली किरणों के शामियाने में
मैं तुम्‍हारे लिए चाय लाता हूं।
***

तुम्‍हें भूलता हूं

सब कुछ याद करके
तुम्‍हें भूलता हूं मैं
जैसे चन्‍द्रमा भूलता है
अमावस के दिन धरती को
सूर्यग्रहण के दिन जैसे
परिन्‍दे भूल जाते हैं
समय की चाल को
तुम्‍हारी खिलखिलाहट को याद कर
तुम्‍हें भूलता हूं मैं
जैसे पूनम की रात समन्‍दर भूल जाता है
शान्‍त रहने का सलीका
तुम्‍हारे तोहफों को खोलता हूं मैं
स्‍मृतियों को आंसुओं में घोलता हूं मैं
इस तरह भूलता हूं मैं तुम्‍हें जैसे
दिगम्‍बर होने की प्रक्रिया में
महावीर भूल गये होंगे वसन
समय का चाकू छीलता है मेरा वजूद
तुम्‍हारी बतकहियों के तारों में झूलता हूं मैं
तुम्‍हें इस तरह भूलता हूं मैं
जैसे सुबह का तारा भूल जाता है
बाकी तारों के साथ घर जाना
जैसे झुण्‍ड का आखिरी पशु
भूल जाता है सबके साथ जाना
मेरी आदतों में शुमार हो तुम
इसलिये चाहता हूं भूल जाना तुम्‍हें
सिगरेट की तलब की तरह
पुश्‍तैनी आस्‍था में
थाली का पहला कौर
अलग रखने की तरह
सत्‍तू में चीनी घोल कर
नमक के पुराने स्‍वाद की तरह
तुम्‍हें भूलता हूं मैं

कुछ नहीं बोलता हूं मैं
नहीं कुछ सोचता हूं मैं
तुम्‍हारे बारे में
ख़ुदी को मुल्जिम और मुंसिफ़ मान कर
तौलता हूं मैं
यादों की बामशक्‍कत क़ैद की सज़ा देकर
तुम्‍हें भूलता हूं
मत कहना अब किसी से कि
तुम्‍हारी आंखों में
डबडबा आये आंसू की तरह
झूलता हूं मैं।
***

कुछ देर के लिए

कुछ देर तो कोहरा भी
सूरज को छुपा देता है
बादल भी चांद-सूरज को
अपने आगोश में लेते हैं
तूफानी हवाएं समन्‍दरों को
मथ डालती हैं
आंधियां उड़ा ले जाती हैं
बड़ी से बड़ी चीजों को अपने साथ

कुछ देर के लिए तो
चींटियां भी लिये जाती हैं
अपने से ज्‍यादा वज़नी
कीट-पतंगों की लाश को

ज़रा देर के लिए तो 
मज़बूत से मज़बूत इन्‍सान भी रो देता है
किसी मज़बूरी या मुसीबत में
कुछ देर तो कमज़ोर से कमज़ोर
आदमी के पास भी आ ही जाती है
महाबली जैसी शक्ति
अपने साथ घोर अन्‍याय के खिलाफ़

कुछ वक्‍त के लिए तो
विदूषक भी हो जाते हैं
महान राष्‍ट्रनायक और नायक विदूषक
कुछ देर तो बारिश में उड़ते कीट-पतंगे भी
जीना मुहाल कर देते हैं हमारा

कुछ समय के लिए तो
निरीह स्‍त्री भी बन जाती है शेरनी
दुष्‍कर्मी पुरुष के आगे
मासूम बच्चियां भी ताड़ लेती हैं
लोलुप निग़ाहों की दाहक वासना को
समय की अनन्‍त आकाशगंगा में
कुछ देरनाम का सितारा
तैरता रहता है अहर्निश
किसी परिन्‍दे के टूटे पंख की तरह

आओ प्रिये,
जहां ज़रूरी हो वहां
इस कुछ देरको स्‍थायी कर दें
और जहां ग़ैर-ज़रूरी हो
वहां से हटा दें
आखिर काल का प‍हिया
हमारे ही हाथों में है
तुम हांको रथ काल का
मैं इस पहिये को निकालता हूं
जो नियति के गड्ढ़े में धंस गया है
कुछ देर के लिए। 
*** 

आसान नहीं विदा कहना - केशव तिवारी

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अपने जनपद का पक्षी विश्‍व गगन को तोल रहा है... 


गद्य के इलाक़े में मेरी यात्रा अभी शुरू ही हुई और इस शुरूआत में मैंने कुछ समीक्षात्‍मक - संस्‍मरणात्‍मक लेख लिखे हैं, जिनका एक संग्रह उपलब्‍ध है। अब तक मैंने जिन भी कवियों पर लिखा, उनके कविकर्म को देखूं तो तुरत अहसास होता है कि केशव तिवारी पर लिखना निश्चित रूप से अलग होगा। ऐसा अहसास मुझे इससे पहले सिर्फ़ हरीशचन्‍द्र पांडे की कविता पर लिखते हुए हुआ है। केशव तिवारी की कविता में उपस्थिति, कुछ अपनी शान्‍त गति और इधर हिंदी में हो रही आलोचना की कुछ दुर्गति के कारण उस स्‍तर पर रेखांकित नहीं हो पायी है। ऐसा नहीं है कि केशव तिवारी पर बिलकुल ही लिखा नहीं गया... लिखा गया है पर उसमें लोक, गांव-जवार, खांटी देशजता आदि के उल्‍लेख इतने अधिक हैं कि आधुनिकता और उस पर आसन्‍न सामाजिक-राजनीतिक संकटों का सामना करने की कसौटी पर केशव के लिखे का मूल्‍यांकन हो ही नहीं पाया। इस सत्‍य को स्‍वीकारने का समय आ गया है कि गांव पर लिखी कविता भी जितना नागरिक जीवन में पढ़ी जाती है, उतना ग्रामीण जीवन में नहीं। ग्रामीण जीवन का असली साहित्‍य तो अपनी ही कुछ परम्‍पराओं और बोली-बानियों में है। फिर देखना होगा कि गांव भी वही नहीं रहे जो कुछ बरस पहले तक थे। लोक की गरिमा गिरी है और उसे महज कुछ पेड़ों, फूलों, ऋतुओं, गंवई शब्‍दों के इस्‍तेमाल, भूगोल-विशेष के बनावटी चित्रण आदि से नहीं बचाया जा सकता।
***
मार्मिकता एक मूल्‍य होता था लोकधर्मी कविता का... वह खोता-सा गया है। बदलाव के नाम पर फूहड़पन पसरने लगा है। गांव-गांव में मोबाइल फोन है... और उस पर गीत-संगीत का विकट वीभत्‍स भंडार है। पहले हम कविता में आ रहे लोकदृश्‍यों में बिंध कर रह जाते थे... अब उसे एक विवरण की तरह पढ़ते हैं। लोकधर्मिता के नाम पर दरअसल अब कुछ पुरास्‍मृति के बिम्‍ब वास्‍तव में घटित होते दिखाए जा रहे हैं कविता में। जो नष्‍ट हो रहा है, उसके वास्‍तविक प्रमाण नहीं मिल पा रहे। ऐसे में केशव तिवारी की कविताएं बहुत हद तक वर्तमान का सामना करती हैं। वे नष्‍ट होते हुए को कोशिश भर सहेजती हैं, उसके दस्‍तावेज़ बनाती हैं और नष्‍ट करने वाली ताक़तों की शिनाख्‍़त भी करती हैं।
***
लोकजीवन में जो कुछ भी नष्‍ट हुआ या हो रहा है, उसमें सभी कुछ अच्‍छा नहीं था। लोकजीवन में विकट सामन्‍ती तत्‍व थे, धार्मिक आडम्‍बर थे, छुआछूत और तमाम तरह के भेदभाव थे...आधुनिक भावबोध ने उन्‍हें नष्‍ट किया है तो यह सार्थकता है उसकी। लेकिन लोक में जीवट है, सताए हुओं की बद्दुआ है, मनुष्‍यता के लिए लड़ने के उदाहरण है, धरती और पर्यावरण को इस्‍तेमाल करने का एक सलीका है... यह सब किसी भी क़ीमत पर बचाया जाना चाहिए। इधर मैं देख रहा हूं कि लोकधर्मी कहलाए जाने वाले कुछ युवा कवियों में लोक तो बहुत लदा हुआ है पर उसे व्‍यक्‍त करने की सही राजनीति और विचारधारा से उनकी कोई निकटता धरातल पर नहीं दिखती। ऐसे कवियों से विनम्र स्‍वर में कहना चाहूंगा कि केशव तिवारी का नाम और काम एक अनूठा उदाहरण है, राजनीति और विचारधारा के इस सन्‍दर्भ में। उनकी बहुत खुलकर सांस लेती वामपंथी राजनीति और वैचारिकी है, जिससे उनकी कविता को ज़रूरी औज़ार मिलते हैं – इस अर्थ में यह कवि एक प्रेरणा हो सकता है।    
***
केशव तिवारी का पहला संग्रह मैं नहीं देख पाया हूं पर उनका पतला-सा दूसरा संग्रह ‘आसान नहीं विदा कहना’ मेरे सामने है, जिसमें कविताओं की संख्‍या भले कम हो पर प्रगतिशील वैचारिकी को विस्‍तार देता अनुभव संसार भरपूर है। मैंने इस लेख को जो शीर्षक दिया है, वो ‘तिरलोचन’ के लिए लिखी कवि की इन पंक्तियों से लिया है –

अपने जनपद का पक्षी वह
विश्‍व गगन को तोल रहा है

केशव तिवारी की कविताओं से गुज़रते हुए भी ये अहसास बना रहता है। वे वैश्विक संकटों के प्रति सजग कवि हैं और कविता में अपने हथियारों के साथ उनका सामना करते हैं। नई अवधारणाओं ने समस्‍याओं के हल निकालने के नाम पर बहुत चतुराई से पूंजी के वर्चस्‍व और नवसाम्राज्‍यवाद के हित में नए खेल किए हैं। केशव तिवारी की मर्मबेधी दृष्टि उन पर बनी हुई है –

यह वक्‍़त ही
एक अजीब अजनबीपन में जीने
पहचान खोने का है
पर ऐसा भी हुआ है
जब-जब अपनी पहचान को खड़ी हुई हैं कौमें
दुनिया को बदलना पड़ा है
अपना खेल

ध्‍यान देना होगा कि केशव तिवारी की कविता में आने वाली यह कौमें, नस्‍लें और क़बीले नहीं हैं ... अपने-अपने भूगोल और संस्‍कृति में आबाद एकजुट मनुष्‍य हैं। जिसे दुनिया कहा गया, वो हमारे वक्‍़त की अकादमियां हैं...जहां से ज्ञान के साथ-साथ षड़यंत्रों और दुश्‍चक्रों का भी फैलाव होता रहा है.. और यह होना जारी है, साथ ही जारी है उनकी शिनाख्‍़त भी।
***
केशव तिवारी की कविताओं में लोक क्‍या है .... वह दरअसल बंधन से अधिक एक अतिक्रमण है। लोक की बात करते हुए उसे अपने साथ लिए बाहर की दुनिया में उसका हित-अहित दिखाने का हुनर इस कवि में है। उदाहरण के लिए एक कविता है यहां ‘डिठवन एकादशी’ नाम से। यह एक लोक-परम्‍परा के बारे में है, जिसमें इस ख़ास दिन गांव की ग़रीब मेहनतकश औरतें मुंह अंधेरे उठकर गन्‍ने के टुकड़े से सूप पीट-पीट का अपने चौतरफ़ा फैले दरिद्दर को गांव के बाहर खदेड़ने का उपक्रम करती हैं, लेकिन –

यह एक रस्‍म बन गई है धीरे-धीरे
ये जान चुकी हैं
कि इस तरह नहीं भागेगा दलिद्दर
लेकिन उसे भगाने की इच्‍छा
अभी बची है इनमें

ये स्त्रियां उसी ‘जन’ की प्रतिनिधि चरित्र हैं, जिसे हमने नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार की कविता में लगातार लड़ते-भिड़ते देखा है – जिसमें जीवन को बदलने की इच्‍छा बची है अभी और कई कड़ी मारों के बावजूद जीवट भी। इसके बाद कविता उस दिशा में मुड़ती है, जिसे मैंने अभी अतिक्रमण कहा -    

ये जान नहीं पा रही हैं
आखिर दलिद्दर टरता क्‍यों नहीं
ये नहीं समझ पा रही हैं
कि कुछ लोग इसी के बल जिन्‍दा हैं
उनका वजूद
इनकी भूख पर टिका है
जिसे गन्‍ने से सूप बजाकर
खदेड़ा नहीं जा सकता

जिस दिन इस रस्‍म में
छिपे राज को ये समझ जाएंगी
इस दिन से इनके जीने की
सूरत भी बदल जाएगी।

यहां केशव लोक से आई एक रस्‍म का जिक्र करते हुए उस लोक और उसमें रहनेवाली उन स्त्रियों का दैन्‍य भर नहीं दिखाते, उस रस्‍म–विशेष के राज़ को समझते हुए ‘कुछ लोगों’की निशानदेही करते हैं। समझ पाना मुश्किल नहीं कि ये उंगली कवि के अपने इलाक़े बुन्‍देलखंड में अब भी व्‍याप्‍त उस अलक्षित-सी सामंतशाही की ओर उठी है, जो ख़ुद परम्‍परा में लोक का एक अंग रही है। केशव, केदार के जनपद के कवि हैं। उन्‍होंने केदार से धरती ही नहीं, विचार भी साझा किया है.... इस कविता में वे इसी साझी विचारधारा के साथ यह अतिक्रमण इसलिए करते हैं कि लोक में किसी तरह वर्ग की समझ जागे। केदारनाथ अग्रवाल ने जीवन भर यह प्रयास किया और अब कितनी ख़ुशी की बात है कि इस विरासत को समझने-सम्‍भालने वाला एक और कवि उसी धरती पर कर्मरत है, उसी विचार के साथ। इस बात को स्‍वीकारने में कोई उलझन नहीं होनी चाहिए कि वर्ग और वर्ग-संघर्ष की समझ के बिना लोक और लोक-संघर्ष की हमारी समझ न सिर्फ़ अधूरी है, बल्कि आत्‍मघाती भी। 
***
इधर की कविता के सामने एक चुनौती यह भी दिखाई दे रही है मुझे कि उसमें भावुकता का लोप हो रहा है, निष्‍ठुर प्रसंग बढ़ रहे हैं जीवन में तो जाहिर है कि कविता में भी बढ़ेंगे ही पर मेरे लिए एक न्‍यूनतम भावुकता कविता का मानवीय मूल्‍य है। मैं ख़ुद आजकल अपनी कविता में इससे वंचित हो जाता हूं तो लगता है कि बिना रिखब का कोई राग गा रहा हूं – हालांकि वह राग है पर उसमें कोमलता लगभग नहीं है। लगता है सब कुछ गांधार और धैवत की गम्‍भीरता और चमत्‍कारों में खो-सा रहा है। किंचित विषयान्‍तर होगा यह कहना पर प्रसिद्ध गायिका अश्विनी भिड़े देशपांडे ने एक  साक्षात्‍कारमें इंगित किया है कि 'अगर किसी राग में ऋषभ कोमल है तो धैवत को भी कोमल होना चाहिए।'  एक कोमल सुर दूसरे को भी कोमल बना देता है ताकि दूसरे सुरों में संवाद कायम रह सके। हम इतने क्रूर नहीं हो सकते कि जीवन के रागों में कहीं भी एक कोमल ऋषभ न बचा पाएं। इसे बचाने से कुछ मनुष्‍यता बचती है। मुझे ख़ुशी होती है देखकर कि केशव तिवारी की कविताओं में यह तत्‍व बचा हुआ है। पूरे संग्रह में ऐसे कई प्रसंग हैं। कम बात नहीं है कि केशव तिवारी वैचारिक चुनौतियों का प्रतिबद्ध सामना करते हुए भावों का एक पूरा लोक अपने भीतर बसाए हुए हैं।
केशव तिवारी के संग्रह पर ये मेरा द्रुत पाठ है, कई सुरों को छूकर आगे बढ़ना नियति है ऐसी पढ़त की। ऐसे ही एक छुए हुए सुर पर फिर लौटते हुए इतना और निवेदन है मेरा कि केशव तिवारी की कविता के सन्‍दर्भ में लोक के  बरअक्‍स हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रयुक्‍त शब्‍द ‘जन’ मुझे अधिक प्रासंगिक लगता है। इस ‘जन’ के जनवाद में बदल जाने की कथा सब जानते हैं और जाहिर है कि केशव तिवारी की कविता भी कोरी लोकवादी कविता न होकर व्‍यापक अर्थों में जनवादी कविता है।
***

कवि का संक्षिप्‍त परिचय      
             
जन्‍म 4 नवम्‍बर 1963 को अवध के जिला प्रतापगढ़ के एक छोटे से गांव जोखू का पुरवा में। वाणिज्‍य से स्‍नातक केशव तिवारी बांदा में हिंदुस्‍तान यूनीलीवर के विक्रय विभाग में काम करते हैं। इस संग्रह से पूर्व रामकृष्‍ण प्रकाशन, विदिशा, म.प्र. से एक संग्रह 'इस मिट्टी से बना' नाम से 2005 में आया। जनवादी-प्रगतिशील सांस्‍कृतिक तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय। 2009 में 'सूत्र सम्‍मान' से सम्‍मानित। यह दूसरा संग्रह रायल पब्लिकेशन, जोधपुर(राजस्‍थान) से 2010 में छपा है। कवि से द्वारा पांडेय जनरल स्‍टोर, कचहरी रोड, बांदा (उ.प्र.) पर पत्राचार किया जा सकता है। फोन नम्‍बर 9918128631 तथा ई मेल पता keshav_bnd@yahoo.co.in  है।     
-  शिरीष कुमार मौर्य 

मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

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मैंने यह पोस्‍ट बहुत पहले कबाड़खानापर लगाई थी। इधर 'कल के लिए' का अदम विशेषांक पढ़ते हुए मुझे इस कविता की याद आई...सो अनुनाद के पाठकों के लिए इसे यहां फिर लगा रहा हूं। अदम ग़ज़लों-नज्‍़मों के जनवादी कार्यकर्ता ताउम्र रहे। हम अब उन्‍हें बहुत आदर से याद कर रहे हैं...अधिक सार्थक होगा कि हम उनके लिखे को भी उतनी ही शिद्दत से याद करें, जनता में तो ख़ैर अब ये एक स्‍थायी याद है....      

*** 
मंगलेश डबराल की लिखी भूमिका का एक अंश 

कोई छह साल पहले लखनऊ के अख़बार अमृत प्रभात के साप्ताहिक संस्करण में अदम गोंडवी उर्फ़ रामनाथ सिंह की एक बहुत लम्बी कविता छपी थी : `मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको´ उस कविता की पहली पंक्ति भी यही थी। एक सच्ची घटना पर आधारित यह कविता जमींदारी उत्पीड़न और आतंक की एक भीषण तस्वीर बनाती थी और उसमें बलात्कार की शिकार हरिजन युवती को `नई मोनालिसा´ कहा गया था। एक रचनात्मक गुस्से और आवेग से भरी इस कविता को पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहे हों। कहानी में पद्य या कविता अकसर मिलती है - और अकसर वही कहानियां प्रभावशाली कही जाती रही हैं जिनमें कविता की सी सघनता हो - लेकिन कविता में एक सीधी-सच्ची गैरआधुनिकतावादी ढंग की कहानी शायद पहली बार इस तरह प्रकट हुई थी। यह अदम की पहली प्रकाशित कविता थी। अदम के कस्बे गोंडा में जबरदस्त खलबली हुई और जमींदार और स्थानीय हुक्मरान बौखलाकर अदम को सबक सिखाने की तजवीव करने लगे - मंगलेश डबराल, १९८८- "धरती की सतह पर " की भूमिका से )
अदम गोंडवी
***

आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी की कुएं में डूब कर


है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेखबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा -काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आखिर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे जिन्दा उनको छोडेंगे नहीं


कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गंवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गांव की गलियों में क्या इज्जत रहे्गी आपकी
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूंछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हां मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर जोर था
भोर होते ही वहां का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर- माल वो चोरी का तूने क्या किया

कैसी चोरी माल कैसा -उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

मेरा मुंह क्या देखते हो ! इसके मुंह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूंक दो

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहां चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहां खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएं नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूं कोई कहीं जाए नहीं

यह दरोगा जी थे मुंह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े - इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा'
इक सिपाही ने कहा- साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें

बोला थानेदार -मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उनझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है


पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल-
कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल'

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूं आएं मेरे गांव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छांव में

गांव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहां पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !
***  

मोनिका कुमार की नई कविताएं

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मोनिका कुमार: फोटो जानकीपुल से
मोनिका कुमारहिंदी के लिए बहुत नई कवि हैं। मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में अभी उनकी कविताएं शायद नहीं छपी हैं। उन्‍हें नेट पर ही कुछ जगह मैंने देखा है। पहली बार सम्‍भवत: आपका साथ साथ फूलों कापर, कर्मनाशापर,फिर प्रतिलिपि ब्‍लाग, जानकीपुलऔर समालोचनपर। मैंने प्रतिलिपि ब्‍लाग पर पहली बार उनकी कविता का नोटिस लिया था। उस पोस्‍ट पर एक लम्‍बी बहस फेसबुक पर चली,जिसमें मुझे कविता के हित में हुआ संवाद नज़र आया – पूरी बहस को प्‍यारे दोस्‍त गिरिराज ने एक पोस्‍ट के रूप में संयोजित किया, जिसे पाठक अनुनादपर देख सकते हैं। 


इस तरह मोनिका कुमार की कविता ने हिंदी में आते ही कुछ खलबली पैदा की, वैचारिकी को झकझोरा है। मैं अकसर इधर-उधर चल रही अनावश्‍यक बहसों से दूर रहता हूं पर अब पीछे छूट चुके फेसबुक पर इस बहस को गिरिराज की परिचयात्‍मक टिप्‍पणी के विखंडन सम्‍बन्‍धी वक्‍तव्‍य का विरोध करते हुए मैंने ख़ुद आरम्‍भ किया था – बाद में गिरिराज किराड़ू, अशोक कुमार पांडे, आशुतोष कुमार, मृत्‍युंजय आदि हिंदी के सुपरिचित नामों सहित ख़ुद मोनिका कुमार ने भी उसमें बहुत महत्‍वपूर्ण भागीदारी की। यदि मोनिका कुमार की एक कविता इसका निमित्‍त बनी तो इससे उसके महत्‍व को समझा जा सकता है।

यहां मोनिका की तीन कविताएं दी जा रही हैं। वे अपनी कविताओं को शीर्षक नहीं देतीं और मैंने पाया है कि इससे कोई अधूरापन नहीं उपजता बल्कि पाठकों के समक्ष अपना एक स्‍पेस निर्मित होता है। पिछले दिनों जानकीपुल, समालोचन और अब अनुनाद पर उनकी कविताएं बहुत शुरूआती कविताओं से इस अर्थ में भी भिन्‍न हैं कि इनमें अनुभव संसार का एक अनिवार्य विस्‍तार मौजूद है। मेरे लिए ये देखना सुखद है कि मोनिका अब कविताओं के आइडिया-बेस्‍ड शिल्‍प से निकल कर एक थाट-प्रोसेस में प्रवेश कर रही हैं। वे कुछ परिचित और कुछ अब तक लगभग अपरिचित रहे स्‍थानों और प्रसंगों की बेचैनी और इत्‍मीनान के विरुद्धों में कविता खोज रही हैं। प्रकृति से आए उनके प्रतीक और बिम्‍ब पहली बार हिंदी कविता में एक अलग समझ के साथ सम्‍भव हुए हैं।दिख रहा है कि उनकी कविता की खोज बहुत अलग शिल्‍प में व्‍यक्‍त हो रही है। आश्‍चर्य है कि पहली बार पर छपने के बाद यह सब कुछ बहुत जल्‍द प्रकट हुआ है। यह भी सोचना होगा कि मोनिका कुमार की शुरूआत को किन अर्थों में शुरूआत कहा जाए। उनमें यात्रा के आरम्‍भ का ज़रूरी उत्‍साह तो है ही लेकिन अब तक नए कवियों में कम देखी गई एक सजगता भी उसी सन्‍तुलन में है। मोनिका भाषा से जैसा आत्‍मीय व्‍यवहार रखती हैं, वह भी एक आश्‍वस्‍त करने वाला दृश्‍य है। बिखराव-अलगाव की ओर धकेली जा रही हमारी दुनिया में मोनिका की ये कविताएं अपनी विशिष्‍ट भाषा, स्‍मृतियों और समकालीन अवसाद के साथ विरल मानवीय व्‍यवहारों और ज़रूरी विचारों की एक समग्र और एकाग्र उपस्थिति हैं। 

संक्षेप में कहूं तो मैं उनकी इस यात्रा में आगे के कुछ बहुत अहम पड़ाव देख पा रहा हूं, बाक़ी अनुनाद के सुधी पाठक बताएंगे। मैं अनुनाद की ओर से इन कविताओं के लिए कवि को शुक्रिया कहता हूं।
***      
नए मनुष्‍य का जन्‍म - सल्‍वाडोर डाली: गूगल इमेज से साभार

1
खड़ी हुई ट्रेन देख कर 
अनायास दिल करता है इस में चढ़ जाएँ
बसेरे की तमाम योजनाओं के मध्य
गमन का सारस
आँख झपकता है

मैं हैरान हूँ
लोग मुंह नीचा किए सड़क पर
चुपचाप चल रहे हैं
कलेजे जबकि मचल रहे हैं विस्फोट के लिए
क्या यह महान संयम है ?
हर सुबह विस्फोट को स्थगित कर
तस्मे बांधकर पहुँच जाते हैं दफ़्तर
दराज़ में रखते हैं फोन
और जेब से चश्मा निकालते हैं 

पलायन विकल्प है
ट्रेन में चढ़ने से पूर्व
मैं कहती हूँ तुमसे

मेरे पास थे दो ही हथियार ज़िन्दा रहने के लिए
एक था व्‍यंग्‍य
दूसरा भी व्‍यंग्‍य ही था
अतिशयोक्ति से ढांपना पड़ता था मुझे
मरियल ख़यालों को

व्‍यंग्‍य सहना भी अब अच्छा नहीं लगता
यह लगने लगी है हिंसा
जैसे कोई ठूस रहा है मुंह में जबरन
पुरानी मैली नाइलोन की कतरनें
या ताला लगा रहा है मुंह पर
बंदूक जैसी इक चाभी से

मैं अभी किसी स्टेशन पर नहीं खड़ी हूँ
मैं भी दफ़्तर में हूँ
चौरस कमरा है
कुर्सी पर लटकता कोट चमगादड़ लग रहा है
व्‍यंग्‍यरहित गर कहूँ

तो बेतरतीब यहाँ सिर्फ़ मैं हूँ
जो 
दफ़्तर में बैठे हुए
रेलवे स्टेशन को ताक रही हूँ
बाकी सब उपस्थित वस्तुएं
इशारा कर रही हैं
किसी महान संभावना की ओर

मैंने अभी देखा
कोई बता रहा था किस तरह आसमानी ताक़तें
नियंत्रित करती हैं हमारा जीवन धरती पर
वह बांच रहा था एक जन्म पत्री
बता रहा था एहतियात और सावधानी
ही बची सकती है हमें
अकाल संकट और
असामयिक विरह से
इस वाक्य को सुनते ही

सभी लोग उसको उत्सुकता से सुनने लगे थे
उन्हें नहीं आशा थी वह करेगा ऐसी गहन बातें
वक्ता असहज हो गया
उसे लगा वह सम्बोधन कर रहा था
हजूम को, अफीम खाई जनता को
धुंध उमड़ आई थी कमरे में

उसके शब्दों पर असामयिक दबाव आ गया था
वह भी शायद अब इस हजूम से विदा चाहता था

अखब़ार में देखती हूँ
आज रस्म उठाला है एक बूढ़े का
साईकल बनाने की फैक्ट्री चालू की थी उसने
चालीस बरस पहले
जिस तरह निर्धन करते हैं इक दिन शुरुआत
किसी स्वप्न से सम्मोहित  
उसके पुत्र ने संस्मरण लिखा था
जिसमें मैंने ख़ुद जोड़ लिया है - 
वह अंगूठा छाप था
वह ऐसे  ही अंगूठा छापता था काग़ज़ पर
जिस तरह लोग साईकल की घंटी अंगूठे से बजाते  थे
पुत्र ने केवल यह लिखा था -
उसकी नीली आँखों में चमक रहती थी
कोई भी लोहा जो साईकल बन सकता था
उसके पिता की नज़रों से बचता नहीं था
मैं बची हूँ
बचे रहने के लिए नहीं
मेरे पास सौ के नोट पर लिखा पत्र है
मैंने इसे लिखा था अपनी पहली तनख्‍़वाह से
अनाम शिशु के नाम
उसके लिए लिखा था मैंने प्रेम
और कुछ सीख 
सीख घिस गई है
प्रेम के बारे में इस क्षण कोई विचार नहीं आ रहा  

आज छुट्टी होने पर घर न जाकर
ट्रेन पकड़ ही ली जाए
दो ट्रेनें जब तेज़ी से गुज़रेंगी उलट दिशा में
उस बीच में जोर से चीख़ूंगी
रेल यात्रा का यह क्षण
रेल को सबसे आकर्षक सवारी बनाता है
मैं टीटी से करूंगी निवेदन

वह मुझे ऐसे शहर उतार दे
जहाँ चिड़ियाघर हो
मेरे अंदर एक हाथी है
जो लगातार पीट रहा है मुझे
पिछली बार देखा था मैंने चिड़िया घर में
एक हाथी जोर जोर से पटक रहा था पाँव अपने बाड़े में
यह हाथी उसी का कोई बिछड़ा है
मैं इस हाथी को वहां छोड़ आऊँगी
***

2
बरसाती दिनों में
भीग चुके बिजली के बोर्ड पर
लापरवाही से पड़ जाता है हाथ
लगता है एक झटका
और मैं झनझना जाती हूँ
ऐसे लगता है
जैसे जिस्म के भीतर कोई चिड़िया जग गई है
मैं डर जाने का अभिनय भी करती हूँ
जैसे निकल ही गई थी जान मेरी
शाम तक होती है सिरहन
चिड़िया के फड़फड़ाने से

उम्र-क़ैदी की दाढ़ी माफ़िक़ बढ़ गई है घास
बारिशजने मकौड़े कुलबुला रहे हैं
उनके चमकते जिस्म से झुनझुनी छूटती है
यह क्या हो रहा है मेरी शाकाहारी इच्छाओं को ?

गली के लैम्प कुछ मद्धम है
बरसात के बाद
ग़ैरज़रूरी है इनका जलना जैसे
एक लंबी बहस की तरह चली है यह बरसात
इसके बाद सभी का थकना और चुप हो जाना बनता है
सिवा उन ज़िद्दी पतंगों के
जो सर्द लैम्पों को छेड़ेंगे रात भर
सुबह मोहब्बत के मारे कहलाएंगे

खिड़की के कांच पर जमी बूँदें
रिस रही है
रेंग रही हैं
मेरी बाजू पर
नहीं नहीं चिड़िया के परों पर
***

3
तुम्हें देखकर मैं अक्सर सोचती थी
असामान्य होगा तुम्हारा घर
कैसी होगी खाने की मेज़
तुम्हारी माँ के लम्बे होंगे बाल
लगाती होगी वह खुशबूदार तेल
जिसकी ख़ुशबू तुम्हारे बस्ते से आती है
हर रात सोने से पहले
थोड़ा और हौसला बढ़ाकर
सोचती थी तुम्हारे घर के बारे में
सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोचने में डर लगता था
तुम्हारी आस पास के चीज़ों को सोचते सोचते
एक क्षण सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोचना
मेरी चतुराई का प्रथम पाठ था

मुझे यक़ीन था
आठवीं तक आते मैंने देख लिया होगा तुम्हारा घर
तुम्हारी माँ का ड्रेसिंग टेबल
चुपके-चालाकी से रख दूँगी वहां अपनी कोई चीज़

मुझे पूछना था तुमसे अगले ही दिन
बातों बातों में
तुम्हारी माँ से करते हुए चुहल
टिफिन लिए
तुम्हारे पिता जी बैग उठा कर कहाँ जाते हैं

अगले ही दिन तुम मिले
यह कहते हुए टीचर से
कि तुम नहीं अब से आओगे इस स्कूल
तुम्हारे पिता जी का तबादला हो गया है
सुनाई नहीं दिया कि यह कौन सा शहर होगा
पर मैंने समझ लिया ज़रुर यह कानपुर होगा

कानपुर मेरे लिए दूरस्थ शहर था
कोई ट्रेन सीधी नहीं जाती वहां तक इस शहर से

यहाँ सब कुशल मंगल है
ख़ुशबूदार तेल लगाती हूँ अब मैं भी
कानपुर तक सीधी ट्रेन अभी शुरू नहीं हुई है
चातुर्य अभ्यास पड़ा हुआ है
उपेक्षित जैसे कोई वस्तु घर में
नौकरीशुदा लोगों से पहला प्रश्न पूछती हूँ
क्या उनकी नौकरी मैं है तबादले का विधान


और तबादला लगा है मुझे खुरदरा सरकारी शब्द
जिसका निजी अर्थ है
कानपुर की असह्य शीतलहर
***
11 सितम्‍बर 1977 को नकोदर, जालंधर(पंजाब) में जन्‍मीं मोनिका कुमार चंडीगढ़ के एक राजकीय महाविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं। वे कुशल अनुवादक भी हैं। उनसे इस ई-मेल पर सम्‍पर्क किया जा सकता है- turtle.walks@gmail.com  
***
यह अनुनाद की 575वीं पोस्‍ट है। 

कविता जो साथ रहती है / 1 : नवीन सागर की कविता पर गिरिराज किराड़ू

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सल्वादोर डाली : गूगल इमेज से साभार 

नवीन सागर की कविता उनके प्रस्‍थान के बाद भी बची हुई है, बची रहेगी। मुझे बार-बार कहना पड़ता है और फिर कहना पड़ रहा है कि नवीन सागर भी उन्‍हीं कवियों में हैं, जिन्‍हें हिंदी कविता में उनका दाय और न्‍याय कभी नहीं मिला। वे चले गए। व्‍यक्ति नहीं मिल पाते पर कविता कहीं न कहीं, कभी न कभी मिल जाती है। व्‍यक्ति नहीं है पर कवि है, यह भी एक यथार्थ है और विचार भी.. नवीन सागर और उनकी कविता को प्‍यार करने वाले लोग हैं और आगे भी बने रहेंगे। उन्‍हें अनुनाद याद करता है। आगे हमारी कोशिश रहेगी कि उन पर कुछ और बात हो सके। 

कवि गिरिराज किराड़ू की यह टिप्‍पणी शुरूआत है अनुनाद पर एक नए स्‍तम्‍भ की, जिसका नाम ख़ुद गिरिराज ने 'कविता जो साथ रहती है' रखा है। इधर कुछ समय में जिस तरह से कई मित्रों का रचनात्‍मक और वैचारिक सहयोग हमें मिल पा रहा है, उसके लिए आभार प्रकट करने को अब शब्‍द कम पड़ने लगे हैं और गिरिराज चूंकि मित्र है इसलिए बहुत संक्षेप में उसे एक छोटा-सा शुक्रिया भर कह रहा हूं....इस कड़ी में जल्‍द और टिप्‍पणियां गिरिराज की तरफ़ से आनी हैं, उनके इंतज़ार के साथ.... 

गिरिराज किराड़ू ने यह टिप्‍पणी तीन लोगों को समर्पित की है और मैं उसमें एक नाम और जोड़ते हुए अनुनाद की ओर से यह पोस्‍ट नवीन सागर के मित्र कवि अनिरुद्ध उमट को समर्पित करता हूं।

नवीन सागर की कविता
नवीन सागर
देना !

जिसने मेरा घर जलाया
उसे इतना बड़ा घर
देना कि बाहर निकलने को चले
पर निकल न पाये.

जिसने मुझे मारा
उसे सब देना
मृत्यु न देना .
जिसने मेरी रोटी छीनी
उसे रोटियों के समुद्र में फेंकना
और तूफान उठाना.

जिनसे मैं नहीं मिला
उनसे मिलवाना
मुझे इतनी दूर छोड़ आना
कि बराबर संसार में आता रहूँ .

अगली बार
इतना प्रेम देना
कि कह सकूं : प्रेम करता हूँ
और वह मेरे सामने हो.
***
गिरिराज किराड़ू
1
नवीन सागर की इस कविता में प्रतिशोध और करुणा जिस तरह एक दूसरे पर निर्भर हैं (अन्योन्याश्रितता?) बल्कि जिस तरह एक दूसरे का बयान और चेहरा हैं वह मेरे देखने, अनुभव करने में एक नयी चीज़ थी और इसी वजह से यह कविता बरसों मेरे साथ रही है और अभी भी रहती है. हम हर दूसरी कविता के बारे में इस तरह बात करने के आदी हैं कि उसके आने से हम और यह संसार बदल गये हैं लेकिन कितनी कविताएँ, कितनी कला होती है  जो किसी पाठक के लिए ऐसा कर पाती है?

नवीन की यह कविता गाँधीवादी अहिंसा के प्रस्ताव - 'जिसने मेरा घर जलाया उसे इतना बड़ा घर देना'/ 'जिसने मुझे मारा उसे सब देना' / ‘जिसने मेरी रोटी छीनी 
उसे रोटियों के समुद्र में फेंकना’ - को प्रतिशोध कामना - 'कि बाहर निकलने को चले पर निकल न पाये'/ 'मृत्यु न देना'/ ‘और तूफान उठाना’ से जोड़ देती है. एकदम वाक्यविन्यास के स्तर पर!   गाँधीवादी अहिंसा  का प्रस्ताव और प्रतिशोध कामना न सिर्फ एक वाक्य के दो अंग हैं - प्रतिशोध कामना खुद अहिंसा की विधि में ही निहित है! घर इतना बड़ा हो कि निकल ना पाये!

प्रतिशोध और करुणा (वह भाव जिससे यह अहिंसा प्रस्ताव जन्म लेता है) का यह युगल (किस तरह की) तकलीफ़ और जुल्म की किस समझ से उत्पन्न हुआ है? यह शेक्सपीरियन त्रासदियों से भिन्न है हालाँकि उनके जैसा एकबारगी लग जरूर सकता है - हेमलेट और मैकबैथ या लियर का अंत निश्चित है (वह त्रासदी की पूर्व शर्त है) लेकिन जब तक वे हैं और अपने अपने हैमर्शिया से बिंधे हैं उनके साथ नाटककार क्या करे? एक हत्यारे, जैसे कि मैकबैथ, के साथ नाटककार क्या करे? वह उसे सुखांत नहीं बख्श सकता; सपाट प्रतिशोध उसे ठीक नहीं लगता – वह उसे 'अंतर्ज्ञान' बख्शता है; मैकबैथ के प्रति नाटककार की करुणा इसी रूप में सामने आती है कि वह उसे ‘अंतर्ज्ञान’ से नवाजता है और  ‘अंतर्ज्ञान’ – अपने पर नज़र रखने की, अपने कर्मों को करते हुए 'साक्षी' भाव से उन्हें देखने की यह तकलीफ़देह काबिलियत – मैकबैथ को हमारे लिए एक 'स्पेसीमेन' में बदल देती हैः मनुष्य और उसकी 'आत्मा' में महत्वाकांक्षा, सत्ता और हिंसा जिन 'अंधेरों' का आविष्कार करती है उनको हमारे लिए उजागर करने वाला एक स्पेसीमेन! लेकिन खुद मैकबैथ को इस 'अंतर्ज्ञान' से क्या मिला? क्या बिना इस 'अंतर्ज्ञान' के वह एक अधिक सुखी जीवन और मृत्यु दोनों को नहीं पा लेता? क्या यह 'अंतर्ज्ञान' ही उसकी सबसे मर्मान्तक पीडाओं का कारण नहीं है? क्या इससे उसे कोई राहत मिलती है? शायद नहीं और अगर नहीं तो इसी अर्थ में शेक्सपीयर की मैकबैथ के लिए 'करुणा' क्या उसी तरह प्रतिशोधात्मक नहीं जिस तरह नवीन की इस कविता के कवि-स्वर की उसके लिए जिसने 'उसका' घर जलाया या जिसने ‘उसे’ मारा. नहीं! शेक्सपीयर की प्रतिशोधात्मक करुणा लेकिन इस अर्थ में यहाँ तुलनीय नहीं है कि यहाँ प्रतिशोध और करुणा का सम्बन्ध सीधे उनके बीच हैं जिनमें से एक का घर जला है और दूसरे ने जलाया है - यहाँ उस दूरी के लिए कोई स्थान नहीं है जो नाटककार और मैकबैथ के बीच है और इसलिए नाटककार को यह सुविधा है कि वह मैकबैथ को एक सपाट, अंतर्द्वंद्वहीन हत्यारे की बजाय एक अधिक जटिल और 'समृद्ध' इनर-स्केप (आतंरिक जगत) वाला चरित्र बना सके. आतंरिक जगत की यह समृद्धि क्या मैकबैथ के लिए किसी किस्म की राहत का माध्यम बन पाती है? शायद नहीं लेकिन शायद हाँ भी! लेकिन क्या व्यक्तित्व की यही 'जटिलता' और इनर-स्केप की यह 'समृद्धि' एक तरह से मैकबैथ के अपराध के प्रति हमारे रेस्पोंस को भी मैनीपुलेट नहीं करती? हम उससे उस तरह नफ़रत नहीं कर पाते जैसे एक सपाट सत्ताकामी हत्यारे से कर पाते मानो व्यक्तित्व की 'जटिलता' और इनर-स्केप की 'समृद्धि' ने उसके अपराध को कम कर दिया हो!

नवीन की कविता प्रतिशोध के प्रश्न को सीधे संबोधित करती है और जिसने अन्याय किया है उसके लिये मनोवैज्ञानिक रूप से ज्यादा खौफ़नाक सज़ा की कामना करती है. इस कविता को यह प्रत्यक्ष ज्ञान, यह पहला सबक है - 

The first lesson of psychoanalysis here is that this “richness of inner life” is fundamentally fake: it is a screen, a false distance, whose function is, as it were, to save my appearance. … The experience we have of our lives from within, the story we tell ourselves about ourselves in order to account for what we are doing, is thus a lie – the truth lies rather outside, in what we do. 
(First As Tragedy, Then As Farce, Slavoj Žižek)

लेकिन कविता के आखिरी दो बंद प्रतिशोध और करुणा के नहीं कामना और यथार्थ, जीवन और मृत्यु के युगल से बने हैं और उन्हें पढ़ते हुए अब इस तथ्य को इस पठन में शामिल कर लेना चाहिए कि यह कविता प्रार्थना के शिल्प में है ही नहीं स्वयं एक प्रार्थना है! एक प्रतिशोधात्मक प्रार्थना. किससे कहा जा रहा है कि ' जिसने मेरा घर जलाया उसे इतना बड़ा घर देना' या ' सब देना मृत्यु न देना'? ईश्वर? और कौन है यह कहने वाला? क्या इस कविता को आत्मकथात्मक ढंग से पढ़ा जा सकता है? शायद नहीं!

यह कविता ऐसे किसी व्यक्ति की प्रतिशोधात्मक प्रार्थना है, न्याय की गुहार है जिसे इस संसार की न्याय प्रणालियों से न्याय की कोई उम्मीद नहीं बची, जिसके लिए 'प्रतिशोधात्मक करुणा' ही न्याय का अंतिम संभव रास्ता है? यह कविता उस अर्थ में आत्मकथा नहीं कि यह व्यक्ति नवीन सागर की कथा कहती है. यह हर उस  आम (भारतीय?/ हिंदू?) व्यक्ति की कविता है जिसे सेक्यूलर प्रणालियाँ न्याय नहीं दिला पायी हैं और जो उस न्याय को किसी अन्य (अवास्तविक) सत्ता 
(ईश्वर?) से, किसी अन्य (अवास्तविक) काल  ('अगली बार' = 'अगले जन्म') में पाने के लिए प्रार्थना कर रहा है.  और ऐसा करते हुए भी उसकी यह 'प्रार्थना' सेक्यूलर न्याय-प्रणालियों की असफलता का शोक बन जाती है ईश्वरीय न्याय की प्रवक्ता नहीं.
***
2
मैं नवीन सागर से कभी नहीं मिला. एक बार मौका था. मैं भोपाल के होटल पलाश से  अपना सब-समाऊ थैला लेकर निकल रहा था, एक गैर-लेखक मित्र के स्कूटर पर पीछे बैठकर. सामने  नवीन  विनोद कुमार शुक्ल से बात कर रहे थे. हम तक आवाज़ आ रही थी. मित्र ने कहा एक घटिया आदमी खड़ा है! जाहिर ही उसका इशारा नवीन की तरफ था. विनोदजी के सम्मान में तो उसने अपना स्कूटर फिर भी रोका ही (नवीन के क़रीबी मित्र अनिरुद्ध  उमट ने इस प्रसंग का जिक्र अपनी एक कविता में किया है).  विनोदजी ने मुझे और मेरे बैग को देखते हुए कहा लगता है आप पर्वतारोहण को जा रहे हैं. मैं 'घटिया आदमी' को देखता रहा, उसने भी मुझे देखा. स्कूटर स्टॉर्ट हो गया.

उसके बाद, नवीन के देहांत के बाद, उनकी वह आवाज़ फिर सुनी - बीकानेर से उनका संग्रह प्रकाशित हुआ, मंगलेश डबरालने उसका एक बेहतरीन ब्लर्ब लिखा और उसके लोकार्पण में नंदकिशोर आचार्य, अनिरुद्ध और मेरे नवीन की कविताएँ पढ़ने से पहले उस शाम जो पहली आवाज़ आनंद निकेतन के हॉल में सुनाई पड़ी वह खुद नवीन की थी. उनकी आवाज़ में रिकॉर्डेड एक टेप से शुरू हुआ था मेरे जीवन का शायद इकलौता याद रखने लायक लोकार्पण!

यह लिखते हुएउस शाम के साथ साथसंजीव मिश्र की याद बुरी तरह आ रही है, जो शीन काफ़ निज़ाम की तरह इस आयोजन के लिये बीकानेर आये थे और इस बात से अचंभित और प्रसन्न थे कि एक हिन्दी कवि और उसके लिखे से यूँ भी प्रेम किया जाता है.


(छोटे भाई गिरीश, आशुतोष भारद्वाज और सत्यानन्द निरुपम के लिए)
***
...यह अनुनाद की 576 वीं पोस्‍ट है

विदेश नीति - अमित श्रीवास्‍तव की कविता

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अमित श्रीवास्‍तव की कविताएं एक अंतराल पर सामने आती रही हैं। इस अन्‍तराल में अमित का कवि ख़ुद को कुछ सम्‍भालता है पर कविता दरअसल हमेशा से अपने शिल्‍प में एक बेसम्‍भाल चीज़ रही है - यह इसका आन्‍तरिक सौन्‍दर्य और शक्ति भी है। अमित की यह कविता भी एक बेसम्‍भाल कविता है... इसी से इसका शिल्‍प बना है और कथ्‍य सधा है। सुनिए कि हमारे देश की बाहरी और भीतरी राजनीति का 'अभी' इसमें भरपूर पुकार रहा है। साथ ही यह भी कि कविता की एकाधिक स्‍थापनाएं ख़ासी बहसतलब हैं..... और कविता पर किसी भी बहस का अनुनाद पर हमेशा स्‍वागत है। मैं कवि को इसे अनुनाद तक पहुंचाने के लिए शुक्रिया कहता हूं।  

पिकासो: गूगल इमेज से साभार

विदेश नीति
हम आँखों की भाषा पढ़ना जानते हैं

महोदय,
हम जानते हैं जब आप अपने
और अपने जैसे कई सरों के बीच
'मुझे देखो...मुझे देखो’  जैसा कुछ चिल्ला रहे थे
...क्या ये तूतियों का कम्पटीशन था?

और आपके बिलकुल बगल में बैठा
ऐंठबाज़
आपका लड़का
जिसे दूर से ही पहचाना जा सकता है
क्यों
कि उसकी देह के सारे अवयव हिले हुए हैं
और बात बात में वो बाप की ओर
गंदे इशारे-सा कुछ करने लगता है

उसे
दूर के रिश्ते के चाचा  
गो जिन्होंने ख़ुद को सबका ताऊ सिद्ध कर डाला है
पुचकारते, सहलाते और झुनझुने थमाते हैं
लालीपॉप चटाते हैं
और एक अठ्ठन्नी फेंककर
बोलते हैं  - 'रख ले रख ले
पर अपने बाप को सबक तो सिखा’

(अठन्‍नी, जो उसने सबका पोषण के दावे से खड़ी कुछ संस्थाओं में अपनी देनदारियों से बचाई है और अपने निकम्मे, नालायक, आवारा कंपनी मालिकों को तीसरे चौथे घरों में भेजकर चकाचौंधी नटबाजियाँ दिखाकर कमाई हैं )

और तब ही महोदय
जब आपकी आँखों में हरे, पीले और गहरे नीले रंग
जल्दी जल्दी आते जाते से हैं
हम पढ़ लेते हैं
कि आप क्षुब्ध हैं, कुंठित हैं
और निहायत ही पिटा हुआ सा महसूस कर रहे हैं

बंगले झांकते हुए आप
पीछे देख नहीं सकते प्रधानमंत्री महोदय
क्योंकि पीछे आँखों की भाषा पढ़ने वाले
अभी कुछ लोग ज़िंदा हैं

बंगले झांकते हुए आप आगे देखने की ज़ुर्रत नहीं करते
मानिए कि घुप्प अँधेरे में देखने की कुव्‍वत
बेच दी गयी है

इसे बेचकर ही कुछ ताशकंद और कोलम्बो ख़रीदे हैं

(और शान्ति सेनाओं जैसे फुटकरिया माल भी जमा कर रखे हैं )

इन मामलों में वैसे भी देश एक खुदरा व्यापारी ही रहा है
और खुदरा व्यापारियों को
बाज़ार के उतार चढ़ाव के साथ
अपना माल-मैनेजमेंट बदलना पडता है

कभी तटस्थ भाव से
हाँथ बंधे खड़े रहकर
होल सेल बनियों की बाहरी लड़ाइयों में
अंदरूनी सांठ गाँठ के एवज में कुछ मुआवज़ा
(चीनी के बोरों की आवाजाही में चीटियों की दावत जैसा )
तो कभी पूरब की तरफ मुंह कर
हाथ पीछे फैला 'जो मिले सो अच्छा’  का बहाना
थोक के बनियों की तरह हम माल के साथ साथ
मार्केट नहीं मैनेज कर सकते
तभी तो ज्‍़यादा देकर थोड़ा लेते हैं
और मौक़ा पड़े तो
छुटभैय्यों की भी ख़ुशामद, मान-मन्नौवल
और चिरौरी पर उतर आते हैं
गो हमसे गया-गुज़रा कोई नहीं !!
*** 
यह  अनुनाद की 377वीं पोस्‍ट है...

वंदना शुक्‍ला की कविताएं

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वंदना शुक्‍ला  
वंदना शुक्‍ला की ये कविताएं मुझे उनके मेल द्वारा मिलीं। इन कविताओं की कवि हिंदी के आभासी संसार के अलावा सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी छपती रही हैं। यहां प्रस्‍तुत कविताएं 'अन्‍यायों, मलालों और विडम्‍बनाओं के कोलाहल'के बीच अपने स्‍वर में निजी-सा कुछ बोलती हैं, जिसके छोर बाहरी समाज और संसार से जगह-जगह जुड़ते हैं। 

समालोचन में प्रकाशित एक लेख में वंदना शुक्‍ला कहती हैं -कहानी में कविता की महक और कविता में कहानी की छटा और एक-दूसरे में उनकी सहज आवाजाही निस्‍संदेह शिल्‍पगत चातुर्य और बौद्धिक अन्‍वेषण का ही एक स्‍वरूप है।  मैं इस कथन में आए चातुर्यशब्‍द से परहेज़ करते हुए सिर्फ़ यह कहना चाहता हूं कि जिस सहज आवाजाहीका जिक्र कवि ने किया, उसे पाठक इन कविताओं में भरपूर पाएंगे। अनुनाद वंदना शुक्‍ला का अपनी लेखक-सूची में स्‍वागत करता है। 
*** 

ख्‍़वाहिश

सोलहवीं मंजिल की खिड़की के 
कितना पास होता है आसमान
और  
कितने दूर लगते हैं लोग
सब कुछ दीखता है वैसा 
जैसा नहीं सोचा होता कभी
कि ‘’दिखना’’ हो सकता है ऐसा भी
किसी घटना का होते हुए ....
टेढ़े मेढे लोगों को
सीधे रस्ते ले जाती सड़कें
हांफ जाते हैं ऊँचाई तक आते  
अन्यायों,मलालों और विडंबनाओं के कोलाहल  
बंजर धरती को ढँक लेती हैं
चींटियाँ
आँखों में उतर आता है हरा रंग   
दरख्तों के ठूंठ मूर्ति हो जाते हैं
किसी देवता की
अलावा इसके बस  
दिखाई देते हैं रंग
बहुत थोड़े ....
हवा के धुंधले केनवास पर 
सफ़ेद रंग ,उतना सफ़ेद नहीं दिखता
जितना उसे दिखना होता है 
काश ,ज़िंदगी की दीवार में भी
होती कोई खिड़की
और ज़िंदगी खड़ी होती
सोलहवें माले पे |
***

खिड़कियाँ बनाम दरवाज़े

खिड़कियाँ ,इसलिए खिड़कियाँ होती हैं 
क्यूँ कि वो दरवाजे नहीं होतीं   , 
निकल जाते हों जहाँ से आश्वासन   
टहलते हुए ,
बिठा कर पहरे पर
भरोसे को और खुद
भूल जाते हों रस्ते
लौट आने के |
***

डरी हुई उम्र

थके हुए सपनों की डरी हुई उम्र का 
छत पर खड़े हो देखना
नीचे उतरती सीढ़ियों को
गोया देखना कुछ
हाथ से फिसली कतरनों का
बिखरते हुए
हवा में
अनाथ उड़ते हुए
***

नाच

संथाल,पिंडारी,बस्तर ,कहार और गोंड लडकियां
नाचते हुए
आसमान को नहीं
देखती हैं धरती को| 
कमर में एक दूसरे के
डाले हुए हाथ,
मुस्कुराती हैं एक दूसरे की आँखों में
घुमती हैं प्रथ्वी की बिलकुल
विपरीत दिशा में ,प्रथ्वी को घेरे
बुदबुदाते हुए कुछ होठों से ,
बीच बीच में थाम लेती हैं ये
निर्भाव धुरी को ,मूसल की तरह
जगाए रखती हैं प्रथ्वी की बूढी सांसें
ताकि नींद में कहीं खिसक ना जाये
धुरी से वो अपनी |
उनके पैरों की थाप से
कांपती हैं प्रथ्वी
कभी सोचती हूँ ...
क्या देखती होंगी वो नाचते हुए
धरती पर ?
 सूखती नमी....
बंजर सपने ....
ज़र्ज़र जड़ें....
चींटियों की कतारें....
मिट्टी की दरारें....?
नाचती रहती हैं वो
ढोल की ज़ोरदार थाप पर
अनवरत ,निरंतर,अथक ,अचूक
मुस्कुराते हुए |
जिस दिन देखेंगी आसमान की ओर
थम जायेंगे उनके पैर
भूल जायेंगी वो नाचना
***

शेष दुःख

कुछ भ्रम देर तक पीछा करते हैं नींद का
सिरहाने की हदें भिगो देती हैं चंद किताबें
शब्द खोदने लगते हैं सपनों की ज़मीन
और वक़्त अचानक पलट कर देखने लगता
धरती का वो आखिरी पेड़
जिसके झुरमुट में अटकी है कोई
खुशी से लथपथ फटी चिथड़ी स्मृति 
किसी सूखे पत्ते की ओट में , हवा के डर से
थकी,उदास और सहमी सी
करवटें भींग जाती है विषाद से
घूमने लगते हैं घड़ी के कांटे उलटे
रातें बदलती हैं तेज़ी से पुराने अँधेरे
देखती है कोई कोफ़्त तब
हरे भरे पेड़ को वापस ठूंठ हो जाते हुए
या नदी पर खुश्क दरारों की तडकन 
सोचती है पीठ किसी क्षत-विक्षत सपने का उघडा हुआ ज़ख्म
सुदूर एक  घुटी सी चीख टीसती है
कौंधने के पीड़ा-सुख तक  चुपचाप,बेआवाज़
किसी डरे हुए पक्षी से फडफडाते हैं कलेंडर के पन्ने
छिपाते हुए खुद से अपनी तारीखों के अवसाद
आंधी में सूखे पत्तों से उड़ते हुए वो मुलायम स्पर्श
फिर ओढ़ लेते हैं कोई हंसी,दुःख,उदासी या मलाल
रात....उम्मीद का पीछा करते शब्दों की निशानदेही पर
पहुँच जाती  हैं उस नदी तक
जहाँ चांद की छाँह में स्मृतियाँ निचोड़ रही होती हैं
अपने शेष दुःख
***

पलायन


कच्चे आंगन में पुराना नीम का एक पेड़ था 
वो मुझे बचपन से उतना ही बूढ़ा,घना और

इस कदर अपना-सा लगता कि मै दादाजी को

उसका जुड़वां भाई समझती 

किसी सयाने बुज़ुर्ग सा

दिन भर गाय से सूरज की चुगलियाँ सुनता

जो बंधी होती उसकी छाँव में 

चींटियों की फुसफुसाहट उसके

तने से झरा करती

मौसमों की बेईमानी से रूठ जाता वो

और कुम्हलाने का नाटक करता 

हर पतझड़ में उतार फेंकता अपने बूढ़े पत्ते

और पहन लेता नयी कोंपलों की पोशाक

और निम्बोलियों के आभूषण

इतराता सावन की बारिश में 

हम बच्चे उस पर चढ़ कर

बैठ जाते वो बुरा नहीं मानता और खुश होता 

तब ताऊ पिता चाचा बुआ दादा दादी

सब साथ उसी के नीचे खाट बिछाकर

सई संझा से बातें करते ज़माने भर की

परिवार समाज देश त्यौहार,बारिश जाने कहां-कहां के

किस्से बतोले

पर कभी नहीं करते

उस दुनिया की जो सरक रही थी धीरे-धीरे

हमारे पांवों के नीचे से 

दबे पाँव ,...बिल्ली सी 

'नीमको बेआवाज़ घटनाओं की आदत थी

मौसमों की तरह

त्योहारों व विवाहों में आये मेहमानों से 

एक एक करके परम्पराएं विदा होने लगीं 

तब पहले विश्वास टूटे फिर मन

फिर परिवार उसके बाद 

ऑंखें तरेरते रिश्ते ,सम्बन्ध लहूलुहान होते

देखता रहा पेड़ ,कहा कुछ नहीं बस 

उस बरस

पतझर कुछ ज्यादा लंबा खिंच गया

आंगन, छत,पाटौर,खेत,कुओं ज़मीनों के टुकड़े हुए 

नीम और गाय देखते रहते अपने अपने हिस्सों से

एक दूसरे को भीजी आंखें 

बेवा दादी तो दो नहीं कई हिस्सों में बट गईं

मन और विश्वास के 

जगह की तरह सिकुड़ते अहसास नहीं कर पाया बर्दाश्त 
वो नीम का पेड़

एक दिन उसने देखा बगलगीर दीवार पर चढती

दीमकों का हुजूम 

बादल,बारिश,धूप,मौसम,सुबह ,ओस

सब थे चकित

ये सोचकर कि

आखिर क्यूँ की होगी आत्महत्या
उस सौ साल के बूढ़े दरख्त ने ....
*** 
यह अनुनाद की 578वीं पोस्‍ट है...

तुषारधवल की नई लम्‍बी कविता - ठाकुर हरिनारायण सिंह

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तुषार धवल
तुषार हमारे समय का बहुत महत्‍वपूर्ण युवा कवि है। वो बेहद आत्‍मीय हमउम्र साथी है इसलिए चाहकर भी मैं उसके लिए सम्‍बोधन के आदरसूचक बहुवचन का प्रयोग नहीं कर पा रहा हूं। राजकमल से आया उसका संग्रह 'पहर ये बेपहर का' बहुत चर्चित रहा है। हमारा यह कविमित्र कविता के साथ ही चित्रकला पर भी समान अधिकार रखता है। फोटोग्राफी और अभिनय में उसकी समान रुचि है।  पिछले दिनों मुम्‍बई में उसके चित्रों की एक प्रदर्शनी बेहद सफल रही है। 

तुषार की कविताएं एक साथ नहीं आतीं। वो कम लिखता है मगर उसका लिखा हमेशा ही एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ है, कविता के सफ़र में। अनुनाद के अनुरोध पर इस कविता को भेजते हुए तुषार ने लिखा है कि एक अलग विमर्श की कविता भेज रहा हूँ जहाँ दलितों के प्रश्न के मद्देनज़र नव दलितों की बात उठाई गई है। यह काल्पनिक नहीं है। गाँव-गाँव में मेरी आँखों देखी और भोगी सच्चाई है। पता नहीं हमारा साहित्यिक बुद्धिजीवी समुदाय इसे कैसे लेगा। इसमें मेरे समाज शास्त्रीय अध्ययन वाला रुझान भी है और गद्य काव्य को अपने अलग भाषा शिल्प में लिखने की कोशिश की गई है जहाँ हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति के बीच से निकलती है,यानि overlap करती है। हम सभी युवा कवि वाकई अपने समाज की उधेड़बुन में फंसे हुए हैं। यहां उलझनें अपार हैं। यह समाज भी कोई स्थिर समाज नहीं है- इसमें गति और परिवर्तन के साथ कई दिशाभंग और मोहभंग भी हैं। 

तुषार की यह कविता पारम्‍परिक सामन्‍ती पतन और नए बदले हुए सामन्‍ती उत्‍थान का एक ज़रूरी आख्‍यान है। हमारे समाज के ये पतन और उत्‍थान इस तरह कविता में पहली बार दर्ज़ हुए हैं। बीते शोषकों के बरअक्‍स अधिक चालाक नए शोषकों की शिनाख्‍़त, एक नई शिनाख्‍़त है - एक नए पैराडाइम को समझने की अनिवार्य कोशिश, जिस पर बहस हो सकती है लेकिन जिससे कन्‍नी काटकर निकलना मुमकिन नहीं। सामाजिक यथार्थ बनाम साहित्यिक यथार्थ के डिस्‍कोर्स में विश्‍वास करने वालों के लिए ये कविता एक विकट चुनौती साबित होगी। अनुनाद इसे प्रस्‍तुत करते हुए एक लम्‍बी बहस की उम्‍मीद अपने पाठकों से कर रहा है। 

इस आख्‍यान के लिए तुम्‍हें शुक्रिया कहना पर्याप्‍त नहीं होगा तुषार....पर इसे स्‍वीकार करो।  
***



ठाकुर हरिनारायण सिंह

(डिसक्लेमर :---- इस कथा के सभी पात्र काल्पनिक हैं और ये भोगे यथार्थ की उपज हैं. यह कथन उस समय का है जो हर भाषा में ऐसा ही कुछ कह रहा है. ) 

***

1 

खण्डहर बताती है कि इमारत बुलंद रही होगी.

ठाकुर हरिनारायण सिंह
खिलता हुआ गोरा रंग छह फुट की काया रक्त दर्पित आँखें घनी मूँछ चौड़ी छाती
धोती कुर्ता रेशम का इत्र से भीनी नसें लपकती हुई उत्तेजना में
स्वर्णभस्म ज़र्दा केसर और गुलाबजल में गमगमाता पान
सोते जागते महफिल में बसी तैयारी में
ठाकुर हरिनारायण सिंह
राजा बलि के पटिदार इंद्र के बराबरदार कामदेव के पैरोकार कहते हैं कई हाथी बँधा करते थे  इनके दरवाज़े पर दिन रात रक्स चलता था इनके रस खाने में अँग्रेजी मोटर मदिरा मेम रहे इनकी ख्वाहिशों में 
ठाकुर हरिनारायण सिंह
मोटर मदिरा तो भोग गये पर मेम से चूक गये.
अब भी कोई पूछ ले तो बुदबुदाने लगते हैं उसी कसक की गुलाबी थूथन को 

ठाकुर हरिनारायण सिंह
सैंकड़ों बीघा खेत अनगिनत रखैलें जिनकी चोली की हुमक पर जमीनें लुटा देते थे बीते रास्तों पर उनके रंगीन बोतलें अश्वगंधा शतावरी और दान की अनगिन कहानियाँ जिबह की दास्तानें उन रास्तों पर वैसी ही मिलेंगी जैसी कि वे छोड़ आये थे लठैतों के झुण्ड में टूटी पायलों की घुटी रुनझुन में राग दरबारी की बंदिशें आनंदमठ और भूदान 
अब रंग झरी दीवारों पर दीमक लगी धुँधली तस्वीरें हैं

कहते हैं 47 के दंगों में वे तलवार ले उठे थे कि मजाल है जो सरन में आयी मुसलमान प्रजा को कोई छू भी ले महासभा और संघ वालों से भिड़ गये थे मूँछों पर ताव दे कर ताल ठोक कर कितने पहलवान तो ऐसे ही पछाड़ देते थे बिस्तर में इकहरा द्वंद खेलते हुए जमीन हार देते थे 
खुश हो कर रण्डियों में आधी ज़मीन और पूरी उमर बँट गयी कुछ प्रजा में और बाकी वे पी   गये. कुछ बीघा ज़मीन अभी भी है लेकिन परती पड़ी हुई अब खेतों पर कोई नहीं जाता कोई नहीं मिलता पत्नी चल बसी गँजेड़ी बेटा औघड़ हो गया बाप से लड़ कर बेटियाँ ससुराल में जल गयीं जिन्हें सती कहते हैं वहाँ के ठाकुर चोर सिपाही सरकारी कारकुन सभी सहमत हैं उनसे उनकी नाजायज़ औलादें भी.
अब अकेले हैं और कोई नहीं पूछता. 

ठाकुर हरिनारयण सिंह 
बुझता हुआ रंग ढली हुई काया झुकती कमर लुंगी गंजी आँखें पिलियाई भवें ढीली 
गाँव की चौहद्दी पर अब भी शतरंज की बिसात पर जमे बैठे हैं
उनकी राजधानी छिन चुकी है अनजान दिशाओं से हुए आक्रमण में
जर जमीन जोरू जेवर जा चुके हैं
अकेले अंधेरे के मातम में डूबी हवेली बूढ़ी मिटती आँखों से
लौट लौट देखती है पलट कर
जैसे साथ चलता कोई छूट गया हो पीछे
मृत्यु के उस पार का वर्तमान है यह
और शतरंज की बिसात बिछी हुई है
उन्होंने चाय के लिये कहा था फिर पान के लिये भी पर कोई नहीं आया
आहत वह चुपचाप प्यादा बढ़ा देते हैं 
कि तभी बसेसर नाथ मिसिर वहाँ बैठे चंद लोगों से कह उठते हैं
घोड़ा सरकाते हुए , “ देख रहे हैं ना कउन जमाना आ गया. बाबू साहब को अब बोलना पड़ रहा है ! अ बोलियो दिये तभियो देखिये कौनो साला झाँकने नहीं आया. यही थे ऊ ठाकुर साहब जिनका गोड़ धर के चाटत रहता था सब. कउन जमाना आ गया...
अब त ऊ चमैनियाँ का बेटवा भी जबाब दे देता है
एक टैम था कि खोंख दें त पाद निकल जाता था सबका
बोढ़ना बिछौना ले के सरपटिया देते थे बहिनचोदन के
ई सुराज का आया कि सब चौपट हो गया एक एक कर के
का जानें ई गाँधी बाबा किये कि अम्बेडकर बाबा कि नेहरू जी
तुलसी बाबा ठिक्के कहते थे “ अइसन कलजुग आयेगा ...”
ठाकुर हरिनारयण सिंह
एक ठगी गई हँसी हँसते हैं
“परजा का केतना हित कर दिये ई नेतवा सब ?
दु चार कौर बासी भात के डाल दिये और बोले खुस रहो
अरे बाँटना है त अइसे बाँटो जइसे हम बाँट दिये ससुर सब कुछ
परजा के देखभाल अइसे होता है ?अरे उसके लिये त ...” 
बसेसर नाथ मिसिर टोके, “ना ना अबकि इलेक्सन में भोट ना देंगे ई काँग्रेसियन के ...”
बाबूसाहब फिर बोले, “अब भोट भात दे कर का होगा बउवा जे होना था हो गया
अब बईठ के मजा लो ससुर इनके खेला का ”
हाँ बाबूसाहब ! जब से पछिया हवा उड़ी है गाँव शहर में यही धूल उड़ने लगी है.
“अब छोड़ रे ई सब ! एक चिलम लगाओ और मगन रहो !”

2.

उनकी आँखों में पतंगें उड़ रही हैं

अंगार धर दो मेरी जीभ पर कि रस मिले
चिलम सुलगा दे कोई आज रात
चिलम सी सुलगा दे कोई मेरी रात  
हाय वो शराब और वो उसकी घूँट !
घूँट भर तो दे कोई आज रात
घूँट-भर की कर दे कोई मेरी रात
तूफान सा उठता है पेट से कहीं नीचे   
बिजली उसी छुअन की तड़कती है     
सोने तो दे कोई आज रात
जीने तो दे कोई आज रात
कत्ल कर दे कोई यह रात
दफ्न कर दे कोई मेरी रात.

3.

दिन की थकी पीली आँखें 
आँखों में मवाद है खरोंच के निशान हैं
सिराहनों में कंकाल हैं
पैतानों में दफ्न चीखें 
हर किसी में मेरी अँगुलियों के निशान हैं
क्या क्या छुपाऊँ अब कहाँ जाऊँ
लहू के काले ताल में एक मछली तड़पती है

वे टूटी हुईं पायलें वे जिबह की दास्तानें  
वे कटे सिर टूटे बदन भग्न कुमारिकायें
सब आकर घेर लेते हैं मुझे कैसे कहूँ
वही था न्याय मेरा उतना ही वैसा ही 
और वह बाजे गाजे का शोर
वह थमता क्यों नहीं है
मस्त हाथियों के झुण्ड सा क्यों चला आता है
मेरे कान में चीखता हुआ दिन रात रह रह कर
ले जाओ इसे मुझसे कहीं दूर
घोंट दो इसे भी दफन कर दो

4.  

ठाकुर हरिनारायण सिंह
एक बीते शोषक का ज़र्द चेहरा अपनी स्मृतियों में जीता हुआ सूखा फूल अपनी ही मज़ार पर बेहुस्न बेलिबास अकेला ढल रहा है जंग लगे डब्बे सा दिन और नगाड़ा बज रहा है गाँव की चौहद्दी पर नगाड़े सा दिन बज रहा है दिन सा नगाड़ा बज रहा है कोई बहुरुपिया आ गया है  और गाँव खाली हो रहा है अदृश आक्रमण यह गाँव के बीचों बीच और धूल उड़ने लगी है पर किसी को नहीं खबर मनोरंजन में रमे हैं यहाँ कुछ,कुछ दूर शहर के पिछ्वाड़े में निचवाड़े में झुग्गियों में परित्यक्त. 
चल रहा है मनोरंजन बहुरुपिया चमरौंधे जूतों में साफों में दूर देश से आया है हमसे हमारी बोली में बोलता हुआ हमारी भाषा में अपने बीज रखता हुआ हम मुग्ध हैं और हमसे हमारी चीज़ें छिन रही हैं एक एक कर रंग गया माटी का फिर पानी के रिश्ते फिर रिश्तों से पानी फिर हमारे गीत छिने और अर्थ शब्द में उनके भरे उड़ानों की दिशा बदली और अब खेतों की बारी है फिर मिथक छिनेंगे और स्मृतियाँ.
पहले गाँव खोखला करो फिर उसे खाली फिर उसे अपनी चीज़ों से भर दो
गाँव पर हमला हुआ है और सब बेखबर हैं

5.

ठाकुर हरिनारायण सिंह
एक चेहरा तब दीप्त अब ज़र्द पर एक चेहरा अदद जिसे कोस लो कि चूम लो या जीत लो
इन नये ठाकुरों का चेहरा नज़र नहीं आता
ये नहीं जानते दया दान यजमान नहीं हैं संरक्षक प्रजा के माई बाप इन नये ठाकुरों की बोली बड़ी सौम्य है इनकी चाल बड़ी घातक. इनके पास गज़ब की ताक़त है मशीनें हैं हवस है मुनाफों में लिप्त आँकड़े हैं स्वार्थ के जिनसे वे दिल्ली बनाते हैं हर क्षण रचते हैं शोषण के नये मानवतावादी सिद्धांत बीते ठाकुरों की बोली में.
नये चेहरों पर पानी उसी पोखर का वही कीचड़ वही माटी हवस की वही कातिल कथा  
वे गुड़ में भर कर कील खिलाते हैं पानी के रंग ऑक्सीजन की शकल में बोतलबंद ढब इन नए ठाकुरों का कोई नाम कोई वंशावली नहीं है कोई संस्कार मर्यादा नहीं उनमें ----
वेग है चपलता है और वे घातक हमला करते हैं वे सिकंदर को हरा कर आए हैं एचिलिस और थीसियस को फतह कर चुके हैं बाप हैं कोलंबस के और अब यहाँ पहुँच गए हैं और गाँव की चौहद्दीपर धूल उड़ने लगी है बदलने लगे हैं बच्चों के खेल और खेलने के ढंग

6.

कुछ नहीं बदला है हाशिये पर जो थे वहीं हैं अब भी बेआवाज़ और नई जाति के ठाकुर आ गये हैं
रीढ़ें पेड़ों से लटका दी गई है
सूखने पर उसके झालर झूमर झण्डे और झाड़फानूस बनेंगे नई सदी के म्यूज़ियम में खाल भर कर रखी जायेगी खेतों पर पलने वाले अंत्यज जीवों की वहाँ डार्विन की सिद्धांत-कथा के नमूने एक गाईड दिखा रहा होगा. 
अगर मँजूर है तो ऐसा ही होगा शतरंज और चिलम के बीच एक लम्बा अंतराल है जिसमें एक पूरा इतिहास और पूरी संस्कृति दफन हो सकती है.
यह गाँव एक टूटा हुआ आईना है जिसमें उसके अक्स नज़र आते हैं बेतरतीब बिखरे हुए जटिल और अस्पष्ट इसके चेहरे पर बिखरे हैं सूखे केश और नाक नज़र नहीं आती आँखों में भाव अपढ़ हैं.

7

ठाकुर हरिनारायण सिंह
उसी गाँव में अब पान की गुमटी चलाते है    
अठत्तर की उमर में.
यह अनुनाद की 579वीं पोस्‍ट है

मणिपुर की अद्वितीय मुक्केबाज कोम को संबोधित दो कविताएं - यादवेन्‍द्र

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अपने रचनात्‍मक सहयोग के साथ यादवेन्‍द्र अनुनाद के सबसे निकट के साथी हैं।  वे हमारी अनुनाद मंडली के सबसे वरिष्‍ठ साथी भी हैं, उन्‍हें मैं हमेशा से अनुनाद के अभिवावक की तरह देखता हूं। वे कामकाज की घोर व्‍यस्‍ततओं के बावजूद विज्ञान, समाज, राजनीति और साहित्‍य की दिशाओं में अपनी निरन्‍तर बेचैन उपस्थिति बनाए रखते हैं। उनकी ये बेचैनियां मुझ जैसे व्‍यक्ति के लिए प्रेरणा बनती हैं। यहां दी जा रही उनकी दो नई कविताएं ऐसी ही बेचैनियों से निसृत हैं, जिनमें उनकी सभी दिशाएं एक साथ मौजूद हैं। 

मेरी कोम

गनीमत 

ग़नीमत है तुम उस समय
लंदन में मुक्केबाजी की रिंग के अन्दर थीं
मणिपुर की काल को मात देनेवाली बेटी मेरी कोम
जब बंगलुरुमुंबई और पुणे में
धमकी और घृणा के बाहुबली बदसूरत मुक्के
गोल मटोल सुकुमार कामगार चेहरों को
शक्ति या कौशल के बल पर नहीं
बल्कि खेल के नियमों को ठेंगा दिखाते हुए
कोतवाल सैंया का मुंह देख देख कर
लहू लुहान करते हुए रिंग से बाहर फेंक रहे थे
और रेफरी खड़ा होकर टुकुर टुकुर ताक रहा था
तुम भारत के लिए बच्चों के जन्मदिन पर मुक्के खा रही थीं 
और इधर भारत तुम्हारे भाइयों और बच्चों को मुक्के मार रहा था
ग़नीमत रही तुम्हारी अनुपस्थिति से 
खेल भावना की लाज बची रही 
यह राज राज ही बना रह गया  
कि खेल के मुक्के ज़ोरदार हैं 
या
नफ़रत और ओछेपन के।   
*** 

डगमगाना 

भारत की धरती पर पाँव रखते ही 
तुम्हारे सीने पर चमकता मेडल देख कर 
माँ को बहके हुए बेटों को पीछे धकियाता हुआ 
मंहगा-सा सूट डाले बाज़ार सबसे पहले
तुमसे हाथ मिलाने पहुँचा 
अचानक छोटी आँखों और चिपटी सी नाक वाली 
पैंसठ सालों से दिल्ली के थानों में छेड़छाड़ की रपटें लिखवाती शकल
भारतीय सौंदर्य का पैमाना बनने लगी
धरती पर मजबूती से पाँव टिका कर 
रिंग में उतरने की अभ्यस्त तुम 
हज़ार रोशनियों की बौछार में 
चेहरे से सारे मानवीय भाव निचोड़ कर 
बिल्ली की तरह सध कर चलने को हुईं 
तो डगमगाने लगी काया.....
ये तुम्हारे क़दम डगमगाए
या डगमगाया हमारा भरोसा   
तने और उठे हाथों वाली चिर परिचित मेरी कोम ?
***
यह अननाद की 580वीं पोस्‍ट है

सपने में होना भी होना है होने जैसा - अशोक कुमार पांडे की नई कविता

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हिंदी कविता की परम्‍परा में बहुत समर्थ और विचार के लिए अत्‍यन्‍त स्‍वप्‍नशील कवियों ने भी जीवन में कभी न कभी हताशा, बेबसी, उदासी और हार जाने के अहसास का सामना किया है। कविता में द्वन्‍द्व के सम्‍भव होने के लिए ये कुछ अनिवार्य अहसास हैं। ऐसी टूटी बिखरी हुई कविताओं में उम्‍मीदों, स्‍वप्‍नों और जीत की घोषणाओं की बजाए इन सभी के लिए लड़ने-जूझने वाली बहस का जन्‍म होता है। ये हारते हुए लिखीं जाती लगती हैं पर होती नहीं हैं। इनमें प्रतिवाद और प्रतिरोध बहुत मुखर और कहीं अधिक गहरे होते हैं। सत्‍ताएं जो साहित्‍य में भी कभी न कभी बन ही जाती हैं, उनसे बहस करना जनता और मनुष्‍यता के पक्ष में साहित्‍य को समृद्ध करना है। ये बहसें बहुत स्‍पष्‍ट रूप में या तो आलोचनात्‍मक निबन्‍धों में हो सकती हैं या फिर कविता के शिल्‍प में.... हमारे पास इन बहसों का इन दोनों ही आकारों में अब एक इतिहास है। अशोक की यहां दी जा रही नई कविता भी ऐसी ही बहस का एक ज़रूरी प्रयास और स्‍वप्‍न है। इसमें अशोक ने उस प्रिय भाषा का सहारा लिया है, जो उत्‍तर भारत के दोआबे की बहुत आत्‍मीय विरासत है। अनुनाद के पाठक ख़ुद देख पाएंगे कि मेरी कही गई इन थोड़ी-सी बातों के कितने सिरे अशोक की इस कविता में जुड़ते और खुलते हैं.....आगे कुछ कहने की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे पाठकों की है। 
***     

अनाम चित्रकार की पेंटिंग : प्‍लेनली स्‍केटर्रड- गूगल से साभार

सपने में होना भी होना है होने जैसा

एक मुसलसल यात्रा के बीच मिली बापरवाह नींद में भी सपने आते हैं

सारी वजूहात हैं अवसाद में डूब जाने की
सारी वजूहात है तुम्हें आखिरी सलाम कर चुपचाप कोई तीसरी कसम खा लेने की
सारी वजूहात हैं मौत से पहले एक लम्बी नींद में डूब जाने की
ऐसे हालात में तुम याद दिलाते हो वह अभिशप्त शब्द मुखालिफत 
वैसे इन दिनों एक यह भी तरीका है कि इसकी जगह लिखा जाय खिलाफ़त और चुपचाप किसी खलीफा के दरबार में कब्ज़ा कर ली जाए कोई जगह.

उनका किस्सा और है जिनकी /
हारना किस्मत है/ मुखालिफत फितरत

बेतार के तारों में उलझी कितनी ही आवाजें गूंजती हैं
कितने शब्द तैरते हैं सिलिकान शिराओं में दिन-रात
रोज कितने ही सवाल
कितने ही जवाब
कैसी आपाधापी
कैसी चुप
सच
झूठ
मीठे
कडवे

आज मैं किसी ऐसे दोस्त के फोन के इंतज़ार में हूँ जिसे अपनी उस पुरानी प्रेमिका की याद आ रही हो अचानक जिसे मैं जानता था. आज मैं एक शराबी शायर का पाजामा पहनकर ऊंची आवाज़ में गाते हुए गुज़रना चाहता हूँ तुम्हारी गली से और किसी दोस्त की छत पर देखना चाहता हूँ अपने मष्तिष्क की नसों को बिखरते हुए रेशा-रेशा. 

मैं किसी गलत ट्रेन में चढ़ गया हूँ शायद. या फिर जिस सीट पर बैठा हूँ वह नहीं है मेरी. जिन कपड़ों में है इन दिनों मेरी देह वह किसी लाश की देह से उतारे हुए हैं शायद और उनकी गंध ने हर ली है मेरी देहगंध. मैं जिस घर में हूँ उसमें कोई कमरा मेरा नहीं. जो कुछ सबका था वह सब अब हुआ समाप्त. ले दे के सड़क ही बची है अंतिम शरणगाह, जहाँ बहुत भीड़ है और एक भयावह खालीपन.

आज इस शब हो जाए वह सब जो होना है /शब-ए-क़यामत है कमबख्त किसे सोना है



मैं नींद में नहीं हूँ स्वप्न में हो सकता हूँवह दीवार जमींदोज हो चुकी है जिसके उस पार स्वप्न थे और इस पार सच. मैं उस दीवार के मलबे में धंसा पाँव निकालने की कोशिश में लगी चोटों के दर्द के सहारे फर्क करता हूँ ख़्वाब और हकीक़त में और दोनों बहते से लगते हैं खून की ताज़ा धार में.


होना इन दिनों दर्द की भाषा का एक विस्थापित शब्द है

मैं नीमबेहोशी में उठता हूँ और चलता हूँ तुम्हारी ओर 
तुम इंकार कर दो मुझे पहचानने से
मैं खुद के होने से इंकार करने आया हूँ तुम्हारे पास
यह वस्ल की शब है इसे अलग होना है शब-ए-हिज्राँ से

ख़्वाब पिन्हाँ हैं इस कदर मेरी नफ़स में कि/ अपने साए के कफस से निकल आया हूँ
***
 
यह अनुनाद की 581 वीं पोस्‍ट है 

प्रशान्‍त की लम्‍बी कविता- आधा रास्‍ता

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प्रशान्‍त 
प्रशान्‍त मेरे लिए परिचित कवि नहीं रहे हैं अब तक।  कुछ कविताएं मैंने ब्‍लागपत्रिकाओं में पढ़ी हैं। उनकी यह लम्‍बी कविता मुझे साथी अनुनादी अशोक कुमार पांडेय के सौजन्‍य से प्राप्‍त हुई है। इस कविता की शुरूआत में ही कवि द्वारा व्‍यक्‍त घायल बाघ की तरह अपने घाव का स्‍वाद लेने की इच्‍छा और अपनी जीभ के खुरदरेपन का अजब अहसास एक नई दिशा को इंगित करता है। मेरे लिए ये बहुत अपना अनुभव है, जहां हर कविता एक घाव है और उसे सम्‍भालने की हर कोशिश अपनी ही जीभ का खुरदुरा स्‍पर्श। यहां प्राकृतिक क्रिया-व्‍यापार और संकेत भीतर के वीराने की आवाज़ बन जाते हैं। घास और पत्तियों से आती राहत की सांस, जो भाप छोड़ती रोटियों की याद दिलाती है। कविता में प्रकृति को बरतने के ये दृश्‍य अधिकांशत: नए और मौलिक हैं। इनमें कोई बनावटीपन नहीं, बाहर-भीतर की एक सहज यात्रा भर है। कोई स्‍टेटमेंट देने का हल्‍का-सा भी प्रयास नहीं। इनमें रेत और पानी की नज़दीकी नई अर्थच्‍छवियों में खुलती दिखाई दी है। बहुत जाहिर नहीं पर विस्‍थापन की एक टीस पूरी कविता में समाई दीखती है और आधे रास्‍ते का ये रूपक भरपूर खुलता है। यह एक नए अनुभव संसार की कविता है, जिसे मैं उम्‍मीद की तरह देख रहा हूं। मुझे यक़ीन है कि आगे कविता के इलाक़े में प्रशान्‍त के क़दम और भी सधेंगे, साथ ही उनकी वैचारिकी भी कुछ और खुलेगी। अुननाद इस पोस्‍ट के लिए कवि प्रशान्‍त और अुननाद के सहलेखक अशोक कुमार पांडेय का आभारी है। आशा है आगे भी प्रशान्‍त की कविता की आत्‍मीय आहटें अनुनाद पर बनी रहेंगी। 
***

आधा रास्ता

सूखी पत्तियों पर बैठा
मैं सहला रहा हूँ अपने घाव
जी चाहता है कि
उसका स्वाद लूं
एक घायल बाघ की तरह
पर
डरता हूँ
अपनी जीभ के खुरदुरेपन से.
देखता हूँ
इस हरे-भरे
पुकारते बीहड़ को
किसी अस्पताल का हरा परदा हो जैसे,
आँखों को सुकून  मिलता है
पर
घर लौटने की बेचैनी कम नहीं होती.

नब्ज़ टटोल कर गिन रहा हूँ
अपनी धडकनें
सौ से कम क्या होंगी ?
वक्त..
थोडा और गुजरने दूँ.
अभी तो बाकी है
कितना ही फासला......
कपड़ों में उलझे कांटे निकालूं
और
जूतों में घुसी रेत
जो पता नहीं कहाँ से साथ चलती आई है मेरे.

एक सांत्वना खुद को---
कुहनियों का छिलना,
घुटनों के फूटने  से तो बेहतर है,
जब आप एक लम्बी
यात्रा पर निकले हों(वो भी पता नहीं कितनी?)

हिम्मते-मर्दां,
उठा एक कदम
और दूसरा...
और तीसरा,
और...
चल.....
खुद बनाते अपनी पगडंडियाँ

पत्तियों,
टहनियों की चरमराहट,
चेहरे में  उलझते जाले,
कैसी-कैसी आवाजें कीड़ों की,
और
चिड़ियों की चहचहाहट,
सुनसान - इतना सूना भी नहीं होता......
और
न ही
हर चिड़िया की आवाज एक कूक.
साथ मेरा डर,
ढेर सारा वहम भी....

सामने
एक खुला विस्तार,
निर्जन नहीं पर दुर्गम(आह! जंगल कितना सुखद था).
हाथ की ओट से,
बस
एक निगाह ऊपर,
रेगिस्तान की दोपहर जैसा,
झुलसता
पिघलता सूरज,
गर्म मोम-सी टपकती किरणें,
और
घास
बस
सुलगने को तैयार सी.

नहीं,,,
रुकना मतलब आधे(?)सफ़र में रात.
हिम्मते-मर्दा...
फिर एक कदम,
और दूसरा,..
और तीसरा....
चीखते सूरज को कर अनसुना
भर कर आँख में अँधेरा
शरद की एक ठंडी रात से बात
रात को ऊबाती
एक लम्बी बातचीत,
(अगली आड़ तक तो कम से कम).

बबूल की ही छाँव सही
कांटे दो-एक और सही
एक पत्थर का तकिया
पसीने से भीगी शर्ट की चादर..
क्या खूब मजे हैं!!
पपड़ाये होंठ अब याद आये.
धीमे चढ़ता जहर-सा दर्द
हाथ टटोलते हैं डंक का निशान.
नहीं,
कोई नहीं 
फिर ये दर्द!!

ज़बान होंठों पर फेरता,
बस एक घूँट पानी का......
मैं देखता हूँ
रात से मेरी बात को छुप-छुप के सुनती
शाम चली आई है
पीछे-पीछे
छुपी बैठी है
मिला है उसे भी एक दरख़्त,
बैठने के लिए.

जरा सी आँखें मूंदीं
और दिखने लगी
मेरे सामने बैठी तुम
नीले लहराते पानी पर लहराती बोट
पानी पर
दूर-दूर नजरें घुमाता हमारा नाविक.
झुक कर पानी को छूता हमारा बेटा
और बार-बार उसका पूछना
डॉल्फिन कहाँ है?

और
तभी दिखता है
वह अकेला लड़का
कुछ ही दूर
उस पथरीले मगर हरे-भरे टापू पर,
किनारे की चट्टानों पर चलता
और वो भी
हाफ-पैंट और चप्पलों में!
चौबीस-पच्चीस  का होगा दुस्साहसी....

ऊँचे पत्थरों पर चलता
उस ऊँचाई से ऊपर
कि जहाँ तक
पत्थरों पर चिपकी हैं
सीपियाँ
जिन्हें खुरच कर निकालती हैं
मछुवारों की बीवियां और बच्चे
अपनी छोटी-छोटी डोंगियों में बैठ कर...

वह चल रहा है
हर पत्थर के टीले के किनारे पर ठिठकता है,
जांचता है..
भांपता है...
तय करता है
अपना अगला कदम
और
पलट कर कभीदूसरा रास्ता भी लेता है
मगर मंजिल तय है उसकी
उसे पूरा व्यास तय करना है
उस पथरीले मगर हरे-भरे टापू का
किनारे-किनारे
सागर का संगीत सुनते.

डॉल्फिन को भूल
उसे देखते
आज अचानक ये सोच कर धडकनें बढ़ गयी-
कैसा होगा वो सुख
अगर
आधा रास्ता तय करते ही
मैं दिखता उसे
किसी पत्थर पर बैठा
सुस्ताता,
कैसा चौंकता मुझे देख कर!

और चौंक जाता हूँ मैं भी!!!
आँखें खुल जाती हैं
भक्क से!
हाथ अपना ही है सीने पर
एक स्मित मुस्कान तैर जाती है मेरे होठों पर
एक अंगडाई.......
और
पैरों को करता हूँ सीधा...

चाँद निकल आया है
शाम चली गयी
मुझसे बिन बात किये.
छोड़ गयी है कुछ तारे,
शायद मेरी निगरानी को.....

दर्द गायब है
रात ठंडी है
झींगुरो को सुनता
ब्रेड चबाता
निहारता हूँ सब ओर....
जुगनुओं का एक झुण्ड
बैठा है पास ही
एक और बबूल पर-
काँटों में जैसे तारे खिल आये हों
जगमगाता है पेड़
क्रिसमस ट्री जैसा..
छोटी-छोटी झाड़ियाँ झूम रही हैं,
जैसे
कोई बेशब्द ग़ज़ल सुनती हों......
धूप से झुलसी
घास और पत्तियां
राहत की सांस लेती हैं
खुशबू बिखेरती है
जैसे
भाप छोडती रोटियाँ....

बस अब एक नींद...
गहरी.....लम्बी.....
और
निकल जाऊंगा भोर होते ही,
तरोताजा.....
उसी सागर की ओर...
उसी टापू की ओर.....
जहाँ बीच रास्ते बैठना है मुझे
वैसे ही
किसी को चौंकाने के लिए
कि
शायद खिलखिला उठें हम
ऐसे अचानक मिल के........

मेरी मंजिल बस एक आधा रास्ता है अब......
***
16 फरवरी 1975 को जन्‍मे प्रशान्‍त आजीविका से इंजीनियर हैं। हाल ही में उनकी कविताएं असुविधा, जानकीपुल, कथादेश और परिकथा में छपी हैं।  
यह अनुनाद की 582 वीं पोस्‍ट है 

कविता जो साथ रहती है / 2 - विनोद कुमार शुक्‍ल की कविता : गिरिराज किराड़ू

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कवि की तस्‍वीर रविवारसे साभार 
गिरिराज किराड़ू ने अपने स्‍तम्‍भ की दूसरी कविता के रूप में विनोद कुमार शुक्‍ल की कविता का चयन किया है, जो संयोग से मेरी भी प्रिय कविता रही है। गिरिराज की ये टिप्‍पणियां किसी भी औपचारिक अनुशासन के बाहर बहुत भरे दिल की पुकार हैं। 'पहले से अधिक विभाजित और अन्‍यायी ग्रह पर मरने' की त्रासदी हम सबकी है, इसलिए यह पुकार भी उम्र भर के लिए हमारे दिल में घर कर जाएगी। नवीन सागर पर इस स्‍तम्‍भ की पहली टिप्‍पणी हमारे पाठक यहां पढ़ सकते हैं। 
*** 

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे

मैं उनसे मिलने

उनके पास चला जाऊँगा।

एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर

नदी जैसे लोगों से मिलने

नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा -


इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।

***

                          सद्कामना के अरण्य में



1

इस कविता के पहले वाक्य ने जो तीन छोटी काव्य पंक्तियों में फैला है ने पढ़ते ही बाँध लिया था. मैं जिस तरह के समाज में, पड़ोस और मोहल्ले के जिस घेराव में बड़ा हुआ था उसमें वे लोग जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे वे अक्सर 'बाहर' के लोग नहीं थे, वे लोग थे जिनसे कभी प्यार रहा होगा, जिनसे अब रंजिश है (अंतरंग शत्रु, इंटिमेट एनिमी?) और इस लिए वे मेरे घर नहीं आयेंगे मैं उनके घर नहीं जाऊंगा. कुछ ऐसा अपने में गाफिल संसार था छोटा-सा. 'नाली साफ़ करने वाली के हाथ नहीं लगाना है' से 'बाहरी' का अनुभव उस तरह से शुरू नहीं हुआ था;  'आउटसाइडर' की कल्पना के लिए जगह बहुत बाद में बनी जब परकोटे के भीतर के ही 'मुसलमान' और परकोटे के बाहर के "यूपी वाले......" और "..... बिहारी" पान की दुकानों और निठल्ली दोपहरों के किस्सों में आये. 

और उसके बाद तो 'बाहर' बहुत बड़ा होता गया, जितना भूगोल में नहीं उससे ज्यादा अपने भीतर और लगा यह पृथ्वी ऐसे लोगों से भरी है जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे और रंजिश अक्सर कोई वजह नहीं होगी उसकी. बल्कि वे जो मेरे घर आयेंगे वह एक बहुत छोटी-सी, छटांक-भर  जनसँख्या ही रहेगी और अब उसे पूरा संसार समझने जितना गाफिल रहना मुश्किल होता जा रहा है. मैं असंख्य लोगों के घर गये बिना और असंख्य लोग मेरे घर आये बिना मर जायेंगे. यह सब बहुत अस्पष्ट तरीके से मन में चलता रहा था जब यह कविता जीवन में आयी. और तुरंत तो  इसके 'समाधान' ने बाँध लिया. जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे उन लोगों से मिलने जाना ही इस समस्या का समाधान है.

लेकिनतीन छोटी काव्य पंक्तियों से आगे बढते ही कविता मनुष्यों की नहीं उफनती नदी, पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब असंख्य पेड़ खेत  की बात करती है जो इस कविता के वाचक के घर कभी नहीं आयेंगे और अंत में उनकी भी जो लगातार काम से लगे हैं. क्या यह वाचक कभी उन सबके - नदी जैसे लोगों के, खेत खलिहानों जैसे लोगों के - घर जा पायेगा? या यह उसकी सद्कामना  भर है? अकर्मक सद्कामना!  यह पद -  अकर्मक सद्कामना - बाद में बहुत परेशान करने वाला रहा है. कई अरब लोगों से मिल पाना तो किसी भी तरह संभव नहीं फिर यह कविता इतना सटीक लेकिन असंभव समाधान क्यूँ पेश करती है? सद्कामना कर्म की एवजी क्यूँ है? इसलिए नहीं कि वह कर्म-आतुर नहीं बल्कि इसलिए कि उसे इस कर्म की असंभाव्यता का ठीक ठीक अंदाज़ है? वह एक असंभव कर्म की कामना इसीलिये करती है कि केवल कामना में, कविता में ही असंभव को भी इस तरह 'किया' जा सकता है?

2

विनोद कुमार शुक्ल की कविता में प्रकृत और आदिवास अभिलेख नहीं हैं. वे एक खोयी हुई दुनिया नहीं है जिसकी और 'लौटना' होगा - एक पुकार जो कभी योरोपीय रोमेन्टिसिज्म में सुनाई दी थी. और जिसकी परिणति, ऐसा कई अध्ययन कहते हैं, जर्मन नाजीवाद में हुई थी. विनोद कुमार शुक्ल के लेखन  में लौटने की जगह है : घर. प्रकृत और आदिवास नहीं, घर वह जगह जहाँ वह लौटते हैं. बार बार. प्रकृत और आदिवास के पास जाना है , लौटना नहीं है.

3

एक साक्षात्कार में आलोक पुतुल ने विनोदजी को सीधे पूछा है कि क्यूँ बहुत कुछ उनके लेखन में केवल सद्कामना है? इसी कविता में कर्म नहीं कर्म की कामना है. कर्म और कामना के बीच नैतिक हायरार्की में कामना सदैव निम्नतर क्यूँ? कला में सद्कामना एक बनावट से अधिक कैसे बनती है? कला अपने में कर्म है या उसमें से जो झांकता है वही कर्म हो सकता है, और वह भी  हमेशा नहीं, जैसे इस कविता में नहीं?

हर कविता दो बार एक कर्म है : एक बार जब वह लिखी जाती है, दूसरी बार जब वह पढ़ी जाती है. और यह दूसरा कर्म कई कई बार होता है. इतनी बार जो कर्म है उसकी अंतर्वस्तु  सद्कामना है? क्या हर पठन में इसकी अंतर्वस्तु वैसी ही बनी रहती है? क्या हर बार एक सद्कामना ही पाठकर्ता का हासिल होती है? या कविता की सद्कामना एक पाठकर्ता के लिए कर्म या उसकी उत्प्रेरणा बन सकती है? इस कविता का हर पाठक क्या यह कामना भर करेगा कि वह सबके घर जायेगा या वह कुछेक के घर 'सचमुच' जायेगा भी? क्या कुछ गये भी? इन पाठकर्ताओं में स्वयं लेखक भी शामिल है. खुद उसके लिए यह कविता क्या किसी कर्म की उत्प्रेरणा बन पाई?

पर विनोदजी से ऐसा प्रश्न पूछने के लिए आपका नाम आलोक पुतुल होना चाहिए.

4

फुरसत चिढ़ाने वाला शब्द है.
फुरसत समर्थ का विकल्प है.
फुरसत एक जरूरी काम है अगर आपको सबके घर जाना है.

5

अब जबकि दूसरों के घर और मन तक जाने के गोरखधंधे में दिल पर कई खरोंचें भी लग चुकी  हैं (मेरी तो मैं कह ही रहा हूँ, दूसरों के जो मैंने लगाई होंगी वे भी), अब जबकि दूसरों के घर और मन तक जाने का इरादा पहले जितना निश्चय भरा तो कतई नहीं है, अब जबकि सद्कामना और सकर्मकता का भेद अपनी विज्ञापित जटिलता तज कर अपनी सहज सरलता की ओर बढ़ रहा है मेरे लिए, तो यह कविता हर दूसरे दिन याद आती है.

अब जबकि बाहर इतना है कि उसके पहले जो था मेरे पास वह अर्थहीन हो जा रहा है , अब जबकि घर कहने से आने वाली यादों में दश्त की याद भी शामिल हो गयी है, अब जबकि मैं एक दूसरा हूँ यह कविता अपने और पराये, घर और बाहर, सद्कामना और सकर्मकता को एक दोहे-सा बांधती हुई बार बार हर दूसरे आँसू याद आती है - मैं कर्म की अपनी मामूली कोशिशों के साथ सद्कामना के अरण्य में किसी दीदा-ए-तर की अनुकृति होने की कोशिश में पहले से अधिक विभाजित और अन्यायी ग्रह पर ही मरूंगा? न्याय बस का नहीं था, अन्यायी जद में नहीं था लेकिन जितने लोगों के घर जा सकते थे, जितनों को अपने 'यहाँ' बुला सकते थे  उसका एक ज़रा सा हिस्सा भी नहीं किया, और इसे अपनी पहली या अकेली नहीं, बस आखिरी इच्छा की तरह  लेते हुए ही  जायेंगे?
***
यह अनुनाद की 583वीं पोस्‍ट है

अनिल कार्की की तीन कविताएं

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अनिल कार्की
ये हमारी नाउम्‍मीदी और अपनी नौउम्र उम्‍मीद की संधि पर खड़े एक विचारवान नौजवान की कविताएं हैं। इनमें सपाट दिखते बयान हैं, जो उतने ही जटिल भी हैं....उनके अभिप्राय समझने के लिए एक राजनीतिक समझ चाहिए। इतना त्‍वरित कुछ नहीं, जितना दिखता है। उदास दिनों को बदल देने की यह पूरी जद्दोजेहद आक्रोश और सपनों को मिलाने वाली उस अकेली महान वैचारिकी से आती है, जिसे हम वामपंथ कहते हैं। मेरी उम्र के कवि जब उदास दिनों को जीने को स्‍थाई की तरह दुहराने पर मज़बूर हैं, तब अनिल जैसा नौजवान फिर उसी राह से आता है और कहता है -

आदमी
मैं भी तुम्हारी ही दुनिया का हूँ
जहाँ हर एक  जगह
तुम्हारे मित्रों से भरी है
                                    गले गले तक
                                    जहाँ उम्र लहलहा रही
                                    और बर्बाद हो रही है
                                    तुम्हारे सड़ियल  सरकारी ताम झाम में

वाकई हमने मुस्‍कानों के सारे कोने गम्‍भीर कर दिए हैं। जाहिर है (और ज़रूरी भी) कि मशाल अब ऐसे ही नौजवानों के हाथ में है, जिनके पास हमारे लिए साफ़ संदेश है (हालांकि अनिल की कविता में इसका संदर्भ अलग है, जहां कवि राजनीतिक और साहित्यिक सत्‍ताओं और उनकी सांस्‍कृतिक विलासधर्मिता से मुख़ातिब है) - 

                                     याद रखना कविता के ख़त्म होने का मतलब
                                     हमेशा तालियों का बजना हो जरुरी नही !
                                             वह पहली और अंतिम चेतावनी भी हो सकती है
                                             तुम्हारे लिए

अनुनाद को इस हमारी समूची कवि पीढ़ी के लिए इस चेतावनी के लिए मंच बनाते हुए मैं अनिल और उसकी इन कविताओं का एक बेहद ज़रूरी शुक्रिया के साथ स्‍वागत करता हूं। उल्‍लेखनीय है कि इससे पूर्व अनिल का लोकभाषा और कवितापर लेख अनुनाद की अब तक की सबसे अधिक पढ़ी गई पोस्‍ट है।
*** 


अनिल कार्की की तीन कविताएं
1

हमारे उदास दिन
हमारे भी उदास दिन
अपना रंग बदलेंगे


हमारी अपनी धरती का ओर पोर
हमारे ही पसीने की नदी में
हरियायेगा जब
हम ख़ाली जेबों वाले
हम भरी आँखों वाले
आक्रोश ओर सपनों को एक साथ मिलाने वाले
हम सब


कौन कहता है
कुचल दिए जायेंगे
लूट दिए जायेंगे
वो भी उनके हाथों
जिन्हें हथियार चलाने का शऊर नहीं


ज़रा सोचो
हमारे पास उम्र है वो भी लम्बी यातनाओं वाली
तजुर्बेदार
जैसे भाषा सीखते हुए
बच्चों की इमला होती है
हम जानते है
गलत वर्तनियों को लाल स्याही में
किस तरह गोल बंद किया जा सकता है


इस तरह नही होते उदास
जैसे छूट गयी हो दुनिया
हमारे हाथों से
और हाथ हमारे काँधों से


बीते दिनों से कह कि हम ले आयंगे मौसम ताज़े नरम गरम गुड वाला
मुस्कान और होठों की थिरकन
वाले पल
और नदी की विराट सूखी तलहटी के गिर्द 
पीली सरसों वाला बसंत
***

2

आदमी
मैं भी तुम्हारी ही दुनिया का हूँ
जहाँ हर एक  जगह
तुम्हारे मित्रों से भरी है
गले गले तक
जहाँ उम्र लहलहा रही
और बर्बाद हो रही है
तुम्हारे सड़ियल सरकारी ताम झाम में


तुम ख़बरों की तरह पढ़ रहे हो  उम्र को
मालिकों के चमकदार अख़बारों में
पिछले अनस्वोल्ड पेपरों को
पढ़ते हुए भी
बहुत सारे प्रश्न हल होने के बजाय
और मोटे  होते  जा रहे है पिछले अनस्वोल्ड
जबकि कक्षाएं बढती जा रही है तालीम की
प्रश्न रह गये है जस के तस


मै उस महान देश का
निक्कमा आदमी हूँ
जहाँ फ़सलें कट चुकी होती है
पकने से पहले
और अवयस्क उम्रों में ही
बाँधे जा चुके होते है
गुलामख़ानों से
लम्बी दौड़ के घोड़े


आदमी मैं भी
जिसे देखा है तुमने
भेड़ की तरह

चुगाये है  विमर्शों के सूखे बुगियाल
रोटी अनाज की जगह
तुममे भस है
अजीब सी
तुमने मुस्कानों के सारे कोने गंभीर कर दिए है
और सम्मानों के सारे तमगे
झुर्रियों से भर दिए है
किताबी दीमक की तरह
सबसे खूबसूरत कविता को खा गये हो तुम


तुम्हारे चमकदार पेट के भीतर
हमारी कविता कुलबुला रही है
ये दुनिया जिसे तुम अपनी कहते  हो
उसे देखने  की नजर  तक को हजम कर गयी है
चर्बी में धंसी तुम्हारी आँखें


अब तुम कहते फिर रहे हो
विचार भ्रामक है
वह सार्वभौमिक नही हो सकते


तुम जो आनन्दित हो
तुम जो मस्त हो
तुम जो खरीदते हो और बेचते हो
आदमी औरत बच्चे
तुम !
हाथ कभी भी पहुच सकता है
तुम्हारे मोटे थुलथुले गले तक
कभी भी नाथे जा सकते हो तुम


            याद रखना कविता के खत्म होने का मतलब
            हमेशा तालियों का बजना हो जरुरी नही !
            वह पहली और अंतिम चेतावनी भी हो सकती है
            तुम्हारे लिए
***

3

मटमैली  साँझ
बीड़ी पीते हुए सुस्ता रही है


इस वक्‍़त अंधे बच्चे
की तरह
झील ढूंढ रही
अपने भीतर कहीं
चाँद की परछाई
जबकि एक बूढ़ा
अंगूठा
लगातार साफ़ कर रहा है चश्‍मा


विगत और आगत के
बीच पसर कर बैठा है
उल्लू
जिसकी आँखों में
अजीब सा नशा है
जिसने विगत की आखें नोच ली है
और आगत की आँखें
लहलुहान
उसके सामने अधमरी सी हिल रही है


ये एक इसी जगह है
जहाँ पैदा होने के नियम है
और मरने के भी
जबकि जीने के सारे नियम
फ़ौजी काले बक्से में बंद है
और उसे तिरंगे झंडे से  लपेट  दिया गया है
जिससे जीवन के
टपक कर गिरने और
जमीन पर अंकुराने  की गुंजाइश
न के बराबर है !


हरवा
आज क्या है ?
के नारे पर ही उलझ कर रह गया है
कतई दार्शनिक वाले अंदाज में
वो हर बार जवाब देता हैं
आज तो
बस्स आज ही हैं
वो सोचता है
कि कोई तो बताए
कि कल क्या है !
*** 
चित्र गूगल इमेज से साभार
यह अनुनाद की 584वीं पोस्‍ट है

श्रीकांत दुबे की चार नई कविताएं

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श्रीकांत दुबे
कविता और कहानी के प्रदेश में श्रीकान्त दुबे हमारे ख़ूब जाने-पहचाने प्रतिभावान युवासाथी हैं । मेरी श्रीकांत से एक छोटी-सी मुलाक़ात बनारस में हुई थी.....2005 में..... चंदन पांडे, मयंक और हमारे बुज़ुर्गवार वाचस्‍पति जी के साथ। चन्‍दन और श्रीकान्‍त की उस उम्र की आंखों में जो चमक थी, वो अब उनके रचना-संसार के साथ सबके सामने है। आज अनुनाद पर श्रीकान्‍त की चार कविताएं लगाते हुए वह बहुत आत्‍मीय अपना-सा एक अहसास और भी गाढ़ा लग रहा है। किसी को निजी लग सकता है ऐसा कहना पर यह उतना निजी नहीं....साहित्‍य में सारा निजी अंतत: प्रकाशित होते जाने वाली चीज़ है। निजता की अभिव्‍यक्ति हमें और हमारे लिखे को विश्‍वसनीय बना देती है.... अगर वह अपने परकोटों से बाहर के संसार में छलांग लगा पाए तो - ठीक यही काम श्रीकान्‍त की यहां प्रकाशित कविताएं भी कर रही हैं। निजता यदि सच्‍ची और अर्थवान है तो वह समाज और राजनीति में अतिक्रमित हो जाती है, उन्‍हें भी अपने भीतर लाती है। ऐसे अतिक्रमण को बख़ूबी सम्‍भव करती हुई श्रीकान्‍त की इन कविताओं में देखा जा सकता है कि इनके गहरे मर्म हमारे विकट और क्षुब्‍ध सामाजिक एकान्‍त से आते हैं ... हमें झकझोरते और जगाते हैं। 

मैं श्रीकान्‍त का अनुनाद पर स्‍वागत करता हूं और इन कविताओं के लिए शुक्रिया भी कहता हूं।   
*** 

सल्‍वादोर डाली : गूगल इमेज से साभार

याददाश्त

याददाश्त में बचपन की किसी रात देखे सपने के दृश्य ताजा होते हैं जिसमें दशकों पहले के विदेश गए चाचा वापस लौटकर घर के दरवाजे पर टहलते रहते हैं। पिता याददाश्त में पैरों से घायल होते हैं और पुरानी साइकिल की जंग खाई फ्रेम पर कुल्हाड़ी बांध हर सुबह जाते हैं काम पर।

याददाश्त के एक धुंधले चित्र में बहन हसरत से देखती है मुहबोले भाई की तस्वीर यूं खुलती है बात कि बहन की मौत और विनायक भइया का गायब हो जाना एक दूजे से जुड़ी चीजें थीं।

याददाश्त में बीमार दादी दवा के जिक्र, डाक्‍टर की अनुपस्थिति और वातावरण में छाए बुखार के रंग के बीच खत्म होती हैं धीरे धीरे। याददाश्त में मां की हथेली उंगलियों पर तौलिया उलझाए खपरैल के किनारे की ओर उठी होती है, तौलिए की गीली कोरों से बूंदे टपकती रहती हैं और दृश्य में मां के मुह से एक तिरछा कटा दांत झांकता रहता है बाहर।

याददाश्त के घर के मुंडेर के पीछे से श्रीफल के पत्ते दिन ब दिन गहरे-घने-हरे होते हैं और दादा के चेहरे की असली बनावट चमड़ी की झुर्रियों और सांवली झाइयों पर चमकते सफे़द बालों के बीच लगातार ग़ायब होती जाती है।

याददाश्त में एक रात पूरी दुनिया में बारिश होती है और लकड़ी और मिट्टी की उलझन से बने छत से टपकती रहतीं हैं बारिश की अनंत बूंदें।

याददाश्त के एलबम में चुपचाप घटित होती एक तस्वीर में दोनो ओर की झाड़ों से अपनी आधी चौड़ाई में ढॅंकी सड़क का रंग तेज धूप के चटक पीले रंग का होता है और उस पर विपरीत दिशा से आती लड़की अपने पहले चुम्बन के बाद लगाती है बेतहाशा एक दिशा की लम्बी दौड़।
***  

घर

हर शाम में घर जरूरी होता था।

दिन के तीसरे पहर में शुरू हो जाती थी अचानक घनघोर बारिश और छुट्टी के वक्त के चार बजे को दिन के दायरे से घसीटती हुई पहुंचाने लगती थी रात की शुरूआत के छः या सात बजे तक स्कूल की दीवारों पर सटने लगते थे अजनबी अंधेरे और रात किन्हीं अनजान शैतानों की तरह घेरने लग जाती थी हर ओर से तभी डेढ़ कोस की दूर यानी घर की ओर से उठता था एक हहाका लगातार घुसता जाता था सीने में चक्रवात जैसे हहाके में मिले होते थे बारिश और अंधेरे के गंध और तस्वीरें पर उसमें छोटे घर में एक से दूसरे कोने तक डोलती मां की उपस्थिति सबसे अधिक होती थी और बारिशें और अंधेरे डरावने तो जरूर, लेकिन खूबसूरत भी लगा करते थे जैसे कभी न टूटने की आश्‍वस्ति से भरे पिंजरे के पीछे कोई गुर्राता बाघ।

स्कूल से सबसे बाद में जाता था चपरासी कोदई प्रसाद जो जाने से पहले हर एक कमरे के हरेक कोने की छानबीन कर खोज ही लेता था कोई न कोई पेंसिल, रबर, चांद, परकार, कोई कलम या चंद कोरे पन्ने अपने बच्चों के लिए और बारिश वाली ऐसी हरेक शाम में एक निर्धारित कोने में उसे मिल ही जाता था मैं भी। मेरा कोदई प्रसाद को मिल जाना मेरे सीने के भीतर के हहाके को खत्म तो नहीं, लेकिन कुछ कमअसर जरूर कर देता था वह चुपचाप उठा लेता था मुझे जैसे वह किसी मास्टर के कहने पर चुपचाप उठा लिया करता था कोई कुर्सी, कोई स्टूल फिर एक छोटे कमरे वाले दफ्तर में चेहरे पर उगी हल्की सिकन के साथ वो एक भारी सा मेज। उसकी साइकिल सीधे स्टैंड पर खड़ी रहती थी जिसका कैरियर वर्षों तक टूटा ही रहा था और इसके आधार पर यह भी कह सकता हूं कि वह वर्षों पहले से टूटा रहा होगा, कोदई प्रसाद उस टूटे कैरियर के दो जुड़े सिरों पर टिका देता था मेरे पैर और मैं उसके कंधे पर अपने हाथ रख खड़े खड़े करने लगता था रात की सवारी। कभी कभार चांद वाली होने के बावजूद बादलों के असर में वे रातें गहन अंधेरी हुआ करती थीं लेकिन कोदई प्रसाद फिर भी नहीं भूलता था कीचड़ से भरी मिट्टी की कच्ची सडक से गुजरती, कम कीचड़ वाली पतली लीकें। शायद उसकी साइकिल के पास भी थीं आंखें जिनके देख पाने के लिए रौशनी कोई जरूरी चीज नहीं थी।

मैं फिर से घिर आया हूं एक वैसी ही शाम में कोई न कोई रात अब भी आने वाली है, दशकों की दूरी पर छूट आए घर की ओर से फिर से उठा है हहाका, लेकिन उस घर तक पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है कहीं और टूटे कैरियर की साइकिल वाले कोदई प्रसाद भी।
***

चेहरा

बचपन के चेहरे में बुढ़ापे का चेहरा तने में फूल की तरह छुपा रहता है।

मौसम, तबीयत और हवाओं के बदलने की हमें आदत रहती है लेकिन परिन्दे हमेशा एक से दिखते हैं। जवानी में रंग होते हैं इंद्रधनुष के जो आसमान की सतह में उगते और गुम हो जाते हैं। चमड़ी पर उम्र भर एक जिद्दी सॅंवलाई दर्ज रहती, है हथेली और एड़ियां बदस्तूर दिखती हैं लाल

बढ़ने या खर्च होने के बीच बीतती रहती हैं ख़ुशियां और दर्द और थकान दवा की गोलियों से रखे जाते हैं दूर।

इस दौरान जब बेटी किसी की प्रेमिका और पत्नी बन चुकी होती है नर्म त्वचा और सीधी रही हड्डियों के बीच भरने लगती है कोई रिक्ति।

काली आंखों के उपर जब चमकने लगती हैं सफेद लकीरें और सामने होती है एक तस्वीर...

बचपन का चेहरा एक शाश्वत भ्रम होता है।
***

अन्ठानबे को बीते.....
(यह कविता वर्ष 2008में लिखी गई थी)

अन्ठानबे का पूरा वर्ष अन्ठानबे के वर्ष के खत्म होने के रोमांचक इंतजार से भरा था इसमें शामिल थीं सदियों से अधूरी पड़ी चीजों की अनगिन अपेक्षाएं जिनके साथ नई सदी की शुरुआत से अपने जितनी पुरानी तमाम उम्मीदें जुड़ी हुई थीं। अन्ठानबे के वर्ष के अन्त से इक्कीसवीं सदी की दूरी सिर्फ निन्यानबे के एक वर्ष की थी इक्कीसवीं सदी की शुरुआत निन्यानबे के अन्त के इतना करीब थी कि इक्कीसवीं सदी को निन्यानबे के वर्ष से अलगाया नहीं जा सकता था इस तरह इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के इन्तजार के ठीक पहले निन्यानबे के बर्ष के अन्त का इन्तजार चिपका हुआ था और वहां तक पहुंचने का रास्ता अन्ठानबे के वर्ष से होकर ही जाता था लिहाजा छियानबे और सत्तानबे के वर्षों में भी नई सदी की शुरूआत तक तक पहुंचने के लिए सबसे ज्‍़यादा इंतजार अन्ठानबे के वर्ष के आने और जाने का रहा।

जिसकी पैदाइश का वर्ष अट्ठासी का वर्ष था अन्ठानबे में उसकी उम्र दहाई का सफर पूरा लेने वाली थी दहाई की उम्र पूरा करने का उत्साह नई सदी की शुरुआत के रोमांच की तुलना में इतना कम था कि दहाई की उम्र पूरा करने का वर्ष उसके जीवन का उतना यादगार वर्ष नहीं हो सका। निन्यानबे के वर्ष की शुरूआत से घटती नई सदी की दूरी के शून्य होने के बीच की सारी घटनाओं को इक्कीसवीं सदी की शुरूआत से कुछ दिन पहले की घटना के रूप में याद कर लेना आसान था यह आसानी नई सदी की शुरूआत के कुछ वर्षों बाद तक भी बरकरार रही लेकिन इस तरह हुई नई सदी की शुरूआत के भीतर बीती सदी का अन्त चुपचाप कहीं गुम हो गया था।

नई सदी की शुरूआत के उत्साह के चुकते जाने के साथ बीती सदी में हासिल उपलब्धियों की गिनती शुरू हो गई और नई सदी के उपर कम से कम उसके कई गुना से ज्यादा की अपेक्षाएं लाद दी गईं जोर शोर से एक हाल की बीती सदी का इतिहास लिखा जाने लगा और कुछ फनकार जो बीती सदी के वर्षों में मशहूर होकर अपना असर नई सदी में भी बदस्तूर जारी रखने वाले थे उन्हें सिर्फ बीती सदी का बड़ा फनकार मानने का अन्याय भी हुआ।

इस चिर प्रतीक्षित नई सदी की शुरूआत ने बीती सदी के साथ जुड़ी उसकी पिछली सदी को बीती सदी से हमेशा के लिए अलग भी कर दिया नतीजतन गुजरी सदी के ठीक पहले की सदी के अन्तिम वर्षों में पैदा हुए कुछ लोग जो बीती सदी की सौ वर्षों की लम्बी उम्र पार कर इस नई सदी तक चले आए थे खुद को अपनी आखिरी सीमा के बाहर ला दिए जाने जैसा महसूस करने लगे और इस शुरूआती सदी के कुछेक वर्षों में ही ऐसे लोगों की भारी तादात चुपचाप समय के भीतर खामोश हो गई।

नई सदी की शुरूआत के साथ ऐसे बहुत लोगों ने ऐसी बहुत सी चीजें शुरू कर दीं जिनके आरम्भ के बारे में वे बीती सदी के आखिर के कई वर्षों में सोचते रहे थे।

अब जो कुछ भी घटित हो रहा है  वह सदियों के संक्रमण के उहापोह से बाहर है और हर चीज अब नई सदी के बीच की चीज है बीती सदी के भीतर पैदा हुए लोग अपने द्वारा नई सदी के देखे जाने के रोमांच को पार कर अब पूरी तरह से नई सदी में शामिल हो चुके हैं अट्ठासी के वर्ष में पैदा होने वाले की उम्र ने इस वर्ष दूसरी दहाई में प्रवेश ले लिया और नई सदी के आरम्भ के रोमांच से बाहर होने के कारण दूसरी दहाई में प्रवेश का वर्ष उसके लिए स्वतंत्र रूप से यादगार वर्ष भी बन सका।
*** 
यह अनुनाद की 585वीं पोस्‍ट है

मनोज कुमार झा की कविताएं

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मनोज कुमार झा से कविताओं के लिए अनुनाद ने अनुरोध किया था और दो महीने का इन्‍तज़ार भी। अनुनाद पर अप्रकाशित होने की शर्त और झंझट नहीं है। हमारा मानना है कि अच्‍छी कविताएं कितनी भी बार - कितनी भी जगहों पर छापी जाएं, कम है। मनोज की यहां दी जा रही कविताएं उनकी सूचना के अनुसार पब्लिक एजेंडामें छपी हैं, जो फिलहाल उत्‍तर भारत और हिंदी पट्टी में एक अल्‍पज्ञात पत्रिका ही है। इस तरह इन कविताओं का यहां पुनर्प्रकाशन हमारे अधिकांश पाठकों के लिए एक तरह से प्रथम-प्रकाशन ही है, न होता तो भी युवा जीवन के संघर्ष को एक नया मर्म और स्‍वर देती ये कविताएं बार-बार छापी और पढ़ी जानेवाली कविताएं हैं। इन कविताओं के लिए अनुनाद की ओर से कवि को शुक्रिया। 
***
मनोज कुमार झा
  
समर्पण     

हाँ मुझे दुःख है
आइये यहाँ छूइये मेरी आँख के नीचे
मैं उसकी धरम का न था तो जाहिर है कि जात का भी नहीं।
तेइस साल का साथ था हमारा
हम एक ही दुकान से ब्रेड चुराते थे
भुट्टा बेचने वाली बुढि़या ब्रेड गरमा देती थी
और शोरबा देता था टैक्सी स्टैंड के पास पूरी बनाने वाला।
मैं किताब चुराते पकड़ाया तो उसने मेरे पागल
होने का ऐसा दिली अभिनय किया कि
मेरे पागल होने के कमज़ोर अभिनय को बचा ले गया।
अब उसके दोनों पाँव कट गए
और मैं मनुष्यता की एक बहुत छोटी बात कहता हूँ -दुःख है
फिर भी आपको शक है
तो लीजिए मैं समर्पित करता हूँ अक्षरों से सींचा गया यह टुकड़ा
उसको जो करे हस्ताक्षर तो प्रमाणित हो यथार्थ
*** 

जल-ऋण     

दौड़ता आया
ताकता पानी के निशान
नल पड़ा मझप्यास अधकटे वृक्ष के पास
टोटी में मुँह लगाता कि घड़ा दिखा भरा आकंठ
घड़ा ही सौंप दिया देह को
तब आँख खुली और दिखी वह स्त्री सद्यःस्नात
हँसते बोली घर से क्यों निकल जाते हो पानी के बगैर
मैं प्रणाम करता उसे मगर लौट आया अकबकाया
ऋण न चुका पाने का हहास
साथ दौड़ता पीछे।
*** 

जब ठग पक जाता है      

जो ठग क्या उसे भी कभी अफ़सोस अपने शिकारों के लिए
शुरू में रहता है, कभी कभी तो श्रद्धा भी-माँ ने कहा था
फिर पक जाता है घड़ा और नहीं रखता मतलब
जल के स्वाद से ।
***

एक रात अकेला       

अड़सठवें साल की एक रात अचानक सोचते हो
कितना पड़ गया हूँ अकेला
बुझे मन से बल्ब जलाते हो और प्रकाश में भीग जाते हो
निकालते हो तह किए ख़तूत अलमारी से और भीगते हो अक्षरों के सुवास में
बल्ब बुझाते हो अंधेरे से भीगते हो
लौट जाते हो बिस्तर पर ठीक करते हो देह
और रजाई की गर्मी से भीगते हो
और फिर सोचते हो इतनी चीज़ें हैं तुम्हें
भिगोने को उत्सुक और ख़ुश होते हो
तभी हहरती है देह उस फटे पर्दे वाली खिड़की के पास
कि बाहर हहा रहे मेघ
और यहाँ भीतर एक पत्ता उतार रहा हरा केंचुल।
***

लोकमत की रचना वार्षिकी 'दीप भव' 2012 में छपी मेरी दो कविताएं

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ये शरद की रातें हैं


ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्‍हें होना था सुन्‍दर, हल्‍का और सुखद

पर ये विलाप की रातें हैं

पढ़ने की मेज़ पर देर रात बैठा रोता है एक आदमी
एक औरत बिस्‍तर पर गहरी नींद के बीच
बाढ़ में डूबती जाती है
संघर्ष करती हैं उसकी सांसें
वह सपने में बड़बड़ाती है

आसपास
दूर तक फैले गांवों में विलापती हैं दादियां
मांएं विलापती हैं
बहनें और पत्नियां विलापतीं हैं
परदेस गए फ़ौजियों-भनमंजुओं से लेकर
अमरीका और कनाडा तक गए इंजीनियर और डाक्‍टर पहाड़वासियों के
बूढ़े घरों के
सदियों पुराने पत्‍थर विलापते हैं
सड़ते हुए खम्‍बों में लकड़ियां विलापती हैं जिनके आंसू पी-पीकर
ज़िन्‍दा रहती हैं दीमकें

एक बच्‍चा
जो वर्षों पुरानी शरद की किसी दोपहर में रोया था
चुप है
शायद ख़ुश है दूर किसी महानगर में
जबकि पिता की आंखों में उतरा है
उसके पुराने आँसुओं का खारा पानी

ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्‍हें होना था सुन्‍दर, हल्‍का और सुखद  

ज़मीनों की ढही हुई मिट्टी
शिखरों से गिरे हुए पत्‍थर
उखड़े हुए पेड़
बादल फटने से मरे लोगों की लापता रूहें
इन्‍हें भारी बनाती हैं  
अंधेरों में छुपाती हैं

हमारे कितने ही बाआवाज़-बेआवाज़ विलापों का  
भार लिए
जब झुकी हुई घूमती है पृथिवी
तो हमारे अक्षांश के कितने हज़ारवें अंश पर गिरते हैं उसके आँसू

नींदों से भले बाहर हों
ढहते हुए सपनों और आती हुई तकलीफ़ों से ख़ाली नहीं हैं ये शरद की रातें

घाटियों और पहाड़ों के सूने कोने विलापते हैं
धरती पर इकट्ठा होती रहती हैं
ओस की  बूंदें

ओस है कि आँसू
शरद दरअसल ओस की शुरूआत भी है मेरे पहाड़ों
और मेरी छाती पर

ये शरद की रातें हैं
जिससे लदी हुई बहती हैं पतली-दुबली नदियां
आपस में मिलतीं
बड़ी और महान बनतीं हैं अपनी ही पवित्रता से पिटती हैं
उनके साथ दूर समुद्र तक जाती हैं ये शरद की रातें मेरे पहाड़ों की

समुद्रों का शरद अलग होता होगा
कछारों-मैदानों का अलग
बरसाती जंगलों का शरद
और मरुथलों का
हर कहीं रहते हैं दोस्‍त उनका शरद अलग होता होगा

ये शरद की रातें हैं बोझिल दर्द से भरी
इधर खा़स-ख़ास पहाड़ी शहरों में शरदोत्‍सव की धूमधाम
लोक से परलोक तक आती ललितमोहन फ़ौजी और सुनिधि चौहान की आवाज़
अब तो दोनों ही जहाँ ख़राब  
उधर आयोजक समिति के संयोजक सचिवों का माइक से गूंजता धन्‍यवाद ज्ञापन  

बहुत भारी है करोड़ों रुपए का ये धन्‍यवाद मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
शरद की इन रातों में
जबकि घरों के बाहर-भीतर
आजू-बाजू
विलापती ही जाती हैं बूढ़ी बिल्लियां
और जवान ख़ूनी मज़बूत दांतों, नाख़ूनों और इरादों वाले बिलौटे
गुर्राते हैं लगातार
***

बुल्‍ला की जाणा मैं कौण

क्‍या किसी को पता है मैं कौन हूँ

मैं शिशु हूँ
रोता हुआ मैली गुदड़ी पर अपने नवजात
हाथ-पांव मारता
गोद और गर्माहट की तलाश में
टटोलता माँ की देह

मैं बच्‍चा हूँ  
पांचवीं पढ़ता
अध्‍यापक से पिटता अंकगणित ग़लत हो जाने पर
पिता की फटकार के डर से
भागता घर छोड़
वापिस लाए जाने पर सुबकता
अब नहीं करूंगा पापा, अब ऐसा बिलकुल नहीं करूंगा कहता हुआ

मैं किशोर हूँ
बछड़े की तरह पतला और मज़बूत
विकट किताबें और ख़ूबसूरत लड़कियां जीवन में
थोड़ा लालच
उद्दंडता
और साहस
सब एक साथ गुंथे हुए

मैं नौउम्र जवान हूँ भरपूर
मैं प्रेम हूँ किसी के जीवन में ज्‍यों शहद का छत्‍ता
मैं गुंडा हूँ छोटा-मोटा पीटता और पिटता
मैं गुरूर हूँ
सब कुछ जान लेने का
मैं पछतावा हूँ   
फिर प्रेम फिर पछतावा फिर गुंडा फिर गुरूर हूँ
नष्‍ट हुआ कि संवर गया है जीवन इन साखियों के बीच
कुछ पता नहीं
उलटबांसियों में जाहिर अर्थ दरअसल उतना ही छुपा है
जितना मैंने छुपाया है उसे

मैं कवि हूँ
मैं शिक्षक हूँ   
मैं अनुशासक हूँ   
तम्‍बाकू मसलता
अकादमिक भद्रलोक के बीच

मैं हूँ अजनबी
खड़ा हुआ ग़लत जगह
हमेशा
सिर पर गिर जाती छत घर की
शहद के छत्‍ते में लौट आतीं मधुमक्खियां भिनभिनातीं काटतीं ज़ोरों से
कराहता
लेकिन फिर प्रेम
फिर फिर प्रेम
फिर उसकी क्षुद्रता फिर महानता
बीच की कोई जगह नहीं
सुस्‍ताया जा सके जहां पल भर को 

मैं कौन हूँ
कोई तो बताए मुझे

मैं हूँ एक लम्‍बी कविता अमर जिसकी असफलता
अजर जिसका अधूरापन
***

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