Quantcast
Channel: अनुनाद
Viewing all 437 articles
Browse latest View live

चन्द्रेश्वर पांडेय की कविताएं

$
0
0


पता नहीं मेरी लिखत-पढ़त की सीमा है या फिर दुनिया के ग्लोबल विलेज बनने में ही कसर छूट गई है कि चन्द्रेश्वर पांडेय जैसे पुराने साहित्यकर्मी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ - गो उसे साहित्य संसार में हो जाना चाहिए था। फेसबुक पर उनकी लम्बे स्टेटस मुझे उनकी समझ और प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त करते रहे। मैंने उनसे अनुनाद को रचनात्मक सहयोग देने के लिए अनुरोध किया और यह कविताएं मिलीं। सीधे-सादे ढंग से एक उतने ही सीधे-सादे संवाद में ले जाती ये कविताएं नई दुनिया के संकटों से आगाह भी करती हैं। अनुनाद पर आपका स्वागत है चन्द्रेश्वर जी और सहयोग के लिए आभार भी। 
*** 
अफ़वाहें

कैसे फैलती हैं अफवाहें
क्यों फैलती हैं अफवाहें

किन -किन स्थितियों में फैलती हैं वे
किन -किन स्थानों पर फैलती हैं वे
कुछ तो बे -सिर पैर की अफवाहें पलछिन के लिए जन्म लेती हैं
और देखते ही देखते सुरसा की तरह कई निर्दोष ज़िन्दगियों को निगल जाती हैं
कुछ अफवाहें लम्बे समय तक बनी रहती हैं
वे समय के घोड़े की पीठ पर सवारी करती हैं
अफवाहें बेचेहरा होती हैं किसी सुनामी से कम नहीं होतीं
उनके गुज़र जाने के बाद इंसान के बदले चीज़ें बिखरी मिलती हैं

इसकी चपेट में अनपढ़ और पढ़ाकू सब आ जाते हैं
बच्चे और महिलायें और बूढ़े और अधेड़ और जवान
सब जान गँवाते हैं अगर मैदान में या सड़क पर हैं

अगर घर में हैं तो प्रस्तर को दूध पिलाते हैं
और नए मिथक गढ़ते हैं
चपेट में आनेवाले

अफवाहों का जनक कोई बेहद खुराफाती दिमाग़ होता है
कोई कायर और कमीना होता है
वह हिटलर के प्रचार मंत्री गोयबल्स का निपुण शिष्य भी हो सकता है
वह आग लगने ,पुल टूटने , बिजली गिरने ,गणेश जी के दूध पीने
लव जिहाद की ख़बरें उड़ाने से लेकर
लोकतंत्र को अपनी तरह से हाँकने का काम करता है
वह चोर को सिपाही
और सिपाही को चोर में बदल देने की कला में पारंगत होता है

अफवाहों के लाखों मुँह होते हैं
मगर दिखते नहीं
अफवाहें उड़ाने वाले सदियों से वर्चस्व बनाये हैं अपना
अफवाहों के फूले गुब्बारे में सिर्फ़ झूठ भरा होता है
हवा की जगह अफवाहों से बड़ी -बड़ी सेनाएँ हार जाती हैं
सरकारें बदल जाती हैं
शासक शासन गँवा बैठते हैं
पर ये भी है सच कि सच का सामना होते ही
वे तेज़ी से गलने और पिचकने लगती हैं
उनकी साँस की डोर टूट जाती है !
***
उनके कंधे पर ही आ आ के बैठे कबूतर

वे जो हैं रक्तपिपासु भोगी -कामी क्रूर अत्याचारी
उनके कंधे पर ही आ आ के बैंठे कबूतर रंग -बिरंगे
दूर नीले आसमान से।

वे ही मना रहे जयंतियाँ शहीदों की
जिनका रोम -रोम डूबा है पाखंड में  

ठण्ड में बाँटते कम्बल फुटपाथ पर वे ही
जो मारे बैठे हैं हक़ ग़रीबों का।

जो इस वक़्त का बड़ा लबार
वो ही बता रहा गीता सार

एक नारा तो गढ़ सके नहीं अब तक हिंदी में
अपने को बहादुर लाल कहते हैं देश का , भारत को 'इण्डिया 'बोलते हैं ,
निशाने पर तीर के जो है पक्षी उसी का पर तोलते हैं !

मेरा मन काट रहा चक्कर भूमंडलीकरण के चाक पर ,
अभी साहब निकले हैं'मॉर्निग वॉक 'पर !
***

शब्द अब सफ़र नहीं करते दूर तक

आज कई मानीखेज शब्द रख दिए गए हैं गिरवी
उनकी व्यापकता हो गई है गुम अर्थ की

दिलो-दिमाग़ को रोशन करते आये थे कई शब्द
अब सिकुड़े -सकुचाये पड़े रहते हैं
वे दूर तक सफ़र नहीं करते

हमारे साथ एक शब्द है --'हिंसा '
दूसरा शब्द है --'अहिंसा '
तीसरा शब्द है --'सत्य '

सदियों से ये शब्द मानवता की राह में जगमगाते मिले हैं
इन्हें की जा रही कोशिश अगवा करने की
एक पूरी क़ौम न तो हिंसक होती है न ही अहिंसक
एक व्यक्ति हर वक्त नहीं भासता सत्य ही
चंद लोग जो भटके हुए हैं वे ही कैसे बन जाते हैं क़ौम के नुमाइंदे

कैसा वक़्त आन पड़ा है भाई
कि हम शरमाते हैं भाई को भाई कहते
यार को कहते यार

शब्दों में ताप कब लौटेगा
शब्दों में नमी कब लौटेगी
कब बहाल होगी गरिमा शब्दों की
हम कब बाहर आयेंगे निज के खोल से
या पड़े रहेंगे लिए मोटी खाल'बिलगोह 'की तरह
किसी पुराने पेड़ के तने के
कोटर या'बिल'में !
***  

सिर्फ़ एक विलोम भर नहीं

प्रेम -घृणा
मान -अपमान
जोड़ -घटाव
गुणा -भाग
मित्र -शत्रु
हँसी -रुलाई
अहिंसा -हिंसा
युद्ध -शांति
सृजन -संहार
सफ़ेद -काला
प्रकाश -अंधकार
और -----
आग -पानी
कि पानी -आग में रिश्ता
क्या सिर्फ़ एक विलोम भर है !
***  

अनफिट और पुराना

मुझे तनिक भी पसंद नहीं खेल छुपम -छुपाई का
अपने रिश्तों के बीच
मैं किसी एक वक़्त में ही कैसे हो सकता हूँ किसी का दोस्त
और दुश्मन भी

आज जबकि लोग निभाते हैं साथ -साथ
दुश्मनी और दोस्ती
मेरे जैसा आदमी मान लिया जाता है'अनफिट'
और पुराना कोई मारते हुए दाँव दोस्त मेरा धोबियापाट
एक तरफ से देखते हुए मुझे
बेफ़िक्र या अलमस्त बतकही में पूछता है मेरा कुशल -क्षेम भी
सहलाते हुए मेरी हथेली दाहिने हाथ की
तो रह जाता हूँ सहसा हक्का -बक्का
क्या मैं भी साध पाऊँगा कभी वो हुनर
कि लिए दिल में कटार मुस्कान बिखेरता रहूँ चेहरे पर

क्या पहचान है ये ही जटिल होने की सभ्यता के
जब भी छला गया किसी रिश्ते में
या बनाया गया बेवकूफ़
एक दर्द उठा दिल में हौले से
और पलभर में बना गया बदरंग मेरे चेहरे को

मैं ठगे जाने और बेवकूफ़ बनाये जाने पर
याद न कर पाया कबीर या फिर मुक्तिबोध को
समकालीन जो ठहरा !
***

चीज़ें महफूज़ रहती आयीं हैं

पुराने घर को याद कर
अक्सर हम हो जाते हैं भावुक
उसकी याद हमें रोमांचित भी कर देती है
ज़रूरी नहीं कि अभाव न रहा हो उसमें
न रहीं हों तकलीफ़ें
वो एकदम स्वर्ग तो नहीं ही रहा होगा
फिर भी होना उसकी याद का मायने रखता है

जो पुराना स्वेटर
या मफलर
या कनटोप
या कोट
या कम्बल
या मोजे
हो चुके हों तार -तार
फटकर जा चुके हों दूर हमारे जीवन से
उनकी यादें भी गर्माहट भरी
दे जातीं हैं हमें लड़ने की कूवत

ठण्ड से चीज़ें महफूज़ रहती आयीं हैं सबसे ज्यादा यादों में ही
पुराने घर
या चीज़ों की यादोँ का मतलब वापसी नहीं होती
उनकी उस तरह वर्त्तमान में फिर भी ----
यादें अनमोल तोहफा हैं
कुदरत की एक बेहतर मनुष्य बनाये रखने में वे करती आयीं हैं मदद
मनुष्य को सृष्टि के आरम्भ से ही!
***
चंद्रेश्वर 30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म। पहला कविता संग्रह 'अब भी'सन् 2010 में प्रकाशित।एक पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' 1994 में प्रकाशित।'इप्टा आन्दोलन : कुछ साक्षात्कार'नाम से एक मोनोग्राफ 'कथ्यरूप'की ओर से 1998 में प्रकाशित। वर्तमान में बलरामपुर, उत्तर प्रदेश में एम.एल.के. पी.जी. कॉलेज में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर।
पता- 631/58 ज्ञान विहार कॉलोनी, कमता, चिनहट, लखनऊ,उत्तर प्रदेश पिन कोड - 226028 मोबाइल नम्बर- 09236183787


अमित श्रीवास्तव की एक कविता - आओ करके देखें

$
0
0


कविता में प्रयोग एक पुराना पद है। कभी-कभी वह नए आशय के साथ प्रकट होता है तो ध्यान खींचता है। दुनिया बदल गई है। पुरानी वैचारिक चुनौतियों में नई चुनौतियां शामिल हैं, कई बार वे पुरानी के लिए भी चुनौती हैं। अमित की यह कविता मिली तो कई ख़याल आए। उन्हें अभी मुल्तवी रखते हुए इस कविता को पाठकों के हवाले करता हूं। 
  
नीचे अमित की नई किताब का बैककवर है, मुख्य आवरण बाद में प्रकाशक जारी करेंगे। 


 
आओ करके देखें
एक नाम लें
उसे आधा आधा काट दें
अगला हिस्सा सहेज रखें
सीने के पास वाली जेब में
(या किसी सरौते के नीचे दें फर्क क्या)
दूसरा
यानि कि पिछ्ला हिस्सा
खोंस दें सभ्यता की आँख में
और ये जानें कि
टपकती बूँद लहू की के क्या माने
`जाने तू या जाने ना’
 
एक शीशे का जार लें
और कुछ चीजें
मसलन मेड़ पर गिरी किसी चिड़िया का खून
किसी हल की मूठ का पसीना
कारखाने का धुआं
होटल के पिछवाड़े फिंकी जूठन
कोई गाली, जो किसी दिन, महीने, साल या रिश्ते के तहत न दी गयी हो
एक मुट्ठी नमक
और एक चुल्लू शर्म
अब ढक्कन लगाएं और हिलाएं
खूब मिलाएं, देखें अब
कि शकल बनती है आत्महत्या की, या
पेड़ से लटकती धोती
`मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती’

एक हथेली आगे करें
उसमे से लकीरें निकाल धर दें अलग
एक बूँद लें पसीने की दो खून की बूदें 
उस सपाट सफ्फाक हथेली पर डाल दें
खूब रगड़ें दोनों हथेलियों को मसल
सूंघकर देखें
किसी मरे हुए सपने की बू आती है
या नक्शा उभरता है अहद का कि जब सच
अपने ही अक्स से शर्मसार है
`ये क्या जगह है दोस्तों ये कौन सा दियार है’  

दीजिये तीन आसान सवालों के जवाब और जीतिए मौक़ा सलमान खान से मिलने का

यदि आपकी नाक के आगे धर्म निरपेक्षता है
दाहिने बाजू
आगे से घूमकर आया प्रजातंत्र
बाएं बाजू पीछे से मुड़कर पहुंचा समाजवाद
तो तीन तरफ तो रहे ये ससुरे तीन तिगाड़े काम बिगाड़े
तो क्या बचा आपके पिछवाड़े ?

सफ़ेद दाढ़ी,
भगवा चोला,
फतवा,
टोपी गोल,
कमंडल,
मुनादी,
अकल,
भैंस,
ओएलएक्स
भरा किसी की घड़ा क्या
इसमें सबसे बड़ा क्या?

मेरी बाईं आँख में रतौंधी है
दाहिनी ललछौर
नाभि में अखंड अपच हुआ पड़ा
किधर भी लुढकता है संतुलन
पैरों में बिवाइयां
बिवाइयों में भरा मवाद
धत्तेरी खवैये के न आये सवाद  
कहीं न पहुँचने की जल्दी थी
अब कहीं न पहुँचने की थकान
मेरी उम्र क्या हुई भाईजान?
***

आर्याव्रत में मिस्टर के: ईस्वी सन २०१४ - गिरिराज किराडू

$
0
0


गिरिराज किराड़ू नामक हमारा साथी और प्रिय कवि कविता के इलाक़े में इतना धैर्यवान है कि हमारे धैर्य की परीक्षा लेने लगता है। बहुत प्रतीक्षा के बाद कुछ दिनों से मेरे पास गिरिराज की ये कविताएं हैं और वही पुराना आलम है इस पाठक के दिल का, जिसे अनुनाद पर गिरिराज की कविताएं लगाते हुए पहले भी कई बार लिखा, इस बार छोड़ रहा हूं..... अब कुछ भी कहा जाना, कहीं और विस्तार से कहा जाना है।  इन कविताओं के लिए शुक्रिया दोस्त।  
**** 
[यह कविताएं जुलाई २०१४ में पूरे होशो हवास में लिखी गयीं थीं, पांच महीने कविताएं अप्रकाशित रहीं इससे कवि के अपेक्षाकृत स्वस्थ होने का संकेत मिलता है. इस दौरान इन्हें सुनने वाले दोस्तों महेश वर्मा, शिव कुमार गांधी,  प्रभात, पद्मजा और कमलजी के लिए]

सुबह तीन बजे हमने सुबह में रहने की ख्वाहिश को तर्क कर दिया
चार बजे तक साफ़ नज़र आने लगे वे शव जिन्हें दफ़नाने की जिम्मेवारी हमारी नहीं थी
पाँच बजे हमने अंतःकरण को एक हथियार की तरह खोंसा
छह बजे पार्क में फूलों पर मंडरा रहे थे ठहाके कभी बूढ़े कभी दुष्ट
सात बजे हमारे फोन में गिरा 'आक्रमण'
आठ बजे आरती हुई
नौ बजे बूट बजाये
दस बजे हम राष्ट्र हो गए

भूख का अनुभव एक पीढ़ी से नहीं
जिन्होंने रोटी के लिए की थी गुंडागर्दी वे बच्चे आपके पिता हो गए
अब भी एक एक कौर ऐसे चाट के खाते हैं  लगता है खाना खाने तक की तमीज़ नहीं

आप अन्न के स्वाद से कई जन्मों की दूरी पर हैं
और उनकी ऐतिहासिक भूख पर अब कलकत्ते की पुलिस का नहीं आपका पहरा है

मेरा दुख तुम्हारे भीतर नहीं बस सका   
तो जाना मेरे भीतर दुख की कोई बसावट नहीं
मैं बस तंज करना जानता हूँ

पेड़ों पर हर तरफ झूल रहे हैं शरीर
बच्चों और पक्षियों के क्षतविक्षत शव लटके हैं आकाश में

मैं तंज करता हूँ और अपने समूह की खोखल में जा  छुपता हूँ

आप कौन-सा वाद्य बजाते हैं का उत्तर नवीन सागर नामक हिंदी कवि के पास यह था कि मैं संतूर नहीं बजाता नहीं बजाता तो नहीं बजाता अगर आप इस वजह से मुझे कम मनुष्य मानने वाले हैं तो मानिये लेकिन नहीं बजाता तो नहीं बजाता
जीवन की काल-कोठरी में रामकुमार का चित्र टंगा होना चाहिए ऐसा महसूस करने वाले नवीन तक मृत्यु के मटमैले पर्दे के पार यह संदेसा पहुंचे कि मेरे जीवन की काल-कोठरी में एक संतूर टंगा है जिसे मैं नहीं बजाता तो नहीं बजाता

जिसे आप एकदम ज़लील आदमी मानते हैं उसके साथ रेल में रात का सफर मत कीजिये
वह इतनी बार घबराया हुआ पसीने में तरबतर नींद से उठ बैठेगा कि
सुबह उसे हिफ़ाज़त से घर छोड़ने जाना कर्तव्य लगने लगेगा लेकिन आपको किसी दूसरे शहर जाना होगा
और एकदम ज़लील एक आदमी की ऊबड़खाबड़ नींद आपके गले में मनहूस परिंदा बनकर लटक जाए
इसका इल्ज़ाम भारतीय रेल के सर क्यूँ करना चाहेंगे आप?

कविता में नाम लेना बहुत मुश्किल काम है, रमेश
लिखो नाथूराम गोडसे, रमेश
अब लिखो वे पचास और नाम जो इसके बाद लिखे जाने चाहिए, रमेश

तुम अपने को कालातीत क्यूँ करना चाहते हो, रमेश
तुम कविता में सिर्फ रमेश लिखो, रमेश

[एक बार फिर रघुवीर सहाय के लिए]
*** 
[अंतिम] [प्रेम] [कविता]

आपसे प्रेम नहीं करने में उसका सुख है
जब आप कब्र की ओर चालीस कदम चल चुके होंगे तो
दुआ देंगे उसे आपसे प्रेम नहीं करने के लिए

तब तक उसके नक्श-ए-क़दम में इरम है
बस अपनी आँखें खुली रखिये
***

गृहस्थ मोटरसाईकिल

 

गृहस्थी मोटरसाईकिल पर बस जाती है
मोटरसाईकिल पन्द्रह बरस बाद वही रहती है
लेकिन आप किसी और के साथ रहते हैं

अब अब तक के सारे प्रेम गृहस्थ हैं एक ऐसा ख़याल है जिसके हाथ में खंज़र है


एक स्त्री एक पुरुष के साथ गृहस्थी बसाती है
मोटरसाईकिल पर
एक निर्दोष सपना देखती है मोटरसाईकिल पर

पुरुष मोटरसाईकिल चलाता है
स्त्री कार चलाना सीख लेती है
                                                कार में गृहस्थी
                   मोटरसाईकिल पर गृहस्थी

एक पुरुष एक स्त्री से कार चलाना नहीं सीखता
एक स्त्री एक पुरुष की मोटरसाईकिल को अजायबघर में रख आती है

 
हजारों लोगों को मार दिए जाने का समाचार सुबह पढ़ने के बाद
आप प्रेम करते हैं रात में
मोटरसाईकिल अहाते में दो शवों  के साथ गिरती है


किसी और भाषा में लिखे जिस मृत्युलेख से बना है 
मोटरसाईकिल का शरीर
उसके कई अनुवाद हैं  गृहस्थी प्रेम संहार

अनुवाद में उम्मीद नहीं
कौन मरा का अनुवाद इधर की भाषा में किसने मारा नहीं  
*** 

किरदार बदल गया है

बेहद प्यार आता है उन पर जो अपनी कविता में बना लेते हैं प्रधानमंत्री को एक किरदार
यह बात छुपाने का कोई फायदा नहीं कि इस प्यार का कारण शुरू में यह होता है कि यह कोशिश एक आकर्षक मासूम मूर्खता लगती है आखिर अरबपतियों वैज्ञानिकों राजनेताओं क्रांतिकारियों और जनसंहारकों आदि की तरह कवियों को भी लगता है वही सबसे महत्वपूर्ण हैं संसार के इस गोरखधंधे में
लेकिन बीच बीच में ढीले  शिल्प और कलात्मक आलस्य के बावजूद जब वह कविता जीवन में तीन बार सुन ली जाती है उसके मानी पहले से ज्यादा दिलफरेब और मानो शरारती ढंग से जटिल होने लगते हैं
इस बीच कोई और प्रधानमंत्री हो जाता है और कविता को शाश्वत होने की दुश्वारी आ पड़ती है
बिना बदले कुछ भी कवि चौथी बार आपके सम्मुख पढ़ता है प्रधानमंत्री वाली कविता और आप जोर से चिल्लाना चाहते हैं अरे किरदार बदल गया है
जाने कैसे मंच पर अपनी कविता की पहुँच से आश्वस्त अपने मैनेरिज्म में खोये कवि तक आपका इरादा पहुँच जाता है
उसकी आँखें सभागार में ढूँढती हैं आपको
वह जैसे तैसे अपनी शायद सबसे लोकप्रिय कविता पूरी करता है

[राजेश जोशी के लिए, अग्रिम माफ़ी की अर्ज़ी के साथ]
*** 
आत्मावलोकन २०१४

जिन पन्द्रह सालों में मैं अपनी नज़रों से गिरा
चौदह एक नयी शताब्दी के थे
एक पुरानी का

मुझे गणित नहीं आता था लेकिन फिर भी मेरा दावा था
संसार और दर्शन को समझ लेने का
एक पुराना और चौदह नये के समीकरण से

अपनी नज़रों से गिरने के लिए दो शताब्दियों में होना ज़रूरी था
यह पलटकर मैंने रामानुजम या विटगेंस्टाइन से नहीं अपनी अँगरेज़ छाया से कहा  
उसने कहा भाड़ में जाओ यह अनुवाद है फक ऑफ का
***

संध्या नवोदिता की कविताएं

$
0
0



इसी मुल्क का ज़िंदा बाशिंदा


अब मैं इससे ज्यादा वेदना से नही रो सकता

इससे ज्यादा आंसू नहीं हैं मेरे पास
मन भर की कराह और जीवन की आह
से ज्यादा नहीं है कुछ
अपनी सच्चाई का यकीन दिलाने के लिए।

मुझे रोटी चाहिए
यह जो आँखें धँस रही हैं
और जो मैं लुढका जा रहा हूँ ज़मीन पर
सच कहता हूँ
यह नींद की खुमारी नहीं
मैं आलसी और निकम्मा भी नहीं
मेरी आंते ऐंठ रही हैं
सिर्फ रोटी के लिए

मेरा सच मेरी ज़िन्दगी है

मैं भी तमाम व्यंजन खा सकता हूँ
सपने देख सकता हूँ डिजिटल सिनेमाघर में
मैं नाच भी सकता हूँ, गा भी सकता हूँ और तेज़ रफ़्तार से कार भी चला सकता हूँ
पर यकीन जानो
ऐसा कुछ करने का जरा भी दिल नहीं मेरा
मैं तो बस यकीन दिलाना चाहता हूँ कि मरगिल्ला सा मैं जो तुम्हारे सामने पड़ा हूँ
इसी मुल्क का जिंदा बाशिंदा हूँ
और बस तुम्हे अपने इंसान होने का सुबूत भर पेश कर रहा हूँ

मैं अब इससे ज्यादा कुछ कहने लायक नहीं
थोड़ी देर में नसें तड़क जायेंगी मेरी
आँखें आसमान से जा मिलेंगी
और जिस्म ज़मीन से

मेरा शरीर तुममें संवेदना नहीं
घिन और जुगुप्सा जगाता है
मैं भी हूँ इसी मुल्क का ज़िंदा बाशिंदा
और मर रहा हूँ

जूझ रहा हूँ एक बूँद पानीऔर एक निवाले के लिए
भूख से तड़प रहे अपने बच्चों को अपनी गोद में संभाले
मैं बदहाल फटेहाल

तुम मुझे पहचानते नहीं
और मैं अपने होने की जिद पर अड़ा हूँ।
*** 
एक दिन जब हम नहीं रहेंगे 
 
एक दिन जब हम नहीं रहेंगे
किताबों की ये अलमारी खोलेगा कोई और
किसी और के हाथ छुएंगे इस घर की दीवारों को
कोई खोलेगा खिडकी
और हमारा रोपा इन्द्रबेला मुस्कुराएगा.
हो सकता है किसी और की उंगलियां नृत्य करें इस कंप्यूटर कीबोर्ड पर
कोई और उठाये फोन का रिसीवर

एक दिन
जब नहीं रहेंगे हम
कुछ भी नही बदला होगा
वैसे ही निकलेगा सूरज ,होगी शाम
छायेगे घने बादल
बंधेगी बारिश की लंबी-लंबी डोरियाँ
नाव तैरायेंगे बच्चे .. छई छप करते हुए..

हमारे जाने के बहुत बहुत बाद तक रहेगा हमारा घर हो चुका यह मकान
यह अलमारी, बरसो बरती गयी यह मेज़,
मेले से चुन कर लाया गया यह गुलदस्ता,
बेहतरीन कारीगर के बनाए चमड़े के बने घोड़े,
शिल्प-हाट से बहुत मन से लिए गए कांच के बगुले, टेराकोटा का घना पेड़,
लिखने की इटैलियन मोल्डेड टेबल ,
पहनी हुई चप्पलें, टूथ ब्रश ,ढेर सारे नए कपडे भी ,जो कभी पहने नहीं गए,

हारमोनियम, कांच की चूडी, यहाँ तक कि आइना भी
और हाँ ,दूसरे मुल्क की सैर कराने वाला पासपोर्ट
और वे सभी कागज़-पत्तर जो हमारे जीवित होने तक पहचान पत्र बने रहे
सब कुछ बच रहेगा बहुत समय तक
बिना हमारे किसी निशान  के

जिस पल ये सब कुछ होगा
बस हमारी गंध नही होगी इन सब पर ,
हमारी मौजूदगी का कोई चिन्ह नही
उस दिन भी सब कुछ चलेगा ऐसे ही
कुछ आपाधापी, कुछ मौज मस्ती

लौट
-लौट के आती है इन सब के बीच होने की ख्वाहिश
कहाँ से बरसती हैं ऐसी हसीन इच्छाएं

एक दिन
जब जायेंगे हम फिर कभी न लौटने के लिए
नहीं ही तो लौट पायेंगे सचमुच .
*** 


औरतें-1

कहाँहैंऔरतें?
ज़िन्दगीको  रेशा-रेशाउधेड़ती
वक्तकीचमकीलीसलाइयों  में
अपनेख्वाबोंकेफंदेडालती
घायलउंगलियोंको  तेज़ीसेचलारहीहैंऔरतें

एकरातमेंसमूचायुगपारकरतीं
हाँफतीहैंवे
लालतारेसेलेतीहैंथोड़ी-सीऊर्जा 
फिरएकयुगकीयात्राकेलिए
तैयारहो  रहीहैंऔरतें

अपनेदुखों  कीमोटीनकाबको
तीखीनिगाहोंसेभेदती
वेहैंकुलांचेमारनेकीफिराकमें
ओह,सूर्यकिरनोंको  पकड़रहीहैंऔरतें




औरतें2

औरतोंनेअपनेतनका
सारानमकऔररक्त
इकट्ठाकियाअपनीआँखोंमें

औरहरदुखको  दिया
उसमेंहिस्सा

हज़ारोंसालोंमेंबनायाएकमृतसागर
आँसुओंनेकतरा-कतराजुड़कर
कुछनहींडूबाजिसमें
औरतकेसपनोंऔरउम्मीदों
केसिवाय
*** 


खूबसूरत घरों में

खूबसूरत घर
बन जाते हैं खूबसूरत औरतों की कब्रगाह

खूबसूरत घरों में
उड़ेल दी जाती हैं खुशबुएँ
हज़ारों-हज़ार मृत इच्छाओं की बेचैन
गंध पर

करीने से सजे सामानों में
दफ़न हो जाती हैं तितलियाँ

सब कुछ चमकता है
खूबसूरत घरों में
औरतों की आँखों के अलाव से
***

लेखक
- लेखक

लेखक, लेखक तुम किसके साथ हो ?

जनता मेरे लिए लड़ती है , मैं आकाओं के साथ हूँ.

लेखक , लेखक तुम किसके पक्ष में लिखते हो ?
जनता मुझे पढ़ती है, मैं अपने आकाओं के पक्ष में लिखता हूँ.

लेखक , लेखक तुम किसके लिए जीते हो
जनता मुझे बड़ा बनाती है, मैं तो सिर्फ अपने लिए जीता हूँ..

लेखक, लेखक तुम जनता के ही खिलाफ क्यों हो
क्योंकि मैं फले- फूले दलों के साथ हूँ...

लेखक,लेखक तुम लेखक नही, दलाल हो !!!
**** 
अनुनाद इन कविताओं के लिए संध्या नवोदिता का आभारी है।  

सोनी पाण्डेय की लम्बी कविता

$
0
0


भारतीय स्त्री के जीवन के करुण महाख्यान के कुछ पृष्ठ लिखती सोनी पाण्डेय की यह कविता प्रस्तुत करते हुए अनुनाद उनका आभारी है। यह पृष्ठ जो बहस में रहेंगे, विमर्श में नहीं अटेंगे, किसी भी अकादमिक बड़बोले अकादमिक लेखन से दूर हमेशा इसी तरह के प्रतिबद्ध रचनात्मक लेखन में धड़केंगे। सोनी पाण्डेय ने अब तक के कविकर्म में अपने जीवनानुभवों के साथ जिस सामाजिक यथार्थ को पाठकों के सामने रखा है, वह हमारे बहुत निकट का यथार्थ है और उतना ही विकट भी। इस जीवन को जानना, इस पर गहराते संकटों को गहरे तक जानना भी है। ऐसे कवि हमें चाहिए जो उस महाख्यान को समझें, जिसे एक समग्र पद में हम जीवन कहते हैं। सोनी ऐसे ही कवियों में अब शुमार हैं।  
***  

चौके की रांड़, गोड़वुल वाली आजी
(एक विधवा के जीवन पर आधारित कुल कथा जिसे माँ के मुँह से सुना था )

1.
मेरे बचपन की कहानियों में
न राजा था न रानी
ना आजी और नानी की भावपूर्ण लोरियाँ
सतरंगी बचपन के ना ही खूबसूरत स्वप्न
माँ थी , माँ का जीवन संघर्ष था ,
सासों का द्वन्द था
माँ सिसकती रही तब से
जब से छिना उसकी नन्हीं उँगलियों के बीच से माँ के आँचल का कोर
आज भी जार - जार रोती है
उसके अन्दर की बेटी
माँ के कफ़न लिपटे शरीर को याद कर ।

2.

बिन माँ की बेटी माँ के हिस्से में नहीं थे राजा और रानी के किस्से
इस लिये वो हम चारो को
सुनाती थी कुछ जीवन्त किस्से
जिसमें औरत थी
औरत का जीवन था
चूल्हा था चाकी था , दरवाजे पर बँधा हाथी था
बाबा का बंगला
बावन गाँव की राजशाही थी ।

3 .
इसी घर में अम्मा ने देखा था
गोडवुल वाली आजी को
भर - भर अंचरा निचुडते
गठरी भर सिकुडते हुए
अम्मा के क़िस्सो में ये सबसे करुण गाथा थी
क्यों कि आजी और अम्मा का नाता
काश और मूज की तरह बना
सुजनी से छेद कर डाली में ढ़ला
जिसमें सहेज कर रखती रहीं घर भर की सुहागिनें
सिंनोरा भर सेंदुर
कहलाती रहीं सधवा ।

4.

मैंने भी देखा था
दक्खिन वाली दालान के कोने में
एक शापित कोठरी
जिसके छाजन की आँखों से आज भी बूँद - बूँद टपकता है आजी का जीवन
यहीं ब्याह कर उतरीं थीं आजी
और सुहाग सेज पर बैठे हुए काल को दे बैठीं जीवन का उजास
डूब गया ब्याहते ही जीवन का सूर्य
बन बैठीं उतरते ही चौके की रांड़।

5.
चौके की रांड़ आजी
अम्मा कहते - कहते फफक पडती
बहिनी घर में पड़ा अतिरिक्त सामान थीं
संस्कृति का कूडे़दान थीं
जहाँ खखाकर थूकना चाहती थी पुरुष की सभ्यता
और आजी पूरे दिन क़ैद रहतीं चौखट के पिंजड़े में ।

6.

गोड़वुल वाली आजी तब तक रहीं घर में रहीं अहम
जब तक लातीं रहीं नईहर से
बाँधकर कमर में
भर खोंईछादानी अशरफ़ी और मुहरें
रसद बैलगाड़ी में
अम्मा ने सुना था नाऊन के मुँह से कि
उनके पलंग के पाये चाँदी के और झालर सोने के थे ।

7.
आजी की सफ़ेद एकलाईवाली साड़ी
अम्मा कहती थी
धीरे - धीरे मटमैली होती गयी
जब ख़ाली हो गयी नईहर की तिजोरी
बचा रह गए शापित खेत और खलिहान
घर और दालान
जिसकी चौखट पर उजाड़ कर पूरा कुटम्ब बैठे थे ब्रह्म
शेष बची आजी कही जाती थीं
हट्ठिन और मरीन
जिसका बिहाने मुँह देखना महापाप
छू जाना शाप था ।

8.

धीरे - धीरे अम्मा कहती थीं
कि आजी का जीवन
घर भर की सुहागिनों के उतरन और बच्चों के जूठन पर आ टिका
जो लेकर उतरीं थीं
सोने की ईंट
बखरी भर रसद ।

9.

चौके की राड़ आजी और अम्मा का नाता
बिन सास के घर में
दियना संग बाती-सा था
जब उतरी थी अम्मा बारहवें साल में
बन कर नववधू बड़का दुवार पर
बिन माँ की बेटी को छाती से साट कर सोती थीं आजी
जब बाऊजी सोते थे पिता की गोद में
पकडकर नन्हीं हथेलियों को सिखातीं लिखना और पढना
औरत का जीवन जब बाऊजी जाते दूर शहर पढने
आजी के कमरे की दीवारों पर देखे थे अम्मा ने
कुछ लाल कुछ स्याह धब्बे
जो भरे यौवन में बड़ी तबाही का दस्तावेज़ थे ।
देखी थीं पलंग के नीचे मऊनी में कुछ लाल कुछ पीली चूडियाँ
जिसे रात में पहनतीं और दिन में तोडतीं थीं आजी
काठ के सन्दूक में कुछ नीली -पीली साड़ियां
ताखे पर डिबनी भर पीला सिन्दूर
जिसे रात में लगाकर सुबह धोती थीं आजी
कहलाती थीं राड़िन और साढ़िन
विधवा का प्रपंच ।

10.

अम्मा कहते -कहते रो पड़ती फफक कर
कि
त्योहारों में आजी
कूंच लेतीं पाँव के नाख़ून
और रिसते हुए ख़ून से
पोत लेतीं महावर
भर लेतीं माँग और कढ़ाकर
करुण राग चित्कारतीं
"कहाँ गईलें रे रमऊवा
हमार सेजिया डसाई के हो रामा . . . ,"
***

सोनी पाण्डेय
कृष्णानगर
मऊ रोड
सिधारी आजमगढ
उत्तर प्रदेश
9415907958
dr.antimasoni@gmail.com

कुछ न होता तो ख़ुदा होता उर्फ़ गनीमत है कि कुछ है · अशोक कुमार पाण्डेय

$
0
0


(एक)

जिन सड़कों पर कोई नहीं चलता वे भी कहीं न कहीं जाती हैं
उन घरों में किस्से रहते हैं जो अब खाली हैं

यह काग़ज़ एक हराभरा पेड़ था
उस पर चिड़ियाँ थीं जो
उन जैसी आवाज़ नहीं किसी शब्द में
उन पत्तों जितनी खामोशी भी नहीं

आग़ भय से मुक्ति के लिए बनी थी
अब भय उसका प्रेमी है
पहला पत्थर रक्षा के लिए उठा था
आखिरी आत्महत्या के लिए उठेगा

आदम से अधिक हव्वा खुश थी स्वर्ग से मुक्ति पर
अब वह आदम से मुक्ति के रास्ते तलाश रही है

लोग बसने जाते हैं  और विस्थापित हो जाते हैं

(दो)

हर दिल्ली में एक इजराइल है
हर आजमगढ़ में एक ग़ाज़ा

इस घर को गौर से देखो
यहाँ अशोक कुमार पाण्डेय पैदा हुआ था
अब इस खंडहर सा ही है अशोक आज़मी
अब जब यह घर नहीं रहा आजमगढ़ में
एक आजमगढ़ मेरे भीतर है और मैं दिल्ली में रहता हूँ

मैं कविता में शरण लेने नहीं आता
जितना बस की खिड़की से दिखे उतना गाँव भीतर हो भी तो क्या?
तुम एक शब्द लाओगे स्मृतियों के कोटर से
और कविता में सजा कर रख दोगे
वह एक फुलकारी सजा कर रख देगा कमरे में

ग़ाज़ा कब्रगाह में है
शुक्र है 
आजमगढ़ जेल में है

कवियों
बख्श देना आज़मगढ़ को
दिल्ली की बख्शीश के बदले

ग़ाज़ा पर अभी अभी एक बम गिरा है ...

(तीन)

“आग़ हर चीज़ में बताई गयी थी” *

पठार धधकते हैं सीने की आग से
बम की आग से रेगिस्तान बन जाते हैं  

सीने की आग संविधान के खिलाफ है कवि
चूल्हे की आग विकास के खिलाफ है
माचिस में आग नहीं तीलियाँ हैं बस
आग उन्हें रगड़ने वाले हाथों में थी कभी

तुम ग़लत साबित हुए कवि
और वे सही
किसी झूठे ने लिखा था
सत्यमेव जयते

कवितायेँ सारी दिन के सपनों में लिखी गयीं थीं
सारे सपने रतजगों की पैदाइश थे या सस्ती शराब के नशे के
जिन्होंने शराब बेची वही सपने भी बेचते रहे
हम ख़रीदार थे ख़रीदार रहे.

(चार)

पक्का कह सकते हो हव्वा ने ही खाया था वह फल?

यह भी तो हो सकता है उस दिन आग न रही हो चूल्हे में
और घर लौटने में हव्वा को देर हुई हो तो आदम ने खा लिया हो वह फल

तुम रोज़गार सुनते हो और आदम कहते हो
तुम खेती सुनते हो और आदम कहते हो
तुम्हें भूख सुनकर हव्वा की याद क्यों आती है?

ईश्वर ने आदम को निकाला था स्वर्ग से
हव्वा चिता पर जब चढ़ी तो ज़िंदा थी.

(पांच)

राजपथ पर कोई नहीं रहता
यहाँ कोई नहीं बसता

वह राजपथ पर चली तो नष्ट हुई
मेरी भाषा कि मेरे गाँव की झाँकी

सैल्यूट के लिए उठे हाथों में जो रह गयी है मिट्टी
सैल्यूट लेते जूतों के पैरों में उतनी भी नहीं

इस रस्ते पर मत आओ कवि
यहाँ बिन पानी सब सून है...



* चंद्रकांत देवताले की काव्य पंक्ति

कमल जीत चौधरी की कविताएं

$
0
0



कमल अनुनाद के प्रिय कवियों में से हैं पर इधर बहुत समय बाद उनकी कविताएं मिली हैं। पहली बार प्रकाशित हो रहीं ये कविताएं तीन-चार साल पहले की हैं। 
***

रेखांकन :शिरीष
चुप रहती लड़की


मेरी दोस्त
तुम जानती नहीं हो
चुप और अकेली लड़की को देख
मतलब निकाले जाते हैं
पूर्वाग्रह पाले जाते हैं
तुम जिस दुनिया में रह रही हो
वहाँ लड़की शब्दकोश में नहीं है
पर उसके अर्थ सबसे ज्यादा हैं
मसलन
सार्वजनिक बोलती
बेबाक घूमती
हाथ पैर चलाती लड़की को
छिनाल कह दिया जाता है
अकेली बैठ
पेड़ से बातें करती का अर्थ
प्यार ले लिया जाता है
सवाल ले लिया जाती है
बवाल ले लिया जाता है
चुप रहती का अर्थ
कटी पतंग
पहाड़ का संग
पानी का रंग भी समझा जाता है
यहाँ रोती का अर्थ
सिनेमाई सास ललिता पवार
या माँ निरूपा राय भी होता है
रोती का एक अर्थ
चक्की की आवाज़
चूल्हे का धुआं भी माना जाता है ...

सच तो यह है
लड़की का अर्थ
ग्लोबल है
पंचतत्व है
सबकुछ है
बस लड़की नहीं है

तुम जानती नहीं हो
चुप और अकेली लड़की पर
कविताएँ लिखी जाती हैं
कविताएँ मौन अपेक्षित नहीं होती
तुम बोलो
बोलने से अधिक सोचो
तुमसे मौन अपेक्षित क्यों नहीं है
जबकि इस दौर में
दिल्ली की अपेक्षा
मौन के अतिरिक्त कुछ नहीं है
वे चाहते हैं
तुम बोलो
पर विनायक सेन होकर नहीं
सुष्मिता सेन होकर
अरुंधती राय होकर नहीं
ऐश्वर्य राय होकर

मेरी दोस्त
तुम्हारे बोलने से
खूंटे की गाय खोलने से
उनको कोई खतरा नहीं
वे जानते हैं
जंगल में रहते हुए भी
तुमने अभी तक
शेरनी पर कोई किताब नहीं पढ़ी
...
तुम बोलती नहीं
बताओ तो इतने बड़े देश में
तुम चुप और अकेली क्यों हो

क्या यह चुप्पी इरोम शर्मिला के साथ है ।
{ २०११ }
***

बच्चे बड़े हो रहे हैं


एक बूढ़ा विस्थापित
जिसका नाम कम्मा था
मृत्यु शैय्या पर
अचेतावस्था में
ज़िद करता
बच्चे सी -
कहता
'मिगी छम्बे लई चलो घर अपने ...
पाड़ा अले खुए दा पानी लई अओ
में उए पीना जे ...बस उए !' *
उसके प्राण रहते
घर वाले उससे
झूठ बोलते रहे
नल के पानी को
उत्तर वाले कुएं का बतला
पानी पिलाते रहे
उसे पतियाते रहे
अब वो नहीं रहा
उसकी ज़िद कहीं और ...

एक अनपढ़ याददाश्त
बताती है
कैसे सन बहत्तर में
एक बाल कटी औरत के
फैसले से
इक्यावन गाँव के कुएं
जो रहट से
मेहनत से बंधे थे
उस पड़ोसी के लिए छोड़ दिए गए
जिसे धरती सींचने की तमीज नहीं

कुएं
मौन थे
गहरे थे
उलीचे जाने सम्भव नहीं थे
मिल मिलाकर
ऊपर खड़े होकर
बंद कर दिए गए

नीचे पानी अब भी है ...

एक अन्य विस्थापित
जो अपनी मिट्टी से बहुत प्यार करता था
तिरंगा
सीने से लगाए रखता था
माँ भूमि को छोड़ते हुए उसने
अपनी मिट्टी को कांगड़ी में भर लिया था
अंत तक उसने दर्पण नहीं देखा
वह डल में अपनी छवि निहारना चाहता था
इस आस को दबाए
वह एक दिन कच्ची दीवार के नीचे दब गया
उसकी लाई मिट्टी को
एक चालाक मसीहा ने
राजपथ पर रख
उसमें मनीप्लांट की बेलें लगाई
जो फलते फूलते
यू ०  एन ० ओ ० तक फैल गई हैं
वह चालाक आदमी
भावना से सराबोर
कैमरे के सामने
कैमरे की याददाश्त से
कला केन्द्रों
साहित्यिक कार्यक्रमों
राजनीतिक सभाओं में
खूब बोलता और बताता है
कि कैसे एकाएक सन ८९ में
स्वर्ग के झरने
मरने के लिए
बिच्छू सांप और लू से भरी
धरती पर मोड़ दिए गए ...

यह अलग बात है
पुराण कथाएँ सत्य हो रही हैं
स्वर्ग चतुर्दिक
झण्डे गाढ़ रहा है
धरती हार रही है

झरने ऊँचे थे
शोर करते थे
हाथ हिला हिला कर
उनके फोटों लिए गए
सत्ता के गलियारों में
प्रदर्शित किए गए
[जो साफ़ नहीं हैं ]

पर आज गौरतलब है
फोटो लैब में बैठ
कुछ बच्चे फोटो साफ़ कर रहे हैं
कुएं खोद रहे हैं
यक़ीनन नीचे पानी अब भी है
कड़े हो रहे हैं तानकर खड़े हो रहे हैं
सावधान !
बच्चे बड़े हो रहे हैं .
{ २०१० }
* मुझे छम्ब ले चलो अपने घर ...मैंने उत्तर वाले कुएँ का पानी ही पीना ...बस वही .
***

एक खुला हुआ ख़त

सुनो !
कान धरो
मैं फिर लडूंगा
फिर मारूंगा फिर मरूँगा
फिर सोचूंगा फिर बोलूँगा
फिर लिखूंगा
न हारा था
न हारूँगा
जल जंगल ज़मीन मेरी है
शोषकों की हर मशीन मेरी है
आप इसे सनक कहें या जनून
यहाँ कोई फर्क पड़ने वाला नहीं
सच तो यह है
आज़ादी न्याय अधिकार समता मांगना
छीनना
सनक है न जनून है
यह सबूत है कि अभी
जिन्दा मुझमें खून है
गौरतलब है
उनके पास वातानुकलित कक्ष है
मेरे पास नीर बहाता वक्ष है

मेरे पास एक मत है
मत क्या है
खुला हुआ एक ख़त है
उन कवियों
समाजशास्त्रियों
राजनीतिज्ञों
पत्रकारों
बुद्धिजीविओं के नाम
जो बहस मुबाहिसों में
बस यही फरमाते हैं -
कुछ नहीं हो सकता है
कुछ नहीं हो सकता है ...
जो शोक गीत गाते हैं
चूल्हा नहीं जलता है
चिराग भी बस बुझता है
सुहाग चक्की में पिसता है
कुछ नहीं हो सकता है ...
पर पढ़ो तो
ख़त में यह खुलासा है
पासा पलट सकता है
कुछ भी हो सकता है
देश के साथ कुछ टोपियों और लुंघियों ने
बलात्कार किया है
श्रमजीवी इसका गर्भपात न होने देंगे
सपना नहीं खोने देंगे
सदियों की यातना के बाद ही सही
देश एक बच्चे को जन्म देने की प्रक्रिया में है
लिंग से फर्क नहीं पड़ता
होने वाली संतान सवाल करेगी
सेरालक के लिए बवाल करेगी
सेब सा चेहरा लाल करेगी
अपने हक़ के लिए कमाल करेगी
इस बीच आप जागो
अपनी समझ से परदे उठाओ
पीछे कुछ हथियार पड़े हैं
हम सब के पास अपने अपने हथियार हैं
हमें इन्ही से लड़ना है
यह लड़ाई
बेलन से लेकर
विचार से होते हुए
बन्दूक तक से हो सकती है
हथियार कौन सा चुनना है
यह विकल्प हो सकता है
पर लड़ाई किससे है
इसमें कोई विकल्प नहीं
अपने हजारों चेहरों में भी
वह तो सिर्फ एक है
हमें अक्ल के घोड़े
दौड़ा दौड़ा कर
उसके होने
और हमारे न होने के कारणों में से
सबसे सही कारण
तलाशना है
उसे खत्म करना है
हमें यह देखना है
हम ही कतारों में क्यों फँसे हैं
सुलभ शोचालयों के बाहर
असुलभता उठाते
हम सोच क्यों नहीं पा रहे है कि
हम इतने अधिक हैं
संख्या में
कि हमारा पेशाब तक
सैलाब ला सकता है
फिर हम तो हम हैं
जलजला ला सकते है
खुलकर गा सकते हैं
सुनो कान धरो
मैं तो लडूंगा
आपकी तो खैर ...
{ २०१० }
***
 
परिचय :-
कमल जीत चौधरी
जन्म :- १३ अगस्त १९८० काली बड़ी , साम्बा { जे०& के० } में एक छम्ब
विस्थापित जाट परिवार में
शिक्षा :- जम्मू वि०वि० से हिन्दी साहित्य में परास्नातक { स्वर्ण पदक
प्राप्त } ; एम०फिल० ; सेट
लेखन :- २००७-०८ में लिखना शुरू किया
प्रकाशित :- संयुक्त संग्रहों 'स्वर एकादश' { स० राज्यवर्द्धन } तथा 'तवी
जहाँ से गुजरती है' { स० अशोक कुमार } में कुछ कविताएँ , नया ज्ञानोदय ,
सृजन सन्दर्भ , परस्पर , अक्षर पर्व , अभिव्यक्ति , दस्तक ,अभियान ,
हिमाचल मित्र , लोक गंगा , शब्द सरोकार , उत्तरप्रदेश , अनहद , दैनिक
जागरण , अमर उजाला , शीराज़ा , अनुनाद , पहली बार , बीइंग पोएट , तत्सम ,
सिताब दियारा , जानकी पुल , आओ हाथ उठाएँ हम भी , आई० एन० वी० सी० आदि
में प्रकाशित
सम्प्रति :- उच्च शिक्षा विभाग , जे०&के० में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद
पर कार्यरत ।
  ००००

सम्पर्क :-
काली बड़ी , साम्बा
जम्मू व कश्मीर , ( १८४१२१ )
दूरभाष - 09419274403
ईमेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

रेखांकन :शिरीष 

कुछ प्रलाप

$
0
0
अनुनाद पर बहुत समय बाद अपना लिखा कुछ लगा रहा हूं। ज़्यादा कुछ नहीं बस मेरे कुछ प्रलाप भर हैं। 

अकेले आदमी का प्रलाप

कविता न थी स्वप्न में
जीवन था

वह खड़ी थी सुबह ठीक आठ बजे
मेरे लिए उच्च रक्तचाप की दवाई लेकर

मुझे दवाई खाकर कुछ देर बाद काम पर चले जाना था
मेरे चले जाने के बाद
चुपचाप वह भी खाती थी वही दवाई
यह मैंने बहुत देर बाद जाना
जब डाक्टर ने बताया

एक आदमी इस तरह भी असफल हो सकता है
मनुष्यता हर क़दम पर पड़ताल मांगती है

मैं नींद में था
अब जागने पर दवाई खाना नहीं
उसके साथ ख़ूब बातें करते हुए घूमने जाना चाहता हूं
पर कुछ दिन अकेला हूं
 
रोज़ सुबह आठ बजे उसकी भीगी हुई आवाज़ आती है
मैं हाथ बढ़ा देता हूं
उधर जहां फिलहाल वह नहीं है

कोई नहीं जानता
बहुत दूर तक जाता है मेरा बढ़ा हुआ हाथ
अपने लिए कुछ जीवन मांग लाता है
मेरे बहुत पास प्रेम है मेरा
*** 

जूठा-मीठा प्रलाप 

जब भी मिलते साथी बचपन के
हम बैठ जाते संग-साथ
खाते एक ही थाली में
अंगुलियां भी चाटते रहते

दादी कहतीं - जूठा-मीठा मत खाया करो लड़को
हम लड़के कहां मानते
एक ही थाली में खाने की बात मुहावरा नहीं जीवन थी उन दिनों

पूछा था दादी से -
जूठे के साथ मीठा लगाकर क्यों बोलते हैं
जूठा क्यों नहीं बालते
जबकि वही भर तो बोलना चाहते हैं

दादी कहतीं - तुम साथ क्यों खाते हो
जूठा खाते हो उसमें संग-साथ होने की मिठास मिलती है न

हमने अपने पुरखों से सीखा यह शब्द व्यवहार
जो भाषा धड़कती है हमारे भीतर
उसमें भी कितना कुछ जूठा-मीठा है
चले आते शब्द बहुत नाज़ुक किसी और भाषा से
हमारी भाषा को जूठा
और उतना ही मीठा करते

दादी यह भी कहतीं -
सुग्गे जूठा कर देते हैं जिन्हें वो फल सबसे मीठे होते हैं

अरे मेरे संगियो
अबे छोकरो
ये कहां किधर उड़े रे हम अलग-अलग
झुंड हमारा बिखर गया
हलक को भरपूर चीर रही खटास
एक दूसरे की उड़ान में शामिल नहीं हैं हम

सुनो
कभी एक ही फल पर चोंच मारते मिलें
कुछ जवान सुग्गे
उन्हें उड़ाना मत
पुराने दिनों के नाम
एक कुतरा हुआ आंवला खाकर पानी पी लेना

देखो रे बुढ़ा रहे सुग्गो
अपनी समूची हसरतों से देखो
हमारे बच्चे अब
भरपूर फड़फड़ा रहे पांखें

अपनी ही किसी गनगनाती याद में जाकर सोचो
इस जूठे-मीठे संसार में आख़िर कब ढंकी रह सकती हैं
जवान हो रही कांखें
*** 

एक मृत्यु का प्रलाप
 
कुछ मृत्यु हत्या होती हैं

हत्या मृत्यु के साथ और मृत्यु श्रद्धांजलि के पश्चात
समाप्त मान ली जाती है
श्रद्धांजलियों में अकसर एक भावभीनी श्रद्धांजलि
हत्यारे की भी होती है।

जबकि हत्या जारी रहती है
मृत्यु होना बना रहता है
*** 

ओबामा की भारत यात्रा पर एक आशंकित प्रलाप
 
बड़े साहब चले गए  
छोड़ गए दाद-खाज करने वाली याद 

उम्मीद नहीं छोड़ रहा पर किसी रेडियोधर्मी रिसाव की 
लानत सरीखी आशंका भी इस 'पुण्य राष्ट्र'के हतभागी आमजनों में रहेगी। 

मिथाइल आइसोसाइनाइट और हाईड्रोजन साइनाइड वाली दाद के निशान 
अब भी बाक़ी हैं 
घावों वाले शरीर अब नहीं हैं 
सपाट भाषा में कहें तो घाव देने वाला भी अपने स्वर्गीय आवास में है 
पर वह प्यादा भर था, घाव देने का विचार यहीं है ...

घावों की स्मृति हमेशा के लिए है और उस अपमान की भी  

घावों की स्मृति होने से अच्छा है, उनकी आशंका होना, जो सावधान करती है 

अरे ओ दुनिया चलाने वालो 
मरदूदो 
जिनके मन में आशंकाएं छोड़ते जाते हो 
उन्हें आश्वस्त करने का तर्क और तथ्यपूर्ण जतन भी करो
कभी उनकी रज़ा भी पूछो 

इधर लोग जीवन को खुजाना नहीं
उसे मानवीय गरिमा के साथ जी लेना भर चाहते हैं।
*** 

पीढ़ी-प्रलाप
 
कुछ दिन पहले लगाई थी
मेरा बेटा चाहता है कि अहाते की वह दूब जल्दी से हरी-भरी हो जाए
ख़ूब फैल जाए
वह अभी 12 बरस का है।

मैं जानता हूं
अभी कुहरा है, पाला है, शीत है
वसन्त आएगा
फिर ताप बढ़ेगा
लगातार सींचना पड़ेगा

यह अहाता
मई तक हरा होकर लहलहाएगा
उन्हीं दिनों बेटा भी 13 का हो जाएगा।
 
मैं 41 बरस का हूं।
***

प्राकृतिक प्रलाप 

मेरे हृदय का रंग बुरूंश वाला है

जब पेड़ एक उम्र गुज़ार लेते हैं उनकी छाल के जैसा गहरा भूरा
और उस पर किसी चीज़ के स्याह साये के बाद वाला रंग शरीर का

ये साये चेहरे पर सबसे पहले पड़ते हैं
दिमाग़ दूब की तरह कभी मुरझाता
कभी उमगता है
सभी दिशाओं में अपनी बारीक़ जड़ें फैलाए घूमता
अपनी मिट्टी को भरपूर जकड़ता है
बना रहता है संकट काल में भी कुछ हरा

न जाने कहां कितनी दूर जन्मते, पनपते और पलते हैं
ये जो कुछ लोग अब भी
लगातार सूखते कंठ को पानी की तरह मिलते हैं
*** 

2015 के पहले दिन का प्रलाप 

ब्लॉग पर पोस्ट लगाने में विलम्ब हो रहा है
- मैं आजकल अहाते में दूब लगा रहा हूं।

 फेसबुक अब कुछ देर तक रहने वाला अवलोकन है
और स्टेटस एक ज़रूरी लगने वाला हस्तक्षेप।

कुछ शाम पढ़ने-लिखने में जाती है, कुछ आंगन में परिवार के साथ बैठ अाग जलाने-तापने में।
लकड़ी के टूटने की आवाज़ बताती है उसका कच्चा या पक्कापन
इंसान के टूटने की आवाज़ें भी यही बताती हैं पर उन्हें सुन पाना लकड़ी तोड़ने से सीखा है

नींबू की चाय प्रिय पेय है इन दिनों।
सहयोगी माली से मिली बीड़ी एक वरदान।

छुट्टी के बीच चल रहे कुछ असल कामों के कारण थक जाने से आयी नींद
इस क़दर चमकती है
कि पलकें ख़ुद ब ख़ुद मुंद जाती हैं।
 
मुंदती आंखों और आती नींद के बीच यह आज का पहला और अंतिम प्रलाप है।
जानता हूं यह सब कुछ दिनों का सुख है।
आगे फरवरी खड़ी है और काम-काज का पूरा साल।
***

दिन ढले का प्रलाप 

मैं ढूंढता ही रह गया जाने किधर गया
दिन मिला है मुझको जब दिन गुज़र गया  
*** 

उत्तर का प्रलाप

न छत्तीस में हूं न उत्तर में हूं
मध्य में धोखा हुआ
 
अखंड उत्तर में रहने लगा
मुझे इस शीत में भी
अपने जनों के संग-साथ रहने की गर्मी मिलती है
 
किसी लकदक मंच पर बोलने जाने से अच्छा है
किसी गोठ में बैलों को लूटे से उतारी हुई
सूखी घास खिलाऊं

साहित्य की कार बाद में ले लूंगा
पहले पंचर सुधारने लायक मैकेनिक बन जाऊं।
***

पेशावर के बाद अट्टहासों के विरुद्ध एक प्रलाप 

बच्चे बस अपने मां-बाप का दीन धरम ढोते हैं
जाहिलो,  वे हिंदू या मुसलमान नहीं होते हैं  
*** 

तोगड़ियो और इमामों के विरुद्ध मनुष्य होने का प्रलाप 

ईश्वर नहीं है
- निंदा नहीं, नकार
- निंदा से बड़ा अपराध।

फिर कहूंगा -
ईश्वर नहीं है।
उसके अनुवाद भी नहीं हैं।

ऐसा कहते हुए
अपने संविधान में वास करता
मैं एक स्वतंत्र मनुष्य हूं।

ईश्वर नहीं है
मेरा संविधान है।
*** 

खेद का प्रलाप

मेरे ही रक्त में मौजूद थे कुछ शत्रु उसके
मेरे होने की रोशनी में छुपा था कुछ स्याह भी
उधर शायद रह-रहकर उठती मेरे हृदय की भभक का धुंआ था
एक ज़रूरी रोशनी के बीच जीते
काम करते
उस स्याह को
वक़्त रहते साफ़ करना मैं भूल गया था

अभी बेबस पोंछता हूं हर दाग़
बाहर के त्यौहारों में भीतर का उजाला अनदेखा न रह जाए
उसी में तय होने हैं आगे के सफ़र

अब इतना भर यत्न मेरा कि पहले भीतर के उजाले में चलूं
फिर कहीं बाहर दिखूं

आप चाहें तो इसे नए साल का संकल्प मान सकते हैं
और किसी भी चमक दमक वाले बाहरी त्यौहार में शामिल न हो पर
मेरा अग्रिम ख़ेदज्ञापन भी
***

भवाली की ठंड का एक प्रलाप

सर्दियों की इन रातों में ठिठुरते नहीं, सुकून के साथ डूबते-से हैं
ये पहाड़।

कहीं कुछ लोग ठिठुरते हैं कि पहनने को पर्याप्त ऊन नहीं उनके पास
वंचितों के घर ठिठुरते हैं
कि चीड़ की टहनियों से रात उलांघ जाने लायक कोयले नहीं बनते
- वे अपने सग्गड़ों की राख में बची खुची आंच कुरेदते हैं।

ठंड के मारे नेपाली कच्ची के नशे में ज़ोर की आवाज़ में गाते हैं गीत
कुछ लोग हीटर के पास बैठे कोस लेते हैं उन्हें
बिना उस नशे को जाने
जो दरअसल कच्ची का नहीं
चढ़ती ठंड और उतरती शराब के बीच मुलुक के याद आने आने का है
और हर प्रवासी पुरुष के मुलुक में
कुछ स्त्रियां बसती हैं
- अलग-अलग रिश्तों के नाम से।

मैं ये कुछ संवेदना के शब्द लिखता हूं, यह जानते हुए
कि इनमें आभा नहीं
आभास भर है
- इस जानने के बीच लेटे हुए एक गर्म बिछौने पर
शरीर तो नहीं
पर मेरी आत्मा अकसर ठिठुरती है इन दिनों।

इस ठिठुरन में कितनी तो शर्म है
पर वह भी इस समकालीन जीवन में एक जाती हुई चीज़ है
यह जानना भी कुछ जानना ही है कि शर्म सिर्फ़ शरीरों में निवास नहीं करती।
वह प्रवासी पक्षी है
- उसे रहने को जीवन से भरे ज़्यादा गर्म इलाक़े चाहिए।
*** 

बीमार आंखों का प्रलाप

आंखें बीमार लगती थीं पर उनमें सुन्दर दृश्य थे
उन आंखों में
विलोमों के सम्बन्ध का एक विलोम था
स्थायी

उनमें पानी था
वह हृदय की आग को बुझाता नहीं,बचाता था

वो लाल रहीं सदा
हमेशा क्रोध में नहीं प्रसन्नता में भी
अकसर एक विचार में
निखरता रहा उनका रंग
यों लोग उनमें मनुष्यता के उत्सव को
संक्रमण समझते रहे

सूज जाते थे कभी उनके पपाटे मुर्दा स्वप्नों के भार से
वो उन्हें भी अपना जल पिलातीं
जिलाती थीं
जीवित चलते दिखते हैं वे स्वप्न अब जीवन में
तो आंखें उनसे
कोई आभार नहीं मांगती

बोझिल दीखती हुई-सी वे दरअसल अभार हैं
हल्की हवाओं-सी

कई आंखों के बीच वो आंखें बुझती-सी लगें तो समझ लेना
यह बिखरती चिनगियों की संभाल भर है

एक दिन अचानक वो होंगी साफ़ सफ़ेद चमकदार
पुतली काली कुछ ज़्यादा
उनके नीचे उम्र भर की स्याही भी
उस दिन नहीं होगी

वहां एक अंतिम आभा होगी
उसे प्रकाश मत समझ लेना।
***

मुक्ति पुनरुक्ति प्रलाप

एक स्त्री ने कहा था चिढ़ कर जाओ मैं तुम्हें मुक्त करती हूं
एक ने विवश होकर
एक ने कुछ दयालु होकर 

यों मुझसे कुछ स्त्रियों ने कहा जाओ हम तुम्हें मुक्त करते हैं

ये मुक्तियां थीं
जिनमें कहीं खीझ कहीं विवशता और कहीं दया का अक्षम्य भाव था

आज अपने सामाजिक एकान्त में
मैं कह रहा हूं एक स्त्री से बिना उसे बताए
ओ मेरी प्यारी तू मुक्त ही थी सदा से
बंधन तेरे अपने गढ़े हुए भरम थे
उन्हें भी तोड़ता हूं
जानता हूं उनका टूटना तुझे दु:ख देगा

बाहर कुछ नहीं
भीतर सब कुछ

सुन मैं न चिढ़ता हूं न विवश अनुभव करता हूं कभी ख़ुद को
मैंने जीवन के गझिन अंधेरों में भी अपना पथ आलोकित पाया है
दया मेरे लिए नहीं है
वह प्रेम है

तू मुक्त है सदा के लिए मैं बंधा हुआ
सब कुछ भीतर
बाहर कुछ नहीं

वो जो देखा था चलते कभी बहुत पहले एक नौजवान को
सधे और तेज़क़दम
उसमें बहुत कुछ न देखना भी था तेरा
बाहर कुछ नहीं
सब कुछ भीतर

अनदेखा ही अब भी
वह चलता है कुछ लड़खड़ाता
कहीं नहीं सहारों के बीच
वह किसी के सहारे चलता दीखता है

पर
सब कुछ भीतर
बाहर कुछ नहीं

जीवन सभी का पुनरुक्तियों से बना है
सुन
सुन तू मुक्त है सदा से

सुन
पुनरुक्ति
सबमें दोष नहीं होती
कभी वह प्रकाश भी होती है 
***


किसी सलीब पर देखा है मुझको बोलो तो - अशोक कुमार पांडेय की नई कविता

$
0
0


अशोक की कविता में बेचैनी भी एक मूल्य की तरह उभरती है। हिंदी कविता में उसका चेहरा  बे‍शिकन चेहरा नहीं है। वहां गहरे स्याह साए और एक जलती हुई उम्मीद है। वो ख़ुद से जिरह करते हुए उस जिरह की सामाजिकता को बहुत ख़ामोशी से अंधेरों के माथे पर उकेरता हुआ भी चलता है। विचार जब प्रहसन बन चले हैं, अशोक जैसे कवि उनकी संजीदगी को अपने जीवन-संघर्षों की उमस भरी उर्वरता में बो देते हैं। यहां दी जा रही कविता ख़ुद की तलाश में मिले घावों से भरी हुई है। आत्म को सुन्दर समाज के स्वप्न में खोजना ही आत्मखोज है, जटिल और सुन्दर। मैं ऐसी कविता और कवियों में अपने जीवन संघर्ष भी तलाश पाता हूं। अकेले की कला के विरुद्ध यह जीवट भरी सामाजिक कला है, जिससे हमारा तादात्म्य सहज ही स्थापित हो जाता है। इस कविता के लिए अनुनाद का आभार स्वीकार करो कामरेड।  

 
(एक)

आधी रात बाक़ी है जैसे आधी उम्र बाक़ी है

आधा कर्ज बाक़ी है आधी नौकरी आधी उम्मीदें अभी बाक़ी हैं

पता नहीं आधा भी बचा है कि नहीं जीवन



अब भी अधूरे मन से लौट आता हूँ रोज़ शाम

रोज़ सुबह जाता हूँ तो अधूरे मन से ही

जो अधूरा है उसे पूरा कहके ख़ुश होने का हुनर बाक़ी है अभी

अधूरे नाम से पुकारता हूँ जिसे प्यार का नाम समझता है वह उसे!



एक अधूरे तानाशाह के फरमानों के आगे झुकता हूँ आधा

एक अधूरे प्रेम में डूबता हूँ कमर तक



(दो)



वह जो चल रहा है मेरे क़दमों से मैं नहीं हूँ



हवा में धूल की तरह चला आया कोई

कोई पानी में चला आया मीन की तरह

कोई सब्जियों में हरे कीट की तरह

और इस तरह बना एक जीवन भरा पूरा



पाँचो तत्व सो रहे हैं जब गहरी नींद में

तो जो गिन रहा है सड़कों पर हरे पेड़

वह मैं नहीं हूँ



(तीन)



इतनी ऊँची कहाँ है मेरी आवाज़

एक कमज़ोर आदमी देर तक घूरता है कोई तो डर जाता हूँ

कोई लाठी पटकता है जोर से तो अपनी पीठ सहलाता हूँ

शराबियों तक से बच के निकलता हूँ

कोई प्रेम से देखे तो सोचते हुए भूल जाता हूँ मुस्कुराना





दफ्तर में मंदिर की तरह जाता हूँ

मंदिर में दफ्तर की तरह



अभी अभी जो सुनी मेरी आवाज़ आपने और भयभीत हुए

वह मेरे भय की आवाज़ है बंदानवाज़



(चार)



कौन करता मेरा ज़िक्र?



मैं इस देश का एक अदना सा वोटर

एक नीला निशान मेरा हासिल है

मैं इतिहास में दर्ज होने की इच्छाओं के साथ जी तो सकता हूँ

मरना मुझे परिवार के शज़रे में शामिल रहने की इच्छा के साथ ही है



किसी ने कहा प्रेम तो मैंने परिवार सुना

किसी ने क्रान्ति कहा तो नौकरी सुना मैंने

मैंने हर बार बोलने से पहले सोचा देर तक

और बोलने के बाद शर्मिन्दा हुआ



मैंने मोमबत्तियाँ जलाईं, तालियाँ बजाईं

गया जुलूस में जंतर मंतर गया कुर्सियां कम पड़ीं तो खड़ा रहा सबसे पीछे हाल में

और रात होने से पहले घर लौट आया



वह जो अखबार के पन्ने में भीड़ थी

जो अधूरा सा चित्र उसमें वह मेरा है

सिर्फ इतने के लिए भी चाय पिला सकता हूँ आपको

कमीज़ साफ़ होती तो सिगरेट के लिए भी पूछता

--- 
रुकिए..लिख तो दूँ कि धूम्रपान हानिकारक है स्वास्थ्य के लिए

सुजाता की कविताएं

$
0
0


मेरा सुजाता से पहला परिचय चोखेरबाली ब्लाग की वजह से है और दूसरा फेसबुक पर। इतना जानना भी इस मायने में पर्याप्त है कि मैंने उन्हें फेसबुक पर कुछ तीखी लेकिन सार्थक बहसों में उलझा पाया है। वे बहसें बताती हैं कि बोलने वाला किस ज़मीन पर खड़ा है। जाहिर है कि सुजाता का रचना संसार उन कई बेचैन प्रश्नों से बनता है, जिन्हें सुविधा के लिए  स्त्रीप्रश्न कह दिया जाता है। सुन्दर और समतामूलक समाज के निर्माण से जुडे़ स्वप्नों सरीखे वे प्रश्न समाज के अंधेरे में चिनगियों की तरह बिखरते जाते हैं। वे एक अनिवार्य आग का पता देते हैं। बहुत बदलकर भी समाज कमोबेश वही रह गया है, जिसे सुजाता ही नहीं, हम सभी प्रश्नांकित करते रहे हैं। इधर ब्लाग और फेसबुक पर मैंने उन्हें पढ़ते हुए पाया कि सुजाता की कम दिखाई देने वाली कविताओं में भी उनका स्वर एक जिरह जगाता है, बहुत ऊंची पौरुषेय तानों में गिरह लगाता है, उस स्वर में ख़ुद को सुलझा लेने और चमत्कार पैदा कर देने की हड़बड़ी नहीं है। निष्कर्षों के मारे हमारे जीवन के बारे में कहते हुए किसी निष्कर्ष तक तुरत पहुंच सकने का लक्ष्य भी सुजाता ने नहीं रखा है। इन कविताओं में सतत् चलते जीवन संघर्षों और जिरह करते संवादों के लिए ज़रूरी अवकाश है। जिन कवियों से अनुनाद एक सार्थक वैचारिक रचनायात्रा की उम्मीद रखता है, सुजाता उनमें हैं।  

सुजाता ने अनुनाद के अनुरोध पर यह नौ कविताएं उपलब्ध कराईं हैं, इसके लिए आभार और अनुनाद पर उनका स्वागत।
*** 

नहीं हो सकेगा प्यार तुम्हारे-मेरे बीच

नहीं हो सकेगा प्यार तुम्हारे-मेरे बीच
क्योंकि ज़रूरी है एक प्यार के लिए एक भाषा ...
इस मामले में
धुरविरोधी
तुम और मैं।

जो पहाड़ और खाईयाँ हैं  मेरी तुम्हारी भाषा के बीच
उन्हें पाटना समझौतों की लय से सम्भव नहीं दिखता मुझे अब
इसलिए तुम लौटो तो मैं निकलूँ खंदकों से
आरम्भ करूँ यात्रा
भीतर नहीं ..बाहर ..
पहाड़ी घुमावों और बोझिल शामों में
नितांत निर्जन और भीड़-भड़क्के में
अकेले और हल्के

आवाज़ भी लगा सकने की  तुम्हें
जहाँ न हो सम्भावना ।
न कंधे हों तुम्हारे
जिन पर मेरे शब्द पिघल जाते हैं सिर टिकाते ही
और फिर  आसान होता है
उन्हें प्यार में ढाल देना

नहीं हो सकता प्यार तुम्हारे मेरे बीच
क्योंकि कभी वह मुकम्मल आ ही नहीं सकता मुझ तक जिसे तुम कहते हो
आभासी रह जाता है वह ।
किसी जालसाज़ ने प्रिज़्म मे बदल दिया है मेरे दिमाग को
तुम्हारे शब्दों को जो
हज़ारों रंगीन किरनों में बिखरा देता है।
*** 

आज,अभी

कितना मुलायम दीखता है दलदललेकिन उसमे
धँसते धँसते जब धँसने ही वाली हो नाक भी
तब पूरा दम लगाकर भी निकला नही जा सकता इससे बाहर ।

मैंने नहीं खोजे थे अपने रास्ते और अपने दलदल भी नही चुने थे
आज़माए रास्तों पर से गुज़रने वाली पुरखिनें 
लिख गयीं थीं कुछ सूत्र किसी अज्ञात भाषा में 
जिनका तिलिस्म तोड़ने के लिए मरना ज़रूरी था मुझे

सो मरी कई बार ...
बार बार ...

और अब सुलझ गए हैं कई तिलिस्म  
समझ गई हूँ कि
मेरे रास्तों पर से निशान वाली पट्टियाँ 
उलट देते थे वे जाते जाते 
मार्ग सुझाने का चिह्न शास्त्र भी
अपने ही साथ लिए फिरते थे वे-  जंगल के आदिम शिकारी !

अनुगमन करना मेरे लिए विकल्प तो था
पर एकमात्र नहीं
इसलिएसहेज लेना रास्तों पर से फूल-कंद 
अनुगमन की ऊब से निजात देता था। 
पीडाएँ गाती  थीं समवेत और मुक्त कर देता था नाच लेना बेसुध !

यह आसान मुझ पर कितना मुश्किल बीता 

इसकी कहानी नही सुनाने आयी हूँ मैं ।
मुझे पूछना है तुमसे साफ –साफ कि पिछली पीढियों में अपनी धूर्तता की कीमत
कभी किसी पीढी मे तो तुम चुकाओगे न तुम !
करना ही होगा न साहस तुम्हें ?
तो वह आज और अभी ही क्यों न हो !  
*** 

अगर गुफा नहीं होती मैं...

अगर नहीं होती मैं गुफा
तो नदी बन जाती एक दिन।

जितना डरती रही
उतना ही सीखा प्यार करना
और गुम्फित हो जाना।

गुफाएँ चलती नहीं कहीं ,आश्रय हो जाती हैं ।
शापित आस्थाएँ अब भी वहाँ
दिया जलाती हैं कि गुफाएँ पवित्र ही रहें ।
इसलिए अगर नहीं होती लता मैं
तो बाढ़ हो जाती क्या एक दिन?
एक परी, तितली या पंखुरी
सूने गर्भगृह की पवित्र देहरी पर पड़ी

कभी नहीं हो पाती वह मैं
जो हो सकती हूँ आज !
हवा हो जाती शायद
लेकिन सिर्फ़ बाढ़ हो पाती हूँ अक्सर !
क्या करूँ कि एक भी अच्छा शब्द नहीं बचा है मेरे लिए।
उन्माद है,प्रलाप जैसा है कुछ ,जाने क्या है  !
तुम ऊब न जाओ
इसलिए चलो फिर से गाएँ वही कविता
जिसमें मैं बन जाती थी चिड़िया और तुम भँवरा।
तुम्हारी गुनगुनाहट सेमैं प्यार सीखने लगूँगी फिर से।

सच कहूँ ?
तुम भ्रमर नही होते तो मैं नहीं गाती कभी कविता
मैं गद्य रचती।
तुम्हे एक यह भी ग़लतफ़हमी है कि सिर्फ़ कविता लिखती है
या चित्र बनाती है बार-बार छिली गई पेंसिल
देखो,बार बार उघाड़ी जाकर वह नुकीली हो गई है
और हत्यारिन !
इसलिए शब्दसाज़ होना होगा
मुझे हीअबकी बार।

तलाशने होंगे मुझे फिर से
वे छंद जो गुफासरिता से बहते हैं
और चिड़िया - या जो भी कुछ
मैं बनूँगी अबकी बार-वह जब तक बेदख़ल है आलोचना से
तब तक बार बार पढ़नी होगी हमें वही कविता
जिसमें तुम बनते थे बादल और
धरती हो जाती थी मैं।
***

भरा होना भी रीत जाना ही है

हर सुबह जगती है कुछ नए अंधेरे कोने सिरजती हुई 
उजाला कभी नही रच पाता पूरा का पूरा उजास 
दूर, किसी किनारे तुम्हें छोड़ कर लौटती हूँ ऐसे
जैसे तमाम पिछली रातें कईं सालों से मेरे भीतर ही डूबती हों हर शाम

बारिशें धो नही पातीं खुशबुओं की स्मृतियाँ जो तुम लिख देते हो
हाथों पर 
जब थामते हो सकुचा कर कोई बोझ मेरी उंगलियों मे उलझा हुआ 
किसी भार का छिटक जाना हलका नही करता पूरा का पूरा जैसे 
ऐसे भीगना मैंने सूखने जैसा पाया है अक्सर !

देखो, ये ज़हर से नीला हुआ समंदर 
कितनी सदियों से ग्लानियों की अनगिन धाराएँ मिली हैं इसमे आकर 
फिर भी लपकता है चाँद को  देखकर
कितना बेशर्म है! 
इसे अब भी डूब जाने की ख्वाहिश है ?

बहुत भरा है यह भीतर ...
इतना कि उबकाइयाँ इसकी लहरों में रह रह आती हैं बालू तक सुबह शाम
उगल देतीं हों कोई सीप , शंख , मोती
पर अथाह होना 
अक्सर एक अनबूझ अकेलापन है 
भरा होना भी रीत जाना ही है सम्भावनाओं से
नहीं जाते उधर गोताखोर सुना है ,जहाँ सुंदर शैवाल नही हैं !
***
  
भागना था मुझे

भागना था मुझे बहुत पहले 
लगभग उन्हीं वक़्तों में 
जब सोचती थी -'भागना कायरता है'

लेकिन भागना हिम्मत भी होती है उन वक़्तों में
जब भागा जाता है 
असह्य व्यवस्थाओं के निर्मम मकड़जाल से बचकर
जब भाग निकलते हैं हमउनके पास से 
जिनकी कुण्ठाएँ धीरे धीरे ग्रस लेंगी हमारे व्यक्तित्व को 

भाग जाना बहुत बहादुरी है 
उन कमज़ोर पलों में जब 
अत्याचारी के चरणों में शीशझुकाए रखने की आदत पड़ने लगी हो
और उस हिम्मत के पल में भी 
जबउसे बदल देने का मूर्ख दम्भ जागने लगा हो

गढ़ने के लिए अपने मुहावरे हर एक को
भागने की कायरता या हिम्मत का निर्णय 
अपनी पीठ पर उठाना होता है 
इसलिए भागना था मुझे बहुत पहले 

अब इन वक़्तों में 
जब कि उन खूँखार चेहरों से नकाब हट गए हैं
उनकी ढिठाई आ गई है सबके सामने 
हद्द है 
कि न भाग पाने की अपनी स्वार्थी कायरता को 
मैंने उधारी शब्दों की परछाईं में अभी अभी देख लिया है।
*** 

भाषा को देना होगा मेरा साथ

बेगै़रत भाषा से 
आजकल मुझे चिढ़ हो गई है 
मेरे शब्दों के खाँचे वह
तुम्हारे दिए अर्थों से भर देती है बार बार 
नामुराद !
देखो ,
जब जब तुमने कहा -आज़ादी 
क्रांतिकारी हो गए,
द्रष्टा ,चेतन ,विचारक !
मैंने धीमे स्वर में 
धृष्टता से बुदबुदाया -
स्वतंत्रता !
और भाषा चौकन्नी हो गई 
इतिहास चाक चौबंद ।

जन्मी भी नही थी जब भाषा
तब भी 
मैं थी
फिर भी इतिहास मेरी कहानी 
नहीं कह पाता आरम्भ से।
किसी की तो गलती है यह ! 
भाषा या इतिहास की ?

मैं यही सोचती थी
कि जो भाषा में बचा रह जाएगा ठीक ठाक 
उसके इतिहास में बचने की पूरी सम्भावना है 
लेकिन देख रही हूँ 
भाषा का मेरा मुहावरा 
अब भी गढे़ जाने की प्रतीक्षा में है ।
इतिहास से लड़ने को 
कम से कम भाषा को तो 
देना होगा मेरा साथ ।
*** 
भाषा मे बनती औरत

चुस्त टीशर्ट मे जब वह आया 
उसके चेहरे पर से गायब था आदमी 

कुहनी मारकर वे मुझे बोलीं-
बड़ा औरतबाज़ है ,
बच कर रहना ,
तुम्हें औरत होने की तमीज़ नही है।
और इस तरह धकिया दिया उन्होंने
भाषा मे बनती औरत को
थोड़ा और नीचे
और निश्चिंत हो गईं 
कि अब कुछ गलत नहीं हो सकेगा ।

लेकिन कभी वापस नहीं जा सकीं घर वे
औरत होने की शर्मिंदगी लिए बिना  
ठीक वैसे जैसे हर सुबह लौटती थीं 
एक ग्लानि लिए घर से ।
*** 
देह के परे 

दोपहरिया बरसात में मिलना मुझे
रोशनी भी होगी और
सब कुछ धुला धुला सा होगा जब 
धुल ही जाएगी शायद वह चाँदनी भी जिसमें
देह के पुराने रास्ते चलते चलते अचानक 
अनजान होने का भ्रम देने लगे थे
सोचा था कई बार ठिठकते 
सही भी जा रहे हैं ?
किसी से पूछा भी नहीं जा सकता था इस शहर में
जहाँ देह पाप भूमि है और प्यार उसमें आ बसा पागल-पापी ! 

बरसात में ही बस शर्मिंदा रहता है यह शहर
नज़रें चुराए भागता बदहवास
इसके कमज़ोर पलों में मुझे तुमसे जानना है 
कि ऐसा क्या नया उग आया है मन में 
जो देह की भाषा का ककहरा भी दोहरा नहीं पाता बिना भूले
इस  शहर के बरसाती गड्ढों की कीचड़ से बचकर
कितना मुश्किल है चले  जाना देह  के परे। 
*** 
 
यहआमरास्तानहीं है।

जब हवा चलती है हिलोरें लेता है चाँद
और मैं उनींदी सी  होकर भूल  जाती  हूँ  उतारकर 
रख  देना जिरहबख्तर  सोने  से  पहले ।

यहआमरास्तानहीं है।

यहजगह-  जिसेतुमनींदकहते हो
यहाँ जाना होता है निष्कवच ,बल्कि निर्वस्त्र
खोल कर रखने होते हैं वस्त्रों के भीतर
मन पर बँधे पुराने जीर्ण हुए कॉर्सेट ।

कुछ शब्द किसी रात जो  गाड़ दिए  थे चाँद  के गड्ढों में
वे घरौंदा बनाते उभर आए हैं मेरे होठो पर उनींदी बडबडाहट की तरह
कभी उधर जाना तो लेते जाना इन्हें वापिस क्योंकि
मिलेंगे और न जाने कितने सपने ,गीत ,पुराने प्रेम,पतंगे और खुशबुएँ

खुद  में  खुद  को ढूँढना खतरनाक है सो मैं बेआवाज़ चलना चाहती हूँ
कहीं रास्ते  मे टकरा  न जाए वह भी जिसे कभी किया था वादा
कि -हाँ ,मैं चलूँगी चाँद पर ...लेकिन हवा में टँगी रह गई ।

इन रास्तों पर गुज़र कर हवा भी न बचे शायद
लेकिन क्या निर्वात की भी अपनी जगह नहीं होती होगी  ?
तब तो रहना होगा वहीं उसी निर्वात में निर्वासित !

चलो कम से कम वहाँ भय नहीं निर्वसन होने का
निष्कवच हो जाने का  भी खटका नहीं होगा
कोई तो गीत पूरा  होगा ही भटकाव की तरह 
यूँ भी तो आम रास्तों पर चलकर नहीं मिलती
अपनी नींद
अपना निर्वात
निर्वसन स्व
निष्कवच मन !
**** 


राकेश रोहित की कविताएं

$
0
0
राकेश रोहित की कविताएं एक वक़्त से फेसबुक और उनके ब्लॉग पर पढ़ता रहा हूं। मद्धम आंच से भरी उनकी कविताएं मनुष्यता के पक्ष में खड़ी होती हैं। कला के लिए कोई अतिरिक्त आग्रह नहीं, यथार्थ से सीधी मुठभेड़ आमफ़हम भाषा के साथ वे संभव करते हैं। मैंने उनसे कविताओं के लिए आग्रह किया था। अनुनाद पर वे पहली बार छप रहे हैं। राकेश रोहित का कविता के इस मंच पर स्वागत है।

 
एक सपना, एक जीवन

आदम हव्वा के बच्चे
सीमाहीन धरती पर कैसे निर्बाध भागते होंगे
पृथ्वी को पैरों में चिपकाये
कैसे आकाश की छतरी उठाये
ब्रह्मांड की सैर करता होगा उनका मन?

वो फूल नहीं उनकी किलकारियाँ हैं
जिनको हरियाली ने समेट रखा है अपने आँचल में
उनके लिखे खत
तितलियों की तरह हवा में उड़ रहे हैं!
वे जागते हैं तो
चिड़ियों के कलरव से भर जाता है आकाश
उषा का रंग लाल हो जाता है
हवा भी उनको इस नाजुकी से छूती है
कि सूर्य का ताप कम हो जाता है।

सो जाते हैं वही बच्चे तो
प्रकृति भी अंधेरे में डूबी
चुप सो जाती है।

एक मन मेरा
रोज रात उनके साथ दौड़ता है
एक मन मेरा
रोज जैसे पिंजरे में जागता है!
क्या किसी ने शीशे का टूटना देखा है
क्या किसी ने शीशे के टूटने की आवाज सुनी है?
किरचों की संभाल का इतिहास
ही क्या सभ्यता का विकास है!

हमारे हाथों में लहू है
हमारे हाथों में कांच
हमारे अंदर एक टूटा हुआ दिन है
हमारे हाथों में एक अधूरा आज!
मैं जिंदगी से भाग कर सपने में जाता हूँ
मैं सपने की तलाश में जिंदगी में आता हूँ।
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो उस सपने को याद कर निरंतर रोता है
मेरे अंदर एक हिस्सा है
जो इससे बेखबर सोता है।

जिसने एक छतरी केनीचे
इतने फूलों को समेट रखा है
मैं बार- बार उसके पास जाता हूँ
उसे मेरे सपने का पता है।
मैं लौट आता हूँ अपने निर्वासन से
आपके पास
आपकी आवाज भी सुनी थी मैंने
आपका भी उस सपने से कोई वास्ता है।  
*** 

गजब कि अब भी, इसी समय में
 
गजब कि ऐसे समय में रहता हूँ
कि खबर नहीं है उनको
इसी देह में मेरी आत्मा वास करती है।

गेंद की तरह उछलती है मेरी देह
और मन मरियल सीटी की तरह बजता है
हमारी भाषा के सारे विस्मय में नहीं
समाता उनकी क्रीड़ा का कौतुक!
गजब कि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है। 
गजब कि आत्मा से परे भी
बचा रहता है देहों का जीवन!

रोज मेरी देह आत्मा को छोड़ कर कहाँ जाती है
रोज क्यों एक संशय मेरे साथ रहता है
रोज दर्शन का एक सवाल उठता है मेरे मन में
आत्मा मुझमें लौटती है
या मैं आत्मा में लौटता हूँ!

क्या हमारा अस्तित्व
धुंधलके में खामोश खड़े
पेड़ों की तरह है
लोग तस्वीर की तरह देखने की कोशिश करते हैं हमें
और मैं अपने अंदर समाये  हजार स्वप्न
और असंख्य साँसों के साथ
नेपथ्य में खड़ा
आपके विजय रथ के गुजरने का इंतजार करता हूँ?

कैसे हारे हुए सैनिकों की तरह लौट गयी है इच्छायें,
कैसे उदासियों के पर्चे फड़फड़ा रहे हैं?
कैसे अनगिन तारों के बीच
निस्तब्ध सोयी है पृथ्वी,
कैसे कोई जागता नहीं है
कि सुबह हो जायेगी?

गजब कि ऐसे समय में, अब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथहै
गजबकिअबभी,
इसीसमयमें,
कोईकहताहै
कोईसुनताहै!
*** 

इच्छा, आकाश के आँगन में
 
इच्छा भी थक जाती है
मेरे अंदर रहते- रहते
यह मन तो लगातार भटकता रहता है
आत्मा भी टहल आती है
कभी- कभार बाहर
जब मैं सोया रहता हूँ।

यह बिखराव का समय है
मैं अपने ही भीतर किसी को आवाज देता हूँ
और अपने ही अकेलेपन से डर जाता हूँ।
यह समय ऐसा क्यों लगता है
किकाली अंधेरी सड़क पर
एक बच्चा अकेला खड़ा है?

लोरियों में साहस भरने से
कम नहीं होता बच्चे का भय
खिड़कियां बंद हों तो सारी सडकें जंगल की तरह लगती हैं।
इच्छा ने ही कभी जन्म लिया था मनुष्य की तरह
इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।

मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोलकरदेखोमित्र
उजालेकेइंतजारमेंमैंआकाशकेआँगनमेंहूँ।
***
 
छतरी के नीचे मुस्कराहट
 
छतरी के नीचे मुस्कराहट थी
जिसे उस लड़की ने ओढ़ रखा था,
उसकी आँखें बारिश से भींगी थी
और ऐसा लग रहा था जैसे 
भींगी धरती पर बहुत से गुलाबी फूल खिले हों!

जैसे पलकों की ओट में
छिपा था उसका मन
वैसे छतरी ने छिपा रखा था
उसके अतीत का अंधेरा।

पतंग की छांव में एक छोटी सी चिड़िया
एक बहुत बड़े सपने के आंगन में खड़ी थी।
*** 

हमारेहीबीचकाहोगावह, जोसचकहेगा


हमारे ही बीच का होगा वह
जो सच कहेगा
हमारे ही भीतर से आएगा! 

देवताओं सी चमक
नहीं होगी उसके चेहरे पर
नहीं होगा,
वह उम्मीद की गाथाओं का रचयिता!
हो सकता है
इंद्रधनुषों की बात करते वक्त भी
उसकी आँखों से
झांक रही हो
रात की थोड़ी बची भूख
और कहीं उसके गहरे अंदर
छूट रही हो
एक नामालूम रुलाई!

एक सामान्य सी सुबह होगी वह
और रोज की तरह का दिन
जब रोज के कामों से
थोड़ा वक्त निकाल कर
जैसे सुस्ताता है कोई पथिक
वह हमसे- आपसे मुखातिब होकर
सरे राह सच कहेगा!

ऐतिहासिक नहीं होगा वह दिन
जब सूरज की तरह
चमकेगा सच
और साफ झलकेगा
भूरी टहनियों पर
हरे पत्तों का साहस।
***
 
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर एक कविता धरती के बारे में है
 
मुझे लगता है मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में 
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में है!

आँखों से बहे आंसू
जो आँखों से बहे और कहीं नहीं पहुंचे
आवाज जो दिल से निकली और
दिल तक नहीं पहुंची!
उसी कविता की बीच की किन्हीं पंक्तियों में
उन आंसुओं का जिक्र है
उस आवाज की पुकार है.

संसार के सभी असंभव दुःख
जो नहीं होने थे और हुए
मुझे लगता है उस कविता में
उन दुखों की वेदना की आवृत्ति है.

पता नहीं वह कविता लिखी जा चुकी है
या अब भी लिखी जा रही है
क्योंकि धरती पर अभी-अभी लुप्त हुई प्रजाति का 
जिक्र उस कविता में है.

मुझे लगता है संसार के सबसे सुंदर सपनों में
कट कर  भटकती  उम्मीद की पतंग
मंगल ग्रह के ही किसी वीराने पहाड़ से टकराती है
और अब भी जब इस सुंदर धरती को बचाने की
कविता की कोशिशें विफल होती है
मंगल ग्रह पर तूफान उठते हैं.

मुझे लगता है
जैसे धरती पर एक कविता
मंगल ग्रह के बारे में है
ठीक वैसे ही मंगल ग्रह पर बिखरे
असंख्य पत्थरों में
कहीं कोई एक कविता धरती के बारे में है!
*** 
***
एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर 
 
हारा हुआ आदमी पनाह के लिए कहाँ जाता है,
कहाँ मिलती है उसे सर टिकाने की जगह?

आपने इतनी माया रच दी है कविता में
कि अचंभे में है अंधेरे में खड़ा आदमी!
आपके कौतुक के लिए वह हंसता है जोर- जोर
आपके इशारे पर सरपट भागता है।

एक दिन वह निकल आयेगा कविता से बाहर
चमत्कार का अंगोछा झाड़ कर आपकी पीठ पर
कहेगा, कवि जी कविता बहुत हुई
आते हैं हम खेतों से
अब जोतनी का समय है।
***


जन्म : 19 जून 1971.
संपूर्ण शिक्षा कटिहार (बिहार) में. शिक्षा : स्नातकोत्तर (भौतिकी).
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि. पहली कहानी "शहर में कैबरे"'हंस'पत्रिका में प्रकाशित.
"हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं"आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित.
राष्ट्रीय स्तर की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन.
सक्रियता : हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, आजकल, नवनीत, गूँज, जतन, समकालीन परिभाषा, दिनमान टाइम्स, संडे आब्जर्वर, सारिका, संदर्श, संवदिया, मुहिम, कला आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचनात्मक आलेख, पुस्तक समीक्षा, साहित्यिक/सांस्कृतिक रपट आदि का प्रकाशन.
संप्रति : सरकारी सेवा.

कविता में भरोसेमंद आवाज़ें - विजय कुमार

$
0
0
गोविंद माथुर के हाल में प्रकाशित कविता संग्रह ‘ नमक की तरह ‘ को पढ़ना एक प्रीतिकर अनुभव है। भारतीय निम्न मध्य वर्ग का एक जटिल समाजशास्त्र और उसका मनोविज्ञान जीवन की छोटी छोटी स्थितियों के माध्यम से अपनी आंतरिकता के साथ इन कविताओं में उजागर हुआ है । हमारे जातीय जीवन के सहज मार्मिक प्रसंग , सामाजिक- आर्थिक ताने- बाने में लिपटा हुआ एक समय , मानवीय रिश्तों की अनेक संबंध सूत्रतायेँ , उनके छोटे बड़े आख्यान और स्मृतियाँ इन कविताओं में हैं। वह सब कुछ जो एक निहायत सामान्य से प्रतीत होते अनुभव को भी कला की दुनिया में बहुत अंतरंग , विकल और मानवीय अनुभव में बदल देता है - 

बड़े भाई ने जुगाड़ कर सिलवा ली थी एक पैंट 
उन्हें नौकरी की तलाश में जाना पड़ता था 
कई जगह काली टैरी कॉटन की पैंट पहन कर बाबू साहेब लगते थे 
बड़े भाई की नौकरी लगने पर कुछ दिनों बाद 
उन्होने सिलवा ली थी दो नई पैंट 
उतरी हुई काली पैंट दे दी गई थी मुझे 
मां ने पांयचे छोटे कर मेरे नाप की बना दी थी 
पर कमर में ढीली ही थी 
बैल्ट बांध कर कई दिनों तक पहनता रहा काली पैंट 
अपने को समझता रहा कुछ अलग ( “ काली पैंट “ ) 

गोविंद माथुर अपनी इस तरह की कविताओं में किसी तरह की भाषिक भंगिमा, आरोपित नाटकीयता, अतिकथन या किसी सामान्यीकृत फलसफे से साफ तौर पर बचते है । यह महत्वपूर्ण और सर्वाधिक उल्लेखनीय बात है । उन तमाम चीजों के स्थान पर इन कविताओं में एक बुनियादी विकलता और भाषा की विश्वसनीय सादगी है । आज के उपभोगमूलक समय में जब बाज़ार संस्कृति सबकुछ को लीलती चली जा रही है , ऐसी कवितायें अपनी मार्मिकता, खामोशी , आंतरिक लय , स्निग्धता और जीवन की किसी मूलभूत उदासी का अर्थ रचती प्रतीत होती हैं। इनमें मनुष्य अस्तित्व की कुछ बुनियादी जरूरतें , उनके इर्द गिर्द बसी तमाम तरह की दैनिक गतिविधियां और छोटी - बड़ी उलझनें उपस्थित हैं । इनमें किसी निजी बीतते समय की स्मृतियाँ हैं । 

बहुत निरायास ढंग से गोविंद माथुर की ये कवितायें भौतिक वजूद की तमाम स्थूल स्थितियों और मानसिक जगत के साथ बनाते उनके अंत:संबन्धों का एक दिलचस्प खाका बुनती हैं । ये मद्धम स्वर में किए गए किसी एकालाप या एकांतिक डायरी के पन्नों की तरह हैं जिनमें औसत निम्न मध्यवर्गीय जीवन की तमाम इच्छाओं , उम्मीदों, दुश्वारियों , हताशाओं , जागरण और नींद का एक विकल संसार है । उदाहरण के लिए एक कविता है जिसमें चोर बाज़ार से खरीद कर पहली बार पहने गए चमचाते चमड़े के सेकेंडहैंड जूतों का ज़िक्र है और फिर बाद मेँ पैदा हुई किसी आत्म ग्लानि का संदर्भ है । एक दूसरी मेँ कविता मेँ एक घरेलू स्त्री की चिड़ियों से किए गए संवाद की आत्मीयता है । एक कविता में साइकिल के साथ बीता पुराने निर्दोष समय का वह अपना जीवन है जो आज के संदर्भ मेँ लगभग अप्रांसगिक हो चुका है पर फिर भी इस आपाधापी के दौर में एक नई तरह की व्यंजना को रचता है । बहुत निजी , निष्कलुष और अनौपचारिक संदर्भ इन कविताओं में खुलते हैं । एक अन्य कविता है जिसमेँ गर्मियों की रातों मेँ छत पर सोने की कुछ पुरानी रूमानी स्मृतियाँ हैं जो एक सामूहिक जीवन शैली किसी लय को व्यक्त करती हैं । ऐसी तमाम अंतरंग कवितायें गोविंद माथुर के यहाँ हैं। 

कहने का अर्थ यह कि इन अधिकांश कविताओं मेँ धीरे धीरे बीत चला एक आत्मीय संसार और उसकी मानवीय अर्थवत्ता के महीन रेशे हैं । ये कवितायें जैसे बार बार इस बात की प्रतीति कराती हैं की वे समस्त स्थल जहां कभी एक कविता का वास था- जहां हमारी मूल्य चेतना, सौंदर्य - बोध , वैचारिक ऊर्जा , कल्पनाशीलता , आदिम राग और संवेग के संदर्भ , संकल्प और आदर्श , हमारे स्वप्न और यादें , जातीय चेतना और सामूहिक अवचेतन की लय बसती थी , जहां हमारी एकांतिक निबिडताएं और स्पंदित निजतायेँ आकार पाती थीं – वे सारे स्थल यह उपभोगमूल्क संस्कृति हमसे छीन रही है । ‘ नीली धारियों वाला स्वेटर ‘ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- 

मेरा स्वेटर देखकर लड़कियां पूछती थीं कलात्मक बुनाई के बारे मेँ 
बहिन के ससुराल जाने के बाद भी 
कई वर्षो तक पहनता रहा मैं नीली धारियों वाला स्वेटर 
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा फिर किसी स्वेटर मेँ नहीं मिली 
उस स्वेटर की स्मृति से आज भी ठंड नहीं लगती मुझे । 


उपरोक्त पंक्तियाँ ऊपरी तौर पर एक अत्यंत साधारण स्थिति का बयान कर रही लगती हैं । उसमें कोई चमकदार बात लगती भी नहीं । पर यही शायद आज की एक अच्छी कविता की खूबी है कि वह चीजों से जुड़े मनुष्य स्वभाव के आंतरिक जगत की बुनावट को , उसके अनदेखे अनचीन्हे संसार को बिना किसी अतिकथन के उजागर करती हैं । गोविंद माथुर बहुत निष्प्रयास ढंग से अपने आसपास के संसार को देखते हैं । इन कविताओं के बारे मेँ इस संग्रह के ब्लर्ब पर प्रसिद्ध कवि विष्णु नागर ने यह महत्वपूर्ण बात कही है कि “ कवि आपके आत्मीय की तरह अपनी आशा- निराशा , बेचैनी , विरल हो चुके अनुभवों को आपसे बांटना चाहता है । वह कविता करना या बनाना नहीं चाहता। इस प्रक्रिया मेँ वह कविता बन जाती है तो बने , नहीं बनती है तो भी उसे ज़्यादा परवाह नहीं।“ स्वर की यह आत्मीयता और साथ ही एक नि:संगता आज कविता मेँ विरल है । 

गोविंद माथुर की इन कविताओं मेँ चमकदार पंक्तियाँ , भाषा का रैटारिक, स्मार्ट फिकरे या धमाकेदार भंगिमाएँ लगभग नहीं हैं । इसे एक कवि के रचनात्मक साहस और अपने मौलिक स्वर की खोज के रूप मेँ ही पहचाना जाना चाहिए । अपनी एक कविता ‘ विश्व नागरिक ‘ मेँ आधुनिक सम्प्रेषण के भूमंडलीकृत दबावों के बरक्स वे मनुष्य के आंतरिक जगत के ह्रास की स्थिति को कुछ इस प्रकार से रखते हैं – 

अब देर तक जीवित नहीं रहतीं स्मृतियाँ 
तुरंत मिट जाती हैं एक बटन के दबाने पर 
कुछ दिनों बाद स्मृतिहीन हो जाएगा आदमी 
भूल जाएगा कल किससे बात की थी 
भूल जाएगा किसने भेजा था शुभकामना संदेश 

संग्रह की ज़्यादातर कविताओं मेँ कवि ने अलग अलग कोनों और स्थितियों मेँ आज समय की मूल विडंबनाओं को पकड़ने की कोशिश की है । कहीं समय की तेज रफ्तार, भीड़ , यातायात, और पैदल चलते आदमी की मुश्किलों का ज़िक्र है , कहीं एक चवन्नी के चलन से बाहर हो जाने के साथ अपनी बहुत सारी स्मृतियों का बेदखल हो जाना है , कहीं महत्वाकांक्षाओं की अन्धी दौड़ , सफलता के गणित और एक बदहवास आत्मकेंद्रितता का संदर्भ है तो कहीं उन अनाम संदेहों , भयों, और खतरों की ओर देखा गया है जो इस मौजूदा दौर मेँ औसत आदमी के वजूद को चारों ओर से घेरे रहते हैं और वह आदमी लगातार अकेला होता जाता है – 

जब बहुत अधिक डराता है सच 
मैं भागकर चला जाता हूँ अंधेरे मेँ जहां 
मेरी परछाईं नहीं होती ( ‘ सच का सामना’ ) 

हमारी पेशेवर काव्य आलोचना को समकालीन कविता पर बात करते हुए कुछ दो- चार गिने चुने नामों को ही दोहराते रहने की आदत पड़ गई है । उसे यह सुविधाजनक भी लगता है। इसलिए गोविंद माथुर जैसे कवियों का फिलहाल हमारे काव्य जगत की चर्चाओं के दायरे से बाहर रह जाना कतई अचरज की बात नहीं है । लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि गोविंद माथुर की इन कविताओं में कवि का जो आत्मीय संसार उभरता है वह आज के बहुत सारे तथाकथित ‘ बहुचर्चित ‘और ‘ स्मार्ट ‘ कवियों की कविताओं की ताली पिटवाऊ और लटके- झटकों से भरी भंगिमाओं से कहीं ज़्यादा मूल्यवान है । इनमें अपने समय की बहुत सारी स्थितियों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण तो है ही , एक सघन एन्द्रिकता से युक्त अंतर्जगत है और साथ ही गजब की सादगी है ।ये कवितायें बहुत साधारण प्रसंगों और चीजों को अर्थगर्भ बनाती है ।इनमें व्यक्त हुआ हमारा आज का यह समय अपने बहुत सारे परस्पर विरोधी शेड्स के साथ व्यंजित हुआ है । ये कवितायें अनाम और अलक्षित कोनों में झांक सकती हैं ; शोरगुल के बीच मद्धम आवाजों को सुन सकती हैं ; किसी आदिम गंध और स्पर्श की तरलता को रच सकती हैं ; तर्क और बुद्धि के तदर्थवाद के सम्मुख आदमी की अपरिभाषित ऊहापोह को मुखर कर सकती है ; मनुष्य स्वभाव की छोटी - बड़ी विलक्षणताओं को देख सकती हैं । इनमें विषयवस्तु और संदर्भों का एक आश्चर्यजनक फैलाव है। अपनी स्थानिकता का गहन रचाव– बसाव और एक स्तर पर आयु का सांकेतिक मनोविज्ञान भी इनमें उभरता है। 

एक कवि से आज हम इससे अधिक क्या चाहते हैं कि वह ‘ भाषा में अपने होने की तमीज़ ‘ यानी अपनी बुनियादी विश्वसनीयता को रच सके । साहित्य की दुनिया में जब हम बड़बोले , सफलताकामी और तमाम तरह के ‘ क्लीशों ‘ से भरे समय के बीच धीमी , आधारभूत , आत्मीय और मानवीय ऊष्मा से भरी आवाज़ों को सुनना बंद करते चले जा रहे हैं तब गोविंद माथुर जैसे कवियों की उपस्थिति यह एहसास तो कराती ही है कि कविता में भरोसेमंद आवाज़ें हमेशा मौजूद रहती हैं बशर्ते हम उन्हें सुनने के अपने सामर्थ्य को बचाए रख सकें । अपनी एक कविता में गोविंद माथुर कहते हैं – एक बार फिर सहेज कर रख देता हूँ उन तमाम वस्तुओं को जो अभी खोई नहीं हैं । 
*** 
काव्य संग्रह : नमक की तरह  
कवि: गोविंद माथुर 
प्रकाशक : शिल्पायन पब्लिशर्स , दिल्ली वर्ष : 2014 
मो : 09820370825

- प्रस्तुति : आशीष मिश्र 

वीरू सोनकर की दस कविताएं

$
0
0
वीरू सोनकर सोशल मीडिया पर सक्रिय उन नौउम्र कवियों में हैं, जिनकी कविता मैं अकसर उत्सुक के साथ पढ़ता हूं। ये कविताएं मुझसे कहती हैं कि जल्द तुम्हें हम पर लिखना होगा। मैं उस कहन को कुछ देर के लिए मुल्तवी करता हूं। इतना ज़रूर कहूंगा कि वे विचार और उसके सामाजिक / साहित्यिक रचाव में ख़ुद को रचने लगे हैं, राजनीतिक रचाव अभी देखना बाक़ी है। यह देखना भी सुखद है कि उनकी कविता में गैरज़रूरी विमर्श की भंगिमा नहीं है। अनुनाद पर वीरू सोनकर की कविताएं पहली बार छप रही हैं। इस नौजवान साथी का स्वागत और कविताओं के लिए उनका शुक्रिया भी। 
*** 

1

जैसे पेड़ अभिशप्त है
अपने गीले पैरों के लिए,
जैसे पहाड़ अपनी पथरीली खाल के लिए
हवा ख़ुद की घुमक्कड़ी के लिए

विडंबनाएं अभिशप्त है
समय का चेहरा बनने के लिए,
और
आदमी अभिशप्त है
इसी समय में होने के लिए

2

चुप्पियों के जवाब में
चुप्पी !
एक बेहद अनुशासित रिवाज़
पहली चुप्पी वेदना की
दूसरी चुप्पी निर्ममता की...

मैं पहली चुप्पी गढ़ता हूँ !

3

वे चाहते थे
उन पर चर्चा हो
वे चाहते थे
जो उन्होंने चाहा है
ठीक, वैसे ही हो,

अंत में,
वे ख़ूब सराहे गए...

लोगों ने उन्हें
तानाशाह के तौर पर याद रखा
और उनकेचर्चे
उनके बाद भी लगातार होते रहे

एक उदहारण के रूप में वे बेहद सफल रहे

जैसा उन्होंने चाहा था !

4

एक सूखी पत्ती
क्या है ?
कुछ भी तो नहीं,
एक चीज़ के तौर पर
ये पत्ती मुझे निराश करती है...

और जब मैं
इस उम्मीद में
इस सूखी पत्ती को,
नदी में छोड़ता हूँ
की ये नदी के आखिरी सिरे को छुएगी
बिना डूबे !
तब भी
वह पत्ती कुछ नहीं होती,

पर
ये नदी जानती है,
इस पत्ती के
न डूबने की वह उम्मीद ही
इस नदी को
एक नदी बनाती है

वरना वह भी
एक बेमक़सद बहता पानी ही तो है.....

5

एकांत के शोर में
कान
बेतरह बजते है
और कोशिश करता हूँ
और
और भी गहरे छुपने की

मेरी गोल अँधेरी सुरंग बहुत बातूनी है
बहुत ही ज्यादा,
मैं घबरा कर भाग निकलता हूँ

बाहरी शोर में
कितनी चुप्पियाँ
चुपचाप मेरे साथ-साथ चल रही है........


6

हवा आपके बगल से
गुजरते हुए
ढेर सारा चन्दन
आपके पसीने में घोलती है
 

आप
हवा सूंघ कर
बहुत आराम से कह देते है
घर के बगल में बाग़ होने का यही फायदा है....

आप हवा के गुनाहगार होते है !

क्योंकि आप जानते है,
अब चन्दन बाग़ों में नहीं मिलते
बाग़ में तो हवा भी नहीं मिलती
हवा
ठीक वहीँ मिलती है
जहाँ हम हवा चाहते है
और हवा हमेशा,
ढेर सारा चन्दन साथ लेकर चलती है..........

7

मेरे घर में लकड़ी की मेज है
लकड़ी, पेड़ का हिस्सा है
घर में पानी है
नदी का,
घर को बनाने में लगा है
गिट्टी, ईटा और सीमेंट
यानी पहाड़ और जमीन का हिस्सा

मैं घबराता हूँ
अगर सब
अपना अपना हिस्सा मांगने आ गए
तो क्या होगा

क्या होगा अगर,
पेड़ जमीन और पहाड़ ने पूछ लिया
क्या तुमने दिया किसी को अपना हिस्सा !

8

उमस भरे दिन में
एक गिलहरी
आपको चौंका सकती है
अपनी आवाज़ से,
और आप
कोशिश करते है
ठीक वैसे ही बोलने की
काफ़ी है आपका इतना भर जानना
कि वह पेड़ कितना जरुरी है
उसमें
आपके बच्चों की ध्वनि शिक्षिका रह रही है

9

मैं दौड़ रहा हूँ
तेज़ बहुत तेज़
आपके लिए ये ख़बर हो सकती है
पर यक़ीन मानिये
मेरा दौड़ना
वो भी सर पर पैर रख कर दौड़ना
बेहद जरुरी है

आप कह सकते हो,
ये बावला हुआ है
यूँ ही दौड़ रहा है

पर जनाब,
हो सके तो दौड़िये
आप भी मेरे साथ

कल एक अफ़वाह सुनी थी मैंने,
ठिठके लोगो़ के शहर में
कोई तो एक
दम लगा कर दौड़ा

और वह पा गया था
चलते फिरते लोग का शहर

लोग बताते है
अपने जैसे लोग पा कर
वह खूब हँसा !

तुम मेरा भागना
एक घटना बना दो
ताकि इस अफवाह से मेरे साथ साथ
ये पूरा शहर भाग निकले

ठिठका हुआ शहर
अगर भागेगा
तब यक़ीन मानो
ज़्यादा नहीं भागना होगा

तब शायद वह चलते फिरते लोगो वाला शहर,
खुद यहाँ आ जाये

10

सड़क के एक किनारे
ये सोचना,
यहाँ से बिना चले
कहीं भी जाना संभव है क्या ?

अभी सुना था
लोग कह रहे थे
ये सड़क अमुक स्थान को जाती है
मुझे देखना है
बिना मेरे चले ये कहाँ जाती है

दूसरी ओर से आते लोग
कुछ अलग
राय रखते है

कुछ के घर तक
ये सड़क जाती है
कुछ के गांव के बाहर तक ही,
और किसी के कॉलेज तक ही,

और
अभी-अभी
अचानक से लगा,
ये सड़क कहीं नहीं जाती,
सिर्फ़
मेरे तक आती है
*** 
इन कविताओं में से ज़्यादातर कवि द्वारा फेसबुक पर साझा की जाती रही हैं।

विजय गौड़ की कविताएं

$
0
0


विजय कई वर्षों से कथा और कविता के प्रदेश के नागरिक हैं। इस ख़ूब विचारवान और अनुभवसम्पन्न साथी की कविताएं बहुत समय बाद अनुनाद को मिली हैं। उनका कविता संग्रह 'सबसे सही नदी का रस्ता'मेरी स्मृति का स्थायी अंश है। इस कवि की चिंताएं भाषा और भूगोल(भूमंडल नहीं) से गहरी जुड़ती हैं। मैं विजय का आभारी हूं कि उन्होंने अनुनाद को ये कविताएं भेजीं। 

कुंवर रविन्द्र 
शुभ संदेश


सिर्फ मुरझा जाने वाले चिह्न
जैसे हँसी
जैसे फूल
क्यों देते हो मित्र
हथेली पर लिखे गए वो शब्द
उन क्षणों में उठे मनाभावों को व्यक्त करने में,
जो कतई नहीं थे झूठे,
सुरक्षित रख पाना
संभव ही नहीं रहा मेरे लिए
कितनी बार तो हाथ धोने की
जरूरी प्रक्रिया से भी बचा
पर कम्बख्त फिर भी धुँधले पड़ते रहे
बची ही नहीं उनकी छाया भी
एक दिन

अभी तो दिन भी नहीं बीता
देखो कितने मुरझाने लगे हैं,
शुभकामनाओं के जो दिए थे तुमने फूल
कुछ देर पहले तक
कैसे तो थे खिल खिलाते हुए।
*** 
भाषा बर्फ़ का गोला है

भाषा बर्फ़ का गोला है
रंग से पहचाना जाए कैसे ?

स्मृति पटल पर दर्ज हैं रेत के ढूह
पसीने की चिपचिपाहट से भरे चेहरे
सूरज को मुँह चिढ़ा रहे, दो-कूबड़वाले ऊँट की
पीठ के गडढे पर
हुन्दर का विस्तार याद है
याद है नुब्रा घाटी की हरियाली के बीच
शुष्क हो गया तुम्हारा चेहरा
सियाचीन ग्लेशियर के वीराने में,
पैंट और कसी हुई पेटी के साथ,
सीमा की चौकसी में जुटे तुम्हारे भाई का वृतांत

कैसे-कैसे तो उठ रहे थे भाव उस वक्त
चेहरे पर तुम्हारे,
यकीकन तुम्हें लद्दाखी न मानने की कोई वजह न थी
हमें एक कमरा चाहिए रात भर के लिए
चलताऊ भाषा में बोला गया मेरा कथन याद करो
उसकी लटकन में मेरे चेहरे का रंग याद करो
शायद कुछ-कुछ योरोपिय चमक-सा दिखा था, तुम्हें
कैसे तो चौंके थे तुम
हतप्रभ
समझ तो पाए ही नहीं मैंने क्या कह दिया
तुम भी तो लद्दाखी हो नहीं,
यदि बता दिया होता पहले
तो नर मुंडों के कंकाल पर जमे हुए इतिहास
की भाषा में मेरे लिए मुश्किल न होता तुमसे
बतियाना
रूपकुंड में डूबकर ही तो पाई है मैंने भी ताजगी।
*** 

गनीमत हो

बारिश के रुकने के बाद
मौसम खुला तो
रूइनसारा ताल के नीचे से
दिख गई स्वर्गारोहिणी

आँखों में दर्ज हो चुका
दिखा पाऊं तुम्हें,
खींच लाया बस तस्वीर

ललचा क्यों रही हो
ले चलूंगा तुम्हें कभी
कर लेना दर्शन खुद ही-
पिट्ठू तैयार कर लो
गरम कपड़े रख लो
सोने के लिए कैरी मैट और स्लिपिंग बैग भी
टैंट ले चलूंगा मैं
कस लो जूते

चढ़ाई-उतराई भरे रास्ते पर चलते हुए
रूइनसारा के पास पहुंचकर ही जानोगी
झलक भर दर्शन को कैसे तड़फता है मन
कितनी होती है बेचैनी
और झल्लाहट भी

गनीमत हो कि मौसम खुले
और स्वर्गारोहिणी दिखे।
*** 

मुरब्बा

(शिरीष कुमार मौर्य के लिए)

रातों रात कम हो गई मेरी आंखों की ज्योति
यह 'दंतकथाओं"का पता है
कल रात मैंने उन्हें बांचा था ठीक-ठीक
अभी खोलता हूं बोई
तो आखर उड़ती हुई मक्खियां नजर आते हैं
बैठते ही नहीं टिक कर

लाओ एक आंवला तो खिला दो यार
झूठ नहीं सच कह रहा हूं ,

आंवला मांगने की युक्ति में ही क्यों खत्म करना चाहेगा
कोई अपनी आंखों की रोशनी

वैसे वाकई सच कहूं- मक्खियां न भिनभिनाती यूं आंखों में
तो भी आंवला खाने का
कोई न कोई बहाना तो बनाता ही मैं
तुमने कम्बखत मुरब्बा बनाया भी तो है इतना अनोखा,
चुरा-चुरा कर खाने का हो रहा है मन।
***  
सम्पर्क :    
Flat No. 91, 12th Floor, Type-3

Central Government Houses
Grahm Road
Tollygunge
Kolkata-700040

Mob: 09474095290

नूतन डिमरी गैरोला की कविताएं

$
0
0


अनुनाद पर पिछली पोस्ट में विजय गौड़ की कविताएं आपने पढ़ीं। मेरे लिए विजय की एक पहचान देहरादून है, गो वे अब कोलकाता में रहते हैं। संयोग है कि यह पोस्ट भी देहरादून से ही। 

नूतन डिमरी गैरोला की ये कविताएं इतने अटपटे स्वर में बोलती हैं कि समय के मुहावरों से अलग कोई आवाज़ सुनाई देने लगती है। सभी कुछ गढ़ डालने की इच्छाओं के बीच यह एक सच्ची आवाज़ अनगढ़ रह जाने की सुनी जानी चाहिए। सामान्य जीवन के घटनाक्रम यहां हैं, किंचित गूढ़ पर उतनी ही सहजता से कह दिए जाते। वैसी ही इच्छाएं भी- जितनी मानवीय, उतने ही अमानवीय तरीके से समाज और संस्कारों में तय कर दिए गए उनके अंत। पहली कविता हमें बहुत बोलने वालों के इलाक़े में हमारी ही हत्याओं के दृश्य दिखाती है। यह एक समकालीन प्रसंग है, जिसके राजनीतिक आशय किसी छुपे नहीं रह सके हैं। बातों का वह खेल जो हमारे सार्वजनिक जीवन में है, नूतन उसकी विस्तृत पड़ताल करती हैं। 

नूतन पहले भी एक बार अनुनाद पर छपी हैं। वे वरिष्ठ चिकित्सक हैंऔर सामाजिक हलचलों में शामिल रहती हैं। नेट पर ही कुछ जगह और उन्हें पढ़ने की स्मृतियां पाठकों के मन में अवश्य होंगी। मैं अनुनाद पर उनका स्वागत करता हूं।    
*** 
 
आवाज़ें

मौत की घंटियाँ सुन रही हूँ
शरीर जम्हाई लेता है
लम्बी सांस खींचता है बार बार ...

पिछले कुछ दिनों से अपने में ही दुबक गयी हूँ मैं
ग़ायब हो जाने के लिए  
मेरे शब्द मौन हो गए हैं अब
कुछ हिचकियाँ बाक़ी है 

बे सिर-पैर की बातें हंसती हैं
चारों तरफ़
फांद आई हैं वो
दालान और छत
कि सबसे तेज़ क़दम चलती हैं वे
चलती हैं तो हवाओं से हलकी
ठहरती हैं तो पृथ्वी से भारी होती हैं
उनके जूते कभी घिसते नहीं
और उन जूतों के ख़रीददार भी
चारों तरफ़

हमारे समय का सबसे तेज़ दिमाग़
निवेश करता है
उनके जूतों की दुकान में
जूते इनके जाल हैं
जिनमे बेसिर पैर की बातें
ठूंस लेती हैं अपने हाथ
मानो पैर
हाथ होते हैं आँखों पर
दिखता कुछ आधा अधूरा, उल्टा-पुल्टा, धुंधला बेहद     
और कान जन्म से पहले ही छोड़ आई है

ये डार्विनवाद की तरह यकायक
चुन नहीं ली गयी कईयों के बीच से  ..
लम्बे समय समयांतराल में जरूरत के हिसाब से
इनके सर पाँव गल गए हैं समकालीन होने के लिए
लैमार्क ज्यादा सही थे 
विकास के प्रक्रम में
( ऐसा मेरा मानना है )
इनका उदर बड़ा हो चुका है 
और देह में एक बहुत बड़ा विकसित मुंह
जिससे सच्चाई को दबाने चबाने पिचकाने पचाने
का काम आसानी से होता है
आवाजों का हाहाकार के बीच भी
इनका काटा सच बहरा गूंगा हो जाता है 

इनके हाथ कितने लम्बे होते हैं मालूम नहीं
जो हत्यारे होते है सर पैरों के
कि उसके बाद तुरंत समेट लेते है उनको
उदर के खोल में
जैसे घोंघों की स्पर्शिकायें सिकुड़ जाती हैं कड़े खोलों में...

इनका कोई ओर-छोर नहीं
जैसे किसी गेंद पर रखो क़दम तो लुढ़कते जाओगे
किसी ग्रह-उपग्रह जैसे पृथ्वी या चाँद पर चलना
कि चलते जाओगे 
दूरी की कोई थाह नहीं|
ये कम सतह पर समाहित कर देते हैं
सबसे ज्यादा वज़न 
और यलगार नहीं कहते
बस कर देते है आक्रमण
इनके भार से झुक जाती है पृथ्वी,

और जैसे सच ...
वैसा ही आह मेरा गला
आह मेरी आवाज़
*** 
अपने हिस्से का पानी

हम अपने-अपने हिस्से का पानी लिए
जिए जा रहे हैं
देह में उबलता हुआलहू सा बहता हुआ
और एक दुनिया जो है पानी सी
हमसे भी और हमारे साथ भी

जिसमें हम घुल जाते हैं रम जाते हैं  
और हर सुख दुःख में
निश्छल पानी सा ढल जाते हैं  

और तुम
कितने गहरे, कैसा तुम्हारा विस्तार, कितने तुम गूढ़
एक सागर तुममें देखा था
जबकि तुम
इस दुनिया से
निकल गए
एक नदी की तरह  
कभी न पलट आने के लिए

मैं हर रोज़ अंजुलि में पानी भर
देख लेती हूँ
किनारों को भिगोता हुआ
एक सम्पूर्ण सागर
और किनारे
जो समानांतर दूर दूर नहीं टिके
वो एक परिधि में,
घूमते हैं
मिल जाते हैं
और उस सागर में होते हो तुम
और होता है प्रतिबिम्ब तुम्हारा

एक घूंट से मैं आचमन कर लेती हूँ
बाक़ी से खुद को भिगो देती हूँ
***  
सुनो

तुम किस-किस को बूझोगे?
किस-किस की सुनोगे?
यह कठिन प्रश्न तो मेरे लिए है
तुम्हारे लिए महज 
एक उत्तर सहज सा ....
फिर भी साथ बने रहने के लिए
सुनो! उस सूखी बावड़ी के किनारे
जहाँ कोमल इच्छाएं करती हैं आत्महत्या
हम एक बागीचा लगा देते है सभी कोमल फूलों का
कि तुम हाथ में लिए रहो उनका लेखा जोखा
थोड़ी काली मिट्टी और कुछ भुरभुरी खाद
फिर बैठ कर साथ उन फूलों के रंगों पे गीत गायेंगे
बांटेंगे उनका सुख दुःख

शर्त इतनी है मेरी
कि मुझमें फिर कभी मत ढूंढना
विराम से पहले का
वह कोमल गुलाब|
***
उसके साथ मुस्कुराता है बसंत
उसने देखी थी तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है
जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह
स्त्री  
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे
हुए तस्वीर को  
और चितेरे अपने मन के रंग भरते
हुए ..........
तब धिक्कारती है वह अपने  भीतर की स्त्री को 
जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक
और तंग आ चुकती है वह तब
दुनिया
भर के आवरण और लाग लपेट से

वह कुत्ते की दुम को सीधा
करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल
जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी
तथाकथित संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा रहा है बेमौसमी जंगल 
और वह देखती है एक मछली में खुद को
जो तैर रही है उस पानी में  

वह कुढ़ती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज पर खींचना चाहती है एक जंगल बेतरतीब सा
पर शब्द भी ऐसे हैं उसके कि जंगली
हो नहीं पाते

ईमानदारी से जानने लगी
है वह
जंगली हो पाना कितना कठिन है  
असंभव
वह छटपटाती है
हाथ पैर मारती है

जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है
सहज हरा धरती पर
प्रकृति खिल उठती है  
हरियाली लहलहाने लगती है
प्यूंली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है
और बसंत मुस्कुराता है
***
अपनी हत्या के ख़िलाफ़

मुझे इस्तेमाल करना
है ज़िंदगी को 
अपने ही हाथों
 
अपनी हत्या के
ख़िलाफ़ 
रोज़
उम्मीदों की देह पर उमगते नासूर
हत्या की साजिशकरते हैं 
औरसुर्ख़ विचार
विचलित होते मन की
पीठ पर 
हाथ धरते हैं|

मैं अपनी ज़िद पर
अड़ी
जिंदगी को हर
दिन गुलदान में
सजा देती हूँ
ताकि महकता रहे
घर भर……
***

केतली में उजाला 

उसने खौला लिया था सूरज एक चम्मच चीनी के साथ
वह जीवन के कडुवे अंधेरों में कुछ मिठास घोलना चाहता था
उसके दिन के उजाले चाय के कप में डूबे हुए थे
और उसका सूरज
ताजगी देता हुआ जीवन की उष्मा से भरपूर
गर्म सिप बनकर उतर आता था लोगों की जिह्वा पर
.
उसकी केतली घूमती थी बाजार भर
और वह पहाड़ की ओट के ढालान पर
सर्दी में भी
दिन की ठंडी छाया में
शीतल सरसराती हवाओं में ठिठुरता हुआ
छोटे कांच के गिलास में
उड़ेल कर
गर्मी और ज़ायके का व्यापार करता था 
.......

नहीं जानता था वह ग्रीन टी
न चाय निम्बू की
पुश्तों से जाना था
ब्रुक बांड टी और गाढ़ा भैंस का दूध
जो दुह कर मुंह सवेरे वह निकल पड़ता था
उसकी चाय का कुछ ख़ास स्वाद होता था|

कुछ थके-हारे लम्बे सफ़र के
ट्रक चालक
उन गिलासों के साथ अपनी थकान वहीं छोड़ जाते थे
वह तुरंत पलट कर धो देता था गिलास
पानी से धोते हुए जम जाते थे उसके हाथ
वह पानी बाँज की जड़ों का रिसता जल था
पहाड़ का सबसे स्वादिष्ट सबसे ठंडा तरल 

और वह रात को बाजार की आख़िरी बंद होती दूकान के बाद
अपनी चादर पटरा समेटता था
कुछ बर्तन हाथ में और होता था कंधें में एक झोला
दूर से टकटकी लगाये उसका बाट जोहती चार जोड़ी निगाहें
और उस दिशा में उकाल पर चढ़ता
वह धौकनी होती अपनी फूलती साँसों की परवाह न करता
.
आख़िरी धार पर मिट्टी की झोपड़ी
कि घर के भीतर घुसते ही
उसके कंधे के झोले की ओर
प्रश्नवाचक उत्सुक निगाहें
झोले के बंद रहस्य में छिपे
बहुरंगी खुशियों को घेर लेती

वह झोला खोल देता
और
बरबस उन निगाहों में
चमक उतर आती 
......
कितने ही सूरज उसके घर उस वक्त जगमगा उठते|
तब उस रात के अँधेरे में
वह खुशियों से भरा
एक गुनगुना दिन जोड़ लेता |
***

दीपक तिरुवा की दो कविताएं

$
0
0


कभी हमें ऐसी कविताएं मिलती हैं, जिनसे गुज़रने के अनुभव हमारे अब तक के लिखे-पढ़ेको और समृद्ध करते हैं। दीपक तिरुवा की कविताएं, ऐसी ही कविताएं हैं। भूगोल और भाषा-साहित्य के सीमान्तों पर रहते हुए लोग एक दे दिए गए व्यर्थ और हिंसक संसार के विरुद्ध तनकर खड़े हैं, यह देखना मेरे अपने वैचारिक संघर्षों में नई राहें खोलता है। जब तक कविता में (अौर उसकी निजता में भी) समाज और विचार  साफ़ न दिखे, कला पर बहस करना बेकार है। दीपक की इन कविताओं में कला सामाजिक है और राजनीतिक भी - हमारे लिए यही कला की उदात्तता है। 

इन कविताओं के लिए शुक्रिया कहते हुए मैं दीपक का अनुनाद पर स्वागत करता हूं। आगे भी अनुनाद पर आपका संग-साथ बना रहे साथी।
***

कोई आ रहा है

तुम्हारे मेरे मिलन वाले
हमारे स्वप्निल पलों में
ये आदमी कौन है
जो अक्सर चला आता है
मुहब्बत हैरान आँखों से
उसका क़द  देखती है

मुझे स्थगित चुम्बनों के
इस अपराधी की
लम्बी खोज पर
निकलना पड़ता है

रास्ते में सबसे पहले
माँ मिलती है
जिसने पहले मुझे
और दूसरी किश्त में
मेरे लिंग को पैदा किया 

मेरे हाथों में अभी तक
गुलाबी दस्ताने हैं
जो माँ की हसरत ने
बुनकर चढ़ाये थे
मैं जिनसे तुम्हें
जादूगर की तरह छूता हूँ
नतीज़े में शर्तिया
तुम्हारा मोम पिघलने
और गुलाबी लकीरें
उभर आने की उम्मीद में
आँखें झाँकता हूँ तुम्हारी
और क्यूपिड की तरह
मुस्कुराता हूँ


ठीक उसी वक़्त
कोई आ रहा है, तुम कहती हो ...

मैं वो दस्ताने उतार कर फेंकता हूँ
और सुबह की चाय बनाकर
माँ की बूढ़ी औरत को देता हूँ

मुझ अकेले पर
विरासत में थूके गये घर में
मैं बहन के कमरे की
पुश्तैनी बंद खिड़की खोलता हूँ
इससे पहले कि उसका धूसर लिबास
मुझे साफ़ धुले कपड़े थमा कर
एक और रक्षा बंधन हँस दे
मैं उसे आसमानी रंग का
नया जोड़ा देता हूँ

मैं आँखों की गैरहाज़री में दाखिल हूँ

सेफ्टी रेज़र के विज्ञापन वाली
लड़की की चिकनी देह
मुझ पर ठहाके लगाती हुई
न्यूज़ चैनल की इकट्ठे सात मर्दों वाली
ब्लू फिल्म में घुस जाती है
एंकर,गैंग रेप की रिपोर्टिंग पसंद करने के लिए
ठीक मेरे जन्मदिन वाले अंक
smsकरने को कहती है

मेरे पास कुशन वाली सीट है
जिस पर मैं साम्यवाद आने तक
धंस कर बैठा
निर्विकार गालियाँ दे सकता हूँ
रियल वर्चुअल कुछ भी होते सोते

मैं ज़िंदगी से पूछता हूँ
तुम्हारे हाथ इतने सर्द क्यों क्यों हैं ?
ज़िंदगी चुपचाप मुझे एक
उल्टा ग्लोब थमा देती है .

मैं क्रांतिकारी कवियों की
बेसिक ग़लती से लौट कर
तुम्हारे पास आ गया हूँ
मुझे लेकर तुम चलो
कि तुम्हारी नज़र के बगैर
नहीं मिल सकतीं मुझे
मेरी आँखें वापस
या फिर हर बार
मिलन के बीच आने वाला आदमी..!
*** 

मेरे हिस्से की ज़मीन

अनगढ़ डांसी पत्थर
संगमरमर की तरह
अंगुलियों के
शास्त्रीय राग नहीं सुनता
पीठ तक तान कर
मारे गये घन के पीछे
मांस पेशियों की चीख होती है
उस पर भी संवरता नहीं
महज आकार लेता है डांसी पत्थर

सैलानी धूप चश्मों की हैरान आँख
और किताबों में दर्ज़ हिमालय से
अनुपस्थित पहाड़ पर
बसा हुआ है मेरा गाँव

मेरा गाँव जिसमें
कुलगुरु की भरी हुई एक्स्ट्रा हवा से
राजा के बाजू
गिर जाने के बाद  बसे  
उसके बहुतेरे बेटों ने
कुलगुरु के एक बच्चे और
मेरे पुरखे को
दूसरे गाँव से लाकर रोपा था ।

अंततः पागल हो जाने से पहले
मेरी दादी उस दिन से अधपागल कहलायी
जब बहुधंधी मेहनतकश पुरखों के
कई पुश्तों तक उनके खेत जोतने
लोहारी करने कपड़ा सीने चमड़ा कमाने
उनके लिए गाने बजाने घरवाली नचाने
उनके देवता प्रकट कराने के बाद
आखिर मेरे दादा को
अपना हथौड़ा फेंक देना पड़ा
जबकि वो मकबरा नहीं
उनका घर चिन रहे थे
डांसी पत्थर से
बदले में काटा जा रहा था उनका पेट
जिस पर हाथ उगे हुए थे ।

वर्तमान आदमी की
खिल्ली उड़ाता हुआ समय है
इसके भीतर अतीत के पैबंद
गड्ड मड्ड घुसे रहते हैं
हर आज अपने आप में
एक मध्यकाल होता है

क़बीले अपने युग के साथ नदी किनारे
श्मशान वाले मंदिर में जुटते हैं
शिव रात्रि के मेले में
आस पास के हर गाँव से निकलकर
किसी न किसी बहाने से
फुटव्वल सिर उठा लेती है
और सस्ती वीरगाथाएं
पनप जाती हैं अगले मेले तक

क़स्बा बाज़ार में टकरा कर
कुछ महारथी ओपन चैलेंज दे डालते हैं
और तय वक़्त तय जगह
सौ - सौ लाठी डंडे हॉकी ख़ुकरी
वर्तमान हो जाते हैं
अपने-अपने गांवों से आदमी  लेकर

एक बार काली गंगा के जल से
पवित्र होकर प्राण प्रतिष्ठा पाने के बाद
मेरे डूम पुरखे के हाथ से बना
श्मशान का
व्यापक मान्यता प्राप्त मंदिर
अपनी पवित्रता बरक़रार रखे हुए है
मंदिर के बाहर ही पकड़ा दिया जाता है
मुझे कोरा लाल टीका पत्ते में रखकर

वर्जनाएं नहीं तोड़ते
पवित्रलोक में बने रहते हैं
पूजा की थाली चन्दन और
टीके को गीला करने लायक पानी
कुलगुरु का वंशज मेरे लाये हुए
फल और नगद भेंट
मंदिर और अंततः अपने भीतर ले लेता है

मेरे दादा के फेंके हुए हथौड़े ने
गाँव छोड़ा पहाड़ छोड़ा नौकरी की
उनके तंगहाल मनी आर्डर
परिवार और भूख से बहुत छोटे थे

अधपगलाई खटती रही दादी
घास के एक-एक हथौले के लिए
खड़ी चट्टान में वहां तक चढ़ती रही
बकरियाँ भी जहाँ चरना छोड़ देती हैं
निचोड़ती रही भैंस के थन से आखरी बूँद
पांच बच्चों के पढ़ लिख कर
नौकरियों पर दूर शहरों को जाने के बाद
अकेले कटखने घर में
सचमुच पागल हो जाने तक

समय की किताब के नये प्रिंट में
राजा के बहुसंख्यक बेटों के चैप्टर में
ठसक की जगह कसक छप गया है
जिसकी पहली खुन्नस के आरक्त क्षण
मेरे चाचा ने देखे जिसे काट कर फेंक दिया गया

गाँव की दूसरी बड़ी आबादी का
नब्बे फीसद हिस्सा
आरक्षण के बावज़ूद
पुरखों वाले पुश्तैनी काम में
अब भी लगा है वहीं खड़ा है

गाँव में रोपे गए
कुलगुरु के पहले ही बच्चे से
कथाएं बांचने और बच्चों को
विज्ञान पढ़ाने का सिलसिला था 
सबसे कम आबादी उनकी है
सबसे बड़े घर सबसे ज़्यादा ज़मीन
सबसे बड़ी दुकान सबसे बड़ी नौकरियां
ओहदे उनके हैं राजनीति उनकी है
मंदिर अब पार्ट टाइम हो गया है 

मेहनतकशों को तीखा खाना पसंद है
पर उनके हिस्से में नहीं हैं
मिर्च उगाने लायक भी खेत
उनके पुरखे को गाँव में रोपते वक़्त
दी गयी थी थोड़ी सी
कुकुरमुखे पत्थरों से भरी
असिंचित बंजर ज़मीन

राजा का एक शिक्षित वंशज
अखबारी विज्ञापन में
अपनी आबादी के प्रतिशत में
रोज़गार ढूंढता हुआ
अचानक उठकर
मंदिर को सवालिया
नज़र से देखता है

जबकि नामचीन यूनिवर्सिटी से पढ़ा हुआ
कुलगुरु का एक वंशज
कार्ल मार्क्स नामक नया देवता
इंट्रोड्यूस करा रहा है
वर्ग संघर्ष ! वर्ग संघर्ष ! वर्ग संघर्ष !

मेरे दादा का हथौड़ा तीन पीढ़ी से
हवा में भटक रहा है शहर दर शहर
किराये पर मकान मिलना मुश्किल
कोई सम्मानित स्वरोजगार चलना मुश्किल
सोसाइटी मिलना मुश्किल
अपने हिस्से गाँव में अब भी
गर्मियों में सूख जाने वाला डुमनौला है
रात में उनके स्रोत से
पानी चुराने की मज़बूरी है
हल चलाने के लिए उनके खेत हैं
मंदिर में छुपा हुआ छुईमुई भग-वानहै
डांसी पत्थर हैं
सब है, नहीं है तो सिर्फ
लौट आने के लिये हथौड़े भर ज़मीन
जबकि उसे क्षेत्रफल बट्टा आबादी
होना ही चाहिये ...
***

संदीप नाइक की कविताएं

$
0
0

 
संदीप  नाइक की कविताएं मुझे उनसे एक फेसबुक संवाद के बीच मिलीं। उनकी पुस्तक 'नर्मदा घाटी की कहानियां'अभी अंतिका प्रकाशन से छपी है और चर्चा में है। संदीप मेरे लिए मेरे पुरखों की ज़मीन के कवि हैं। उनकी कविताओं का गद्य मुझे उस धरती की यात्रा पर ले जाता है। आज संदीप नाइक का जन्मदिन है। इस पोस्ट के साथ उन्हें बधाई कहना चाहता हूं।
 

      जहां घर है वहां पेड़ है

अगर आप मेरे घर का पता पूछे 
तो मै आपको पूरा पता बताउंगा 
और यह भी कहूंगा कि घर के बाहर 
एक पेड़ है बड़ा गुलमोहर का पेड़ 

यह पेड़ नहीं मेरा सहयात्री है 
सन उनअस्सी में जब इस घर आये
तो कही से एक पौधा रोप दिया था 
और देखते देखते बड़ा हो गया बन गया पेड़ 

मैंने इसको नहीं, इसने मुझे 
बड़ा होते देखा और सराहा 
कई मौकों पर यह मेरा साथी बना 
अपनी जवानी में जब उठा मेरे जीवन से 
पिता का साया तो इसे पकड़ कर 
रोया और ढाढस बंधाया माँ को 

फिर भाई की शादी में इस पर की
रोशनी और लगाया टेंट को टेका 
इसी से हरापन बचा रहा घर में मेरे 
ठण्ड, गर्मी और बरसात में इसी के 
पत्तों से आती रही छाया और बहार 

इस बीच हर बार छांटता रहा 
डगालियाँ इसकी कि कही बेढब 
या दूसरों की जद में ना बढ़ जाए 
और बीनता रहा पत्तों के ढेर अक्सर 
कि जीवन फिर आता है पत्तों सा बार बार 

माँ को अस्पताल जाते समय विदाई दी
इसने कि जल्दी लौट आना गृह स्वामिनी 
पर जब लौटें लाश लेकर तो एक 
पंछी भी नहीं बैठा था और सारे पत्ते सन्न थे 
चुपचाप झर गया माह अगस्त में यह पूरा 

फिर इसने एक नया आसमान खोला 
सम्भावनाओं का, हरा हुआ पूरा एक बार फिर 
हम सब जीवन में लौट आये थे 
उबर रहे थे सदमे से कि एक बार फिर सचेत किया 
इसने इस तरह कि यह सूखने लगा जड़ों से 

गुलमोहर के मोटे और ऊँचे तने में 
एक बरगद  कही से उग आया था 
सुना था बरगद के नीचे कोई नहीं पनपता 
पर  यह दुनिया का अनूठा गुलमोहर है 
जो बरगद को अपनी शिराओं से पाल रहा है. 

सोचा तो कई बार कि उखाड़ फेंकू बरगद को 
माँ ने मना किया कि बरगद में ईश्वर का वास है
यह कैसा इश्वर था जो हरेपन को सूखा रहा था 
बरगद फूल रहा था और पेड़ सूख रहा था 
धीमे से परन्तु कुछ नहीं बोला गुलमोहर  

अभी जब गुजरा भाई तो यह फिर सूखा था 
शाखें भी टूट गयी थी, झर गयी थी पत्तियाँ
दीमक लगने लगी है इसके तने में 
पुराना पड़ता जा रहा है ठीक मेरी तरह 
और अब सिर्फ हरापन बाकी है ऊपर से 

गुलमोहर का यह पेड़ अब हो गया है 
सभ्यता और इतिहास में दर्ज कि 
एक परिवार को इसने बढ़ते और ख़त्म होते 
देखा है, अब नई शाखें जो बिखर रही है 
बरगद और गुल मोहर गडमड है आपस में 

सब ख़त्म हो रहा है, हरापन पत्तियाँ, शाखें 
बरगद अपने पाँव गुलमोहर में रहकर 
पसार चुका है और ख़त्म कर रहा है इसे 
फिर भी कमजोर तने और कुतरती दीमकों के 
साथ खडा है पेड़ अपनी पुरी ताकत के साथ 

फिर सामने है गर्मियां और कड़ी धुप 
फिर आयेंगे राहगीर बैठ जायेंगे इसकी छाँव में 
मांगेंगे पानी मुझसे और मै उन्हें पानी देकर 
ताकता रहूंगा इसके हरेपन को, निहारूंगा 
और आपको कहूंगा कि जहां पेड़ है वहाँ घर है. 
*** 

भगोरिया के बीच जीवन की आस ढून्ढती तरुणियों के लिए"

वे मुस्कुरा रही है कि
फाग आ गया और अब जीवन की, 
चैत्र प्रतिपदा भी आ जायेगी
आहिस्ता आहिस्ता साँसों में.
वे मुस्कुरा रही है कि 
जीवन के रंगों के बीच से, 
फीके पड़ रहे बसंत फिर
यवनिका से उभरेंगे.
वे मुस्कुरा रही है कि 
अब जीवन की लम्बी दोपहरों से, 
शाम के साथ लौट आयेगी 
लालिमा उनकी साँसों में.
वे मुस्कुरा रही है कि 
अब इकठ्ठे होकर लड़ लेंगी, 
अपने पतझड़ से मिलकर 
और जीत लेंगी लड़ाई इकठ्ठे.
वे मुस्कुरा रही है कि 
अब पीलापन कपड़ों से नहीं, 
जीवन से नहीं बल्कि दुनिया से 
एक दिन विदा होगा मुस्कुराकर.
वे मुस्कुरा रही है कि 
अब अपनी अस्मिता को बचाकर, 
पुरी दुनिया में शंखनाद कर देंगी 
कि अब वे दुनिया की नागरिक है.
*** 
           निष्कर्ष 
           (माँ और हाल ही में गुजरे छोटे भाई को याद करते हुए)

याद है मुझे अच्छे से
वो जुलाई दो हजार आठ का
छब्बीसवां दिन था और 
भोपाल से सीधा पहुंचा था अस्पताल में,
माँ के आप्रेशन का बारहवां दिन था
भाई ने बताया कि आज सारे दिन बोलती रही है
माँ,बहनों को याद किया और अपने नौकरी की पहली
हेड मास्टरनी को भीखूब बोली है सबसे आज 
और घर जाने की भीजिद की है कि मरना घर ही है.
पुरी शाम और रात बोलती रही मुझसे
और अचानक भोर में पांच बजे मशीनो पर
थम गयी धडकनें माँ की और मै देखता रहा 
उन बेजान मशीनों को, जो एक इंसान में प्राण डाल रही थी
ख़त्म हो गयी थी दुनिया मेरी सत्ताईस  तारीख को माँ के बिना,
ठीक छह बरसो और दो माह बादभाई को भी अस्पताल में रखा था
शुरू में तो बेहोश था पर चौथे दिन बोलने लगा था 
बड़ी जांचों और इलाज के बाद,खूब बोला,
इतना कि ना जाने किस किसको याद किया 
उस दिन उसने, सारे आईसीयु में खुशी की लहर थी,
सारे रिश्तेदारों से बोला, बेटे को दी हिदायत
जीवन भर स्वस्थ रहने कीपत्नी को समझाया 
और मुझे देने लगा निर्देश कि थोड़ा स्वाभाव बदलूँ
नौकरी करूँ ढंग से अपने सिद्धांतों को ना त्यागूँ
आईसीयू के बाहर आकर मैंने बड़े भाई से जब कहा
तो हम दोनों को मौत दिखने लगी थी
उन दिनों जब माँ बोली थी तो भाई ने माँ को एक दिए की उपमा दी थी
कि बुझने के पहले बहुत तेजी से भभकता है दिया
आज फिर अन्दर छोटा भाई बोल रहा थाऔर हम दोनों बड़े होकर भी अशांत थे बेहद
फिर आखिर वो शांत हो गया बेहोश सा
तीन दिन बाद उठा वो नीम अँधेरे से
फिर बोला वो उस डायलेसिस मशीन पर
खूब बोला, यहाँ तक कि डाक्टर को भी झिड़क दिया
कि हटा यार हाथ गले से क्या जान लेगा?
हम डरते रहे और सहम गए थे बुरी तरह से
हम दोनों बड़े सशंकित से देख रहे थे उसे बड़े सदमे से मानो
इंतज़ार कर रहे हो कि मौत कब आ जाए और ले जाए
आहट तेज हो रही थी, मौत आ रही थी दबे पाँव
भाई की आवाज जैसे जैसे तेज़ हो रही थीहमारी बेचैनी बढ़ रही थी,
मौत का रूप सामने थाऔर फिर अचानक थम गयी साँसे
वही हुआ जिसका डर था, माँ की तरह चुप था भाई
सदा के लिए खामोश था और आँखे खोज रही थी
व्योम में खुली आँखे और कुछ कहने से रह गया
खुला मुंह मेरे लिए कई सारे सवाल छोड़ गया था
एक दिया और बूझ गया था तेज भभक कर
एक सीख हमने माँ और भाई की मौत से ली है
ज्यादा बोलना अपनी मौत को बुलावा देना है।
*** 
      

            ये जो दो जेब है पैंट में

सर्दी के ठिठुरते मौसम में दोनों हाथों को छुपा लिया
ना जाने कितने मौकों पर लजाते हुए या डरते हुए
हाथों को दी पनाह कि शर्मिंदगी ना उठानी पड़े किसी के सामने
जब हाथ डाला किसी ने या खुद ने भी
जरुर कुछ ना कुछ लौटाया है जेबों ने- 
चाहे मैले कुचेले टिकिट हो
या धोबी की पर्ची या चक्की पर डाले गये डिब्बे की रसीद
जेब से कभी निकले नहीं खाली हाथ
एक सिगरेट या माचिस या बीडी के अद्दे भी निकले मुफलिसी के दिनों में

कितना कुछ समेटा इन दो जेबों ने मेरे जीवन को
एक जेब में गन्दा सा रूमाल और दूसरे में लगभग फटा बटुआ
जिसमे होने को माशुका की धुंधली पडती जा रही तस्वीर
और चंद सिक्कों के अलावा कुछ नहीं था
घर से मिलें जेब खर्च को इन्ही जेबों की सतह से 
चिपकाकर रखा करता थाऔर अक्सर चोरी के डर से 
इस जेब से उस जेब और उस जेब से इस जेब में वही चीकट 
बटुआ बदला करता था

उसकी  लिखी चिठ्ठियां 
कई बार धूल गई जेब मे 
जब माँ ने निचोड़ दिए दोनों जेब पैंट के साथ 
पर फ़िर भी आश्वस्त करती थी कि 
अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है

इन्ही जेबों मे रखे कई पुर्जों और सामान से
रंगे हाथों पकड़ा गया मै घर मे, दोस्तों मे 
पर  वही हाथों को डालकर जेब मे 
मुँह नीचेकर पछता लिया और फ़िर धीरे से मुस्कुराकर 
फ़िर  से तैयार हो गया कि एक बार फ़िर 
छोडूंगा नहीं किसी को 

कभी निकला ऐसा भी सामान जिसने तार-तार कर दी 
इज्जत बाप-माँ की समाज मे 
और सबके सामने भदेस बनकर 
रोता रहा घंटों, पर इन्ही दो जेबों मे हाथ डालकर 
फ़िर  आई हिम्मत
इस तरह मैंने पूरा किया जेबों से जीवन का 
असहनीय  दर्द और सीखा जीना मुँह उठाकर

बरसात में भीगते हुए कई बार जब कांपने लगता बदन तो 
इन्ही जेबों में डालकर हाथ कुडकुडा लेता और पैदल लौट आता था घर को 
कि कभी तो माँ बाप को अपनी जेबों से निकालकर दूंगा दुनिया की अप्रतिम चीजें
गर्मी में डालकर हाथ, हथेली पर बासते पसीने को इन्ही जेबों के 
अस्तर से पोछा है अपने और फ़िर निकाला वही रूमाल जिसने माथे की सलवटों पर 
चुहाते पसीने को भी निथारा था.

कितना कुछ रखा मैंने यदि हिसाब लगाऊं आज तो शायद 
दुनिया की संदूकें छोटी पड जायेगी 
पेन, पर्चियां, रेवड़ी, चाकलेट, और माँ के हाथ बने लड्डू 
से लेकर दोस्तों के कई राज इन्ही जेबों में छुपे है 
और अगर आज ये जेबें खुल जाये तो सच में टूट जाएगा 
सदियों का विश्वास और आस्था

पैंट में दो जेब होना एक आश्वस्ति है 
जीवन के सच का सामना करने 
और सारे रहस्य छुपा लेने की अदभुत कला है 
जिसने भी बनायी होगी पैंट सोचा तो होगा 
उसने तन और इज्जत के लिए पर 
जेब लगाकर उसने सच में बचा ली
पूरी दुनिया की इज्जत 
और एक विशाल संसार खोल दिया 
सारी प्रकृति की संपदा रखने का

यह  ईजाद एक अदभुत ईजाद है 
जिसे समझ  ना पायेगा
कोई भी बस सहजता से 
करता रहेगा इस्तेमाल और 
बारम्बार छुपाता रहेगा दुनिया के रहस्य
अपनी मुफलिसी, छोटी छोटी पर्चियां जिनमे से
आती  रहेगी प्रेम की खबरें 
जो इस दुनिया को बदलने के लिए काफी है 
*** 
            रंग बिरंगी अलबम

घर छोडकर शहर आते हुए
जरूरी सामान के साथ रख लेते है
अपनी यादे, अतीत और जड़ो से जुड़े होने के एहसास
छोटे से कमरे में नीम अँधेरे के साथ
या कि खूब बदी सी हवादार बैठक में
या लाकर वाले बड़ी सी अलमारी में
रख देते है रंग बिरंगे अलबम
काम से लौटकर अवसाद के क्षणों में
दर्द भरे विरोधाभास और तनावों में
जीवन मूल्यों और संवेदनाओं को आहत होते देख
खोल देते है हम रंग बिरंगे अलबम
परिचित- अपरिचित के सामने
बिखेर देते है तस्वीरो का पुलिंदा
हर तस्वीर के साथ जुडी स्मृतिया
यकायक भावो, शब्दों  और टींस के
साथ निकल पडती है
कमरे में बिखर जाती है माँ
पिता, चचेरे ममेरे भाई- बहन
जिंदगी के विभिन्न सोपानो पर बने दोस्त
साथ में पढ़ी हुई लडकिया
जीवंत हो उठते है सब
कमरे के फर्श पर अवतरित होने लगते है सब
जयपुर, सूरत, गौहाटी, त्रिवेंदृम,
बद्री, केदार, रामेश्वरम और वैष्णो देवी
ताज महल, कुतुबमीनार और लाल किले
के साथ खिचाईतस्वीरो के साथ खीज
उठती है अजंता एलोरा ना देख पाने की
खेत कूए और बड़े से दालान वाला घर
तस्वीरो में देखकर लगता है यह
कमरा कितनी छोटी और ओछी कर देगा
जिंदगी को ?

दर्द भरी मुस्कराहट होठो पर आकार गम  हो जाती है
बोलते रहते है हम
परिचितों अपरिचितो के सामने
कभी एकालाप करते है मन्नू की तस्वीर
देखकर कि क्यों नहीं लिखता बंबई से चिठ्ठी ?
रंग बिरंगे अलबम स्मृतयो की गुफा से ढूंढ लाते है
घटनाये, प्रसंग, रिश्तों की व्याख्या, दोस्ती की परिभाषा
आँखों की पोर से जब रिस जाते है आंसू
कमरे में छा जाती है नमी
आवाजो का शोर घुमडने लगता है तो
अलबम रंग बिरंगे नहीं रह जाते
धुल जाते है नमी से
कठोर हाथो की उंगलियों से स्पर्श पाते है मीठा
सन्नाटा छा जाता है कमरे में
माँ-पिता के प्रश्न, दोस्तों से किये वादे
खेत, गांव, घर को दिए गए उत्तर
सब उलझ जाता है आपस में
अलबम कब बंद हो जाता है पता नहीं चलता
देखनेसुनने , समझने और महसूसने के बाद
मौन सबसे बड़ी भाषा है जैसा दर्शन उभरता है

वास्तव में अल्बम का रोज खुलना बंद होना
जिंदगी, मौन, भाषा और दर्शन को समझने के लिए
जरूरी है
अलबम का रंग बिरंगी होना
हर जरूरी सामान के साथ होना
बहुत जरूरी है.......

(अपने उन सभी दोस्तों, रिश्तेदारों, भाईयो, बेटो और माँ पिताजी को समर्पित जो आज भी मेरे साथ मेरे रंग बिरंगे अलबम में है)
***
            
                        आखिरी दिनों में पिता

आखिरी दिनों में बिना आँखों के भी
जिंदगी को पढ़ -समझ लेते थे
कापते हाथो से भी बताई जगह पर
हस्ताक्षर कर देते थे
छुट्टी की अर्जी
मेडिकल के बिल
बैंक का लोन
ज्वाइंट अकाउंट  का फ़ार्म
आखिरी दिनों में पिता की
आँखें काम नहीं कर पाती थी
में, माँ भाई उन्हें देखते थे
और पिता देखते थे हमारी आँखों में आशा, जीवन, उत्साह   
अस्पताल के कठिन जांच प्रक्रिया
लेसर की तेज किरणे
पर आँखों का अन्धेरा गहराता गया
पिता
तुम आखिरी दिनों में कितना ध्यान रखते थे हमारा
स्कूल से आने पर पदचाप पहचान लेते थे
हमारे साथ बैठकर रोटी खाते
और हाथों से टटोलकर हमें
परोसते
माँ के आंसू की गंध पहचानकर
डपट देते थे माँ को
पिता का होना हमारे लिए आकाश के मानिंद था
ऐसा आकाश जिसके तले
हम अपने सुख दुःख
ख्वाब, उमंगें
उत्साह और साहस
भय और पीड़ा
भावनाए और संकोच
रखकर निश्चित होकर
सो जाते थे
पिता हर समय माँ से हमारे बारे में ही बाते करते थे
हमारी पढाई, हिम्मत
तितली पकडना
पतंग उड़ाना
कंचे खेलना
बोझिल किताबे
टयुशन  और परीक्षाए
नौकरी और शादी
माँ कुछ भी नहीं कहती
तिल-तिल मरता देख रही थी
घर से अस्पताल
अस्पताल से प्रयोगशाला
प्रयोगशाला से घर
एक दिन रात के गहरे अँधेरे में
आँगन की दीवार को
पकड़ कर खड़े हो गए
पिता की ज्योति लौट रही थी
हड्बड़ाहट सुनकर
माँ जाग गयी थी
एक लंबी उल्टी करके गिर गए थे
पिता
माँ कहती थी
आखिरी समय में
नेत्र ज्योति लौट आई थी
पिता तुमने कातर
निगाहों से माँ को देखा था
माँ के पास हममे से किसी को
ना पाकर तुम्हारी आँखों से
दो आंसू भी गिरे थे
लेसर की किरणे
मानो उस अंधेरी रात में
आँखों में चमक रही थी
जिंदगी भर आंसू पोछने वाला आदमी
उम्र के बावनवे साल में आंसू बहा रहा था
लोग कहते है वो खुशी के
आंसू थे- ज्योति लौट आने के
में कुछ भी नहीं कहता
क्योकि बाद में मैंने ही तो
आँखे बंद करके रूई के फोहे
रखे थे
पिता - तुम सचमुच हमें ज्योति दे गए .........

न्यायपूर्ण आक्रामकता की कविताएं हैं अजय सिंह की : वीरेन डंगवाल - अजय सिंह के कविता संग्रह का लोकार्पण / प्रस्तुति : भाषा सिंह

$
0
0


11 अप्रैल
नई दिल्ली। अजय सिंह की कविताएं भारतीय लोकतंत्र की विफलता को पूरी शिद्दत से प्रतिबिंबित करती हैं। उनकी कविताओं का मूल स्वर स्त्री, अल्पसंख्यक और दलित है। सांप्रदायिकता से तीव्र घृणा उनकी कविताओं में मुखर होती है। अजय सिंह की कविताओं में दुख है लेकिन बेचारगी नहीं। जूझने की कविता है अजय की कविता। यह बातें शनिवार को वरिष्ठ कवि, पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक अजय सिंह के पहले कविता संग्रह राष्ट्रपति भवन में सूअरपर चर्चा के दौरान सामने आईं। गुलमोहर किताब द्वारा दिल्ली के हिंदी भवन में आयोजित इस कार्यक्रम में कवि, लेखक, पत्रकार, आलोचक, चित्रकार, प्राध्यापक व तमाम विधाओं के वरिष्ठ लोगों ने शिरकत की।
 
वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल ने कहा अजय सिंह की कविताएं न्यायपूर्ण आक्रामकता की है। विचार के स्तर पर वे बेहद महत्वपूर्ण हैं और एक बायोस्कोपिक वितान रचती हैं। ये कविताएं मौजूदा दौर का अहम दस्तावेज है। अजय हमारे दौर के अहम कवि है। विचार के स्तर पर, वामपंथ के आग्रह के स्तर पर, समाज में परिवर्तन के स्तर पर इनकी रचनाएं सुंदर है। फिल्मी गीतों के प्रयोग सहित कई नए प्रयोग कविताओं में हैं, जिनपर गंभीर चर्चा होनी चाहिए। कवि को संग्रह के लिए बधाई देते हुए वीरेन डंगवाल ने कहा कि यह संग्रह कई ध्यान आकर्षित करेगा। यह भर्त्सना का भी पात्र बनेगा, लेकिन यह कई बहुत जरूरी सवालों को भी रेखांकित करने का काम करेगा। उन्होंने कहा कि अजय की कविताएं अच्छी और सच्ची रचनाशीलता का द्योतक हैं, जो विचारधारा के महत्व को स्थापित करती हैं।
 
वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि अजय की कविताओं में छलांग लगाने की अद्भुत क्षमता है। ये दस्तावेजी कविताएं है। इनका कैचमेंट एरिया बहुत बड़ा है। विस्मरण के दौर में ये भूलने के खिलाफ खड़ी हैं। ये स्मृति को बचाने का काम करती हैं। इन कविताओं को उन्होंने दस्तावेजीकरण की कविताएं बताया। इनमें नेली का नरसंहार से लेकर चंद्रारूपसपुर, बथानी टोला... जैसे अनगिनत नृशंस हिंसाओं का संदर्भ आता है जिनके कारण हमारा जीवन बहुत तबाह हुआ है, उनका विस्तृत उल्लेख है। उन पर कवि शमशेर के अमन के राग का गहरा असर है और यह आज के दौर में जरूरी है। मंगलेश डबराल ने कहा कि अजय की कविताओं में प्रेम से तुरंत राजनीति और राजनीति से प्रेम, बच्ची से राजनीति, राजनीति से परिवार के बीच जो छलांग लगती है, वह जबर्दस्त है। कविता का उड़ान देना अहम है। उन्होंने खुसरो घर लौटना चाहे और झिलमिलाती हैं अंनत वासनाएं शीर्षक कविताओं को बेहतर कविताएं बताते हुए कहा कि उन्हें अजय सिंह की प्रेम कविताओं से थोड़ी दिक्कत है। उन्होंने कहा अजय सिंह की कविताओं में क्रोध बहुत है, जहां इसका द्वंद्वात्मक इस्तेमाल है, वहां बेहतर लगता है और जहां नहीं वहां भारी हो जाता है।
 
चर्चा की शुरुआत करते हुए आलोचक वैभव सिंह ने अजय सिंह की एक कविता को उद्धृत किया और कहा कि ये पवित्र आवारागर्दीसे निकली कविताएं हैं। ये प्रतिरोध और छापामार अंदाज की कविताएं हैं। इन कविताओं में कहीं से भी दया व हताशा नहीं, ये जूझने की आंदोलन की कविताएं हैं। ये मुट्ठी ताने कविताएं हैं। एक रेडिकल मार्क्सवादी की तरह यार-दोस्तों को याद करने का ज़ज्बा कॉमरेड अंजता लोहित की स्मृति में लिखी गई कविता में दिखाई देता है। यह वाम आंदोलन की परंपरा की याद दिलाता है। इसके साथ स्त्री-पुरुष के संबंधों को बिल्कुल नए ढंग से, नई नींव के साथ रखा गया है। कविताओं में औरत स्वायत्त है, वह पेसिव नहीं है। शीर्षक कविता राष्ट्रपति भवन में सूअरका जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस कविता में राष्ट्रपति भवन सत्ता प्रतिष्ठान के एक रूपक के रूप में आया है जिसके माध्यम से अजय सिंह भारतीय लोकतंत्र की विफलता की कहानी कहते हैं। इस कविता में ब्यौरे बहुत ज्यादा है, जिसे शिल्प नहीं झेल पाता।
वरिष्ठ कथाकार और समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा कि अजय घर-परिवार से शुरू करके देश-दुनिया को इसमें समेट लेते हैं। उन्होंने कहा कि कविताओं में बिंब आए हैं, वह कवि की सचेत वैचारिकी का परिचायक है। कोई भी चीज बेवजह नहीं है। युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने राष्ट्रपति भवन में सूअरकविता के बारे में कहा कि यह इस बात को बताती है कि भारतीय लोकतंत्र में किन लोगों को होना शामिल होना था जिन्हें शामिल नहीं किया गया। अजय की कविता हर तरह के रिश्ते को रेखांकित करती हैं चाहे वे स्त्री के पुरुष के साथ हों, सत्ता प्रतिष्ठान के अपने नागरिकों के साथ या समाज के अपने कलाकारों के साथ। ये अकविता की कविताएं नहीं हैं। अकविता एक पर्सनल व्यक्तिवाद की जमीन होती है, लेकिन अजय सिंह की कविता में ऐसा नहीं है। कवि का सब कुछ नाम व पहचान के साथ कविता में मौजूद है, वह डायरेक्ट है, कोई मुलम्मा नहीं चढ़ाता। सब कुछ साफ है। कविता में प्रेम प्रचुर है। एक पुरुष जो कामना में डूबा हुआ है। एरोटिक प्रेम है, स्त्री को डिटेल में चित्रण। ऐसा पुरुष जो ऐसी स्त्री से प्रेम करता है जो स्वतंत्र हो, किसी भी झांसे में न आए। झिलमिलाती हैं अनंत वासनाएं कविता में दौड़ते हुए वंसत को सुनने की टापें सुदंर बिंब है।
लेखक शीबा असल फहमी ने अजय सिंह की कविताओं को हिंदुस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन की फैक्टशीट कहा। उन्होंने कहा कि यह बहुत कठिन समय है और एक कवि के लिए तो बहुत ही ज्यादा। उन्होंने कहा कि कवि हमें एक दृष्टि देता है कि किस तरह से लड़ा जा सकता है।
 
वरिष्ठ कवि और प्रकाशक असद जैदी ने कहा कि अजय सिंह की कविताएं समकालीन यथार्थ की है। हमारे समय का प्रेम, गुस्सा, निराशा, घृणा- यह इनमें झलकता है। उन्होंने याद दिलाया कि अजय सिंह अपने साथियों के बीच एक सचेतक के रूप में रहे हैं और यही उनकी कविताओं की मूल भावना है। राष्ट्रपति भवन में सूअर कविता में वह इमोशन की रेंज से गुजरते हैं, समकालीन यथार्थ से गुजरते हैं। ब्यौरे और विवरण के बीच के संबंध को समझने की जरूरत है। उन्होंने भी कहा कि इन कविताएं में डाक्यूमेंटेशन की भावना जबर्दस्त है। अब झंडा, नारा जैसे शब्द कविता-कहानी से सेंसर हो गए हैं, ऐसा अजय के यहां नहीं है। जब इन्हें कहना होता है लाल सलाम तो वह कहते हैं। आज के दौर मेंइस रिवायत को जिंदा रखा जरूरी है। उन्होंने इन कविताओं को प्रगतिशील वामपंथी धारा की प्रतिनिधि कविता कहा।
 
कवि शोभा सिंह ने अजय सिंह की कविताओं को उनका घोषणापत्र बताया। इसमें वह ऐलान करते हैं कि उन्हें किन बातों से नफरत है और किससे प्यार। शोभा सिंह ने कहा कि अजय की कविताएं उनके जीवन की ही तरह अन्याय और जुल्म से टकराने का जोखिम उठाती हैं। उनके मुताबिक कवि का सपना लोकतांत्रिक भारत का सपना है। समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने खिलखिल को देखते हुए गुजरातकविता का विस्तार से जिक्र करते हुए इसे बेहद महत्वपूर्ण कविता बताया। उन्होंने कहा कि इस कविता में आज के भारत का इतिहास है। इस कविता में जो भावुक अभिव्यक्ति है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। यह खिलखिल का जन्म से शुरू होती है, जहां दुनिया को सुंदर बनाने का सपना जन्म लेता है और वहीं सुंदर बनाने का सपना बिगड़ना शुरू हो गया था। गुजरात का जिक्र पूरी उसकी विभीषका के साथ आता है। इस कविता में छोटी बच्ची के जरिए उन्होंने सबको सीख दी है कि गुजरात नरसंहार के दोषियों को कभी नहीं माफ करना चाहिए। सच को सच की तरह कहने का साहस आज के दौर में कम होता जा रहा है, ऐसे में यह संग्रह पूरे जोखिम के साथ यह काम करता है। उन्होंने कहा कि 2002 गुजरात नरसंहार का अजय की कविताओं पर गहरा असर पड़ा है।
 
कवि इब्बार रबी ने कहा कि अजय सिंह की कविताओं में भावनाओं का ज्वार बहता है। उन्होंने बहुत विस्तार से अजय सिंह की कविताओं की विवेचना करते हुए कहा कि यहां जो व्यक्तिगत है, वही राजनीतिक है। परमाणु विकिरण की विभीषिका को जिस तरह से अजय ने कमल से बरसने वाले पराग से जोड़ा है, वह उनके परिपक्व राजनीतिक कवि का द्योतक है। कविताओं में फिल्मी गानों के इस्तेमाल की इब्बार रब्बी ने प्रशंसा करते हुए कहा कि कवि शून्य में नहीं रच रहा। प्रखर आलोचक संजीव कुमार ने कहा ये कविताएं बहुत डिमांडिंग हैं। ये अंतर-पाठीय है। इन्हें समझने के लिए कई संदर्भों का पता होना चाहिए। इस तरह से ये शिक्षित करती हैं। हिन्दी कविता में पहली बार लोकप्रिय कल्चर के प्रति जबरदस्त आकर्षण दिखा है। संजीव ने कहा कि इन कविताओं की खासियत यह है कि ये जितनी सहजता के साथ लाल किले पर लाल निशान की बात करती है, उतनी ही सहजता से झिलमिलाती अनंत वासनाओं का जिक्र भी करती हैं। राष्ट्रपति भवन में सूअर एक सत्ता के प्रतीक के तौर पर आया है। यह जीवंत मसला है। उन्होंने संग्रह में नुख्तों के सही प्रयोग का जिक्र करते हुए भाषा के प्रति कवि की सजगता का प्रमाण बताया।
 
फिनलैंड से आए कवि तथा चित्रकार सईद शेख ने कवि अजय सिंह के साथ अपने लगभग 50 साल पुराने रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि युवाअवस्था में सामंतवाद की गिरफ्त में रहने वाले अजय ने एक बार जब मार्क्सवाद का दामन पकड़ा तो कभी नहीं छोड़ा। वह जीवन के हर क्षेत्र में मार्क्सवाद के प्रवक्ता के तौर पर रहे और कविताओं में भी इसका झंडा बुलंद किए हुए हैं।
 
वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत ने कहा कि यह संग्रह अजय सिंह की विश्वास को बढ़ाने वाली कवायद का हिस्सा है। दुुनिया में बहुत कुछ खराब है, यह हम सब जानते है, लेकिन उसे बदलना कितना जरूरी है, यह बताती हैं ये कविताएं। लेखक हेमलता महिश्वर ने कहा कि इन कविताओं का दलित दृष्टि से पाठ किया जाना चाहिए। राष्ट्रपति भवन में सूअर पहुंचाने की कल्पना ही ब्राह्मणवादी सोच को चुनौती देने वाली है। वरिष्ठ लेखक-कवि शिवमंगल सिद्धांतकर ने कहा कि अजय सिंह ने अलग ढंग का क्राफ्ट रचा है, जिसकी दाद देनी चाहिए। इसमें बाइसकोप की महत्ता है और कवि की दृष्टि भी वैसी ही है। इस दौर में ऐसी कविताओं की बेहद जरूरत है। युवा कवि रजनी अनुरागी ने इन्हें हिम्मत की कविताएं बताया और इसका व्यापक पाठ करने की जरूरत पर बल दिया। इसमें दलित चेतना और स्वतंत्र नारी की जो ध्वनियां हैं, वे काबिलेतारीफ है। लेखक अरविंद कुमार ने कहा कि ये अभिजात्य वर्ग की रचना को चुनौती देती हैं। आज के दौर में साहित्य में जो विचारशून्यता की स्थिति है, उसे अजय सिंह की कविताएं नकारती हैं। इसलिए इनका विरोध ज्यादा होगा क्योंकि ये यथास्थिति के खिलाफ हैं।
 
कार्यक्रम में वरिष्ठ कवि पंकज सिंह, सांसद के.सी. त्यागी, पत्रकार पंकज श्रीवास्तव, डॉ. केदार कुमार, कवि मुकेश मानस, शायर रहमान मुसव्विर, कवि राज वाल्मिकी, लेखक अवतार सिंह, कवि आकांक्षा पारे काशिव, पत्रकार दिवाकर, कथाकार परवेज अहमद, कवि पत्रकार चंद्रभूषण, कवि आर.चेतन क्रांति, पत्रकार मनीषा भल्ला, सामाजिक कार्यकर्ता बेजवाडा विल्सन, धर्मदर्शन, कवि माधवी श्री, शायर हैदर अली, अधिवक्ता दीपक सिंह, आशीष वर्मा, स्वाति सहित बड़ी संख्या में लोगों मौजूद थे।
 
कार्यक्रम की शुरुआत में साहित्यकार कैलाश वाजपेयी, लेखक तुलसीराम, विजय मोहन सिंह, रंगकर्मी जितेंद्र रघुवंशी के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए दो मिनट का मौन रखा गया। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी भाषा ने किया। स्वागत कवि और शायर मुकुल सरल ने किया।

(भाषा सिंह की फेसबुक वाल से साभार) 

उनकी ‘’कविता’’ कविता कहे और माने जाने योग्य नहीं है - विष्णु खरे

$
0
0


अनुनाद पर पिछली पोस्ट/ अजय सिंह के कविता संग्रह के लोकार्पण समारोह की रिपोर्ट पर विष्णु खरे की यह प्रतिक्रिया मुझे मिली है। इसे अविकल यहां लगाया जा रहा है। मैंने चन्द्रेश्वर पांडेय जी की फेसबुक दीवार पर लिखा भी था कि हम अजय सिंह की कविता को स्थापित हिंदी कविता की तरह देखकर शायद अलग दिशा में जा रहे हैं। देखना यह है कि क्या इस संग्रह की प्रस्तुति भी उसी तरह है, जिस तरह न देखने का मेरा आग्रह रहा है। मेरा आग्रह प्रस्तुति और अजय सिंह की कविता की आलोचना, दोनों से है, इसे इकतरफ़ा न समझ लिया जाए। एक पालिटिकल एक्टीविस्ट की कविता को हमें किस तरह देखना/पढ़ना होगा... यह मैं इधर लगातार सोचता रहा हूं। लगता है कि यह प्रतिक्रिया इस संग्रह पर बहस का आरम्भ हो सकती है। इसका और इस पर प्रतिक्रिया का अनुनाद पर स्वागत है।
_______________________________________________________

अजय सिंह को मैं दिल्ली के 1968 के उत्तर-नक्सलवादी मोहनसिंह प्लेस युग से जानता हूँ.उनकी क्रांतिवादी वामपंथी प्रतिबद्धता को लेकर मेरे मन में अब तक कोई संदेह नहीं रहा,संपूर्ण सहमति तो वैश्विक रूप से बदले-बदलते हुए वर्तमान में मार्क्स-लेनिन-स्तालिन-माओ-कास्त्रो और अधिकांश महान प्रतिबद्ध चिंतकों से भी संभव नहीं है.

‘’कविताएँ’’ वह तब भी लिखते थे और उन पर अकविता और आलोकधन्वा का विडंबनात्मक मिश्रित  प्रभाव था,शायद धूमिल का भी.उनके ‘’काव्य’’ को व्यापक रूप से गंभीरता से नहीं लिया जा सका.वह कभी उल्लेख्य नहीं माने गए.इसमें कुछ भी अनुचित या अन्यायपूर्ण नहीं था.

मुझे लगता है,आज,लगभग आधी सदी बाद भी, उनकी ‘’कविता’’ कविता कहे और माने जाने योग्य नहीं है.मैंने उनका यह संग्रह ( बहुत मुश्किल से ) आद्योपांत पढ़ा है और उसी की बिना पर यह कह रहा हूँ.बेशक़,मेरी अपनी करुण सीमाएँ,कूड़मग्ज़ियत और पूर्वग्रह भी हैं.

मुझे बेहद अफ़सोस है कि हिंदी के मेरे प्रिय और समर्थ कवि वीरेन डंगवाल,जो बहुत जीवट के साथ एक गंभीर रोग से जूझ रहे हैं लेकिन बेहतरीन कविताएँ भी लिख रहे हैं,अजय सिंह की कविताओं को एक निरर्थक शब्दावली में ‘’न्यायपूर्ण आक्रामकता’’ की रचनाएँ कह रहे हैं और ‘’कवि’’ को हमारे दौर का अहम कवि घोषित कर रहे हैं, जबकि अभी वह कवि ही नहीं है.उन्हें यह कविताएँ ‘’सुन्दर’’ दीखती हैं जिनमें नए प्रयोग हैं,ज़रूरी सवाल हैं जबकि इनमें न तो कोई प्रयोग हैं और इनके सारे सवाल बासी पड़ चुके हैं.’’विचारधारा के महत्व’’ को ऐसी घटिया कविताएँ कभी स्थापित नहीं कर सकतीं,बल्कि उसको नुकसान पहुँचा रही हैं.

मंगलेश डबराल के सामने आज कई तरह की सुरक्षाओं का संकट है और धीरे-धीरे वह भी नरेश सक्सेना की सर्वजन-स्वीकृति की आसानीपरस्त डगर पर हैं इसलिए वह भी वीरेन डंगवाल की तरह एक निरर्थक बिम्ब में अजय सिंह की कविता में छलाँग लगाने की क्षमता खोज डालते हैं.लेकिन यदि वह है भी तो  छलाँग मेंढक भी लगाता है,मुर्ग़ भी,हिरन भी और शेर भी.आज किस बेहतर कवि की रचनाएँ दस्तावेजी नहीं हैं,किसका कैचमेंट एरिया बड़ा नहीं है,कौन स्मृति को नहीं बचा रहा है ? अजय सिंह की कविता पर ‘’अमन का राग’’ का असर बताना हास्यास्पद है.हिंदी कविता यूँ भी अब ‘’अमन का राग’’ तक महदूद नहीं रह गयी है.उसकी भू-राजनीति ही बदल गई है.

गोष्ठी में सबसे अधिक शोचनीय झूठ मेरे प्रिय कवि असद जैदी ने बोला.सवाल यह है कि क्या यह कविताएँ कविताएँ हैं भी ? सारी चीज़ें एक ही कच्चे माल से बनती हैं,पैकेट पर उसके उल्लेख से उनमें गुणवत्ता तो नहीं आ जाती.यदि यह कविताएँ ‘’प्रगतिशील वामपंथी विचारधारा की प्रतिनिधि’’ हैं तो  अनेक वरिष्ठ,समवयस्क,युवतर और युवा कवि-कवयित्रियाँ क्या भाड़ झोंक रहे हैं ? ‘’राष्ट्रपति भवन में सूअर’’ जैसी टुच्ची,दो कौड़ी की ‘’कविता’’ तो हिंदी में है ही नहीं. यदि हम संदिग्ध उदाहरणों को ही लें तो क्या पंकज सिंह और नीलाभ,जिनमें कई समानताएँ हैं – एक तो यही है कि दोनों अपाठ्य,शब्दाडंबरी ‘’कवि’’ हैं,लेकिन अजय सिंह से तो बेचारे दोनों सौ गुना बेहतर हैं,फिर कभी बीरेन डंगवाल,मंगलेश डबराल,असद ज़ैदी आणि कंपनी ने उनके और अनेक अन्य कमतर-बेहतर  कवियों के बारे में ऐसे विरुद क्यों नहीं बखाने ?
वैभव सिंह,आशुतोष कुमार,इब्बार रब्बी,शिवमंगल सिद्धान्तकर,अरविन्द कुमार,पंकज बिष्ट,असग़र वजाहत  आदि गोष्ठियों के शोभा-बढ़ाऊ,भरोसेमंद,लिहाज़िये,’’उल्लेखनीय’’,’’फ़िलर’’,नाम-लिखाऊ प्रशंसक वक्ता-आलोचक हैं,जिन्हें आयोजकों और गोष्ठी-नायकों के अलावा कोई गंभीरता से नहीं लेता,और वह भी ऐसी गोष्ठी की इतिश्री तक.सब-एडिटर इनके नामों को काट कर खबरों को वाजिब साइज़ देते हैं.आनंदस्वरूप वर्मा को इस मंच पर जाना ही नहीं चाहिए था.

दरअसल इस तरह की गोष्ठियां हिंदी के सारे सार्थक कवि-कवत्रियों का अपमान करती हैं और प्रतिबद्ध कविता का कल्पनातीत नुकसान करती हैं.यह समूची वामपंथी विचारधारा को बदनाम करती और संदिग्ध बनाती हैं.यह अशोक वाजपेयी,ओम थानवी,रज़ा फाउंडेशन आदि के अजेंडे को पूरा करती हैं.सच तो यह है कि अजय सिंह की इस गोष्ठी में और अशोक की ऐसी गोष्ठियों में मैं कोई फ़र्क़ ही नहीं देख पाता,सिवा इसके कि अशोक चेहरे पर वामपंथ का नक़ाब या नंगी जाँघों के बीच अंजीर की प्रगतिशील  पत्ती चिपकाकर  लगाकर  ऐसी बेहयाई नहीं करता.

इस गोष्ठी में अजय सिंह की पत्नी शोभा सिंह ने,जो स्वयं अत्यंत साधारण कवयित्री हैं लेकिन  कहीं-कहीं अपने ख़ाविंद से बेहतर तो हैं,उनकी सराहना की है.गोष्ठी का न सिर्फ संचालन आत्म-मुग्ध अतिवक्त्री बेटी भाषा सिंह ने किया है बल्कि उसकी यह रपट भी Faecesbook पर चिपकाई है.पता नहीं गुलमोहर वाला प्रकाशक मौजूद था या नहीं.निर्लज्ज वामपंथी परिवारवाद परिवारवाद न भवति ? साफ़ है कि अजय सिंह की 1968 की क्रांतिकारी,प्रतिबद्ध नैतिकता में खतरनाक खोट आई है – जो व्यापक वामपंथी पतन का ही  क लक्षण या परिणाम है.

निर्भीक और सही सोच वाले सारे वामपंथी ऐसी गोष्ठियों और इनमें सक्रिय भागीदारी करनेवालों की ‘’तजिये ताहि कोटि बैरी सम’’ भर्त्सना करें,वर्ना ‘’तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में’’.

- विष्णु खरे


स्मृति एदुआर्दो गेलेआनो : यादवेन्द्र

$
0
0
13 अप्रैल को लैटिन अमेरिका के 74 वर्षीय विद्रोही रचनाकार पत्रकार एदुआर्दो गेलेआनोका कैंसर से निधन हो गया। भले ही उनकी कर्मभूमि उरुगुए रहा हो पर सम्राज्य्वादी शोषण के विरुद्ध उनकी बुलंद आवाज़ को पूरी दुनिया में बड़े सम्मान के साथ सुना जाता रहा है। लगभग तीस किताबों में उनका साहित्य संकलित है -- "ओपन वेन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका : फ़ाइव सेंचुरीज ऑफ़ द पिलेज ऑफ़ ए कॉन्टिनेंट"अमेरिका की अगुवाई में लैटिन अमेरिकी देशों के दोहन का दस्तावेज़ी सन्दर्भ ग्रन्थ माना जाता है। "मेमोरी ऑफ़ फ़ायर"तथा "सॉक्कर इन सन एंड शैडो" उनकी अन्य चर्चित किताबें हैं।रचना कर्म के लिए उनको जेल जाना पड़ा, निर्वासन झेलना पड़ा और किताबों पर प्रतिबन्ध क्या क्या नहीं झेलना पड़ा। अन्याय के प्रति अत्यंत मुखर स्वर को श्रद्धांजलि देने के लिये उनके संकलन "द बुक ऑफ़ इम्ब्रेसेज़"से उद्धृत इन  गद्य कविताओं  से ज्यादा सटीक और क्या हो सकता है।   

 
इंसानी बोली की शान में - 1  

                                

शुअर इंडियन -- जो जिबरोज़ के नाम से भी जाने  जाते हैं -- युद्ध में परास्त करने के बाद अपने दुश्मनों का सिर कलम कर देते हैं। इतना ही नहीं काट कर वे उनके सिरों को इतने कस के दबाते पिचकाते हैं कि वह आसानी से उनकी हथेलियों में समा सके …वे ऐसा कर के दुश्मन योद्धाओं के दुबारा जीवित न होने देने का इंतज़ाम कर लेते हैं। पर परास्त कर देने के बाद भी दुश्मन काबू में आ ही जाये ज़रूरी नहीं .... सो , वे उनके होंठ खूब अच्छी तरह से सिल डालते हैं ,वह भी ऐसे धागे से जो कभी सड़े गले नहीं।  

इंसानी बोली की शान में - 2 

उनके हाथ रस्सी से कस कर  बाँधे हुए थे पर उनकी उंगलियाँ अब भी थिरक रही थीं .... इधर उधर उड़ रही थीं और शब्दों को पकड़ रही थीं। उन कैदियों के सिर को लगभग छूती हुई छत  थी पर जब वे पीछे की ओर झुकते तो बाहर का कुछ हिस्सा थोड़ा थोड़ा दिखायी देता। उनको आपस में बात करने की सख़्त मनाही थी पर वे  कहाँ मानने वाले -- मौका मिलते ही हाथों की भाषा बोलते थे। पिनिओ उन्गरफेल्ड ने मुझे उँगलियों की पूरी वर्णमाला सिखायी थी -- उन्होंने भी यह भाषा जेल में ही सीखी थी ,बगैर किसी टीचर के सिखाये ……

"हम में से कईयों की लिखावट बेहद भद्दी और ख़राब होती है ....  जबकि कुछ लोग कैलीग्राफी में उस्ताद होते हैं", उन्होंने मुझसे कहा था। 
 
उरुगुवे की तानाशाही का फ़रमान था कि हर अदद इंसान अकेला दूसरों से अलग थलग रहे ……बल्कि गैर इंसान बन कर रहे -- जेल हो या बैरक .... पूरे देश में जहाँ कहीं भी रहे आपसी बातचीत पूरी तरह गैर कानूनी करार दे दी गयी थी। 

कई ऐसे कैदी थे जिन्हें ताबूत के आकार की कोठरी में दसियों साल से ऐसे रखा गया था जिस से लोहे के फाटकों और गलियारे में ड्यूटी देते पहरेदारों के पदचाप के सिवा कुछ भी सुनायी न दे।फर्नांडीज हुईदोब्रो और मॉरिसियो ऱोजेनकॉफ सालों लम्बी कैद इसलिए निभा गये क्योंकि वे दोनों अलग अलग कोठरियों में रहते हुए भी आपस में बात कर लेते थे -- अपनी अपनी दीवार को थपथपा कर। इस तरह वे अपने सपने और स्मृतियाँ साझा कर लेते थे .... अधूरे छूट गये प्रेम संबंधों की बातें कर लेते थे … वे खूब बातें करते , कभी कभी बहस तक कर लेते थे …एक दूसरे को कई बार सीने से लगा लेते थे और दूसरे ही पल गाली गलौज पर उतर आते थे....अपने विचारों ,विश्वासों ,खूबसूरती के बारे में धारणाओं ,आशंकाओं और गलतियों का आदान प्रदान भी करते थे ....यहाँ तक कि उन बातों में भी उलझ जाते थे जिनके कोई उत्तर नहीं ढूँढे जा सकते थे। 

जब जब बोलने की वास्तविक तलब उठेगी -- और बगैर बोले रहना संभव नहीं रह जायेगा -- तब किसी इंसान को बोलने से कोई रोक नहीं पायेगा। यदि मुँह बाँध दिया जायेगा तो वह हाथों की भाषा बोलेगा… या आँखों के जरिये संवाद करेगा … दीवारों में दरारें ढूँढेगा , किसी भी तरह बोलने का रास्ता निकाल ही लेगा। हमारे जैसे हर अदद इंसान के पास ज़रूर कुछ न कुछ ऐसा होता है जो वह दूसरे को कहना चाहता है .... यह बात कभी हमें खुश कर सकती है और हम इसको उत्सव जैसा मना सकते हैं … तो कभी अच्छी न लगे तो हमें बोलने वाले को माफ़ी भी देनी पड़ सकती है।   
Viewing all 437 articles
Browse latest View live


Latest Images

<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>