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अमेरिकी अश्वेत युवकों का प्रतिरोध गीत /3 - प्रस्तुति : यादवेन्द्र

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फ्रेडी ग्रे

अमेरिका के मेरीलैंड राज्य के बाल्टीमोर में 12 अप्रैल 2015 को गैरकानूनी तौर पर ऑटोमेटिक चाकू रखने के आरोप में एक 25 वर्षीय अश्वेत युवक फ्रेडी ग्रेको पुलिस पकड़ती है और गाड़ी में थाने ले जाते हुए इतनी बुरी तरह मारती पीटती है कि वह कोमा में चला जाता है और सात दिन बाद मृत घोषित कर दिया जाता है। पोस्टमॉर्टम में अत्यधिक हिंसा के कारण स्पाइनल कॉर्ड इंजरी होने की बात सामने आती है और इसको कानूनी तौर पर हत्या (होमिसाइड) बताया जाता है। राज्य का न्याय विभाग जाँच के बाद घोषित करता है कि रिकॉर्ड बताते हैं कि उसने कोई अपराध नहीं किया था और उसके पास मिला चाकू साधारण किस्म का था और उसको रखने पर किसी कानून का उल्लंघन नहीं होता। सम्बंधित छह पुलिस वालों को हत्या का दोषी करार दिया गया और उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। इस क्रूर हत्या को लेकर बाल्टीमोर में उग्र प्रदर्शन और विरोध हुए और शासन ने इमरजेंसी घोषित कर दी। इतना ही नहीं पूरे अमेरिका में इसको लेकर जबरदस्त प्रतिरोध दर्ज़ कराया गया और राष्ट्रपति ओबामा तक को इसके बारे में यह बोलना पड़ा कि कानून के दायरे में रह कर विरोध दर्ज़ करने वालों पर कोई
लिंच्ड डॉल्स
करवाई नहीं की जायेगी क्योंकि लोगों के लिए सच की तह तक पहुँचना
 ज़रूरी है। बड़ी संख्या में कलाकार और गायक अलग अलग राज्यों से अपना विरोध दर्ज़ करने बाल्टीमोर आये -- लोरिंग कॉर्निशने एक के बाद एक निहत्थे अश्वेत युवकों की हत्या पर रोष प्रकट करते हुए "लिंच्ड डॉल्स"शीर्षक से अपनी कलाकृति प्रदर्शित की जिसमें अनेक काले गुड्डे गुड़िया गले में फंदा लगाये लटकते हुए दिखाये गए थे। उन्होंने प्रदर्शन स्थल पर लिखा भी :"लिंचिंग (बगैर किसी मुक़दमे के निर्बल लोगों का वध कर के सार्वजनिक तौर पर पेड़ से लटका देना)की प्रथा आज भी अमेरिका में जारी है ....गोर पुलिस वाले कानूनी स्वीकृति से कालों को कत्ले आम करने के लिये बुलेट और कानून का खुले आम इस्तेमाल करते हैं। "प्रसिद्ध अश्वेत गायक प्रिंसने वहाँ जाकर
 "बाल्टीमोर"  शीर्षक से एक भावपूर्ण गीत रिलीज़ किया ,जिसका भावानुवाद नीचे प्रस्तुत है :
*** 
किसी ने किसी का रास्ता नहीं रोका 
तो आपको लगा आज का दिन अच्छी तरह बीत गया 
कम से कम बाल्टीमोर के दिन से तो खासा बेहतर 
कोई सुन रहा है क्या 
कि हम दुआयें कर रहे हैं माइकेल ब्राउन या फ्रेडी ग्रे के लिये ?
अमन युद्ध की गैर मौज़ूदगी से कहीं कुछ ज्यादा होता है 
हाँ ,युद्ध की गैर मौज़ूदगी से .......  

क्या हमें सड़कों पर और लहू देखना पड़ेगा 
चीखते कराहते लोगों को दम तोड़ते देख देख कर 
अब तंग आ चुके हैं हम 
अब तमाम बंदूकों की ज़ब्ती का समय आ गया है। 

युद्ध की गैर मौज़ूदगी आप और मैं  
भरसक कोशिश करें कि मिलकर जोर से बोलें 
पानी सिर से ऊपर पहुँच चुका अब.बंद करो यह सब 
यह आपसी प्यार का समय है 
यह एक दूसरे की बात सुनने का समय है 
यह गिटार से धुनें निकालने का समय है 
यह गिटार के संगीत का समय है 
बाल्टीमोर यहाँ तो इनकी ज्यादा दरकार है। 

जहाँ इंसाफ़ नहीं वहाँ अमन भी कैसे आयेगा 
जहाँ इंसाफ़ नहीं वहाँ अमन भी कैसे आयेगा

गायक प्रिंस
(प्रस्तुति एवं भावानुवाद : यादवेन्द्र )  


ग़ालिब की शाइरी पर नीलाभ की टिप्पणी

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सौ पुश्त से है पेश:-ए-आबा सिपहगरी
कुछ शाइरी ज़रीय:-इज़्ज़त नहीं मुझे


ग़ालिब के दीवान को उलटते-पलटते हुए मुझे एक बात महसूस होती रही है कि वे कभी दूसरे शाइरों की तरहसाहित्य को अपना मक़सद नहीं बताते. बार-बार वे यही कहते हैं कि वे शाइरी किसी और मक़सद से कर रहे हैं --

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब
तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता


वे अपने कलाम के बारे में कभी मीर की तरह नहीं कहते --

सहल है मीर का समझना क्या
हर सख़ुन उसका इक मक़ाम से है

या
शेर मेरे हैं ख़वास पसन्द
गुफ़्तुगू मुझे अवाम से है

या
जाने का नहीं शोर, सुख़न का मिरे हरगिज़
ता हश्र जहां में मिरा दीवान रहेगा


इसके विपरीत ऐसा जान पड़ता है कि ग़ालिब की नज़र में न तो हुक्काम हैं, न अवाम, न उन्हें इस बात की ग़रज़ है कि जाने-माने, गण्य-मान्य जन उनके कलाम की तरफ़ आकर्षित हैं, न इस बात में कोई दिलचस्पी कि आम लोग उनके कलाम को किस रूप में लेते हैं, न ता हश्र अपने कलाम के बने रहने का दावा करने का कोई इरादा, हालांकि वे बख़ूबी जानते हैं कि उनका मक़ाम क्या है. पर ये उनका शेवा है कि वे अपने मसाइल-ए-तसव्वुफ़ पर तो गर्व कर सकते हैं, कह सकते हैं कि जो तू शराब न पीता होता तो तुझे लोग वली समझते, मगर कलाम पर ज़्यादा नहीं कहते. कहते भी हैं तो --

न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
न सही मेरे अशआर में मानी न सही


मगर वे ग़ाफ़िल सुख़नगो नहीं हैं. न ऐसा है कि वे अपने कलाम के बारे में लोगों की, साथी शोअरा की, क़दर-शनासों की राय पर नज़र नहीं रखते. इसीलिए वे बेधड़क कह सकते हैं --

यारब न वो समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबां और


ग़ालिब अपने कलाम के बारे में कभी कोई दावा नहीं करते. करते भी हैं तो बहुत दबे-दबे स्वर में. मसलन
हम सख़ुन फ़हम हैं ग़ालिब के तरफ़दार नहीं
या
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयान और


यहां तक कि उस मशहूर शेर में भी, जिसका हवाला देते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने अपनी किताब "दस्ते सबा"का दीबाचा लिखा है और उसमें शुरू से आख़िर तक ग़ालिब ही के हवाले से अपनी बात कही है, ग़ालिब शाइरी का ज़िक्र नहीं करते --

क़तरे में दजल: दिखायी न दे और जुज़्व में कुल
खेल लड़कों का हुआ दीद:-ए-बीना न हुआ


इससे यह न समझा जाये कि ग़ालिब को अपने शाइर होने पर सन्देह है. नहीं, वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे सिपहगर नहीं हैं, ख़्वाह उनके अजदाद सिपहगर रहे हों. वे कोई गुरु या औलिया या सूफ़ी-सन्त भी नहीं हैं, अव्वल से आख़िर तक शाइर ही हैं, मगर शाइरी से उनकी तवक़्क़ो अलग क़िस्म की है. वह आध्यात्मिक और सूफ़ियाना भी नहीं है, जैसा कि बेशतर ग़ालिब-प्रेमी मान लेते हैं. ग़ालिब अपने अहद से आगे जा कर "कला कला के लिए"के उद्देश्य और सिद्धान्त को ख़ारिज करते हैं
 

इस सिलसिले में सबसे पहले दो शेर मुलाहिज़ा हों. ग़ालिब का शेर है--

हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शमअ-ए-सुख़न दूर है असद
पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे कोई
 

(कविता की शमा की ज्योति का सौन्दर्य तब तक दूर रहेगा जब तक कोई अपने अन्दर पिघल जाने वाला दिल न पैदा करे)

अब इस शेर को मीर के दीवान के पहले शेर से मिला कर देखिये जिसमें मीर कहते हैं --

उसके फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शमअ-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का


ग़ालिब के यहां मीर का "फ़रोग़-ए-हुस्न" (सौन्दर्य का प्रकाश)"हुस्न-ए-फ़रोग़-ए-शमअ-ए-सुख़न" (कविता की शमा की ज्योति के सौन्दर्य) में बदल गया है. ग़ालिब की तवक़्क़ो "दिल-ए-गुदाख़्ता"से है, ऐसे दिल से है जो आदमी का दुख-दर्द महसूस कर सके. उसी से कविता की ज्योति का सौन्दर्य नज़दीक आ सकेगा. और यह तभी मुमकिन है जब शाइर भी "पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे."
 

ग़ालिब ने एक और शेर में कहा है --

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए-ख़ाम: नवा-ए-फ़रोश है


(ये विषय शायरी के ग़ैब से यानी आकाश से आते हैं (सच तो यह है कि ग़ालिब कहना चाहते हैं कि जाने कहां से आते हैं और इस तरह कविता की रहस्यमय प्रक्रिया की तरफ़ इशारा करना चाहते हैं) ग़ालिब तो सिर्फ़ क़लम की आवाज़ और ख़ुदा के संदेसिये जिब्रील की आवाज़ है.

यहां ग़ालिब ने साफ़ कर दिया है कि वे किसी मक़सद से कविता कर रहे हैं -- चाहे वह क़लम की आवाज़ हो या ख़ुदा का पैग़ाम. इसीलिए वे एक और शेर में यह भी कह सकते हैं --

मैं जो गुस्ताख़ हूं आईन-ए-ग़ज़ल ख़्वानी में
वह भी तेरा ही करम ज़ौक़ फ़िज़ा होता है


अब यहां "तेरा ही करम"पर बहस हो सकती है कि यह तेरा कौन है. ग़ालिब को उलटने-पलटने के बाद मैं अपने तईं तो इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि यह "तेरा"शाइर का समाज और मआशरा और उसके ज़माने के इन्सान ही हो सकते हैं जिनके दुख-दर्द को, जिनकी उलझनों और समस्याओं को वह वाणी दे रहा है. यही वजह है कि वह क़तरे में दजला और जुज़्व में कुल को देखने की बात करता है. इसीलिए हमारा ख़याल है और यह ख़याल है कोई दावा नहीं कि ग़ालिब ने ख़ुदा और अल्लाह को चाहे हिकमत की सूरत में, काव्य-युक्ति के रूप में, चाहे इस्तेमाल किया हो, पर उनका सारा फ़ोकस इन्सान पर रहा. उसी के हर्ष-उल्लास, दुख-सुख की तस्वीरें उन्होंने उकेरीं.

अब जैसा कि कहते हैं कि इस तकरार में वह सवाल तो रह ही गया कि ग़ालिब की बनिस्बत कुछ दूसरे शाइर मेरी और मेरे बाद की पीढ़ी के पसन्दीदा शोअरा क्यों हैं. क्या इसलिए कि वे हमें उस तरह आतंकित नहीं करते जैसे ग़ालिब करते हैं ? क्या इसलिए कि वे मीर की तरह गेय और दर्द से भरे हैं ? क्या इसलिए कि वे फ़ैज़ की तरह एक ही दम में मुहब्बत और क्रान्ति की बात करते हैं ? आप भी सोचिये और मैं भी सोचता हूं. फिर देखते हैं कि क्या सूरत सामने आती है. एक सूराग़ आपको दिये जाता हूं. मेरी पीढ़ी को इक़बाल भी उतने प्रिय नहीं हैं, जितने मीर या फ़ैज़.

(और अन्त में दोस्तो, उस लफ़्ज़ "तईं"की बाबत एक सुधार. भूल-सुधार नहीं, क्योंकि यह दीदा-दानिस्ता नहीं, बल्कि हमारी जानकारी की कमी से हुआ था. हमने लिखा था कि मिर्ज़ा ने हज़रत बिलगिरामी को लिखे एक ख़त में "तईं"को पंजाबी प्रयोग क़रार देते हुए उसके इस्तेमाल को बहुत बुरा बताया था. अब देखिये, कि आगे की क़िस्तों को लिखने के लिए मीर के दीवान को उलटते-पलटते एक शेर पर एकबारगी नज़र जा कर ठहर गयी --

तुमने जो अपने दिल से भुलाया हमें, तो क्या
अपने तईं तो दिल से हमारे भुलाइये


हम यह मान नहीं सकते कि ग़ालिब जैसे बारीक़-बीं शख़्स ने मीर का यह शेर देखा न होगा. मगर उन्होंने अपने ख़त में लिख ही तो दिया -- "तईं का लफ़्ज़ मतरूक और मरदूद, क़बीह और ग़ैर फ़सीह, ये पंजाब की बोली है. मुझे याद है कि मेरे लड़कपन में एक असील हमारे हां नौकर रही थीं. वो तईं बोलती थीं तो बीबियां और लौंडियां सब उस पर हंसती थीं."
 

ख़ैर, मिर्ज़ा इस बात से भी वाक़िफ़ रहे होंगे कि मीर के कलाम पर पंजाबियत का रंग काफ़ी गाढ़ा था. मुलाहिज़ा फ़रमाइये --
 

तलवार ग़र्क़-ए-ख़ूं है, आंखें गुलाबियां हैं
देखें तो तेरी कब तक ये बद शराबियां हैं

बारहा वादों की रातें आइयां
तालेओं ने सुबह कर दिखलाइयां


तो साहेब, हम सिर्फ़ यह कहने में ग़लत थे कि यह प्रयोग बाद में रायज हुआ. दर असल ये पहले से रायज था. ग़ालिब अपनी ज़ुबानदानी के मेयार के पेशे-नज़र ऐसे प्रयोगों के हामी न थे. इसके लिए हम उन पर इस्तग़ासा दाख़िल न करेंगे जी। 
*** 
(लेखक की फेसबुक दीवार से साभार) 

संतोष कुमार चतुर्वेदी की नयी कविताएँ

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संतोष कुमार चतुर्वेदी की नयी कविताएँ, अनुनाद के पाठकों के लिए। हां, इनमें सांसद/विधायक सीट वाली कविता इससे पहले पहल में छप चुकी है और सराही भी गई है।  ज़्यादातर पाठक जानते हैं कि संतोष अनहदनाम से एक महत्वपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन-सम्पादन करते हैं। पहली बारउनका लोकप्रिय ब्लॉग है। संतोष को मैंने इन दोनों ही प्रकाशन माध्यमों के लिए बहुत मेहनती पाया है। पत्रिका के लिए स्तरीय सामग्री जुटाना बहुतायत के इस दौर में बुरा बनने की हद तक कठिन और जोखिमभरा कार्य है। विडम्बना यह भी कि हमारे वक़्त का एक प्यारा और ज़रूरी कवि इस काम में लगातार पीछे छूटता जाता है, जिसके लिए संतोष के मन में कोई मोह कभी नहीं उपजता, टीस शायद उठती हो। ऐसा होना अच्छा ही है, आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता के अनगिन छोटे-छोटे टापुओं पर खड़ी कविता को ऐसे ही निर्मोही कवियों की ज़रूरत है, जो किसी टापू पर खड़े न रहकर पूरी विनम्रता के साथ जनता और उसकी भाषा के समूचे धराधाम पर रहना चाहते हैं। 

अनुनाद पर संतोष का स्वागत और इन कविताओं के लिए सम्पादक की ओर से आभार। 
*** 
चोरिका
  
माँ बताती थी हमें अक्सर यह बात कि
प्यास को महसूसने वाले ही
जानते हैं प्यास की महत्ता को
भूख का दंश भुगतने वाले ही
पहचानते हैं अनाज के मर्म को
बाकी तो महज लफ्फाजी करते हैं

माँ भूख-प्यास के सरगम से वाकिफ थी भलीभांति
इसलिए उसने नखलिस्तान की दुर्गम लय पर गाना सीखा था
आज भी वह शीशे के टुकडे पर सहजता से नाचती दिख जाती थी
इस बात की परवाह किये बिना कि
लहुलुहान हो सकती है वह किसी भी क्षण

एक गृहिणी थी माँ
और इसी नाते कहा जा सकता है यह कि
उसकी अपनी कोई कमाई भी नहीं थी
दिन-रात उसके खटने को
श्रम की फेहरिस्त से सदियों पहले ही गायब किया जा चुका था 

जैसे गौरैया ने बनाया अपना खोंता
और एक भी तिनका कम नहीं पड़ा कहीं
जैसे मधुमक्खियों ने लिए मकरन्द
और फूलों की महक और बढ़ गयी
जैसे धूप ने पिया चुल्लू भर-भर कर पानी पूरे दिन
फिर भी धीमा नहीं पड़ा नदियों का प्रवाह
वैसे ही माँ ने चोरिका बचाया 
और कहीं भी कुछ कम नहीं पड़ा  

माँ गृहिणी थी
फिर भी आपद-विपत में जब-जब पड़े कमासुत पिता
तो मजबूती से साथ खडी नजर आयीं माँ ही हमेशा

जब भी गाढ़ा वक्त आया
काम आया माँ का चोरिका
घर ने राहत की साँसे लीं भरपूर
हमारी जिंदगी का रंग थोडा और गाढ़ा हुआ
मिट्टी की उर्वरता पर
हमारा भरोसा थोडा और पुख्ता हुआ

पड़ोसियों की सख्त जरूरतों के समय
फुहारों की तरह दिखा चोरिका
दरवाजे से कोई भूखा वापस नहीं लौटा कभी
मोहल्ले भर की बेटियों के लिए
सौगातें ले कर आया यही 
 
फिजूलखर्ची से जद्दोजहद की महक थी इसमें
अपनी जरूरतें कमतर करने की सनक थी इसमें
औरों को भी खुशहाल देखने की बनक थी इसमें

कमाई का तनिक भी अहम नहीं था
फिर भी श्रम था यह
चोरी का रंच मात्र भी आशय नहीं था कहीं इसमें
फिर भी यह चोरिका था 
जिसे माँ ने बड़े जतन से बचाया था 
खस्ताहाल दिनों के लिए


गुरुत्व

इस ब्रहमाण्ड में जो भी पिण्ड हैं
सभी का अपना एक गुरुत्व है
इस गुरुत्व के दम पर ही
सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी, मंगल सबका
अपना-अपना ओहदा है

स्वार्थों का गुरुत्व भी
खींचता रहता है लगातार अपनी तरफ हमें
किसिम-किसिम के लुभावनकारी गुरुत्वों में
खो जाते हैं अनायास ही हम
अपना अस्तित्व गँवा कर

कोई भी प्रलोभन छोड़ पाना हमेशा मुश्किल होता है
ओहदा ठुकराना और भी मुश्किल
जिगर वालों में से भी
बिरले ही कर पाते हैं ऐसी हिमाकत 

लेकिन जो भी छोड़ने का साहस दिखाते हैं
जो भी मर-मिटने के खतरे उठाते हैं 
वही गुरुत्व की सरहद तोड़ पाते हैं
वही जा पाते हैं सुदूर अन्तरिक्ष की गहराईयों में


कूड़ा-करकट

यह जो ढेर है दुर्गन्धयुक्त
देखने में भद्दा और अशोभनीय
छाडन हैं हमारी ही मुख्य धाराओं के
यहाँ पड़े हैं जो चिरकूट- चिथड़े
वे हमारे ही कपड़ों के अवशिष्ट हैं

यहीं पड़े हैं वे सपने
जो अरसे तलक देखे जाने के बावजूद
पूरे नहीं हुए कभी
बन न सके अपने

यहीं दबी पड़ी हैं हमारी वे रुचियाँ
जो हमारी जरूरतों के जद्दोजहद में
गुम हो गयीं कहीं

यहीं बिखरे पडे हैं वे कागज़
जो लिखे जाने के बावजूद
फाड़ डाले गए चिन्दी-चिन्दी
यहीं विस्मित पड़े हैं वे पम्फलेट
जो बिन पढ़े ही फेंक डाले गए

यहाँ की अमानत हैं खाली बोतलें और शीशियाँ
जिनमें कभी मौके पर जीवन बचाने की
सुघड़ कहानियाँ भरी थीं

हल्दी, मसाले, मिर्च, धनिया, नमक के वे खाली पैकेट
जिनमें कभी स्वाद के बेशुमार गीत भरे थे
पड़े हैं यहाँ पर
उन बल्बों ने भी पाया है यहीं पनाह 
जो अनेक अँधेरी रातों को उजियार बनाते हुए  
अब फ्यूज हो चुके हैं

कूड़ा-करकट का यही ढेर
काम आया तमाम खाईयों को भरने में
शहर की नामचीन इमारतों की चौपाईयाँ
गढ़ी गयीं इन्हीं की मात्राओं पर

पुराविदों ने पढ़ीं अतीत की कई लिपियाँ
नष्ट-भ्रष्ट हो चुके
कूड़ा-करकट बन चुके ढेर से

जहां से शिष्ट लोग नाक दबा कर गुजरते हैं
वहीँ तमाम बच्चे
सुबह से शाम तक
अपनी उम्मीदें बटोरतें हैं

कूड़ा-करकट के इस भीमकाय ढेर में
व्यर्थ चीजों के बीच से ही
मिल जाती हैं अनमोल चीजें अक्सर
व्याकरंणविदों को भी मालूम है
कि अर्थहीन होने के बावजूद
निरर्थक शब्द एक लय रचते हैं


टेलीफोन डाईरेक्टरी

कभी इसमें शामिल होने का एक ख़ास मतलब हुआ करता था
हजारों नामों के बीच महीन अक्षरों में लिखा अपना नाम, पता और
टेलीफोन नंबर देख कर लोग रोमांच से भर जाते थे
महीन से महीन अक्षर भी इतना बड़ा लगता था
जैसे वह शामिल हुए की कद-काठी से बड़ा हो जाता था
टेलीफोन डाईरेक्टरी में शामिल लोग
गर्व से बताते फिरते थे इस उपलब्धि के बारे में उन लोगों को
जो इससे प्रायः गैरहाजिर ही रहते आये थे
घर आये आगंतुकों को दिखाया जाता जरुरी तौर पर वह पृष्ठ 
जिस पर यह जानकारियाँ छपी होती थीं

एक जमाने में स्टेट्स सिम्बल थी
आज जीवाश्मों की तरह ही बची हैं ये टेलीफोन डाईरेक्टरियाँ 

समय बीता और अब तो हर हाथ आ गए मोबाईल
यही नहीं हर अंगुली तक का अब अपना नम्बर
आखिर कोई कहाँ तक शामिल करता इन नंबरों को किसी टेलीफोन डाईरेक्टरी में

लेकिन बात यही नहीं महज
कुलीनों को भला कैसे बर्दाश्त होता उनका साथ
जो जाने जाते हैं आज भी ठेले वाले, कबाड़ी वाले और सफाई वाले के नाम से 
उनके नाम भी तो उनके लिए इतने अस्पृश्य कि
उनसे संक्रमित होने का खतरा बना रहता बराबर

लेकिन इसकी परवाह उन्हें कहाँ जो लम्बे अरसे तक उगाते रहे अपने खेतों में बाँस
इसकी खबर उन्हें कहाँ जो कारखानों के दमघोटूं माहौल में आजीवन बनाते रहे लुगदी
और जिनकी सारी सफेदी करीने से चुरा ले गया कागज़

इसकी परवाह उन्हें भी कहाँ जो स्याही की कालिख से लगातार बने रहे बदरंग 
और उनके हाथों की बनी स्याही रोशनाई बन कर चमकती-दमकती रही कागज़ पर
नाम, पते और नम्बर के रूप में

अब उन सबके हाथों में नंबर है बिल्कुल अपना
जिससे वे देश-दुनिया की बातें करते हैं धड़ल्ले से
इस से बेफिक्र हो कर कि
किसी जमाने में एक टेलीफोन डाईरेक्टरी भी हुआ करती थी
वह टेलीफोन डाईरेक्टरी अब दफ्न है अपने कब्र में 

जिस दुनिया में तमाम विशेषाधिकार सिमट जाते हैं महज कुछ लोगों में 
जिस दुनिया की डाईरेक्टरी में जब अंट पाते हैं कुछ चुनिन्दा नाम ही
उन्हें जीवाश्म बनने से नहीं रोका जा सकता 
वह दुनिया तब्दील हो ही जाती है टेलीफोन डाईरेक्टरी में
आखिरकार एक दिन


 
पासंग

पत्थर का यह छोटा सा टुकड़ा
जो तराजू के एक पलड़े पर
मौजूद रहता है हमेशा
बटखरे के बगल में
अपने-आप में कोई बटखरा नहीं

जब तराजू के पलड़े असन्तुलित हो
बेमानी करने लगते हैं
बटखरे भी जब उद्धत हो मनमानी करने लगते हैं
तब यह पासंग ही होता है
जो आगे बढ़ कर रोकता है
इनकी बेमानी-मनमानी

अपने-आप में इनका कोई तय आकार नहीं कोई आकृति नहीं
अपने-आप में इनकी कोई निश्चित तौल नहीं 
खराब पड़ी टार्च-बैटरी या ईंट-पत्थर के टुकडे भी बन सकते हैं पासंग

अपने निहायत छोटे आकार-प्रकार में भी
ये तौल को एक तुक-ताल में ढालते हैं
पस्त पड़ चुके सच में फिर जान डालते हैं
और बेराह हो चले जमाने को ढर्रे पर लाते हैं

बेरंग पड चुकी जिंदगी में
बार-बार भरते हैं उल्लास के रंग
यही बेरूप-बेआकार पासंग    


परिवहन निगम की बस में सांसद-विधायक सीट

परिवहन निगम की बस में यात्रा करते हुए आपने भी देखा होगा 
कि एक समूची सीट के उपर दर्ज होता है यह
‘माननीय सांसद/विधायक के लिए’

इतने दिनों की यात्रा में मुझे कभी नहीं दिखाई पड़े कोई माननीय
बस में अपने लिए आरक्षित सीट पर बैठ कर यात्रा करते हुए
परिचितों ने भी नहीं देखा कभी यह अजूबा
फिर किस बाध्यता के तहत जारी है यह पाखण्ड आज तलक?

क्या यह मखौल नहीं है इस देश की जनता के साथ
जिसे इस भ्रम के साथ जिन्दा रखा जाता है
कि हो सकता है कि कभी कोई माननीय आ ही जाए
और उन पर सनक सवार हो जाय बस यात्रा की
जबकि सबको पता है यह सच्चाई
कि आज का एक ग्राम-प्रधान भी चुनाव जीतने के बाद
लक्जरी गाड़ियों से ही चलना पसंद करता है
फिर माननीय तो ठहरे माननीय
उनका क्या कहना

पहले आओ पहले पाओ की तर्ज पर बस में आते हैं यात्री
और पूरे इत्मीनान से बैठ जाते हैं उस सीट पर
जो माननीय के नाम पर दर्ज होती है
उसे पता होती है यह बात कि अगर गाहे-बगाहे आ ही गया कोई माननीय बस में
तो उसे तत्काल ही खाली करनी पड़ेगी वह सीट
लेकिन उसे यह भी पता है कि ऐसी अनहोनी संभव ही नहीं
भले ही दूध से पानी की एक-एक बूँद को अलगा दिया जाय
और चलनी में से एक भी बूँद पानी न गिरे

चलिए, एक मिनट के लिए मान ही लेते हैं
कि भूले-भटके आ ही गया अगर कोई माननीय बस में
तो एकबारगी बस में बैठा कोई भी यात्री यकीन न कर पाएगा 
और पूरे भरोसे के साथ उनके माननीय होने पर सन्देह करेगा 
हो सकता है बस के समूचे यात्री उन्हें कोई फरेबी समझे
और उन्हें उतार दे जबरिया बस से तत्काल ही
और अगर बैठ ही गए माननीय किसी तरह अपनी सीट पर
तो पूरे रास्ते लोग उनके बचकानेपन की खिल्ली उड़ाएँ
और फुसफुसाते हुए ही सही ये बाते करें आपस में
कि कैसा सांसद-विधायक है यह बेचारा
जो आज तक अपने लिए एक गाड़ी की व्यवस्था नहीं कर सका
वह अपने क्षेत्र की जनता के लिए व्यवस्था क्या ख़ाक कर पायेगा 

लेकिन यह भी क्या मानना कि माननीय आएंगे
और निहायत अकेले होंगे
उनके साथ न तो कोई अंगरक्षक होगा
न ही कोई समर्थक या फ़ौज-फाटा
हो सकता है कि वे जब सदल बल आएँ तो उनके लिए पूरी बस भी पर्याप्त न पड़े
और भीड़ इतनी हो कि उनके साथ के अति महत्वपूर्ण लोगों को खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़े 

इसलिए इस सोच के फलीभूत न होने में ही भलाई है बस यात्रियों की
बसें केवल यात्रियों को ढोने के लिए हैं
और ध्यान रहे यह
कि माननीय यात्रा करते हुए भी यात्री नहीं होते कभी
वे सिर्फ और सिर्फ माननीय होते हैं
इसलिए वे बस में नहीं चलते कभी

यही तो करिश्मा है हमारे लोक तंत्र का
कि लोक अलग रहता है तंत्र अलग
दोनों चुनाव के वक्त बेर-केर की तरह एक जगह होते हैं महज दिखावे के लिए
बाकी समय लोक जद्दोजहद करता है
और तन्त्र अय्यासियों में लीन रहता है
अब बस यात्रियों को ही ले लीजिये
जो कंडक्टरों और ड्राईवरों की मनमानी में
अभिशप्त होते हैं पूरे का पूरा किराया चुका कर खटारा बसों में 
पसीने से लथपथ हो समय-कुसमय चलने के लिए
जबकि यह जानने के बावजूद कि
भूलकर भी नहीं करता कोई माननीय
आज के समय में बस से चलने की भूल
उनके नाम बिलावजह आरक्षित कर दी जाती है एक पूरी सीट

क्यों न माननीयों के लिए जरुरी कर दिया जाय कि
वे भी अपनी कुछ यात्राएँ करें आम लोगों की तरह ही
टिकट कटाएँ अपनी जेब से पैसे दे कर
बस भरी होने पर खड़े हो कर यात्रा करें
ताकें आम लोगों की तरह ही
कि कौन सी सीट खाली होने वाली है अगले मुकाम पर
और फिर उस पर बैठने की जुगत करें
बकाया रूपया मांगने पर कंडक्टर खुदरा न होने का बहाना बना कर
डकार जाए बाकी सारा रूपया 

मैं पूरे मन से मनाता हूँ
कि माननीय की इस बस यात्रा में बस एकाध बार पंक्चर जरुर हो
और घुर्र घुर्र कर के रास्ते में दो चार बार रुके जरुर
फिर धकेलना पड़े बस को तभी चले वह आगे
यात्रा करते हुए घिर आये रात और बस के सामने के बल्ब जले ही ना
माननीय को खाने पड़ें हिचकोले औरों की तरह ही
और उन्हें पता चले कि जो सड़क
उनके परिजनों ने सांसद निधि के कोटे से ठेके पर बनवाई थी
उसका नामो निशान ही नहीं कहीं अब
कि यह तो बस के बस की ही बात है
कह लीजिए बस का ही करिश्मा है
जो गड्ढों को भी अपना रास्ता बनाते हुए चलने का दुःसाहस कर पा रही है

एक कवि होने के नाते
अपने तमाम तकलीफदेह बस यात्राओं के अनुभव के आधार पर
अपनी जनता के पक्ष में लोकतन्त्र के भरोसे के लिए
इस तरह सोचने का जोखिम उठाता हूँ 
यह जानते हुए भी
कि माननीयों के बारे में ऐसा सोचना भी
ताजिकिराते हिन्द की किसी न किसी दफ़ा के अंतर्गत
संगीन जुर्म की श्रेणी में जरुर आता होगा 
*** 

सुशील कुमार शैली की कविताएं

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मैं कविता के तो नहीं पर उम्र के उस पड़ाव पर हूं, जहां से किसी कवि को नौउम्र कह सकता हूं। सुशील कुमार शैली ऐसे ही कवि हैं, जिनकी कविताएं ई-मेल से मिलीं। इन कविताओं में एक जाहिर रोष है, परिवार और समाज के रूपकों में बंधी बेबाक प्रतिक्रियाएं हैं और वह अनगढ़ता है, जिससे नएपन की ताज़ी महक आती है। मैं ऐसे कवियों को अपेक्षाओं के भार से मुक्त रखना चाहूंगा। देखते हैं समय के साथ इन कवियों का विकास किस दिशा में होता है। सुशील का अनुनाद पर स्वागत है। 
  
पालतू

यहाँतकमैंनेजानाहै
तुम्हारीहरकतोंमेंएकपालतूसाओछापनहै
जोमूतनेकेचयनकेलिए जगहोंकोसूंघताफिरताहै
जहाँभीउसेकोईटुकड़ामिलजाताहै
वहींपूछहिलानेलगताहै,

सुबहकीसैरकेवक़्त
गलेमेंपट्टालिए
बड़ेइत्मिनानसेआगे-आगेचलताहैकि
मैंपथप्रदर्शकहूँ
इसबातसेअनभिज्ञकि
इसीमानसिकताकेकारण
उसकेदुमहै

किवाड़परठुकीकील 

बालोंपरखिज़ाबलगाकरभी
चेहरेकीझुर्रियोंसे
मेरेबाबाकेइतिहासकापता
चलहीजाताहै
मुझे
किइसअवस्थामें
यौवनकीवोइच्छाएँपूरीकररहेहैंवो
जोकहींपगडंडियोंपरधूपमें
गठड़ीउठाएसूखकरतिल
होजायाकरतीथी,

उनकेचेहरेऔरमेरेचेहरेमेंसिर्फ
झुर्रियोंकाहीअंतरहै
परफिरमैंउनकीइच्छाओंको
जीयनहींपारहा

स्वप्नोंसेपल्लाछुडवाकर
घरसेनिकलआताहूँ
किवाड़परठुकीकीलछोड़,

अकसरचुरातारहताहूँनिगाहें
घरमें, घरसेबाहरप्रश्नाकुल
दृष्टियोंसे। 


संस्कृतिकेउजालेमें

अनभिज्ञनहींहोतुम
इसबातसेकि.........
सामनेवालीदीवारपर
प्राकृतिकचित्रबनाडालनेकीसांत्वनामें
तुमनेयुगों-युगोंसेउसेजो
देवदासीकेरूपमें
अपनेप्रभुकेसहवासमेंरखा
अजंताकीगुफाएं, उसकीगवाहहैं,

पुरात्तवकेअन्वेषक
इसखोजमेंलगेहैंकि....
कहीं--कहींसेवो
हस्तलिखितप्रतिमिलजाए
जिससेहमअपनेपौराणिककृत्योंकोउचितठहरासकें,

अधिकारियोंनेसांस्कृतिकआँखकेकोरसेजब
मिट्टीमेंदबीपुरुष-स्त्रीकेअर्द्धयुगलकीमूर्तिखोज
निकाली
औरघोषणाओंकाएकदौरशुरूहुआ
आधाभागहोनेकेकारण
उसेशेषप्रभुत्तवभागपरनिर्भरहोनाहोगा

सामनेकीदीवारउकरेचित्रको
पूरीसौम्यताकेसाथ
नाभिकेऊपर-नीचे
दोभागमेंबाँटदिया,
यहींसेअहिल्याकभीपाषाणयुगसेबाहरझाँकसकी
***


जीवनकीइसअवस्थातक

जीवनकीइसअवस्थातक
मैंनेसारेशब्दोंकोहू--हूवैसेहीलिया
जैसातुमनेलिखकरदियासलेटपरमुझे
जब, पहलीबारमैंनेपूछाअर्थ, तो
रेतपरलिखलोकतंत्र
बैठादियामुझे, हवाओंसेरक्षाकेलिए,

नागरिकताकेकेंद्रमें
पूरीनिष्ठाकेसाथमैंनेचाहा
अबकिसीकास्वप्नअनचाहीमौतमरेगा
दूरतकफैलेआकाशपर
सबकासमानअधिकारहोगा
लेकिन, मैंनेदेखा-
मैंबाहेंफैलाएबैठारहा, निष्ठाकेसाथ
औरसारेआकाश, समस्तधरापर
उसनेअधिपत्यजमालिया,

उसदौरमेंपहुँचचुकाथामैं
जहाँजीवितरहनेकेलिएकिसी--किसीआधारकीआवश्यकताहै
अपनेअस्तित्वकोबनाएरखनेकेलिएबैंकखाताजरूरीहै
जहाँजीवनऔरमृत्युकोएकजैसीछूटहै

उमरकीइसअवस्थातक
जहाँज़िंदारहनेकेलिएअपनीपरछाईकोक़त्लकरनापड़ताहै
औरअपनेअस्तित्तवकीतरफपीट्ठकरके
भाषाकीबहसमेंशामिलहोनापड़ताहै,

,
उमरकीइसअवस्थामें
जबमुझेआँखोंसेकमदिखाईदेनेलगाहै
औरकानोंसेकमसुनना
तोमुझेलगताहै -
मेरेसामनेसबकुछस्पष्टहो
गयाहै
किशब्दोंकोलिखदेनेसेउनकाअर्थनहींनिकलता
रेतसेनिर्मितभवनज़्यादादेरतकनहींठहरता
जीवनकीइसअवस्थामें
दुर्घटा-ग्रस्तहोते-होते
मुझेपताचलचुकाहैकि
आदमीकासत्यकभीकाइश्तिहारनहींहोता
औरसड़कपरफैलाअसंतोषकभीबाजूओंपरबंधेकालेफीतोंसेआगेनहीं |



सुशीलकुमारशैली
जन्मतिथि-02-02-1986
शिक्षा-एम.(हिंदीसाहित्य),एम.फिल,नेट|
रचनात्मककार्य-तल्खियाँ(पंजाबीकवितासंग्रह),
सारांशसमयका,कविताअनवरत-1(सांझासंकलन)|
कुम्भ,कलाकार,पंजाबसौरभ,शब्दसरोकार,परिकथापत्रिकाओंमेंरचनाएँप्रकाशित
सम्प्रति-सहायकप्राध्यापक,हिन्दीविभाग,एस.डी.कॅालेज,बरनाला
पता-एफ.सी.आई.कॅालोनी,नयाबसस्टैंड,करियानाभवन,नाभा,जिला-पटियाला(पंजाब)
147201
मो.-9914418289
.मेल-shellynabha01@gmail.com

सत्यनारायण पटेल का उपन्यास 'गांव भीतर गांव' : ओम प्रभाकर

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मुझे यक़ीन है कि पानी यहीं से निकलेगा
गाँव भीतर गाँव


बरसों पहले ग्वालियर रेड़ियो के निदेशक ने मुझसे पूछा था, ‘ ओम जी आपकी ये कविता क्या शासन के ख़िलाफ़ है ?
मैंने कहा था, ‘ जी, नहीं ! ये कविता आज की सारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ है ।
ठीक है । आप रिकार्डिंग करवा दीजिए ।
ये छोटी-सी घटना मुझे सत्यनारायण पटेल के अव्वलीन उपन्यास गाँव भीतर गाँव को बाक़ायदा पढ़ाने के बाद अचानक याद आ गई कि ये मुख़ालिफ़त, ये विरोध और वो भी सारी व्यवस्था से आख़िर कुछ लोगों के अंदर क्यों अड्डा जमा के बैठ जाता है- सत्यनारायण पटेल की तरह । इस किताब से पहले उनकी कहानियों की भी तीन किताबें आ चुकी हैं । इन में से पहली भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान को लेकर मैंने ऎसी ही कुछ बातें कही थीं । तब भी मैंने रेखाँकित किया था कि विरोध- जो है उसका अस्वीकार, सत्यनारायण पटेल के मनोजगत का एक स्थायी भाव है । यहाँ यह भी साफ़ होनी चाहिए कि ये विरोध क्या सिर्फ़ असन्तोष है, अपने जीवन जगत और उसके प्रबंधन से ? अगर ऎसा है तो प्रबंधन या व्यवस्था यत्किंचित अनुकूल हो कर उस असंतोष को संतोष में तब्दील कर सकती है ।
लेकिन अगर ऎसा नहीं है तो रचनाकार के  ‘ स्टेण्ड पर यक़ीन करना उचित ही है, और वो भी तब जब उसकी रचना की मुख्य भाव, विचार और उसके पात्रों की कर्म धारा भी उसके साथ खड़ी हो ।
सत्यनारायण पटेल की एक और वृति पर शुरू से मेरा ध्यान है कि वह नया ’ ‘ आधुनिकया अद्भुत ’  नहीं होना चाहता। उसकी रचना की रगों में घुल-मिल कर बहता ग्राम्य जीवन उसे जो आन्तरिक ऊर्जा प्रदान करता उसी को वो अपने पूरे सृजनात्मक कला-कौशल के साथ शब्दों में प्रकट कर देता है ।
गाँव भीतर गाँव को पढ़कर इसके बारे में, न जाने क्यों, मेरे भाव-विचार किसी एक क्रम में नहीं जागते। कभी उसकी विषय वस्तु, कभी उद्देश्य आदि को छूते हुए इधर-उधर घूमते रहते हैं । जैसे, अभी मेरा  ध्यान गया कि किताब का नाम कैसा है, ‘ गाँव भीतर गाँव । अब लेखक से कोई कहे कि गाँव भीतर गाँव नहीं होगा तो क्या ताजमहल या सोमनाथ का मंदिर या अजमेर वाले ख़्वाजा साहब की दरगाह या कि राम लला का तंबू वाला चबूतरा होगा?    लेकिन नहीं, सत्यनारायण पटेल का ये पहला उपन्यास है और लेखक एक मेहनती, ईमानदार और समर्पित कथाकार है, तो उसने यों ही तो ये नाम नहीं तय किया होगा ! यहाँ मैं रुक गया और किताब के मुखपृष्ठ को फिर देखा तो पाया कि ऊपर गाँव के नीचे लिखा है भीतर गाँव यानी गाँव की इस कहानी को आप पढ़ लीजिए, तो आपको देश के लगभग सभी गाँवों की सत्य कथा की जानकारी हो जाएगी। मालवा के इस एक अनाम गाँव की हक़ीक़त जान कर आप इस महादेश के तक़रीबन सभी गाँवों की असलियत जान सकते हैं कि आज देश के  लगभग सभी गाँव किस तरह मरते-मरते जी रहे हैं । यह भारतीय गाँव का मुकम्मिल आइना है । मुकम्मिल चलचित्र । इसमें किसी भी गाँव की ( बहुत कम ) अच्छाइयों और ( बहुत ज़्यादा ) बुराइयों देखा जा सकता है । सभी एक समान दुःखी, निस्सहाय, मरने की राह देखते हुए जीवित रहने की जद्दोजहद करते हुए । अपने मन, विवेक, चरित्र और आत्मा को कुचलते हुए आज के भारत के सभी गाँव एक जैसा अमानवीय जीवन व्यतीत करने को विवश हैं- ये गाँव भीतर गाँव के अनाम गाँव को अपने जिस्मो जाँ को पूरी तरह बेपर्दा किए हुए आप देख सकते हैं ।
मैंने गाँव भीतर गाँव को देश के लगभग सभी गाँवों का आइना कहा है; तो ज़रा इस आइने की एक विचित्र त्रासदी भी देख लीजिए- वक़्त ने रख दिया आईना बना कर मुझको / रू-ब-रू होते हुए भी मैं फ़रामोश ( विस्मृत ) रहा ।’  आप जब आईने के सामने होते हैं तो ख़ुद को देखते हैं- आईने को भूल जाते हैं और यही आइने की त्रासदी है और यही तब भी होता है जब आप राजधानी से गाँवों को देखने निकलते हैं तो जो आइना आपके सामने पेश किया जाता है वो वैसा ही होता है जैसा आप चाहते हैं और उसमें वही दिखता है जो उसके सामने होता है- यानी आप , गाँव आईने के पीछे रह जाता है ।
आज के लक्ष्यभ्रष्ट, तीव्र गति और ऊबड़खाबड़ समय में वह देखना पूर्णतः निषिद्ध है जो ग़लत और गिरा हुआ है और अगर उसे कोई देखता है, उस पर उँगली उठाता है या उसका सकर्मक विरोध करता है तो पहले तो उसे चींटा मान कर लालच का गुड़ दिखाया जाता है और अंततः मच्छर मानकर मसल दिया जाता है।
मैं कई सालों से सत्यनारायण पटेल को लिखते-पढ़ते देख रहा हूँ। अभी तक उसकी कहानियाँ मेरे ज़ायके में आती रही और अब ये उपन्यास आया है जो कथा-रचना की सारी बुनियादी शर्तों को जाने-अनजाने निभाता हुआ अपने शाब्दिक शरीर के अन्दर भी कितना गतिशील और कड़क है- इसका अनुभव तो इसके वाचन से ही प्राप्त हो सकता।
सत्यनारायण पटेल का यह उपन्यास गाँव भीतर गाँव निराला और नागार्जुन के ठोस उपन्यासों का आधुनिक संशोधित और परिष्कृत संस्करण कहा जा सकता है ।
कथा-कहानी या उपन्यास की पहली शर्त है उसकी चित्ताकर्षकता कि वो पाठक को शुरू से ही पकड़ ले कि पाठक मुतवातिर बेचैन रहे कि आगे क्या ? गोकि कथा-कहानी की ये शर्त बड़ी पुरानी है, लेकिन कारगर आज भी है कि हमारे पिता का नाम और पद बहुत पुराना है लेकिन कारगर आज भी है। हिन्दी-उर्दू के जिन बुज़ुर्ग कथाकारों को पढ़कर हम कुछ सीख-समझकर बड़े हुए हैं, उनमें से किसी ने भी इस शर्त की अनदेखी नहीं की। मैं साधुवाद देता हूँ सत्यनारायण को कि उसने इसे पूरी शिद्दत के साथ निभाया।
पुरखों का ये वचन जो पुरानी किताबों में सुरक्षित है कि कहानी किसी भी देश-काल में किसी भी दशा में अंततः कहने की कला है और वह भी कलातब जब उसका स्रोता इस शाम से अगली सुबह तक उदग्र और उत्कर्ण बैठा रहे।  ‘गाँव भीतर गाँवका पूरा वजूद इस बात का प्रमाण है कि लेखक ने पुरखों के इस वचन का सांगोपाँग निर्वाह किया है ।
मेरी नज़र में अदबी चीज़ें दो तरह से अस्तित्व में आती हैं। पहली लिखकर और दूसरी रचकर। लिखना केवल शब्दों की उचित और आकर्षक क्रमबद्धता से होता है । यह थोड़ी बहुत कल्पना ज़रा-सी अपनी सोच और तक्नीकी मदद से भी मुमकिन है। लेकिन रचना में ज़रूरी चीज़ें तो रहती हैं, लेकिन उनका देश-काल, विषय-वस्तु, उपकरण, संदेश और रचना क्रम की कालिक स्वतंत्रता भी होती है।  ‘ रचना के लिए कोई नियम-विधान नहीं है, जबकि लिखना बहुत कुछ हुनर, कौशल, क्राफ़्ट के नज़्दीक होता है। रचनाको भावनाओं का अप्रतिहत प्रवाहभी कहा गया है । ऎसी स्थिति में गाँव भीतर गाँवपर जब फिर नज़र डालते हैं तो यह आश्वस्ति सहज ही मिल जाती है कि इस कथा को सही अर्थों में रचागया है।
बीते वक़्तों हमारी अम्माओं के द्वारा घर की किसी विशेष दीवार पर डेढ़-दो हफ़्ते पहले रचनाशुरू की गई करवाचौथके नक़्श अगले साल की करवाचौथ तक तो दीवार ही पर रहते थे- थोड़े धुँदले ही सही- लेकिन वे लिखनेआने वाली कई पीढ़ियों की अम्मीओं के ह्रदय पटल पर लिख नहीं रच जाते थे। गाँव भीतर गाँवसत्यनारायण पटेल ने लिखा तो दो-एक ही जगह है, रचा बड़े मन से पूरा उपन्यास है ।
गाँव भीतर गाँवमेरे ख़याल से विगत कई दशकों से चली आई कदाचार के कोढ़ से ग्रस्त समाज-व्यवस्था को वैयक्तिक और सामूहिक प्रयासों से बदलने या ठीककरने की प्रमाणिक और जीवित कथा-रचना है।
यह हो गया है या लेखक ने सायास किया है कि आज जब हर कौने-अँतरे से नारी-अस्मिता और स्वतंत्रता और नारी सशक्तिकरण की आवाज़े उठ रही हैं और इन्हीं आवाज़ों के शोर में आज जब नारी का सर्वाधिक दैहिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक क़त्लेआम किया जा रहा है  तब सत्यनारायण पटेल ने अपने उपन्यास में एक दलित, निरीह, विधवा और निर्धन स्त्री झब्बू को रचना के केन्द्र में रखा है।
अपनी पुरानी किताबों में हर युवा नारी को उस युग की कृत्या शक्ति बताया गया है कि उस युग की सारी घटनाएँ उसी से उत्पन्न होकर अंततः उसी में विलीन हो जाती हैं। लिखा है कि सतयुग की रेणुका, त्रेता की सीता और द्वापर की द्रौपदी कृत्या शक्ति थीं। इस हिसाब से जो भी युग गाँव भीतर गाँवमें है, उसकी कृत्या शक्ति झब्बू है- एक दलित, विधवा, निरीह शोषित और निर्धन औरत कि उपन्यास की सारी घटनाएँ उसे से निस्सृत होकर अंततः उसी में विलीन हो जाती हैं ।
झब्बू का पति कैलास हम्माल है। गाँव की सोसायटी के लिए ज़िला मुख्यालय से खाद की बोरियाँ लाते हुए ट्रैक्टर ट्रॉली पलट जाने से बोरियों के नीचे दब कर मर जाता है और बाकी रह जाती है उसकी पत्नी झब्बू और पुत्री रोशनी। ऎसी हालत में पास के शहर से झब्बू के बूढ़े माँ-बाप अपनी बेटी और नातिन को अपने साथ ले जाते हैं। कुछ महीने झब्बू मायके में रहती है। वहीं की उसकी सखी की मदद से वह कपड़े सिलने का काम अच्छी तरह सीख लेती है और अपने माँ-बाप पर ज़ोर डाल कर वापस अपने ससुराल आकर अपना झोपड़ा आबाद कर लेती है।
झब्बू की निजी सोच यह है कि जहाँ मेरा बिगाड़हुआ है- मैं वहीं अपना और अपनी बेटी का बनावकरूँगी। और ये सोचभी क्या- एक ज़िद है-हठ और भी त्रिया हठ। लेकिन यही एक सवाल भी सर उठाता है  लो एक दलित, ग़रीब, बेसहारा और अकेली ग्रामीण स्त्री की त्रिया हठके फली भूत होने की क्या थोड़ी भी सम्भावना आज के इस अतिप्राचीन सँस्कृति वाले जगद गुरू रहे महादेश में सम्भव है ? ‘ गाँव भीतर गाँवका रचनाकार कहता है- नहीं। आज के भारतीय समाज में नारी-स्वातंत्र्य और सशक्तिकरण की जितनी और जहाँ से भी आवाज़े उठ रही हैं, उससे कहीं ज़्यादा नारी को हर स्तर पर अपमानित किया जा रहा है और एक राजनैतिक दुरभिसंधि के अन्तर्गत जिस अनुपात में सामाजिक कदाचरण बढ़ते जा रहे हैं, उसी अनुपात में पंचायत से लगायत लोक-सभा तक में उनके विरुद्ध ऊँची से ऊँची आवाज़ में भाषण दिए जा रहे हैं और आज ग़लतऔर सहीबड़े आराम से ख़रामा-ख़रामा किसी एक ही ठण्डी सड़क पर टहलकर कट रहे हैं ।
सत्यनारारायण पटेल की अब तक कथा-रचनाओं से ये तो सिद्ध हो गया है कि वह कोई बाय द वे कहानीकार नहीं है । उसका अपना कमिटमेंट है-  समाज के प्रति और अपने भी प्रति। ऎसी स्थिति में उसके कथा-पात्र शहीद तो हो सकते हैं, लेकिन हताश होकर या उठ कर एक तरफ़ बैठ जाना उनके लिएू असम्भव प्राय है। उसकी कथा-नायिका झब्बू जितनी उसमें बची है- अपनी अंतःशक्ति- को समेटती है और गाँव की अपनी जैसी निरीह और दलित औरतों को अपने इर्द-गिर्द इकट्ठा करती है- सिर्फ़ जीवित बने रहने के लिए संघर्ष हेतु। झब्बू का सोचना है कि इस बस्ती में मेरे जैसे भी होंगे दो-चार आदमी /  जीवन से बेज़ार ऊबे हुए आदमी, जीने को तय्यार आदमी। जो लोग उपलब्ध जीवन से प्रतिपल बेचैन और असंतुष्ट होते हैं, लेकिन फिर भी ज़िन्दा रहने के लिए रात-दिन सँघर्ष करते रहते हैं, ऎसे लोग वे कहीं भी हों- एक सुप्त ज्वालामुखी होते हैं। कभी भी फट पड़े। और सत्यनारायण की इस कथाकृति में ऎसा ही होता है ।
झब्बू अपनी जैसी ही दो-चार ज़िन्दा औरतों के सहयोग से गाँव के बीचोंबीच खुली दबंग जाम सिंह की कलारी हटवा देती हैं। यानी अत्याचार सहने के विरुद्ध उठ खड़े होने और डटे रहने की मारक शक्ति में तब्दील कर लेती है। रामरति आदि को समझा कर हाथों से पाखानों की सफ़ाई के पारम्परिक जातिगत पेशे को बंद करवा देती है। झब्बू अपने धीरज और हिम्मत के अलावा अपनी जैसी निस्सहाय औरतों के सहयोग से गाँव में इतना बदलाव ला देती है कि पड़ौसी ज़िला मुख्यालय से सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक कदाचरण में पूर्णतः दीक्षित जाम सिंह, अर्जुन, गणपत, शुक्ला जी और दुबे मास्टर भी ठिठक कर विचार करने लगते हैं कि इस अधम औरत से कैसे पार पाएँ ?
शहरों का दस शीश और बीस भुजाओं वाला कदाचरण किस तरह गाँवों में संक्रमित में होता है- सत्यनारायण ने उसकी सूक्ष्मता को बड़े कौशल से उजागर किया है। ये उपन्यास आज के भारतीय समाज की एक अनिवार्य त्रासदी की बड़े जीवंत और रोचक ढंग से उजागर करता है, और वो त्रासदी है भारतीय गाँवों की निजी और विशिष्ट जीवन शैली का क्षरण उसके एकमएक सामाजिक शरीर में पड़ती हुई दरारें ।       
 कई सालों से हो ये रहा है कि शहर की बदकारियाँ गाँव के कुछ सवर्ण-समर्थ लोगों द्वारा इधर लाई जाकर गाँव के दीन-हीन दलितों, शोषितों के ज़िस्मों में बचे रह गए ख़ून को चूसने में लागू की जा रही हैं। इसमें भी विडम्बना ये है कि ऎसे कुकृत्यों में कुछ दीन-हीन भी शामिल रहते हैं । नहीं रहें तो भूखे मर जाएँ। झब्बू का सीमांतक शरीर शोषण आख़िर जाम सिंह के कहने पर उसके हम्माल ही तो करते हैं ।
सालों-साल से अभावों से जूझता और रुढ़ियों को ढोता गाँव जब पड़ौसी शहर की संगत में आता है तो जैसे करेला नीम चढ़ जाता है। कुछ तो गाँव की अपनी रितियों-रुढ़ियों का पारम्परिक कड़वापन था ही, और अब तो शहर की लम्पटता धोखा धड़ी, हिंसा, पुलिस, कचहरी, वकील, गवाह सबूत आदि ग्रामीण समाज को सत्यनाश से धकेल कर साढ़े सत्यानाश में ठेल देती हैं। ये भूखे, नंगे गाँव अंततः असहाय शारीरिक और मानसिक पीड़ा से पराजित हो कर पेट भरे सफ़ेद कपड़े वालों के शिकंजे में फँस ही जाते हैं और भूख, बीमारी, या आत्महत्या से मरने तक मुक्त नहीं हो पाते और उत्तर काण्ड में यह होता है कि उनके झोपड़े में जो जीव या वस्तु  उनके बाद शेष रह जाती है, वह भी उन्हीं सफ़ेदपोशों की सम्पति बन जाती है । और ये सामाजिक अनुक्रमणिका सदियों से आज तक बदस्तूर उसी तरह चल रही है; गोकि हमारे देश और बाहरी मुल्कों में कई भीमकाय क्रांतिकारी चिंतक हुए, किसी एक सामाजिक हित को लक्ष्य बनाकर जीवन भर ख़ुद की… ..  ख़र्च करते रहे और एक दिन अंततः चले गए । जब तक को रहे कुछ होता हुआ सा लगा- सिर्फ़ लगा। बाद में उनके चरण चिन्ह शायद किसी बियाबान वनखण्ड में ही छिपे रहे होंगे।
बुद्ध, महावीर, गोरखनाथ, कबीर, गाँधी, गोखले, दयानन्द, सुभाष, नेहरू, इन्दिरा, लोहिया, जेपी, वीपी सिंह- किसने कोशिश नहीं की इस देश को सही, सहज और सरल, सीधा बनाने की- विनोबा तो अपनी पूर्णाहुति दे गए। लेकिन इस देश के चेहरे का एक भी नक़्श बदला ! हाँ, बदला कि आँख, नाक, कान और ज़ुबान पूर्णतः अमानवीय हो गए ।
चुनाव होते रहे। नतीजे आते रहे । जनता तरह-तरह के  स्वाँग-तमाशे देखती रही और मन ही मन में कहती रही- अभिशापित भूमि। यहाँ कभी कुछ नहीं होगा। चाहे जितने दधीच। अस्थि-बीज बो जाए।’’
ये एक नज़रिया है जिससे आज के भारतीय समाज को कुछ लोग देखते हैं। लेकिन सिर्फ़ यही नहीं है। एक नज़रिया और है- वतन की रेत मुझे एड़ियाँ रगड़ने दे । मुझे यक़ीन है पानी यहीं से निकलेगा । ‘‘ यानी यहीं ’’ से पानी निकालने की ज़िद पर अड़े लोग भी अभी यहाँ हैं।
मुझे थोड़ा आश्चर्य होता है कि सत्यनारायण पटेल जैसा प्रतिबद्ध लेखक जहाँ एक और झब्बू जैसी दलित, शोषित परिवर्तन के प्रतीक रूप में तय्यार करता है, वहीं उसे ख़ुद को बनाए और बचाए रखने की सामंजस्य कला भी सिखा देता है। यह बात मेरे गले नहीं उतरती। इन्किलाबी तो पूरा बदलाव लाता है या शहीद हो जाता है, जैसा कि अंततः झब्बू के साथ किया या हो जाता है कि पड़ौसी महानगर से लौटते वक़्त गाँव की सीमा पर ही उसकी गाड़ी को ट्रक से उड़ा देता है। इस तीन सौ बीस पृष्ठ के उपन्यास में आज के भारतीय गाँव के जितने पहलू पृष्ठ दर पृष्ठ खुलते जाते हैं, उन्हें उनकी पूरी शक़्लो-सूरत और ख़ूबियों के साथ देख पाना एक विचलित कर देने वाला अनुभव हो सकता है।
आज के भारतीय गाँवों में जो अच्छा ( कम ) और बुरा ( ज़्यादा ) सक्रिय है वो सिर्फ़ गाँव का नहीं, राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में से ही है। मेरा ख़याल है कि भारत-भारती के कवि मैथिली शरण गुप्त इन दिनों जिस भी लोक में होंगे कम से कम अपनी ‘‘ ग्राम्य-जीवन’’ कविता पर तो अवश्य शर्मिन्दा होंगे- ‘‘ अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे। थोड़े में निर्वाह यहाँ है.. यहाँ शहर की बात नहीं है। अपनी-अपनी घात नहीं है
आज का भारतीय गाँव केवल अपनी रुढ़ियों, परंपराओं और निरीहता से ही परेशान और दुखी नहीं है, शहरों की कतिपय बदकारियाँ, मक्कारियाँ भी दबे क़दमों गाँवों में दाखिल हो रही। हो चुकी हैं और इन में सब से सफल और सुशोभित अय्यारी है- एनजीओ।
एक एनजीओ कर्मी रफीक़ भाई, जब अख़बार में ख़बर पढ़ता है कि अमुक गाँव में कुछ औरतों ने एकमत हो शराब की दुकान बंद करा दी है और गाँव में बेचैनी और ग़ुस्सा है। बस, इतना बहुत है। रफीक़ भाई उस गाँव पहुँच जाता है। उन दलित स्त्रियों से मिलता है, उनकी हिम्मत की दाद देता है। उनके साथ ज़मीन में बैठ कर चाय पीता है। उन्हें गाँधी, मार्क्स, अंबेडकर आदि के क्रांतिकारी वचन सुनाता है। गाँव में हाथ से मैला साफ़ करने की चली आ रही परंपरा पर बात करता है । उन अपढ़, किन्तु बदलाव के लिए बेचैन औरतों को अपनी समझ बनाने में मदद करता है। उन्हें अपने एनजीओ सम्मान के बारे में बताता है। औरतें रफीक़ भाई को अपना सबसे बड़ा हितैषी मानने लगती हैं। अब रफीक़ भाई जल्दी-जल्दी गाँव आने लगता है। रामरति, झब्बू, धापू, श्यामू आदि को रैलियों में ले जाने लगता है। फिर अपने एनजीओ सम्मानऔर उन औरतों की मदद से उनके गाँव में भी सिर पर मैला ढोने के काम को बंद करने की बात उठती है। रामरति, झब्बू  और रफीक़ भाई आदि की मदद से बंद भी कराया जाता है।  
रफीक़ भाई का एनजीओ धीरे-धीरे काफी नाम कमाता है। रफीक़ भाई को तमाम देशी-विदेशी फंडिंग एजेन्सियों से फंड मिलता है। वह अपने काम को विस्तार भी देता रहता है। उसकी व्यस्तता बढ़ती है। अनेक वजह से उसका गाँव आना भी कम होता जाता है। झब्बू, रामरति, श्यामू आदि जहाँ जैसी थीं, वैसी ही रहती हैं। अपनी छोटी-बड़ी समस्याओं से जूझती। ख़ुद को माँझती।   
अँग्रेज़ों की सल्तनत ख़त्म हुए अड़सठ साल हो गए, हमें आज़ाद हुए-तो शायद ये देखना मुनासिब ही होगा इस लम्बे अर्से में इस स्वतंत्र राष्ट्र में क्या कुछ और हुआ, जो तब नहीं था।   
हुआ-बहुत कुछ हुआ- भौतिक स्तर पर जैसे सड़कें कारख़ाने, पुल, वाहन, स्कूल, कॉलेज, अंतरिक्ष विग्यान में बढ़ोतरी, संचार तंत्र की प्रगति-लेकिन इस सबके होते हुए भी क्या आज तक उन अधिसंख्य भारतीय को पीने का पानी, दो वक़्त का खाना, सर पर छत न सही छप्पर और तन ढाँकने को दो कपड़े मयस्सर हो सके कि जो पुस्तैनी बदहालत में आज भी जैसे-तैसे जी रहे हैं लेकिन देश के लिए खेत जोत-बो रहे हैं, कारख़ानों में मशीन बन कर लगे हुए हैं, सड़कें, पुल, रेल लाइन, बस अड्डे से हवाई अड्डा तक बना रहे हैं-यानी वे देश का सब कुछ बना रहे हैं, सिवा ख़ुद को बनाने के। तो जब वे अपनी सारी अन्तर्बाहय शक्ति देश को बनाने में लगाए दे रहे हैं तो उनकी अन्तर्बाहय शक्ति को बनाए रखने के लिए हमें- आपको एक तरफ़ करके बृम्हा, विष्णु, महेश तो आएँगे नहीं ?
सत्यनारायण पटेल का ये उपन्यास आज के भारतीय गाँव का इतना शर्मनाक और जुगुप्साजनक चित्र प्रस्तुत करता है, जितना जाम सिंह के हम्मालों ने एक साथ अकेली झब्बू के शरीर को नौच-खसोट कर किया। और यही एक मात्र सत्य है कि गुज़रे अड़सठ सालों से देश के छोटे, बड़े, मझोले सभी नागरिक और नेता अच्छी-अच्छी बातें लगातार कर रहे हैं, लेकिन कहीं कुछ भी अच्छा घटित नहीं हो रहा और यहाँ-वहाँ कभी कुछ जनानुकुल हो भी जाता है तो सिर्फ़ चार दिन की चाँदनी के मुहावरे के तहत। ऎसी दशा में यदि कोई कथाकार जो है वो लिखना चाहता है- अपनी पूरी सृजनात्मक ईमानदारी के साथ, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा-बोली की गँध के साथ, अपनी सँस्कृति, अपने देशज रंग के साथ, तो बहुत कुछ सत्यनारायण पटेल की तरह ही लिखेगा- अपनी वैयक्तिता को सुरक्षित रखता हुआ।
हमारे देश के जिन गाँवों ने राजनीति और प्रशासन को अपने गाँव के सीवान से ही वापस लौटा दिया है, वो तो कभी-कभी पुच्छल तारे की तरह या टीवी या अख़बार के पहले पन्ने पर चमक जाते हैं, जब कि जो गाँव राष्ट्र की मुख्य धारा ’  से जुड़ गए हैं उन गाँवों से वे ही फ़ौजदारी और दीवानी मामलात की ख़बरे आती हैं जो महानगर की अपनी शान हैं । अब यहाँ चिंता का विषय यह है कि मरते हुए असली गाँवों को शहरों की सँस्कारविहीन, ईट-ट्रिंक एण्ड बी मैरी वाली सोच-समझ से कैसे बचाया जाए ?    
लगता है ऎसे ही ज़िन्दा और धड़कते हुए सवालों के समाधान स्वरूप सत्यनारायण ने अपने उपन्यास में एक पारम्परिक सर्वहारा स्त्री झब्बू को खड़ा किया है और ऎसा करना उसकी प्रतिबद्ध दृष्टि का प्रमाण है, वरना बड़ा सरल था कि अभिजात्य वर्ग की स्त्री या पुरुष को समाजोद्धार से देशोद्धार के मसीहा के रूप में प्रस्तुत करना। सत्यनारायण पटेल का यह पहला उपन्यास अपने कथानक, संदेश देश-काल, चरित्र भाषा और उद्देश्य की दृष्टि से मुझे पूर्ण आश्वस्तत तो करता ही है, शायद विचलित उससे ज़्यादा ।
इतने सब के बाद भी इस किताब में कुछ ऎसी तस्वीरें हैं जो सब जगह हैं मगर नज़रों या ध्यान से ओझल हैं क्योंकि वे हमारे स्वार्थी जीवन-जगत से थोड़ा परे है।
ग़रीब परवर बन कर दौलत पटेल चार छः दिन पहले विधवा हुई झब्बू के झोपड़े पर जाता है उसकी मदद करने। झब्बू का झोपड़ा एक बहुत बूढ़े नीम के पास था। दो-तीन बार आवाज़ देने पर भी जब झब्बू बाहर नहीं आती तो दौलत पटेल का मूड बिगड़ने लगता है- तभी उसे अपने कंधे पर एक पट्टकी हल्की आवाज़ सुनाई देती है। पट्टकी आवाज़ के साथ गर्दन पर हल्के छींटे भी महसूस होते हैं- जैसे आवाज़ बिखरी हो। पटेल ने अपने कंधे पर देखा और फिर ऊपर डाल पर । वहाँ एक कौआ बैठा काँव-काँव कर रहा था। पटेल को एक पल के लिए लगा कि कौआ काँव-काँव नहीं आँऊ-आँऊ कर रहा है।  कौए की बगल वाली डाल पर बैठा मोर, पटेल और कौए की लाग-डाँट देख हँसने लगा। उसके सामने की डाल पर बैठी दो गिलहरियाँ दौड़ने-फुदकने लगी। वे अपनी चीं चीं और काँव-काँव से अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही थी जबकि दौलत पटेल को लग रहा था कि उसके ग़रीबनवाज़ होने का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। पटेल की बगल में खड़े उनके चमचे को कौए का दुस्साहस बहुत नाग़वार गुज़रा । उसने एक पत्थर उठा कर ज़ोर से कौए की तरफ़ फैंका। कौआ दूसरी डाल पर जा बैठा। गिलहरियाँ ताली बज़ाने लगीं। तभी पत्थर डाल से टकराया- भट्ट। एक गिलहरी बाल-बाल बची। पत्थर के टकराने से डाल हल्की सी काँपी। पत्थर पलटा और तेज़ी से नीचे की ओर आया और  पटेल की दाहिनी तरफ़ खड़े उनके चमचे की कोहनी में आ लगा-कट्टअब देखिए कि ये तस्वीर मज़ेदार भी है और मानीख़ेज भी। इसकी मज़ेदारी तो साफ़ है ही जबकि अपने अर्थों में ये एक सम्पन्न व्यक्ति द्वारा एक विपन्न स्त्री की बची-खुची इज़्ज़त, दीनता और निरीहता को कुछ रुपयों की चमक में और कुचल-मसल देना भी है.., और परिन्दे, गिलहरी इसके ख़िलाफ़ हैं।
इस उपन्यास में ऎसे सुख और दुःख भरे कई दृश्य हैं,  जिनमें गाँव वालों के साथ पँछी-परेवा भी उतने ही दुःखी-सुखी होते दिखाई देते हैं। उपन्यास में जग्गा भी एक अद्भुत चरित्र है। बहुत ही धीरजवान ! और जब उसके दामाद, पत्नी और बेटे की हत्या हो जाती है। उसके बाद तो लगभग मौन ही रहता है। एक विक्षिप्त की सी छवि बन जाती है। सुख-दुःख हो ! या उससे कोई बात पूछो ! हर मौक़े-बेमौक़े नाचने लगता ! अपनी कमर में एक खूँटा बाँधे रखता। जब तब खूँटे को नुकिला बनाता रहता ! लेकिन जब वह  मसान में खूँटा जाम सिंह के पेट में घोंप देता है, और घोंपने के बाद नाचने लगता है। यह एक दबंग, संपन्न और शोषक व्यक्ति के विरुद्ध एक निरीह, विपन्न और दलित का मौलिक प्रतिशोध है- अंतिम प्रहार ।
और उपन्यास की एक और पात्र है रोशनी। झब्बू की बेटी। झब्बू की और दबे-कुचलों की उम्मीद। विद्रोही चेतना से भरी। मंत्री ने अपने पद-पैसे का दुरुपयोग कर, उसे साजिश से जेल भिजवा दिया। लेकिन गाँव वाले भी जानते हैं, और मंत्री भी कि रोशनी ज़िन्दगी भर जेल के अँधेरे में नहीं रहेगी। वह अँधेरे को चीर बाहर आएगी। वह हर दबे-छुपे अँधेरे कोनों तक पहुँचेगी। सत्ता के छल, छद्म और पूँजी के खेल से नकाब खींच लेगी। रोशनी से यह उम्मीद, उसके मामा, राधली, और पीछे छुटे दबे-कुचलों की पूरी पलटन को है।
उपन्यास गाँव भीतर गाँव एक ऎसा आख्यान है, जिसे पाठक एक बार पढ़ना शुरू करे, तो फिर वह चाहकर भी छोड़ नहीं सकता। उपन्यास में क़िस्से दर क़िस्से पाठक को अपने साथ बहाते ही जाते हैं। उपन्यास की भाषा बहुत ही जीवंत है। वाक्यों के भीतर, दो लाइनों के बीच कविता जैसा स्वाद महसूस होता है। लेकिन जब अर्थ पाठक के मन में खुलता-घुलता है, तो पाठक बेचैन हो उठता है। सड़ी-गली व्यवस्था के प्रति उसके मन में ग़ुस्सा पैदा होता है। लेकिन भाषा की ही ताक़त है कि उसके ग़ुस्से को बेकाबू नहीं होने देती है, और उसे पृष्ठ दर पृष्ठ बहाती ले जाती है। भाषा मालवा की संस्कृति, बोली की महक़ से पगी है। और नये-नये मुहावरों से, लोकोक्ति से, भजन से उसका परिचय कराती है।
अंत में इतना ही कहूँगा कि मुझे तो उपन्यासकार की भेदी दृष्टि और बेहद रचनात्मक संवेदनशीलता ही सक्रिय लगती है। गाँव वालों के साथ पँछियों की ऎसी आस कि मैंने कहीं अन्यत्र देखी नहीं। इस किताब को पढ़कर यह तो बख़ुबी जाहिद हो जाता है कि इसका लेखक अपनी रचना की अन्दरुनी और बाहरी देह से इतना अधिक सम्प्रक्त, उस पर इतना अधिक आसक्त है कि दोनों में भेद करना असम्भवप्राय है। बकौल महाकवि जयदेव, ‘‘ अनुखन माधव माधव रटइल, राधा भेलि मधाइ। ’’ लगभग यही दशा सत्यनारायण पटेल और उनके पहले उपन्यास ‘‘ गाँव भीतर गाँव ’’ की है ।
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13-5-15

141, राजाराम नगर
देवास- 455001
09977116433  


राष्ट्रपति भवन में सूअर - संकटग्रस्त प्रेम का आत्मसंघर्ष : उमाशंकर सिंह

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अनुनाद पर अजय सिंह के कविता संग्रह के लोकार्पण समारोह की भाषा सिंह द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट(साभार फेसबुक) छपने के बाद इस संग्रह की कविताओं पर हमें विष्णु खरे और अजीत प्रियदर्शी के लेख हस्तक्षेप के रूप में मिले। इन दो लेखों के बाद उमाशंकर सिंह परमार का लेख अनुनाद  को मिला है, जिसे संग्रह पर बहस की कड़ी के रूप में यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस हस्तक्षेप के लिए लेखक का आभार। 

आशा है विष्णु खरे से लेकर इस लेख तक के छोटे-से इस सिलसिले में बहस का एक आकार अब स्पष्ट होगा। आगे भी कोई लेख इस या किसी अन्य महत्वपूर्ण कविता प्रसंग पर हमें मिलता है और वह बहस की ऊर्जा रखता है, तो अनुनाद पर उसका स्वागत है।   

अजय सिंह एक राजनीतिक विश्लेषक और एक्टिविस्ट के रूप में जाना पहचाना नाम है | तमाम सामयिक पत्रिकाओं और पत्रों में प्रकाशित उनके आलेख पढ़कर उनकी दृष्टि व समझ को परखा जा सकता है | सामयिक समस्यायों पर मुकम्मल विश्लेषण करने के लिए विचार जरुरी होतें है | विश्लेषक घटनाओं को एकत्र करता है उन घटनाओं की उपादेयता पर चिंतन करता है फिर जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप अपने विचारो में ढालकर प्रस्तुत करता है | घटना व दुर्घटना से वह उतना ही प्रभावित होता है जितना की कवि प्रभावित होता है |यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाय तो वैचारिक दृष्टि से संपन्न पत्रकार और कवि में ज्यादा अंतर नही होता है | विश्लेषक तथ्यों पर ज्यादा जोर देता है और कवि विचारों पर जोर देता है | पर दोनों की रचना प्रक्रिया एक जैसी है | दोनों का मैटर समाज से आता है दोनों घटनाओं पर चिंतन करते हुए अपने वैचारिक सरोकारों से पुष्ट करते हैं | दोनों के निकर्ष और सन्देश व्यापक जन समुदाय के पक्ष में होतें हैं | काव्य एक चेतन रचना है | कवि अपने सामाजिक जीवन से वास्तविक अनुभव लेकर उन्हें अधिक प्रभावी रूप में प्रस्तुत करता है | वास्तविकता उसे समाज से प्राप्त होती है लेकिन समाज से जो विचार प्राप्त होतें है उसमे अभिजन विचार भी जुड़े होते है कवि अपनी प्रतिभा से इन बुर्जुवा विचारों को अलग करके वास्तविक विचारों को प्रस्तुत करता है इस प्रकार कविता का सौन्दर्य  सामाजिक श्रम का परिणाम है | यही कारण है काडवेल ने सौन्दर्य को “सामाजिक तत्व” कहा है  | सौन्दर्य चाहे कविता  का हो या कला का वह श्रम का ही परिणाम  है | समाज में व्याप्त बुर्जुवा मूल्यों को ध्वस्त करके लोकधर्मी मूल्यों को स्थापित करने वाली रचना ही सुन्दर रचना है | यही रचना प्रक्रिया एक प्रतिबद्ध लेखक की होती है | और जागरुक सचेतन पत्रकार की होती है | अजय सिंह पर उनका पत्रकार ज्यादा प्रभावी है | वो कविता में कवित्व का बजाय तथ्यपरकता पर अधिक बल देते हैं | इससे कविता यथार्थ की अभिव्यक्ति तो बखूबी कर लेती है पर बुनावट में कमजोर हो जाती है | आज का समय देखते हुए “कला के लिए कविता” जैसी बात करना बेमानी है रीतिशास्त्र का कोई भी मापदंड जो दहकते हुए कंटेंट को खारिज कर सकता है उसकी कोई जरुरत नहीं है | अजय सिंह की कविता समय के खतरों पर श्वेत पत्र है , केवल भाषा और कवित्व के कारण उसे खारिज करना कवि की इमानदारी को खारिज़ करना है  उसके वैचारिक पक्ष को खारिज करना है विदेशी पूँजी द्वारा पैदा किये गए मानवता विरोधी परिवेश को खारिज करना है |
        अजय सिंह ६८-६९ वर्ष के हैं कवितायें बहुत कम लिखतें है | उन्होंने अपने कवि होने का दावा कभी नही किया न अब करने की उनकी मंशा है | ६८ वर्ष की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह “राष्ट्रपति भवन में सूअर”  आना इस बात का प्रमाण है | उन्होंने खुद कहा है की “मैं धीरे धीरे लिखता हूँ और देर से छपता हूँ” छपने में कभी दो साल चार साल का अंतराल हो जाता है अजय सिंह को जानने वाले मित्र “पंचवर्षीय योजना का कवि” कहते थे क्योंकि वो लिखते कम थे छापते कम थे अगर उनकी कवि होने की मंशा रही होती तो जल्दी लिखते अधिक छापते ( जैसा की आजकल हो रहा है) यही कारण है उनका पहला संग्रह ६८ वर्ष की उम्र में २०१५ में छापकर आया जबकि वो १९६३ से लिख रहें है | “राष्ट्रपति भवन में सूअर” की भूमिका में अजय सिंह ने स्वीकार किया है की इस संग्रह में उनकी वर्ष १९९५ से लेकर २०१४ तक की कवितायें सम्मिलित हैं | इसका मतलब है इस संग्रह में उनकी पुरानी कवितायें संग्रहीत नहीं हैं केवल नई कवितायेँ सम्मिलित की गयी हैं | इस अवधि की उनकी बारह कवितायें इस संग्रह में है अंत में एक परिशिष्ट है जिसमे उनका एक आलेख है और दो चार छोटी कवितायें है जो उनकी पत्नी शोभा सिंह को समर्पित है | उनकी पत्नी शोभा सिंह जसम से जुडी है अत: उन्हें केवल पत्नी के रूप में नही देखा जाना चाहिए बल्कि वैचारिक मित्र के रूप में देखना चाहिए इस संग्रह की दो और कवितायें उनके वैचारिक संघर्षों के साथियों को समर्पित है एक है “ लाल सलाम कामरेड” जो अजंता लोहित को समर्पित है और दूसरी है “झिलमिलाती अनंत वासनाएं” जो गोरख पाण्डेय को समर्पित है | इन कविताओं को पढने के बाद अजय सिंह का निजी संसार स्पष्ट हो जाता है की उनके द्वारा गढी गयी दुनिया उनके विचारों की दुनिया है | इसी विचारों की दुनिया में वो रहतें है और अपने रिश्ते नाते तय करते हैं | अपनी इस दुनिया को वो सर्वाधिक प्यार करते हैं | दुनिया को उजड़ने से बचाने के लिए वो बाहरी दुनिया से टकराते हैं वो चाहते हैं की बाहरी दुनिया भी उनकी निजी दुनिया जैसी हो जाय | अपने  विचारों की दुनिया से इतर उनकी कोई भी दुनिया नही है | अपने वैचारिक सरोकारों और प्रतिबद्धता को वो पार्टी से जोड़कर देखते हैं पार्टी के हर सदस्य को प्यार करते है उनका कहना है –“यहाँ कोई समझौता नहीं / शर्त नही / साथी पार्टी है / तो सब कुछ है “ (पृष्ठ ५४)अर्थात पार्टी की नीति और अनुशाशन से परे कोई विचार नहीं है क्योंकि विचारों की दुनिया तभी तक है जब तक पार्टी है | कुछ लोग इस कविता को नारेबाजी कह सकतें है , लेकिन ध्यान रहना चाहिए अजय सिंह एक आम कार्यकर्ता थे , बड़े नेता नही थे | आम कार्यकर्ता अगर अपनी पार्टी के प्रति ये निष्ठा रखता है तो यह कोई गलत नही है क्योंकि कार्यकर्ता के लिए उसकी पार्टी ही उसका संसार है | उसका परिवार है , जैसा की अजय सिंह मानते रहे हैं|  
अजय सिंह के एक निष्ठावान एक्टिविस्ट होने के कारण ही “राष्ट्र पति भवन में सूअर” की  भाषा और लहजा दोनों आक्रोशपूर्ण है | लेकिन अजय सिंह का आक्रोश उपरला नही है , इसकी तह में अपनों के प्रेम को बचाने की जद्दोजेहद है | आक्रोश दो तरह का होता है  | एक जिसमे केवल जुमलेबाजी होती है , कविता यथार्थ से दूर नारेबाजी में उतर आती है , बिम्ब पोस्टर से प्रतीत होने लगते हैं , और कंटेंट राजनीतिक अड्डेबाजी लगने लगता है | और दूसरा आक्रोश वो होता है जिसकी तह में संकटग्रस्त समय की असंगतिया होती है  अजय सिंह का आक्रोश दूसरी कोटि का आक्रोश है इस आक्रोश को पहचानने के लिए अजय सिंह की कविताओं का काल  और उनकी निजी दुनिया के प्रति अगाध प्रेम की पहचान जरुरी है | मैं तो यही कहूँगा की “राष्ट्रपति भवन में सूअर”  प्रेम को बचाए रखने के लिए कवि आत्मसंघर्ष है यह संग्रह आक्रोश का नही समूची मानवता का प्रेम आख्यान है | समतापूर्ण हिंदुस्तान के लिए आम आदमी का चिंतन है स्त्री के पक्ष में मनुष्यता का संवेदनापूर्ण संलाप है | राष्ट्रपति भवन में सूअर की कविताओं का ध्यान से अनुशीलन किया जाय तो इसमें एक चरित्र का समावेश है वह चरित्र कोई और नही कवि की नातिन “खिलखिल” है | खिलखिल मासूम है | भोली भली है | कवि खिलखिल को जी जान से चाहता है खिलखिल का जिक्र उनकी कई कविताओं में है | खिलखिल का बार बार जिक्र उसे चरित्र के रूप में स्थापित कर देता है | कवि खिलखिल को खोना नही चाहता , उसके प्यार को बचाए रखना चाहता है | लेकिन समय इतना संकटपूर्ण है की उसे मासूम खिलखिल की चिंता बेतरह सता रही है | इसलिए कवि समय की असंगतियों के विरुद्ध खड़ा होता है ,निर्मम आलोचना करता है , कवि का सारा आक्रोश मासूम खिलखिल के प्यार से उत्पन्न है | खिलखिल हिंदुस्तान बन जाती है |खिलखिल का चरित्र और उसका भोलापन हिन्दुस्तानी आम आदमी का चरित्र बनता है | करोड़ों मज़लूमो का चरित्र बनता है |खिलखिल के बहाने कवि हिंदुस्तान को बचाना चाहता है | समय के भयावह खतरों के समक्ष खिलखिल के प्रति कवि की चिंता इस कविता से समझी जा सकती है –“ खिलखिल / तुम्हे किस नाम से पुकारा जाय / तुम्हे कौन सी पहचान दी जाय / की तुम सही सलामत रहो / कोई अलाय बलाय न आये / कोई तलवार त्रिशूल भाला चाकू प्रट्रोल बम / लेकर तुम्हे दौड़ा न ले / जय श्री राम का नारा लगाती भीड़ / तुम्हे जिन्दा आग के हवाले न कर दे /तुम्हे सामूहिक बलात्कार का शिकार न होना पड़े / कौन सा नाम दूँ” ( पृष्ठ २८)  | खिलखिल को बचाने की उद्दाम लालसा ने कवि को समय का कटु आलोचक बना दिया है | इन कविताओं का रचनाकाल १९९५ से २०१४ के बीच का है यह समय हिंदुस्तान के इतिहास का बुरा समय है | इसी अवधि में फासीवादी शक्तियां सत्ता के करीब पहुंची , गुजरात के दंगे हुए जिसमे निर्दोष बच्चो और महिलाओं की हत्या की गयी , इसी समय पूँजीवाद ने अपना रूप विश्वव्यापी करते हुए सत्ता के साथ गठजोड़ स्थापित किया , बोस्निया , इराक , अफगानिस्तान , जायरे , आदि में अमरीकी साम्राज्यवाद का नंगा नाच देखा गया , मुजरिम आदालतों के आदेश से छोडे गए  , नरसंहार हुए , जनांदोलन कुचले गए , महिलायें बलात्कार का शिकार हुईं , किसानो ने आत्महत्या की , पूंजीपतियों ने सार्वजनिक धन का गबन किया , बड़े घोटाले हुए , चूंकि कवि एक सजग पत्रकार है वो इन घटनाओं से अपरिचित नही हो सकता उसने विस्तार से इन संकटों का रक्तरंजित चेहरा देखा है | लाशों के सड़ते हुए अम्बार देखे हैं | आदिवासी , महिलाओं , अल्पसंख्यकों की हत्याएं देखी हैं | स्वाभाविक है भयानक समय में कवि को अपनों की चिता व्यापेगी वह अपनों को बचाने का हर संभव प्रयास करेगा , वह खतरों के सूत्रधारों से हद के स्तर तक नफरत करेगा  , जो व्यवस्था दंगों और नरसंहार के पक्ष में होगी वो उसकी आलोचना करेगा | कवि की खिलखिल आम जनता है , व्यवस्था से काटकर हाशिये में रख दिए लोग हैं कवि कहता है -मैं आधा हिन्दू हूँ / मैं आधा मुसलमान हूँ / मैं पूरा हिंदुस्तान हूँ “  ( पृष्ठ १५) इस हिंदुस्तान को बचाने की जिद में कवि सांप्रदायिक दंगों का पूरा चिटठा खोलकर रख देता है | दंगो का राजनीति से , और राजनीति का  पूँजी से , और पूंजी का साम्राज्यवादी शक्तियों से क्या रिश्ता होता है अजय सिंह इसकी तह तक चले जातें हैं –“यह जो नयी संस्कृति बन रही है / उसका एक शिरा अयोध्या में / दूसरा दिल्ली में तीसरा अहमदाबाद में / चौथा कई नदियाँ समंदर पार / व्हाईट हॉउस ,वाशिंगटन डी सी में / इसकी जड़ें बड़ी गहरी दूर दूर तक फैली” ( पृष्ठ ३७) |
 अजय सिंह का “राष्ट्रपति भवन में सुअर” मानवीय संवेदनाओं के सबसे दिलकश पहलू है की यह  प्रेम की प्रतिष्ठा का काव्य है अधिकांश कवि आक्रोश को सही दिशा नही दे पाते वो नकारात्मक विचारों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं  | भले ही अजय सिंह की भाषा भद्र न हो( एक या दो जगह पर) पर संवेदनाएं आधुनिक और सामयिक है | किसी भी समुदाय के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नहीं है | धूमिल में भी आक्रोश है , भाषा भी बहुत कुछ् अजयसिंह के करीब है , गलियों का उपयोग है , पर धूमिल स्त्रियों का जिक्र आते ही स्त्रियों के पक्ष में नही रह जाते “ हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्म शाला हो जाती है” गद्दीनशीन औरतें टांगो  के बीच धमाका दबाये बैठी हैं”  जैसे नकारात्मक प्रयोग धूमिल में खूब मिलतें है पर अजय सिंह इस मामले में धूमिल से अलग है | उनकी किसी भी कविता में स्त्री का विरोध नही है | उसके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण नही है | इसके उलट वो स्त्री के पक्ष में व्यवस्था की तीखी आलोचना करते हैं | वो स्त्री के लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मो की आलोचना करते है| अजय सिंह ने स्त्री को किसी लिंग और जाति धर्म के खांचे में फिट नही किया है बल्कि उसे वर्गीय दृष्टि से देखते हैं | उसे अपने आप में एक समुदाय मानते है| इस वर्ष प्रकाशित कविता संग्रहों मे मैने जितने भी अब तक पढे हैं उनमे से राष्ट्रपति भवन मे सुअर  सबसे उम्दा और अलहदा है । स्त्री की वर्गीय स्थिति को जिस ढंग से अजय सिंह ने देखा है वह पूर्ण यथार्थ और वैज्ञानिक है कहीं भी दोहराव नही हैं आजाद हिन्दुस्तान का क्रूरतम सच है । स्त्री के पक्ष मे आजकल जिस तरह से घिसी पिटी शब्दावलियों मे एक जैसी कविताएं लिखी जा रही हैं उन्हे देखते हुए अजय की कविता को नया कहा जा सकता है एक कविता का अंश-“मैं वो अनगिनत हिन्दू औरत हूं /जैसा साल दर साल के आंकडे बताते हैं /जिन्हे फ्रिज टीवी स्कूटर चंद जेवरात के लिए /भरी जवानी मे आग के हवाले कर दिया गया / और कहा गया /खाना बनाते समय कपडों मे आग लग गयी / मैं वो अनगिनत मुसलमान औरत हूं / जिन्हे तलाक़ तलाक़ तलाक़ कहकर / गर्मी की चिलचिलाती दोपहर /जाडे की कंपकपाती रात / घर से बेघर कर दिया गया /और कहा गया /मेहरुन्निसा बदचलन औरत है /जैसे गर्भवती सीता को /अंधेरी रात सुनसान जंगल मे /कितनी अजब बात है / सीता धरती से पैदा हुई /और वापस धरती मे समा गयी / लेकिन आज की सीता फातिमा जहरा /धरती की कोख मे नही लौटेगी /यह द्वन्दवाद के खिलाफ है / वे लडेंगी” (पृष्ठ १६) स्त्री के प्रति यह दृष्टि प्रमाण है की उनका प्रेम सम्पूर्ण आवाम के प्रति है उनकी खिलखिल हिन्दुस्तान की लाखों करोडो मजलूम जनता है जिसे आज़ाद हिंदुस्तान के कर्णधारों ने कैद कर रखा है | 
अजय सिंह की आलोचना का एक कारण उनकी राजनीतिक कवितायें भी हैं जिसमे उन्होंने बगैर किसी बहाने के सीधे सीधे व्यवस्था और उसके सूत्रधारों पर प्रहार किया है | जो लोग कविता को राजनीति से पृथक मानते हैं और तथ्यों के प्रयोग से कविता को बचाना चाहतें है उन्होंने अजयसिंह के संग्रह को काव्यत्व हीन कहकर खारिज किया | लेकिन आज कविता को राजनीति से अलग  नही किया जा सकता है | विशेषकर तब जब सारी समस्याओं के मूल में राजनीति हो | इतिहास में कविता कभी भी राजनीति से पृथक नही रही,  इतिहास गवाह है की या तो कविता ने राजनीति को प्रभावित किया या फिर राजनीति ने कविता को प्रभावित किया | कवि एक जागरूक इंसान है वह समाज के हर एक अंग को कविता का विषय बना सकता है | अपने समय और परिवेश से पृथक होकर राजनीति को अछूत नही कर सकता है , और फिर अजय  सिंह की कविता में जिस पीड़ा , घुटन , संत्रास , टूटन , का चिंतन है उसका सम्बन्ध राजनीति से ही है कवि खिलखिल को जिन संकटों से बचाना चाहता है वो सब राजनीति की कोख से ही पैदा हुई है  | सांप्रदायिक दंगे राजनीतिक अपसंस्कृति का ही कुपरिणाम है , नरसंहार , हत्याएं राजनीतिक घटनाएं ही है , अस्तु अजय सिंह राजनीती से कैसे बच सकतें है | रचनात्मक स्तर पर राजनीति एक ऐसा प्रश्न है जिसे लोकतंत्र की अनिवार्य दशाओं में देखा जाना चाहिए इससे कतराना आज असंभव है | अजय सिंह की कवितायें १९९५ से लेकर २०१४ तक की भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों का मूल्यांकन करती है | यदि राजनीति व्यापक जनसमुदाय के पक्ष में होती तो कवि संभव था आलोचना नही करता पर भारतीय लोकतंत्र पर प्रभावी विश्व पूँजी और उसकी सुरक्षा में तैनात सांप्रदायिक शक्तियों के अदृश्य गठबंधन को कवि ने परखा है | लोकतंत्र में विद्यमान सामन्ती तत्वों को कवि ने भुगता है | अत: अपने अस्तिव और प्रेम को बचने के लिए राजनीतिक संस्थाओं  की आलोचना करना कवि के लिए जरुरी था | उसने वही किया जो उसे करना चाहिए | अजय सिंह की  यह कविता इस बात का एक उदहारण है कि कविता के माध्यम से राजनीति कैसे की जाती है। जो लोग राजनीति को कलात्मकता का ह्रास करने वाला कारण मानते हैं उनको भी यह देखना चाहिए की क्या राजनीति कविता को अपनी गिरफ्त में नही ले लेती ?  यह कविता जन विरोधी राजनीति के साहित्यिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक सामाजिक  सभी पक्षों की असलियत खोल कर रख देती है | राजनीति व्यक्ति के विभिन्न पक्षों को किस कदर प्रभावित करती है इस कविता में दिखा दिया गया है | राजनीति के माध्यम से जनविरोधी साजिशों को कैसे अंजाम दिया जाता है इस कविता में दिखा दिया गया है “हमें चाहिए कई विद्याविनाश मिश्र / आओ निर्मलेश्वर वर्मा उर्फ़ आखिरी जंगल / जो छद्म सेक्युलरवादियों का मुकाबला कर सके / आओ विद्याविनाश मिश्र / कई  निर्मलेश्वर वर्मा उर्फ़ आखिरी जंगल / राजपथ पर स्वागत है! / यहीं से रवाना किया है / केसरिया वाहिनी को गुजरात  / तुम लोग मंगला चरण गाओ / अध्यात्म.वध्यात्म मृत्यु.वृत्यु / भारतीय संस्कृति की बजबजाती महानता / वैदिक ऋछाओं में खनिज तत्त्व / की चर्चा में साहित्य को उलझाए रखो।“ ( पृष्ठ ३४) फासीवादी सत्ताधीशों के साथ साहित्यकारों के इस गढ़बंधन को देखते हुए राजनीति और कविता के अलगाव की बात करना बेमानी है | ऐसे छद्म मुखौटों की आलोचना अजय सिंह ने अपने प्रेम को बचाने के लिए की है | “राष्ट्रपति भवन में सूअर” उनकी प्रतिनिधि राजनैतिक कविता है राष्ट्रपति भवन को वो सामंती संस्कृति से जोड़कर देखते है लोकतंत्र में जानबूझकर बचाकर रखे गए इस राजतान्त्रिक अवशेष को वो सार्वजनिक कर देने की मांग करते है | इस कविता में आया सुअर शब्द तथाकथित भारतीय समाज का वह वर्ग है जिसे गन्दा एवं अछूत माना जाता है | सूअर किसी जानवर का प्रतिनिधि नही है बल्कि गरीब मैले कुचैले गंदे माने  जाने वाले  समुदायों  का प्रतीक है जो सदियों से उपेक्षा और जलालत का शिकार रहा है | कवि चाहता है हिंदुस्तान के जितने भीं गरीब मजलूम शोषित है सबको राष्ट्र पति भवन में स्थापित कर दिया जाय और स्थापित करने के बाद वहां कवि जिस तरह व्यवस्था की कल्पना करता है वह साम्यवादी वर्गविहीन व्यवस्था से पूरी तरह मिलती है | इस कविता का मूल कथ्य है की समाज का स्वरूप वर्गविहीन हो दलितों , महिलाओं , आदिवाशियों को उनके अधिकार उपलब्ध कराएं जाएँ,  निजी पूँजी का अधिग्रहण हो , सांप्रदायिक शक्तियों का प्रवेश वर्जित हो , चतुर्दिक शांति और ख़ुशी का वातावरण हो,  सब आपस में प्रेम से स्वतंत्रता पूर्वक जीवन यापन करें,  उनका कहना है की “ कोई माननीय महामहिम माई लार्ड न हो / बराबरी का जज्बा हो / न हो डर या ऊँच नीच  / सब सह योद्धा और कामरेड हो (पृष्ठ ७७)  कवि केवल राष्ट्रपति भवन की ही कल्पना नही करता अपितु इस व्यवस्था को हिंदुस्तान में लागू करना चाहता है वो कहतें है “सोचिये तब कैसा नज़ारा होगा / वह कुछ कुछ नया हिंदुस्तान होगा” ( पृष्ठ ७५) ऐसे वर्ग विहीन समाज में ही खिलखिल के प्रेम को ,  औरत की आबरू को , निर्दोष हत्याओं को , आम आदमी को जानलेवा खतरों से बचाया जा सकता है | हिन्दुस्तानी आवाम ( खिलखिल) के प्रति कवि का यह प्रेम बुनियादी परिवर्तनों की मांग करता है | यह परिवर्तन है व्यवस्था का | अर्थात प्रेम के लिए परिवर्तन  प्रेम जातिवाद , सम्प्रदायवाद , शोषण और उत्पीडन के खिलाफ एक विद्रोह है”  अजय सिंह ने अपने कविता संग्रह राष्ट्रपति भवन में सूअर से यह साबित कर दिया है |
 अब कुछ विचार अजय सिंह की भाषा के सन्दर्भ में हो जाय भाषा को उन पर कई सवाल खड़े किये गए क्योंकि उन्होंने आम काव्यभाषा की जगह एक नए तेवर और आक्रोश से युक्त भाषा गढ़ी | हालाँकि भाषाको लेकर धूमिल , काशीनाथ सिंह , डॉ रही मासूम राजा पर भी लोग सवाल उठातें है पर अजय सिंह पर आलोचक अधिक हमलावर रहे | आज का कवि आज की असंगतियों को बखूबी पहचानता है| वह समझ चुका है की आज के मनुष्य का अस्तित्व और व्यक्तित्व दोनों इस संकट की घडी में  चरमरा रहे है | जब खतरे भयावह होंगे , अस्तित्व की हितचिंता होगी ,सम्पूर्ण व्यवस्था में अराज़कता का हो हल्ला होगा , आदमी अपनी रक्षा और सुरक्षा की चिंता करेगा ऐसी अवस्था में व्यक्ति के साथ उसके शब्द भी पैंतरा बदल देते हैं | शब्दों में अजीब सी हडकन और हरकत पैदा होती है | आक्रोश की गहन मुद्रा में शुचिता का ध्यान किसी व्यक्ति को नही रहता | आक्रोशित कवि अपनी जनभाषा का इस्तेमाल करता है अभिजन भाषा और जनभाषा मे अन्तर होता है । कविता मे अभिजन भाषा और जनभाषा की मात्रा का अन्तर बहुत कुछ कवि  की अन्दरूनी भाषा पर निर्भर करता है । कवि सृजक के साथ साथ लोक  का जीवन्त भोक्ता भी होता है । परिवेश की तमाम असंगतियां और खतरनाक साजिशों से जूझते हुए कवि अपनी अन्दरूनी भाषा निर्मित करता है । परिवेश यदि बिखरावपूर्ण हो हत्यारा हो  लुटेरा हो छली हो और कवि लगातार इस परिवेश से टकरा रहा हो ।टकराव की जय पराजय, बौखलाहट, अक्रोश से युक्त हो तो स्वभाविक है वह उत्तरदायी कारणों के प्रति निर्मम होगा |वह ध्वन्श और प्रहार को हथियार बनाएगा।और अस्तित्व पर मंडरा रहे खतरों पर उसके विचार आक्रोश की पराकाष्ठ में होंगे | ऐसे मे भी यदि अभिजन की भाषायी शुचिता  का ख्याल किसी कवि को आता है तो मैं यही कहूंगा कि कवि का संघर्ष छद्म है ।क्योंकी पेशेवर भाषा अन्दरूनी भाषा नही बन सकती । वर्तमान मे विश्वपूंजी ने जिस तरह से लोकतान्त्रिक संस्थाओं का अवमूल्यन किया है वह किसी से छिपा नही है । कारपोरेट नियन्त्रित सत्ता  किसानों की आत्महत्या , बाजारवाद,  फर्जी इन्काऊन्टर  राजनैतिक गुन्डागर्दी  इनके प्रति आम आदमी का आक्रोश गालियों के रूप मे ही निकलता है । डरे हुए लोग  सत्ता के पक्ष मे खुद को सौंपने वाले लोग भले ही इस आक्रोश मे शुचिता  का राग अलापें पर इमानदार आदमी अपने संघर्षों की कोख से उत्पन्न भाषा को ही काव्य  भाषा बनाएगा । तेज़ी से  अपनी प्रतिबद्धताएं बदल रहे लोगों के बीच कम से कम एक ऐसा कवि तो हुआ जिसने युगीन नरभक्षियों को उन्ही मांद में जाकर ललकारा है |कामरेड अजय सिंह के कविता संग्रह 'राष्ट्रपति भवन मे सुअर'को आलोचकों ने जिस तरह से खारिज करने की कोशिश की उसे देखकर और संग्रह को पढकर कहा जा सकता है कि या तो उन्होने संग्रह को पढा नहीं था या फिर अजय सिंह की आमफहम भाषा व कविता के लहजे से उन्होंने दो चार होने की कोशिश नही की  । एकाध जगह पर गालियों और विद्रूप शब्दों के प्रयोग भर( गांड , गूं , मूत, हगना , मूतना ) से कोई कविता खारिज नही की जा सकती जब तक यह न देखा जाय कि गालियों का 'पक्ष'क्या है | परम्परागत शुचितावाद के सामन्ती नजरिए से अजय सिंह की कविता को देखना किसी आलोचक की कमजोरी है । इससे अजय सिंह की दृष्टि पर सवाल नही उठाए जा सकते | अजय सिंह की भाषा का पक्ष उनकी कविता के विषय को समझकर ही जाना जा सकता है | उन्होंने जिन संदर्भों में विद्रूप शब्दों का प्रयोग किया है उसे देखते हुए वो शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता को सार्थक करते हैं| “राष्ट्रपति भवन में सूअर” कविता की गाली और तल्खी मैला ढोने वाले समुदाय के पक्ष में दी गयी है | उनका कहना है की राष्ट्रपति भी यदि एक दिन इन समुदायों का काम अपने हाथ कर दे तो वो सर में रखे मैले के बहाव और बदबू से अपना राष्ट्रपतिपना भूल जायेगा | कवि मैला ढोने वाले समुदायोंकी पीड़ा से उपेक्षा से खिन्न है | वह उन्हें राष्ट्रपति भवन में हिस्सा देने की मांग करता है | अत: इन गलियों को कवि की कुंठा या कवित्व के रूप में न देखकर पीड़ित समुदाय के प्रति प्रेमपूर्ण संवेदना के रूप  में देखना चाहिए |
अजय सिंह की काव्यभाषा उनकी संवेदना और आक्रोश को व्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है | पर विवरण प्रधानता होने के कारण उनके कविता में आये तथ्य कभी कभी प्रवाह में बाधा उत्पन्न का देते हैं|  हालाँकि विवरण प्रधानता होने से उनका कंटेंट एवं उस पर आधारित संवेदना और परिष्कृत हो जाती है पर कविता की लय ,गठन , प्रवाह में बाधा हो जाने से कविता शुष्क प्रतीत होने लगती है | इसी को काव्यत्व हीनता कहा गया पर अजय सिंह के विषय और कंटेंट को देखते हुए इसे कवि का दोष नही माना जा सकता है | ऐसे दोष आज की कविता में होना आम बात है | समय जटिल है , अनुभूतियाँ जटिल है,  तो स्वाभाविक है कवि जटिलता को सरल करने में ही मेहनत करेगा न की कविता के रीतिशास्त्र पर अपना ध्यान खपायेगा | कंटेंट की सार्थकता व कहन की तल्खी को ध्यान रखते हुए ऐसी कव्यहीनता स्वीकार्य है | क्योंकि काव्यत्व का क्षय वही हुआ है जहाँ जहाँ कवि ने आक्रोश की भंगिमा अख्तियार की है | मतलब जहाँ काव्यत्व का क्षय है वहां कथ्य का निखार है | अगर कवि काव्यत्व का निखार करता तो कथ्य का क्षय होता | कथ्य की कीमत में कला को महत्व देना किसी भी विचार से उचित नही है | यही कलावाद है जो अपने आप में एक बुर्जुवा अवधारणा है | देखिये एक उदाहरण जहाँ भाषा में  तडफन , विवरण प्रधानता , शुष्कता, लय विहीनता के वावजूद भी कथ्य अपनी पूरी गरिमा के साथ विद्यमान है – “हिन्दुत्ववादी गुंडे न हों / मुल्ले का अमामा न हो / फतवा ना हो / पब्लिक लायब्रेरी हो रेडियो हो /किताबो पत्रिकाओ की दुकाने हो /औरतो के लिए उनका अपना खाश कोना हो / आज़ादी हो / प्रेम रहे उन्मुक्त / न हो वर्जनाएं /अपने ढंग से जीने की चाहत “ (पृष्ठ ७६) इस विवरण प्रधानता ने कथ्य को गरिमामय ऊंचाई दी है  | विवरण को तरजीह देने का प्रभाव कवि की शैली पर भी पड़ा है | विवरण देने के लिए कवि की उपस्थिति कविता में जरूरी हो जाती है इसलिए अजय सिंह की अधिकांश कवितायें उत्तम-पुरुष में है अर्थात “मैं” शैली में है | कवि जब यथार्थ का भोक्ता बनकर आता है तो वह खुद को यथार्थ से अलग करके अनुभूति को क्षीण नही करना चाहता क्योंकि अनुभूति के सम्प्रेषण में आलंबन का प्रभावशाली होना बहुत जरुरी है | इसलिए कवि इसलिए कवि बजाय काल्पनिक आलंबन के स्वयम को ही आलंबन बना देता है | इससे कविता संवादी हो जाती है | ऐसा लगने लगता है जैसे कवि पाठक से सीधे बात कर रहा हो  | राष्ट्रपति भवन में सूअर संग्रह में ऐसी संवादी भंगिमाएं खूब मिलती हैं | देखिये एक कविता जिसमे कवि पाठक से मुखातिब है – “ कोई मुझसे पूछे /वह तुम्हारे लिए क्या है /मैं कहूँगा वह मेरे लिए मुक्ति है /आज़ादी की तमन्ना /खुली हवा “ (पृष्ठ ४६) नाटकीयता , संवादपरकता ,संक्षिप्तता ,से परिपूर्ण ये भंगिमाएं अजय सिंह की काव्य भाषा की जान हैं | यदि इन भंगिमाओ को हटा दिया जाय तो रहा सहा काव्यत्व भी चरमरा कर बैठ जायेगा | ऐसा नही है की अजय सिंह की कविता में काव्यत्व सिरे से गायब है | उनकी कविता में भी रीति के तत्व हैं पर जबरिया ठूंसे नही गए स्वत: आये हैं | विशेष कर जब अजय सिंह अपने प्रवाह में होते है तो संवादी भंगिमाओ के बीच बीच रूपको की झड़ी लग जाती है | रूपकों का स्वाभाविक अंदाज़ उनके कहन को और भी खूबसूरत कर देता है “ कभी उन्मुक्त झरना /कभी दहकती चट्टान /कभी प्यास / कभी तृप्ति /कभी रसीले चुम्बन /( पृष्ठ ४६) अप्रस्तुत विधानों और रूपकों का व्यंजन परक , मुहावरेदार प्रयोग हिंदी में कम ही मिलता है | अजय सिंह के अलंकारों में खास बात यह है की उनके प्रयोग कंटेंट का क्षय नही करते हैं | जितना ताप उनके विषय पर है उतना ही ताप उनके रूपकों पर है | जिस तरह उनका कथ्य दहक रहा है उसी तरह उनका शिल्प भी दहक रहा है |ऐसा भी नहीं है की उनकी हर कविता में ताप है उनकी कुछ् कवितायेँ जिनमे साम्यवादी समाज का युटोपिआइ बिम्ब आता है उनकी भाषा और लहजा देखते ही बनता है | दांडी के शब्दों में कहें तो “कोमलकान्त पदावली” के दर्शन होतें हैं पर ऐसी कवितायें कम है “वह ऐसे मिलती / जैसे धन के खेत के बगल में /अधुल का फूल अचानक दिखे /अपनी मोहक सुन्दरता / से बे परवाह / हवा में धीरे धीरे हिलता हुआ” (पृष्ठ ४६) | अजय सिंह के कविता को एकदम काव्यत्व से रहित करार देना एकपक्षीय दृष्टिकोण होगा उनकी कविता में सब कुछ है जिसे  “कला” कहा जाता है |बस नही है तो केवल विशुद्ध कला नही है | अजय सिंह की कविताई और उनकी कला जानने के लिए हमें उनकी कविताओं की अवधि और उस दौरान घटी घटनाओं का भारतीय जन जीवन , राजनीति , पर पड़े प्रभावों का ज्ञान जरुरी है | समय के साथ उनकी कविता बिलकुल फिट बैठती है | यदि हम सामयिक खतरों से चतुर्दिक घिरे हों तो घिरा हुआ आदमी अपनी रक्षा में क्या लिखेगा ? संकटग्रस्त मनुष्य संकटों के खिलाफ कैसे खड़ा होगा ? भाषा की तल्खी उनके वैचारिक सरोकारों की देन है | उनकी कविता अपनी खिलखिल को बचाने की चिंता की देन है |कहतें है की “प्रेम” जातिवाद  सम्प्रदायवाद  शोषण और उत्पीडन के खिलाफ एक विद्रोह है । तो इस विद्रोह का कवितामय स्वरूप अजय सिंह के कविता संग्रह राष्ट्रपति भवन मे सुंअर मे देखा जा सकता है । जितना भ्रम इस संग्रह की भाषा और लहजे को लेकर उत्पन्न किया गया । जितना व्यापक विरोध शुचितावादियों द्वारा किया गया । जितनी गालियां पौराणिक पांखडियों द्वारा अजय सिंह को दी गयीं शायद किसी भी नये कवि को नहीं दी गयीं होंगी । इस संग्रह की कविताएं पढने के बाद एक बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मासूम खिलखिल के वात्सल्य प्रेम को बचाने के लिए ही अजय सिंह ने इस मानीखेज संग्रह को रचा है । इस संग्रह के मूल मे प्रेम है । आक्रोश की घनेरी परतों के बीच छिपे प्रेम मे कैसे बदलाव  को चिन्हित किया जाता है अजय सिंह की  कविता मे देखा जा सकता है ।प्रेम का इससे सकारात्मक पक्ष कही नहीं मिलेगा |
***                                                               
उमाशंकर सिंह परमार
बबेरू जनपद बाँदा
९८३८६१०७७६




चन्द्र गुरूङ्ग की कविताएं

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अनुनाद पर पहले कभी अनिल कार्की के अनुवादों के सहारे नेपाली कविता छपी थी। एक बड़े अंतराल के बाद अब चन्द्र गुरूङ्ग की कविताएं यहां लगा सकने का अवसर मिल रहा है। मूल से अनुवाद स्वयं कवि ने किए हैं। हिंदी के लहजे में ढालने की दिक्कत जहां थी, वहां मैंने भी कुछ नामालूम से बदलाव किए हैं।  इतना भर कहूंगा कि ये बहुत स्पष्ट आशयों की कविताएं हैं, जहां कथ्य पहाड़ के अपने असल जीवन संघर्षों से आता है, वह बात-बात पर बिम्बों में नहीं बदल जाता है। हाल में बरबाद हो चुकी नेपाल की धरा, सिर्फ़ भूकम्प से नहीं, दूसरी कई वजहों से बरबाद हुई है। कर्मठ लोगों के उस मुलुक से मुझे ऐसी हर बरबादी का पता और कारण बताती कविताओं की भी उम्मीद है। कविता दुखती रग प‍कड़ती है, इसलिए यह उम्मीद मैंने पकड़ी है। यों नेपाली-गोरखाली उत्तराखंड के लिए बहुत परिचित अपनी-सी ही भाषा है। हम सभी किसी हद तक इस भाषा को समझते हैं। 

यहां कवि से परिचय का निमित्त फेसबुक भर है। इस किंचित परिचय के बीच चन्द्र गुरूङ्ग पहली बार अनुनाद पर हैं, उनका स्वागत औरआभार।





***
ठंड का मौसम


बहुत ठंड है
माईनस डिग्री मे ठंड पडा है सब कुछ ।

जुलुस में जाने वाले पैर जूतों के अन्दर सोये पडे़ हैं
विरोध में उठने वाले हाथ जेबों में घुसे पडे़ हैं
ढके हैं मफलर से
नारा चिल्लाने वाले मुख ।

बहुत ठंड है
दिमाग की न्यूरोन गली में बर्फ़ीली हवा चल रही है
मन के तालाब में विचार की लहर जम गई है
विश्वास ठिठुराया हुआ है
रोगशय्या पर पडे हैं उमंग, जोश और उत्साह ।

बहुत ठंड है
ठंड ने चेतना के कान बन्द कर दिये हैं
ठंड ने विवेक की आँखों को ढक दिये हैं
ठंड में मौन है शब्दों का कोलाहल ।

उलझन की धुन्ध फैली है सब चीजों पर
मन का प्रदेश निष्क्रियता के बर्फ़ से ढकी है
आशा के पेड निर्जन खडे़ हैं
शान्त है प्रतिरोधी आवाज़ ।

बहुत ठंड है
मन का आवेग मुरझाया हुआ है
नल में पानी की तरह नसों में खून ठंडी बह रही है
पाइप में बर्फ की तरह दिलों मे आक्रोश ठंडे पड गये हैं
थमी है समय निस्तेज ।

और,
इस ठंडी मौसम में
एक तानाशाह के भद्दे से होँठ पर
खिली है कुटिल मुस्कान ।
***

कवि और कविता

कविता-
अंधेरा चेहरा
सूजी आँखें
शुष्क होंठ
औरउदास आवाज़ लिये
मेरी दहलीज पर खड़ी है ।

मुझे कविता के शुष्क होंठों पर  
मुस्कान बनाने का मन हुआ

मुझमें सूजी आँखों को चूमने की इच्छा जागी ।
अन्धेरे चेहरे पर
उड़ाने का मन हुआ ख़ुशी के जुगनू ।

मैं निकला
कविता के लिए ख़ुशी ढूँढने ।

मैं ने कविता को
मुस्कुराता हुआ निश्छल बच्चा दिखाया
नहीं उतरी वह मुस्कान कविता के होंठों पर ।

आसमान से झरती रिमझिम वर्षा दिखायी
नहीं धुली कविता की उदासी ।

क्षितिज में हँसता हुआ इन्द्रधनुष दिखाया
नहीं फैला उसका रंग कविता के चेहरे पर  

पेड़ पर खिलते फूल दिखाये
खेत में उछलते मेमने दिखाये ।

अभी भी बेचैन बनी रही कविता...

वापसी में
रास्ते में एक बुढ़िया मिली
अंधेरा चेहरा
सूजी आँखें
शुष्क होंठ
और उदास आवाज़ ।

बुढ़िया के आँसू पोँछ्ने
झुर्रीदार गाल पर हाथ फेरा ही था मैंने
अचानक
कविता के चेहरे पर खिल उठा
उजियाला !
***

बूढ़ा पहाड़

हमेशा
शान्त
विचारमग्न
एकाग्र ।
लगता है तक रहा है कल्पना का आकाश
तैर रहा है विचारों के समुद्र में
वह बूढ़ा पहाड़ ।

कान की सुनसान गुफा के इर्दगिर्द 
पंक्षी मीठी मीठी चहचहाहट भरते हैं
हवा अपने आदिम गीत गुनगुनाती नज़दीक से उड़ती है
काँधों से उछलती,
कूदती
फिसलपट्टी खेलती हैं नदियाँ ।

बादल आँखें ढकने चुपचाप आते हैं
रास्ता रोकने के ग़ुस्से में
मारता है ज़ोरदार लात आँधी-तूफ़ान छाती पर
गालों में चूँटी भरकर
भागती है चंचल हवा ।

बिजली तेज प्रहार करती है
काँधे की पहाड़ियों पर धूप दावानल सी सुलगती है
भीगता हुआ चुपचाप
सही है हर वर्षा ।

युगों से
उमंग के वसंत में
अभाव के शिशिर में
पोषते हुये कविता की कोपलें हृदय के कोनों में
जिया है किसी कवि के जैसे
वह बूढ़ा पहाड़ ।
***

माँ 

गोदी में
उछलते
खेलते
नाचते
गाते 
भागी हुई चंचल नदियां
जब बरसात बन कर वापस आती हैं 
मस्कुराता है धरती का चेहरा
फूल की तरह ।

मैं
जब दूर देश से घर लौटता हूँ
दमक उठता है
मेरी माँ का चेहरा ।
***

अहंकार

अहं का काला सूरज
सिर के उपर चढ़ता है ।
चढ़ कर सिर पर
धीरे धीरे सघन बनता है, फैलता है ।
फिर क्रमशः
घटाता है इंसान की उँचाई ।
***

ईश्वर की हत्या

वह
साधारण और नेक इंसान था ।

सबसे पहले
उसकी प्रेमपूर्ण स्पर्शयुक्त उँगलियाँ छीन ली गई
उसके परोपकारी हाथ तोड़ दिये गए ।
उसके बाद
निर्दोष चेहरे को क्षतविक्षत बनाया गया
सत्यमार्गी पैर तोड दिये गये
मृदुभाषी जीभ निकाल दी गई
और, दबा दी गयी मधुर बोली ।
आखिर में
चिथड़े कर दिया उसका दिल ।

आज सुबह,
अखबार बेचने वाला पिदकू लडका
चिल्लाता फिर रहा है
ईश्वर की हत्या !
ईश्वर की हत्या !!
ईश्वर की हत्या !!!
***

बाबा का चेहरा

बाबा के चेहरे के आकाश में
दो आँखें चाँद-तारों-सी चमकती हैं ।
बाबा के होंठ मुद्रणयन्त्र जैसे
मेरे गालों पर आत्मीय चुम्बन छापते हैं
और, बाबा की नाक
खड़ी है बनकर इज़्जत का पहाड़ ।

बाबा के चेहरे पर  
उतार-चढाव के पहाड़ों को लांघते
उड़ती रहती हैं आत्मविश्वास की पतंगें ।
बाबा के गालों की ढलानों में
आपत-विपत के आँधी-तूफ़ान को झेलते
खिलती रहती हैं मुस्कान ।

नयी सुबह के आगमन के साथ
जालझेल की दुनिया झेलने
एक बोझ नये दिन की उठाने, निकलते हैं बाबा ।
शाम को
ख़ुशियों की पोटली उठाये
दुःख की लकीरों को छुपाये
आ पहुँचते हैं, उजला करते घर-आँगन ।

बाबा की
संसार पढ़ने वाली आँखें छोटी हैं
आत्मसम्मान का झण्डा उठाये खडी नाक दबी सी है
सुख-दुःख के आँसू जहां फिसलन का खेल खेलते रहे वे गाल झुर्रीदार हैं अब
मुस्कुराहट लैफ्टराईट करते होंठों पर दरार पड गयी हैं
झुलस गया है मंगोल चेहरा ।

मुझे अच्छा लगता है
बहुत अच्छा लगता है
जब लोग सुनाते हैं
तेरा चेहरा, बिल्कुल तुम्हारे बाबा का चेहरा ।
***

लवली गोस्वामी की कविताएं

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दख़ल प्रकाशन से आयी लवली गोस्वामी की किताब 'प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता (भारतीय मिथकों का पुनर्पाठ)'चर्चा में है।कवि का स्वागत और इन कविताओं के लिए आभार। 


नियति

साथ चलते शायद बहुत दूर निकल आये हम पंखड़ी 
हम जो नेह के पराग से सने फूल के केंद्र में पड़े थे
अन्वेषक बनते या यात्री सोचते रह गए
केंद्र से परिधी तक की यात्रा में सुगंधी धीमे – धीमे सिमट गई नाभि में
वह सुगंधी कस्तूरी नही
हम बेकल मृग नही
प्रत्येक अन्वेषक यात्री होता है 
प्रत्येक यात्री अन्वेषक नही होता

हाथों से पोछ देती हूँ तुम्हारी आँखों के नीचे उग आये अँधेरे काले चाँद
उँगलियों में लगी उस कालिख का टीका किसी नवजात के गुलाबी गालों में लगा देती हूँ
इतना यकसाँ है दिलों से निकलता अवसाद कि अब ख़्याल रखे जाने की ताकीदें बेमानी हो गई है
पृथ्वी अंतिम सीमा पर ज्वालामुखी की दरारों में पैर लटकाये साथ बैठे हम
देख रहे हैं अपने पैरों को  धीरे धीरे लावे की गिरफ्त में जाते
राख कहीं दूर नरसंहारों के अवशेष बने  श्मशान में गिर रही है
हम लड़ना नही चाहते
हम भागना नही चाहते
हम मरना भी नही चाहते 

हमारे पास लेनदेन के वास्ते दुरूह सौदागरों वाले हुनर हैं
रेगिस्तान में फंसे यात्रियों सा धैर्य है
हम कंदराओं में बंद कैदियों से निरीह भी हैं
गाँव जला दिए जाने के बाद बचे एकमात्र जीव से अकेले भी
हमारे खून में आतंकी चींटियाँ भी रेंगती है
संवेदनाओं का गाढ़ा शहद भी बहता है
आखें सबके सम्मिलित रुदन का महासागर भी होती है
गोलक निराशा की धूप से सूख कर दरकते भी हैं
हम एक समय में सबसे समृद्ध नागरिक हैं
ठीक उसी समय बहिस्कृत विपन्न कोढी भी
घड़ी की सुईयों की तरह हम प्रत्येक क्षण अविरल गति में तो हैं
समय ही शायद सभ्यताओं की मेढ़ लाँघता
निर्वात में कहीं ठहर गया है।
*** 
 
प्रतीक्षा

तुम्हे प्रेम करना लक्ष्य से अधिक खुद को रास्तों में बदलते देखना है
तुम्हारी प्रतीक्षा करना घडी की सुईयों से कालचक्र में बदलते जाना है
फिर भी मैंने तुम्हे एक निमंत्रण पत्र लिखा जिसमे पता नही था
उसे सबसे नाकारा हरकारे को थमा कर मैंने आँखें बंद कर ली 
उस निमंत्रण पत्र में तुम्हारे आने की किस्तें बंद थी

तुम मेरे पास किसी बेकल खोजी की तरह आना
कल्पनाओं को हक़ीक़त में बदलने वाले कीमियागर की शक्ल लिए
हम इतिहास के अधूरे सपने को  उन दराजों में से निकालेंगे
जिसमे गुम कर दी गई सबसे पुराने विद्रोहों की कथा
हम विद्रोहों को डोर खोलकर आज़ाद कर देंगे
कल्पनाओं को भविष्य के सतरंगी चित्र में बदल देंगे

फिर तुम मेरे पास कामकाजी दिनों की व्यस्तता की तरह आना
मैं तुम्हारी उपस्थिति बेतरतीब फाइलों में समेट लूंगी
जब किसी रात  खिडकी से आती तेज़ हवा बिखेर देगी
प्रेम के संचिकाओं के सब पन्ने
तुम्हारी अनुपस्थिति समेटते मैं रख दूँगी उनपर
अनंत प्रतीक्षाओं का पेपरवेट

तुम गहरी नींद के सबसे उत्ताप स्वपन की तरह आना
स्वपन जो इतना तीक्षण हो कि वितृष्णा की परतें भेद सके
और समयों के अंत तक मैं उनपर शब्दों का चंदन लपेटती रह जाऊं
तुम्हारे स्पर्शों का ताप मध्यम करने के लिए 

किसी दिन तुम मिलना ट्रेन के किसी लम्बे सफ़र में
अनजान  पर अपने से लगते मुसाफिर की तरह
इस दौर में भी जब भरोसे भय बन गए हैं
मैं हिम्मत करके पूछ लूंगी तुमसे कॉफी के लिए 
फिर हम दुनिया के दुःख सुख के जरा से साझेदार बनेंगे
जीवन भर साथ चलने के वादे तो जाया हुए
पर हम किसी सफर में कुछ घंटे साथ चलेंगे

फिर तुम तानाशाहों के मिटने की खुशनुमा खबर की तरह आना
जिससे मजलूमों के सुनहरे कल की कवितायी उजास छिटके
सदियों की चुप्पी तोड़कर तुम्हारे शब्द मैं अपने होठों पर रख लूँ
मेरी मुस्कराहट उसे तराश कर एक उजियारी रक्तिम सुबह में बदल दे
मैं जब अगली बार हँसू तो वे धरती के अंतिम छोर तक बिखर जाएँ

तुम आना ऐसे कि हम पूरा कर सके वह सपना
जिसमे पीस देते हैं हम अपना तन क्रूरताओं की चक्की में
न हम खून से प्रेम पत्र लिखते है न बृहद्कथा
चक्कियों से टपकते अपने रक्त को हम आसमानों में पोत देते हैं
कि उससे  बना सकें एक नवजात सूरज 
जो भेद सके  किलेबंदियों के तमाम अंधियारे
*** 
 
परावर्तन

कभी - कभी समझ नही पाती मैं
कैसे एक बीते प्रेम की स्मृति इतनी बड़ी हो जाती है  
जो ग्रस लेती है 
दुनिया की सब कला 
सारा साहित्य 
रंगों के सब शेड 
कविता के बहुसंख्यक पाठ 
कैसे दोहराव बन जाता है भावों का हर सम्भव अनुवाद 

मैंने शाप दिया था तुम्हे 
जाओ कि तुम्हारा हर भाव मेरे प्रेम का चलताऊ अनुवाद होगा 
भूल गई कि यह शाप मुझे भी इतना ही डसेगा 
मैं भी खो दूँगी स्मृतियों के गलियारों में भटकते हुए 
बतकही का असाध्य कौशल 
सारे रंग 
सब पाठ 
जिन्हे संवारने में जीवन झोंक दिया 
कलात्मक कौशल के वे सब संवाद
*** 

स्वीकृतियाँ

मैं हमेशा अपने भाव छिपाती रही खुद से
भावनाओं का आना कविताओं का आना था
मुझे भय लगता रहा मन में कविता के आने से
कटुता और रुक्षता के रीत जाने से
तितलियों के रंगों से अधिक उनकी निरीहता से
फूलों की महक से अधिक उनकी कोमलता से
बारिश की धमक से अधिक ख़ुद भींग जाने से

शक्तिशाली होने का अर्थ उन्माद के क्षणों में एकाकी होना है
विस्तृत होने का अर्थ आघात के लिए सर्वसुलभ होना है
सबसे गहरी अँधेरी खाईयों की तरफ बारिश का पानी प्रचंड वेग से बहता है
ऊँचे और विस्तृत पहाड़ सबसे अधिक भूस्खलन के शिकार होते हैं
बड़े तारे सबसे शक्तिशाली ब्लेक हॉल में बदलते हैं
ठूँठ कठोरता और पौधे लचक के कारण बचे रहते हैं
फलों से लदे विशाल हरे पेड़ आंधी में सबसे पहले टूटते हैं

महानता के रंग -रोगन नही चाहिए थे मुझे
पर इंकार के सब मौके मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गए 
घोषणापत्रों पर मुझे आवाह्न के नारों की तरह उकेर दिया गया
कोई व्यंग से हंसा  मैं कालिदास हुई
किसी ने अपमानित किया मैं शर्मिष्ठा हुई
किसी ने नफ़रत की मैं ईसा हो गई
जब -जब किसी ने अनुशंसा की
मैं सिर्फ सन्देश रह गई
मैं सिर्फ शब्द बनी रही
सबने अपने - अपने अर्थ लिए
मैं सापेक्ष बनी रही
सब मुझे अपने विपक्ष में समझते रहे

जब भी मौसम ने दस्तक दी मैंने चक्रवात चुने 
जब गर्मियाँ आई मुझे दोपहर की चिलचिलाती धूप भली लगी
जब सर्दियाँ आई माघ की ठंढ
(यूँ ही नही कहते हमारे गांव में माघ के जाड़ बाघ नियर)
सामर्थ्य नही था मुझमे पर विवशता में हिरण भी आक्रामक होता है
मुझे उदाहरण भी नही बनना था
पर मिसालों के आभाव ने समाज की बुद्धि कुंद कर दी
मुझे योग्यता के विज्ञापन में बदल दिया गया
सिर्फ इसलिए कि किसी को गैरजरुरी सी शुरुआत में बदल जाना था
महानताओं ने धीरे से क्षमा कर दी उसकी गलतियाँ
पलायन एक सुविधापूर्ण चयन होता है
चुनौतीपूर्ण चयन अहम का आहार होता है
जिसकी बलि चढ़ा दी जाये वह समर्थ नही कहलाता
वरना समाज अभिमन्यु की जगह
अरावन की प्रशस्ति गाता
***

प्रहसन

मैं जिससे मिली उसने मुझे व्यंग से "सम्पूर्ण प्रहसनका सम्बोधन दिया
मैं मुस्कुराई कि हाँ यों तो मेरे अंदर सभ्यताओं के अंश शेष हैं प्रहसन के लिए
मेरे अंदर युद्ध के बाद खंडहरों में तब्दील हुए शहरों के बियाबान में रोते सियारों सा अपशगुन पैबस्त है
जो अँधेरे में नृशंस हत्याएँ करके भाग गए मेरे अंदर उनकी ग्लानि भरी है
रोते - रोते जो गर्भपात कराए गए मैं ने भोजन के रूप में उन शिशुओं की हड्डियाँ चबाई मेरे अंदर उनकी पीड़ा और वितृष्णा शेष है
अकाल में जो बेमौत मारे गए अक्सर उन धरतीपुत्रों की चित्कारें  कंठ छीलती रहती हैं
लेकिन यह बस प्रहसन का उत्तरार्ध है इसका पूर्वार्ध मैं आपको सुनाती हूँ 

मेरी सबसे पुरानी और भयावह स्मृतियों में मैं एक राह भटक गई बच्ची हूँ
जो अँधेरे से लड़ते अपने घर तक पहुचती तो है पर रस्ते में ठोकर लग कर उसके घुटने छील जाते हैं
यौनांगों पर पहला विजातीय स्पर्श याद करूँ तो देह पर रेंगते अपरिचितों की उँगलियाँ कब्र बिज्जूओं का रूप लेकर मेरे शरीर का मांस कुतर कुतर कर खाती हैं
मैं रोज रात बलात्कार के दौरान होती पीड़ा महसूसती हूँ और सुबह अपने मांस के टुकड़े देह से जोड़ती विस्मृति का अभ्यास करती हूँ 
मेरी कोमल देह की खरोंचे भर गई पर मन अब भी किसी की केकड़े सी उँगलियों में है उससे खून रीसता रहता है

मेरी सबसे यातनापूर्ण कल्पनाओं में धरती पर प्रलय के बाद अकेले छूट जाने का भय है
जबकि स्मृतिओं में दृश्य यह कि मेरे पिता अपनी नई साथिन के बच्चे को कंधे में उठाकर चॉकलेट दिला रहे हैं
मैं निरीह आँखों से उन्हें देखती सिर्फ इस इच्छा से उनके पैरों से लिपटी हूँ कि वे अपना हाथ मेरे सर पर फेर दें 
फिर मैं खुद को दो दिन से भूखी देखती हूँ माँ से जिद करती कि मेरे साथ एक हफ़्ते में बस दस मिनट बीता ले और वह जलसों का लुत्फ़ लेती मुझे दुत्कार देती है  
मेरी स्मृतियों में घर संबंधों का बूचड़खाना है फिर भी मेरे सबसे पुराने अफसोसों में बुढ़ापे में घिसटते हुए घर तक न पहुँच पाने का काल्पनिक दंश है

जब मैं प्रेम कहती हूँ तो मुझे वह अर्धनारीश्वर शिव स्मृत होता है जिसने हर क्षण अपनी महानता के लिए मुझे क्षतिग्रस्त किया
जब उसे मुझे चूमना होता वह कहता आओ तुम्हारे होंठों से थोड़ा ज़हर चख लूँ
जब मुझे उसे उन्माद में प्रेम करना होता मैं कहती आओ तुम्हे छोटे टुकड़ों में काट कर खा लूँ
प्रेम एक ही समय में आपका सृजक और विध्वंसक दोनों होता है
हम अलग हुये तब उसने आवेग से प्रेम करने की शक्ति खोई मैंने शांति से विचार करने का शिवत्व
आपने देखा होगा समुद्र पानी उलीच देता है और  कचड़ा लिए लौटता है
वह भी ऐसा ही था उसने मेरा मोह उलीच दिया और और विमोह लिए मेरी देह से मुक्त हो गया

आत्मकथ्य कहते हुए आप केवल नौसिखिये लेखक होते हैं
जबकि केवल बाते करते वक़्त आप अनचाहे ही समय द्वारा मोल लिए कथावाचक हो जाते  हैं
उद्देश्यपरक होना प्रपंच का कुशल नीतिज्ञ बनाता है
उद्देश्यहीनता आपको कमअक्ल अवसरवादी भीड़ बनाती है
लेखक का घोषित आत्मकथ्य सत्य -असत्य का मिश्रण होता है 
जबकि लेखक की कहानियों में उसका आत्मकथ्य पैबस्त होता है
तो जैसा की बीथोफ़न ने मरते वक़्त कहा था दोस्‍तो, ताली बजाओ, प्रहसन अब पूरा हुआ
आप भी उठिए,तालियाँ बजाइए और घर जाइये प्रहसन फ़िलहाल खत्म हुआ सम्पूर्ण फिर कभी होगा.
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*** 

संजय कुमार शांडिल्य की कविताएं

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हमें कविताओं से क्या मिलता है

कोई जीडीपी में बढ़त दर्ज करता है तो कैसे करता है
जबकि हम कविता से बर्फ़ीली सर्दियों में जुराबों का
काम लेना चाहते हैं
लकड़ियों और भेड़ों से भोजन मिलता है हमें कविताओं से क्या मिलता है


सरसों का तेल, नमक और तोरयी से एक शाम की मितली रुकती है
पाँच आदमी जीप की एक सीट पर बैठकर बस्ती से शहर आते हैं
दो रुपये की हींग से रसोई महकने लगती है
पंसारी की दुकान में जीवन के सामान मिलते हैं , कविताओं के पास क्या है


थोड़े से जुलाब से कब्ज़ और सुअर की चर्बी से ज़ुकाम ठीक होता है
एक अध्धे से थकान मिट जाती है
दो-चार गालियों से गुस्सा बाहर हो जाता है
खिड़की से हवा मिल जाती है कुएँ से पानी मिल जाता है
महाजन से बीमारी में कर्जे काश्तकार से खाने भर ज़मीन मिल जाती है
क्या मिलता है कविताओं से ?


जीवन से इतनी कम उम्मीद रखने वाले लोगों ,
मैं भी यही पूछता हूँ कविताओं में
कि आखिर इनसे हमें क्या मिल सकता है

इन क़ब्रों में
थोड़ी सी और जगह के लिए कविता है
थोड़ी सी और हवा के लिए कविता है
थोड़े से अधिक जीवन के लिए कविता है

हमें यह मालूम है कि धूप बहुत कड़ी है
और जूतों से आराम मिलता है हमें कविताओं से कुछ नहीं मिलता ।

***  

शहद एक शहतूत का पेड़ है

मुट्ठी भर रेत को छूकर उसने कहा कि
यह प्यार हो सकता है जो नहीं हुआ


गठरी भर कपास के लिए
एक बियाबाँ में हम दौड़ते रहे
जिनपर दुनिया का सबसे मीठा प्रेम
जो नहीं खिल सका पुष्पित हो सकता था

मुट्ठी भर रेत और गठरी भर कपास के लिए
हमने मौसमों की हत्याएँ की

वह घड़ा मिट्टी से बनता था जिसे हमने धातुओं
से बनाना चाहा
हम दोनों इसी नदी में डूबे जो तैरने के लिए
सबसे आसान थी


मैं और तुम जानते तो थे कि मधुमक्खियाँ
शहद जहाँ इकट्ठा करतीं हैं वहाँ वह शहद बनता नहीं
बात उस ज्ञान का था जिसमें वह प्रेम-नगर उजाड़ हुआ
बसने के नियम वही होते जो उजड़ने के होते हैं
यह किसका गुनाह था जिसमें हमने जीवन का
हर पाठ गलत पढ़ा
शहद हर उस जगह था जहाँ एक शहतूत का पेड़ है ।

***  

आकाश से गिरी हुई रात

इस छिपकली की जीभ पर
एक पतंगे के ख़ून का ताज़ा गीत है

मकान वायलिन की तरह
बजता है
इस मकड़ी के जाले के आसपास

उदासियाँ फर्श पर पसरी हुई
कथरी है
खून और इसकी ठंडक में रेंगती हुई
चींटियाँ


बाहर कारोबार की तरह
गिरी हुई रात है
आकाश से

तालाब एक उल्टी हुई पॉलीथिन है
रौशनी छिटक रही है क़ब्रगाहों से
चार सू चमकता हुआ अँधेरा है

इस चार सू चमकते हुए अँधेरे में
जुआघर हैं, शराबख़ाने हैं

छोटे-छोटे ताबूत बना रहा है
बढ़ई
बूढ़े पछीट रहे हैं पुरानी सदियाँ ।

***

इन छुट्टियों में

इन छुट्टियों में आधे-आधे लोग
अपने गाँव लौटे हैं

आधे रह गए हैं उसी जगह
जहाँ ग्यारह महीने रहते हैं
उन ग्यारह महीनों में
कुछ बाल्टियों के पेंदों में
छोटे सुराख़ बड़े सुराखों
में बदल जाते हैं


उन ग्यारह महीनों में
चाय की उन प्यालियों में
कुछ और गहरी दरारें
बनती है
जिन पर यारों का प्यार
छनता है


बच्चे ग्यारह महीने बड़े होकर
सचमुच बड़े दिखने लगते हैं
बूढ़ी होती पेशानी पर
कुछ और गहरी रेखाएं
कुछ और गहरी रेखाओं में
जमा होती है ग्यारह महीने में


इस एक महीने में
कोई आधा आदमी
कितना पूरा हो सकता है
कि ग्यारह महीने बाद
अगली छुट्टियों में
आधे-आधे लोग फिर
गाँव लौट पाएं ।

***

उस बच्चे की मुस्कुराहट में उसकी माँ झाँकती है

सातवें आसमान पर कोई खिड़की है
जो उसके ओठों पर खुलती है

उसकी हँसी उसकी माँ से मिलती है
मैं उसे उसकी माँ की तस्वीरों से मिला कर
देखता हूँ

उसकी माँ जो नहीं है कहीं
वह हर उन जगहों में काँपती है
जहाँ वह हवा की तरह बहती थी
वैसे उसके होने का कहीं निशान नहीं है
जाने वह कैसे इस दुनिया में रहती थी

वह जब थी लगता नहीं था कि वह
नहीं रहेगी
अपनी बेटी को जन्म देते हुए
उसे लगा कि इस दुनिया में
इतनी ही जगह खाली है

तीन साल की उसकी बेटी
खुश-फैल रह सके
पृथ्वी पर
उतनी जगह
उसकी समझ इस समय की
आलोचना है

माँ का नहीं होना
अक्सर उसकी उम्र में
उसे महसूस नहीं होता है
वह अँगूठा मुँह में लेकर
सो जाती है

उसकी माँ वैसे तो अब
इस घर में हर जगह काँपती है
खासकर उस बच्चे की
मासूम मुस्कुराहट में
उसकी माँ झाँकती है ।

***

पिघलते ध्रुवों की पृथ्वी

पगडंडियों पर पाँव हैं और धड़ नहीं है
यह खूब कुदरती है ,सारी चहलकदमियाँ सहज

कुछ दूरी पर फैले हुए खेत हैं


धूपछांही सी फसलें
जड़ें नहीं हैं किसी भी पौधे में
हवा उन्हें हिलाती है कभी-कभी


बूढ़े सहज हैं मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए
स्त्रियाँ सहज हैं श्रृंगार की जरूरतों के बिना

हाथ एक गर्दिश करती हुई मछली है
कंधे जीवनरहित सिर को
पहाड़ सा धारण किए हुए


साँस लेने की मशीन भर नाक जीवित है


पूरे चेहरे के विजन में अकेला जागता हुआ
यह सब सहज है जीवन में
सिर्फ़ पेट दिखाई पड़ता है
चीजों को एक साथ जोड़ता


आँखें सबसे पहले अलग हुईं
सहजता से
दुर्घटनाओं के बाद सिर्फ़ विलाप के
लिए खुलती हैं

पृथ्वी पर खुली हुई आँखों के
सिर्फ़ बर्फ़ीले ध्रुव हैं
जो लगातार पिघल रहे हैं ।

***

अशोक कुमार पाण्डेय की तीन कविताएं

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जबकि हमारी अपनी ही स्मृतियां निर्जनता के कगार पर खड़ी हैं, अशोक तीन बुज़ुर्गों से कविता में संवाद कर रहा है। यहां तीन अलग लोग एक ही ऊर्जा में जलते हुए मिलते हैं, उनके साथ जलता है आज का कवि। ये और वे, विचार के सब रास्ते अब भी हलचल से भरे हैंऔर उन पर आगे भी आहटें भरपूर रहेंगी - ऐसा विश्वास दिलाने वाली इन कविताओं के लिए शुकिया दोस्त। 
*** 
प्रकाश दीक्षित
 
प्रकाश दीक्षित

शहर ही था जो तुमसे बाहर नहीं गया
तुम तो कबके हो गए थे शहर से बाहर

देह में ताब नहीं, न मन में हुलास कि चलो देख आयें दिल्ली एक बार
जहाँ तुम्हारे शिष्य याद करते रहते हैं तुम्हें जैसे कालेज के दिनों की प्रेमिकाओं को

लिखे हुए पन्नों के पीछे गोंजते रहते हो जाने क्या क्या
एक इतिहास तुम्हारे चश्में के शीशों में जमा वाष्प की तरह
एक वर्तमान जोड़ों की दर्द की तरह पीरा रहा है कबसे
सूने ऐश ट्रे सा भविष्य जलती सिगरेट के मसले जाने की बाट जोहता

सम्मानों की गीली मट्टी पर संभल संभल कर चलते
अपमानों के अदृश्य ईश्वर पर हंसते कभी डरते
जैसे सूख गयी वह नदी जिसमें नहाते बीते बचपन के दिन
जैसे छूट गयीं वे आदतें जिनकी संगत में गुज़री जवानी
और वे दोस्त हर सपने में रही जिनकी हिस्सेदारी
सूखती वैसी ही उम्मीदों और छूटती वैसी ही समय की चार पहिया गाड़ी को
देखते अकेले दरवाज़े की ओट से
पीछे छूट गए देखते आगे निकल गयों के रंग
तुम मुझे भी तो देख रहे होगे?

लिखो न एक अंतिम नांदी इस अंतहीन नाटक के लिए साथी
पार्श्व में गूँजता मंदिर का घंटा उसकी शुरुआत का उद्घोष कर रहा है कबसे.
*** 

 
लाल बहादुर वर्मा

लाल बहादुर वर्मा

ठीक इस वक़्त जब तुम्हारी साँसे किसी मशीन के रहम-ओ-करम पर हैं
मैं इतिहास के पेड़ से गिर पड़े पत्तों पर बैठा हूँ लाचार

वे इतिहास को एक मनोरंजक धारावाहिक में तब्दील कर रहे हैं साथी और तुम्हारी आवाज़ जूझ रही है

तुम्हारा उत्तर पूर्व अब तक घायल है
तुम्हारे इलाहाबाद में भी हो सकते हैं दंगे
तुम्हारा गोरखपुर अब हिटलरी प्रयोगशाला है
फ्रांस की ख़बर नहीं मुझे फलस्तीन के जख्म फिर से हरे हैं साथी

और तुम्हारे हाथों में अनगिनत तार लगे हैं
पहाड़ जैसा सीना तुम्हारा नहीं काबू कर पा रहा है अपने भीतर बहते रक्त को
समंदर की उठती लहरों जैसी तुम्हारी आवाज़ किसी मृतप्राय नदी सी ख़ामोश
बुझी हुई है ध्रुव तारे सी तुम्हारी आँखें
अनगिनत मरूथलों की यात्रा में नहीं थके जो पाँव गतिहीन हैं वे

हम अभिशप्त दिनों की पैदाइश थे
तुम सपनीले दिनों की
तुम्हारे पास किस्से भी हैं और सपनें भी
और उन सपनीली राहों पर चलने का अदम्य साहस
कितने रास्तों से लौटे और कहा कि नहीं यह रास्ता नहीं जाता उस ओर जिधर जाना था हमें

यह राह नहीं है तुम्हारी साथी
लौट आओ...हम एक नए रास्ते पर चलेंगे एक साथ

चन्द्रकान्त देवताले और अशोक
 
चंद्रकात देवताले  

सुना आज उज्जैन में ख़ूब हुई बरसात
सुना तुम्हारा मन भी बरसा था बादल के साथ

मुझे नींद नहीं आ रही और बतियाना चाहता हूँ तुमसे
कि पता चले कहीं खून ठंडा तो नहीं हो गया मेरा
सच कहूँ...कुछ लोगों की नींद हराम करने का बड़ा मन है!

पठार अब और तेज़ भभक उट्ठा है साथी
जो लोहा जुटा रहे थे उन्होंने किसी मूर्ति के लिए दान कर दिया है
तुमने जिस बच्ची को बिठा लिया था बस में अपनी गोद में
उसकी नीलामी की ख़बर है बाज़ार में

आग हर चीज़ में बताई गयी थी और हड्डियों तक में न बची
देखते देखते सिंहासनों पर जम गए भेडिये
देखते देखते मंचों पर हुए सियार सब सवार
अबकि तुम्हारी काफी में मिला ही देंगे ज़हर
और तुम सावधान मत होना..प्लीज़

चलो घूम कर आते हैं
नुक्कड़ की वह गर्म चाय और प्याज कचौड़ी चलो खिलाओ
वरना तो फिर सपने में ताई की डांट पड़ेगी
बच्चों को भूखा भेजा? कब सुधरोगे ?

चलो जुनूं में बकते ही हैं कुछ
क्या करें?
कहाँ जाएँ?
मैं दिल्ली तुम उज्जैन
दोनों बेबस दोनों बेचैन!
*** 

स्मरण में है आज जीवन : वसुंधरा ताई कोमकली - संदीप नाईक

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“जब होवेगी उम्र पुरी, तब टूटेगी हुकुम हुजूरी, यम के दूत बड़े मरदूद, यम से पडा झमेला”
(पंडित स्व कुमार गन्धर्व की पत्नी पदमश्री वसुंधरा ताई का निधन )


“भानुकुल” आज उदास है ऐसा उदास वह 12 जनवरी 1992 को हुआ था जब भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य गायक पंडित कुमार गन्धर्व ने अंतिम सांस ली थी, दुर्भाग्य से आज फिर माताजी के रास्ते वाले सारे पेड़ ग़मगीन है और भानुकुल में एक सन्नाटा पसरा है. भानुकुल देवास की टेकडी के नीचे बसा एक बँगला है जहां भारतीय संगीत के दो महान लोग आकर बसे और इस शहर के माध्यम से देश विदेश में भारतीय संगीत और खासकरके निर्गुणी भजनों की अनूठी परम्परा को फैलाया. इसी बंगले में पंडित कुमार गन्धर्व ने संगीत रचा, नए राग रागिनियों की रचना की, उनके सुयोग्य पुत्र मुकुल शिवपुत्र ने संगीत की शिक्षा ली, पंडित की पहली पत्नी भनुमति ताई के निधन के बाद उनकी सहयात्री बनी ग्वालियर घराने की प्रसिद्द गायिका विदुषी वसुंधरा ताई जिनके साथ पंडित जी का दूसरा विवाह अप्रैल सन 1962 में हुआ. कुमार जी को यक्ष्मा की शिकायत थी और मालवे के हवा पानी ने उन्हें एक नई जिन्दगी दी, एक फेफड़ा खोने के बाद भी उनका संगीत में योगदान किसी से छुपा नहीं है.  कुमार जी के होने में और यश के शिखर पर पहुँचाने में वसुंधरा ताई के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता, जिन्होंने कुमार जी के साथ जीवन में ही नहीं वरन हर मंच पर उनका हर आरोह अवरोह में साथ दिया और हर तान के साथ अपना जीवन लगा दिया. वसुंधरा ताई जैसी विदुषी महिला आज के समय में दुर्लभ है. 

पंडित देवधर की सुयोग्य शिष्या और बेटी वसुंधरा ताई ग्वालियर से देवास आने के बाद मालवे में ऐसी रच बस गयी कि यहाँ के लोग उनके घर के लोग हो गए, वे देवास, इंदौर और उज्जैन के हर घर में पहचानी जाने लगी, देवास के हर भाषा और मजहब के लोगों से उनका वास्ता पड़ा और उन्होंने बहुत सहज होकर सबको अपना लिया. ना मात्र अपने गायन से बल्कि उनकी सहजता, अपनत्व और वात्सल्य भरी मेजबानी के व्यवहार से हर शख्स उनका कायल था. स्व कुमार जी जब तक थे या आज भी देश-विदेश के बड़े से बड़े गायक - वादक, साहित्यकार, अधिकारी, कलाकार, पत्रकार जब भी इंदौर, देवास या उज्जैंन से गुजरे तो एक बार वे जरुर कुमार जी के भानुकुल में आये और जी भरकर कुमार जी से बाते की और ताई का आतिथ्य पाया जो उनकी यात्रा को महत्वपूर्ण बना गया.

कलागुरु विष्णु चिंचालकर, नाट्यकर्मी बाबा डिके, प्रसिद्ध पत्रकार और सम्पादक राहुल बारपुते और स्व कुमार गन्धर्व कला क्षेत्र की ये चौकड़ी मालवा ही नहीं वरन देश विदेश में प्रसिद्द थी और जब ये मिल जाते थे तो बहुत लम्बी चर्चाएँ, और बहस होती थी. अशोक वाजपेयी तब मप्र शासन में वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी थे और भारत भवन बनाने की तैयारी में थे. अक्सर देवास उनका आना होता था और ताई के स्नेह और आतिथ्य के लिए वे लालायित रहते थे क्योकि उन्हें ताई से कई रचनात्मक सुझाव मिलते थे. चारों मित्रों की यह अमर जोड़ी बनाने में वसुंधरा ताई का बहुत बड़ा हाथ था. ताई की समझ सिर्फ संगीत ही नहीं बल्कि व्यापक मुद्दों और रंजकता, कला के विविध पक्ष और साहित्य पर भी बराबर थी. कुमार जी के घर लगभग सारे अखबार और पत्रिकाएं आती थी जिनका अध्ययन और मनन वे लगातार करती रहती थी. मुझे याद है एक बार जब जब्बार पटेल ने अपने नवनिर्मित फिल्म “उड़ जाएगा हंस अकेला” का प्रीमियर देवास में रखा था और मै जब्बार पटेल का इंटरव्यू कर रहा था तो ताई ने कई मुद्दों और फिल्म के तकनीकी पहलुओं पर विस्तृत बात रखकर जब्बार पटेल को भी आश्चर्य में डाल दिया था. फिल्म के शो के बाद लोगों के प्रश्नों का भी ताई ने बखूबी जवाब दिया था जो उनके गहन वाचन और याद रखने का अनूठा उदाहरण था.

संगीत के कार्यक्रमों में देवास में लगभग हर कलाकार यहाँ आता है और भानुकुल जाकर स्व कुमार जी श्रद्धा सुमन अर्पित करता है और ताई से आशीर्वाद लेता था. हम बड़े कौतुक से हर शख्स को ताई से बात करते हुए देखते थे और पाते थे कि वे  हर कलाकार की उनके गुणों के कारण तारीफ़ करती और रचनात्मक सुझाव भी देती थी और हर कलाकार इसे सहजता से स्वीकार करता था. शायद हम कभी महसूस ही नहीं कर पाए कि कुमार जी और ताई जैसे बड़े महान लोगों के सानिध्य में हमारा बचपन कब गुजर गया और हम संगीत में संस्कारित हुए. कुमार जी और ताई ने देवास की अनेक पीढ़ियों को शास्त्रीय संगीत का ककहरा सिखाने का महत्वपूर्ण किया.

ताई सिर्फ कुमारजी की सहचरणी नहीं थी बल्कि शास्त्रीय संगीत के जो संस्कार ग्वालियर घराने और अपने पिता से मिले थे उन्होंने संगीत में बहुत प्रयोग किये, निर्गुणी भजनों की परम्परा को जीवित रखा. देश विदेश में उनके शिष्य आज इस परम्परा को निभा रहे है. कुमार जी के निधन के बाद वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सेदारी कम करने लगी थी परन्तु अपनी पुत्री सुश्री कलापिनी और पोते भुवनेश को उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा देकर इतना पारंगत कर दिया कि ये दोनों आज देश के स्थापित कलाकार है.

इधर ताई बीमार रहने लगी थी, जब भी मिलते तो कहती थी कि मिलने आ जाया करो, अब तबियत ठीक नहीं रहती. और आखिर कल वही हुआ जिसका डर था, कल वे अपने ही घर पर गिर गयी और कूल्हे में चोट लगी थी, कलापिनी और भुवनेश ने खूब प्रयास किये परन्तु कल दोपहर उन्होंने अंतिम सांस ली. ताई को भारत सरकार ने कई पदम् पुरस्कारों और उपाधियों से नवाजा था. भारतीय संगीत की मूर्धन्य गायिका तो वे थी ही, साथ ही एक अच्छी गुरु और बहुत स्नेहिल माँ थी. देवास के साथ साथ पुरे मालवे ने आज एक वात्सल्यमयी माँ को खो दिया.
*** 
संदीप नाईक,
सी – 55, कालानी बाग़,
देवास, मप्र.
9425919221.

आज वीरेन दा का जन्मदिन है

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अग्रज कवि वीरेन डंगवाल के लिए ये दो कविताएं, जो मेरे इस बरस 'आए-गए'संग्रह 'खांटी कठिन कठोर अति'में शामिल हैं। इनमें से एक साल भर पहले समालोचन पर छपी थी। बहरहाल, चाहें तो इन्हें कविता मान लें, चाहें तो मेरा अपने अग्रज से निजी संवाद।  
  

 
1
ओ नगपति मेरे विशाल

कई रातें आंखों में जलती बीतीं
बिन बारिश बीते कई दिन
अस्पतालों की गंध वाले बिस्तरों पर पड़ी रही
कविता की मनुष्य देह

मैं क्रोध करता हूं पर ख़ुद को नष्ट नहीं करता
जीवन से भाग कर कविता में नहीं रो सकता
दु:खी होता हूं
तो रूदनविहीन ये दु:ख
भीतर से काटता है

तुम कब तक दिल्ली के हवाले रहोगे
इधर मैं अचानक अपने भीतर की दिल्ली को बदलने लगा हूं
मस्‍तक झुका के स्‍वीकारता हूं
कि उस निर्मम शहर ने हर बार तुम्हें बचाया है
उसी की बदौलत आज मैं तुम्‍हें देखता हूं

मैं तुम्हें देखता हूं
जैसे शिवालिक का आदमी देखता है हिमालय को
कुछ सहम कर कुछ गर्व के साथ

ओ नगपति मेरे विशाल
मेरे भी जीवन का - कविता का पंथ कराल
स्मृतियां पुरखों की अजब टीसतीं
देखो सामान सब सजा लिया मैंने भी दो-तीन मैले-से बस्तों में
अब मैं भी दिल्ली आता हूं चुपके से
दिखाता कुछ घाव कुछ बेरहम इमारतों को
तुरत लौट भी जाता हूं

हम ऐसे न थे
ऐसा न होना तुम्‍हारी ही सीख रही
कि कविता नहीं ले जाती
ले जा ही नहीं सकती हमें दिल्ली
ज़ख्‍़म ले जाते हैं

ओ दद्दा
हम दिखाई ही नहीं दिए जिस जगह को बरसों-बरस
कैसी मजबूरी हमारी
कि हम वहां अपने ज़ख्‍़म दिखाते हैं.
***

2

हे अमर्त्य धीर तुम

वह
फोन पर जो आती है कुछ अस्पष्ट-सी आवाज़
अपने अभिप्रायों में बिलकुल स्पष्ट है

एक स्वप्न का लगातार उल्लेख उसमें
हालात पर किंचित अफ़सोस
यातना को सार्वजनिक न बनने देने का कठिन कठोर संकल्प

आवाज़ आती है जिनसे लदी हुई
कितने अबूझ वे दु:ख के सामान
जितने नाज़ुक
उतने क्रूर

आवाज़ पर कितने बोझ कुछ धीमा बनाते उसे
पर पुरानी गमक की उतनी ही तीखी तेजस्वी याद भी उसमें

कुछ नहीं खोया
इतना कुछ नहीं मिटा चेहरे से
नक्श बदले ज़रा ज़रा पर ओज नहीं
प्यार वही
उल्लास वही

सुनना जहां ढाढ़स में नहीं उत्सव में बदलता हो
आवाज़ भी ठीक वही

जबकि
इधर के बियाबान में
बिना किसी दर्द और बोझ के बोल सकने वाले महाजन
बोलते नहीं कुछ
वह आवाज़ आती है
उस निकम्मी ख़ामोशी में पलीता लगाती
ले आती हमारे हक़ हुकूक सब छीन छान
               तिक तीन तीन तुक तून तान
- यही असर है थोड़ा-सा तालू पर

जीवन के तपते जेठ महीने में
पांव पड़ा था बालू पर
थे लगे दौड़ने केकड़े जहां बाहों के ताक़तवर कब्ज़े खोले
चिपटते-‍काटते जगह-जगह
तब से ये आवाज़ विकल है

लेकिन
स्त्रोत सभी झर-झर हैं इसके
उतनी ही कल-कल है इसमें
अब भी है
सतत् प्रवाहित सदानीर वो

आशंकाओं की झंझा में जलती चटख लाल एकाग्र लपट का
तुम प्यारे
अमर्त्य धीर हो
***

शायक आलोक की कविताएं

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शायक की दस कविताएं पहले अनुनाद पर लग चुकी हैं। शायक के मुहावरे में कोई फेरबदल तब से कमोबेश नहीं हुआ है और मुझे यह बात अच्छी लगती है। पहले कभी लगा था कि शायक को अपने थोड़े-से फेसबुक सम्पर्क के चलते (कविकर्म को लेकर) ज़्यादा गंभीर हो जाने की सलाह दूं पर ग़ालिब याद आए कि बने हैं दोस्त नासेह, फिर याद आया हरिशंकर परसाई का निबन्ध, जिसमें उन्होंने लोगों की रोक-टोक पर ख़ूब तीखा लिखा है। पुरखों की याद ने मुझे रोक लिया। वास्तविकता भी यही है कि सलाह-मशविरे अकसर किसी भी कवि की मौलिकता और ऊर्जा के विरुद्ध जा सकते हैं। यहां शायक की चंद नई कविताएं हैं, नई इस अर्थ में कि किसी ब्लॉग पर ये पहले बार आ रही हैं – फेसबुक पर ज़रूर शायक ने इन्हें साझा किया है। कविताओं पर प्रतिकिया पाठक देंगे।    

(शायक प्रतिभाशाली फोटोग्राफर भी हैं। उनकी कई तस्वीरें मेरी याद में हैं। मेरे नए संग्रह पर भी उन्हीं की खींची एक तस्वीर है। उस तस्वीर के लिए नहीं, कविताओं के लिए, शुक्रिया कवि...)  


1.
वह मेरी लगभग तमाम बातों से सहमत थी
उसने भी माना कि चींटियों की लंबी गुजरती कतार रेलगाड़ी सी दिखती है
और यह भी मान लिया बेहद आसानी से कि रेलगाड़ी के गुजरने पर पुल का थरथराना
वस्तुतः पुल की एकाकी ज़िन्दगी में उत्सव की थाप है
वह जिसकी प्रतीक्षा में रहता है

उसने सहमति जताई कि पुल पर रेलगाड़ी से गुजरते जब पैसे फेंके जाएं
तो किनारों पर फेंके जाए ताकि तैराक मल्लाह बच्चा गोता लगाकर पानी से हवा मिठाई निकाल सके

इस सहमति पर वह उल्लासित थी कि जैसे पुल नदी के दो किनारों को जोड़ता है
वैसे ही एक दूसरे से जुड़े रहने के लिए हमें लंबी रेल यात्राएं करनी चाहिए
और जब जब गाड़ी किसी पुल से गुजरे
तो हम हाथ थाम लें
खिड़की से एक साथ नीचे नदी में झांके 
और कुछ पैसे फेंक दें

उसने विरोध के लिए एक सांस खींची लेकिन उसे बीच में ही छोड़ दिया
और सर हिलाकर सहमति जता दी कि इस बार हम लौटेंगे
तो अपनी इच्छा से नहीं लौटेंगे

हमारी असहमति बस घर के उस दरार को पाटने को लेकर थी
जहाँ चींटियों की रेलगाड़ी गुजरती थी
पर थरथराता हुआ पुल नजर नहीं आता था. 
***
2.

माय लार्ड
उसकी हत्या के लिए तो नहीं किन्तु मेरी आत्महत्या के लिए आप मुझे सजा सुना सकते हैं
हाँ मैं जिंदा हूँ फिर भी यह बयान
आप भले मेरा गला टटोल निश्चिंत हो सकते हैं कि जान निकालने के लिए अभी इसको दबाया जाना बाकी है
लेकिन सच में मैं आत्महत्या कर चुका हूँ

माय लार्ड वह भी पराजित था मेरी ही तरह
और जब वह अपने कमरे में लेटा पराजय पर विचार कर रहा था
तब मैं अपने कमरे में लेटा आत्महत्या की योजना बना रहा था  
यकीनन उसके फैसले को मेरी योजना से यकीन मिला होगा
उसका कमरा मेरे कमरे से बस चार फर्लांग की दूरी पर ही तो है

माय लार्ड
यह लाश उसकी है पर आत्महत्या मैंने की है
मुझे उसकी हत्या के लिए नहीं मेरी आत्महत्या के लिए सजा सुनाई जाए.
***
3.
तुम्हारी कार की सीट बेल्ट वह जादुई चीज है
जो मुझे सलीब में टंगा जीसस बना देती है
और मैं खुश होता हूँ मेरी मैरी मैगडेलन कि
मेरे साथ की चालक सीट पर बैठी
मेरे बराबर के सलीब में टंगे रहने तक तुम साथ देती हो
शुक्रगुजार हूँ कि सलीब पर टंगना भी तुमसे ही सीखा.
***
4.
मेरे बेटे
तुम अक्षर पहचानना सीख गए हो
तुम घुमावदार व सपाट दो प्रकार से लिख सकते हो
तुम कमाल हो कि तुम शब्दों से वे वाक्य बना सकते हो
जो हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में काम आएगा

तुम पानी लिखते प्यास की और दूध लिखते खीर की कल्पना कर सकते हो

मुझे संतोष है मेरे बेटे कि अब तक तुम्हारे पाठ में
चिड़िया पौधे मछली बारिश आपस में बोल बतिया लेते हैं
मैं तुम्हारे हाथ चूमता हूँ जिनसे तुमने उड़ सकने वाला कछुआ बनाया

मेरे बेटे अब हाशिया खींचना सीखो
कि लिखने रचने में हाशिया-बरदार का उम्र भर ख्याल रखना. 
***
शायक

गंदे पोस्टकार्ड - अविनाश मिश्र

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गंदे पोस्टकार्ड
अविनाश मिश्र



मेरी एकांतप्रियता का जन्म तब हुआ जब लोगों ने मेरी वाचाल त्रुटियों की प्रशंसा प्रारंभ की और मूक गुणों की निंदा...
खलील जिब्रान
***

हिंसा
व्यवहार में
अन्याय के प्रतिकार में चली आई

यह मनुष्यता थी
नैतिकता थी
या
कायरता
कि प्रायश्चित भी चला आया
* 

वे ठीक कहते हैं तुम्हारी कविताएं सचमुच अद्भुत हैं और कहानियां भी और एक अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित वह समीक्षा भी जो तुम्हारी नहीं एंतोनियो ग्राम्शी की बात से शुरू होती है। तुम जब एंगेल्स को उद्धृत करते हो, हास्यास्पद नहीं, कसम से बहुत क्रांतिकारी लगते हो। मेरी छोड़ो, मेरे तो मन में ही कोई दिक्कत है, पानी तक अच्छा नहीं लगता...।

...एक कप चाय के लिए भी जब इतने झूठ बोलने पड़ते थे, तब जिंदा रहने के लिए सोचो मैंने क्या-क्या न किया होगा। जो जहां था वहीं से धोखा देने में लगा हुआ था और मैं इतनी मुश्किल में था कि इतना वक्त भी नहीं था मेरे पास कि किसी मुश्किल में फंस सकूं।
*

मन की कीमत बहुत कम थी
*

मैं बातें भले ही गांव की करता थालेकिन दिल्ली में रहते एक उम्र गुजर गई थी और सारी जिंदगी का कमीनापन निचुड़कर चेहरे पर आ गया थामैं लाख उलझाता थाचुप लगाता था। कुछ भी सुनाता था। कहीं भी चला जाता था। पहचाना जाता था।

मैं शीर्षस्थानीय था  
* 


सच्ची कविताओं के पंख होते हैं।
एमिली डिकिंसन
***


एक अच्छा कवि चाहता है कि उसकी खराब कविताओं की चर्चा हो
एक खराब कवि चाहता है...
*

वे कहते हैं, ‘‘कला में नक्काशी की उम्र ज्यादा नहीं होती।’’
मैं कहता हूं, ‘‘केवल दूर से देखने पर ही वह सपाट नजर आती है।’’
*

मेरी भविष्यवाणियों के दुर्दिन आ गए हैं
मैं कह रहा हूं, ‘‘यह भविष्य के लिए सुखद है।’’
*

मैं
कल के लिए हूं
मेरा आज तो सिर्फ तैयारी है
कल ही मिलना मुझे
                                                       इब्बार रब्बी
***
राजनीतिज्ञ चाहेंकितने भी ईमानदार क्यों न हों, उन्हें नमस्कार करने वाले लेखक हिंदी में अच्छे नहीं माने जाते थे

‘‘मेरे घर में आग लग गई।’’यह अपने संपादकीय में बताने वाले संपादक हिंदी में अच्छे नहीं माने जाते थे

घर बुलाकर अपनी कविताएं सुनाने वाले कविहिंदी में अच्छे नहीं माने जाते थे

अपने पाठकों को अपने समीक्षक में तब्दील कर देने वाले कथाकारहिंदी में अच्छे नहीं माने जाते थे

एक समय हिंदी में सब के सब बुरे नहीं माने जाते थे।
*

अनुभूत सत्य कायमनोवाक्य से प्रस्फुटित होता ही था...
* 

पाखंडियों के घर में इतनी किताबें देखीं कि मैंने कबाड़ियों से संपर्क किया।
*


मैं
कल
पर
बहुत
कम
काम
छोड़ता
था।
*

तुम मात्र एक अहंकार हो अवसाद से झुठलाए हुए...
स्टीवन मलार्मे
***

बहुत सारे महानुभावों से 
मुलाकातें हैं केवल एक बार की 

इन पर भी चढ़ती जाती है परत वर्षों की 

इस महानुभावता से इस कदर हुई भेंट 
कि पुन: मिलने की गुंजाइश न रही 

थोड़ा बेफिक्र हुआ तो बहुत कृतघ्न हुआ 
बहुत फिक्रमंद था तो थोड़ा कृतज्ञ था 
*

क्रांतिकारियों के पते नहीं पूछा करते। यह अलग तथ्य है कि लड़कियां उन्हें सदा से खत लिखना चाहती रही हैं, लेकिन यह लड़कियों की समस्या है, क्रांतिकारियों की नहीं।
*

सहमति में वक्त है अभी
दुःख सख्त है अभी

आना तो लेते आना
थोड़ी-सी सहमति भी

कि आदमी तो मैं ठीक लगता हूं
लेकिन हूं नहीं
*

अगर मैं कोई ऐसा सुंदर वाक्य लिखूं जिसमें संयोगवश दो लयबद्ध पंक्तियां हों तो वह एक भारी भूल होगी।
— Ludwig Wittgenstein
***


आईटीओ से उसने मोड़ ली गाड़ी जाम बहुत था  
हालांकि दरियागंज में उसको काम बहुत था

दौ सौ पच्चीस रुपए की रॉयल्टी का था चेक उठाना
एक पांडुलिपि थी जमा करानी जिस पर ईनाम बहुत था

अंसारी साहिब से मिलना था उनकी चौखट तक जाकर
उनकी नजरों में अब तक वह नाकाम बहुत था

खानी थी लाला की बिरयानी और बंटा पीना था
बात अलग कि दो दिन से जुकाम बहुत था

जाग्रुति तो लोहे वाले पुल के नीचे रुकी हुई थी
सृम्रुद्धि को प्रधानसेवक का नाम बहुत था

उड़नखटोले उड़ते थे आईजीआई एयरपोर्ट से
गोशे में गोलचा के उसे आराम बहुत था
*

गर्मी के दिन मेरे लिए तपने के दिन होते हैं। मैं धरती की तरह तपता हूं।
संचय करता हूंताप!
                                मलयज
***

पिथौरागढ़ या शिमला...
कहीं नहीं जाऊंगा
जहां-जहां बुलाया जाऊंगा
वहां-वहां नहीं जाऊंगा

आऊंगा
जब नहीं बुलाया जाऊंगा
बिन बुलाए परिचित की तरह
या अयाचित अपरिचित की तरह आऊंगा
आ धमकूंगा सुख की तरह
भूख की तरह लग जाऊंगा
बीमारियों और पुरस्कारों की तरह नहीं आऊंगा
अपनी ही गलती अपनी ही साजिश से नहीं आऊंगा

आऊंगा
शिविरबद्धता और उत्सवधर्मिता के आमंत्रण-पत्रों को फाड़कर
असमंजस की तरह नहीं
दृढ़ता की तरह आऊंगा
बगैर तस्वीर की खबर की तरह आऊंगा
नहीं आऊंगा पत्रकार की तरह
प्यार की तरह आऊंगा
पराजितों की तरह नहीं...
****
अविनाश मिश्र का लिखा बहस में रहता है
कम लेखक हैं, जिनका लिखा बहस में रहता है
विसंगति है
कि कमतर लेखकों का लिखा चर्चा में रहता है
और इसे विडम्बना की तरह देखने वाले भी चर्चा में रहते हैं
 लोग भूल जाते हैं चर्चा और बहस का अन्तर

गंदे पोस्टकार्ड को पढ़ने और छापने का अनुभव मैं चाहता हूं बहस में रहे
चर्चा का चरखा अब सूत नहीं कातता, उसके लिए बड़े-बड़े कारख़ाने लगे हैं

अनुनाद एक छोटी जगह है 
लेकिन यहां बैठकर बहस कर सकते हैं
चिट्ठियां पढ़ सकते हैं
बात कर सकते हैं न सिर्फ़ लिखने वाले पर
पाने वालों पर भी
साहित्य की भव्य इमारतों और जलसों से दूर
आमराहों पर चलने वालों के लिए यह जगह ख़ानकाहों की तरह हमेशा खुली रहती है।
इन पोस्टकार्ड्स का 
यहां स्वागत है अविनाश।

अमेरिकी अश्वेत युवकों का प्रतिरोध गीत - अनुवाद एवं प्रस्त़ति : यादवेन्द्र

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द पीस पोएट्स के ल्यूक नेफ्यूका यह प्रतिरोध गीत पिछले कई महीनों से अमेरिका के अश्वेत बहुल इलाकों में आजकल अक्सर सुनायी देता है फ़ेसबुक ,ट्विटर और इंटरनेट आधारित अन्य जन संवाद माध्यमों में इसकी धूम मची हुई है। श्वेत पुलिस वालों द्वारा अश्वेत युवकों के ख़िलाफ़ अकारण अंजाम दी गयी एक के बाद एक घृणा प्रेरित हिंसा की घटनाओं ने अश्वेत युवकों को उद्वेलित और आवेशित कर दिया है। 

छोटे से इस गीत का शीर्षक जुलाई 2014 में न्यूयॉर्क स्टेट में एक नौजवान श्वेत पुलिस अफ़सर डेनियल पेंटालियो द्वारा यातना देकर और गला घोंट कर मार डाले गये 44 वर्षीय अश्वेत एरिक गार्नर द्वारा जीवन के आख़िरी पलों में बोले गये शब्दों पर आधारित है जिसमें गार्नर गला दबाने के कारण साँस न आने की शिकायत करता रहा पर पुलिस वालों ने उसकी एक न सुनी और वह सड़क पर तड़प कर मर गया। एक घण्टे बाद जब गार्नर को अस्पताल ले जाया गया तो वह जिन्दा इंसान नहीं बल्कि लाश बन चुका था। पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट में उसकी मृत्यु को होमिसाइड (क़त्ल ) माना गया और कारण गला दबाने से साँस रुक जाना बताया गया। इसके बाद जब मुकदमा चला तो राज्य की ग्रैंड जूरी (23 सदस्यों वाली जूरी में 14 गोरे ,5 अश्वेत और शेष दूसरी नस्लों के सदस्य थे )ने श्वेत पुलिस अफ़सर डेनियल पेंटालियो को तमाम सबूतों को दर किनार कर दोष मुक्त कर दिया।इस फैसले का आम जनता ने( अश्वेत समुदाय अग्रणी भूमिका में) पूरे अमेरिका में कड़ा विरोध किया -- यहाँ तक कि वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा और पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भी। कलाकारों और लेखकों ने बड़े विरोध प्रदर्शन आयोजित किये और ख्यात गायकों ने इस गीत को जगह जगह पर गाया -- यहाँ तक कि बड़े खिलाड़ियों ने भी बड़े पैमाने पर "आई कांट ब्रीद"लिखी हुई टी शर्ट्स पहन कर नस्लवादी हिंसा के प्रति मौन प्रतिरोध दर्ज़ कराया।    


"आई कांट ब्रीद" 

मुझे सुनाई दे रही है भाई की करुण चीख 
कि "मैं ले नहीं पा रहा हूँ साँस तक"… 
अब मैं संघर्ष में शामिल हूँ , और कहूँगा 
कि "बीच रास्ता छोड़ कर भाग नहीं सकता"
रंगभेदी पुलिस की हिंसा के ख़िलाफ़ उठानी ही होगी आवाज़
अब हम रुकने वाले नहीं जबतक आज़ाद न हो जाये अवाम !   
अब हम रुकने वाले नहीं जबतक आज़ाद न हो जाये अवाम !  

(गीत के ढाँचे में नहीं ,सिर्फ़ भावार्थ प्रस्तुत है)

हॉलीवुड के मशहूर अभिनेता सैमुएल जैक्सन ने एक वीडियो पोस्ट कर के सभी सेलिब्रिटीज़ से अनुरोध किया है कि वे सार्वजनिक तौर पर "आई कांट ब्रीद" गीत गायें। 



इमरजेंसी : एक पारंपरिक रूपक - प्रस्तुति : विकासनारायण राय

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राजा बोला रात है
रानी बोली रात है
मंत्री बोला रात है
संत्री बोला रात है

यह सुबह-सुबह की बात है

हिंदी कविता : ऊर्जा के नए स्त्रोत - महाभूत चन्दन राय / तीन नए कवि : प्रदीप अवस्थी, सोमेश शुक्ल तथा आदित्य

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महाभूत चन्दन राय द्वारा फेसबुक पर लगाई जा रही इन कविताओं पर निगाह पड़ते ही ठहर गई। मैंने उनसे अनुनाद के लिए इन्हें मांगा और और उन्होंने मेरे अनुरोध का मान रखा। इस चयन और टिप्पणी के लिए शुक्रिया साथी, हमें नए समय में हमेशा यह साथ चाहिए... ऊर्जा के नए स्रोत में अभी और कवि आने हैं।

*** 
ऐसे कविता दौर में जबकि आप अपनी सारी बधाईयाँ, सारे पुरस्कार, सारी शब्दावली, अपने चमचों,अपने गिरोहों,अपने गर्भ से पैदा किये नकलनवीसों को होम कर चुके हों ! जब कविता के रहबर  सामूहिक स्वर में  बिगुल बजाते हुए रोज अपने किसी आत्मिक को कविता-सम्राट घोषित कर देते हों !पुरस्कारों के लॉटरी बाजार में कोई एक कविता आपके कवि होने की लॉटरी हो !

ऐसे कविता-समय में जब अग्रज कवियों की साहित्यिक भूमिकाएं संदिग्ध हो  ! उनके उत्तरदायित्व निहायती निजी चीज हो ! आलोचनाएँ  हतप्रेमी चारणों की तरह  महज यशोगान की पीपनी बजाना ही जानती हो  ! साहित्यिक अभिरुचियाँ गिरोहों की तरह काम कर रही हों ! जब शब्दों और विचारों से अधिक किसी साहित्य में दोस्तियों,गुटबाजियों,परिचयों,
तस्वीरों ,ईर्ष्याओं और कुंठाओं  के लिए अधिक जगह हो !

जब हमारा  कविता-बोध आत्म-केंद्रित, आत्म-मुग्द्ध, परिचय-निष्ठ,पुरस्कार-निष्ठ  भर बन कर रह गया हो ! जब हम कविता-निष्ठ न होकर कवि-निष्ठ अधिक हो ! जब  पुरस्कार ही किसी कविता में आपकी अभिरुचि का पाठकीय पैमाना हो !
जब रचनात्मकता परिचयों की मोहताज बन रही हो ! हमारी कविताओ में  रचने का शिल्प हो या स्वीकार्यता का शिल्प सब कुछ इकहरा होता जा रहा हो ! ऐसे साहित्यिक समय में जब लेखक बहुत अधिक हो और पाठक बहुत कम ! जब पढ़ने का कौशल छिन्न हुआ जा रहा हो !

-- सोचिए ऐसे  कविता परिवेश में कविता करना कितना खतरनाक होगा ??

मगर हिंदी कविता का साहस देखिये की  ऐसे ही कितने संघर्षों, उत्पातों, परम्पराओं के बनने और टूटने की प्रक्रिया से गुजरती हुई हिंदी कविता खुसरों,कबीर ,तुलसीदास ,वृन्द ,निराला ,प्रसाद ,शमशेर मुक्तिबोध ,पंत,सर्वेश्वर ,राजकमल, धूमिल, अदम,नागार्जुन,केदारनाथ सबको खुद में समाहित करते हुए आगे बढ़ती है और  कविता के नए प्रतिमान गढ़ती है !

किन्तु इक्क्सवी सदी की कविता अब तक अपरिलक्षित है ! उसमे एक निष्क्रिय होती स्थिरता आ चुकी है !  यह अपनी गति प्रवाह के लिए"ऊर्जा के नए स्त्रोत"ढूँढ रही है जो उसे एक नवसंचार ,नया परिवेश, नई भाषा,नया आवरण, नई ताकत से  भर सके की वह कविता ही नहीं मानवता  के नए संकटों से जूझ सके ! उसे अौजारों और हथियारों की नही नए विचारों की दरकिनार है !

यहाँ प्रस्तुत कवितायेँ इक्कीसवी सदी की हिंदी कविता की ऊर्जा के स्त्रोत की बानगी भर है ! इन कविताओं तक पहुँच पाना इस बात का भरोसा भर नही है की वह कविता के तमाम संकटों ,दुर्व्यवस्थाओं के बावजूद आप ही बहुत अच्छे से खुद को पोस रही है बल्कि वह अपनी आत्म-निर्भरता और अपनी व्यापकता का दावा भी पेश करती है ! इन कविताओं को पढ़ना खुद को ऊर्जा से भर देने जैसा ही है और साथ ही इस बात की आश्वस्ति की हिंदी कविता का यह  कोश नए कवि रत्नों से समृद्ध हो रहा है जो इस उत्तर-आधुनिक संस्कृति के भ्रामक बहकावे से दूर  अपनी जगह खुद बना रहे है !
एक पाठक के तौर पर मैं आप से आग्रह करूंगा की यदि आप अपने रचे के अहंकार से भरे है तो इन कविताओं को न पढ़े ! यदि आप दया से भरे है तो भी इन कविताओं को न पढ़े ! यदि आपके भीतर इन कवियों के प्रति सहानभूति पनप रही हो तो इन्हे न पढ़े ! यदि आप किसी पुरस्कार समिति के अध्यक्ष, किसी संपादक, किसी निर्णायक की तरह इनमे श्रेष्ठता की गुंजाइश ढूंढने के लिए इन्हे पढ़ रहे है तो इन्हे न पढ़े !

मगर हाँ यदि आप इन्हे एक पाठक की तरह पढ़ रहे है तो जरूर पढ़े और कवि को पाठक के मन की बात  कहे...


कवि-1 / प्रदीप अवस्थी

मैंने औरों के प्रति बरती ईमानदारी
इसमें अपने प्रति ग़द्दारी छिपी थी |

वे प्रेम जैसा कोई शब्द पुकारते हुए मेरे पीछे दौड़े
मैं यातना नाम का शब्द चिल्लाते हुए उनसे बचकर भागा |

गिड़गिड़ाते हुए लोगों की आँखों में झाँककर देखा जाना चाहिए
वे बचाना चाहते हैं कुछ ऐसा
जो जीवन भर सालता रहेगा |

कहानियाँ बस शुरू होती हैं,ख़त्म कभी नहीं
ख़त्म हम होते हैं |

और मैं कहना बस यह चाहता था कि
मैं उन्हें ज़रूर पहचानता हूँ
लेकिन उनके लिए या अपने लिए क्या हूँ
मैं नहीं जानता |
*** 



कवि-2 / सोमेश शुक्ला 

रोजमर्रा


सोचते हुये,,
मेरा स्वभाव उल्टा हो जाता है
हर रोज

मैं उल्टा चलते हुये,, तुम्हारी देहरी तक
पहुँचता हूँ
रोज
पत्ते जमीन से उठकर डालों से जुड़ने लगते हैं।

रफ्तारें अपनी आवृति में मानो जम जाती हैं,, तब
ठहराव ही ठहराव दौड़ता है,
वक्त की साँसो में

"बाहर",, बाहर की ओर सुकुड़ने लगता है,, जैसे
"भीतर"फैलता चला जाता है मेरा
भीतर की ओर

इसी भीतर के भीतर है समय,
समय के भीतर हूँ मैं

मेरे भीतर है"ये बाहर",, जिसके कि भीतर
मैं चले चला जाता हूँ
उल्टे कदम।

तमाम मंदिरों से,, मैं
ईश्वर को"मरा मरा"सुनता चलता हूँ।

कुछ बच्चे खिलौने वापस करके,, अपने घरों में चले जाते हैं
उल्टे कदम
तुम भी अपने स्वर-शब्द वापस ले लेती हो
रोज।
*** 

कवि-3/ आदित्य 

कुछ दिन भटक कर वापस लौट आई कुर्सी की आत्मा
अपनी आत्महत्या के पूरे उन्नीस दिन बाद
जिसके गले में लटका फांसी का फंदा
लतर रहा था जमीन पर गंदा होकर.

आकर, घर लौटकर कुर्सी की आत्मा
कुर्सी पर गिर गई निढ़ाल होकर
आत्मा का स्पर्श मिला
हलचल हुई कुर्सी के कुछ हिस्सों में
पायों में, हत्थों में
रेंगने लगे लकड़ी के कीड़े
ज्यों अचानक थमा हुआ रक्त बहने लगता है नसों में, धमनियों में.
रेंगने लगे लकड़ी के कीड़े छोटे-छोटे काले-भूरे कीड़े
किर्र-किर्र आवाजें करने लगे
थमे हुए अंधेरे समय में होने लगा स्पंदन.
कांपने लगा चेहरा
भुरभुराने लगे पाये बुरादा बनकर.

अपनी आत्महत्या के ठीक उन्नीस दिन बाद लौट आई कुर्सी की आत्मा
कि उसकी लकड़ी से कोई ताबूत न बना दें लोग
किसी जिंदा या मरे हुए इंसान को दफनाने के लिए.
*** 

अमेरिकी अश्वेत युवकों का प्रतिरोध गीत :2 / भावानुवाद एवं प्रस्तुति - यादवेन्द्र

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अगस्त 2014 के पूर्वार्ध में सेंट लुइस के अश्वेत बहुल फर्गुसन में 18 वर्षीय अश्वेत नौजवान माइकेल ब्राउनकी एक गोरे पुलिस ऑफिसर डेरेन विल्सन ने दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी और आरोप लगाया कि वह उसकी पिस्तौल छीनने की कोशिश कर रहा था सो आत्म रक्षा में उसपर गोली चलायी।विल्सन का आरोप है कि इलाके में हुई एक वारदात के दो संदिग्धों के साथ ब्राउन और उसके साथी डोरियन जॉनसन की शक्ल मिलती थी और ब्राउन मुझे किसी राक्षस ( डेमन) जैसा लगा ,सो मैंने उनपर गोली चलायी। मारे जाने के वक्त ब्राउन पर सीधा सीधा कोई गंभीर आरोप नहीं था और न ही उसके हाथ में कोई हथियार था। बाद में डोरियन जॉनसन को भी पकड़ लिया गया। इस हत्या के बाद फर्गुसन लगभग एक हफ़्ते तक आक्रोश और हिंसा की आग में झुलसता रहा। हद तो तब हो गयी जब सेंट लुइस की ग्रैंड जूरी ने पुलिस ऑफिसर डेरेन विल्सन  को निर्दोष बता कर आरोपमुक्त कर दिया। पर इस घटना की आँच पूरे अमेरिका में फ़ैल गयी और नागरिक अधिकार ऐक्टिविस्ट के अलावा शीर्ष संगीतकारों और कलाकारों ने प्रतिरोध प्रदर्शन आयोजित किये -- रैपर जे कोलका गीत आज़ाद रहो (बी फ़्री) फर्गुसन के इस हत्याकांड का ट्रेडमार्क गीत बन गया जो आम अश्वेत युवा की भावनात्मक अभिव्यक्ति है। इंटरनेट के साउंडक्लाउड पर जैसे ही कोल ने यह गीत लोड किया ,कुछ घंटों के अंदर ढ़ाई लाख बार इसको देखा सुना गया। दर असल मारा गया नौजवान माइकेल ब्राउन खुद ही एक उभरता हुआ रैपर था जिसके कई गीत साउंडक्लाउड पर उपलब्ध हैं।   
रैपर जे कोल ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि "कोई अचरज नहीं कि माइकेल ब्राउन की जगह गोली उसके सीने में लगती .... किसी न किसी अश्वेत नौजवान की हत्या को लेकर इतनी असंवेदनशीलता ने मुझे झगझोड़ दिया है। "

अनुनाद के पाठकों के लिए यहाँ उपर्युक्त गीत का भावानुवाद प्रस्तुत है :


आज़ाद रहो 

और मैं नकार की मुद्रा में हूँ 
और किसी एक्स रे की दरकार नहीं होगी 
जो बेध कर देख सके मेरी मुस्कान के पीछे की असलियत
मुझे मालूम है मुझे आगे बढ़ते रहना होगा
और दुनिया में अबतक बना नहीं कोई ऐसा पेय 
जो अब शिथिल कर दे मेरी चेतना  
कोई भी नहीं ....  

हम सब बस इतना चाहते हैं 
कि अब हट जायें सभी  बंधन 
हम सब बस इतना चाहते हैं
कि तोड़ डालें सभी जंजीरें 
हम सब बस इतना चाहते हैं कि अब मुक्त हो जायें 
हम सब बस इतना चाहते हैं कि अब आज़ाद हो जायें।

क्या आप मुझे बता सकते हैं 
कि घर से बाहर कदम रखते ही क्यों दिख जाता है 
दम तोड़ता कोई न कोई मेरा काला भाई ?
अब मैं आपको बता देना चाहता हूँ 
कि ऐसी कोई बंदूक़ वे बना नहीं पायेंगे  
जो मार सके मेरी चेतना को। 

(डोरियन जॉनसन का आँखों देखा ब्यौरा ) 
ऐसा लग रहा है जैसे अब ऑफिसर उसको कार के अंदर खींच रहा है और वह जी जान से प्रतिरोध कर रहा है। ऑफिसर ने एक बार भी उसको कोई चेतावनी नहीं दी .... इस धक्का मुक्की में उसकी पिस्तौल खिंच गयी तो उसने गरज कर कहा :"मैं तुम्हें गोली मार दूँगा "…… "देखो ,मैं तुम्हें शूट कर रहा हूँ। "…… और उसी पल गोली चल भी गयी। हमने देखा उसको गोली मार दी गयी है और लहू की तेज धार वहाँ से चारों तरफ़ फूट रही है .... यह देख कर भागते हुए हम जहाँ थे वहीँ ठहर गये।

क्या हम इतने अकेले हैं 
कि ख़ुद ही अदद अकेले लड़ रहे हैं अपनी लड़ाई
मुझे देना एक मौका करना नहीं अब डांस
कुछ ऐसा हुआ है जिसने जकड़ लिया है मुझको
और अब मैं खड़ा हो जाऊँगा डट कर सीना ताने 
आप भी तमाशबीन बन कर अब मत खड़े रहो 
सब कुछ देखते हुए अब खामोश मत खड़े रहो ……

(डोरियन जॉनसन का आँखों देखा ब्यौरा )
दौड़ते दौड़ते जब हम ठहर गए तब अपनी जान बचाने को नीचे झुक गया ,मुझे जान प्यारी थी। सामने सबसे पहले जो कार दिखाई पड़ी मैं  उसके पीछे छुप गया। मेरा दोस्त दौड़ता जा रहा था और उसने मुझे भी रुकने से मना किया .... उसको लगा कि रुका  तो मेरी जान भी नहीं बचने वाली  उसको दौड़ते देख पुलिस ऑफिसर ने चलती कार से नीचे उतरने की कोशिश की। उसने मेरे दोस्त को रुकने को कहा और अपनी पिस्तौल निकाल कर तान ली .... किसी ने उसके ऊपर निशाना नहीं साधा था ,साधता भी कैसे हम में से  किसी के पास हथियार था ही नहीं।जब वह कार से नीचे उतरा तो उसकी पिस्तौल उसके हाथ में तैयार थी.... उसने गोली दागी जो सीधे मेरे दोस्त को लगी। वह झटके से दूसरी ओर घूम गया और उसकी बाँहें हवा में लहरायीं .... वह चलती कार से नीचे घिसटने लगा पर ऑफिसर अब भी गोलियाँ बरसाता जा रहा  था -- उसके बाद भी उसने सात गोलियाँ और दागीं ....और  मेरा दोस्त मर गया।    

                                           (प्रस्तुति एवं भावानुवाद : यादवेन्द्र )    

क्या तुम मेरे ऊपर व्यंग्य कर रहे हो? नहीं मैं तुम्हें गाली दे रहा हूं : पंकज मिश्र

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हमारे वक़्त के ये यक्ष-युधिष्ठिर संवाद, जिन्हें इन्हीं में से चुराकर मैंने ऊपर एक शीर्षक दे दिया है।यक्ष पूछता है - क्या तुम मेरे ऊपर व्यंग्य कर रहे हो...  युधिष्ठिर जवाब देता है - नहीं मैं तुम्हें गाली दे रहा हूं। मुझे याद आता है परसाई जी का कहा कि निर्मल वर्मा की भाषा बहुत कोमल-बहुत अच्छी है लेकिन मेरे किसी काम की नहीं, मुझे तो भाषा में गाली देने का काम पड़ता है। इन संवादों में समाज, राजनीति से लेकर साहित्य तक की बहसों का एक सजग रचनात्मक संसार, जो धड़कता किंवा तड़पता हुआ-सा है, हमें तटस्थ रहे आने के विरुद्ध एक अजब बेचैनी से भर देता है। पंकज जी आपका स्वागत है अनुनाद पर। यह संवाद यहां जारी रहेगा। 
*********** 
यक्ष - हामिद अंसारी कौन है ?
युधिष्ठिर - हामिद अंसारी .....राज्यसभा टीवी चैनल के मुखिया हैं ...
यक्ष - भारत के उपराष्ट्रपति को तुम एक चैनल के मुखिया मात्र में रिड्यूस करके क्या दिखाना चाहते हो .....
युधिष्ठिर- राष्ट्र भक्ति ....

***

यक्ष– मुआफ़ी क्या होती है ?
युधिष्ठिर - मुआफ़ी एक चिड़िया होती है जो ट्वीट करती है ...जैसे ही आप ट्वीट को ध्यान से सुन उसे अप्रीशियेट करना चाहते है , चिड़िया फुर्र से उड़ जाती है ......

***

यक्ष -F T I I ( FILM & TELEVISION INSTITUTE OF INDIA ) के प्रमुख के रूप में गजेन्द्र चौहान के चयन को क्या तुम ठीक मानते हो ? सिर्फ हाँ या नही में उत्तर न देना ....कारण भी बताना है |
युधिष्ठिर -हे यक्ष ! आपको यह प्रश्न मुझसे नही पूछना चाहिये था | कारण स्पष्ट है ,मैं बायस्ड भी हो सकता हूँ | चूंकि , मुझे राजकाज चलाने का अनुभव है और राजनीति का भी इसलिए स्वयम को बायस्ड होने से बचाने के लिए मैं एक राजा के तौर पर जवाब देना चाहूँगा ...
यक्ष- साधुवाद युधिष्ठिर ......तुम से मुझे यही अपेक्षा थी कि तुम इस प्रश्न का उत्तर धर्मराज युधिष्ठिर के बजाय राजा युधिष्ठिर की तरह दोगे | तुम्हारा यह निर्णय तुम्हारे धर्मराज रूप को और प्रतिष्ठा देगा .......पुनः साधुवाद ......तो राजा युधिष्ठिर इस चयन को उचित मानता है या अनुचित ??
युधिष्ठिर- मैं इस चयन को बिलकुल उचित मानता हूँ ....कोई भी राजा होता तो यही चुनता .... क्योंकि उन्हें हर जगह सिर्फ एक ऐक्टर चाहिये , जो डायरेक्टर के मुताबिक , एक लिखी हुई स्क्रिप्ट के हिसाब से अभिनय कर सके .F T I I भी कोई अपवाद नही है .....इसके लिए जिस पैनल के बीच से चुनाव होना था उसमे कौन कौन थे यह भी तो देखिये ....श्याम बेनेगल , अदूर गोपालाकृष्णन और गुलज़ार ....वांछनीय योग्यता किस में थी अब जरा इसकी भी परख करें .....आप खुद देखिये कि ....श्याम बेनेगल और अदूर गोपालाकृष्णन दोनों प्रोड्यूसर और डायरेक्टर है इन्हें सिर्फ निर्देशित करना आता है निर्देशित होना नही , इसके अलावा तीसरे हुए गुलज़ार जो एक हाथ और आगे है वे तो स्क्रिप्ट भी खुद लिखते है और गीत भी अपना ही लिखा गवाते है .....
अब इसके बाद गजेन्द्र चौहान के अलावा चयन हेतु किसी भी राजा के पास और क्या विकल्प बच रहता है ........
***

यक्ष-'गज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया ' ......दूसरा मिसरा याद नहीं आ रहा .....
राजन ! यह कलाम किसका है ?
युधिष्ठिर-आपको गलत जानकारी है यक्ष .......
यह न तो शेर है, न ही यह किसी का अधूरा कलाम है .....यह'लोकोक्ति 'है .....
*** 

यक्ष -म्यांमार के हालिया इनकार से क्या भारत की सम्पूर्ण विश्व में किरकिरी हुई है ? क्या ऐसी बयानबाजी राजनयिक और विदेशनीति की असफलता है ?
युधिष्ठिर -नहीं ......नही ..बिलकुल नही ......यह हमारी ऐतिहासिक सफलता है .....किरकिरी के बजाय यह हमारे लिए हर्ष का विषय है | ऐसा इतिहास में पहली बार होने जा रहा है कि बिना किसी युद्ध के हमने सीमा विस्तार कर लिया | आखिर नष्ट हुए कैम्प किसी भूभाग पर ही रहे होंगे , उसके बाशिंदे भी भारतीय और क्या चाहिये .....यदि म्यांमार उस जगह को अपनी सीमा के भीतर नहीं मानता तो सीमा स्वयमेव पुनर्निर्धारित हो गई | अब वह भूभाग हमारा हुआ | ऐसा नसीब सबका नही होता | हम पांच गाँव के लिए महाभारत करने वाले लोग है और यहाँ इतना एरिया मुफ्त हाथ आ गया | हम एक ऐतिहासिक घटना के साक्षी हुए यक्ष ........
****

यक्ष -विश्व का सबसे सुदीर्घ फोटोसेशन किस देश में और कब घटित हुआ ?
युधिष्ठिर -देश की बात तो किया न करे यक्ष , आर्यावर्त के होते हुए किसी अन्य देश की क्या बिसात |
अब तक के आंकड़ों के अनुसार सबसे दीर्घकाल तक चलने वाला फोटोसेशन स्वच्छता अभियान के दौरान सम्भव हुआ .......यह अभियान प्रत्यक्षतः फोटो सेशन ही है और कुछ नही इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जिस समय इन्द्रप्रस्थ में सफाई कर्मी हड़ताल पर थे और चहुँदिश गंदगी का अम्बार था उस समय कोई भी स्वच्छता कार्य करते हुए नही दिखा ...न ही ऐसा कोई सेशन हुआ ......
***

यक्ष-हिन्दुस्तान और म्यांमार के बीच रिश्ते को क्या नाम दिया जा सकता है ?
युधिष्ठिर- मोहब्बत ......और सिर्फ मोहब्बत ...
दोनों के बीच निहायत नर्म-ओ-नाज़ुक आशिक और माशूक का रिश्ता है ..... माशूक जिसके इनकार में भी इकरार पढ़े जाने की रवायत है .....
***

यक्ष - जीवन में सबसे भावनात्मक क्षण कब आते हैं ?
युधिष्ठिर - स्मृति के झरोखे से , उसके गलियारे में झांकते समय ......
***

यक्ष -जनता परिवार की एकजुटता का सबसे बड़ा फायदा क्या है ?
युधिष्ठिर -एक अनाथ बच्चे को फ्री में इफरात गार्जियन मिल जाना , इसका सबसे बड़ा फायदा है |
***

यक्ष-आधुनिक रावण कौन है | इस रावण की क्या विशेषता है ?
युधिष्ठिर -ऐसा माना जाता है कि आधुनिक रावण पाकिस्तान है जिसकी नाभि म्यांमार में है | इस आधुनिक परिभाषा की सत्यता की परख हेतु नाभि में राम ने तीर चला दिया है | अब देखना है कि रावण का क्या होता है......
यक्ष-अब भी यदि रावण नही मरा तो क्या राम की क्षमताओं पर सवाल न उठेगा ....
युधिष्ठिर -बिलकुल नही .......आधुनिक भक्तों की दृष्टि में आधुनिक राम की क्षमता अप्रश्नेय है | सारा दोष किसी विभीषण के सर डाला जाएगा ......
***

यक्ष -योग क्या है ?
युधिष्ठिर - पहले चाहे जो रहा हो फिलहाल तो योग एक राजनीतिक व्यायाम है जिसका ड्रेसकोड डिसाइड होना बाकी है पर .........इसपे बहस जारी है .......
***

यक्ष - एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की संकल्पना कितनी साकार हो पाई है ?
युधिष्ठिर - धर्मनिरपेक्ष राज्य की संकल्पना का हाल तो ये है , कि धर्म निरपेक्ष राज्य होते होते हम एक शर्मनिरपेक्ष राष्ट्र अवश्य हो गये हैं ........
***

यक्ष - क्या देश को योग के आसनों की जरूरत है ?
यक्ष -नहीं ...........हमारे तो जींस में भांति भांति के आसन है जो हम प्रैक्टिस करते रहते हैं , अलग से क्या जरूरत .......७० से ७५ फीसद मेहनतकश आबादी , उन्हें न स्ट्रेचिंग एक्सरसाईज चाहिये , न स्टेमिना , न एरोबिक्स , न फ्लेक्सिबिलिटी , न योगा , इतने लचीले हैं कि रिक्शे पर सिकुड कर सो जाते है , ट्रक के नीचे सपरिवार रह लेते हैं , क्लाइमेट कंडीशंड देह है ...उन्हें तो शवासन करने का भी टाइम नही है इसलिए फोर्स्ड शवासन तो उनके लिए मैंडेटरी कर ही दिया गया है .....लाटरी सिस्टम से करवाया भी जाता है ...
मिडिल क्लास का एक हिस्सा तो परमानेंट मुर्गा बना ही हुआ है | यह सर्वांगासन और गर्भासन का फ्यूज़न है | इसका एक बड़ा हिस्सा सर्पासन , उष्ट्रासन , मयूरासन , ताडासन वगैरह शौकिया करता ही रहता है .........बमुश्किल १० से १५ फीसद की आवश्यकता को राष्ट्रीय आवश्यकता बना देना देखा जाए तो एक राष्ट्रीय रोग है , इसके उपचार के लिए कोई आसन हो तो ठीक | बाई द वे पूरी व्यवस्था स्थायी शीर्षासन में आलरेडी है ही ...और फिर उगते सूरज को सलाम करना तो हमारा सनातन धर्म है , इसमें कोई हस्तक्षेप हमे बर्दाश्त नही , इस मामले में हम पूरी तरह पन्थ निरपेक्ष हैं...... सो अलग से सूर्य नमस्कार करने करवाने की क्या जरूरत ...
***

यक्ष - सूर्यनमस्कार क्या है ?
युधिष्ठिर -यह उगते सूरज को सलाम करने की कवायद है | हम कलजुगी लोग यह समझते थे कि यह कलजुगीन कवायद है परन्तु अब हम जान गये हैं की यह अत्यंत प्राचीन परम्परा है | हर सफल आदमी इसमें पारंगत होता है इसलिए इसे सबको करना चाहिए .....
***

यक्ष -बांग्ला देश के निर्माण में अटल जी का क्या योगदान था ?
युधिष्ठिर - वही जो Mumbai Indians को I.P.L ( 8 ) का चैम्पियन बनाने में चीयर लीडर्स का था .....
***
यक्ष-भीषण गर्मी के क्या फायदे है ?
युधिष्ठिर - भीषण गर्मी के फायदे चमत्कारिक हैं | यह लोगों के कपडे तो उतरवा देती है पर नंगा नहीं करती, सिवाय उनके, जो इस भीषण गर्मी में प्यास और लू से मरते हुए लोगों को, राहत पहुँचाने के बजाय जल , जो ऐसे वक्तों में जीवन है , उस पर अपना एकाधिकार जमाए बैठे हैं |
यक्ष - क्या तुम मेरे ऊपर व्यंग्य कर रहे हो ?
युधिष्ठिर - नहीं ......मैं तुम्हे गाली दे रहा हूँ ......
***

यक्ष-राम के वनवास में क्या खास है ?

युधिष्ठिर-राम के वनवास ने राम को रामत्व प्रदान किया वरना उसके पहले तक उनका जीवन उन्हें साधारण नायकत्व भी प्रदान करने में सक्षम न था | इसके अतिरिक्त राम के वनवास के पीछे एक सम्विधानेतर सत्ता 'मन्थरा 'के रूप में सक्रिय थी .......मन्थरा ही वास्तविक ''रघुकुल रीत ''है जो चलती चली आ रही है.......बाकी वचन और प्राण के अन्तर्सम्बन्ध का सच तो सबके सामने है ही ........
***

यक्ष- सबसे स्लो अराइवल और डिपार्चर किस प्लेन का होता है ?
युधिष्ठिर - जिस प्लेन में नरेन्द्र मोदी सफर करते है |
यक्ष- वो भला कैसे राजन ?
युधिष्ठिर -मीडिया सुबह से बताता रहता है पहुँचने वाले हैं ...कुछ ही देर में पहुँचने वाले हैं ...और दोपहर में पहुँचते है | यही हाल डिपार्चर में भी होता है .....अब जाने वाले है ..अब जाने वाले हैं ...निकल चुके , निकल चुके ...चढ़ गए, चढ़ गए ....हाथ मिलाये , हाथ मिलाए ...हाथ हिलाए , हाथ हिलाए ...प्लेन में अब घुसे ..घुसे .....घुस गए , घुस गए ....बैठ गए बैठ गए.....गए गए गए ...उड़ गए.....उधिया गए .......
*** 

यक्ष- किसी जवान लडके से मिलते ही लोग ये क्यों पूछते हैं कि कुछ ''करते धरते ''हो कि नही ....
युधिष्ठिर-''करना धरना ''कलियुग का मुहावरा हैऐसा माना जाता है कि जब तब तक कोई कुछ धरे नही , तब तक कुछ भी करना , करना नही माना जाता ....यह नए जमाने की मस्लहत है .......
***

यक्ष -दालों के दाम इतनी तेज़ी से क्यों बढ़ रहे हैं ? अब लोग रोटी दाल कैसे खायेंगे ?
युधिष्ठिर -तो क्या हुआ , किस डाक्टर ने कहा है कि रोटी बिना दाल के नही खाई जा सकती | रोटी घी-नमक लगा कर , मक्खन के साथ , दूध के साथ , सब्जी के साथ भी तो खाई जा सकती है | दाल का महंगा होना देश के हित में है | यह सरकार द्वारा अच्छे दिनों का जमीनी अहसास कराने की पालिसी के तहत हो रहा है | इसमें चिंतित होने वाली कोई बात नहीं है | जब तक लोगों को दाल उपलब्ध होती रहेगी तब तक लोगों को उसमे कुछ न कुछ काला दिखता रहेगा | न रहेगी दाल न दिखेगा काला | जिन दिनों दाल में कुछ काला न दिखे समझ लो कि बस् अच्छे दिन आ गए .......
***

यक्ष- ढोल .....दूर से ही सुहाने क्यों लगते है ?
युधिष्ठिर- क्योंकि पास होने से ये पर्दाफाश हो जाता है कि ये सुहानी आवाज़ किसी की खाल उतरवा कर उसे मुसलसल पीटने से पैदा हुई है........
***
यक्ष- आखिर मोदी जी ने बाबुल सुप्रियो में ऐसा क्या देखा कि उसे मंत्री बना दिया ?.

युधिष्ठिर-हे यक्ष ! यह प्रश्न मुझसे किया ही नही जाना चाहिये | अब जबकि आपने यह प्रश्न कर दिया सो मैं बता दूं कि मैं आपकी तरह निष्ठुर और क्रूर नही हूँ , मुझे आपकी फ़िक्र है इसलिए कुछ नहीं बोलूँगा और इस प्रश्न को मुद्दा भी नहीं बनाऊंगा | बेहतर हो आप अपना अगला प्रश्न करें .......क्योंकि ...
यह प्रश्न ...उसी तरह ''यक्ष प्रश्न 'होने की अहर्ता नहीं रखता ...जैसे बाबुल सुप्रियो केन्द्रीय मंत्री होने की ....
***

यक्ष -श्रद्धांजलि क्या होती है ? आंबेडकर साब को इतनी जोर-शोर से श्रद्धांजली देने की होड़ क्यों मची है?
युधिष्ठिर - किसी का काम तमाम हो जाने पर की जानी वाली आवर्ती क्रिया को श्रद्धांजलि कहते हैं | सामान्यतया श्रद्धांजलि अंजुरी में फूल रख अर्पित करने का कर्मकांड होता है परन्तु जिसके आचार विचार और स्मृति को फुल और फाइनल करना होता है उसे तोपों की सलामी दी जाती है | फुल एंड फाइनल करना ही तोप का कर्तव्य है | वैसे फूलों की श्रद्धांजलि इस सलामी के पहले और बाद भी बदस्तूर जारी रह सकती है , ऐसा श्रद्धांजलि के शास्त्रों में वर्णित है | शास्त्रों के अनुसार , शाख से टूटे हुए फूल कुछ ही घंटों में मुरझा अपनी सुरभि और सौन्दर्य दोनों खो देते है | श्रद्धांजलि का अभीष्ट भी यही होता है | आंबेडकर साब को अम्बेडकरवादी पार्टियां पहले ही तोपों की सलामी दे चुकी हैं | जो अब तक नही दे पाए थे वे अब इसी फाइनल असाल्ट की तैयारी में लग गए है .....ताकि बाबा साहेब को श्रन्द्धाजलि देने का बचा हुआ कर्तव्य पूरे जोर से और पूरे शोर से वे भी निभा कर अपने कर्तव्य और बाबा साहेब दोनों की इतिश्री कर सकें ...
*** 

यक्ष-आत्मा को देह किस मेथड से अलाट की जाती है, इस मामले में इश्वर की अलाटमेंट पालिसी क्या है?
युधिष्ठिर -लाटरी सिस्टम से ..........
यक्ष- तो पूर्व जन्म के अच्छे और बुरे कर्मों को कैसे फैक्टर इन करते है ?
युधिष्ठिर-यह फैक्टर किसी भी जीवित आदमी के लिए नान इशू है , क्योंकि कोई अलाटमेंट गलत हुआ या सही, इसे प्रूव करने के लिए इविड़ेंस पूर्व जन्म से ही कलेक्ट किया जाएगा और अदालतों में ऐसा कोई इविडेंस एड्मिसिबिल नहीं होता .......
यक्ष- क्या तुम पुनर्जन्म , पूर्वजन्म , जन्मांतर सम्बन्ध के सिद्धांत को मानते हो ?
युधिष्ठिर - जी नही , जो सिद्धांत इस जन्म में प्रूव न किये जा सकें मैं उन्हें नही मान सकता ...
***

 .....जारी

राजीव ध्यानी की कविताएँ

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राजीव ध्यानी की कविताएँ मैंने पहली ही बार फेसबुक पर देखीं। मालूम हुआ कि 1995 में उनका संग्रह अकसर कागज़ नाम से आया था। इन कविताओं ने मेरा ध्यान खींचा। अपने निजी भूगोल और परिवेश लेकर एक भरपूरे विस्तार तक की  कई-कई अर्थच्छवियों में बंधते हुए मैंने इन कविताओं को पढ़ा और जाना कि एक उदास सादगी ही इस कवि का अपना मुहावरा है। मैंने कवि से कविताओं के लिए आग्रह किया और उन्होंने अनुनाद के लिए अपने संग्रह से ये कविताएं भेजीं। राजीव जी आपका अनुनाद पर स्वागत है।


कहीं कोई आसमान

मत जाओ 
क्षितिज की ओर

कहीं 
कोई आसमान
धरती पर नहीं उतरता 
***
अक्सर कागज़
 
दूर से ही
दूसरे की नज़र में
समा जाएँ
मैं बड़े अक्षर बनाता हूँ

मुझे तो बताना है
लेकिन तुम्हें नहीं जानना चाहिए
हर नए सत्य को
उद्घाटित करता
सहमता हूँ

मेरा लिखा सब कुछ
अधूरा प्रतीत होता है
खुद मुझे

तब मैं
दोनों तरफ
बड़े हाशिये छोड़ देता हूँ

अक्सर
काग़ज़ भरते जाते हैं
और मैं
कुछ नहीं कह पाता 
***

छूट जाते हैं पीछे
 
रेल से
पीछे की दिशा में
दौड़ते हैं खेत

खेतों की मुंडेर पर बैठी लडकियाँ
खेत के किनारों पर
चरती गायें
बीच- बीच में
एकाकी खड़े पेड़

सभी छूट जाते हैं पीछे

खेतों की सरहदों में
सिमटा गाँव
उसमें पलते रिवाज़
उसमें भटकती- फिरती
सोंधी से खुशबुएँ
उसके चूल्हों से उठती
धुएँ की लकीरें

पीछे छूट जाता है सब
यानी कि पिछड़ जाता है

रेल पटरियों पर दौडती है
आगे
शहर की दिशा में

खेत पगडंडियों पर घिसटते हैं
पीछे
गाँव की दिशा में
***


सड़कें और दीवारें
 
घर
सड़कों की तरह
सार्वजनिक नहीं होते

सड़कें
घरों की तरह
व्यक्तिगत नहीं होतीं

बहुत से घर
सड़कों के किनारे
बने होते हैं
मगर फिर भी व्यक्तिगत होते हैं

कुछ घर
सड़कों पर भी
बने होते हैं
मगर वे व्यक्तिगत नहीं होते

सड़क और घर के बीच
फर्क की मोटाई
सिर्फ नौ इंच होती है

ये दीवारें ही हैं
जो घरों की
परिभाषा के
दायरे तैयार करती हैं

हर घर
एक दीवार से शुरू होता है
और किसी दूसरी
दीवार पर ख़त्म हो जाता है

वो सब
जो दीवारें खड़ी नहीं कर सकते
सड़कों पर ही रहते हैं

या यूँ समझिये
सड़कों पर ही रह जाते हैं
***

सब कहीं धूल

सब कहीं
घुस जाती है धूल

खिडकियों की
जालियों से छनती है
बंद दरवाजों की
झिरी से झाँकती है
और कमरे में बिछ जाती है धूल

रौशनदानों की
ऊँचाई तक चढ़ती है
थोडा और उचकती है
और कमरे में झाँकती है

सदियों से बंद
तालों को चकमा देती
छोटे छेदों से
चिटकनियाँ सरकाती
अपारदर्शी रंगीन शीशों के
आर-पार झाँकती है धूल

और देख लेती है
वह सब
जो साफ़ है

हर शुभ्रता
हर चमक पर
छा जाती है धूल

फ़र्श पर कालीनों
दालान पर घास
और बिस्तर पर चादर की तरह
बिछती है धूल

टेलीविज़न को ढँक लेती है
कवर बनकर
दीवारों पर पुत जाती है
दीवाली के रंगों की तरह

रसोई के  बर्तनों पर
चमकती है धूल
मकड़ी के जालों में
उलझ जाती है

कबूतरों की बीट को
ढँक लेती है धूल
और ज़मीन पर पड़े
बच्चे के खिलौने को भी
***

सब कुछ मुश्किल
 
एक तरफ
समंदर के सीने में धंसे
अंतरीप के  नुकीले किनारे

दूसरी  ओर
जंगली हवाओं के पर काटती
धारदार चोटियाँ

यहाँ
उड़ना भी
उतना ही मुश्किल है
जितना
एक जगह पर बने रहना 
*** 
सिर्फ़ एक बहाना
 
सिर्फ़ एक बहाना थी
बीच की नदी

बहाने के
सूख जाने के बाद भी
उतनी ही दूरी बनाए
अब भी बह रहे हैं दोनों किनारे 
*** 
लापरवाही
 
वह अपने अक्स को
संभाल कर
क्यों नहीं रखता

चाँद का चेहरा
झीलों
तालाबों
और बाल्टियों में उभर आया है 
*** 

आदतें
 
मेरे लिखने की आदतें
मेरी बातों में
शामिल होने लगी हैं

अब
हर बात के साथ
दोतरफ़ा हाशिये
छूट जाते हैं 
*** 
उभर आता है शोक
 
किसी शोकान्त कविता के
उदास पन्ने
फड़फड़ाते हैं
जिल्द के ऊपर तक
रिस आता है
मटमैला विषाद
सीलन अक्सर
धूप पर हावी होने लगती है

शोकान्त कविताएँ
शोक के साथ शुरू
नहीं होतीं
शोक दरअसल
पनपता है उनमें

आख़िरी पन्नों तक पहुंचकर
यकबयक दम तोड़ देती हैं
शोकान्त कविताएँ

शोक लेकिन बना रहता है यथावत

ख़त्म हो जाने की त्रासदी
सिर्फ
कविताओं की नियति है

शोक
नई कविता की  पंक्तियों में
फिर से उभर आता है 
***


मेरी पसंद
 
मौसमों का बदलना
मुझे छूता है
भीतर गहरे तक

जैसे
पत्तों का रंग बदलता है
डालियों का
फिर पेड़ों
और समूचे जंगलों का
नहीं बदलती
तो सबसे नीचे के ज़मीन

धरती का न बदलना
मुझे छूता है
भीतर गहरे तक
*** 

मेरी नियति
 
घंटों
धाराप्रवाह बोलते हुए भी
कुछ न कह पाना
मेरी विवशता है

दर्ज़नों पन्नों की
उधेड़ देने के बाद भी
कुछ न लिख पाना
मेरी शैली है

और इन सब के बीच
लगातार
लिखते और बोलते रहना
मेरी नियति
*** 
नहीं चाहिए रौशनी
 
ये सारे
चिराग बुझाकर
एक अलाव जला दो

मुझे गरमी चाहिए
रौशनी नहीं 
*** 
भीतर का कोलाहल
 
सहमता हूँ
भीतर के कोलाहल से
और फिर
अपने से दूर चला जाता हूँ
निर्जन एकांत के वन प्रान्तरों में

पीछा करता है
कोलाहल वहाँ भी

दुबकना चाहता हूँ
वीरान खोहों में
दर्रों के उस पार
दूसरी और निकल जाता हूँ

कदमों के निशान ढूँढता
आ धमकता है
शोरगुल करता

और भी गहरे
सन्नाटों की और भागते हुए
एक पल को ठिठकता हूँ
और कुछ सोचकर
दौड़ने लगता हूँ
बाहरी कोलाहल की ओर

सोचकर
कि बाहर का शोर
शायद
भीतर की आवाज़ों को दबा दे
*** 
 
कृपण नहीं होते साहूकार


कृपण नहीं होते साहूकार
उनके हृदय से कहीं ज़्यादा
खुला होता है उनकी थैलियों का मुँह

थैलियों का चौड़ा मुँह
खुलता है हर ज़रूरत के जवाब में

जवाब के जवाब में हमेशा सवाल होते हैं
और इसलिए
एक बार ज़रूरत के जवाब में खुल चुका
थैली का मुँह
अगली बार सवालों में खुलता है

उन सवालों में
जिनका हल नहीं होता

हल के अभाव में
बैल बन जाता है अन्नदाता
जुआ पड़ जाता है थैली का
हल भारी होता जाता है
और फल भोथरा

कठोर हो जाती है सदावत्सला
सीना नहीं फटता माँ का
न ही फूटती है कोई उम्मीद
सूनी आँखों में पथरा जाते हैं मानसूनी प्रश्न

थैली के सवाल
माँ की दवा की थैली में से
सबसे ज़रूरी दवा को खा जाते हैं

सवाल
छोटे भाई की
नायब तहसीलदारी की तैयारियों को
वापस गाँव बुला लेते हैं

पत्नी के जर्जर होते
ब्लाउज़ में से
बाहर झाँकने लगते हैं
थैली के सवाल

सवालों की थैली में
सिर्फ़ सवाल होते हैं
जवाब नहीं
जवाब में
खसरा खतौनी पर नाम बदल जाते हैं

नाम बदल जाने से मगर
तकदीरें नहीं बदल जातीं
थैली का मुँह
खुला ही रहता है यथावत्
अनवरत निकलते रहते हैं प्रश्न
थैली के मुँह से

उत्तरों की थैली में एक दिन
सल्फ़ास रखा मिलता है
*** 
राजीव ध्यानी
21/ 1043,इंदिरा नगर, लखनऊ- 226016 
rajeevdhyani@gmail.com
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