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प्रांजल धर की कविताएं : सन्‍दर्भ भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार

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प्रांजल धर को इस वर्ष भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार प्रदान किए जाने की सुखद घोषणा हैं। हिन्‍दी कविता में अकसर युवा कविता के पुरस्‍कार कवियों की पहली पहचान बनाते हैं पर प्रांजल को दिया गया पुरस्‍कार कविता के इलाक़े में उनकी पहले से बनी पुख्‍़ता पहचान की पुष्टि करता है, उसका स्‍वीकार करता है। सभी जानते हैं कि प्रांजल अपनी कविता की ख़ास संरचनाओं और भाषिक प्रभावों में विकास और विस्‍तार के कई मोड़ घूम चुका नौउम्र लेकिन अनुभवसम्‍पन्‍न कवि है। मैं अपने इस हमसफ़र को बधाई देता हूं। आगे प्रस्‍तुत है निर्णायक श्री पुरुषोत्‍तम अग्रवाल द्वारा की गई अनुशंसा और प्रांजल की कुछ कविताएं।
*** 
भयानक ख़बर की कविता

युवा कवि प्रांजल धर ने पिछले कई सालों से अपनी सतत और सार्थक सक्रियता से ध्यान आकृष्ट किया है। जनसत्तामें 26 अगस्त, 2012 को प्रकाशित उनकी कविता कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहींसचमुच भयानक ख़बर की कविता है। यह कविता अपने नियंत्रित विन्यास में उस बेबसी को रेखांकित करती है, जो हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन को ही नहीं, हमारी भाषा और चेतना को भी आच्छादित करती जा रही है। लोकतंत्र एक औपचारिक ढाँचे मात्र में बदलता जा रहा है। स्वतंत्रता और न्याय जैसे मूल्यवान शब्दों का अर्थ ही उलटता दिख रहा है। नैतिक बोध खोज की जगह सुविधाजीविता ने ले ली है। इस सर्वव्यापक नैतिक क्षरण को प्रांजल धर बहुत गहरे विडम्बना-बोध के साथ इस सधे हुए विन्यास वाली कविता में मार्मिक ढंग से ले आते हैं। निश्चयात्मक नैतिक दर्शन से वंचित इस समय का बखान करती इस कविता में अनुमानशब्द ज्ञानमीमांसा के अनुमान का नहीं, सट्टेबाजी के स्पेकुलेशनका वाचक बन जाता है, और आत्महत्या का पापबुनकरों तथा किसानों की विवशता का।

जिस समय में कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं रहा, उस समय के स्वभाव को इतने कलात्मक ढंग से उजागर करने वाली यह कविता निश्चय ही 2012 के भारत भूषण अग्रवाल सम्मान के योग्य है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल



कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं
(पुरस्‍कृत कविता) 

इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमन्त्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद।

मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतन्त्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुज़रकर स्वतन्त्रता की देवी
आज माफ़ियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह...

बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
- क्रिकेट की मैच-फ़िक्सिंग हो या शेयर बाज़ार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, सम्भव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है...

सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रान्ति और भ्रम के बीच सन्देह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब !
***

रेंगती हैं स्मृतियाँ अपने इलाके में

जीवन कबाड़खाना है कुछ घटिया स्मृतियों का,
वक्त के साथ कबाड़ का वज़न बढ़ता ही जाता है
चढ़ता ही जाता है एक ढेर पर दूसरा ढेर
हर सुबह अहसास होता कि
मन एक नए जानवर में तब्दील हो चुका है
बन्द है जो पिंजरे में।
चाहे जितनी तेजी से पत्थर फेंकता हूँ
समुद्र नहीं पार कर पाता,
गुम भी हो जाता उल्टे
सागर की भीषण गहराइयों में,
कमाये हुए पत्थर घटते जा रहे हैं
एक-एक करके
हर पत्थर अपनी स्मृति जबरदस्ती भेंट कर जाता है
हाथों को।
जाने कब ये स्मृतियाँ हाथों से रेंगकर
सीने पर दस्तक देती हैं,
देती रहती हैं
और तोड़ देतीं दरवाज़ा अन्ततः।

यह क्या !
अनधिकृत प्रवेश !!
बन्द सीप की तरह घोर अन्तर्मुखी कोई होता भी नहीं
कि इस प्रवेश को रोक सके,
कामयाब हो जाए बाड़ा लगाने में।
और फिर स्मृतियों की लम्बाई द्रौपदी के चीर-सी,
सारा ज्ञान और अनुभव कबाड़खाने के सामने
याचना की मुद्रा अपनाता है
कि छोड़ दो मुझे, छोड़ दो मुझे...
मस्तिष्क की सीमा यहीं ख़त्म हो जाती,
आगे का इलाका तो हृदय का है।
***


आओ उनका दुःख अपने कन्धों पर उठाएँ

जिनका शीतल क्षोभ ही जिनका पारिध्वजिक है,
पराजित मुखमुद्रा मुख़बिर है
जिनकी, अपने ही घनीभूत विश्रंभ की।
जिनकी विनोदप्रियता रौंदी गयी है बारम्बार,
जिनकी भावना के वर्तुल में आकर
हँसी और आक्रोश पर्याय हो जाते हैं
सिद्धान्त दूसरा नाम बन जाता है लन्तरानी का।
महज़ एक धुँधला भ्रम जिनकी सकल पूँजी है।
जो फ़र्क नहीं कर सकते कातिल और मुंसिफ़ में
आँचल, अदालत और आँगन में,
जो आईनासाज़ हैं लेकिन बदशक्ल भी
जो चरवाहे भी हैं, घास भी और भेड़ भी।
और भेड़चाल जिनकी अधिकतम गति-सीमा है।
जो यियप्सु हैं लेकिन जिनका संसर्ग-सुख भी विषमभोग ही है।
जिनका कोई परिचय ही नहीं,
जो इतने जर्जर हैं कि बनामशब्द ही बेमानी है,
... आओ उनका दुःख अपने कन्धों पर उठाएँ!
भारावतारण करें उनके शाश्वत कर्ज़ का!!
*** 

मन का रथ और दवाइयों की शीशियाँ

बहुत दूर चले जाते मन के रथ में जुते हुए घोड़े कभी-कभी
और कभी-कभी घोड़ों की नाल से आवाज़ें आतीं कुछ इस तरह
मानो दवाई की शीशी चौराहे पर गिरकर छन्न से टूटी हो।

दवाई उन लोगों की आखिरी आशा है
जिन्होंने अपने जीवन का कोई लम्बा-चौड़ा बीमा नहीं कराया कभी
और जिनका जीना इस दुनियाँ में इसलिए ज़रूरी है ताकि
वह सारा दुःख सौंपा जा सके उन्हें
जो कुछ लोगों द्वारा भोगे गए ठसाठस सुख के
बीहड़ असन्तुलन के कारण पैदा होता समाज में, निरन्तर।

मन के इस रथ पर सवारी करते गांधी, कभी मार्क्स, कभी यीशु
पहाड़ों, नदियों और कन्दराओं से होते हुए यह रथ कई बार
मानवता का जघन्य उल्लंघन देखकर भूकम्पी हिचकोले खाने लगता
हिल जाते तमाम समाजशास्त्रीय सिद्धान्त, हिल जातीं चूलें भी...

बहुत दूर की बातें करने का क्या फ़ायदा !
फ़ायदा-नुकसान तो मन वैसे भी कहाँ देख पाता किसी का
मुनाफ़े का गुणा-गणित ही ऐसी चीज़ है जिसका
दवाइयों या उनकी शीशियों से कोई भी ताल्लुक नहीं।
फिर क्यों गूँजतीं ध्वनियाँ शीशियों के फूटने की, छन्न-छन्न;
क्यों आतीं आवाज़ें घोड़ों की नाल से टप-टप !टप-टप-टप-टप !!
*** 


अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का

अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का।
अपने ही देश में पराए हैं
वंचनाबोध से ग्रस्त नवयुवक कुछ,
जला दी गयीं हैं कुछ प्रेमिकाएँ बगल वाले गाँव में
अपने ही घरों में;
सह नहीं पाती कोई कार्यकारिणी
पूर्वोत्तर के पहाड़ी अक्षांशों में
दूर तक पसरे विध्वंसक सन्नाटे को,
चुप्पियों का कब्रिस्तान ही संविधान है जहाँ का।

अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का।
सभी लोगों ने अपने संगमरमर से लैस
घरों के आगे दो मीटर तक अवैध कब्जा
जमाया हुआ है,
कारें खड़ी करने और गमले रखने के लिए
चर्चित महानगरों में।
तलाशती है विकल्प अपने,
एक छोटी-सी कुपोषित बच्ची,
गुलाब के काँटों से खेलती है।
ऊपर उड़ रहे वायुयानों की पंक्ति
और उनकी देर तक कानों में गूँजती ध्वनियाँ
प्रतीक हैं बाढ़ग्रस्त अंचल के ऐतिहासिक दौरे की।
अध्यारोहण है यह...
*** 

फौलादी चादर
(पहाड़पुरुष दशरथ माँझी के लिए, जिनकी मृत्यु से एक दिन पहले एम्स में घण्टों उनका हाथ थामे रखा था)

उन हाथों की सच्चाई भरी कर्मठ छुअन को
कहाँ रख पाएगी लेखनी;
भिखारन नज़र आती हैं सारी सत्ताएँ शब्द की।
खड़ी बोली, भोजपुरी, मगही, मैथिली और डोगरी –
सब निरुत्तर !
उनके दशकों लम्बे पर्वतीय और फौलादी सवालों को सुनकर।
हाथ थामा था फुरसत से एम्स के प्राईवेट वार्ड में उनका।
नहीं रहे वे
एंकर स्टोरी थी कुछ अख़बारों की अगली सुबह।
बयाँ न कर पायी वैश्विक अँग्रेजी भी टीस को उनकी
जो सालों साल काटती रही उन्हें,
और वे पहाड़ों को।
बन गया रास्ता, लेकिन खो गयी ज्वाला
छटपटाहट भरी क्रान्ति की,
उस मोटे देहातीचादर में;
अन्तिम बार भी जिसे ओढ़े बिना नहीं रह सके थे वे।
***
कवि-परिचय 

जन्म – मई 1982 ई. में, उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में।
शिक्षा– जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान, जे.एन.यू. कैम्पस से पत्रकारिता में डिप्लोमा।
कार्य – देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी जयपुर से कुछ कविताएँ प्रसारित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। सक्रिय मीडिया विश्लेषक। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। 'नया ज्ञानोदय', 'जनसंदेश टाइम्स'और द सी एक्सप्रेससमेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार। पुस्तक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए देश के अनेक भागों में कार्य। जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों से जुड़े कार्यों में सक्रिय सहभागिता। 1857 की 150वीं बरसी पर वर्ष 2007 में आदिवासी और जनक्रान्तिनामक विशेष शोधपरक लेख प्रकाशन विभाग द्वारा अपनी बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक में चयनित व प्रकाशित। बीबीसी और वेबदुनिया समेत अनेक वेबसाइटों पर लेखों व कविताओं का चयन व प्रकाशन। अवधी व अंग्रेजी भाषा में भी लेखन।
पुरस्कार व सम्मान - वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार। वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान। पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। 2012 में गया, बिहार में आयोजित मगध पुस्तक मेले में पुस्तक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकरस्मृति न्यास की तरफ से सर्वश्रेष्ठ विशेष सम्मान। फरवरी 2013 में गया, बिहार में बज़्म-ए-कलमकारकी तरफ से विशेष लेखक सम्मान। वर्ष 2013 में इन्दौर में सम्पन्न सार्क के अन्तरराष्ट्रीय भाषायी पत्रकारिता महोत्सव में विशिष्ट अतिथि के दर्ज़े से सम्मानित। वर्ष 2013 में पंचकूला में हरियाणा साहित्य अकादेमी की मासिक गोष्ठी में मुख्य कवि के रूप में सम्मानित। हाल ही में कविता का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार।
पुस्तकें समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अख़बार(वाणी प्रकाशन से)। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर 'महत्व : रामधारी सिंह दिनकर : समर शेष है'(आलोचना एवं संस्मरण) पुस्तक का संपादन। अनभैपत्रिका के चर्चित पुस्तक संस्कृति विशेषांक का सम्पादन।

सम्पर्क :
2710, भूतल, डॉ. मुखर्जी नगर, दिल्ली – 110009
मोबाइल- 09990665881
ईमेल- pranjaldhar@gmail.com

***
पोस्‍ट में प्रयुक्‍त विख्‍यात चित्रकार सल्‍वादोर डाली के चित्र गूगल इमेज से साभार

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