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तुषारधवल की नई लम्‍बी कविता - ठाकुर हरिनारायण सिंह

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तुषार धवल
तुषार हमारे समय का बहुत महत्‍वपूर्ण युवा कवि है। वो बेहद आत्‍मीय हमउम्र साथी है इसलिए चाहकर भी मैं उसके लिए सम्‍बोधन के आदरसूचक बहुवचन का प्रयोग नहीं कर पा रहा हूं। राजकमल से आया उसका संग्रह 'पहर ये बेपहर का' बहुत चर्चित रहा है। हमारा यह कविमित्र कविता के साथ ही चित्रकला पर भी समान अधिकार रखता है। फोटोग्राफी और अभिनय में उसकी समान रुचि है।  पिछले दिनों मुम्‍बई में उसके चित्रों की एक प्रदर्शनी बेहद सफल रही है। 

तुषार की कविताएं एक साथ नहीं आतीं। वो कम लिखता है मगर उसका लिखा हमेशा ही एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ है, कविता के सफ़र में। अनुनाद के अनुरोध पर इस कविता को भेजते हुए तुषार ने लिखा है कि एक अलग विमर्श की कविता भेज रहा हूँ जहाँ दलितों के प्रश्न के मद्देनज़र नव दलितों की बात उठाई गई है। यह काल्पनिक नहीं है। गाँव-गाँव में मेरी आँखों देखी और भोगी सच्चाई है। पता नहीं हमारा साहित्यिक बुद्धिजीवी समुदाय इसे कैसे लेगा। इसमें मेरे समाज शास्त्रीय अध्ययन वाला रुझान भी है और गद्य काव्य को अपने अलग भाषा शिल्प में लिखने की कोशिश की गई है जहाँ हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति के बीच से निकलती है,यानि overlap करती है। हम सभी युवा कवि वाकई अपने समाज की उधेड़बुन में फंसे हुए हैं। यहां उलझनें अपार हैं। यह समाज भी कोई स्थिर समाज नहीं है- इसमें गति और परिवर्तन के साथ कई दिशाभंग और मोहभंग भी हैं। 

तुषार की यह कविता पारम्‍परिक सामन्‍ती पतन और नए बदले हुए सामन्‍ती उत्‍थान का एक ज़रूरी आख्‍यान है। हमारे समाज के ये पतन और उत्‍थान इस तरह कविता में पहली बार दर्ज़ हुए हैं। बीते शोषकों के बरअक्‍स अधिक चालाक नए शोषकों की शिनाख्‍़त, एक नई शिनाख्‍़त है - एक नए पैराडाइम को समझने की अनिवार्य कोशिश, जिस पर बहस हो सकती है लेकिन जिससे कन्‍नी काटकर निकलना मुमकिन नहीं। सामाजिक यथार्थ बनाम साहित्यिक यथार्थ के डिस्‍कोर्स में विश्‍वास करने वालों के लिए ये कविता एक विकट चुनौती साबित होगी। अनुनाद इसे प्रस्‍तुत करते हुए एक लम्‍बी बहस की उम्‍मीद अपने पाठकों से कर रहा है। 

इस आख्‍यान के लिए तुम्‍हें शुक्रिया कहना पर्याप्‍त नहीं होगा तुषार....पर इसे स्‍वीकार करो।  
***



ठाकुर हरिनारायण सिंह

(डिसक्लेमर :---- इस कथा के सभी पात्र काल्पनिक हैं और ये भोगे यथार्थ की उपज हैं. यह कथन उस समय का है जो हर भाषा में ऐसा ही कुछ कह रहा है. ) 

***

1 

खण्डहर बताती है कि इमारत बुलंद रही होगी.

ठाकुर हरिनारायण सिंह
खिलता हुआ गोरा रंग छह फुट की काया रक्त दर्पित आँखें घनी मूँछ चौड़ी छाती
धोती कुर्ता रेशम का इत्र से भीनी नसें लपकती हुई उत्तेजना में
स्वर्णभस्म ज़र्दा केसर और गुलाबजल में गमगमाता पान
सोते जागते महफिल में बसी तैयारी में
ठाकुर हरिनारायण सिंह
राजा बलि के पटिदार इंद्र के बराबरदार कामदेव के पैरोकार कहते हैं कई हाथी बँधा करते थे  इनके दरवाज़े पर दिन रात रक्स चलता था इनके रस खाने में अँग्रेजी मोटर मदिरा मेम रहे इनकी ख्वाहिशों में 
ठाकुर हरिनारायण सिंह
मोटर मदिरा तो भोग गये पर मेम से चूक गये.
अब भी कोई पूछ ले तो बुदबुदाने लगते हैं उसी कसक की गुलाबी थूथन को 

ठाकुर हरिनारायण सिंह
सैंकड़ों बीघा खेत अनगिनत रखैलें जिनकी चोली की हुमक पर जमीनें लुटा देते थे बीते रास्तों पर उनके रंगीन बोतलें अश्वगंधा शतावरी और दान की अनगिन कहानियाँ जिबह की दास्तानें उन रास्तों पर वैसी ही मिलेंगी जैसी कि वे छोड़ आये थे लठैतों के झुण्ड में टूटी पायलों की घुटी रुनझुन में राग दरबारी की बंदिशें आनंदमठ और भूदान 
अब रंग झरी दीवारों पर दीमक लगी धुँधली तस्वीरें हैं

कहते हैं 47 के दंगों में वे तलवार ले उठे थे कि मजाल है जो सरन में आयी मुसलमान प्रजा को कोई छू भी ले महासभा और संघ वालों से भिड़ गये थे मूँछों पर ताव दे कर ताल ठोक कर कितने पहलवान तो ऐसे ही पछाड़ देते थे बिस्तर में इकहरा द्वंद खेलते हुए जमीन हार देते थे 
खुश हो कर रण्डियों में आधी ज़मीन और पूरी उमर बँट गयी कुछ प्रजा में और बाकी वे पी   गये. कुछ बीघा ज़मीन अभी भी है लेकिन परती पड़ी हुई अब खेतों पर कोई नहीं जाता कोई नहीं मिलता पत्नी चल बसी गँजेड़ी बेटा औघड़ हो गया बाप से लड़ कर बेटियाँ ससुराल में जल गयीं जिन्हें सती कहते हैं वहाँ के ठाकुर चोर सिपाही सरकारी कारकुन सभी सहमत हैं उनसे उनकी नाजायज़ औलादें भी.
अब अकेले हैं और कोई नहीं पूछता. 

ठाकुर हरिनारयण सिंह 
बुझता हुआ रंग ढली हुई काया झुकती कमर लुंगी गंजी आँखें पिलियाई भवें ढीली 
गाँव की चौहद्दी पर अब भी शतरंज की बिसात पर जमे बैठे हैं
उनकी राजधानी छिन चुकी है अनजान दिशाओं से हुए आक्रमण में
जर जमीन जोरू जेवर जा चुके हैं
अकेले अंधेरे के मातम में डूबी हवेली बूढ़ी मिटती आँखों से
लौट लौट देखती है पलट कर
जैसे साथ चलता कोई छूट गया हो पीछे
मृत्यु के उस पार का वर्तमान है यह
और शतरंज की बिसात बिछी हुई है
उन्होंने चाय के लिये कहा था फिर पान के लिये भी पर कोई नहीं आया
आहत वह चुपचाप प्यादा बढ़ा देते हैं 
कि तभी बसेसर नाथ मिसिर वहाँ बैठे चंद लोगों से कह उठते हैं
घोड़ा सरकाते हुए , “ देख रहे हैं ना कउन जमाना आ गया. बाबू साहब को अब बोलना पड़ रहा है ! अ बोलियो दिये तभियो देखिये कौनो साला झाँकने नहीं आया. यही थे ऊ ठाकुर साहब जिनका गोड़ धर के चाटत रहता था सब. कउन जमाना आ गया...
अब त ऊ चमैनियाँ का बेटवा भी जबाब दे देता है
एक टैम था कि खोंख दें त पाद निकल जाता था सबका
बोढ़ना बिछौना ले के सरपटिया देते थे बहिनचोदन के
ई सुराज का आया कि सब चौपट हो गया एक एक कर के
का जानें ई गाँधी बाबा किये कि अम्बेडकर बाबा कि नेहरू जी
तुलसी बाबा ठिक्के कहते थे “ अइसन कलजुग आयेगा ...”
ठाकुर हरिनारयण सिंह
एक ठगी गई हँसी हँसते हैं
“परजा का केतना हित कर दिये ई नेतवा सब ?
दु चार कौर बासी भात के डाल दिये और बोले खुस रहो
अरे बाँटना है त अइसे बाँटो जइसे हम बाँट दिये ससुर सब कुछ
परजा के देखभाल अइसे होता है ?अरे उसके लिये त ...” 
बसेसर नाथ मिसिर टोके, “ना ना अबकि इलेक्सन में भोट ना देंगे ई काँग्रेसियन के ...”
बाबूसाहब फिर बोले, “अब भोट भात दे कर का होगा बउवा जे होना था हो गया
अब बईठ के मजा लो ससुर इनके खेला का ”
हाँ बाबूसाहब ! जब से पछिया हवा उड़ी है गाँव शहर में यही धूल उड़ने लगी है.
“अब छोड़ रे ई सब ! एक चिलम लगाओ और मगन रहो !”

2.

उनकी आँखों में पतंगें उड़ रही हैं

अंगार धर दो मेरी जीभ पर कि रस मिले
चिलम सुलगा दे कोई आज रात
चिलम सी सुलगा दे कोई मेरी रात  
हाय वो शराब और वो उसकी घूँट !
घूँट भर तो दे कोई आज रात
घूँट-भर की कर दे कोई मेरी रात
तूफान सा उठता है पेट से कहीं नीचे   
बिजली उसी छुअन की तड़कती है     
सोने तो दे कोई आज रात
जीने तो दे कोई आज रात
कत्ल कर दे कोई यह रात
दफ्न कर दे कोई मेरी रात.

3.

दिन की थकी पीली आँखें 
आँखों में मवाद है खरोंच के निशान हैं
सिराहनों में कंकाल हैं
पैतानों में दफ्न चीखें 
हर किसी में मेरी अँगुलियों के निशान हैं
क्या क्या छुपाऊँ अब कहाँ जाऊँ
लहू के काले ताल में एक मछली तड़पती है

वे टूटी हुईं पायलें वे जिबह की दास्तानें  
वे कटे सिर टूटे बदन भग्न कुमारिकायें
सब आकर घेर लेते हैं मुझे कैसे कहूँ
वही था न्याय मेरा उतना ही वैसा ही 
और वह बाजे गाजे का शोर
वह थमता क्यों नहीं है
मस्त हाथियों के झुण्ड सा क्यों चला आता है
मेरे कान में चीखता हुआ दिन रात रह रह कर
ले जाओ इसे मुझसे कहीं दूर
घोंट दो इसे भी दफन कर दो

4.  

ठाकुर हरिनारायण सिंह
एक बीते शोषक का ज़र्द चेहरा अपनी स्मृतियों में जीता हुआ सूखा फूल अपनी ही मज़ार पर बेहुस्न बेलिबास अकेला ढल रहा है जंग लगे डब्बे सा दिन और नगाड़ा बज रहा है गाँव की चौहद्दी पर नगाड़े सा दिन बज रहा है दिन सा नगाड़ा बज रहा है कोई बहुरुपिया आ गया है  और गाँव खाली हो रहा है अदृश आक्रमण यह गाँव के बीचों बीच और धूल उड़ने लगी है पर किसी को नहीं खबर मनोरंजन में रमे हैं यहाँ कुछ,कुछ दूर शहर के पिछ्वाड़े में निचवाड़े में झुग्गियों में परित्यक्त. 
चल रहा है मनोरंजन बहुरुपिया चमरौंधे जूतों में साफों में दूर देश से आया है हमसे हमारी बोली में बोलता हुआ हमारी भाषा में अपने बीज रखता हुआ हम मुग्ध हैं और हमसे हमारी चीज़ें छिन रही हैं एक एक कर रंग गया माटी का फिर पानी के रिश्ते फिर रिश्तों से पानी फिर हमारे गीत छिने और अर्थ शब्द में उनके भरे उड़ानों की दिशा बदली और अब खेतों की बारी है फिर मिथक छिनेंगे और स्मृतियाँ.
पहले गाँव खोखला करो फिर उसे खाली फिर उसे अपनी चीज़ों से भर दो
गाँव पर हमला हुआ है और सब बेखबर हैं

5.

ठाकुर हरिनारायण सिंह
एक चेहरा तब दीप्त अब ज़र्द पर एक चेहरा अदद जिसे कोस लो कि चूम लो या जीत लो
इन नये ठाकुरों का चेहरा नज़र नहीं आता
ये नहीं जानते दया दान यजमान नहीं हैं संरक्षक प्रजा के माई बाप इन नये ठाकुरों की बोली बड़ी सौम्य है इनकी चाल बड़ी घातक. इनके पास गज़ब की ताक़त है मशीनें हैं हवस है मुनाफों में लिप्त आँकड़े हैं स्वार्थ के जिनसे वे दिल्ली बनाते हैं हर क्षण रचते हैं शोषण के नये मानवतावादी सिद्धांत बीते ठाकुरों की बोली में.
नये चेहरों पर पानी उसी पोखर का वही कीचड़ वही माटी हवस की वही कातिल कथा  
वे गुड़ में भर कर कील खिलाते हैं पानी के रंग ऑक्सीजन की शकल में बोतलबंद ढब इन नए ठाकुरों का कोई नाम कोई वंशावली नहीं है कोई संस्कार मर्यादा नहीं उनमें ----
वेग है चपलता है और वे घातक हमला करते हैं वे सिकंदर को हरा कर आए हैं एचिलिस और थीसियस को फतह कर चुके हैं बाप हैं कोलंबस के और अब यहाँ पहुँच गए हैं और गाँव की चौहद्दीपर धूल उड़ने लगी है बदलने लगे हैं बच्चों के खेल और खेलने के ढंग

6.

कुछ नहीं बदला है हाशिये पर जो थे वहीं हैं अब भी बेआवाज़ और नई जाति के ठाकुर आ गये हैं
रीढ़ें पेड़ों से लटका दी गई है
सूखने पर उसके झालर झूमर झण्डे और झाड़फानूस बनेंगे नई सदी के म्यूज़ियम में खाल भर कर रखी जायेगी खेतों पर पलने वाले अंत्यज जीवों की वहाँ डार्विन की सिद्धांत-कथा के नमूने एक गाईड दिखा रहा होगा. 
अगर मँजूर है तो ऐसा ही होगा शतरंज और चिलम के बीच एक लम्बा अंतराल है जिसमें एक पूरा इतिहास और पूरी संस्कृति दफन हो सकती है.
यह गाँव एक टूटा हुआ आईना है जिसमें उसके अक्स नज़र आते हैं बेतरतीब बिखरे हुए जटिल और अस्पष्ट इसके चेहरे पर बिखरे हैं सूखे केश और नाक नज़र नहीं आती आँखों में भाव अपढ़ हैं.

7

ठाकुर हरिनारायण सिंह
उसी गाँव में अब पान की गुमटी चलाते है    
अठत्तर की उमर में.
यह अनुनाद की 579वीं पोस्‍ट है


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