अरुण श्री की कविताएं संभवत: मैंने पहली बार असुविधा ब्लाग पर पढ़ी और वे मुझे लगा कि इधर फेसबुक पर तैयार हो रही एक नई भीड़ में यह मानवीय स्वर अलग सुनाई दे रहा है। दरअसल भीड़ कहना विवशता है। आप उस कोलाहल में, जो कविता के नाम पर उपस्थित है, कोई रचनात्मक और वैचारिक आवाज़ सुनने की इच्छा रखते हैं तो आपको उसे वहीं ढूंढ निकालना होता है।
अरुण श्री से मैंने फेसबुक इनबाक्स में ही कविताओं के लिए अनुरोध किया था। अनुनाद उनका स्वागत करता है और भरोसा देता है कि कविता की आंच जहां कहीं भी होगी, हम उसे खोज निकालने का हर संभव प्रयत्न करेंगे, आप यूं ही लिखते-रचते रहें। हमें कविता के नाम पर चमत्कार, चमकीलापन और बनावटी स्वरयंत्र नहीं चाहिए, आप ठीक इससे उलट वो कवि हैं, जिसकी कविताओं में एक आत्मीय संवाद संभव होता है।
मैं कितना झूठा था !!
कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !
तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !
मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !
तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !
एक गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !
मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !
तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !
मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -
कि अभी बच्ची हो !
तुम तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती !
तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही , मैं कवि होने लगा !
तुम्हारी थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर !
मैं तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता,माथे पर कविताएँ लिखता !
एक करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -
सुबह उठते पूजाघर में छुपा आती तुम !
मैं उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर !
आरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग
दीवारें कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से !
मैं खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ !
दीवारों का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता !
हमने तब जाना कि एक रंग होता है “अँधेरा”भी !
रात भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन !
तुम अलसुबह काजल लगा लेती कि छुपी रहे रातों की बेरंग नमी !
मैं फाड देता अपनी डायरी का एक पन्ना !
मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गांव के सत्ती चौरे पर !
तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने !
उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टांकता था मैं !
मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय !
तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम !
मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूंगा कविताएँ !
कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !
***
नायक !
अपनी कविताओं में एक नायक रचा मैंने !
समूह गीत की मुख्य पंक्ति सा उबाऊ था उसका बचपन ,
जो बार-बार गाई गई हो असमान,असंतुलित स्वरों में एक साथ !
तब मैंने बिना काँटों वाले फूल रोपे उसके हृदय में ,
और वो खुद सीख गया कि गंध को सींचते कैसे हैं !
उसकी आँखों को स्वप्न मिले , पैरों को स्वतंत्रता मिली !
लेकिन उसने यात्रा समझा अपने पलायन को !
उसे भ्रम था -
कि उसकी अलौकिक प्यास किसी आकाशीय स्रोत को प्राप्त हुई है !
हालाँकि उसे ज्ञात था पर स्वीकार न हुआ -
कि पर्वतों के व्यभिचार का परिणाम होती हैं कुछ नदियाँ !
वो रहस्यमय था मेरे प्रेमिल ह्रदय से भी -
और अंततः मेरी निराशा पीड़ा से भी कठोर हुआ !
मृत समझे जाने की हद तक सहनशील बना -
-अतीत के सामुद्रिक आलिंगनों के प्रति , चुम्बनों के प्रति !
आँखों में छाया देह का धुंधलका बह गया आंसुओं में ,
तब दृश्य रणभूमि का था !
पराजित बेटों के शव जलाने गए बूढ़े नहीं लौटे शमशान से !
दूध से तनी छातियों पर कवच पहने युवतियाँ -
दुधमुहें बच्चों को पीठ पर बाँध जलते चूल्हे में पानी डाल गईं !
जब वो प्रेम में था , उसकी सभ्यता हार गई अपना युद्ध !
अब भींच ली गईं हैं आंसू बहाती उँगलियाँ !
उसके माथे पर उभरी लकीरें क्रोधित नहीं है, आसक्त भी नहीं -
किसी जवान स्त्री की गुदाज जांघों के प्रति !
क्योकि ऐसे में आक्रोश पनपता है , उत्तेजना नहीं !
अपनी रातरानी की नुची पंखुडियों का दर्द बटोर -
वो जीवित है जला दिए गए बाग में भी !
दिनों को जोतता हुआ , रातों को सींचता हुआ !
ताकि सूखकर काले हो चुके खून सने खेत गवाही दें -
कि मद्धम नहीं पड़ सकती बिखरे हुए रक्त की चमक !
सुनहरे दाने उगेंगे एक दिन !
और अंतिम दृश्य उसके हिस्से का -
कटान पर किया जाने वाला परियों का नृत्य होगा !
क्योकि -
उसे स्वीकार नहीं एक अपूर्ण भूमिका सम्पूर्णता के नाटक में !
नेपथ्य का नेतृत्व नकार दिया गया है !
अब मैं उसका भाग्य नहीं , उसके कर्म लिखता हूँ !
*** अजन्मी उम्मीदें !
समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद चाहती है -
कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !
स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -
जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !
बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !
पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !
हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है
अस्वीकार करता है -
कि मदारी की जादुई भाषा से अलग भी हो सकता है तमाशे का अंत !
लेकिन शाम ढले तक भी उसकी आँखों में कोई सूर्य नहीं उत्सव का !
ताली बजाने को खुली मुट्ठी का खालीपन बदतर है -
क्षितिज के सूनेपन से भी !
शांतिवाद हो जाने को विवश हुई क्रांति -
उसकी कर्म-इन्द्रियों पर उग आए कोढ़ से अधिक कुछ भी नहीं !
पहाड़ी पर का दार्शनिक पूर्वजों के अभिलेखों से धूल झाड़ता है रोज !
जानता है कि घाटी में दफन हो जाती हैं सभ्यताएँ और उसके देवता !
भविष्य के हर प्रश्न पर अपनी कोट में खोंस लेता है सफ़ेद गुलाब !
उपसंहारीय कथन में -
कौवों के चिल्लाने का सम्बन्ध स्थापित करता है उनकी भूख से !
अपने छप्पर से एक लकड़ी निकाल चूल्हे में जला देता है !
कवि प्रेयसी की कब्र पर अपना नाम लिखना नहीं छोडता !
राजा और जीवन के विकल्प की बात पर -
“हमें का हानी”की मुद्रा में इशारे करता है नई खुदी कब्र की ओर !
उसके शब्द शिव के शोक से होड़ लगाते रचते है नया देहशास्त्र !
मृत्यु में अधिक है उसकी आस्था आत्मा और पुनर्जन्म के सापेक्ष !
समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद में होती है लिंग और जाति पर असंसदीय चर्चा !
लोकतंत्र थाली पीटता है समय और निराशा से ठीक पहले !
दार्शनिक भात पकाता है कौवों के लिए कि कोई नहीं आने वाला !
सड़कों से विरक्त कवि -
आकाश देखता शोक मनाता है कि अमर तो प्रेम भी न हुआ !
***
आखिर कैसा देश है ये ?
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि राजधानी का कवि संसद की ओर पीठ किए बैठा है ,
सोती हुई अदालतों की आँख में कोंच देना चाहता है अपनी कलम !
गैरकानूनी घोषित होने से ठीक पहले असामाजिक हुआ कवि -
कविताओं को खंखार सा मुँह में छुपाए उतर जाता है राजमार्ग की सीढियाँ ,
कि सरकारी सड़कों पर थूकना मना है ,कच्चे रास्तों पर तख्तियां नहीं होतीं !
पर साहित्यिक थूक से कच्ची, अनपढ़ गलियों को कोई फर्क नहीं पड़ता !
एक कवि के लिए गैरकानूनी होने से अधिक पीड़ादायक है गैरजरुरी होना !
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि बाँध बनकर कई आँखों को बंजर बना देतें हैं ,
सड़क बनते ही फुटपाथ पर आ जाती है पूरी की पूरी बस्ती !
कच्ची सड़क के गड्ढे बचे हुआ बस्तीपन के सीने पर आ जाते हैं !
बूढी आँखों में बसा बसेरे का सपना रोज कुचलतीं है लंबी-लंबी गाडियाँ !
समय के सहारे छोड़ दिए गए घावों को समय कुरेदता रहता है अक्सर !
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि बच्चे देश से अधिक जानना चाहतें हैं रोटी के विषय में ,
स्वर्ण-थाल में छप्पन भोग और राजकुमार की कहानियों को झूठ कहते हैं ,
मानतें हैं कि घास खाना मूर्खता है जब उपलब्ध हो सकती हो रोटी !
छब्बीस जनवरी उनके लिए दो लड्डू ,एक छुट्टी से अधिक कुछ भी नहीं !
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि माट्साब कमउम्र लड़कियों को पढाते हैं विद्यापति के रसीले गीत ,
मुखिया जी न्योता देते हैं कि मन हो तो चूस लेना मेरे खेत से गन्ने !
इनारे पर पानी भरती उनकी माँ से कहते है कि तुम पर गई है बिल्कुल !
दुधारू माँ अपने दुधमुहें की सोच कर थूक घोंट मुस्कुराती है बस -
कि अगर छूट गई घरवाले की बनिहारी भी तो बिसुकते देर न लगेगी !
आखिर कैसा देश है ये ?
- कि विद्रोही कविताएँ राजकीय अभिलेखों का हिस्सा नहीं है !
तेज रफ़्तार सड़कें रुके हुए फुटपाथों के मुँह पर धुँआ थूक रही हैं !
बच्चों से कहो देशप्रेम तो वो पहले रोटी मांगते हैं !
कमउम्र लड़कियों से पूछो उनका हाल तो वो छुपातीं हैं अपनी अपुष्ट छाती !
माँ के लिए बेटी के कौमार्य से अधिक जरूरी है दुधमुहें की भूख !
वातानुकूलित कक्ष तक विकास के आँकड़े कहाँ से आते हैं आखिर ?
कविताओं के हर प्रश्न पर मौन रहती है संसद और सड़कें भी !
निराश कवि मिटाने लगता है अपने नाखून पर लगा लोकतंत्र का धब्बा !
***
अरुण श्री
जन्मतिथि-29.09.1983
पिता - श्री उमाशंकर लाल
माता - श्रीमती हीरावती
शिक्षा - बी. कॉम. , डिप्लोमा इन कंप्यूटर एकाउंटिंग
जन्म स्थान - कलानी , रामगढ , कैमूर(बिहार )
वर्तमान पता - मुगलसराय , चंदौली( उत्तर प्रदेश)
सम्प्रति- निजी क्षेत्र में लेखाकार(पेशा)
मोबाईल न - 09369926999
ई-मेल - arunsri4ever@gmail.com
अरुण श्री
जन्मतिथि-29.09.1983
पिता - श्री उमाशंकर लाल
माता - श्रीमती हीरावती
शिक्षा - बी. कॉम. , डिप्लोमा इन कंप्यूटर एकाउंटिंग
जन्म स्थान - कलानी , रामगढ , कैमूर(बिहार )
वर्तमान पता - मुगलसराय , चंदौली( उत्तर प्रदेश)
सम्प्रति- निजी क्षेत्र में लेखाकार(पेशा)
मोबाईल न - 09369926999
ई-मेल - arunsri4ever@gmail.com