हरेप्रकाश उपाध्याय की कविताओं का इंतज़ार, अनुनाद के लिए बहुत पुराना इंतज़ार था। अब जाके पूरा हुआ। कठिन प्रखर प्रतिभा, सख़्त बोली, अक्खड़-फक्कड़ व्यवहार के बीच हरेप्रकाश का एक उतना ही आत्मीय सरल मानवीय पक्ष है, जिसे उनकी कविताएं पकड़ती हैं। इधर फेसबुक जैसे नए हंगामाख़ेज़ माध्यम ने कहीं न कहीं हम सभी को प्रभावित किया है, हममें से अधिकांश उस प्रदेश के वासी भी हैं। हरेप्रकाश की यहां छप रही चार कविताएं तो सीधे ही फेसबुक अनुभवों से जन्मीं, उनसे संवाद करतीं या उनका प्रतिकार करती कविताएं हैं। बाक़ी की तीन कविताओं में बहस सम्भव करती एक बनक है, गोया यहां बहस की नहीं जा रही- बस छेड़ी जा रही है, कुछ निष्कर्ष दिए जा रहे हैं - आलोक धन्वा की पंक्ति से रूपक बनाऊं तो जैसे ''इन शामों की रातें होंगी किन्हीं और शामों में''
इन मुद्दों और निष्कर्षों पर बहसें होंगी किन्हीं और बहसों में ......
अनुनाद पर मैं प्रिय कवि साथी का स्वागत करता हूं और भरपूर हरक़त-हरारत से भरी इन अभिप्रायवान कविताओं के लिए आभार भी प्रकट करता हूं।
1. अमित्रता
आज कुछ मित्रों को अमित्र बनाया
यह काम पूरी मेहनत व समझदारी से किया
जरूरी काम की तरह
जिंदगी में जरूरी हैं मित्रताएं
तो अमित्रता भी गैरजरूरी नहीं
जो अमित्र हुए
हो सकता है वे मित्रों से बेहतर हों
मेरी शुभकामना है कि वे और थोड़ा सा बेहतर हों
किसी मित्र के काम आएं
इतना कि अगली बार जब कोई उन्हें अमित्र बनाना चाहे
तो भी उसका दिल उनकी रक्षा करे
तब तक मेरी यह प्रार्थना है
अमित्रों का दिल
उनके दल से मेरी रक्षा करे
अमित्र उन संभावनाओं की तरह हैं
जिन्हें अभी पकना है
जिनका मित्र मुझे फिर से बनना है
2. फेसबुक
दोस्त चार हजार नौ सौ सतासी थे
पर अकेलापन भी कम न था
वहीं खड़ा था साथ में
दोस्त दूर थे
शायद बहुत दूर थे
ऐसा कि रोने-हँसने पर
अकेलापन ही पूछता था क्या हुआ
दोस्त दूर से हलो, हाय करते थे
बस स्माइली भेजते थे...
3. आत्मीयता
दिल्ली भोपाल लखनऊ पटना धनबाद से बुलाते हैं दोस्त
फोन पर बारबार
अरे यार आओ तो कभी एक बार
जमेगी महफिल रात भर
सुबह तान कर सोएंगे
शाम घुमेंगे शहर तुम्हारे साथ
सिगरेट के छल्ले बनाएंगे
आओ तो यार
बारबार का इसरार
बारबार लुभाता है
दफ्तर घर पड़ोस अपने शहर अपने परिवार को झटक कर
बड़े गुमान से सुनाता हूँ
टिकट कटाता हूँ
दोस्तों के शहर में पहुँचकर फोन मिलाता हूँ
दोस्त व्यस्त है
जरूरी आ गया है काम
कहता है होटल में रूको या घर आ जाओ
खाओ पीओ मौज मनाओ
मुझे तो निपटाने हैं काम अर्जेंट बहुत
अगली बार आओ तो धूम मचाते हैं
सारी कोर कसर निभाते हैं
लौटकर वापस फेसबुक पर लिखता हूँ शिकायत
कुछ दोस्त उसे लाइक कर देते हैं
कुछ स्माइली बना देते हैं
कुछ लिखते हैं- हाहाहाहा...
4. चाहना
कविता क्या चाहती है
जानना मुश्किल है
पाठक हैं कि कविता से जीवन का मतलब पाना चाहते हैं
कवि हैं कि कविता से यश चाहते हैं
और आप हैं कि कविता से समाज बदलना चाहते हैं
समाज है कि कविता में गुड़ी-मुड़ी बैठा है...
5. जीवन
दिल्ली की ठेला-ठेली में
भागा-भागी में काँव-कीच में
ईर्ष्या घृणा क्रोध मद मोह लोभ में
एक भोरहरिये पार्क में टहलने जाते समय
आकाश में दिखता है चाँद जाता हुआ
और आप दुनिया से जाने के विचार को विदा करते हैं
आपको लगता है इस दुनिया से बेहतर और क्या है
जबकि वह चाँद आपको देखते हुए मुस्कराता हुआ चला जाता है...
6. भ्रम
देर रात टीसता है दर्द कहीं
आप बेचैन हो उठते हैं
रात इतनी गयी
कौन मिलेगा
कैसे आराम मिलेगा
आप विवश हैं ताला मारकर चला गया है मुहल्ले का दवावाला
करवट बदलते आहें भरते बीतती है रात
पहर भर भोर के पहले आती है नींद
नींद में सपने में जूता पहनकर निकल लेते हैं आप
सारी दुकानें खुली हैं
दवावाला कर रहा है आपका इंतजार
आपका हो जाता है काम
सुबह नींद टूटती है आपको
लगता है पहले से कुछ आराम....
जबकि दर्द अभी कुनमुना रहा है
आपकी भ्रम पर मुस्करा रहा है...
7. फैसला
मैं एक कठोर निर्णय लेना चाहता हूँ
पर ऐसा नहीं हो पाता
क्या आप सोच रहे हैं कि मैं भविष्य से भयभीत हूँ
नहीं, नहीं सर आप गलत सोच रहे हैं
मैं इतिहास के बारे में सोच रहा हूँ
एक सही भविष्य बनाने के लिए
मैं एक गलत इतिहास नहीं पैदा कर सकता...
***
जन्म : 5 फरवरी 1981, बैसाडीह, भोजपुर (बिहार)
कविता संग्रह : खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित)
उपन्यास : बखेड़ापुर (भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य)
संपादन : मंतव्य (त्रैमासिक पत्रिका)
अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार, हेमंत स्मृति पुरस्कार, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार
संपर्क- ए-935/4 इंदिरानगर, लखनऊ - 226016 (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल-08756219902
आज कुछ मित्रों को अमित्र बनाया
यह काम पूरी मेहनत व समझदारी से किया
जरूरी काम की तरह
जिंदगी में जरूरी हैं मित्रताएं
तो अमित्रता भी गैरजरूरी नहीं
जो अमित्र हुए
हो सकता है वे मित्रों से बेहतर हों
मेरी शुभकामना है कि वे और थोड़ा सा बेहतर हों
किसी मित्र के काम आएं
इतना कि अगली बार जब कोई उन्हें अमित्र बनाना चाहे
तो भी उसका दिल उनकी रक्षा करे
तब तक मेरी यह प्रार्थना है
अमित्रों का दिल
उनके दल से मेरी रक्षा करे
अमित्र उन संभावनाओं की तरह हैं
जिन्हें अभी पकना है
जिनका मित्र मुझे फिर से बनना है
2. फेसबुक
दोस्त चार हजार नौ सौ सतासी थे
पर अकेलापन भी कम न था
वहीं खड़ा था साथ में
दोस्त दूर थे
शायद बहुत दूर थे
ऐसा कि रोने-हँसने पर
अकेलापन ही पूछता था क्या हुआ
दोस्त दूर से हलो, हाय करते थे
बस स्माइली भेजते थे...
3. आत्मीयता
दिल्ली भोपाल लखनऊ पटना धनबाद से बुलाते हैं दोस्त
फोन पर बारबार
अरे यार आओ तो कभी एक बार
जमेगी महफिल रात भर
सुबह तान कर सोएंगे
शाम घुमेंगे शहर तुम्हारे साथ
सिगरेट के छल्ले बनाएंगे
आओ तो यार
बारबार का इसरार
बारबार लुभाता है
दफ्तर घर पड़ोस अपने शहर अपने परिवार को झटक कर
बड़े गुमान से सुनाता हूँ
टिकट कटाता हूँ
दोस्तों के शहर में पहुँचकर फोन मिलाता हूँ
दोस्त व्यस्त है
जरूरी आ गया है काम
कहता है होटल में रूको या घर आ जाओ
खाओ पीओ मौज मनाओ
मुझे तो निपटाने हैं काम अर्जेंट बहुत
अगली बार आओ तो धूम मचाते हैं
सारी कोर कसर निभाते हैं
लौटकर वापस फेसबुक पर लिखता हूँ शिकायत
कुछ दोस्त उसे लाइक कर देते हैं
कुछ स्माइली बना देते हैं
कुछ लिखते हैं- हाहाहाहा...
4. चाहना
कविता क्या चाहती है
जानना मुश्किल है
पाठक हैं कि कविता से जीवन का मतलब पाना चाहते हैं
कवि हैं कि कविता से यश चाहते हैं
और आप हैं कि कविता से समाज बदलना चाहते हैं
समाज है कि कविता में गुड़ी-मुड़ी बैठा है...
5. जीवन
दिल्ली की ठेला-ठेली में
भागा-भागी में काँव-कीच में
ईर्ष्या घृणा क्रोध मद मोह लोभ में
एक भोरहरिये पार्क में टहलने जाते समय
आकाश में दिखता है चाँद जाता हुआ
और आप दुनिया से जाने के विचार को विदा करते हैं
आपको लगता है इस दुनिया से बेहतर और क्या है
जबकि वह चाँद आपको देखते हुए मुस्कराता हुआ चला जाता है...
6. भ्रम
देर रात टीसता है दर्द कहीं
आप बेचैन हो उठते हैं
रात इतनी गयी
कौन मिलेगा
कैसे आराम मिलेगा
आप विवश हैं ताला मारकर चला गया है मुहल्ले का दवावाला
करवट बदलते आहें भरते बीतती है रात
पहर भर भोर के पहले आती है नींद
नींद में सपने में जूता पहनकर निकल लेते हैं आप
सारी दुकानें खुली हैं
दवावाला कर रहा है आपका इंतजार
आपका हो जाता है काम
सुबह नींद टूटती है आपको
लगता है पहले से कुछ आराम....
जबकि दर्द अभी कुनमुना रहा है
आपकी भ्रम पर मुस्करा रहा है...
7. फैसला
मैं एक कठोर निर्णय लेना चाहता हूँ
पर ऐसा नहीं हो पाता
क्या आप सोच रहे हैं कि मैं भविष्य से भयभीत हूँ
नहीं, नहीं सर आप गलत सोच रहे हैं
मैं इतिहास के बारे में सोच रहा हूँ
एक सही भविष्य बनाने के लिए
मैं एक गलत इतिहास नहीं पैदा कर सकता...
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जन्म : 5 फरवरी 1981, बैसाडीह, भोजपुर (बिहार)
कविता संग्रह : खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित)
उपन्यास : बखेड़ापुर (भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य)
संपादन : मंतव्य (त्रैमासिक पत्रिका)
अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार, हेमंत स्मृति पुरस्कार, ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार
संपर्क- ए-935/4 इंदिरानगर, लखनऊ - 226016 (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल-08756219902