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जनवाद/साम्‍यवाद की व्‍यापक विचारधारा को सीमित करता है कतिपय कवि-चिंतकों का स्‍वयंभू लोकवाद? : फेसबुक से एक गम्‍भीर बहस : विजेन्‍द्र और अशोक कुमार पांडेय

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कुछ समय पहले विजेन्‍द्र जी ने उनकी पेंटिग्‍ज़ की मेरे द्वारा की गई प्रशंसा को हिंदी कविता के युवा विघ्‍नसंतोषियों द्वारा समझाए जाने पर अपनी कविता की अवमानना की तरह ग्रहण किया। मैंने पहली बार किसी ऐसे वरिष्‍ठ कवि को देखा, जो अपनी कविता पर स्‍वप्‍न में भी कोई प्रतिकूल टिप्‍पणी नहीं चाहते। मैंने तो केदारनाथ सिंह जैसे कवि को अपनी आलोचना सुनकर मुस्‍कुराते हुए देखा है और फिर आलोचक के कंधे पर हाथ रख टहलते भी। मुझ चालीस वर्ष के व्‍यक्ति को विजेन्‍द्र जी ने अपनी कविता के विरुद्ध चल रहे किसी 40 वर्ष पुराने (काल्‍पनिक) अभियान का कार्यकर्ता घोषित किया (यह सब मेरी वाल पर दर्ज़ है)। मैंने बहुत विनम्रता से उनके अकारण साठोत्‍तरी क्रोध को शांत किया। इसके बाद उन्‍होंने अशोक कुमार पांडेय और मुझे लोकधर्मिता पर बहस के लिए आमंत्रित किया। हम कई बार अपनी बात कह चुके हैं, मैंने कुछ लिंक्‍स देकर उन्‍हें अवगत कराया पर वे उसे पढ़ने को तैयार नहीं हुए। उनसे बात करना घर के किसी चिढ़े हुए बहुत ऊंचा सुनने वाले बुज़ुर्ग से बात करने की तरह था, जो चिढ़ में जानबूझ कर और ऊंचा सुनने लगता है। मैंने कुछ उत्‍तरआधुनिक संकटों के उल्‍लेख भी लोक के सन्‍दर्भ में किए पर उन्‍होंने कुछ सुना ही नहीं। बहरहाल, 

इधर फलीस्‍तीन में बरपा क़त्‍ले-आम पर अपने एक स्‍टेटस पर मैंने लगातार सिर्फ़ अपनी कविता साझा  कर रहे और लोकधर्मिता पर व्‍याख्‍यान लगा रहे विजेन्‍द्र जी को भी बयान देने के लिए आमंत्रित किया।  आगे अशोक कुमार पांडेय के साथ लोक मुद्दे पर उनकी बात हुई, जिसमें उन्‍होंने तर्क का साथ मानो शपथबद्ध होकर छोड़ रखा है। दोनों बातचीत आपके अवलोकनार्थ यहां चस्‍पां हैं -इन्‍हें यहां लगाने का मक़सद व्‍यक्तिगत आक्षेप करना नहीं, उसी बहस की शुरूआत करना है, जिसकी पुरज़ोर मांग आदरणीय विजेन्‍द्र जी पिछले 15 दिन से लगातार कर रहे हैं। 

प्रस्‍तुत है पहले विजेन्‍द्र जी की वाल पर अशोक से बातचीत, फिर पुराना फलीस्‍तीन वाला बयान। यह कोई अंतिम निष्‍कर्ष नहीं। अंतिम निष्‍कर्ष विजेन्‍द्र जी के पास है -  हम कुछ भी होने से पहले वामपंथी हैं, हमारे निष्‍कर्ष डाइअलेक्टिक से तय होते हैं, डिस्‍कोर्स से नहीं। असहमतियों और प्रतिवादों का स्‍वागत है। 
-शिरीष कुमार मौर्य


अशोक कुमार पांडेय-विजेन्‍द्र 

कवि विजेन्‍द्र का मूल कथन (फेसबुक शब्‍दावली में 'स्‍टेटस')

जरा सोचें

इस से लगता है की भारतीय चित्त सदा लोकानुरागी , लोक सजग , और लोक पक्षधर भी रहा है । अत: आज लोकतन्त्र में लोक की पुनर्व्याख्या जरूरी है । कहना न होगा जो कवि लोकधर्मी - लोक या जन पक्षधर है सही अर्थों में वही समकालीन भी है । वही आधुनिक भी है । और वही नया भी है । आज लोक केन्द्र में हो -उसके लिए जरूरी है हम अपनी कविता के ढांचे को बदलें । अपनी भाषा और मुहावरे को लोक से सीखें। उस से ग्रहण करें। पुस्तकीय और academic भाषा से हम जीवन और समाज के गतिशील - विकसित होते हुये - यथार्थ को व्यक्त नहीं कर पाएंगे । जरा सोचें तुलसी ने उस समय अपने महाकाव्य को संस्कृत न चुन कर अवधि चुनी? इसका काशी के पंडितों ने बेहद विरोध किया था । क्योंकि वे कविता को जन समान्य के करीब लारहे है। ध्यान रहे जब हम लोक को कविता के केंद्र में लाएँगे तो हमारा सौंदर्य बोध भद्रलोक elite कविता के सौंदर्य बोध से अलग और भिन्न होगा । महाकवि निराला ने छायावाद युग में "तोड़ती पत्थर ""कुकुरमुत्ता"तथा "नये पत्ते "की कविताओं में अपनी ही कविता के ढांचे को आमूल - चूल तोड़ा है । उन्होने अपने "बादल राग में"किसान के सबसे अभिन्न मित्र बादल को , "विप्लव के वीर "और किसान को "अधीर"कहा है –

तुझे बुलाता कृषक अधीर 

ओ विप्लव के वीर 

चूस लिया है उसका [किसान का ] सार

हाड़ मास ही है आधार

वो यह भी संकेत करते है कि जो अपने को विजयी कह रहे है वे दरअसल शोषक है

खुला भेद विजयी कहाए हुए है 

लहू दूसरों का पिये जा रहे है ।

देखने कि बात है जिस किसान को निराला कविता में इतना महत्व दे रहे है तो आज का कवि किसान विमुख क्यों है ? आज की अधिकांश कविता से किसान और श्रीमिक क्यों गायब है ? जबकि वे भारत का तीन चौथाई संक्रियाशील हिस्सा है । वे पूरे भारत के निर्माण में अपने को खफा रहे है । जहां ऐसी स्थिति है उस कविता को समकालीन कहना कितना उचित होगा? भद्र लोक के कवियों और समीक्षकों ने ही elite कविता को यह स्वीकृति दे कर विभ्रम पैदा किया है। अत: लोकधर्मी कविता के प्रतिमान का प्रश्न आज प्रमुख हो यथा है ।

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टिप्‍पणियां/बहस
DrRajendra Singhvi दलित और स्त्री की तरह किसान विमर्श आज के समय की आवश्यकता है।कविता के केन्द्र में उसकी व्यथा जब तक सही ढंग से अभिव्यक्त नहीं होंगी, तब तक समकालीन कविता और आलोचना अधूरी रहेगी।



Vijendra Kriti Oar प्रियवर राजेंद्र जी , आपको हार्दिक बधाई इस कथन के लिए। किसी युवा समीक्षक से पहली बार यह सुनने को मिल रहा है । ऐसे समीक्षक यदि चाहें तो कविता और समीक्षा की दिशा को नया मोड दे सकते है। यह kaam चुनोती भरा है । जो इसे कर पाएगा वो साहित्य के इतिहास में सम्मान से याद भी किया जाएगा । जो लीक से हट कर अपनी जनता की नियति से एकात्म हो जाते है वे ही नया कर पाते है । यही प्रेमचंद ने किया। निराला ने किया। नागार्जुन ने , त्रिलोचन और केदार बाबू ने भी किया । मुक्तिबोध दुरूह और आत्मग्रस्त हो कर भी अपनी जनता से एकात्म होते है। आज के कवि को यह सीखने की बात है कि कोई भी बड़ा कवि लोक विमुख नहीं हो पाया।

9 hrs · Edited · Like · 4



Sharma Ramakant विजेन्द्र जी , धीरे धीरे कवियों में लोक चेतना का ह्रास हुआ है । आजकल कविता चमत्कारोक्ति में रिड्यूस होने लगी हैं ।

9 hrs · Like · 3

Vijendra Kriti Oar इसी लिए जरूरी है कि हम उन्हें याद दिलाते रहें ।आज समीक्षकों की भूमिका बहुत बड़ी हो गई है । समीक्षा में लोगों का यकीन कम हो रहा है। उसे फिर से restore करने के लिए बड़े संघर्ष की जरूरत है । समीक्षा - समर्थ सामीक्षा - कवि को "तीसरी आँख"देने का काम करती है ।

9 hrs · Like · 3

Ashok Azami लोक कहाँ नहीं है? पारलौकिक कौन लिख रहा है? किसान विमर्श क्या होगा? यानि किस किसान का...सीमांत-लघु या फिर मध्यम या फिर बड़े किसान का? क्या किसान एक वर्ग है? या एक मोनोलिथ है?

8 hrs · Edited · Like · 1

Vijendra Kriti Oar प्रिय अशोक जी ,
भारत में किसान छोटे और मझले किसान को रूढ हो चुका है । बड़े किसान यहाँ
जमीदार या भू_ स्वामी कहलाते है । निराला ने इसीलिए कृषक अधीर कहकर बात और
साफ की है -
चूस लिया है उसका सार
हाड़ मात्र ही है आधार

8 hrs · Like · 2

Ashok Azami असहमत हूँ। अर्थशास्त्र का अदना विद्यार्थी और गाँवों का लगातार सर्वे करने वाला व्यक्ति जानता है कि उदारीकरण के बाद बदली गाँवों की संरचना में किस तरह सीमांत और छोटे किसान लगातार कृषि मज़दूर में तब्दील हुए हैं और मझले किसानों का विस्तार हुआ है। आंकड़े इसकी गवाही देंगे। लोक और गाँव के नाम पर लिखी जा रही ढेरों कवितायें दरअसल इसी ग्रामीण मध्यवर्ग अर्थात मझले किसान के जीवन की कविताएँ हैं। खेतिहर मज़दूर आज पलायित हो रहा है। बड़ा किसान पूंजीपति में तब्दील हो रहा है। फिर जाति आधारित बंटवारे हैं। इन सब पर एक पर्दा सा डाल कर जो एक कल्पित कृषक छवि की कविताएँ लोक के नाम पर सामने आ रही हैं उनमें कोढ़ पर खाज की तरह है लोकभाषा के नाम पर चमत्कार पैदा करने की कोशिश जिसमें मालवा का व्यक्ति बुंदेलखंड की भाषा सुनकर समझता नहीं सिर्फ चमत्कृत होता है और कवि विजयी भाव से मुस्कुराता है। भोजपुरी वाले को मारवाड़ी समझ नहीं आती और पहाड़ वाले को भोजपुरी।

7 hrs · Like · 

Vijendra Kriti Oar अधिकांश आज के कवि किसानों और श्रमिकों की तरफ देखते ही नहीं। इसीलिए निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन की किसान चेतना विकसित नहीं हो रही है। किसान भारत की मूर्धा ही । उसके बिना कवित क्या खाक होगी। कवि अपनी मृत्यु,से नीड़ में लड़ते दिखी देते है। इसका एक कारण हे कविता में मध्य वर्गीय मानोरचना का बाहुल्य । यह काम बहुत सरल है। किसान और श्रमिक पर लिखना कठिन है । चुनोती पूर्ण भी । वहाँ पसीने की खटास और कीचड़ की गंदगी का सामना करना पड़ता है । सफेदपोश कवि इसके लिए अपने कपड़े क्यों गंदे करे ।

7 hrs · Like · 4

Mohan Kumar Nagar अशोक जी आपकी प्रतिक्रिया से असहमति का सवाल ही नहीं उठता .. खरा सच । आपने एक बड़ा विषय दिया .. कोशिश जरुर करुँगा कि इसे जाया न जाने दूँ ।

7 hrs · Like · 1

Aidan Singh Bhati अशोकजी कोढ़ में खाज की तरह गाँवों में भी बाजारवाद |

7 hrs · Unlike · 2

Vijendra Kriti Oar ऐसा नहीं है। छोटा किसान आज भी गाँव में बड़े अभावों की ज़िंदगी जी रहा है । पलायन करने के बाद भी छोटा किसान बेहद दुखी है । अगर अशोक जी की बात मान भी ली जाए तो भूमिहीन किसानों के चित्र कहाँ है ? श्रमिकों के शोषण -उत्पीड़न के चित्र क्यों नहीं है । जो आंदोलन हो रहे है छिट-पुट ही सही - वे कहाँ है ? क्या पूरा भारत सफ़ेद पोष हो चुका है ? यह विश्लेषण भी उसी मध्य वर्गयी मनो रचना का सूचक है जो इतिहास को केवल राजा -महाराजाओं की यशो गाथा मानता है । जबकि पूरा इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है । क्या आज वर्ग संघर्ष समाप्त हो गया है । क्या हमारे यहाँ शोषित - और शोषक की व्यवस्था खत्म हो चुकी है । जो शोषित है लोक तंत्र में वही लोक है । उसका वजूद नकारने का अर्थ है हम लोकतन्त्र को भी नकारते है ।

7 hrs · Like · 1

Ashok Azami कौन कहता है कि आज का कवि किसानों और मज़दूरों पर नहीं लिख रहा। मैं उलटा दावा करता हूँ कि पूंजीवाद के ख़िलाफ़ आज जितना लिखा जा रहा है उतना शायद कभी नहीं। दिक्कत यह है कि कुछ लोगों ने अपने प्रतिमान सीमित कर रखे हैं। उनके लिए गाँव से पलायन तो मुद्दा है लेकिन पलायन के कारणों का राष्ट्रीय अन्तर्रार्ष्ट्रीय विस्तार नहीं और न ही पलायन के बाद शहर में आ जाने के बाद की मुश्किलात। उनके लिए आदिवासियों की ज़मीनों की लूट मुद्दा नहीं है। मैं अपनी कविताओं के बीसियों उदाहरण दे सकता हूँ। लेकिन ऐसा करना उचित नहीं समझता। मेरी समझ यह है कि युवा कवियों के संकलन अधिकतर वरिष्ठों के पास या तो हैं नहीं या वे पढ़ते नहीं हैं। दूसरा यह कि जहाँ लोग हैं वहां लोक है। लोक का अर्थ गाँव से लेना उसे सीमित तथा वर्गमुक्त करना है। जनपक्षधरता का अर्थ गाँव मात्र नहीं हर जन के पक्ष में खड़ा होना और अभिजन के ख़िलाफ़ होना है।

Ashok Azami एक सीधा सवाल पूछ रहा हूँ सर। धृष्टता के लिए माफ़ी चाहूंगा। क्या आपने मेरी एक भी कविता पढ़ी है? तुषार धवल की एक भी कविता आपकी स्मृति में है? कुमार अनुपम की कोई कविता? प्रांजल धर की कवितायें? अनुज लुगुन की कविता? महाभूत चन्दन राय के नाम से आप परिचित हैं? अरुण श्रीवास्तव की कवितायेँ? मृत्युंजय की कवितायेँ? कृष्णकांत की कवितायेँ? ऐसे कितने ही नाम गिना सकता हूँ।

7 hrs · Edited · Like · 1

Vijendra Kriti Oar मुझे दुख है कि जिस गाँव और शहर के विभाजन को मै शुरू से नकारता रहा हूँ उसी को आप मुद्दा बना रहे है । जब मेरी ही बात को मेरे विरुध खड़ा कर रहे है तो फिर बहस या विमर्श केसे हो सकता है । मेरी पूरी पुस्तक , "सौंदर्य शास्त्र : भारतीय चित्त और कविता "2006 जिसमे यह सारी बातें मै विस्तार से कह चुका हूँ । जो बहुत ही जरूरी सवाल है आखिर "लोक"कि हमारी अवधारणा क्या है । क्या यह शब्द ही निरर्थक हो चुका है । या हमें इसकी फिर से व्याख्या करने कि जरूरत है । ओकतंत्र में यदि लोक प्रमुख नहीं होगा तो क्या नृप और उदद्योगपति प्रमुख होंगे। मै अपने मुक्ति संग्राम के संदर्भ में यह सवाल उठा रहा हूँ । हमारे मुक्तिसंग्राम मे सबसे अधिक कुर्बानियाँ लोक ने ही दी है । अगर कुछ कवि किसान और श्रमिकों के बारे में लिख रहे है तो अच्छी बात है । पर अधिकांश ऐसा नहीं है ।

7 hrs · Like · 1

Ashok Azami मुझे दुःख है कि मेरे सीधे सवाल के जवाब में आप गोल मोल बातें कर रहे हैं। ज़ाहिर है आपने इनमें से किसी को नहीं पढ़ा है। हाँ अपने लिखे के कुछ और उदाहरण ज़रूर लेकर आये हैं। तो बता दूं कि मेरी पहली किताब कविता की नहीं भूमंडलीकरण और उसके दुष्प्रभाव पर ही थी। मजेदार यह है कि आप ही नहीं आप जैसे अन्य कई लोग भी युवा कविता से अपने भयावह अपरिचय पर शर्मिन्दा होना तो दूर उसे सरलीकरणो में ढंकने की कोशिश करते नज़र आते हैं। यह दुखद है।
हाँ आप तर्कों के प्रति भी आँख मूंदे हैं। मैं जब जन कह रहा हूँ तो वह लोक से कैसे अलग है? जनवाद एक स्थापित टर्म है। फिर उसे लोक से बदलने की यह हड़बड़ी क्यों? जन का प्रतिपक्ष है अभिजन। लोक का प्रतिपक्ष क्या है? परलोक? लोक या folk अपने स्वीकृत अर्थों में वर्ग निरपेक्ष अवधारणा है। लोक संगीत लोक गीत ये सब वर्ग निरपेक्ष हैं और अक्सर इनमें जनविरोधी तत्वों का पर्याप्त समावेश है जबकि जन पूरी तरह से वर्ग सचेत पद है॥
मुक्तिसंग्राम से अब तक की अर्थव्यवस्था क्या अपरिवर्तनीय है? क्या ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि उतनी ही महत्त्वपूर्ण रह गयी हैं?
हाँ निवेदन है कि ऐसे अर्थहीन सरलीकरण करने से पहले युवा कविता को पढने का कष्ट करें। चूंकि आपलोग बिना पढ़े फतवे देते रहते हैं यही वजह है कि युवा कवि इन्हें गंभीरता से नहीं लेता। मेरी चुनौती है आप मेरे ही दोनों संकलन उठा लेंगे तो आधी से अधिक कवितायें प्रत्यक्षतः और सारी कविताएँ अपनी व्यंजना में मज़दूरों किसानों और जन के पक्ष में खड़ी मिलेंगी। हाँ कलाहीन नीरस नारा तक बन पाने में अक्षम गद्य ही आपके लिए कविता का सर्वोच्च प्रतिमान हो तो क्षमा करें कोई पीढ़ी अपने किसी वरिष्ठ की अनुकृतियां नहीं बनाती। हम भी नहीं बनाते।

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Vijendra Kriti Oar महाभूत चन्दन की कविताओं में किसान जीवन के चित्र नहीं है। उनमे आज की पूंजी केन्द्रित व्यवस्था की विकृतियाँ ही अधिक है। मध्य वर्ग की भोग-विलासी जीवन शैली और कुंठाओन के ही चित्र अधिक है । आपकी कविता मै ने नहीं पढ़ी। यदि अपने किसान जीवन को दिया है तो मै इसका हृदय से स्वागत करता हूँ । मुहे खुशी होगी अगर आप अपनी तथा इन कविओंकी कविताओं को सार्वजनिक कर बताएं कि किस तरह इन में लोक और प्रभु लोक के बीच वर्ग संघर्ष व्यक्त हुआ है । अपवाद सब जगह होते है। जो बात को साबित करने के लिए अर्पर्याप्त नहीं होते है । मै बार बार अधिकांश कविता की बात कह रह हूँ । म्मुझे , "तुषार धवल"की एक प्रति वीपीपी से भिजवाएँ। मै उसे पढ़कर अपनी भूल सुधारना चाहूँगा ।

7 hrs · Edited · Like · 1

Ashok Azami सार्वजनिक का अर्थ अगर आपको संकलन भिजवाना है तो वह संभव नहीं। बाक़ी सबके संकलन बाज़ार में हैं और कवितायें ब्लाग्स में। फतवा ज़ारी कर्ताओं का फ़र्ज़ है शोधकर्ताओं की तरह ढूंढ कर पढ़ना। कवि अपनी कविता लिखकर आलोचकों के दरवाजे जाए कविता पढवाने? अगर किसी को सच में रूचि है तो वह ढूंढें और सही ग़लत को अलग अलग करे।
किसान जीवन का चित्र न होने और शहरी जीवन की विडंबनाओं के चित्रण के कारण महाभूत आपको मंजूर नहीं हैं और हमारे शहर गाँव विभाजन के आरोप पर आप विगलित हो जाते हैं!!! गाँव का मध्यवर्गीय किसान जीवन आपके लिए क्रांतिकारी है और शहर का निम्नमध्यवर्ग जो असल में सर्वहारा का हिस्सा है वह अस्वीकार!!! यह कौन सा लोक है महाराज जो पलायित होकर शहर में आते ही अपनी दुर्दशा और वंचना के बावजूद आपकी कृपा दृष्टी से वंचित हो जाता है? क्या पूँजी केन्द्रित विषमताओं का चित्रण पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है? क्या ही अद्भुत वर्ग दृष्टी है सर!!!
हाँ मैं कहूंगा आप अपवादों को नियम सिद्ध कर रहे हैं.

Vijendra Kriti Oar मैंने किसी कवि को अभी तक नकारा नहीं है । उनके कथ्य की बात कही है । गलत उद्धृत न करें । बातें सबके सामने है । आप गुस्सा न हों। मै कोशिश करूंगा की इन सबके उपलब्ध संकलन पढ़ के फिर आप से बात करूँ । आप ने ठीक कहा । मुझे सच का पता लगाना होगा तो मै ही खोज करूंगा ।

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Vijendra Kriti Oar बस यह यहीं समाप्त करता हूँ। हम एक दूसरे की असहमति का सम्मान करें । और अपनी अपनी धारणाओं को प्रमाणित करते रहें ।

6 hrs · Unlike · 2

Ashok Azami मैं गुस्सा क्यों होऊँगा? आपने किसी कवि को नहीं पर पूरी पीढ़ी को एक नकार के साथ देखा है सर. और आप पहले नहीं हैं. चिंतन दिशा की एक लम्बी बहस में जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो काफी लंबा लेख लिखा था युवा कविता पर. आठ सालों से अपने ब्लॉग पर युवाओं को ढूंढ ढूंढ के छाप रहा हूँ. न केवल इस पीढ़ी का हिस्सा हूँ बल्कि इससे एक दोस्ती का नाता भी है. इसके प्रगतिशील और परिवर्तनकामी तथा सत्तापक्षी बंटवारे को अलग अलग करके नहीं देखा गया तो यह सत्तापक्षी धारा को मुख्यधारा मान लेना होगा. हर देवताले के समय एक अशोक वाजपेयी होता है मुक्तिबोध के समय एक अज्ञेय. आलोचक को नीर क्षीर विवेकी होना चाहिए न कि सरलीकरण से काम चलाना चाहिए.
इतना ही कहना था. धृष्टताओं के लिए फिर से मुआफी.

Vijendra Kriti Oar अशोक जी जिस तरह आप नई पीढ़ी के लिए चिंतित है वैसे हम भी रहे है । आज भी है । यदि उदाहरण दूंगा तो उसे "बड़बोलापन"या "आत्म मुग्दता"कहा जाएगा । इससे बेहतर है जो लोग सामने आए है वे स्वयम ही कहेंगे। समय किसी को नहीं छोड़ता। आपके वामपंथी दृष्टिकोण का में सदा आदर करूंगा। पर कई बार एक ही तरह सोचने वालों की राय भी मुखतलिफ़ हो सकती है । उसे लम्बे , आवेश रहित और तर्कपूर्ण विमर्श से सुलझाया जा सकता है । यह तो मै भी नहीं चाहूँगा कि प्रगतिशील और जनवादी ताक़तें परस्पर लड़कर विभाजित हों । दिक्कत यह है कि आप मेरी बुनियादी बात को सरलीकरण मानते है ! मै आपकी बात को तथ्य का सामना न करने वाली बात मानता हूँ । इसी लिए मैंने आपसे विनम्र निवेदन किया था कि बेहतर हो आप अपने विचार एक बार कैसी पत्रिका मै विस्तार से कहें । तो मै तथा और लोग भी उसका उत्तर देंगे । बात आगे बढ़ेगी । कुछ सत्य होसकता है सामने आ सके। लोक शब्द से ही यदि आपको चिढ़ है तो में क्या कर सकता हूँ! वो मेरी मार्क्सवादी अवधारणा का जरूरी हिस्सा है जिसे मै पिछले 30 सालों से कहता आया हूँ । विरोधिओं के सप्रमाण उत्तर दिये है । मेरा जवानी कुछ नहीं है। सब कुछ पुस्तकार हो चुका है । हो रहा है ।

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Ashok Azami पुस्तक में आ जाने से बात अंतिम नहीं हो जाती आदरणीय। मैं लोक नहीं जन का पक्षधर हूँ। कारण ऊपर कमेन्ट में दिए हैं। अब आप उनका उत्तर न देकर अपनी किताबें रिफर करेंगे तो बात कैसे होगी? उस चिंता का हम क्या करेंगे कि इस पीढ़ी के तमाम कवियों की लगभग सभी पत्रिकाओं में, ब्लाग्स में और किताबों में छपी रचनाओं में से एक का भी आपने पाठ किये बिना उन पर राय दी है।
मैंने तर्क ही दिए हैं सुविचारित। हाँ आपने किसी का भी उत्तर नहीं दिया।

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Vijendra Kriti Oarपुस्‍तक का हवाला इसलिए कि अब मैं अपने ही लिखे को काट नहीं सकता। ऐसा नहीं है समकालीन लोकधर्मी कवियों का मैंने सदा सम्‍मान से उललेख कियाहै। मेरे आलेख प्रमाण हैं। (pustak ka havala islye ki ab mei apne hi likhe ho kaat nahi sakta. yaesa nahi hai samkaleen lkodharmi yva kavion ka maine sada samman se ullekh kiya hai . mer aalekh praman hai.)

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Vijendra Kriti Oarलोक जन से अधिक व्‍यापक और संवेदी है। जन में और लोक में कोई बैर नहीं है। जनवाद लोक का ही एक पहलू है। मैंने लोक को सर्वहारा का पर्याय तक कहा है। लोक का अर्थ सामान्‍य और अतिसामान्‍य होकर ही अपना अर्थ लेता है। (lok jan se adhki vyapak aur samavedhi hai . jan mai aur lok mei koi vaer nahi hai . janvad lok ka hi ek pehlu hai . mine lok ko sarvhara ka paray tak kaha hai . lok ka arth saamany aur ati samany hokar hi apna arth leta hai.)

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Ashok Azami आपकी नज़र में लोकधर्मी वही है जो ग्राम छवियाँ ले आता है। या जो कृति ओर में प्रकाशित होने के लिए रचना भेजता है। मैंने ऊपर दो कवितायें भेजी हैं। दोनों प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। जानना चाहता हूँ कि वे कैसे जन विरोधी हैं।
लोक अगर सर्वहारा का पर्याय है तो इसका प्रतिपक्ष क्या है? इसके बरक्स बुर्जुआ के लिए कौन सा पद है?

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Vijendra Kriti Oarबिलुकल गलत। कहीं ऐसा मेरा लिखा और कहा बताएं। मैंने शुरू से लोक को गांव और शहर में विभाजित करने का विरोध किया हैा (bilkul galat. kahin aesa mera likha ur kaha batayen . maine shuru se lok ko gaon aur shar mei vibhajit karne ka virodh kiya hai)

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Vijendra Kriti Oarपूरा हिंदी जगह जानता है। (poora hindi jagat janta hai.)

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Vijendra Kriti Oarलोक और भद्रलोक। (lok aur bhadra lok.)

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Vijendra Kriti Oarलोक और प्रभुवर्ग। (lok aur prabhu varg)

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Vijendra Kriti Oarआल दि बेस्‍ट टू यू ऑल। (All the best to you all.)

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Ashok Azami महाभूत की कविता को मैंने लोक का बताया तो आपने तुरत ही उसमें गाँव की छवियाँ न होने की बात की. क्यों? लोक का जो प्रचलित अर्थ है वह folk से लिया जाता है. इसमें वर्ग चेतना कहाँ है? वह क्या वजह है कि लोक भाषा और गाँव की अनुपस्थिति आपके लिए चिंता का विषय बनती है? शहर में अगर लोक है तो उसकी कविता लिखने वाला लोकभाषा क्यों बोलेगा?
लोक और प्रभु जैसा कोई अन्तर्विरोध नहीं. लोक कोई वर्ग नहीं होता. भारत सहित सारी दुनिया में जन की ही बात है. जनवाद एक स्वीकृत और प्रचलित वर्ग चेतस पद है जिसका सभी वामपंथियों ने प्रयोग किया है. लोक का नहीं. लोकगीत और जनगीतों का फर्क बताने की आवश्यकता नहीं. लोकगीतों में जनविरोधी बातें, जातीय श्रेष्ठता को स्थापित करने वाली और स्त्री विरोधी बातें बहुधा दिखाई देती हैं.

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Vijendra Kriti Oarआप गलत कोट करते हैं। गांव की छवियों नहीं कहा। किसान जीवन का संघर्ष और उसके जीवन की बात कही थी। (aap galt quote karte hai. gaon ki chaviion nahi kaha. kisan jeevan ka sanghrsh aur uske jeevan ki baat kahi hai.)


Ashok Azami किसान गाँव में ही रहता है. शहर में मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग और श्रमिक रहते हैं. तो किसान जीवन की ही छवियों की मांग दरअसल गाँव की ही मांग है.


Ashok Azami और आपने किसान जीवन का संघर्ष नहीं सिर्फ "किसान जीवन की छवियाँ"नहीं है कहा है. मेरा कहना है कि हर किसान सर्वहारा नहीं है. उनमें अभिजन और शोषक किसान भी है.

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Vijendra Kriti Oarप्रो.चन्‍द्रबली सिंह जैसे बड़े और कमिटेड मार्क्‍सवादी की एक मशहूर किताब है 'लोकदृष्टि और हिंदी साहित्‍य'। डॉ. शिवकुमार मिश्र जैसे मार्क्‍सवादी समीक्षक जीवन भर लोकजीवन और लोकधर्मी साहित्‍य की बात करते रहे। लिखते भी रहे। (prof. Chandrabali Singh jaese bade aur committed Marxvadi ki ek mashhoor kitab hai ""Lokdrishti aur Hindi Sahity ". Dr. Shivkumar Mishr jaese Marxvadi sameekshak jeevan bhar Lok Jeevan aurLlok Dharmi Sahity ki baat karte rahe.likhte bhi rahe.)


Vijendra Kriti Oarएक सधा और सुलझा गम्‍भीर मार्क्‍सवादी न तो कुतर्क करता है न छिद्रान्‍वेषण करता है। जैसे आप शुरू से अब तक करते रहे हैं। "आपका मार्क्सवाद का ज्ञान अधकचरा है. लिटिल नॉलेज इज़ डेंजरस एंड नॉव आई रीयलाइज़ दैट यू नो नथिंग एबाउट मार्क्‍सज़ मेटाफिजिक्‍स विद ड्यू रिगार्ड्स, मुझे पहले मार्क्‍स की मेटाफिजिक्‍स पढ़ लेने दीजिए तब आप से तसल्‍ली से बात करूंगा।  (ek sadha aur sulhjha gambhir marxvadi n to kutark karta hai n chidranveshan karta hai . jese aap shuru se abtak karte rahe hai . Little knowledge in dangerous and now i realise that you know nothing about marx's metaphysics. I wont answer any of your questions now. with due regards ,mujhe pehle Marks ki Metaphysics padh lene dijiye tab ap se tasalli se baat karunga . .)


Ashok Azami कुछ लोग अपने समय और अहंकार की क़ैद में इस तरह बंद होते हैं कि उससे बाहर कभी नहीं निकल पाते। बड़ा मेरे लिए कोई नहीं। कम से कम इतना बड़ा तो नहीं कि उसके कहे भर से मैं आलोचना का अधिकार त्याग दूं। मेरी खुली चुनौती मार्क्सिस्ट नज़रिए से इस पर बहस की है। जब सवालों के जवाब न सूझें और बहस में कमज़ोर पड़ने लगें तो कुछ बड़े नामों की ड्रापिंग बहस का सबसे घटिया तरीका है। दुर्भाग्य से आप वहीँ पहुंचे। आपकी कविता और विचार दोनों की समझ इतनी एकांगी और जड़सूत्रवादी है कि उसमें द्वंद्वात्मकता की तलाश नामुमकिन है। और इस कोढ़ पर खाज है अपने कथित ज्ञान का अहंकार जो यह नहीं समझ पाता कि भारतीय और विश्व पूँजी में पिछले पचास सालों में आये परिवर्तन ने हमारी सामाजिक और आर्थिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन किये हैं। लोक जीवन से महाप्राणता आना क्या है? क्या यह जन का निषेध है? यह बहुत हलके में देखें तो शिल्प और भाषा के स्तर की बात है। जिसे महाप्राण कहा जाता है वह निराला प्रांजल हिंदी में लिखते थे। अगर मिश्र जी और आप में इतनी इमानदारी थी तो अपने संगठन का नाम जनवादी से लोकवादी लेखक संगठन रखने के लिए संघर्ष चलाना चाहिए था।

Now I realise that I was trying to communicate with someone who has last his sight and has no basic understanding of the dynamics of economy and society. Someone who is a literary dumbo and thinks himself a giant which is helped by his equaly moran followeres who never bothered to analyse the ground reality of there time and who are following some outdated rhetorics just like the baudhist monks.

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 अशोक की सूचना के अनुसार विजेन्‍द्र जी ने बिलकुल अंत के कई कमेंट्स हटा दिए . साथ में शिव प्रसाद मिश्र और चन्द्रबली सिंह का उदाहरण देकर यह आरोप था कि आप मार्क्सवाद विरोधी बात कर रहे हैं. इनमें एक कमेन्ट राहुल देव का था - अशोक जी की सभी बातें तर्कपूर्ण हैं उनसे से सहमति के बावजूद मैं चाहूंगा कि सर एक लेख लिखकर विस्तार से इसका उत्तर दें, इसे भी हटा दिया गया)

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फलीस्‍तीन प्रकरण : आत्‍मग्रस्‍त कविमन 
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मैं अचानक कुछ देर के लिए लौटा और फलीस्‍तीन की तस्‍वीरें देख स्‍तब्‍ध ..... विचलित.... हूं। अच्‍छा है कि लिखने में व्‍यक्‍त नहीं होता कंठ कितना रूंधा है।
महज अभी का घटनाक्रम लें तो इज़रायल के तीन जवानों की क़ीमत कितने ही लाश हो चुके बच्‍चे दे रहे हैं - शैतानों की दुनिया है यह।
शैतान चाह लेंगे तो इस भू-जैविक पट्टी विवाद में इज़रायल द्वारा किए जा रहे नरसंहार में भी कुछ तर्क ढूंढ लेंगे...यों भी इधर देश में ऐसे ही तर्क देने की रस्‍म निकली है।
यह एक दम तोड़ती छटपटाहट है। दुनिया का ठेकेदार ख़ुश होगा। गाज़ा पट्टी जैसी जगहों का बरबाद हो जाना उसके हिस्‍से के ग्‍लोब में कूटनीतिक हासिल कहलाएगा। उसके लिए यह लोकेल नरेशन है और इस नाते अहम भी, जिसमें बहुत सहूलियत से यहूदी बनाम अरब किया जा सकता है। जबकि यह मानना बेशर्म भरम होगा कि मामला यहूदी बनाम अरब ही रह गया है। उसके लोकेल की वजह से उसके वैश्विक कारण और उत्‍प्रेरक अब भरपूर मौजूद हैं।
ऐसी जाहिल दुनिया को बदलना बहुत दूर की बात है। इसे और इसके नए राजनैतिक दुश्‍चक्रों को अभी हम ठोस इनकार बोल सकते हैं- बोलना चाहिए। बार-बार.......
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ऐसे समय में अपना काम करते रहने का कोई अर्थ नहीं। आज विभाग में, परिसर में, शहर में इस मसले पर टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही पर विरोध किया। परीक्षा के दिनों में बमुश्किल उपलब्‍ध छात्राें को मुद्दा समझा पाया - इसी क्रम में अब वापस यहां हूं।
साहित्‍यकार- कवि-मित्रो, मौका सीधे राजनीति बोलने का है, कविताएं फिर कभी साझा कर ली जाएंगी।
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Vijendra Kriti Oarइस्राइल पर हमलों का दशकों पुराना इतिहास है । पर गाली गलोज और अपना मानसिक संतुलन खोने से समस्या पर सिर्फ कोहरे की और परतें ही जमेंगी । लोगों को बताइये कि इस्राइल के इन हुमलों के पीछे कोन है? हमें उस पर भी तीखा हमला क्यों नहीं करना चाहिए । इस्राइल इस cancerous रोग का phenomenon है उसका कारक नहीं। कारक है वो क्रूर Imperialism जो दुनिया में एक धुरवीय सम्राट की भूमिका निभा रहा है । इस्राइल ही क्यों वो सारे विकासशील और अर्ध विकसित देशों में लोकतन्त्र का प्रहरी बन कर देशों को विभाजित कर रहा है।वहाँ युद्ध थोप रहा है। साथ में इस उन्मादी क्रोध को थोड़ा अपने देश की सत्ता की चुप्पी के बारे में भी इसी तीव्रता से मुखर करें । और उस पूंजी केद्रित व्यवस्थाके के बारे मै भी जो साम्राज्यवाद से अंदरूनी साँठ गांठ किए हुये है ।इसी पूरे संदर्भ में इस्राइल क्रूता का विरोध सार्थक होगा। हमारी जनता यह नहीं जानती की इस नरसंहार का करता छुपे छुपे पाखंड को छिपा रहा है ।


  

Vijendra Kriti Oarइस संदर्भ मै प्रिय शिरीष अपनी एक प्रदीर्घ कविता "ओ एशिया"से कुछ पंक्तियाँ देने की अनुमति चाहूँगा - ओ हलधर / किया है तुम्हें किसने नग्न भूमिहीन / बोलो, बोलो , बोलो संगठित जावन बोलो /कोन हड़पता हे तुम्हारी भूमि / तुम्हारी मातृ भाषा ....... । कबतक तक रहेंगे फिलिस्तीनी दरबदर / दहता हूँ लपटें उठती मिस्र मै.......क्यों नहीं बोल पाते खरी भाषा / .......अमरीका की जनता प्रदर्शन करती है वाल स्ट्रीट पर...सुनता हूँ चीखेँ चारों तरफ /.... लीबिया पर नेटो की बर्बरता / ....विश्व विनाशकआयुधों का व्यापारी / थोपना चाहता है युद्ध शांति प्रिय देशों पर /...पहचानो एशिया कि शक्ति का तुमुल घोष / पहचानो साम्राज्य के ऋण में छिपी संज्ञा मारक कूट नीति.../ ओह विस्मृति के इस भयावह दौर में / क्या भूलूँ , क्या याद रखूँ / बढ़ते जाते है अमरीकी साम्राज्य के अड्डे हर जगह /..मै साक्षी रहा हूँ.... अरब दुनिया में उदित होते नव उपनिवेशवाद का ॥ .... आज भी पराजित हूँ , समर सतत है / तराश दिया सूडान को दो भागों में / विश्व देखता रह । कावि चुप रहे...


  
Vijendra Kriti Oarशिरीष जी , तुम्हारे कहने से मै ने अपना बयान दर्ज करा दिया है । पर गहरा दुख इस बात का है कि जो इस्राइल कि क्रूरता का इतने उन्मादी ढंग से विरोध करते है वे भारत की इस्राइल समर्थक सरकार का विरोध क्यों नहीं करte? लेखक दवाब बनाएँ कि हम इस्राइल से अपने राजनैतिक रिश्ता समाप्त करें ? दूसरे, जो लेखक इस्राइल का विरोध करते दिखते है वे चोर दरवाजे से अमरीका के रूपवाद का कविता मै समर्थन भी करते है ।? क्या यह पाखंड नहीं है । और अमरीकी साम्राज्य का विरोध करने वाली कावता को हाशीए पर धकेलते है ? बस इतना ही फिलहाल -
 Vijendra Kriti Oarएक बात और । इस प्रकार के संवाद में संयम वर्तना जरूरी है। सुबोध शुक्ल , शिरीष और अन्य मित्रों की भाषा में गुस्सा तो है। पर लेखकीय संजीदगी नहीं है। इस संदर्भ में कवियों, संपादकों और लेखकों को इस तरह की आलोकतांत्रिक भाषा का इस्तेमाल चिंत्य है। यह एक प्रकार से फ़ेस बुक जैसे Social मीडिया का दुरूपोग ही है । कितनी ही भयावह स्थिति हो सृजन कभी थमता नहीं। हाँ , यह तो कहा जा सकता है कि ऐसे वक्त में उसका तेवर , कथ्य और सम्बोधन दूसरे किस्म के हो। पर उसे रोक ही दिया जाए यह न तो संभव है , न जरूरी। मुझे इस संदर्भ में गालिब का एक शेर याद आता है - "हर बात पे कहते तुम कि तू किया है / तुम्ही कहो कि अंदाज-ए-गुफ्तगू क्या है । फिलिस्तीनी कवि ऐसे भयानक दौर में कवितायें बराबर लिखते रहे। सांस्कृतिक प्रक्रिया कभी थमती नही। जैसे समाजीक विकास प्रक्रिया । द्वंद्वात्मकता का यह अटल नियम है । शिरीष को आज के युवा कविओं से चुनोती पूर्ण सवाल करना चाहिए कि पिछले डेढ़ दशक में किसी युवा कवि ने इस्राइल का विरोध करते हुये अमरीकी साम्राज्य वाद के विरोध में कोई बड़ी शक्तिशाली कविता क्यों नहीं लिखी ? दूसरा सवाल, शिरीष से मै सवालकरता हूँ कि पिछले एक दो साल में साम्राज्यवाद के विरोध में जो कविता लिखी है उसका जायजा क्यों नहीं लिया। यह इस लिए क्योकि आज के संवाद में यह आरोप है की कवि "आत्ममुग्ध"होकर "आत्मप्रलापी "कवितायें लिख कर अपना मन बहला रहे है । ऐसे सामान्यीकरण से हम अपने समय में लिखे जा रहे साहित्य की साख गिराते है।
  
Vijendra Kriti Oarयहाँ न चाह कर मुझे अपना ही उदाहरण देना पड़ रहा है। 2013 में मेरी एक लंबी कविता , "ओ एशिया "राजस्थान अकादमी की बहुपठित पत्रिका , "मधुमती"में पकाशित हुई । इसमे सीधे सीधे अमरीकी साम्राज्यवाद का तीखा विरोध और उसके जन विरोधी रुख ki जबर्दस्त आलोचना है । इस पर हिन्दी के वरिष्ठ समीक्षक डॉ अमीरचंद वैश्य का लंबा आलेख "वागर्थ"में छापा है। समीक्षक का मानना है की यह कविता शमशेर की कविता , "अमन का राग"कविता से 10 कदम आगे की कविता है। कियोंकि इतना प्रबल सामराज्यबाद विरोध कविता में पिछले कई दशकों में देखने को नहीं मिला। जब हम टिप्पणी करें तो उन बातों को भी ध्यान में लाएँ जो प्रत्यक्ष -परोक्ष हमारे तर्क को पुष्ट कर रहे हों । ऐसे हालात से कुछतो निष्कर्ष निकले ही जा सकते है ।

शिरीष मौर्यVijendra Kriti Oarजी, आप मेरा ग़ुस्‍सा देख रहे हैं, मेरे उठाए सैद्धान्तिक पहलू का संज्ञान नहीं ले रहे - ''यह एक दम तोड़ती छटपटाहट है। दुनिया का ठेकेदार ख़ुश होगा। गाज़ा पट्टी जैसी जगहों का बरबाद हो जाना उसके हिस्‍से के ग्‍लोब में कूटनीतिक हासिल कहलाएगा। उसके लिए यह लोकेल नरेशन है और इस नाते अहम भी, जिसमें बहुत सहूलियत से यहूदी बनाम अरब किया जा सकता है। जबकि यह मानना बेशर्म भरम होगा कि मामला यहूदी बनाम अरब ही रह गया है। उसके लोकेल की वजह से उसके वैश्विक कारण और उत्‍प्रेरक अब भरपूर मौजूद हैं।''अनुरोध है कि किन-किन कवियों की किस-किस कविता में क्‍या है, हम देख लेंगे पर अभी वक्‍़त कविताएं देखते रह जाने भर का नहीं है सर। हम स्‍थानीय स्‍तर पर प्रतिरोध संभव कर रहे हैं, मेरे वास्‍तविक संसार के बरअक्‍स फेसबुक एक बहुत छोटी दुनिया है मेरे लिए। यहां भी चंद वैचारिक सरोकारों के चलते ही हूं। इन हालात में भी अपनी कविता के लिए आपकी आत्‍ममुग्‍धता देख कर सन्‍न हूं। अधिक कुछ नहीं कहूंगा। शमशेर की कविता से दस क़दम आगे अगर आलोचक ने किसी कविता को माना है तो यह आलोचक की दिक्‍कत है। 'अमन का राग'अतुल्‍य कविता है। अब तक के संवाद के लिए मुझे माफ़ कर दीजिएगा। आज के बाद मैं इस आत्‍मग्रस्‍तता से संवाद नहीं रख पाऊंगा। फेसबुक पर लेकिन एक शब्‍द नहीं लिखूंगा। जब भी संभव होगा आपको मेरा लम्‍बा पत्र मिलेगा। मित्रो, आपको टैग कर रहा हूं ताकि मेरा कोई दोष हो तो मुझे खुलकर कुछ बोल सकें - Subodh ShuklaAshok AzamiSantosh ChaturvediNeel Kamal

शिरीष मौर्यमैंने बहुत दुखी मन से विजेन्‍द्र जी की मित्रसूची से विदा ले ली है। उनकी कविता और लेखन को मुझ अकिंचन की ढेरों शुभकामनाएं। Mohan Shrotriyaसर, मेरी वाल पर चुटकी ले-लेके आपने मुझे पूरा अपराधी घोषित किया है- एक निगाह आप भी 'अमन का राग'पर डाल लें तो आभारी रहूंगा। इस प्रसंग में मुझे साफ़ कहना है कि फलीस्‍तीन में मनुष्‍यता दम तोड़ रही है, हिंदी में कविता।
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अनुनाद आप सबसे प्रतिक्रियाएं आमंत्रित करता है। यह ज़ेरे-बहस है मुद्दआ........  


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