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प्रशान्त |
प्रशान्त मेरे लिए परिचित कवि नहीं रहे हैं अब तक। कुछ कविताएं मैंने ब्लागपत्रिकाओं में पढ़ी हैं। उनकी यह लम्बी कविता मुझे साथी अनुनादी अशोक कुमार पांडेय के सौजन्य से प्राप्त हुई है। इस कविता की शुरूआत में ही कवि द्वारा व्यक्त घायल बाघ की तरह अपने घाव का स्वाद लेने की इच्छा और अपनी जीभ के खुरदरेपन का अजब अहसास एक नई दिशा को इंगित करता है। मेरे लिए ये बहुत अपना अनुभव है, जहां हर कविता एक घाव है और उसे सम्भालने की हर कोशिश अपनी ही जीभ का खुरदुरा स्पर्श। यहां प्राकृतिक क्रिया-व्यापार और संकेत भीतर के वीराने की आवाज़ बन जाते हैं। घास और पत्तियों से आती राहत की सांस, जो भाप छोड़ती रोटियों की याद दिलाती है। कविता में प्रकृति को बरतने के ये दृश्य अधिकांशत: नए और मौलिक हैं। इनमें कोई बनावटीपन नहीं, बाहर-भीतर की एक सहज यात्रा भर है। कोई स्टेटमेंट देने का हल्का-सा भी प्रयास नहीं। इनमें रेत और पानी की नज़दीकी नई अर्थच्छवियों में खुलती दिखाई दी है। बहुत जाहिर नहीं पर विस्थापन की एक टीस पूरी कविता में समाई दीखती है और आधे रास्ते का ये रूपक भरपूर खुलता है। यह एक नए अनुभव संसार की कविता है, जिसे मैं उम्मीद की तरह देख रहा हूं। मुझे यक़ीन है कि आगे कविता के इलाक़े में प्रशान्त के क़दम और भी सधेंगे, साथ ही उनकी वैचारिकी भी कुछ और खुलेगी। अुननाद इस पोस्ट के लिए कवि प्रशान्त और अुननाद के सहलेखक अशोक कुमार पांडेय का आभारी है। आशा है आगे भी प्रशान्त की कविता की आत्मीय आहटें अनुनाद पर बनी रहेंगी।
***
आधा रास्ता
सूखी पत्तियों पर बैठा
मैं सहला रहा हूँ अपने घाव
जी चाहता है कि
उसका स्वाद लूं
एक घायल बाघ की तरह
पर
डरता हूँ
अपनी जीभ के खुरदुरेपन से.
देखता हूँ
इस हरे-भरे
पुकारते बीहड़ को
किसी अस्पताल का हरा परदा हो जैसे,
आँखों को सुकून मिलता है
पर
घर लौटने की बेचैनी कम नहीं होती.
नब्ज़ टटोल कर गिन रहा हूँ
अपनी धडकनें
सौ से कम क्या होंगी ?
वक्त..
थोडा और गुजरने दूँ.
अभी तो बाकी है
कितना ही फासला......
कपड़ों में उलझे कांटे निकालूं
और
जूतों में घुसी रेत
जो पता नहीं कहाँ से साथ चलती आई है मेरे.
एक सांत्वना खुद को---
कुहनियों का छिलना,
घुटनों के फूटने से तो बेहतर है,
जब आप एक लम्बी
यात्रा पर निकले हों(वो भी पता नहीं कितनी?)
हिम्मते-मर्दां,
उठा एक कदम
और दूसरा...
और तीसरा,
और...
चल.....
खुद बनाते अपनी पगडंडियाँ
पत्तियों,
टहनियों की चरमराहट,
चेहरे में उलझते जाले,
कैसी-कैसी आवाजें कीड़ों की,
और
चिड़ियों की चहचहाहट,
सुनसान - इतना सूना भी नहीं होता......
और
न ही
हर चिड़िया की आवाज एक कूक.
साथ मेरा डर,
ढेर सारा वहम भी....
सामने
एक खुला विस्तार,
निर्जन नहीं पर दुर्गम(आह! जंगल कितना सुखद था).
हाथ की ओट से,
बस
एक निगाह ऊपर,
रेगिस्तान की दोपहर जैसा,
झुलसता
पिघलता सूरज,
गर्म मोम-सी टपकती किरणें,
और
घास
बस
सुलगने को तैयार सी.
नहीं,,,
रुकना मतलब आधे(?)सफ़र में रात.
हिम्मते-मर्दा...
फिर एक कदम,
और दूसरा,..
और तीसरा....
चीखते सूरज को कर अनसुना
भर कर आँख में अँधेरा
शरद की एक ठंडी रात से बात
रात को ऊबाती
एक लम्बी बातचीत,
(अगली आड़ तक तो कम से कम).
बबूल की ही छाँव सही
कांटे दो-एक और सही
एक पत्थर का तकिया
पसीने से भीगी शर्ट की चादर..
क्या खूब मजे हैं!!
पपड़ाये होंठ अब याद आये.
धीमे चढ़ता जहर-सा दर्द
हाथ टटोलते हैं डंक का निशान.
नहीं,
कोई नहीं
फिर ये दर्द!!
ज़बान होंठों पर फेरता,
बस एक घूँट पानी का......
मैं देखता हूँ
रात से मेरी बात को छुप-छुप के सुनती
शाम चली आई है
पीछे-पीछे
छुपी बैठी है
मिला है उसे भी एक दरख़्त,
बैठने के लिए.
जरा सी आँखें मूंदीं
और दिखने लगी
मेरे सामने बैठी तुम
नीले लहराते पानी पर लहराती बोट
पानी पर
दूर-दूर नजरें घुमाता हमारा नाविक.
झुक कर पानी को छूता हमारा बेटा
और बार-बार उसका पूछना
डॉल्फिन कहाँ है?
और
तभी दिखता है
वह अकेला लड़का
कुछ ही दूर
उस पथरीले मगर हरे-भरे टापू पर,
किनारे की चट्टानों पर चलता
और वो भी
हाफ-पैंट और चप्पलों में!
चौबीस-पच्चीस का होगा दुस्साहसी....
ऊँचे पत्थरों पर चलता
उस ऊँचाई से ऊपर
कि जहाँ तक
पत्थरों पर चिपकी हैं
सीपियाँ
जिन्हें खुरच कर निकालती हैं
मछुवारों की बीवियां और बच्चे
अपनी छोटी-छोटी डोंगियों में बैठ कर...
वह चल रहा है
हर पत्थर के टीले के किनारे पर ठिठकता है,
जांचता है..
भांपता है...
तय करता है
अपना अगला कदम
और
पलट कर कभीदूसरा रास्ता भी लेता है
मगर मंजिल तय है उसकी
उसे पूरा व्यास तय करना है
उस पथरीले मगर हरे-भरे टापू का
किनारे-किनारे
सागर का संगीत सुनते.
डॉल्फिन को भूल
उसे देखते
आज अचानक ये सोच कर धडकनें बढ़ गयी-
कैसा होगा वो सुख
अगर
आधा रास्ता तय करते ही
मैं दिखता उसे
किसी पत्थर पर बैठा
सुस्ताता,
कैसा चौंकता मुझे देख कर!
और चौंक जाता हूँ मैं भी!!!
आँखें खुल जाती हैं
भक्क से!
हाथ अपना ही है सीने पर
एक स्मित मुस्कान तैर जाती है मेरे होठों पर
एक अंगडाई.......
और
पैरों को करता हूँ सीधा...
चाँद निकल आया है
शाम चली गयी
मुझसे बिन बात किये.
छोड़ गयी है कुछ तारे,
शायद मेरी निगरानी को.....
दर्द गायब है
रात ठंडी है
झींगुरो को सुनता
ब्रेड चबाता
निहारता हूँ सब ओर....
जुगनुओं का एक झुण्ड
बैठा है पास ही
एक और बबूल पर-
काँटों में जैसे तारे खिल आये हों
जगमगाता है पेड़
क्रिसमस ट्री जैसा..
छोटी-छोटी झाड़ियाँ झूम रही हैं,
जैसे
कोई बेशब्द ग़ज़ल सुनती हों......
धूप से झुलसी
घास और पत्तियां
राहत की सांस लेती हैं
खुशबू बिखेरती है
जैसे
भाप छोडती रोटियाँ....
बस अब एक नींद...
गहरी.....लम्बी.....
और
निकल जाऊंगा भोर होते ही,
तरोताजा.....
उसी सागर की ओर...
उसी टापू की ओर.....
जहाँ बीच रास्ते बैठना है मुझे
वैसे ही
किसी को चौंकाने के लिए
कि
शायद खिलखिला उठें हम
ऐसे अचानक मिल के........
मेरी मंजिल बस एक आधा रास्ता है अब......
***
16 फरवरी 1975 को जन्मे प्रशान्त आजीविका से इंजीनियर हैं। हाल ही में उनकी कविताएं असुविधा, जानकीपुल, कथादेश और परिकथा में छपी हैं।
16 फरवरी 1975 को जन्मे प्रशान्त आजीविका से इंजीनियर हैं। हाल ही में उनकी कविताएं असुविधा, जानकीपुल, कथादेश और परिकथा में छपी हैं।
यह अनुनाद की 582 वीं पोस्ट है