Quantcast
Channel: अनुनाद
Viewing all articles
Browse latest Browse all 437

तुषारधवल की कविता

$
0
0


तुषार का दूसरा संग्रह : दख़ल प्रकाशन
ये शरद की रातें हैं
(मित्र कवि शिरीष कुमार मौर्य की इसी शीर्षक की कविता पर चित्र बनाते हुए, उसी के प्रभाव में)

कुहासे में गुमनाम घाटियों के विलाप से
थरथरा रही है चालीस वाट के बल्ब सी एक कानी आँख आकाश के घुले काले चेहरे पर
चाँद की सिल्लियाँ पहाड़ की छाती पर ढह रही हैं
रेत झरती है आँखों में
नोनी लगी दीवारों की काई पर किसी पुराने पोस्टर सा उधड़ा गाँव अपनी तहों में चुपचाप सुबकता है
कोई गया था सपने चुगने फिर लौट कर नहीं आया
मज़ार हुए पेड़ों की बेवा शाखों पर फड़फड़ाते चमगादड़ों के डैनों से उगी रात नहीं ढलती है   
नहीं पहुँच पाता है लाल्टेन भर थकता उजाला आँखों में हिलते कंदील तक
दो उजालों के बीच लम्बा सूना अंधेरा है 
ये शरद की रातें हैं
और सन्नाटे कई बोलियों में विलाप करते है आपस में गरदन सटा कर  

धरती की कोख में अपना नमक खोजते जड़ सिमट आये हैं किसी पथरीली खोह में
चुनावी नारों के कालिख लगे धुँधलाये मुँह यहाँ वहाँ झाँकते हैं आँखें बचा कर

बाहर भीतर
पहाड़ ढह रहे हैं बादल फट रहे हैं मूसलाधार है बाढ़ है बाहर भीतर
ये शरद की रातें हैं 
और सन्नाटे कई बोलियों में विलाप करते है आपस में गरदन सटा कर

इन गीतों में छुपी सिसकियों पर एक बंजर चुप्पी है सुनियोजित
खच्चरों पर लद कर आये प्रायोजित हुजूम की हनीमूनी कमरों की बेहद निजी खामोशी से गुर मिलाती  

छोटे छोटे सवालों का अटपटापन चहकती गलियों की अब-बुझी आँखों से लौ माँगता है
वहाँ उस ओर यह गली मुड़ेगी और पलट आयेगी खिलखिला कर
एक ज़िद है जो नहीं थमती
एक उम्मीद है जो नहीं मरती

ये शरद की रातें हैं पहाड़ में
और दो उजालों के बीच लम्बा सूना अंधेरा है.   

(13 अगस्त 2013,मुम्बई)
                                                         

Viewing all articles
Browse latest Browse all 437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>