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संजय कुमार शांडिल्य की कविताएं

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संजय कुमार शांडिल्य उन कवियों में हैं, जिन्होंने अभी आकार लेना शुरू किया है। हम सभी देख सकते हैं कि ऐेसे सब आकार बादलों के-से बनते-बिगड़ते आकार हैं, वे धरती और आकाश के बीच गहरे दबाव में हैं, उन पर हवाएं सवार हैं - लेकिन उनमें वैसा ही अौर उतना ही बिजली-पानी भी है। 

मेरा संजय से परिचय सोशल मीडिया पर हुआ - वहीं उनकी कविताएं पढ़ीं। संजय की कविताओं में कुछ अलग-सा है। उनकी भाषा अनुवाद के बहुत निकट है - वे स्पष्ट वाक्य, जिन्हें हम अनुवाद करते हुए गढ़ते हैं। इस भाषा में कोई नया कवि अपना डिक्शन तलाशने निकलेगा, यह देखना बहुत दिलचस्प है। हिंदी की ताक़त को उसके बेहद ताक़तवर प्योरीफायर सूख जाने की हद तक सोख़ रहे हैं, तब ऐसी भाषा बरतने का साहस संजय की कविता में एक नया मुहावरा बन जाता है। न जानने - न समझने के सामन्ती और उससे भी आगे लगभग मूर्ख हठों के बीच मैं बहुत उम्मीद से देखता हूं हमारे लिए अभी इस कवि और इसकी कविता को ठीक से जानना बाक़ी है।  जानने और समझने की शुरूआत को एक अपूर्व जिज्ञासा के बीच होना चाहिए, मेरे लिए संजय ही नहीं, उनके साथ के सभी कवि ऐसी ही जिज्ञासा के बीच हैं। 

संजय का अनुनाद पर स्वागत और इन कविताओं के लिए शुक्रिया।
***   
गांव एक नदी है

गाँवों के लिए एक अंतिम बस होती है 
मोरम वाली सड़क होती है गाँवों के लिए
जिस पर बीस वर्षों में कोलतार नहीं गिरता 

मिट्टी के घर होते हैं गाँवों में 
जिसमें सिर्फ़ प्यार के लिए सेंध मारता है कोई
छत से तीन कोस दूर का आसमान 
दिखता है गाँव में 

एक सूखती हुई बरसाती नदी की चिन्ता भी 
पहाड़ के नदियों की तरह होती है 
गाँव की जवानियाँ
गाँव के काम नहीं आते गाँव के बेटे 
गाँव में मोतियाबिंद आँखें हैं 
जिनमें कभी खत्म नहीं होनेवाला इन्तज़ार रहता है 
जैसे गाँव के पानी में आर्सेनिक 
इन्तज़ार ख़त्म नहीं होता आँखें ख़त्महो जाती हैं 

गाँवों की हत्या होती है सरकारी योजनाओं से 
गाँव में लोग जीवित नहीं हैं 
मेरा यक़ीन मानो 
साँसें प्रमाण नहीं कि लोग जीवित हैं 
 
गाँव बचा है गीत और कविता के रोमान में 
और बंदूकों की क्रांति में 
दोनों ही अपरिचित हैं अतिथियों जैसे 
आजकल आप गाँव जाना नहीं चाहते 
आजकल गाव आपको नहीं चीन्हता
गाँव एक ख़त्म होती नदी है 

सिर्फ़ लाशें जलती है रेत में
जिस्म की बदबू फैलने लगती हैं
 
बच्चे भूख नहीं रोक सकते कई दिन।
***

चलो नई सिगरेट सुलगाते हैं

अपनी रूई तक पहुंचकर
जली हुई सिगरेट 
अधिक धुआँती है
फिर किसी की बात
गड़ती है देर तक
जैसे अक्ष धँसा हो पृथ्वी में
फाल हल में 
जाल मीन में 
 
और जोर सेबड़ी धार से
और नये और पके विचार से
होंगे हमलावर हम
उनकी मर्जी की भद्रता नहीं पहनेंगे
माँगी हुई कमीज़-सा अपमान
काफी ख़त्म बात ख़त्म
चलो नयी सिगरेट सुलगाते हैं।
 
(मित्र हरेप्रकाश उपाध्याय के एक पोस्ट से प्रेरित )
***

चूहे बिल बना चुके हैं अंतिम बार

साँप केंचुल छोड़ चुका है
और जोड़े में है 
 
मौसम से विदा होने को है बरसात
हलवाहे श्रम की थकान मिटा रहे हैंगाकर बची कजरियों की गुनगुनाहट में
 
हरियाली से फूला हुआ है खेत
दो कोस दूर महल जैसे घर में 
ट्रैक्टर की ट्राली धो-पोंछ रहा है
बिचौलिया
 
आढ़तिए गोदामों की सफ़ाई शुरू करवा रहे हैं 
जनसेवा का टिकट बनवाकर 
घर लौट रहे हैं रघु-चा 
प्यार से पार करना चाहते हैं
मोहल्ले से घर तक का रास्ता
 
पूछते हैं दाल का पानी ढोती
पनहारिन से
चाँद के सिरकंडों से कौन झाड़ता होगा तुम्हारे अलावा
मेरे गाँव की गलियां
 
बंदूकों की गोलियों के धमाके
फ़सल पकने की प्रतीक्षा में हैं
साँझ अभी-अभी गिरी है
छप्पर पर चिपकी पूँछकट्टी बिछौतियाँ
 
इन्हीं हरी झाड़ियों में कहीं
आबादी बढ़ाने का ज़रूरी व्यापार कर
एक दूसरे की देह से पलट रहे
होगें विषधर 
चूहे बिल बना चुके हैं अंतिम बार।
*** 

पॄथ्वी पर होना नहीं है

एक कथा है 
जिसमें
नायक और
खलनायक
दोनों 
नहीं हैं।
 
एक गीत
बिना मुखड़े 
बिना अंतरे का है।
 
एक वॄतांत 
जिसमें विवरण नहीं।
 
शब्द 
बिना अर्थों का।
 
भाव 
खाली जगहें हैं 
रागों में।
 
ईश्वर कहीं नहीं है 
सिर्फ़ प्रार्थनाएं हैं।
 
आदमी है 
मगर मनुष्यता के बिना।
 
समय 
कविता में 
आँगन की 
घटती बढती 
धूप है।
 
घड़ी है 
सुइयों के बिना।
 
नदियों में
बहाव नहीं।
 
पहाड़ हैं 
चढ़ाई के बगैर।
 
फूल सिर्फ
खिलने की भंगिमा है।
 
लड़ाइयाँ नूरा-कुश्ती 
 
प्यार है
रौशनी नहीं है 
 
लोग हैं 
जैसे ज्यामितीय 
आकृतियां 
 
खुशियाँ त्योहार
की मुहताज 
 
दुख है
मगर रचता नहीं।
 
यह किसकी वंचना है 
आकाश बरसता है
मगर पॄथ्वी भीगती नहीं।
 
तुम सुन्दर हो 
तुममें चाँद जैसी
कोई कमी नहीं 
तुम अपने 
अकेलेपन से मत डरना
तुम जहाँ रहती हो
वह जगह नहीं है।
 
हम सभी रह रहे हैं
रहने की जगहों के बिना
 
मेरे दोस्त
पृथ्वी पर आजकल
रहना 
पॄथ्वी पर होना 
नहीं है।
*** 

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