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अनिल कार्की की तीन कविताएं

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अनिल कार्की
ये हमारी नाउम्‍मीदी और अपनी नौउम्र उम्‍मीद की संधि पर खड़े एक विचारवान नौजवान की कविताएं हैं। इनमें सपाट दिखते बयान हैं, जो उतने ही जटिल भी हैं....उनके अभिप्राय समझने के लिए एक राजनीतिक समझ चाहिए। इतना त्‍वरित कुछ नहीं, जितना दिखता है। उदास दिनों को बदल देने की यह पूरी जद्दोजेहद आक्रोश और सपनों को मिलाने वाली उस अकेली महान वैचारिकी से आती है, जिसे हम वामपंथ कहते हैं। मेरी उम्र के कवि जब उदास दिनों को जीने को स्‍थाई की तरह दुहराने पर मज़बूर हैं, तब अनिल जैसा नौजवान फिर उसी राह से आता है और कहता है -

आदमी
मैं भी तुम्हारी ही दुनिया का हूँ
जहाँ हर एक  जगह
तुम्हारे मित्रों से भरी है
                                    गले गले तक
                                    जहाँ उम्र लहलहा रही
                                    और बर्बाद हो रही है
                                    तुम्हारे सड़ियल  सरकारी ताम झाम में

वाकई हमने मुस्‍कानों के सारे कोने गम्‍भीर कर दिए हैं। जाहिर है (और ज़रूरी भी) कि मशाल अब ऐसे ही नौजवानों के हाथ में है, जिनके पास हमारे लिए साफ़ संदेश है (हालांकि अनिल की कविता में इसका संदर्भ अलग है, जहां कवि राजनीतिक और साहित्यिक सत्‍ताओं और उनकी सांस्‍कृतिक विलासधर्मिता से मुख़ातिब है) - 

                                     याद रखना कविता के ख़त्म होने का मतलब
                                     हमेशा तालियों का बजना हो जरुरी नही !
                                             वह पहली और अंतिम चेतावनी भी हो सकती है
                                             तुम्हारे लिए

अनुनाद को इस हमारी समूची कवि पीढ़ी के लिए इस चेतावनी के लिए मंच बनाते हुए मैं अनिल और उसकी इन कविताओं का एक बेहद ज़रूरी शुक्रिया के साथ स्‍वागत करता हूं। उल्‍लेखनीय है कि इससे पूर्व अनिल का लोकभाषा और कवितापर लेख अनुनाद की अब तक की सबसे अधिक पढ़ी गई पोस्‍ट है।
*** 


अनिल कार्की की तीन कविताएं
1

हमारे उदास दिन
हमारे भी उदास दिन
अपना रंग बदलेंगे


हमारी अपनी धरती का ओर पोर
हमारे ही पसीने की नदी में
हरियायेगा जब
हम ख़ाली जेबों वाले
हम भरी आँखों वाले
आक्रोश ओर सपनों को एक साथ मिलाने वाले
हम सब


कौन कहता है
कुचल दिए जायेंगे
लूट दिए जायेंगे
वो भी उनके हाथों
जिन्हें हथियार चलाने का शऊर नहीं


ज़रा सोचो
हमारे पास उम्र है वो भी लम्बी यातनाओं वाली
तजुर्बेदार
जैसे भाषा सीखते हुए
बच्चों की इमला होती है
हम जानते है
गलत वर्तनियों को लाल स्याही में
किस तरह गोल बंद किया जा सकता है


इस तरह नही होते उदास
जैसे छूट गयी हो दुनिया
हमारे हाथों से
और हाथ हमारे काँधों से


बीते दिनों से कह कि हम ले आयंगे मौसम ताज़े नरम गरम गुड वाला
मुस्कान और होठों की थिरकन
वाले पल
और नदी की विराट सूखी तलहटी के गिर्द 
पीली सरसों वाला बसंत
***

2

आदमी
मैं भी तुम्हारी ही दुनिया का हूँ
जहाँ हर एक  जगह
तुम्हारे मित्रों से भरी है
गले गले तक
जहाँ उम्र लहलहा रही
और बर्बाद हो रही है
तुम्हारे सड़ियल सरकारी ताम झाम में


तुम ख़बरों की तरह पढ़ रहे हो  उम्र को
मालिकों के चमकदार अख़बारों में
पिछले अनस्वोल्ड पेपरों को
पढ़ते हुए भी
बहुत सारे प्रश्न हल होने के बजाय
और मोटे  होते  जा रहे है पिछले अनस्वोल्ड
जबकि कक्षाएं बढती जा रही है तालीम की
प्रश्न रह गये है जस के तस


मै उस महान देश का
निक्कमा आदमी हूँ
जहाँ फ़सलें कट चुकी होती है
पकने से पहले
और अवयस्क उम्रों में ही
बाँधे जा चुके होते है
गुलामख़ानों से
लम्बी दौड़ के घोड़े


आदमी मैं भी
जिसे देखा है तुमने
भेड़ की तरह

चुगाये है  विमर्शों के सूखे बुगियाल
रोटी अनाज की जगह
तुममे भस है
अजीब सी
तुमने मुस्कानों के सारे कोने गंभीर कर दिए है
और सम्मानों के सारे तमगे
झुर्रियों से भर दिए है
किताबी दीमक की तरह
सबसे खूबसूरत कविता को खा गये हो तुम


तुम्हारे चमकदार पेट के भीतर
हमारी कविता कुलबुला रही है
ये दुनिया जिसे तुम अपनी कहते  हो
उसे देखने  की नजर  तक को हजम कर गयी है
चर्बी में धंसी तुम्हारी आँखें


अब तुम कहते फिर रहे हो
विचार भ्रामक है
वह सार्वभौमिक नही हो सकते


तुम जो आनन्दित हो
तुम जो मस्त हो
तुम जो खरीदते हो और बेचते हो
आदमी औरत बच्चे
तुम !
हाथ कभी भी पहुच सकता है
तुम्हारे मोटे थुलथुले गले तक
कभी भी नाथे जा सकते हो तुम


            याद रखना कविता के खत्म होने का मतलब
            हमेशा तालियों का बजना हो जरुरी नही !
            वह पहली और अंतिम चेतावनी भी हो सकती है
            तुम्हारे लिए
***

3

मटमैली  साँझ
बीड़ी पीते हुए सुस्ता रही है


इस वक्‍़त अंधे बच्चे
की तरह
झील ढूंढ रही
अपने भीतर कहीं
चाँद की परछाई
जबकि एक बूढ़ा
अंगूठा
लगातार साफ़ कर रहा है चश्‍मा


विगत और आगत के
बीच पसर कर बैठा है
उल्लू
जिसकी आँखों में
अजीब सा नशा है
जिसने विगत की आखें नोच ली है
और आगत की आँखें
लहलुहान
उसके सामने अधमरी सी हिल रही है


ये एक इसी जगह है
जहाँ पैदा होने के नियम है
और मरने के भी
जबकि जीने के सारे नियम
फ़ौजी काले बक्से में बंद है
और उसे तिरंगे झंडे से  लपेट  दिया गया है
जिससे जीवन के
टपक कर गिरने और
जमीन पर अंकुराने  की गुंजाइश
न के बराबर है !


हरवा
आज क्या है ?
के नारे पर ही उलझ कर रह गया है
कतई दार्शनिक वाले अंदाज में
वो हर बार जवाब देता हैं
आज तो
बस्स आज ही हैं
वो सोचता है
कि कोई तो बताए
कि कल क्या है !
*** 
चित्र गूगल इमेज से साभार
यह अनुनाद की 584वीं पोस्‍ट है

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