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लोकमत की रचना वार्षिकी 'दीप भव' 2012 में छपी मेरी दो कविताएं

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ये शरद की रातें हैं


ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्‍हें होना था सुन्‍दर, हल्‍का और सुखद

पर ये विलाप की रातें हैं

पढ़ने की मेज़ पर देर रात बैठा रोता है एक आदमी
एक औरत बिस्‍तर पर गहरी नींद के बीच
बाढ़ में डूबती जाती है
संघर्ष करती हैं उसकी सांसें
वह सपने में बड़बड़ाती है

आसपास
दूर तक फैले गांवों में विलापती हैं दादियां
मांएं विलापती हैं
बहनें और पत्नियां विलापतीं हैं
परदेस गए फ़ौजियों-भनमंजुओं से लेकर
अमरीका और कनाडा तक गए इंजीनियर और डाक्‍टर पहाड़वासियों के
बूढ़े घरों के
सदियों पुराने पत्‍थर विलापते हैं
सड़ते हुए खम्‍बों में लकड़ियां विलापती हैं जिनके आंसू पी-पीकर
ज़िन्‍दा रहती हैं दीमकें

एक बच्‍चा
जो वर्षों पुरानी शरद की किसी दोपहर में रोया था
चुप है
शायद ख़ुश है दूर किसी महानगर में
जबकि पिता की आंखों में उतरा है
उसके पुराने आँसुओं का खारा पानी

ये शरद की रातें हैं मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
इन्‍हें होना था सुन्‍दर, हल्‍का और सुखद  

ज़मीनों की ढही हुई मिट्टी
शिखरों से गिरे हुए पत्‍थर
उखड़े हुए पेड़
बादल फटने से मरे लोगों की लापता रूहें
इन्‍हें भारी बनाती हैं  
अंधेरों में छुपाती हैं

हमारे कितने ही बाआवाज़-बेआवाज़ विलापों का  
भार लिए
जब झुकी हुई घूमती है पृथिवी
तो हमारे अक्षांश के कितने हज़ारवें अंश पर गिरते हैं उसके आँसू

नींदों से भले बाहर हों
ढहते हुए सपनों और आती हुई तकलीफ़ों से ख़ाली नहीं हैं ये शरद की रातें

घाटियों और पहाड़ों के सूने कोने विलापते हैं
धरती पर इकट्ठा होती रहती हैं
ओस की  बूंदें

ओस है कि आँसू
शरद दरअसल ओस की शुरूआत भी है मेरे पहाड़ों
और मेरी छाती पर

ये शरद की रातें हैं
जिससे लदी हुई बहती हैं पतली-दुबली नदियां
आपस में मिलतीं
बड़ी और महान बनतीं हैं अपनी ही पवित्रता से पिटती हैं
उनके साथ दूर समुद्र तक जाती हैं ये शरद की रातें मेरे पहाड़ों की

समुद्रों का शरद अलग होता होगा
कछारों-मैदानों का अलग
बरसाती जंगलों का शरद
और मरुथलों का
हर कहीं रहते हैं दोस्‍त उनका शरद अलग होता होगा

ये शरद की रातें हैं बोझिल दर्द से भरी
इधर खा़स-ख़ास पहाड़ी शहरों में शरदोत्‍सव की धूमधाम
लोक से परलोक तक आती ललितमोहन फ़ौजी और सुनिधि चौहान की आवाज़
अब तो दोनों ही जहाँ ख़राब  
उधर आयोजक समिति के संयोजक सचिवों का माइक से गूंजता धन्‍यवाद ज्ञापन  

बहुत भारी है करोड़ों रुपए का ये धन्‍यवाद मेरे पहाड़ और मेरी छाती पर
शरद की इन रातों में
जबकि घरों के बाहर-भीतर
आजू-बाजू
विलापती ही जाती हैं बूढ़ी बिल्लियां
और जवान ख़ूनी मज़बूत दांतों, नाख़ूनों और इरादों वाले बिलौटे
गुर्राते हैं लगातार
***

बुल्‍ला की जाणा मैं कौण

क्‍या किसी को पता है मैं कौन हूँ

मैं शिशु हूँ
रोता हुआ मैली गुदड़ी पर अपने नवजात
हाथ-पांव मारता
गोद और गर्माहट की तलाश में
टटोलता माँ की देह

मैं बच्‍चा हूँ  
पांचवीं पढ़ता
अध्‍यापक से पिटता अंकगणित ग़लत हो जाने पर
पिता की फटकार के डर से
भागता घर छोड़
वापिस लाए जाने पर सुबकता
अब नहीं करूंगा पापा, अब ऐसा बिलकुल नहीं करूंगा कहता हुआ

मैं किशोर हूँ
बछड़े की तरह पतला और मज़बूत
विकट किताबें और ख़ूबसूरत लड़कियां जीवन में
थोड़ा लालच
उद्दंडता
और साहस
सब एक साथ गुंथे हुए

मैं नौउम्र जवान हूँ भरपूर
मैं प्रेम हूँ किसी के जीवन में ज्‍यों शहद का छत्‍ता
मैं गुंडा हूँ छोटा-मोटा पीटता और पिटता
मैं गुरूर हूँ
सब कुछ जान लेने का
मैं पछतावा हूँ   
फिर प्रेम फिर पछतावा फिर गुंडा फिर गुरूर हूँ
नष्‍ट हुआ कि संवर गया है जीवन इन साखियों के बीच
कुछ पता नहीं
उलटबांसियों में जाहिर अर्थ दरअसल उतना ही छुपा है
जितना मैंने छुपाया है उसे

मैं कवि हूँ
मैं शिक्षक हूँ   
मैं अनुशासक हूँ   
तम्‍बाकू मसलता
अकादमिक भद्रलोक के बीच

मैं हूँ अजनबी
खड़ा हुआ ग़लत जगह
हमेशा
सिर पर गिर जाती छत घर की
शहद के छत्‍ते में लौट आतीं मधुमक्खियां भिनभिनातीं काटतीं ज़ोरों से
कराहता
लेकिन फिर प्रेम
फिर फिर प्रेम
फिर उसकी क्षुद्रता फिर महानता
बीच की कोई जगह नहीं
सुस्‍ताया जा सके जहां पल भर को 

मैं कौन हूँ
कोई तो बताए मुझे

मैं हूँ एक लम्‍बी कविता अमर जिसकी असफलता
अजर जिसका अधूरापन
***


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