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मुक्ति के स्वप्न का महाख्यान : समरगाथा - अशोक कुमार पाण्डेय

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अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को एक सटल विट और जीवन के बेहद मामूली लगने वाले अनुभवों के सहारे बड़ी कविता में तब्दील कर देने वाले राजेश जोशी अस्सी के दशक के सबसे महत्त्वपूर्ण कवियों में से हैं.  अस्सी का दशक यानी भारतीय और विश्व राजनीति का एक विशिष्ट संक्रमण काल जिसकी जड़ें सत्तर के तूफ़ानी वर्षों में थीं जब आज़ादी के बाद के असंतोष का नक्सलबारी में हुआ संघनित विस्फोट अपने “वसंत के बज्रनाद” से पूरे भारतीय परिदृश्य को अनुगूंजित किये हुए था. इसकी चिनगारियाँ और वैचारिक स्फुल्लिंग देश के उन हिस्सों में भी अपना असर दिखा रहे थे जो ऊपर से शांत और अप्रभावित दिखाई देते थे. स्वाभाविक है कि इसका स्पष्ट और गहरा प्रभाव हिंदी कविता पर पड़ता जो अपने आरम्भिक चरण से ही औपनिवेशिक शासन और उसकी भाषा के बरक्स एक दमित जन समुदाय की भाषा के  रूप में (इसमें उर्दू को भी अनिवार्य रूप से शामिल करना होगा जो अपने वर्तमान स्वरूप में लगभग हिंदी के साथ साथ ही विकसित हुई है) विकसित हुई और परिणामस्वरूप इसके मुख्यधारा के साहित्य का प्रमुख स्वर प्रतिरोध का रहा जिसमें अपनी तमाम सीमाओं के बावज़ूद आम जन के प्रति पक्षधरता मुखर रही. 1936में सज्जाद ज़हीर और उनके साथियों की पहलकदमी से स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद यह स्वर वामपंथ की आँच में रवाँ होकर और अधिक प्रखर, सघन तथा तार्किक और इस तरह प्रभावशाली हुआ. कविता के क्षेत्र में निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल, चन्द्रकांत देवताले, रघुवीर सहाय से लेकर समकालीन कविता तक तमाम उतार चढ़ावों के बावज़ूद “जनपक्षधरता” आज भी हिंदी कविता की एक अनिवार्य लाक्षणिकता बनी हुई है. इसलिए जब सत्तर के दशक में जब क्रान्ति का रुमान और सशस्त्र विद्रोह का आह्वान अपने चरम पर था तो दूसरी भाषाओं के साथ हिंदी कविता में भी उसकी अनुगूँजें सुनाई दीं. चंद्रकांत देवताले अकविता के प्रभाव को पूरी तरह पीछे छोड़कर उस दौर में “भूखंड तप रहा है” जैसी कविता लिख रहे थे, गोरख पाण्डेय जैसे कवि “कैथरकलाँ की औरतें” लिख रहे थे, क्रांतिकारी जनगीत लिख रहे थे तो आलोक धन्वा जैसे कवि ने तो “जिलाधीश” सहित अपनी सभी महत्त्वपूर्ण कविताएँ इस दौर में ही लिखी हैं. ऐसे घोषित वामपंथी कवियों को छोड़ भी दें तो वैचारिक स्तर पर वामपंथ के विरोधी लोहियावादी समाजवादी धूमिल को भी तनी हुई मुट्ठियों का नाम नक्सलबारी सुनाई दे रहा था.
इस दौर की हिंदी कविता पर शिल्प और कथ्य दोनों स्तरों पर दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रभाव मुक्तिबोध का था. अपनी लम्बी और गहन तनाव के महीन लेकिन दृढ़ तंतुओं से बुनी कविताओं से समकालीन राजनीतिक सामाजिक विडम्बनाओं से उनके भूमंडलीय आयामों की जड़ में जाकर टकराते, जूझते, घायल होते मुक्तिबोध आज भी हमारी भाषा के किसी कवि के समक्ष एक चुनौती की तरह उपस्थित होते हैं, लेकिन उस दौर में वह अभी अभी कविता के रंगमंच से विदा हुए थे. उनकी आवाज़, उनकी बीड़ी की महक, “आपकी पालिटिक्स क्या है पार्टनर” का उनका सवाल सब जैसे एक सम्मोहन की तरह उपस्थित थे. अब वरिष्ठ हो चले और अपनी अलहदा काव्य भाषा तथा शैली विकसित कर चुके तमाम कवियों की उस दौर की कविताओं पर यह असर साफ़ दिखाई देता है तो मलय जैसे कवि आजीवन उस असर से बाहर निकल ही नहीं पाए. यहाँ तक कि तुषार धवल या सौमित्र जैसे एकदम युवा पीढ़ी के अनेक कवि भी जब लम्बी कविता लिखते हैं तो मुक्तिबोध के प्रभाव से बचना आसान नहीं होता.
इसके अलावा हिंदी साहित्य उन दिनों पश्चिम और दुनिया के अलग हिस्सों में चल रहे आंदोलनों से भी अछूता नहीं रह सकता था. वह दौर योरप और लैटिन अमेरिका सहित तमाम देशों में भारी उथल पुथल वाला दौर था. चिली में अमेरिकी साम्राज्यवाद के समर्थन और सहयोग से आयंदे का तख्ता पलट दिया गया, क्यूबा में फिदेल के नेतृत्व में कुछ साम्राज्यवाद विरोधी नौजवानों ने सत्ता पर कब्ज़ा किया और उसे एक समाजवादी देश बनाने की दिशा में आगे बढ़े, अमेरिका में सी आई ए साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में लगातार अपने हस्तक्षेप बढ़ा रहा था और समाजवाद समर्थक कलाकारों और लेखकों को बहिष्कृत किया जा रहा था. वैसे यह नया नहीं था. रूसी क्रान्ति के बाद के दौर ने पूरी दुनिया को उद्वेलित किया था. खासतौर पर लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच समाजवाद एक विकल्प और प्रेरणास्रोत के रूप में सामने आया था. समाजवादी यथार्थवाद ने उन्हें आम जनता के दुःख-दर्द और उनसे मुक्ति के लिए संघर्ष की राह दिखाई थी. पूंजीवादी विश्व के भीतर भी लेखकों, कलाकारों, फिल्मकारों और विचारकों के बीच मार्क्सवाद बेहद प्रचलित होता जा रहा था. राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में प्रभुसत्ता जमाये पूंजीपति वर्ग के लिए यह खतरे की घंटी थी. उसके लिए इसे बर्दाश्त करना मुमकिन न था. आरम्भ में दमन के सारे प्रयास किये गए. रूसी क्रांति के तुरत बाद १९१८ में अमेरिका में ओवरमैन कमिटी बनी थी जिसका काम अमेरिका के भीतर बोल्शेविक तत्वों की निगरानी था. इसी क्रम में १९३८ में बनी अमेरिका की कुख्यात हॉउस कमिटी आन अन-अमेरिकन एक्टिविटीज़का इतिहास सब जानते हैं जिसने वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाले तमाम कलाकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को काली सूची में डाल दिया, मुकदमें चले और सज़ाएँ भी हुईं. चार्ली चैपलिन, आर्सन वैलेस, पाल राबसन, बर्तोल्त ब्रेख्त जैसे तमाम लेखकों/ कलाकारों को अमेरिका छोड़ने पर मज़बूर कर दिया गया तो बिम्बर्मैन, डैशियल हेमलेट जैसे कितने ही कलाकार जेलों में सड़े. लेकिन इस दमन के बावज़ूद पूँजीवादी शोषण के खिलाफ जनता की राजनीतिक चेतना अमेरिका में ही नहीं पूरे योरप और तीसरी दुनिया के देशों में लगातार बढती गयी और मज़दूरों, किसानों और छात्रों के आंदोलन विस्तारित होते गए. योरप का अवांगार्द आन्दोलन हो, लैटिन अमेरिका का जादूई यथार्थवाद हो या गिन्सबर्ग की कविताओं के प्रभाव में बंगाल में उभरी भूखी पीढ़ी, इन सबका असर हिंदी कविता पर अपने अपने तरीके से पड़ रहा था. गिन्सबर्ग के साथ जोसे मार्ती, रूबेन दारियो, जेम्स जायेस, नाज़िम हिक़मत, पाब्लो नेरुदा, एजरा पाउंड से लेकर मलय राय चौधरी तक हिंदी कविता के लिए न केवल परिचित नाम थे बल्कि इसे गढ़ और रच रहे थे. इन सबके द्वंद्वात्मक प्रभावों से हमारी कविता अपना आकार ग्रहण कर रही थी जो अस्सी के दशक तक आते आते राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, पंकज सिंह, वीरेन डंगवाल, मनमोहन, अरुण कमल जैसे कवियों के साथ एक मुकम्मल चेहरा हासिल करती है. “समरगाथा” इसी संक्रमण काल की कविता है. जिस राजेश जोशी को हम जानते हैं वह दरअसल इसके बाद के कवि हैं. यह लम्बी कविता भविष्य के राजेश जोशी को गढ़ने की प्रक्रिया में जन्मी कविता है जिसमें वे बीज और वे प्रक्रियाएँ तथा वैचारिक आलोड़न स्पष्टतः रेखांकित किये जा सकते हैं.
(दो)
“समरगाथा” का रचनाकाल 1975-76 का है. भारत में आपातकाल का दौर. नक्सलबारी के उतार का दौर. वामपंथी राजनीति में एक विभ्रम काल के आरम्भ का दौर. कवि राजेश जोशी का एकदम आरम्भिक रचनाकाल. 1977 में पहल की जनवादी सीरीज में पुस्तिका रूप में प्रकाशित होने के बाद 2012 में भोपाल के “पहले पहल” प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संस्करण की संक्षिप्त भूमिका में उन्होंने इस कविता के उत्स के रूप में दो कारकों का ज़िक्र किया है, पहला, एक प्राचीन यूनानी कहानी “गोल्डन फ़्लीज़ की खोज” और दूसरा वेणुगोपाल की संगत. ध्यातव्य है कि उन दिनों अपने नक्सल प्रभाव की कविताओं के कारण हैदराबाद से निष्कासित होकर वेणुगोपाल भोपाल में रह रहे थे और उन्होंने वहाँ की साहित्यिक फिज़ा को अपनी तरह से प्रभावित किया और प्रभावित हुए भी. इसी भूमिका में आगे उन्होंने “एक ओर आक्रामक स्वर वाली कविताओं तो दूसरी ओर मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं की फंतासी के जादू” का भी ज़िक्र किया है, जिसकी मैंने पहले ही विस्तार से चर्चा की है.
यह कविता 12 खण्डों में विस्तारित है. पूरी कविता मनुष्यता के ऐतिहासिक विकास क्रम और उसमें शोषण के नए नए औजारों के विकास तथा उसके खिलाफ़ आम जन के विद्रोह की महागाथा को काव्यात्मक रूप में दर्ज़ करती चलती है. कविता में सुनहरी जुओं को एक प्रतीक की तरह लिया गया है जो संभवतः उसी चीनी कहानी से प्रेरित है जिसका ज़िक्र राजेश जी अपनी संक्षिप्त भूमिका में करते हैं. इस प्रतीक का जो राजनीतिक अर्थ है वह जुओं के परजीवी होने से है. मनुष्य के श्रम के अधिशेष को लूटकर, उसके सांस्कृतिक-सामाजिक-आर्थिक शोषण के ज़रिये पूँजी का साम्राज्य खड़ा करने वाले वर्ग को मुक्तिबोध ने भी “रक्तपायी वर्ग” ही कहा था. राजेश जोशी भी इस कविता में उन्हें इसी अर्थ में सुनहरी जुओं के प्रतीक से दिखाते हैं. कविता का फ़ार्म आख्यानात्मक है, क़दम दर क़दम इतिहास से भविष्य की ओर चलता हुआ. इसका एक एक रेशा प्रतिबद्धता और मनुष्य की अदम्य जीजिविषा में अनाहत विश्वास से बुना हुआ है. थोड़ा और स्पष्ट कहें तो यह मार्क्सवादी चिंतन पद्धति से प्रभावित ही नहीं संचालित भी है जिसमें आदिम कम्यून की सर्वसमावेशी तथा बराबरी वाली व्यवस्था से आज के पूँजीवादी समाज के सफ़र की द्वन्द्वात्मक विवेचना करती है. शिल्प के स्तर पर कविता में कुछ प्रयोग हैं जो कई बार इसे गति देते हैं तो कई बार अतिरिक्त भी लगते हैं और इस तरह कविता के प्रवाह को बाधित भी करते हैं. असल में, कोई 54 पेज़ लम्बी यह कविता इतनी गहन और अर्थसघन नहीं हो पाती कि इस लम्बी यात्रा का काव्य रूपांतरण करते हुए पाठक को न सिर्फ़ साथ ले चले बल्कि उसे उस यात्रा के तमाम गिरि-गह्वरों से गुज़रते हुए कुछ रोशनियों के नए ठिकाने तथा अंधेरों के अनचीन्हे पते दे सके. कवि अभी उतना परिपक्व नहीं हो सका है कि अपने आवेगों को नियंत्रित कर सरल से लगने वाले वाक्यों को मारक अर्थवत्ता से भर दे. यह मुश्किल कला राजेश जोशी के पास बाद में आती है और उन्हें एक ऐसे कवि में तब्दील कर देती है जिसकी सादगी धोखादेह है और जो “मारे जायेंगे” जैसे रेटरिक को अपनी सहजता से एक प्रतिरोधी युगसत्य में तब्दील कर देता है तो बच्चों के काम पर जाने या जुलूस में स्त्रियों के होने जैसे आम दृश्यों के सहारे हमारे समय की जटिलतम विडम्बनाओं को रेशा रेशा खोल कर रखते हुए पाठक को आंदोलित कर देता है. इसके बरक्स यह कविता राजनीतिक चेतना के उद्वेग से निकली एक विद्रोही युवा की तरल काव्य अभिव्यक्ति है जो अपनी पूरी ताक़त से अपनी जनता के साथ खड़ा है और जनता के प्रति अपना प्रेम तथा शोषकों के प्रति अपनी घृणा को स्पष्टतम शब्दों में व्यक्त कर देने की ईमानदार बेकली से भरा है.
(तीन)
कविता का आरंभ “सुनहरी जुओं के संहार के शुभ मुहूर्त” से होता है. पहला खंड जैसे किसी प्रयाणगीत या फिर नान्दी की तरह है. संघर्षशील जन अपने “खून में झनझनाते इस्पात के जोर से” धरती को झंकृत किये हुए है. बलि के उन्मादी गान बज रहे हैं. मुक्ति का सुर्ख परचम लिए मुक्तियोद्धा अपने युद्ध पथ पर निकल चुके हैं और रौशनी की एक नई किरण दिख रही है.
ज़रा ठहर के सोचें कि 1972-73 के आसपास कवि यह प्रयाण कहाँ देख पा रहा है? अपनी विश्व चेतस दृष्टि के बावजूद पूरी कविता में जो बिम्ब, प्रतीक और दृश्य चुने हैं उन्होंने वे सब विशुद्ध भारतीय हैं. ज़ाहिर है वह जिस आसन्न युद्ध को वर्तमान के संघर्षों की रौशनी में देख पा रहा है वह वही है जिसे बल्ली सिंह चीमा “ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के” कह रहे थे. “मिट्टी के आँगन में नौरता मांडती” जिस “आदिवासी धूप” में “डगर...डगर...डम...डम...डम” की नगाड़े की थाप वह सुन रहे हैं वह नक्सलवादी आन्दोलन के सशस्त्र क्रान्ति की रणभूमि बिहार और बंगाल के आदिवासी इलाक़े ही हैं.  71 में हुई चारू की हत्या के बावजूद उस दौर में सशस्त्र क्रान्ति की आग अभी धधक रही थी और उस रौशनी में कवि अगर मुक्ति के स्वप्न देख रहा था तो यह उस युवा उत्साह के बरक्स स्वाभाविक ही है. हालांकि एक सचेत निगाह उस दौर तक तो नक्सलवादी आन्दोलन की अवश्यंभावी तात्कालिक पराजय और मुक्ति के दशक के स्वप्न को बिखरता देख ही सकती थी. बाद के वर्षों में राजेश जी की राजनितिक पक्षधरता जलेसं के साथ रही है, लेकिन इस कविता के रचना के समय उन पर जो नक्सलवादी प्रभाव था वह बिलकुल आरम्भ में ही स्पष्ट है.  
इस प्रयाणगीत या नान्दी के बाद कविता इतिहास की अपनी यात्रा आरम्भ करती है...सुनहले इतिहास की यात्रा जहाँ धरती पर सोने का पहाड़ है और विशाल पंख फैलाए स्वर्ण हंस श्रमशील मनुष्यों के पसीने पर मोती चढ़ाता है. इस खण्ड में वह आदिम कम्यून का एक दृश्य चित्र गढ़ते हैं और दूसरे ही उपखंड में वर्तमान के त्रासद यथार्थ के बरक्स उन सुनहरे दिनों को देखने की कोशिश करते हुए निराश भी होते हैं. उन सुनहरे दिनों के एक स्वप्न भर में तब्दील हो जाने का दुःख. वे दिन जो जन की कथाओं में उनके गीतों में संरक्षित रहे. वे दिन जब मनुष्य ने हिंस्त्र पशुओं से खुद को बचाना सीखा और अपने पहले आविष्कारों के सहारे प्रकृति की मुश्किलात का सामना करते हुए जीवन को सुन्दर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए. जब श्रम से वह वानर से नर (नारी भी) तक की यात्रा पर निकला और उसने अपने पहले स्वप्न देखे. सरल और सहज स्वप्न जिनमें जीवन के उल्लास थे, उमंग थी और कला तथा ज्ञान की राह पर चल पड़ने की उत्कंठा. उस सामूहिक स्वप्न में जहाँ “सब लोग सब लोगों के लिए” निकलते थे और प्रकृति का जो वैभव था, मनुष्य के श्रम से अर्जित जो उपलब्धियाँ थीं वे किसी की निजी संपत्ति नहीं बल्कि जो था वह “सबका था...सबके लिए था”
विचार और वैचारिक प्रस्थापनाओं को कविता में ढालने की अपनी सुविधाएँ होती हैं तो अपनी समस्याएँ भी. इस खंड में भी यह समस्या तो है ही. अपनी निर्मिति में आदिम कम्यून से सामन्तवाद के ठीक पहले तक की यात्रा करता यह खंड पढ़ते ऐसा लगता है कि निजी संपत्ति का जन्म अनाजों की खोज, कृषि के विकास के आरम्भिक दौर, पीतल और इस्पात जैसे खनिजों की खोज, नमक-तेल के भोजन में प्रयोग और वस्त्र (यहाँ तक कि रेशमी वस्त्र भी) निर्माण के दौर के बाद हुआ. जबकि इतिहास बताता है कि निजी संपत्ति इनसे पहले जन्म ले चुकी थी. मानव बस्तियाँ बनने के साथ निजी संपत्ति ही अस्तित्व में नहीं आई बल्कि प्राक सामन्ती कबीलाई समाज में भी शोषण के तंत्र विकसित हो चुके थे. लिपियों और भाषाओं के स्वप्नों के बहुत पहले मनुष्य और मनुष्य के बीच असमानता के बीज घने वृक्षों में बदलना शुरू कर चुके थे. इस्पात की खोज और रेशमी वस्त्रों के चलन का दौर तो इसके बहुत बाद का है.  औरत की ग़ुलामी का दौर भी इसी वक्फे में शुरू होता है लेकिन कवि की दृष्टि वहाँ तक नहीं जा सकी है. स्त्रियाँ इस कविता में स्थान पाती हैं, लेकिन आगे. जबकि एंगेल्स की जिस किताब “परिवार, निजी संपत्ति और राज्य का उद्भव” से यह सैद्धांतिकी जन्म लेती है, उसे भी अगर देखें तो स्त्री को घरों में क़ैद कर उसके श्रम का शोषण और उसकी यौनिकता पर नियंत्रण के साथ दोयम दर्जे के नागरिक में बदल देने की इतिहास की सबसे भयानक त्रासदी तो सामन्तवाद के आने के बहुत पहले घट चुकी थी. उसे इस एतिहासिक प्रक्रिया में आना ही चाहिए था, पोलिटिकली करेक्ट होने की तमाम कोशिशों के बीच इस तथ्य को नज़रंदाज़ करना वामपंथी आन्दोलन के भीतर जेंडर को लेकर अपेक्षित संवेदनशीलता की कमी का परिचायक ही है. 
तीसरे खंड में कवि ने शोषक वर्गों के उदय के लिए “चीते से नुकीले नाखून वाले उलटे पंजे की जादूगरनी” का प्रतीक इस्तेमाल किया है. इस पूरे खंड में जो बिम्ब विधान है वह गौर से देखने पर प्रतिगामी सा लगता है. एक तो उलटे पैरों वाली जादूगरनी की पूरी परिकल्पना ही भारतीय मिथकेतिहास में मुक्त स्त्रियों के विलेनीकरण की ब्राह्मणवादी साजिश है, उस पर से “पूर्वजों और देवताओं को न्यौतने के लिए आकाश तक भेजे जाने वाले पीले चावल के लिए लगी नसेनी (सीढ़ी) से एक अपसकुनी आवाज़” का पूरा दृश्य इन ब्राह्मणवादी प्रतीकों को सेलिब्रेट सा करता लगता है. मिथकों के प्रयोग के ख़तरों पर बहुत बातें हुई हैं. यहाँ जहाँ एक वैज्ञानिक इतिहासबोध के साथ भविष्य के मुक्ति संघर्ष का आख्यान रचा जा रहा है तो इसे लेकर और सावधान होने की आवश्यकता थी. कवि की नीयत को प्रश्नांकित न करते हुए मैं इन प्रतीकों की उस ताक़त को पहचानने और उससे सावधान रहने के प्रति सचेत ज़रूर करना चाहूंगा जो एक परम्पराद्रोही जनवादी कवि की पारम्परिक चेतना का उपयोग भी अपने पक्ष में कर लेती है. याद रखना होगा कि मिथकीय बिम्ब-प्रतीक प्रगतिशील कवि की चेतना की माप के लिए बैरोमीटर हैं..सावधानी हटी तो आप प्रयोग करने की जगह प्रयोग हो जाते हैं.हालांकि आगे वह लोहा बजने की ध्वनि को अशुभ मानने की मान्यता के स्रोत की तलाश भी करते हैं जो असल में युद्ध में तलवारों के टकराने या हथकड़ी-बेड़ियों की आवाज़ों के चलते अशुभ मानी जाती हैं. युद्ध से अशुभ और क्या होगा मनुष्य के इतिहास में और बंदी होने से अधिक बड़ी और कौन सी पीड़ा होगी? शोषण के पहिये इन्हीं औजारों के भरोसे गतिमान होते हैं और मनुष्य के अस्तित्त्व और उसकी चेतना को घायल करते करते उसके भविष्य के स्वप्न तक छीन लेते हैं. खौफ की परछाईयाँ “हथेलियाँ खोलते नवजात शिशु” की निश्छल आँखों में कालिमा भर देती हैं. सामंती शोषण की यह विभीषिका समय के साथ नए आकार लेती है. बाज़ार और नए इलाकों की तलाश में निकले कथित सभ्य जन मनुष्य के शारीरिक और मानसिक श्रम की उपज जहाज और उन्नत हथियार लिए नई नई बस्तियों में जाते हैं और वहाँ के सीधे साधे मूलनिवासियों का समूल नाश कर देते हैं. अमरीका से आष्ट्रेलिया और अफ्रीका से हिन्दुस्तान तक के इतिहास पर इस सभ्य हिंसा के तीखे दाँतों और ज़हरीले नाखूनों के निशान अब तक नहीं मिट सके हैं. ये सुनहरी जुएँ (संभवतः योरपीय निवासियों के पीत गौर वर्ण के चलते राजेश जोशी ने यह प्रतीक लिया है) उस स्वर्ण मृग को, प्रकृति की अथाह निधि को लूटने के लिए अमानुषिक हिंसा की किसी भी सीमा को लाँघने में नहीं हिचकतीं. लोभ और लालसा से संचालित यह लूट मनुष्यता के इतिहास के सबसे काले पन्नों में से एक है. पश्चिम का जो विकास हुआ वह इन्हीं “असभ्य” इलाकों की बेशर्म और क्रूर लूट के दम पर. इस त्रासदी का विवरण देते हुए जो आवेग और लय है इस खंड में वह उस पीड़ा को उसकी पूरी सघनता और सम्बद्धता से सामने लाता है –
ताड़ के पत्तों वाली छत से
फूटता धुआँ नहीं था
अन्न और पानी की गंध नहीं थी
नहीं थी मिर्च मसालों की धांस
सिल लुढीया का संगीत नहीं था
जुबान कटे पेड़, पंख कटी हवाएँ
पाला खायी फ़सल सी काली धूप
भूख और मौत की काली छाया थी
सरों पर नाचती हुई    

और “सुनहरी जुएँ थीं जबड़ों में जिनके/ आदमी के खून का स्वाद लग गया था.” शोषण की चक्की को अब गति मिल गयी थी. पूँजीवाद ने मनुष्य के श्रम के शोषण को सांस्थानिक बना दिया. “सिंहासन का निर्माता रफ़्ता-रफ़्ता कुंदा हो गया”, उसका बनाया चीता उसे ही निगल कर क्रूर अट्टाहास कर रहा है. अपनी लाचारगी को समझता और उसकी गाथा कहता मनुष्य इस कविता में कवि की भाषा का सबसे उच्चतम रूप पाता है इस खंड में. यहाँ इतिहास सरल रेखीय नहीं रह गया बल्कि शोषण की पूरी प्रक्रिया में श्रमशील मनुष्य की लाचारगी, उसका गुस्सा और उसकी तड़प पहाड़ी नदी से आवेग और बहाव के साथ दर्ज़ होती है और कवि की वैश्विक चेतना अपना स्वर पाती है.

हाँ मैं, मैं ही हूँ निर्माता उस सिंहासन का
आकर बैठती थीं जिस पर वे सुनहरी जुएँ
स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि कहतीं
ईश्वर का आदेश कहतीं अपनी आवाज़ को.

ईश्वर! चारों ओर जिसके
अन्धी आस्थाओं का अँधेरा था
जिसकी पीठ पर हल होता है शोषण का गणित
और पुख्ता होता है पाया सत्ता का.
--
मैं गवाह हूँ
साँप के विष दंश का, चन्दन वन के असामयिक निधन का
पर्सीपोलिस और नालंदा से उठती नीली अग्नि जिव्हाओं का
जंगल के घावों का, रथ के धब्बों का, उखड़ी हुई नालों का
हवा में हिरन की बलि का, कुणाल की आँखों का

गवाह हूँ महराबदार ऊँचे प्रासाद में
युद्ध और योनि के उन्माद में डूबी
सुनहरी जुओं का
--
लेकिन नहीं रुका, नहीं रुका, नहीं रुका सिलसिला
नीली पड़ती रही देह, लपलपाते रहे, बिजलियों के कोड़े
गरदनें कटती रहीं, गिलोतिनें गिरती रहीं
क्रूरता के मस्तिष्कहीन सर में उगे नए सींग
फिर से टटोली गयीं पूँछ की हड्डियाँ आदमी की देह में

इस तरह कविता देशकाल की सीमाओं की यात्रा करती है और मनुष्य की पीडाओं का एक महाआख्यान रचती है. इस प्रक्रिया में वह शोषण के अनेकानेक रूपों की पहचान करते हैं. यहीं वह मानवता के इतिहास के सबसे क्रूर और सांस्थानिक बना दिए गए स्त्री के शोषण और उस पर हुए अत्याचारों तक पहुँचते हैं तो भारत में जाति प्रथा के नाम पर दलितों के साथ हुए एतिहासिक अन्याय पर भी सवाल खड़े करते हैं. “किसान औरत की गरदन पर चढ़ा दिए गए जुए” से आगे बढ़ते हुए वह “अगला प्रश्न पूछने से रोक दी गयी (गार्गी) दर्शन और न्याय से अवमूल्यित स्तन और योनि में परिभाषित” स्त्री तक की बात करते हुए वह इतिहास के तमाम पड़ावों की यात्रा करते हैं. इसी यात्रा में जेंडर के साथ नस्ली भेद और इसकी कोख से जन्मे अत्याचार भी सामने आते हैं जहाँ वह दास प्रथा से लेकर जातिवाद और हिटलर के जर्मनी के नस्लवाद के बीच एक कड़ी स्थापित कर पाते हैं. लेकिन यह कहे बिना बात पूरी नहीं होगी कि कम से कम भारत के संदर्भ में जातिगत शोषण का सवाल भी स्त्री के शोषण की तरह ही जिस विस्तार से इतनी लम्बी कविता में आना चाहिए वह नहीं है, हाशिये के संघर्ष हाशिये पर ही रह गए हैं.  

अगले खंड में वह वर्तमान समाज की चीर फाड़ करते हैं और एक जनपक्षीय कवि की तरह पूँजी का प्रपंच, बाज़ार के विनाशकारी  खेल, धर्म  की मनुष्यविरोधी भूमिका और लोकतंत्र की आड़ में पल रहे जनविरोधी तंत्र की पड़ताल में संलग्न होते हैं. वह देख पाते हैं कि किस तरह इन मनुष्यविरोधी ताक़तों के संयुक्त उपक्रम ने मनुष्य के भीतर की सारी आग को छीनकर उसमें डर भर दिया है.

यह भाषा भाषा नहीं एक चमचमाता चाकू है
जो जूट काटते काटते कटता है
ज्ञान और संवेदना की शिराएँ
बाँटता है आदमी को हिस्सों में
और हमारे अंदर उड़ती चिड़ियें चुरा ले जाता है

और बंद कर देता है हवा और धूप में खुलती
हर खिड़की  

वर्ग विभक्त समाज में सत्ताधारी बुर्जुआ वर्ग सभी हथियारों का उपयोग कर आम जन को आधुनिक गुलामों में तब्दील कर देता है. उसके प्रतिरोध की सारी ताक़त छीन लेता है. आदमी और आदमी के बीच एक ऐसी खाई पैदा कर देता है कि श्रमिक अलगाव का शिकार होता है और इस खेल से “फैला देता है अन्धकार, घटाटोप अन्धकार/ कि हाथ को हाथ न सूझे.” “शान्ति, जनतंत्र,स्वतंत्रता, राष्ट्रप्रेम, उत्पादन, उद्योग,कृषि, कारोबार” सब लूट के तंत्र के हथियार में बदल जाते हैं. सारी व्यवस्था पूँजी की रक्षक बन जाती है और आश्चर्यजनक है कि उस समय ही भविष्य को साफ़ देख पा रहे राजेश जोशी देख पाते हैं कि कैसे जनता की सुरक्षा के नाम पर किये गए इंतजामात उनकी जासूसी करने वाले उपकरण में तब्दील हो जाते हैं. हर मनुष्य व्यवस्था के लिए एक संभावित विद्रोही है. पूँजी हर उस व्यक्ति के प्रति संशकित है जिसका जीवन उसने दूभर कर दिया है. लोकतंत्र के पवित्र बाने तले जनता के दमन का यह सिलसिला अबाध रूप से चलता रहता है. जुएँ अब भी उतनी ही सुनहरी हैं और उतनी ही क्रूर उतनी ही रक्तपायी बस उन्होंने चोले मानवीय पहन लिए हैं और उदार दिखने वाली संरचनाओं के साथ अब वह नाभिनालबद्ध हो चुकी हैं. संकट के समय ये अपनी उदारता के छोले उतार फेंकती हैं और हर हाल में उनका रक्तपान निरंतर चलता रहता है.
लेकिन इन सब तानों बानों के बीच जनता का कवि सचेत रहता है. यही उसका युगधर्म है, उसके कंधे पर रखी इतिहास की जिम्मेदारी. वह उन जगहों पर अंगुली रखता रहता है जिन्हें स्पर्श करने की मनाही है. वह समाज में सहज मान लिए गए नियमों को प्रश्नांकित करता है. वह अँधेरी सुरंगों की पहचान करता रहता है ख़तरे उठा के भी. वह कबीर की तरह “एक रकत से सबहीं बने हैं, को बाभन को सूदा” पूछता है, निराला की तरह “अबे सुनबे गुलाब” की तीखी और स्पष्ट हुंकार भरता है और अपने असुविधाजनक सवालों के साथ उपस्थित रहता ही है. सातवें खंड तक आते आते कविता अपने चरम पर पहुँचने लगती है. इस खंड का पूरा शिल्प किसी जनगीत सा है. किसी क्रुद्ध सामूहिक गान सा.
आदमी आदमी भूखा था अन्न कहाँ गया
आदमी आदमी प्यासा था पानी कहाँ गया
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बच्चा बच्चा बिलखता था दूध कहाँ गया
बच्चा बच्चा उदास था गुब्बारा कहाँ गया
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किताबें कहाँ गयीं काग़ज़ कहाँ गया
चित्र कहाँ गए संगीत कहाँ गया
ख़ुशी कहाँ गयी नृत्य कहाँ गया
कहाँ गया कहाँ गया
कहाँ गया कहाँ गया
सवाल दर सवाल जवाब कहाँ गया?

इस पूरे खंड में कई अनुगूंजे  सुनाई  देती हैं तो भविष्य के संकेत भी. गौर से देखें तो बच्चों वाले हिस्से उनकी अत्यंत चर्चित कविता “बच्चे काम पर जा रहे हैं” की पूर्वपीठिका लगती है. यहाँ का रा आवेग पककर उस कालजयी कविता का रूप ले सका है. अंतिम पंक्ति प्रसिद्ध जनगीत “घिरे हैं हम सवाल से” की याद दिलाता है. मुझे उसका रचनाकाल ज्ञात नहीं, लेकिन उसका स्पष्ट प्रभाव दिखता है.

असल में कविता यहाँ अपने अंत को पा चुकी थी.

इसके बाद के अंतिम चार खंड अतिकथनों से भरे एक युवा कवि की उद्दाम आशा के खंड हैं. इन्हें पढ़ते बार बार लगता है कि कवि अपनी निराशा को दुगने तिगने उत्साह से ढंकने के लिए इतिहास से लेकर वर्तमान तक की जल्दबाज यात्राएं करता है. वह प्रतीकों, उदाहरणों और दृश्यों की तलाश में भटकता है, लगभग उत्तेजना की सी स्थिति में लगातार बोलता चला जाता है, कई बार असम्बद्ध, कई बार एक टूटी हुई लय में और कई बार एक सुसंगत स्वर में भी. उसे हर हाल में मुक्तिकामी जन को विजय पथ पर ले जाना है अपनी कविता में. एक सुनिश्चित से अंत की ओर. तो वह अपनी कविता को चाबुक लगाने से भी नहीं चूकता. उसके लिए कविता द्वितीयक होती चली जाती है, राजनीतिक रूप से सही होने की आकांक्षा प्राथमिक और कविता जैसे हिचकोले लेते हुए भागती है. इस उद्यम में वह अकविता के से शिल्प को अपनाने से भी नहीं घबराता, दुहरावों की चिंता नहीं करता, इतिहास और वर्तमान के गैप्स भरने की सचेत कोशिश भी नहीं. बस जैसे उस अंत पर पहुँचने की जल्दी है बल्कि कहें एक मनचाहा अंत गढ़ने की जल्दी. असल में कविता इन्हीं खण्डों में इतनी  predictable और इकहरी हो जाती है कि लम्बी कविता के अनिवार्य गुण, एक सतत तनाव को खो देती है. एक लम्बे भाषण में तब्दील होकर वह सपाट बयान बन जाती है. इस शोर शराबे में कुछ अच्छी पंक्तियाँ भी छिप जाती हैं. कविता जिस उद्दाम आशावादी स्वर के साथ समाप्त होती है, वह अपेक्षित असर नहीं छोड़ पाता.

(चार)

यह लेख शुरू करने से पहले हुई निजी बातचीत में राजेश जोशी ने मुझसे कहा कि “अब तो मैं खुद इस कविता को खारिज़ सा कर चुका हूँ.” हालाँकि एक बार लिख जाने और छप जाने के बाद कविता पर जनता और पाठक का अधिकार कवि जितना ही हो जाता है तो कवि द्वारा उसे खारिज़ किये या न किये जाने का कोई ख़ास मतलब नहीं रह जाता, लेकिन यह देखना मानीखेज़ होगा कि इस खारिज किये जाने के सबब क्या हैं? क्यों एक श्रमसाध्य प्रक्रिया से गुज़र कर पूरी ईमानदारी और राजनैतिक प्रतिबद्धता के साथ लिखी गई एक लम्बी कविता लिखे जाने के तीस साल बाद कवि को काम की नहीं लगती वह भी तब जब कवि की पक्षधरता और वाम राजनीति से सम्बद्धता में कोई कमी नहीं आई. राजेश जोशी आज भी उन गिने चुने कवियों में से हैं जिनकी सक्रियता सिर्फ लेखन तक सीमित नहीं.

इसके उत्स शायद इस कविता की संरचना में हैं जो पोलिटिकली करेक्ट होने, अपने समय के मुहाविरे को लांघने की जगह पूरी तरह साधने और उसमें उलझ जाने तथा तात्कालिकता के दबाव में कविता को एक राजनीतिक स्टेटमेंट भर की तरह बरतने में रूपायित होती है. युगसत्य को पहचानने और उसे बिना किसी दबाव के कह देने में राजनीतिक प्रतिबद्धता कतई बाधक नहीं होती. दिक्कत तब होती है जब प्रतिबद्धता को सच पर मुलम्मे चढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है. जब एक सत्य को किन्हीं सिद्धांतों के अनुरूप गढ़ने की कोशिश की जाती है. यहाँ मुक्तिबोध की लम्बी कविता “अँधेरे में” को याद किया जा सकता है. वहाँ जिस जुलूस को मुक्तिबोध देख पा रहे हैं उसे किसी अन्य काल्पनिक जुलूस से निष्प्रभावी करते या आशावाद के अतिरिक्त दबाव में कोई काल्पनिक दृश्य पैदा नहीं करते. पूंजीवादी समाज के प्रति उनकी घृणा अप्रश्नेय है, नए समाज के निर्माण की आकांक्षा अनाहत और जनता में विश्वास अगाध. लेकिन इसे कविता में कहने के लिए वह अतिकथन का सहारा नहीं लेते, अतिरिक्त उम्मीदों और संघर्षों के अतिरेकी वर्णन की जगह वह ठहर कर उनकी विवेचना करते हैं, रास्तों को आलोकित करते हैं और अपने समय की सबसे भयावह विडम्बनाओं को रेशा रेशा साफ़ करके दिखा देते हैं. इसीलिए वह जो फैंटेसी का शिल्प रचते हैं वह पूरी तरह से सफल होता है और वह ही नहीं बल्कि भूल गलती, ब्रह्मराक्षस जैसी कवितायें अपने लिखे जाने के पचास साल बाद भी प्रासंगिक बनी हुई हैं और लाइटहाउस सी काम आती हैं जनपक्षधर ताक़तों के. कभी रामविलास जी ने केदार नाथ अग्रवाल की कविताओं के लिए कहा था कि जब देश में जनांदोलन होंगे तो केदार जी की कवितायेँ जन जन के जुबान पर होंगी. जनानान्दोलन हुए, लेकिन उन्हें पार्टीलाईन पर नहीं होना था तो उस लाइन पर लिखीं केदार जी की कवितायें उनके काम भी नहीं आई. काम आई तो मुक्तिबोध की कविता या फिर जनांदोलनों के बीच रहकर लिखी गयीं नागार्जुन की प्रोपेगेंडा कविता. कविता से नारे या पार्टी लाइन प्रचार की कोशिशें हमेशा कविता की क़ीमत पर ही होती हैं और इसीलिए किसी दौर में तात्कालिकता और पोलिटिकल करेक्टनेस के दबाव में लिखी कवितायेँ समय के साथ धुंधली पड़ जाती हैं. समरगाथा के लिए भी ठीक यही कहा जा सकता है. इतिहास की कंदराओं में भटकते हुए वह इतिहास के साथ न्याय नहीं कर पाते तो वर्तमान को अपनी तरह से व्याख्यायित कर उसे ठीक से समझे बिना मनचाहा भविष्य गढ़ने की कोशिश में वह भविष्य के साथ भी न्याय नहीं कर पाते. अपने ईमानदार मंसूबों के बावजूद कविता टुकड़ों में तो प्रभावित करती है लेकिन उसका कोई समग्र सकारात्मक प्रभाव पाठक तक नहीं पहुँचता. अपने इतिवृत्तात्मक स्वरूप में वह न तो एक स्वप्नलोक रच पाती है न ही वह तनाव पैदा कर पाती है जो पाठक को अपने समय की विडम्बनाओं से जूझने की बेचैनी दे पाये. थोड़ा कठोर होकर कहा जाए तो यह यथार्थ की जगह एक आभासी यथार्थ रचने वाली कविता है...लम्बी कविता से बड़ी कविता न बन पाने के लिए अभिशप्त. एक परिपक्व कवि और पाठक के रूप में शायद राजेश जोशी को यह एहसास ही इसे खारिज़ करने पर बाध्य करता है.




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