राजीव ध्यानी की कविताएँ मैंने पहली ही बार फेसबुक पर देखीं। मालूम हुआ कि 1995 में उनका संग्रह अकसर कागज़ नाम से आया था। इन कविताओं ने मेरा ध्यान खींचा। अपने निजी भूगोल और परिवेश लेकर एक भरपूरे विस्तार तक की कई-कई अर्थच्छवियों में बंधते हुए मैंने इन कविताओं को पढ़ा और जाना कि एक उदास सादगी ही इस कवि का अपना मुहावरा है। मैंने कवि से कविताओं के लिए आग्रह किया और उन्होंने अनुनाद के लिए अपने संग्रह से ये कविताएं भेजीं। राजीव जी आपका अनुनाद पर स्वागत है।
कहीं कोई आसमान
मत जाओ
क्षितिज की ओर
कहीं
कोई आसमान
धरती पर नहीं उतरता
***
अक्सर कागज़
दूर से ही
दूसरे की नज़र में
समा जाएँ
मैं बड़े अक्षर बनाता हूँ
मुझे तो बताना है
लेकिन तुम्हें नहीं जानना चाहिए
हर नए सत्य को
उद्घाटित करता
सहमता हूँ
मेरा लिखा सब कुछ
अधूरा प्रतीत होता है
खुद मुझे
तब मैं
दोनों तरफ
बड़े हाशिये छोड़ देता हूँ
अक्सर
काग़ज़ भरते जाते हैं
और मैं
कुछ नहीं कह पाता
***छूट जाते हैं पीछे
रेल से
पीछे की दिशा में
दौड़ते हैं खेत
खेतों की मुंडेर पर बैठी लडकियाँ
खेत के किनारों पर
चरती गायें
बीच- बीच में
एकाकी खड़े पेड़
सभी छूट जाते हैं पीछे
खेतों की सरहदों में
सिमटा गाँव
उसमें पलते रिवाज़
उसमें भटकती- फिरती
सोंधी से खुशबुएँ
उसके चूल्हों से उठती
धुएँ की लकीरें
पीछे छूट जाता है सब
यानी कि पिछड़ जाता है
रेल पटरियों पर दौडती है
आगे
शहर की दिशा में
खेत पगडंडियों पर घिसटते हैं
पीछे
गाँव की दिशा में
***सड़कें और दीवारें
घर
सड़कों की तरह
सार्वजनिक नहीं होते
सड़कें
घरों की तरह
व्यक्तिगत नहीं होतीं
बहुत से घर
सड़कों के किनारे
बने होते हैं
मगर फिर भी व्यक्तिगत होते हैं
कुछ घर
सड़कों पर भी
बने होते हैं
मगर वे व्यक्तिगत नहीं होते
सड़क और घर के बीच
फर्क की मोटाई
सिर्फ नौ इंच होती है
ये दीवारें ही हैं
जो घरों की
परिभाषा के
दायरे तैयार करती हैं
हर घर
एक दीवार से शुरू होता है
और किसी दूसरी
दीवार पर ख़त्म हो जाता है
वो सब
जो दीवारें खड़ी नहीं कर सकते
सड़कों पर ही रहते हैं
या यूँ समझिये
सड़कों पर ही रह जाते हैं
***
सब कहीं धूल
सब कहीं
घुस जाती है धूल
खिडकियों की
जालियों से छनती है
बंद दरवाजों की
झिरी से झाँकती है
और कमरे में बिछ जाती है धूल
रौशनदानों की
ऊँचाई तक चढ़ती है
थोडा और उचकती है
और कमरे में झाँकती है
सदियों से बंद
तालों को चकमा देती
छोटे छेदों से
चिटकनियाँ सरकाती
अपारदर्शी रंगीन शीशों के
आर-पार झाँकती है धूल
और देख लेती है
वह सब
जो साफ़ है
हर शुभ्रता
हर चमक पर
छा जाती है धूल
फ़र्श पर कालीनों
दालान पर घास
और बिस्तर पर चादर की तरह
बिछती है धूल
टेलीविज़न को ढँक लेती है
कवर बनकर
दीवारों पर पुत जाती है
दीवाली के रंगों की तरह
रसोई के बर्तनों पर
चमकती है धूल
मकड़ी के जालों में
उलझ जाती है
कबूतरों की बीट को
ढँक लेती है धूल
और ज़मीन पर पड़े
बच्चे के खिलौने को भी
***
सब कुछ मुश्किल
एक तरफ
समंदर के सीने में धंसे
अंतरीप के नुकीले किनारे
दूसरी ओर
जंगली हवाओं के पर काटती
धारदार चोटियाँ
यहाँ
उड़ना भी
उतना ही मुश्किल है
जितना
एक जगह पर बने रहना
***
सिर्फ़ एक बहाना
सिर्फ़ एक बहाना थी
बीच की नदी
बहाने के
सूख जाने के बाद भी
उतनी ही दूरी बनाए
अब भी बह रहे हैं दोनों किनारे
***
लापरवाही
वह अपने अक्स को
संभाल कर
क्यों नहीं रखता
चाँद का चेहरा
झीलों
तालाबों
और बाल्टियों में उभर आया है
***
आदतें
मेरे लिखने की आदतें
मेरी बातों में
शामिल होने लगी हैं
अब
हर बात के साथ
दोतरफ़ा हाशिये
छूट जाते हैं
***
उभर आता है शोक
किसी शोकान्त कविता के
उदास पन्ने
फड़फड़ाते हैं
जिल्द के ऊपर तक
रिस आता है
मटमैला विषाद
सीलन अक्सर
धूप पर हावी होने लगती है
शोकान्त कविताएँ
शोक के साथ शुरू
नहीं होतीं
शोक दरअसल
पनपता है उनमें
आख़िरी पन्नों तक पहुंचकर
यकबयक दम तोड़ देती हैं
शोकान्त कविताएँ
शोक लेकिन बना रहता है यथावत
ख़त्म हो जाने की त्रासदी
सिर्फ
कविताओं की नियति है
शोक
नई कविता की पंक्तियों में
फिर से उभर आता है
*** मेरी पसंद
मौसमों का बदलना
मुझे छूता है
भीतर गहरे तक
जैसे
पत्तों का रंग बदलता है
डालियों का
फिर पेड़ों
और समूचे जंगलों का
नहीं बदलती
तो सबसे नीचे के ज़मीन
धरती का न बदलना
मुझे छूता है
भीतर गहरे तक
***
मेरी नियति
घंटों
धाराप्रवाह बोलते हुए भी
कुछ न कह पाना
मेरी विवशता है
दर्ज़नों पन्नों की
उधेड़ देने के बाद भी
कुछ न लिख पाना
मेरी शैली है
और इन सब के बीच
लगातार
लिखते और बोलते रहना
मेरी नियति
***
नहीं चाहिए रौशनी
ये सारे
चिराग बुझाकर
एक अलाव जला दो
मुझे गरमी चाहिए
रौशनी नहीं
***
भीतर का कोलाहल
सहमता हूँ
भीतर के कोलाहल से
और फिर
अपने से दूर चला जाता हूँ
निर्जन एकांत के वन प्रान्तरों में
पीछा करता है
कोलाहल वहाँ भी
दुबकना चाहता हूँ
वीरान खोहों में
दर्रों के उस पार
दूसरी और निकल जाता हूँ
कदमों के निशान ढूँढता
आ धमकता है
शोरगुल करता
और भी गहरे
सन्नाटों की और भागते हुए
एक पल को ठिठकता हूँ
और कुछ सोचकर
दौड़ने लगता हूँ
बाहरी कोलाहल की ओर
सोचकर
कि बाहर का शोर
शायद
भीतर की आवाज़ों को दबा दे
***
कृपण नहीं होते साहूकार
कृपण नहीं होते साहूकार
उनके हृदय से कहीं ज़्यादा
खुला होता है उनकी थैलियों का मुँह
थैलियों का चौड़ा मुँह
खुलता है हर ज़रूरत के जवाब में
जवाब के जवाब में हमेशा सवाल होते हैं
और इसलिए
एक बार ज़रूरत के जवाब में खुल चुका
थैली का मुँह
अगली बार सवालों में खुलता है
उन सवालों में
जिनका हल नहीं होता
हल के अभाव में
बैल बन जाता है अन्नदाता
जुआ पड़ जाता है थैली का
हल भारी होता जाता है
और फल भोथरा
कठोर हो जाती है सदावत्सला
सीना नहीं फटता माँ का
न ही फूटती है कोई उम्मीद
सूनी आँखों में पथरा जाते हैं मानसूनी प्रश्न
थैली के सवाल
माँ की दवा की थैली में से
सबसे ज़रूरी दवा को खा जाते हैं
सवाल
छोटे भाई की
नायब तहसीलदारी की तैयारियों को
वापस गाँव बुला लेते हैं
पत्नी के जर्जर होते
ब्लाउज़ में से
बाहर झाँकने लगते हैं
थैली के सवाल
सवालों की थैली में
सिर्फ़ सवाल होते हैं
जवाब नहीं
जवाब में
खसरा खतौनी पर नाम बदल जाते हैं
नाम बदल जाने से मगर
तकदीरें नहीं बदल जातीं
थैली का मुँह
खुला ही रहता है यथावत्
अनवरत निकलते रहते हैं प्रश्न
थैली के मुँह से
उत्तरों की थैली में एक दिन
सल्फ़ास रखा मिलता है
***
राजीव ध्यानी 21/ 1043,इंदिरा नगर, लखनऊ- 226016
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