उधार के लोहे और उधार की धार वाली कविताओं के प्रतिरोध शुरू हो ये कविताएं देश और राजनीति में चल रहे दुश्चक्रों के कई नक़ूश दिखाती हैं। इनका प्रथम प्रकाशन जलसा के हाल में चौथे अंक में हुआ है। कवि ने इन्हें अनुनाद के लिए उपलब्ध कराया है।
1.
तानाशाह हत्याओं के हुक्म दे रहा है
कवि के सीने पर दिपदिपा
रहा है पदक
और इस बीच
कविता लिखी
और मारी जा रही है
कहीं और
2.
कहीं और
लोहा निकालनेवाले
और धार चढ़ाने वाले
झुग्गियों और राहत शिविरों में
मलबे की जिंदगी जी रहे हैं
और यहां सफल हो रहा है
दूसरों का लोहा और दूसरों की धार को
अपना हथियार बतानेवाला कवि.
3.
कवि की जनेऊ से बंधी गाय
प्रगतिशीलता का चारा चरती है
और सरोकारों का गोबर करती है
इस बीच
घास काटनेवालों
और फसल उगाने वालों की कविता
लिखी और मारी जा रही है
कहीं और.
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चंदा उगाही
मुल्क छूट जाता है
याद नहीं रहती वह ज़ुबान
भूल जाते हैं उस धरती का नक़्शा
याद रहता है हिंदू होना
याद रह जाती है नफ़रत
याद रह जाता है कि कोई मुसलमान है
उसका हिकारत के काबिल
चेहरा याद रह जाता है.
***
हाशिमपुरा
वे दीवारें कहीं नहीं है
जिनमें लगी चौखटों से वे आख़िरी बार निकाले गए थे
धकेल कर
वे इंसान कभी पैदा नहीं हुए
हाशिमपुरा में
जो मारे गए
या बच गए मारे जाने के लिए
अगली खेप में
हाशिमपुरा जैसी कोई जगह
अभी तक नहीं बसी है
वह नहर भी एक सनक भरी क़िस्सागोई का
एक आख़िरी ब्योरा है
वह शाम कभी हुई ही नहीं
जिसमें धुआं उड़ाता एक पीला ट्रक
कुछ बेहतरीन ज़िंदगियों की आख़िरी गुंजाइशें लिए
रवाना हुआ था
इस दुनिया में कभी नहीं बना
एक भी पीला ट्रक
कुछ भी नहीं है यहां
सिर्फ एक मुल्क है
एक नामौजूद गलाज़त
और ख़ून में डूबा हुआ
कभी इस्तेमाल में नहीं लाए गए
ख़ंज़र की तरह दमकता
मेरे सीने में पैबस्त
और तुम्हारे सीने में।
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लक्ष्मणपुर बाथे
मिट्टी की दीवार पर
खड़िए से लिख गया है कोई
हम अज़दक को लाएंगे
और जन अदालत बैठाएंगे.
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