आप क्या जानो!
मैंने मजदूरों पर कविता लिखी
सोचा
अपने घर चल रहे कमठाणे पर
बरसो पुराने परिचित
ईंटे ढो रहे मजदूर
चिनाई कर रहे कारीगर
जिन्हें मालूम था मैं कवि हूं
और जो बात बात में कहते थे
बाबू जी! आप को कुछ नहीं पता
आप तो कविता लिखो!
जा के सुनाऊं
मुझे सब पता है...
तुम लोग दिन भर काम में पचते हो
दो पैसे कमाते हो
दो रोटी जितना जुगाड़ के बाद
सारे पैसे दारु के ठेके पर उड़ा देते हो
वे हंसे- यही लिखा है कविता में?
यही दिखता है फिल्मो में!
पर क्यूं होता है ऎसा
कभी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की
हमारी कहानियां, कविताएं
आप लोग बहुत लिखते हैं दिखाते हैं
आप क्या जानो!
दिन भर पचने के बाद
हाड़ मांस के इस शरीर को
अगले दिन पचने के लिए
किस किस भट्टी में कैसे तपाते हैं
आप लोग तो सिर्फ दारु देखते, दिखाते हैं
आज तक किसी ने
हमारी ज़िंदगी जीने की कोशिश नहीं
मैं कोई उत्तर नहीं दे पाया
अपनी लिखी कविता बिना सुनाए
उल्टे पांव लौट आया....
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किसका समय...
यह किसका समय है
इस बारे में कोई मतैक्य नहीं
जिससे भी पूछो, बात करो
अपना राग अलापता है
भक्त कहते हैं
हमारा समय है
कारोबारी-दलाल कहते हैं
हमारा समय है
नेता, मंत्री, व्यवस्था कहती है
पूछना क्या है
हमारा समय तो
हर समय रहता है
किसान कहते हैं
हमारा नहीं
केवल कुछ पहुंचे हुए
किसानो का है
मजदूरों से बात करते हैं तो
वे उदास हो जाते हैं
समय हमारा तो कभी था ही नहीं
समय तो यूनियन के नेताओं का है
लिखने- पढ़नेवालो के हाथ भी
समय कभी आया हो, याद नहीं
सिर्फ धर्म, हत्यारे, दंगाई और बाहुबली
और मीडिया वाले कॉलर ऊंचा कर
फड़फड़ाते हैं
समय तो हमेशा ही हमारी मुठ्ठी में था
है, और रहेगा.....
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