‘‘शैलेश मटियानी के उपन्यासों में वैयक्तिक जीवन मूल्य‘‘
वर्तमान समय में व्यक्ति नितांत अकेला होता जा रहा है। परिवार में नहीं भीड़ में भी वह स्वंय को अकेला ही पाता है, अकेलापन उसकी अनिवार्य नियति बनती जा रही है। इसी कारण वह न समाज से जुड़ पा रहा है और न न किसी व्यक्ति से।
आधुनिकताजन्य भौतिक जीवन दृष्टि के कारण व्यक्ति में केवल निराशा और भटकाव ही देखने को मिलता है। वह नितांत स्वार्थी होता जा रहा है। आज व्यक्ति केवल वहीं जुड़ना चाहता है जहाँ से उसे लाभ प्राप्त हो। वर्तमान समय पर व्यक्ति कदम-कदम पर नयी-नयी समस्याओं से जूझता और टूटता दिखाई पड़ रहा है। धर्म, ईमान, सदाचार सभी कुछ बिक रहा है। आज व्यक्ति का हाल यह है कि कोई मूल्यों के टूटने पर दुःखी हैं तो कोई इन्हें तोड़कर।
आजादी पश्चात् हमारे देश में हर क्षेत्र में विकास तो हुआ है या कहा जा सकता है कि देश में खूब तरक्की की है। लेकिन तरक्की के साथ-साथ व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी मानवता को भी खोता जा रहा है। पैसे का भूत व्यक्ति के सिर पर इस कदर हावी होता जा रहा है कि वह सिर्फ अधिक से अधिक धनवान बनना चाहता है। भले ही उसके लिये उसे किसी के घर में डाका डालना पडे़ या खून करना पड़े, इस बात की उसे कोई परवाह नहीं है कि पैसा कमाने के लिये वह पशुत्व स्तर तक नीचे गिरता जा रहा है।
‘उत्तरकांड‘ उपन्यास में तारी मास्टर कहते है‘।
‘‘एक जमाना था, पूरे अल्मोड़ा जिले में जिसमें पिथौरागढ़ भी शामिल हुआ करता था। दस पांच साल में जोरू, जमीन, जायदाद के झगड़े में किसी के मारे गये होने की खबर सुनाई पड़ती थी। आज एकाध खून खराबा इस बिता भर भंैसियाछाना में आम बात हो गयी है‘‘।
पैसा कमाना बुरी बात नहीं है लेकिन नाजायज तरीकों से धन कमाना उचित नहीं कहा जा सकता है, अपने आदर्शों को ताक पर रखकर व्यक्ति भले ही खूब धन कमा ले, लेकिन समाज के लिये वह कभी प्रेरणा स्रोत या मिसाल नहीं बन पाता। समाज में तो वे ही व्यक्ति प्रतिष्ठा पाते हैं जो सच्चाई, ईमानदारी, त्याग की भावना से ओत-प्रोत होते हैं, अपने सद्चरित्र से वे संसार को आलोकित करते हैं।
यह आदर्श‘उत्तरकांड‘ उपन्यास में स्थापित हुआ है।‘
‘उत्तरकांड‘ उपन्यास से पुरूषोत्तम सेठ तरह-तरह से नाजायज धंधों से धन एकत्रित कर धनवान बन गया है। उसकी दूसरी पत्नी के दोनों बेटे भी अपने बाप के नक्शे कदम पर चलकर पतन की ओर अग्रसर हो चुके हैं, जबकि पहली पत्नी का बेटा अपनी अच्छाइयों के कारण पूरे गांव में प्रशंसा का पात्र बना हुआ हैं, अपने कर्मों के बल पर मानव उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।‘‘
त्याग की भावना ही व्यक्ति को मनुष्यता के ऊंचे शिखर पर आसीन करवाती है। भारतीय समाज में औरत में यह त्याग की भावना अधिक देखी गयी है। घर परिवार की खुशी के लिये औरत बढ़े से बढ़ा त्याग करने के लिये तत्पर रहती है। भले ही त्याग करने में उसकी उपेक्षा क्यों न हो।
‘उत्तरकांड‘ उपन्यास में पुरूषोत्तर सेठ अपनी पत्नी के त्याग के समक्ष नतमस्तक हो उठते है। जिसने दो बेटे और दो दो बेटियों के रहते स्वंय का शरीर छीजने पर पति को दूसरी पत्नी ले आने के लिये प्रेरित किया, ताकि पति को पत्नी की कमी महसूस न हो, दूसरी पत्नी के बेटे पर भी उसने अपने बच्चों से अधिक ममता न्यौछावर की‘‘।
वर्तमान समय में व्यक्ति किस तरह अपनी मानवता को खोकर हैवान बनता जा रहा है। इसे‘उत्तरकांड‘ उपन्यास में देखा जा सकता है। शहर जाते हुये प्रेमराम की बुलेट से दबकर एक कुत्ते के पिल्ले की मौत हो जाती है, लेकिन फिर भी उसे तनिक भी पश्चाताप नहीं होता वह अपनी पत्नी से कहता है।
‘‘हर काम के उसूल होने वाले ठहरे, डियर! ड्राइवरी का उसूल ये ठहरा कि अगर कुत्ता रास्ते में आ जाये, तो उसे बचाने के चक्कर में गाड़ी को इधर-उधर निकालने की कोशिश हर्गिस मत करो‘‘।
जानवर मरता है तो मरे, लेकिन व्यक्ति के उसूल न टूटे, अपने मनोरंजन के लिए कैसे व्यक्ति जानवर के प्राण ले लेता है, इस कटु यथार्थ को उपन्यास में दर्शाया गया है।
आदर्श अध्यापक कैसे छात्रों के लिये प्रेरणा स्त्रोत बना जाते हैं इसे‘नागवल्लरी‘ उपन्यास में देखा जा सकता है। जिस प्रकार अंधकार में दीपक की लौ प्रकाश फैला देती है, वैसे ही आदर्श गुरू का मार्गदर्शन छात्र के जीवन को आलोकित करता रहता हैं, ‘नागवल्लरी‘ उपन्यास में आदर्शवादी कृष्ण मास्टर को पग-पग पर अपने गुरूओं की स्मृति हो आती है, जिनके दिखाये रास्ते पर चलकर ही कृष्ण मास्टर स्वंय भी बच्चों के आदर्श अध्यापक बन पाये हैं। अपने गुरू द्वारा छात्रों के विषय में कहीं मूल्यवान बातों के सम्बन्ध में कृष्ण मास्टर मथुरादत्त भट्ट जी से कहते हैं।
‘‘मुझे जोशी गुरूजी की यह बात भी बहुत मूल्यवान लगती है कि ज्ञान का बीज विद्यार्थियों में, जैसे किसान समर्पण भाव से बीज बोता हैं, बोते ही जाओ, किसमें उगेगा, किसमें नहीं यह चिन्ता छोड़ो, उगता है तो परमात्मा को श्रेय दो, नहीं उगता है तो अपने को दोष दो, जैसे पुत्र के प्रति पिता, वैसे ही छात्रों के प्रति अध्यापक जिम्मेदार होता है‘‘।
अध्यापक को पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करनी चाहिये, उसका व्यवहार सभी छात्रों के साथ एक समान होना चाहिये। छात्र यदि अपने कर्म के प्रति लापरवाही बरतता है तो इसका दोष उसे नहीं दिया जा सकता, इसके लिये कहीं न कहीं अध्यापक ही दोषी होता है।‘‘
‘‘नागवल्लरी‘ उपन्यास में कृष्ण मास्टर अपने छात्र-नारायण से कहते हैं‘‘सच्चाई और अच्छाई के संघर्ष में सहना होता है। उन सारी तकलीफों को जो इनको समाज में बरतने से सामने आती है। जो लोग तकलीफों और मुसीबतों के डरकर सच्चाई और अच्छाई बरतना छोड़ देते हैं, सच्चाई उन्हें ऐस ही छोड़कर चली जाती है। जैसे जमीन पर गिरे पेड की पक्षी छोड़ देते हैं।’’
वर्तमान समय में व्यक्ति की स्वार्थपरता उस पर इस कदर हावी होती जा रही है कि वह सिर्फ अपने ही स्वार्थों की पूर्ति के नये-नये तरीके खोजने में लगता रहता है। अपनी उदरपूर्ति तो पशु भी कर लेता है। लेकिन दूसरों के लिये व्यक्ति ही सोच सकता है। इस संबंध में‘नागवल्लरी‘ उपन्यास में कृष्ण मास्टर कहते है-
‘‘सबसे बड़ी चीज होती है अपने भीतर इस अहसास का जागना कि हमें जीवन में कुछ करना हैं, कुछ ऐसा, जो दूसरों के काम आये, पहले तो बहुत से लोग धन भी इसी भावना से जोड़ते थे, अब ज्ञान भी सिर्फ अपने लिये रखना चाहते हैं- सिर्फ अपने इस्तेमाल के लिये‘‘।
कोई अगर कहे कि सारा समाज ही भ्रष्टाचार में डूबा हैं, हम स्वंय को कैसे बचा सकते है, तो इसे सिर्फ हास्यापद ही माना जायेगा, क्योंकि यदि व्यक्ति चाहे तो अपने आदर्शों पर अडिग रहा सकता है।
‘नागवल्लरी‘ उपन्यास में मथुरादास भट्ट जी के कहने पर कि -
‘‘कोई आदर्श रखकर चलना भी चाहे तो अधिक दूर तक निभने की गुंजाइश कहा है?
कृष्ण मास्टर कहते हैं-
‘‘हम अपने विषाद को कम करने के लिये भले ही कहे कि अब वह पुराना वक्त कहां, मगर आदमी तो आखिर आदमी है ----
‘‘नागवल्लरी उपन्यास में नारायण को अपने प्रेरणास्रोत अध्यापक कृष्ण मास्टर की स्मृति हो आयी। जिन्होंने अपने अमृत वचनों से सदैव नारायण को नेक इंसान बनने के लिये प्रोत्साहित किया है।
‘‘आस्था हर परिस्थिति में शरीर में रक्त की तरह बहती है। आस्था से ही आदमी तुच्छता में से उबरकर बड़ा बनता है, यह सबक उसके कानों में कृष्णा मास्टर ने ही तो डाला है।
हमारे समाज में धीरे-धीरे इतनी विकृतियाँ आ रही हैं। कि व्यक्ति अपनी इंसानियत खोता जा रहा है, ऐसे व्यक्ति विरले ही देखने को मिलते हैं, जिसमें इंसानियत देखी जा सकती हैं, वर्तमान समय की इस स्थ्तिि की यथार्थता पर छोटे-छोटे पक्षी उपन्यास में रिक्शेवाला प्रकाश डालते हुए कहा रहा है कि -
‘‘यह बात वैसे बहुत पुरानी सी पड़ गयी है सरकार! आज का तो वक्त ही ऐसा आ गया है कि जितना इंसान बदी करने मेें नहीं झिझकाता, उससे ज्यादा नेकी को सिर्फ बताते हुए ही डरता है‘‘।
समाज में जहाँ एक ओर स्वार्थी, लोभग्रस्त व्यक्ति होते है, वहीं दूसरी ओर परोपकारी निःस्वार्थी लोगों की भी कमी नहीं है, जो अन्जाने में भी किसी का बुरा न हीं करना चाहते।‘छोटे-छोटे पक्षी‘ उपन्यास में सतीश से सामान्य परिचय होने के बावजूद मुल्कराज दम्पत्ति, घर से भागकर प्रेम विवाह करने दिल्ली आये, सतीश और दीक्षा के साथ आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करने के साथ ही उन्हें आश्रय के भी देते है।
‘‘अब यह सोचकर ही डर लगता है कि कहीं बाहर ही न निकली होती, या देखकर भी चले जाने देती, तो कितना बड़ा पाप हो गया होता, वापस लौटते हुये सिर्फ इतना ही नहीं होता कि तुम लोग ज्यादा परेशान और ज्यादा दुःखी होते दुःख और मुसीबत से ज्यादा आदमी को इस बात का अहसास तोड़ता है कि उसकी तकलीफों से दूसरों का कोई वास्ता नहीं है।‘‘
जिस व्यक्ति को ममता नहीं मिलती या जो ममता प्राप्त करने से वंचित रह जाता हैं उस व्यक्ति में निश्चित ही कहीं न कहीं पाश्विक वृत्तियां आ जाती है। ममता मूल्य के महत्व के सबंध में‘भागे हुये लोग‘ उपन्यास विघ्नेश्वर बाबा कहता है-
‘‘मनुष्य जाति को मर्यादित और पाश्विक वृत्तियां को अनुशासित कर सकने वाली अगर कोई शक्ति है तो यह सिर्फ ममता है‘‘ संघर्ष मनुष्य जीवन की एक अनिवार्यता है बिना संधर्ष के व्यक्ति कभी कुछ नहीं पा सकता है। इसलिये व्यक्ति को संघर्ष से घबराना या मुंह नहीं मोड़ना चाहिये, यह आदर्श‘बोरीबली से बोरी बंदर तक‘ उपन्यास में देखा जा सकता है। वीरेन्द्र ठाकुर सोचता है-
‘‘हर फूल महकना चाहता है-- हर इंसान जीना चाहता है -- हर जिन्दगी मुस्कुराना महकना चाहती है-- फूल की महक कांटो की चाहरदीवारी लांघने पर उपलब्ध होती है-- प्यार की महक जीवन में गतिरोधों की चाहरदीवारी लांधने पर ही मिलनी संभव है-- कांटो से परे फूल का, संघर्ष से परे जीवन का कोई मूल्य शाश्वत नहीं है‘‘।
निष्कर्ष रूप में कहां जा सकता है कि मटियानी जी ने अपने उपन्यासों, कहानियों व अन्य साहित्य में यथार्थ को प्रतिष्ठित करने का सफल प्रयास किया है। समाज में वैयक्तिक मूल्यों की जो स्थिति उनके समय में रही है। उसी को उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर अपने साहित्य में उभारा है। परम्परागत भारतीय मूल्यों के विघटन के साथ ही शाश्वत मूल्यों के हास की स्थिति भी मटियानी साहित्य में देखने को मिलती है। भौतिक समृद्धि के लिये लालपित व्यक्ति धीरे-धीरे अच्छे बुरे का विचार ही खोता जा रहा है। मूल्य परिवर्तन तथा मूल्य विघटन की जो स्थिति समाज में कायम है उसका यथार्थ चित्रण मटियानी जी ने अपने साहित्य में किया है, व्यक्ति अपने आदर्शो के कारण ही महान बनता है, कोई महात्माओं का उदाहरण देकर आदर्शवादी व्यक्ति बनने के लिये भी साहित्य के जरिये मटियानी जी ने पाठकों को प्रोत्साहित किया है, वैयक्तिक मूल्यों की रक्षा के लिये ही अपने हितों का बलिदान करने वालें लोगों का जिक्र भी मटियानी जी ने अपने साहित्य में किया है। परिस्थितियों के बीच पिसते विवश मानव की पीड़ा को साहित्य के माध्यम से जनसाधरण तक पहुंचाना ही मटियानी जी का प्रमुख उदेद्श्य रहा है।
मीरा चौरसिया
प्रवक्ता हिन्दी
चमन लाल महाविद्यालय, हरिद्वार
मो0- 8864821223