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रामजी तिवारी की कविताएं

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मैं ब्‍लागपत्रिकाओं में लगातार रामजी तिवारी की कविताएं पढ़ता रहा हूं। उनकी कविताओं में बोली-बानी अलग है...ठेठ देशज संस्‍कार वाली। उनमें ईश्‍वर और मिथक-पुराणों का स्‍वीकार-अस्‍वीकार भी देशज ही है, लेकिन उनके सरोकार अलग नहीं हैं - उनमें भूमंडल की दुर्नितियों से लड़ने का पूरा माद्दा है। ये कविताएं कहीं न कहीं हिंदी कविता की प्रगतिशील परम्‍परा से जुड़ती हैं और नए संकटों को समझते हुए उनका प्रत्‍याख्‍यान रचती हैं। अपने समाज और उसके बदलावों की समझ इन कविताओं में भरपूर है। रामजी तिवारी सिताब दियारानाम से एक लोकप्रिय ब्‍लाग का भी संचालन करते हैं। इन कविताओं के लिए शुक्रिया कहते हुए मैं अनुनाद पर उनके आगमन का स्‍वागत करता हूं।
रामजी तिवारी
***

रेडीमेड युग की पीढ़ी

धन,सत्ता और ऐश्वर्य के पीठ पर बैठी
कुलाँचे भरती इस बदहवास दुनिया में
किसके पास है वक्त
जानने,समझने और सोचने का
कौन रखता है आजकल ज़मीन पर पांव ,
जहाँ विचार बुलबुले की तरह
   उठते और बिला जाते हैं
   कैसे बन सकती है कोई धारा
   खेयी जा सके जिसके सहारे
   इस सभ्यता की नाव  |

   रेडीमेड युग की यह पीढ़ी
   रोटी और भात की जगह
   पिज्जा और बर्गर भकोसती ,
   बेमतलब की माथापच्ची को बिलकुल नहीं सोचती |
   कि क्यों जब खनकती हैं जेबें
   मैकडोनाल्ड और हल्दीराम की ,
   उसी समय चनकती है किस्मत
   रेंड़ी जैसे किसान की |

   रेमंड के शो रूम में गालों से
   सूतों की मुलायमियत मापने वाले दिमाग़
   नहीं रखते इस समझ के खाने ,
   व्यवस्था यदि उकडू बैठी हो तो
   इतने महीन और मुलायम धागों पर भी
   टांग सकते हैं लाखों अवाम
   अपने जीवन के अफ़साने |

कंक्रीट के जंगलों में रहते हुए
आश्चर्य नहीं वह यह कहने लगे ,
उगाते हैं लोहे को टाटा , सीमेंट को बिड़ला
घरों को बिल्डर , ऐसी ही माला जपने लगे |

उत्पाद है यह के.बी.सी. युग की
विकल्पों से करोड़पति बनने का देखती है सपना
श्रम तो बस मन बहलाता है ,
इस प्रश्न के लिए भी भले ही
लेनी पड़ती है उसे ‘विशेषज्ञ सलाह’
पिता की बहन से उसका रिश्ता क्या कहलाता है |

नैतिक विधानों को ठेंगे पर रखती हुई
नाचती रहती है प्रतिपल
ज्योतिषी की अनैतिक उँगलियों पर
नहीं हिचकती करने से कोई पाप ,
कोसती ग्रह नक्षत्रों की चाल को
किसी तरह काबू में करने को उतावली
अकबकाई गिरती है ढोंगियों के आँगन में
‘इसी मुहूर्त में चाहिए सवा करोड़ जाप ’ |

रेडीमेड युग के घाघ निकालते हैं ‘स्टाक’ से माल
‘बच्चा जब भी ज़रुरत हो आना’ ,
बानर की तरह घूरते – बुदबुदाते
बैठे चेलों की कतारों को दिखाते हुए
‘अरबों- खरबों जापों का रेडीमेड है ख़ज़ाना’ |

हम पौधों के साथ बीजों को संजोने वाले ,
डरते हैं देखकर संचालकों के करतब निराले |
कि इनके जीवन का रेडीमेड
जो इतनी आपाधापी में चलता जाए ,
कहीं इनके हमारे साथ - साथ 
इस सभ्यता के अंत पर भी लागू न हो जाए |
***

कल्पित सिद्धान्तों का भ्रम

उँगलियों को थामें शनि गुरू लगायत मंगल,
सुनहले पालने में लाकेट बन झूलते त्रिपुरारी
रोज लड़ते हैं उसके लिए दंगल |
रक्षासूत्र बन कलाईयों पर लिपटे
सत्यनारायण भगवान ,
मोबाइल में वाल पेपर बन
चीरते हैं सीना पवनसुत हनुमान ,
और बजते हैं फोन आने की धुन में
ओम् साईं , ओम् साईं, ओम् साईं राम |     
सुबह का बिलानागा एकघण्टा
धरती के गर्भ से पूजाघर में कैद
देवताओं के लिए ,
वों दौड़ता है नंगे पांव प्रतिवर्ष दरबार में
वैष्णवी जैसी माताओं के लिए |
प्रत्येक सावन में अखण्ड हरिनाम जाप ,
पूर्णाहुति पर होती है कथा
सब माया है , कैसा शोक ? कैसा संताप ...?

ये तो चन्द उदाहरण भर हैं
उसकी अगाध आस्था को देखने-सुनने के
पकड़ पाया मैं मतिमंद जिसे आधे-आधे में ,
हरि से जुड़े रहने की यह कथा
लगती अनन्त है हरि जितनी ही
अभिवादन का जवाब भी जब वह
देता है राधे-राधेमें |
तो कौन मानेगा कि जाँत रखकर
समाज की छाती पर प्रतिपल
यह मूंग भी दलता होगा ,
करता होगा ताण्डव नृत्य उसके कपाल पर
धन सत्ता और ऐश्वर्य के शिखर को चूमने के लिए
नैतिकताओं को चुटकियों से मसलता होगा |

अरे ठहरो ....!
भ्रम में वह नहीं हम हैं ,
कि होते हैं घटित कल्पित सिद्धांत भी
कार्यकारण और कर्मफल जैसे
जबकि जानता है जगत
बात बिलकुल बेदम है |
तभी तो इतने सारे ईश्वर भी मिलकर
नहीं बना सकते उसे एक अदना सा इन्सान ,
और न ही तमाम धर्मग्रन्थों में
बिन्दुओं की औकात रखने वाले
आतताइयों जितना ही
निर्धारित कर सकते हैं उसके लिए
कोई भी दण्ड विधान |                                                   
*** 

बिजूका

अपने कोने-अँतरों से निकलकर
वे पहुँचे थे मन्त्रों और
मुहावरों वाली दुनिया में हमारी ,
सामना हुआ उनका
हमारे समय की चमकती चीजों से
निकली आह ..! लम्बे शोध के बाद
यह कैसी दुनिया है तुम्हारी ..?

है यह एक जुआखाना ,
जिसने एक बार खेला लत लग गयी
लाख समझाता रहे जमाना |
और परिणाम तो पता ही था
दो चार की जीत , अधिकांश की हार
परन्तु हारने वाले इस आशा में
कि यह नहीं तो अगली
या इस नहीं तो उस जनम में
करेंगे जरूर बाजी का दीदार |

और डाकू
लगा दिया कनपटी पर आस्था का तमंचा
खत्म हुआ सोचना ,
उतरवा लिया दिल में रखी आत्मा
मस्तिष्क में रखा विवेक
और जेहन में रखी चेतना |

और पुजारियों का कर्जदार
जो हो चुका है अब कंगाल
लोगों से लेकर इनका उतार रहा है
पता नहीं उनकी इच्छा का कब रखेगा ख़याल ?

और दुनिया का सबसे बड़ा नियोजक
लघु कुटीर और भारी उद्योगों को
एक साथ संचालित करता जाए ,
मुनाफे की सुनिश्चित गांरटी जिसमे
और भविष्य में अपार सम्भावनाएँ |

और धोबी घाट
जहाँ कोई भी आततायी
अपने ऊपर लगे खून के धब्बे को
एक कथा सुनने का ढोंगकर धो डाले ,
कैसा पाप ? कैसा पुण्य ..?
वह अगली हत्या की निरापदता का
आशीर्वाद भी पा ले।

और प्रदर्शनी
जहाँ कोई भी मदान्ध आकर
अपने ऐश्वर्य का नंगा नाच कर जाए ,
कहलाने लगे वही दानवीर
जो चन्द मुहरों का तमाचा जड़ जाए |

और बिल्डरों का लठैत
जो सार्वजनिक स्थलों को कब्जियाता है ,
और पूरा गांव मोहल्ला
किसी बहरे की सनक का शिकार बन
सारी रात तारे गिना किरता है |

भनक लगी हमारी दुनिया को
मिला जब शोध पत्र
औरकी श्रृंखलाओं वाला ,
सब हँसे उन पर
चरितार्थ हुआ किस्सा
अन्धों के गाँव में हाथी वाला |

“तो क्या यह तुम्हारा आराध्य है ?”
वे ठठाकर हँसे
“ये तुम्हारा साध्य है ?”
चारे को बंशी में नाथने से
फँस तो सकती है मछलियाँ ,
माटी को उर्वर नहीं बनाया जा सकता
जानती समझती है दुनिया |
उसी तरह आत्मा से खदेड़कर
मूर्तियों में बिठाया गया ईश्वर
संभव है मुनीमगिरी जमा ले ,
परन्तु अशरफियों को गिनने वाली उँगलियाँ
नहीं रह पाती इतनी ताकतवर
गोवर्धन को उठाकर वे ईश्वर का दर्जा पा ले |

अपने फैलते जा रहे पेट को भरने के लिए तुम
समाज के खेत में धोखे की फसल उगाते हो ,
काटते हो सुविधानुसार
और उसी का गीत गाते हो |
सब जानते हैं जिसकी रखवाली में तुमने
एक बिजूका गढा है ,
इन लहलहाती फसलों के बीच जो
आराध्य के नाम से
तुम्हारी चाकरी में खड़ा है |
***

शिशु खारिज
(ब्रेख्त को याद करते हुए)
                                   
सबसे पहले वे                         
मेरी कविता के लिए आये ,
यह सोचकर कि कोई आत्ममुग्ध ना कह दे
मैंने आदर किया          
उनके लिए आसन भी बिछाए   |

फिर वे
कविता की विधा के लिए आये ,
मैं एक खारिज आदमी
उन्हें रोकने में कितना दाखिल हो सकता था
कोई मुझे बतलाये  ?

और फिर
उनके हाथों का खारिजी फन्दा
साहित्य की गर्दन पर कसता रहा ,
मैं बेबस सिवान बदर
डँडार पर खड़ा पैमाईश देखता रहा |

अब काम पूरा हुआ समझना
मेरी भूल थी ,
उनके खारिजी अश्वमेघ का घोड़ा
सारी रचनात्मक विधाओं को
एक-एक कर रौंदता रहा
चहुंदिस गुबार था, धूल थी |

   सोचता हूँ
   उस ‘शिशु ख़ारिज़’ के सामने
   तन कर खड़ा हो गया होता ,
   तो उसी पल उसी जगह
   वही ख़ारिज़ हो गया होता   |
***

तैयारी

राम हों या मोहम्मद
ईसा हों या बुद्ध
जीवन तो सबके साथ ऐय्यारी करता रहा ,
इम्तिहान भी सबका होता है इस पाठशाला में
इसलिए वह सदा तैयारी करता रहा  |

चहुँदिस उठता कोलाहल
कैसे पहुँचे उस तक कोई पुकार ,
निकालता खोंट कानों से , क्या पता
साथी ने लगाई हो आवाज , उसे डूबते हुए मजधार |

व्यवस्था के साथ सड़ने लगे हैं विचार भी
बची कौन सी जगह जो न बजबजाती हो ,
सोचकर छिनकता है नाकों को
आये तो पकड़ में वह दिशा
आदमियत की गन्ध जिधर से आती हो  |

जाँगर के पसीने से बहाता मैल को
इस त्वचा को जिसने जकड़ी है ,
जान सके अँधेरे में भी वह
वैतरणी पार करने के लिए उसने
गदहे या गाय की पूंछ पकड़ी है |

क्यों टपकाए लार
हर आती जातियों पर
सोचकर पर - दुखों से उसे मिलाता है ,
उतरता रहे अमृत का स्वाद
जीभ से होकर आत्मा तक
रास्ता सबको वह दिखाता है |

किसी भी आँधी से पैदा हुई धूल को
अपनी आँखों के पानी से साफ करते रहने की ,
सो सके निश्चिंत होकर वह
इनमे तैर सकेंगे अब
पुतलियों के साथ-साथ समाज के सपने भी |

अन्यथा वह तो जानता ही था
कि काई लगी इन्द्रियाँ
जीवन की परीक्षा में पूछे गये प्रश्नों को
समझ तक नहीं जायेंगी ,
और घण्टी बजने की आपाधापी में
आत्मा के पन्नों पर
माफ़ीनामा की इबारत लिख आयेंगी |

फिर कापी जाँचनेवाले
उस दयालु परीक्षक के पास देने को
सिफर के अलावा कौन सा अंक बचेगा ?,
और उसके अँधेरे समय पर इतिहास
चाहकर भी कितना उजाला रचेगा   ?...
***

नाम -  रामजी तिवारी 
शिक्षा -  स्नातकोत्तर (राजनीति विज्ञान)
सम्प्रति- भा.जी.वी.निगम में कार्यरत 
प्रतिष्ठितपत्र-पत्रिकाओ में
कविताएं ,कहानियां ,समीक्षाए और लेखप्रकाशित..
मो. न. 09450546312         
ब्लाग- sitabdiyara.blogspot.in 



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