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हेमा दीक्षित की कविताएं

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अपने लिए

तुम्हारे घर की
तिमंजिली खिडकी से
कूदती है और रोज भाग जाती है
छिली कोहनियों और फूटे घुटनों वाली औरत
ढूंढती है नीम का पेड़
और झूलती है
जीवन-जौरिया पर
ऊँची पेंगो का झूला
नीले आसमान में उड़ते
आवारा बादलों को
मारती है एक करारी लात
गूंजती फिरती है
सूफियो के राग सी
तुम्हारी पंचायतो के ऊसरों पर
खेलती है छुपम-छुपाई
हाँफती है थकती है
किसी खेत की मेंड़ पर बैठ
गंदले पानी से धोती है
अपने सिर माथे रखी
लाल स्याही की तरमीमें
फिर बड़े जतन से
चुन-चुन कर निकालती है
कलेजे की कब्रगाह में गड़ी
छिनाल की फाँसे
सहिताती है
तुम्हारे अँधेरे सीले भंडारगृह से निकली
जर्दायी देह को दिखाती है धूप
साँसों की भिंची मुट्ठियों में
भरती है हवा के कुछ घूँट
मुँहजोर सख्तजान है
फिर-फिर लौटती है
तुम्हारे घर
कुटती है पिटती है
मुस्काती है
और बोती है तुम्हारे ही आँगन में
अपने लिए
मंगलसूत्र के काले दाने
लगाती है तुम्हारे ही द्वार पर
अपने लिए
अयपन और टिकुली के दिठौने .....
*** 

बेशीर्षक

चलो ...

बंद आँखों के मध्य
इस लहूलुहान
समय से परे
और तुम्हारी
रीत-नीत की
उठी  तनी तर्जनी
की इंगित राहों की
उम्मीदों के पेट से
बिल्कुल ही धुर विपरीत ...

इसी  काले शून्य से ...

दूर कहीं ...
बहुत दूर ...

अग्नि  के पन्नों पर
उड़ा जाए ...

पीले  आसमान  के
मसले और मरे हुए गालों के
बस थोडा सा
ऊपर  ...

अँधेरे की चौहद्दी  के
माथे के ठीक बीचोबीच ...

भिंची मुट्ठियों के
अपने सूरज में
उगा जाए ...
***

यूं ही बस कुछ ऐसे ही 

ये लच्छमी की तो आदत पड़ गई है
उल्लू पे बैठे रहने की ...
दिन में अंधे निशाचरी
पंजो के भरोसे ... हवा में
उलटे टंगे रहने की ...
बेढब रहनी ... उलटसिर बेआधार ...
किसी भी कोने पे टिकती .... झूलती ...
झूलेलाल की पक्की मुरीद ....
खुली आँखों से ... दिन-दिन भर ...
मुटठी भर-भर उजाले खाती है ...
पर पेट की जरा कच्ची ही है .... भुक्खड़ कहीं की ....
अँधेरे में ... इसका जिन्दा पेट मचलता है ....
आँतों की साँसे कराहती है ... गहरी आहें भरती है ...
तब जा कर ... कहीं निकलती है इसकी ...
फ़िसलपट्ट , उलूकउड़ान ...
और घुप्प गहरे जले अंधेरो में ... फिर-फिर खाने को मांगती है ...
उजाले ... और बस उजाले ...
अरी नामुराद ... अब बंद भी कर माँगना ...
और उलटे तवे पर ... रोटियाँ पकाना ...
अपने लेखे का भारी गठ्ठर बाँधे घिसटती है ...
करमजली ... सुन ... तू अँधेरे ही क्यों नहीं खा जाती ...
यह निगाहें तेरी ही है ... जो पसारती है अपने ... खोजी हाथ-पाँव ...
फैलाती है ... बहेलिये सा ... बारीक बुना अपना जाल ...
निगाहें ही है ... जो फेंकती है उनके नीचे ... दानो के अपने ही दाँव ...
लक्षित के याचित ...
सोंधे गंध पंछी ...
माटी से आसमान तक ...
हिलोर मारते है ...
यह निगाहें तेरी ही है ...
जो सोये प्रहरियों को धकियाती है ...
उनींदी आँखों में ...
जागते रहो-जागते रहो की ...
फुसफुसाहटों के ...
छींटे मार आती है ...
यूँही बस कुछ ऐसे ही ...
जिंदगी की हथेली में ...
अपनी मर्जी की ...
एक लकीर खींच आती है ...
सुनो लच्छमी ...
बस ऐसे ही ...
आदतें भी ... बदल ही जाती है ...
*** 

लेखा-जोखा

अंदर
दृश्य में है बहुत दिनों से
घुमावदार खेतों की पहाड़ी सीढियां
खिला हुआ है वहाँ
बोझ-सा
नाज़ुक फूल चेहरा
माथे पर अटकी हैं
तड़प बूंदें

दूर बहुत दूर
खारिज हो गये है
किसी के नन्हे-नन्हे जीवन ख़्वाब
जिनकी श्वासहीन
छाया का मटमैलापन
देता है मुझको
जहाँ-तहाँ , हर कहीं
नीले-नीले त्रास

क्यों आश्वस्त थी मैं
सुखो के प्रति
मुस्कुराते संबंधो के प्रति
सिर्फ कल्पना का लेखा-जोखा
क्यों सखी क्यों

प्रारंभ में ही सुनने के पश्चात
युद्ध की पदचाप
लेन-देनक्यों नहीं दिखी
तेरी कुटिल अल्पना

पता था मुझे
कि ऐसा ही होना है
और दूर देश से
उड़ आए बादलों को
रोना ही रोना है

सिर्फ़ ऐसा ही होना है
कि बिना रोये
बगैर मसले अपनी अँधेरी आँख भी
आएगी - धारदार जल की
तेज़-तेज़ आवाज़

और खड़ा रहेगा
चुपचाप-चुपचाप
अपनी ही बाहों में
अपने को भींचता
चुकाई गई कीमत का दर्द

चुपचाप ,
ख़ामोश बेहद ख़ामोश
उसके लिए नहीं है ना
कथ्यों के सधे हुए
तने हुए तुर्रे
क्योंकि उसके आसमान में
भाषाओं का ताप
कतरा कर
हां - कन्नी ही तो काट कर
उतर गया है
शून्य से अगणित नीचे के मान

अजीब कही-सुनी
पढ़ी-लिखी स्वरहीनता

मोह नहीं सखी मोह नहीं
रटाये गये
लहू में घोले गये
कुसंस्कारों का दबाव

इतना भारी भार
सब कुछ सूनसान
बिना नेह कैसे सुलझेंगे ,
उलझे - घुँघर वाले बाल

तुम्हारी सखी , अपनी सखी
खाली हूँ अंतर से और बाहर से
प्रारंभ है यहाँ से
विचरण यात्रा सवालों में
जिनकी गूंज और अनगूंज
पलटती रहती है
अनकहे दर्द के - स्याह पृष्ठ
                                                     
किसी दिन तो मिलेगा
उत्तरयात्रा का कोई मार्ग .....
***

हरी हो, मनभरी हो 

पीतल की मज़बूत - खूब मज़बूत
खल्लर में डाल कर
कुटनी से कूटी जायेगी ...
ख़ूबसूरत गठीली ...
छोटी इलायची...
नुकीले संवरे नाखूनों से
छील ही डाला जाएगा ...
उसका नन्हा चोला ...
कचरे का डिब्बा
या खौलता पानी
या सिलबट्टे की खुथरी बटन है
उसके हरैले ताजे़ चोले का ठिकाना ...
हाथ में हाथ फँसाये...
गलबहियाँ डाले
सारे बचुआ दाने ...
छिटका दिये जायेंगे ...
बरसायी जायेंगी
बेमौसम की मारें ...
क्या फर्क है ...
अश्रु गैस के हों हठीले गोले ...
या हों बेशर्म उतरे हुए
पानियों की मोटी पैनी धारें ...
कूट-कूट कर पीसी जायेगी ...
बारीक ,चिकनी खूब ही चिकनी ,
और जबर खुशबूदार ...
अरी ...!!! पग्गल ...!!!
काहे का रोना ...
काहे का कलपना ...
सारा कसूर
तेरे चोले में छिपी
तेरी ही महक का है ...
***

२१ जुलाई को कानपुर में जन्मी हेमा दीक्षित कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक हैं. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रुचि.  बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती हैमें  कविताओं का प्रकाशन. यहां प्रकाशित कविताएं भी इसी स्‍वर की कविताएं हैं.

विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'की सहायक संपादिका. नव्या ई पत्रिका, खरी न्यूज ई पत्रिका, पहली बार ब्लॉग, आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल ब्लॉग, कुछ मेरी नज़र से ब्लॉग एवं फर्गुदिया ब्लॉग पर कविताएं प्रकाशित.पहली रचना ‘दिवास्वप्न’ कानपुर से निकलने वाली पत्रिका ‘अंजुरी’ में १९९४ में प्रकाशित. हाल ही में ‘कथादेश’ के जनवरी २०१३ के अंक में कविताएँ प्रकाशित.

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