निदा नवाज़ की कुछ कविताएं मुझे जम्मू-कश्मीर के कवियों के अनुनाद के प्रकाशन के सिलसिले में मिलीं, जो कमल जीत चौधरी की कविताओं से अनुनाद पर अनायास ही शुरू हुआ है। मैंने उनमें कुछ को प्रकाशन के लिए चुना है। मैंने पाया कि निदा का स्वर अकसर ही बहुत वाचाल हो जाता है पर जम्मू-कश्मीर के हालात देखते हुए ऐसा होना सहज लगता है। वे एक मुखर प्रतिरोध का कथ्य सम्भव करते हैं पर शिल्प का सधाव और सम्भाल उनके पास कम है - सम्भवत: यह यथार्थ को व्यक्त करने की विवशता है। कविता एक सामाजिक कला है और इस कला के भीतर अपने जनों के पक्ष में बोलते हुए कुछ परिष्कार अभी निदा जी को करना होगा, यह मुझे इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा। उनके खाते में साहित्यिक उपलब्धियां बहुत हैं, जो निश्चित रूप से एक स्वागतयोग्य बात है। अनुनाद भी निदा की कविताओं का स्वागत करते हुए पाठकों को प्रतिक्रिया के लिए आमंत्रित करता है।
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यथार्थ की धरा पर...
(एक बिहारी मज़दूरन को देख कर)
उसका चेहरा नहीं था कोमल फूल
बल्कि था आग की भट्टी में
तप रहा लाल लोहा
जिस पर था लिखा
एक अनाम दहकता विद्रोह .
उसके चेहरे पर रिस आयी
पसीने की बूंदें
न थी किसी फूल की पत्ती पर
चमकती हुई ओस
बल्कि थीं श्रम की आंच से
उभल आयी सीसे की लहरें
उसकी आँखें नहीं थीं स्वप्निल
बल्कि थीं
एक तख्ती की तरह सपाट
जिन पर जीवन की इबारतें
अनिश्चितता की भाषा में नहीं
स्पष्ट तौर पर लिखी हुई थीं .
उसके बाल नहीं थे मुलायम
बल्कि थे उलझे हुए
उसके ही जीवन की तरह
जिन से नही बुना जा सकता था
कोई काल्पनिक स्वप्न
लेकिन उन में मौजूद थे
सभी खुश-रंग धागे
यथार्थ बुनने के लिए .
उसके मैले कुचेले ब्लाउज़ में से
नहीं झाँकतीं थीं
संगमरमर की दो मेहराबें
और न ही दो पक्के हुए अनार
बल्कि थी वह
एक सागर-ए-दिल के क्षितिज पर बैठी
सहमी ,बेघर हुई ,बारिश से भीगी
अधेड़ उमर की एक कबूतर जोड़ी
जिसने अपने सिर
अपने मट-मैले पंखों में
छुपा लिए थे .
उसके हाथ नहीं थे दूधिया
बल्कि थे मकानिकी
सीमेंट और रोड़ी को मिलाने वाले
जीवन को एक आधार बख्शने वाले .
और उसके पाँव में
नहीं थी कोई पायल
बल्कि थे ज़ंग लगे लोहे के
दो गोल टुकड़े
जैसे कोई अफ़्रीकी ग़ुलाम
जंजीरें तोड़ कर भाग गया था
मगर वह भाग नहीं रही थी
बल्कि वह यथार्थ की धरा पर
जीवन-साम्राज्य के समक्ष खड़ी थी
जीवन की ज्वालामुखी-आँखों में
अपनी लाल आँखें डाल कर .
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वह मिलती है
वह मिलती है
अल्ट्रा सोनोग्रफिक स्क्रीन पर
माँ के गर्भ में दुबकी
अंजाने डर से सहमी
एक डाक्टर को हत्यारे के रूप में
देखती हुई
वह मिलती है
स्कूल के आंगन में
मासूम सी मुस्कान
और तितली सी पहचान लिए
भविष्य के छोर की ओर दोड़ती
सामने वाली खाई से बेपरवाह
छोटी-छोटी गोल-गोल
आँखों में
ढेर सारे सपनों को
संजोती हुई
वह मिलती है
चहरे पर इन्द्रधनुषी रंग बिखेरती
दांतों तले ऊँगली दबाती
पूरे ब्रम्हाण्ड को निहारती
अपनी आँखों से
प्यार छलकाती
होंठों के नमक को
पूरे सागर में बांटती हुई
वह मिलती है
डल के बीचों-बीच
कहकहों की कश्ती पर
अपने पानी में लहरें तराशती
कमल तोड़ता
अपने ही आप से बातें करती
मुस्कुराती
झरनों के जल तरंग के बीच
भीगती हुई
वह मिलती है
अपने ही खेत की मेंड़ पर बैठी
धान की पकी बालियों को
अपने कोमल हाथों से सहलाती
दरांती की धार को महसूस करती
भीतर ही भीतर शर्माती
नजरें झुकाती
यौवन के सारे रंगों में
नहाती हुई
वह मिलती है
क्रैकडाऊन की गई
बस्ती के बीचों-बीच
लोगों के हजूम में
कोतवाल की वासना भरी नज़रों से
अपने आपको बचाती
अपने चेहरे पर उमड आई
प्रवासी भावना को छुपाती हुई
वह मिलई है
अँधेरे रसोई घर के
कड़वे कसैले धुएं को झेलती
मन की भीतरी जेब में
माचिस और मिट्टी के तेल की
सुखद कल्पना संभालती
चूल्हे में तिल-तिल
जलती हुई
वह मिलती है
पत्तझड़ के मौसम में
अपने बूढ़े चिनार की
मटमैली छाँव में
झुर्रियों की गहराई मापती
दु:खों को गिनती
आईने को तोड़ती हुई
वह मिलती है
जीवन-मरुस्थल में टहलती
रेत की सीढ़ियां चढती
कैक्टस के ज़िद्दी काँटों से
दामन छुड़ाती
यादों की सीपियाँ समेटती
इच्छाओं के घरोंदे बनाकर
उनको ढहते देखती
रोती बिलखती
अपने ही सूखे आंसुओं में
डूब के मरती हुई
वह मिलती है
उम्र के सभी पडावों पर
संसार की सारी सड़कों पर
अपने पदचिन्ह छोड़ती
रूप बदलती
जीवन को एक
सुन्दर और गहरा अर्थ देती हुई .
***
अमावस
सिरहाने रखे सपने
सांप बन जाते हैं
जब बारूदी धुएँ में
पूर्णिमा
अमावस बन जाती है
बचो के पालने
प्रश्न बन जाते हैं
जब गोलियों की गूंज
लोरी बन जाती हैं
***
हमारी अम्मा की ओढ़नी
वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
और घुस आते हैं हमारे घरों में
वे दाढ़ी से घसीटते हैं
हमारे अब्बू को
छिन जाती है
हमारी अम्मा की ओढ़नी
या हम एक दूसरे के सामने
नंगे किए जाते हैं
सिसकती है शर्म
बिखर जाते हैं रिश्ते
वे नकाबपोश होते हैं
लेकिन
हम खोज ही लेते हैं उनके चेहरे
अतीत की पुस्तक के एक एक पन्ने से
बचपन बिताए आंगन से
दफ़्तर में रखी सामने वाली कुर्सी से
एक साथ झुलाये हुए झूले से
स्कूल की कक्षा में बेठे लडकों से
हमारे बचपन के आंगन पर
रेंगते हैं सांप
यमराज दिखाई देता है
हमारी सामने वाली कुर्सी पर
जल जाती है
हमारे बचपन के झूले की रस्सी
हम उस काली नकाब के पीछे छिपे
कभी उस लड़के का चहरा भी देखते हैं
जिसको हमने पढ़ाया होता है
पहली कक्षा में
वे जब आते हैं रात-समय
ले जाते हैं जिसको वे चाहें घर-परिवार से
और कुछ दिनों के बाद
मिलती है उसकी लाश
किसी सेब के पेड़ से लटकी
या किसी चौराहे पर लिथड़ी
मारने से पहले वे
लिख देते हैं अपना नाम
उसकी पीठ पर
आतंक की भाषा में
दहकती सलाखों से
आग के अक्षरों में
वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
रोंदते हैं पाव तले
हमारी संस्कृति को
हमारे रिश्तों को
हमारी शर्म को .
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बर्फ़ और आग
बर्फ़ के घरों में रहते थे
वे लोग
ठंडक बसती थी
उनकी सभ्यता में
बर्फ़ के सपने उगते थे
उनकी आँखों में
और आज पहली बार
वे घर लाए थे आग
इतिहास में केवल
इतना ही लिखा है
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निदा नवाज़
जन्म :- ३ फरवरी १९६३
शिक्षा :- एम.ए.मनोविज्ञान ,हिंदी ,उर्दू ,बी.एड
प्रकाशन :- अक्षर अक्षर रक्त भरा (कविता संग्रह –जम्मू व् कश्मीर राज्य में विकसित आतंकवाद के विरुद्ध किसी भी भाषा में लिखी गई पहली पुस्तक ), दैनिक मांउटेन विव (संपादन), साहित्य अकादेमी के लिए कश्मीरी कविताओं का हिंदी अनुवाद .
पुरस्कार :- केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ,भारत सरकार द्वारा हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार ,हिंदी साहत्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य प्रभाकर ,मैथलीशरण गुप्त सम्मान ,शिक्षा मंत्रालय जे.के.सरकार की ओर से राज्य पुरस्कार .
संपर्क :- निदा नवाज़ ,निकट नुरानी नर्सिंग कालेज ,एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा -१९२३०१
फोन :- 09797831595
e.mail :- nidanawazbhat@gmail.com
Blog :- http://nidanawaz.blogspot.com