अशोक कुमार पांडेय की कविताएं सब जगह पढ़ी गई हैं। इस बार अनुनाद उनका जनगीत लेकर आ रहा है, जिसके बारे में कवि ने कहा है कि इसे फेसबुक पर लगाया जा चुका है। किसी भी जनान्दोलन में गाए जा रहे गीतों की भूमिका बहुत अहम होती है। आंदोलन के सरोकार जब एक आत्मीय छंद और प्रिय लय में बंधकर जनता के बीच पहुंचते हैं तो उनके प्रति समझ का दायरा फैलता है। जो लम्बे-लम्बे भाषणों से नहीं होता, एक गीत कर दिखाता है। ऐसे गीत रचे जल्दी में जाते हैं पर उनमें से कुछ हमारे जीवन का स्थायी हो जाते हैं। वे आन्दोलन के साथ समाप्त नहीं होते, जब जब आन्दोलनों की वापसी होती है, उन्हें खोजा जाता है। इनका अपना एक साहित्यिक महत्व होता है, जिसे सामाजिक-राजनीतिक पसमंज़र में देखना-परखना होता है और अपने लिए तो यही कसौटी कविता की भी है। बहरहाल, महिला सरोकारों से जुड़े अशोक के इस प्रभावशाली गीत का अनुनाद पर स्वागत है.... इसका महत्व और भविष्य भी उसी आन्दोलन से साबित होगा, जिसके लिए यह लिखा गया। युवा कवियों में छंद साधने की घटती इच्छा के विलोम में के रूप में इस गीत को पढ़ना मेरे लिए सुखद अनुभव है, अशोक से अनुरोध है कि जल्द इसके गाए जाने की रिकार्डिंग भी उपलब्ध कराए। अशोक के दो जनगीत इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं।
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ये अफ़साना सुनाना चाहते हैं हम उन्हें भी जो
हमारे आंसुओं की नींव पर एवाँ बनाते हैं
हमें देवी बताते हैं, हमारे गीत गाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
कोई घूँघट पे लिखता है, कोई पर्दा सुझाता है
करो तुम शर्म सह लो कष्ट सब चुपचाप मत बोलो
तुम्हारा स्वर्ग है यह ही, तुम्हारी है यही दुनिया
घरों की चार दीवारों में सारे ज़ुल्म तुम सह लो
जो अपने जितने हैं उतना ही हमको वे सताते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
पढो मिहनत से और साथ में सब काम घर का हो
ये पढ़ना भी हो यों कि कभी दुल्हन तुम बेहतर हो
अगर दफ्तर भी जाओ लौटकर घर काम सारा हो
जो पैसे तुम कमाओ हक पति का ही बस उस पर हो
पुराने ही नहीं नियम नए यों वे बनाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
घरों में आग चूल्हे की तो बाहर वहशियों की भूख
किया गर प्रेम तो धोखा या फिर मार अपनों की
सगा भाई पिता अपने लिए हथियार आते हैं
ये कैसी आन जिसकी सान पर हम मारे जाते हैं?
कभी सोने कभी लोहे की वो जंजीर लाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
हमारी देह पर ही युद्ध दंगे और सब बलवे
हमारी देह को ही बेचकर महफ़िल सजे सारी
हमीं बैठाए जाएँ हँसते हुए सारे बाज़ारों में
ये हंसना भी तो रोने की तरह है एक लाचारी
कभी रोना कभी हँसना कभी चुप्पी सिखाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
लबों में जो हुई हरक़त धरम की नींव डोले है
सभी को क्यों खले है आज जो औरत भी बोले है
हमारी अपनी आज़ादी हमी से आयेगी सुन लो
कई सदियों की चुप्पी तोड़कर जो आज बोले हैं
तो फिर वो याद संस्कृति की धरम की दिलाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं
कई सदियों की ये जुल्मत न अब बर्दाश्त होती है
हदों को तोड़कर निकली हैं राह अपनी बनाने हम
बहुत माँगा, बहुत रोया बहुत फरियाद कर ली है
लड़ेंगे अब तो अपनी ज़िन्दगी अपनी बनाने हम
रहो तुम देखते कैसे नसीब अपना बनाते हैं
तुम्हारी क़ैद की दीवार हम कैसे गिराते हैं****