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जम्मू कश्मीर में हिन्दी कविता और युवा कवि : एक अवलोकन - कमल जीत चौधरी / 03

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मजदूरों के जीवन स्तर के बारे में कोई नहीं सोचता . ऐसे में कवियों  का दायित्वबोध क्या है ? किसान और मज़दूर पर छिटपुट कविताएँ ज़रूर मिलती हैं . किसान या मज़दूर दिवस पर इनके श्रम सौन्दर्य को रेखांकित करने वाली कविताएँ पर्याप्त नहीं  हैं . कवियों को इसके लिए डीक्लास भी होना होगा . एक समय जम्मू में कविता पोस्टर जैसी परम्परा भी चली थी . कुछ कवि नुक्कड़में हिस्सा लेते थे . लोक मंच जम्मू कश्मीर जैसे सांस्कृतिक संगठन इसके लिए कुछ ज़मीनी काम कर सकते हैं . वर्गबोध कविताई के लिए बहुत महत्वपूर्ण है .

बर्जनिया वूल्फ ने लिखा है कि 'स्त्री को लिखने के लिए एक कमरा चाहिए'. इस कमरे को स्त्री अभी भी पा नहीं सकी . औरत जन्मजात कवि होती है . अपने कवि को पन्ने पर उतारना उसके लिए कभी भी किसी भी समय में आसान नहीं रहा . वह लिख रही है . इसी में उसका विद्रोह है . राष्ट्रीय स्तर पर शैलजा पाठक , अपर्णा मनोज , अंजू शर्मा , वंदना देव शुक्ला , मृदुलाशुक्ला , बाबुशा कोहली , रश्मि भारद्वाज , सुलोचना वर्मा , सोनी पाण्डेय आदि परिदृश्य पर हैं . इनके समकक्ष  योगिता यादव , अमिता मेहता , अरुणा शर्मा , डॉ० शाश्विता आदि को रखकर देखा जा सकता है . यहाँ का स्त्री स्वर
मुख्यधारा के फैशनेबल स्त्री विमर्श से परे एक मौलिक और मुखर भावजगत केगवाक्ष खोलता है .

डॉ० चंचल डोगरा के मनोवैज्ञानिक और प्राकृतिक धरातल की परम्परा को आगे ले जाने काम  डॉ० अरुणा शर्मा ने किया . उनकी कविताएँ पृथ्वी की कविताएँ हैं. जम्मू कश्मीर में उन्होंने स्त्री लेखन को नई भाव भूमि दी . इनके यहाँ चली आ रही कुछ चीजें टूटी हैं . उनके लेखन पर उन्ही की कलम से कहूँगा -

'चींटियों को नहीं मालूम
अपने पीछे क्या छोडती जा रही हैं ...'

योगिता यादव स्त्री परिवेश को समृद्ध कर रही हैं . वे बहुत अच्छी कवि भीहै . हंस , नया ज्ञानोदय आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी कविताओं पर पर्याप्त चर्चा हुई है . दस्तक समूह में प्रसिद्द संपादक आलोचक निरंजन श्रोत्रिय जी ने इनकी कविताओं को रेखाचित्र के समान कहा है . इधर उनकेनेतृत्व में स्त्री सृजन की मासिक बैठकों ने शहर में स्त्री लेखन के लिए नया माहौल बनाया है . योगिता की कविताओं में प्रेम , समर्पण , पितृ सत्ता प्रतिरोध , स्मृतियाँ , बदलाव का सपना , और आह्वान जगह पाता है . उनकी कविताओं का स्पेस देखें -

मैं मुक्त हूँ 
हाँ, मैं हूँ मुक्त 
न करना मुझे 
छंदों में बाँधने के असफल प्रयास ...
***
मैं सींचूंगी तब तक 
जब तक तुम
वटवृक्ष से 
छतनार नहीं हो जाते ...
***
तुम्हारे सब घाव
धूप की परछाई की मानिंद
मेरे आगे आगे चलते हैं .
***
 
डॉ० शाश्विता की कविताएँ स्त्री अंतर्मन की परतें खोलती हैं . इनका कोईसंग्रह अभी नही आया है . तलाश की कविताएँ हैं . इनके यहाँ छायावादी प्रवृत्तियाँ हैं . यहाँ सामाजिक सरोकार आत्मीय भाषा में जगह पाते हैं . 'सहवेदना 'नामक कविता में अपनी सहायिका के प्रति इनकी संवेदना सलामयोग्य हैवे व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाती हैं . जब वे लिखती हैं -

घोर सघन अँधेरा
परत - परत गिरह खोलता है .
***
फिर एक दिन
मैं माफ़ कर देती हूँ उसे
और मुक्त हो जाती हूँ .
***
मैंने वो सब सुना
जो उसने कभी नहीं कहा
मैंने वो सब छुआ
जो भी उसने छुपाया
***
..........तो उनकी संवेदना गहरे तक छूती है .

किरण कंचन का एक कविता संग्रह आया है . उन्हें अभी किताब न लाकर और लिखनाचाहिए था . इनकी कविताएँ भाव और शैली में अभी बहुत कच्ची हैं . पर एक स्त्री मन यहाँ भी बतियाता नज़र आता है . एक बानगी देखें -

दुनिया के माहौल में रहना
घी बनकर , लौ में जलकर
प्रकाश फैलाना ...

अमिता मेहता कोमल भावों को व्यक्त करने वाली कवि हैं. किसी प्रकार काचमत्कार या अतिरिक्त प्रयास उनके शिल्प और कंटेंट में नहीं दीखता . उनकी 'संदूक 'कविता अगली पीढ़ी को विश्वास की चाभी थमा जाती है . 'आग के फूलों की डाली 'जैसा बिम्ब उनकी मौलिकता को दर्शाता है . देखें -

वह अक्सर मुझे मिलता है
और लाता है मेरे लिए
आग के फूलों वाली डाली .
 
वे इंतज़ार नामक कविता में गुलाब को नयी दृष्टि से देखती है  . इनका भीकोई संग्रह अभी नहीं आया है . सोनिया उपाध्याय अपनी क्षणिकाओं से जीवन केखट्टे मिट्ठे भाव और अनुभव व्यक्त करती हैं . इनके अतिरिक्त नीरू शर्मा , शारदा साहनी , विजया ठाकुर आदि पुरानी कवयित्रियाँ डोगरी के साथ साथ हिन्दी में भी लिख रही हैं .

पुरुषों की कविताओं में भी स्त्री संवेदना और सवाल दिखाई देते हैं.इनके यहाँ औरत प्रेमिका , दोस्त , बेटी  और माँ के रूप में सम्बोधित होती है. स्त्री संवेदना पर कल्याण की कुछ सुन्दर कविताएँ हैं . बेटी शीर्षक कविता बहुत मार्मिक है. कुमार कृष्ण और शक्ति सिंह ने प्रेमी रूप मेंस्त्री संसार को छुआ है . नरेश कुमार की कविताओं में माँ की छाँव दिखती है. अशोक कुमार लंगड़ी चलने के नियम वाले खेल शटापु के माध्यम से लड़कियों के जीवन संघर्ष को बखूबी अभिव्यक्त करते हैं . मनोज शर्मा की 'बार गर्ल काम पर जा रही है 'और 'स्त्री विलाप कर रही है 'जैसी कविताएँ स्त्रीसंवेदना की दृष्टि से हिन्दी कविता में अलग स्थान रखती हैं . एक बानगीदेखें -

लिखूं यदि यूँ कि 
स्त्री विलाप कर रही है
तो ऐसा लिखते ही सूख जाए पैन की स्याही
जिस कैमरे ने खींची हो ऐसी तस्वीर  
उसके लैंस में पड़ जाए तरेड़ ...
*** 

नरेश कुमार खजुरिया , अदिति शर्मा  , अरविन्द शर्मा , शिवानी आनन्द ,भगवती देवी , ऐशा बलोगोत्रा , मुद्दसिर अहमद , शालू देवी प्रजापति आदि नवोदित या उम्र के छोटे कवि भी परिदृश्य पर हैं . इनमें शिवानी आनन्द सबसे अधिक लिख रही हैं . इन सभी नामों पर बहुत कहना अभी जल्दी होगी . उम्मीद है कि आने वाले पाँच सात सालों में इनमें से एक दो नाम जम्मू कीहिन्दी कविता को समृद्ध करेंगे . इनके यहाँ निजता , कल्पना , रूमानियत , प्रेम , प्रतिरोध , श्रम सौन्दर्य , गाँव की संवेदना , सामाजिक चिंताएँ दिखाई देती है . शालू के रूप में इस युवतर स्वर की बानगी देखें -

माँ ने जिन किताबों को बेच
फेरी वाले से
दो प्यालियाँ खरीदी थीं
मैं उनमें कभी चाय नहीं पीती ...
***
मैं सड़क किनारे
उग आई कंटीली झाड़ी हूँ -
तुम मुझे गले लगाती हुई धूल .

वे कम से भी कम लिखती हैं . साहित्यिक कार्यक्रमों से दूर रहती हैं .शीराज़ा  , खुलते किवाड़ , अमर उजाला आदि में छपी हैं . इधर इनकी कविताएँ 'बया 'के ताजा अंक में आई हैं . जिन पर चर्चा हो रही है.

माहौल बड़ी चीज है . माहौल का अर्थ कदापि यह नहीं कि मौसम अच्छा हो जाए तोदो चार  कार्यक्रम कर लिए जाएँ . कवि विष्णु नागर लिखते हैं - 'सबसे अच्छी कविता बुरे वक्त में पहचानी जाती है . 'बुरे वक्त के साहित्यिक प्रयास सलाम योग्य होते हैं . बाकी 31 मार्च वाले प्रयास नहीं कहे जा सकते . साहित्य सीढ़ी नहीं है . अगर है तो यह ऊपर नहीं जाती . नीचेउतरती है .  जम्मू में समृद्ध साहित्यिक माहौल है . राष्ट्र भाषा प्रचार समिति , युवा हिन्दी लेखक संघ , हिन्दी साहित्य मण्डल आदि संस्थाएँ अनुदान प्राप्त करके पर्याप्त कार्य कर रही हैं . 'लोक मंच जम्मू कश्मीर
'सांस्कृतिक व साहित्यिक संगठन है . यह गाँवों में जाकर कार्य कर रहा है. कुमार कृष्ण शर्मा के साहित्यिक ब्लॉग 'खुलते किवाड़ 'जैसा प्रयास भी स्वागत योग्य है . समय की मांग है कि कोई राष्ट्रीय स्तर की अच्छी साहित्यिक पत्रिका भी यहाँ से निकले . आज तक यहाँ की कोई भी पत्रिकाहिन्दी साहित्य जगत में अपनी खास पहचान नहीं बना पाई . कला अकादमी कीशीराज़ा की भी अपनी सीमा रही है . वैसे इन दिनों हिन्दी कार्यक्रमों को लेकर जे०& के० कला अकादमी पहले से सक्रिय हुई है.

यह हाशियों की कविता है . आज इन हाशियों की कविता को रेखांकित भी किया जारहा है . कवि आलोचक और संपादक शिरीष कुमार मौर्य लिखते हैं - 'हिन्दी में सीमांतों की कविता जिस तरह से विकसित हो रही है , यह घटना आने वाले वक्त में कविता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु साबित होने वाली है . '  यहदृष्टिसम्पन्न वक्तव्य है . आज दिल्ली , इलाहाबाद , भोपाल , पटना आदि कावर्चस्व या एकाधिकार टूट गया है . सीमांतों की कविता ने हिन्दी कविता को विस्तार दिया है . इस पर बात किए बिना हिन्दी कविता पर पूरी बात नहीं हो सकती .कुल मिला कर कहा जाये तो यह कविता जीवन के पक्ष में खड़ी है . लम्बे संघर्ष के बाद जम्मू की कविता पहचान के संकट से उभरी है . व्यष्टिपरक और छायावादी प्रवृत्तियाँ पीछे छूटी हैं . अब सिर्फ विस्थापन ही पहचान नहींरह गई है . आज युवा कवि शोषक शक्तियों के विरोध में खड़े हो रहे हैं . सामूहिक सपनों ने जोरदार दस्तक दी है . इसमें सभी के दुःख - तकलीफें और संघर्ष शामिल हैं . आने वाले दिनों में यहाँ की कविता और गहरे में उतरेगी. हाशियों से अधिकाधिक संवाद बनाएगी . संवाद ही प्रतिनिधि हो सकता है -

मुझे लगता है 
दुनिया में 
कहीं भी जब दो आदमी  
मेज़ के आमने - सामने बैठे 
चाय पी रहे होते हैं 
तो वहां आ जाते हैं तथागत
और आस पास की हवा को 
मैत्री में बदल देते हैं .        -  [ महाराजकृष्ण संतोषी ]

अंत में ,
दोस्तो !! सत्ता के समकक्ष सत्ता खड़ी करना किसी समस्या का हल नहीं . आओसमता और सहभाव के लिए संघर्ष करें . इंकलाब जिंदाबाद !!
**** 

कमल जीत चौधरी ,
काली बड़ी ,, साम्बा , जे०&के० { 184121 }
दूरभाष - 9419274403
ई मेल -
kamal.j.choudhary@gmail.com

अमित श्रीवास्तव की दो कविताएं

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नाला झरना एक समान
उगना सड़ना एक समान
हंसना डरना एक समान
गण्डा चिमटा एक समान
जीना-मरना एक शब्द है
सीधा-उल्टा एक समान

लाल लंगोटा
गटई घोंटा
बोल मेरे केंचुए कित्ती मिट्टी
इत्ती मिट्टी

कविता को चुल्लू भर मिट्टी नसीब हुई|
***


अमित श्रीवास्तव की कविताओं ने अपने अब तक के सफ़र में कोई छूंछी चमक पैदा नहीं की है। वे मद्धम लौ में एकाग्र जलती कविताओं के कवि हैं। अमित की कविताओं की भाषा बोलचाल के लहज़े में आवाजाही करती रही है और उसमें हमारे ही जीवन के तलघरों की गूंज है। न बिम्बों का अतिरिक्त लदान, न प्रतीकों का अन्यथा बोझ। संतोष की बात है कि अपने रचाव में किसी अग्रज का अनुकरण करने के बजाए ये कविताएं अपने ही शिल्प से लड़ती हैं। इन कविताओं से बहस की जा सकती है, इन पर सवाल उठाए जा सकते हैं। इनमें जो निर्मोह है, वही हमारे लिए उत्सुकता का विषय है।
-अनुनाद
 
एक सरकारी नौकर का मोनोलॉग
(मैं अपनी आख़िरी हिचकी पहले ले लूं तो)

कोई एक बात कह दूं
मुसलसल चुप्पियों के बीच
कोई चीख लम्बी
एक कराह सी छोटी
कोई हल्की सी जुम्बिश होठों की
गंगाजल तो सारा बह गया लेकिन
तुम्हारे अनगिनत मन्त्रों के बीच

उस सूराख़ से बस इक दफ़ा
हटा लूं उंगलियाँ अपनी
और बहने दूं सारा मवाद 
खीज सारी, गालियाँ
दर्द, चोटें, आत्म हत्या की आदतें
पसीने में दबाया खून सारा
खून खून खून सारा

खोलकर कंठ की गाँठ को
रख दूँ परे
कि समूचा जिस्म ही नीला हो उठे

तुमने तो दीवार ही दीवार दी है छत नहीं
तोड़कर सारे पुलों को बना ली हैं सीढ़ियाँ तुमने
समझ की सब लयकारियाँ ढेर होतीं यहीं पुलों पर
बंधे तस्मों की नियंत्रित चाल से  

फांदकर दीवार कोई फर्श बना लूं
बस एक दफ़ा मैं सूंघ आऊँ बालियों में स्पर्श सुख
उसके माथे की शिकन को खोलकर  
फाड़कर अपनी किनारी
अपने हिस्से का ये सूरज बाँध दूँ

आख़िरी दम साध लूं
एक धुन सुनूँ मैं
सांस पर संत्रास की
एक गीत गाऊँ भरपूर हंसी का
खुशी के आवेग में झूम जाऊं
इस तरह फंदे पे झूलूँ कि
किसी की हिचकियों में
अपनी उसी आख़िरी हिचकी सा
गुंथ जाऊं

अब नहीं बस अब नहीं
अब नहीं होगा ये मुझसे
कि किसी के दर्द पर डाल दूँ ये नमक सारा
फिर किसी प्याले में डालूँ गटक लूं सारे सवाल
इतिहास के कंधों पे रख दूँ सब जवाबी
मौत पर उनकी हंसू मैं ठठाकर
जिनके लिए कंधों के पीछे एक चाँद टांका था कभी 

डिस्क्लेमर
(यह कविता किसी दिशा में नहीं जाती इस गाड़ी पर चढ़ने वाले लोग अपने उतरने की व्यवस्था स्वयं कर लें)

ये अलहदा काम नहीं पर करें कैसे
हम आजाद हैं
चुनने को कि मरें तो ससुरा मरें कैसे

दो टांगो के बीच घुसाकर
नाक झुकाकर कान उठाकर
सर लगाकर पीछे को
गहरी सांस छोड़ दें
गुत्थम-गुत्था दोनों टाँगे
दोनों बाजू गोड़ दें
अकाल मृत्यु आसन करने से पहले भक्तगण
जीने की सभी आशाएं छोड़ दें

कृपया पहली ताक़ीद पर ध्यान दें बार-बार-बार बताया गया कि इस कविता में कोई ऑफर नहीं चल रहा, कहा न, कोई नहीं, इतना भर भी नहीं जितना कि जीने के लिए जीवन

शाम मरियल सी धुवें में
पिटी-पिटाई, टेढ़ी-मेढ़ी
एक लकीर सी
उठती गिरती उजबक चलती
शोर-शोर में प्राइम टाइम के
धड़ाम से गिरती  

सुबह निकलती डूब डूब के
झाडू उछाल देती   
हर दूजे रविवार की चमच्च
बिस्किट निकाल लेती
टूटी-डूबी चाय में
चल बे चल उठ चल बे
कसी जीन है गाय में
पिलेट में धर दो हुंवा हमरी राय में 

जी नहीं, फाइव टू फाइव टू फाइव हमारा टोल फ्री नहीं है, किसी का नहीं है, दिमाग़ न खाएं, अपना सर बचाएं 

तू इसक करता है तो कर मियाँ
पर हिंया नईं
चल फूट रस्ता नाप
मेरे बाप
इधर गोली-शोली आग-वाग
पत्थर बाजी है भरपूर
अम्न का रस्ता इतिहास में घुसता
लंबा चलता
चलता जाता
कहीं नहीं आता कभी नहीं आता

तुझे पेड़ पे चढ़ना आया कि नईं
पानी में सांस लेना
आँख खोल कर सोना
एक क्लिक पर हंसना
एक इशारे पर रोना धोना
तुझे कबर गढ़ना आया कि नईं
अपने मरने की दावत खाना   

जी हाँ लॉजिंग कॉम्प्लीमेंटरी बस अपनी आई डी ले आओ, फूड बिल तो देना ही पड़ेगा जी  

रोटी खायेगा मर साले
सर उठाएगा मर साले
रोली, चन्दन, टीका बस
फ़तवा सोंटा लोटा बस
अब इत्ता तो कर साले
जीना चाहता है तो मर साले

कविता को आख़िरी हिचकी आई है दोस्तों संभाल लेना
चाहो तो अपना अक्स निकाल लेना
थूक लगाकर ज़रा सुखाकर
अपने पिंजरे के बाहर टटका देना
तुम बाशिंदे गुफाओं के
बिल में रहना
पर बाहर नेमप्लेट भी लटका देना

हमारे कस्टमर केयर रिप्रेज़ेन्टेटिव से बात करने के लिए डायल करें नौ या दस या चौवालिस या टू ज़ीरो वन सिक्स या फाइव फोर थ्री या टू फोर फाइव, फर्क नहीं पड़ता, लाइन बिज़ी है तो सुनें ये सिम्फनी
 
नाला झरना एक समान
उगना सड़ना एक समान
हंसना डरना एक समान
गण्डा चिमटा एक समान
जीना-मरना एक शब्द है
सीधा-उल्टा एक समान

लाल लंगोटा
गटई घोंटा
बोल मेरे केंचुए कित्ती मिट्टी
इत्ती मिट्टी

कविता को चुल्लू भर मिट्टी नसीब हुई|


सुनने के संदर्भ - मंगलेश डबराल

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अचानक कवि मंगलेश डबराल की फेसबुक वॉल पर यह निबन्ध किसी उपहार की तरह मिला। बहुत पहले संगीत की ओर बुज़र्ग मित्र अरुणोदय बनर्जी ने खींचा था और कुछ ऐसी जानकारी शास्9ीय संगीत के बारे में दीं, जो मन पर किसी जादू की तरह चढ़ गईं। बाद में मंगलेश जी ने अपने घर पर कुछ रागों की दुर्लभ रिकार्डिंग एक सीडी में दीं। शास्त्रीय संगीत जो पहले मेरे लिए कुमार गंधर्व के भजन सुनने तक सीमित था, मुझ पर एक समूची दुनिया की तरह खुला। तब से ये हर मर्ज़ की दवा है, मेरे दु:ख-सुख का सबसे क़रीबी साथी है। इस निबन्ध को कवि से चुराकर अनुनाद पर लगा रहा हूं।  साथ में कवि की यह पुरानी तस्वीर, जो मेरे लिए ठीक उसी संगीत की तरह है। मुझमें संगीत सुनने और समझने की जो भी कच्ची-पक्की समझ है, उसके लिए अरुणोदय बनर्जी और मंगलेश डबराल का हमेशा आभारी रहूंगा।
**** 

लालटेन के उजाले में पिता जर्मन रीड वाले सुरीले हारमोनियम पर दुर्गा, मालकौंस, सारंग, पीलू, पहाड़ी, और सुदूर जौनपुर-जौनसार की बोली के मीठे गीतों के स्वर निकालते थे. मालकौंस और दुर्गा शायद उनके प्रिय राग थे. दुर्गा की वह क्लासिक, पाठ्यक्रम में पढ़ाई जानेवाली बंदिश—‘सखी मोरी रूम झूम, बादल गरजे बरसे...वे डूबकर गाते. पहाड़ में पांच स्वर वाले रागों का चलन ज्यादा है और उनकी लय पहाड़ की प्रकृति से भी बहुत मेल खाती है. पिता के रागों के स्वर हारमोनियम से महीन रेशमी बादलों की तरह उठते और घर के नीम उजाले में तैरने लगते. बाहर घना अँधेरा रहता, काली हवा में जुगनू चमकते और पिता अंतरे की पंक्तियाँ गाते हुए घर को संगीतमय बनाते : रेन अंधेरी कारी बिजुरी चमके मैं कैसे जाऊं पिया पास.मैं पिता के सामने इस तरह बैठा रहता जैसे एलपी रेकॉर्डों पर हिज मास्टर्स वाइस का कुत्ता ग्रामोफ़ोन के सामने बैठा होता है. पिता जब जौनपुर-जौनसार अंचल का द्रुत नृत्य- लय वाला मिठास और विलक्षण बिम्बों से भरा विरहगीत गाते, पूरा घर इकट्ठा हो जाता. मां, बहनें और पास-पड़ोस के कई लोग इर्द-गिर्द जुटते और तल्लीन होकर सुनते :

आजणी बजली बाजणी बजली मृदंग बजलो कि भेरी
ऊंची डाड्यों तुम निसि ह्वेजा बडसु देखण दे ले मेरी
हे मेरा हलका ले रूमैल बदसु देखण दे ले मेरी

राडिन भाजि तीतरी दुर्वाली धरे ले ध्यो
फट जा कुयेडी ले डांडा की मैतुडा मेरु देखण ले द्यो
हे मेरा दूध का ले गिलास मैतुडा मेरु देखण ले द्यो

कौरों जसी दुरजोधन पांडों जसी भ्यूं
तब जालि बालि सैसर जब गललु डाड्यों कु ह्यूं

(आजे-बाजे बजेंगे या मृदंग बजेगा या भेरी बजेगी/ओ ऊंचे जंगलो, तुम कुछ झुक जाओ और मुझे अपना गाँव देखने दो. ओ मेरे हल्के रूमाल, मुझे अपना गाँव देखने दो. राडी नामक जगह से एक मादा तीतर उडी और दुर्वाली नामक जगह में रुक गयी/ ओ जंगलों के कुहरे, तुम कुछ छंट जाओ और मुझे अपना मायका देखने दो. ओ मेरे दूध के गिलास, मुझे अपना मायका देखने दो. कौरवों में कोई हो तो दुर्योधन जैसा हो और पांडवों में भीम जैसा हो/ यह लडकी ससुराल तब जायेगी जब जंगलों की बर्फ पिघल जायेगी.)

पिता का हारमोनियम बेहद मीठा था. जर्मन रीड वाला, जैसा कि अच्छे खान-पान, रहन-सहन, कविता और गायन-वादन के शौक़ीन पिता खुद कहते थे. वह कलकत्ते की किसी कंपनी का बना था और काफी बजाये जाने की वजह से उसकी काले रंग की लकड़ी की कुंजियाँ घिस गयी थीं. पिता उसे राधेश्याम कथावाचक के वीर अभिमन्यु’, ‘विल्वमंगल’, ‘प्रहलादऔर सत्य हरिश्चंद्रजैसे नाटकों में बहुत बार बजा चुके थे. इन नाटकों का निर्देशन, उनकी वेशभूषा, मंचसज्जा वे खुद ही करते थे. हमारे घर के एक पास एक बड़े से आँगन में प्रस्तुत किये जानेवाले इन नाटकों को देखने आस-पास के गांवों से भी लोग आते. पिता ने टिहरी गढ़वाल के लोक कवि- गायक और प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गुणानंद पथिक से संगीत की शिक्षा ली थी जो रामलीलाओं में तो बजाते ही थे, अब एक विशाल बाँध के पानी में डूब चुके ऐतिहासिक टिहरी शहर के बस अड्डे पर अक्सर अपने वाद्य पर क्रांति के गीत प्रस्तुत करते थे. वे ज़्यादातर प्रचलित लोकगीतों की धुनों पर अपने जन-जागरण के गीतों को ढालते थे ताकि वे जल्दी लोगों की ज़बान पर चढ़ सकें. हारमोनियम उनके गले से लटका होता, झोले में स्वरचित और स्वयं-प्रकाशित गीतों की पुस्तिकाएं रहतीं जिन्हें बहुत से बस यात्री खरीद कर ले जाते. पथिक-जी की आजीविका का यही साधन था. याद आता है, उनका एक गीत लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ था: गरीबू का घर मां कंडाली की स्याणी/ अमीरू का घर मां हलवा छ रतिब्याणी/ यो बात लिखी लेणी यो गीत सुनि जा’. (‘गरीब के घर में खाने के लिए बिच्छूघास भी नहीं है, लेकिन अमीरों के घर में रात-दिन हलवा मौजूद है. इस सचाई को लिख लो, इस गीत को सुन लो’). 

कुछ वर्ष बाद जब मैं दिल्ली आया तो लगा, एक राग से बहुत दूर छिटक गया हूँ. जब मेरे गाँव का आखिरी पेड़ मुझसे ओझल हुआ, तभी से मेरे भीतर उस राग के अभाव ने घर कर लिया. जैसे यही राग था जो जीवन को चला रहां था, उसे एक गहरी गूँज से भरे हुए था. दिल्ली में मैंने दुर्गा की खोज की. विनायक राव पटवर्धन और मल्लिकार्जुन मंसूर के गाये दुर्गा के कैसेट लिये और भीमसेन जोशी की वह मधुर बंदिश जो मेरे सुने हुए दुर्गा से कुछ अलग थी: विलंबित में रस कान तूऔर द्रुत में चतुर सुघरा बालमवा’. फिर वर्षों बाद कुमार गन्धर्व का दुर्गा सुना: अमोना रे.दिल्ली से मैं जब कभीऔर बहुत कमघर जाता, पिता से हारमोनियम पर दुर्गा सुनाने के लिए कहता, हालाँकि पिता का जीवन तब तक कहीं रुक चुका था, अपने अकेले बेटे की घर से लगभग विमुखता के कारण वे हताश थे और अपने तईं हारमोनियम बजाना बंद कर चुके थे. एक ज़माने में हारमोनियम बजाना उनका लगभग रोज़ का काम था. लेकिन अब उन्होंने हारमोनियम को उसके बक्से के भीतर इस तरह रख दिया था जैसे उसे कहीं गाड दिया हो, अपनी निगाह से छिपा लिया हो. दुर्गा पांच स्वरोंस रे म प धका एक सरल-उत्फुल्ल राग है और उसमें बहुत उपज की गुंजाइश नहीं होती, लेकिन भीमसेन जोशी उन बहुत कम गायकों में से हैं जिन्होंने गज़ब की लयकारी और जटिल तानों के साथ उसे देर तक गाया है. कुछ वक़्त बाद, सन १९९९ में मैंने भीमसेन जोशी का दुर्गा सुनने के अनुभव पर एक कविता लिखी, जिसमें मेरे बचपन के राग की स्मृति भी थी:

तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा
सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ
मैं बढ़ा उसकी ओर
उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह.

दुर्गा एक सभ्यता की तरह था, पानी, पेड़, घास, नदी, पत्थर, चिड़िया जैसी बुनियादी चीज़ की तरह, जिसके अवशेष ही अब बचे रह गये हैं.
 
सन १९७२ में दिल्ली में पहली बार अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले का आयोजन हुआ थाएशिया ७२. प्रगति मैदान, हंसध्वनि और शाकुंतलम थियेटर उसी समय बने थे. एक शाम हंसध्वनि में पंडित भीमसेन जोशी का गायन था. मैं उन दिनों साप्ताहिकहिंदी पेट्रियटमें नया-नया पत्रकार बना था. मेरे साथ मेरे मित्र त्रिनेत्र जोशी थे. लेकिन हमारे पास कोई प्रवेशपत्र नहीं था लिहाजा हमें दरवाज़े पर रोक दिया गया. हमने गुजारिश की कि हम लोग पंडितजी के प्रशंसक हैं और बहुत दूर हरियाणा से सिर्फ उन्हें सुनने की इच्छा से आये हैं. गेट पर खड़े पहरेदार ने हमारा हुलिया देखा, हमारी हवाई चप्पलों और धूल-सने पैरों पर निगाह डाली और हमें अन्दर जाने दिया. हॉल के भीतर भीमसेन जोशी आलाप शुरू कर चुके थे और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि वे वही शुद्ध कल्याण गा रहे थे जिसे मैंने कुछ ही दिन पहले एक बंगाली प्राध्यापक के घर रेकॉर्ड प्लेयर पर सुना था. वह एलपी रेकॉर्ड हाल ही में जारी हुआ था जिसके दूसरी तरफ सुबह का राग ललित था. इसके साथ ही मालकौंस और मारू बिहाग का भी एक रिकॉर्ड निकला था और दोनों अद्भुत प्रस्तुतियां थीं. शुद्ध कल्याण की विलंबित बंदिश थी: तुम बिन कौन खबरिया ले’. उन दिनों भीमसेन जोशी अपनी कला के उत्कर्ष को छू रहे थे, उनकी आवाज़ एक साथ सुरीली और दमदार, मुलायम और वज़नी, पृथ्वी को छूती हुई और दिगन्त में उड़ती हुई थी और इस आवाज़ में शुद्ध कल्याण जैसे सम्मोहक राग को सुनना ऐसा अनुभव था जिसके लिए कोई एक विशेषण खोजना कठिन था. लेकिन मेरी बगल में बैठे एक पगडीधारी सज्जन के पास विशेषणों की कोई कमी नहीं थी. वे कुछ पिये हुए थे, खासे ऊब रहे थे., मुंह बिचका रहे थे और गायक को कोस रहे थे. भीमसेन जोशी गाते समय तब बहुत नाटकीय मुद्राएँ बनाते थे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें इस क़दर सर और हाथ हिलाते और चेहरा विकृत करते थे कि देखकर गायन कुछ बेमज़ा होने लगता था. मैं उनकी ओर देखे बगैर सुनता रहा और बगलगीर बौड़म श्रोता को भी झेलता रहा. लेकिन करीब आधा घंटे के बड़े ख़याल के बाद जब भीमसेन जोशी ने द्रुत में छोटा ख़याल –‘रस भीनी भीनी आ तेरो’—गाना शुरू किया तो पगड़ीधारी श्रोता खूब झूमने और वाह-वाहकरने लगे. यह एक अद्भुत परिवर्तन था और भीमसेन जोशी के जादुई गायन की ताक़त थी कि उसने करीब आठ-दस मिनट में एक अनाडी-असहिष्णु आदमी को रसिक में परिवर्तित कर दिया था. भीमसेन जोशी ने किराना घराने के राग-भण्डार में से शुद्ध और यमन कल्याण, कल्याण, मालकौंस, भीमपलास, मारू विहाग, जयजयवंती, विहाग, वृन्दावनी सारंग, मुल्तानी, मियां की मल्हार, मियां की तोड़ी, देशकार, भैरवी आदि कई रागों की इतनी गहरी साधना की थी और उन्हें इतना लाघवपूर्ण और चमत्कारिक बना दिया था कि उन्हें सुनकर सख्तजान लोग भी सम्मोहित हो उठते थे. एक बातचीत में भीमसेन जोशी ने संगीत-साधना की ऐसी अवस्था का ज़िक्र किया था जब यमन जैसा एक राग सिर्फ गायन नहीं रहता, बल्कि समूची सृष्टि को अलंकृत करने लगता है. उनके भण्डार में पूरी कायनात को रंजित-अलंकृत करनेवाले कई राग थे. अपने व्यक्तित्व में वे साधारण दिखते थे और ग्रीन रूम में तो लगता नहीं था कि इतना बड़ा कोई कलाकार बैठा हुआ है, लेकिन जैसे ही मंच पर जाते, अचानक कोई कायाकल्प होता और वे एक लोकोत्तर उपस्थिति में बदल जाते. कभी-कभी यह दिक्क़त ज़रूर लगती थी कि उनके स्वरों के साथ कुछ कोलाहल भी लिपटा हुआ है और वे उस तन्मयता को नहीं छू पा रहे हैं जहाँ गायक और संगीत के बीच किसी की उपस्थिति नहीं होती. लेकिन बाद के वर्षों में उनका गायन काफी निरिद्विग्न और सौम्य हो गया था.

भीमसेन जोशी को सुनने के बाद लगता था, शुद्ध कल्याण से ज्यादा मधुर राग कोई नहीं है. शुद्ध मेलोडी. माधुर्य का एक समुद्री ज्वार, जो गोया किसी चंद्रमा को छूने के लिए बेक़रार था. भीमसेन जोशी की तानों और बोलतानों में हमेशा एक बांकपन रहता था जो लहरें उठाता और राग के व्यक्तित्व और रूप-रंग को तरह-तरह से प्रदर्शित करता. शुद्ध कल्याण को राग संगीत का समुद्र कहा जाता है और उसके स्वरों को दूसरे रागों को जोड़कर जितने मिश्र राग बने हैं उतने किसी और राग में संभव नहीं हुए. यमन कल्याण, नंद कल्याण, पूरिया कल्याण, हेम कल्याण, श्याम कल्याण, गोरख कल्याण, जैत कल्याण, शिव कल्याण. सावनी कल्याण, आदि. उसका दायरा इतना विस्तृत है कि उस्ताद अमीर खां उसे मंद्र सप्तक की महान बंदिश करम करो किरपाल दयालमें गाते हैं तो फिल्म गायिका लता मंगेशकर रसिक बलमा दिल क्यों लगाया तोसेके उच्च-स्वर में उसे प्रस्तुत करती हैं और इनके बीच सैकड़ों दूसरे गायक-वादक उसके वैभव के विविध स्वरूपों को जगाते रहते हैं. आश्चर्यजनक यह है कि एक संगीतकार का शुद्ध कल्याण दूसरे संगीतकार से बहुत नहीं मिलता. कोई भी गायक उस एक ही तरह से नहीं गा सकता. यह राग भी अपने आप में निराकार-सा है क्योकि उसके आरोह में भोपाली के पांच स्वरस रे म प ध-- और अवरोह में यमन के सातों स्वर लगते है यानी वह सम्पूर्ण थाट होने के बावजूद दूसरे रागों से मिलकर बना है और उनमें घुल-मिलकर नयी मेलोडी को जन्म देता रहता है. एक मायावी राग, जिसे कोई भी संगीतकार पूर्णता और अंतिम ऊंचाई तक नहीं पंहुचा सकता. शुद्ध कल्याण हर गायक को विफल करने वाला राग है.

मधुर और कर्णप्रिय गायन में कुमार गन्धर्व भी लाजवाब थे. वे जब भी दिल्ली आते, गन्धर्व महाविद्यालय में उनका कार्यक्रम होता जहाँ मेरे मित्र गोविन्द बहुगुणा, जो तब गाँधी स्मारक निधि में काम करते थे, और पत्रकार प्रभाष जोशी (जो कुमारजी के मित्र थे और बाद में जनसत्ताके संस्थापक-संपादक बने) मुझे ले जाते. कभी-कभी कवि-मित्र लीलाधर जगूड़ी भी साथ में होते. कुमारजी का कबीर-सूर-मीरा के पदों का अति-चर्चित चयन त्रिवेणीएक बार करीब ढाई घंटे तक सुना. कुछ वर्ष बाद इस संगीत सभा की रिकॉर्डिंग मुझे समाजवादी विचारक मधु लिमये की मार्फ़त प्राप्त हुई जिसकी प्रतियां बनाकर कई दोस्तों को भेंट कीं. कुमार गन्धर्व की कुछ विलंबित प्रस्तुतियां ज़रूर कुछ एकरस लगती थीं, खास तौर से जटिल या ज्यादा बढ़त वाले रागों में वे सपाट हो जाते थे, लेकिन मध्य लय और द्रुत की बंदिशें सिर्फ विभोर नहीं करती थीं, बल्कि बहुत रचनात्मक और अनसुने रूपों में ढली हुईं थीं. मालकौंस, शुद्ध सारंग, मदमाद सारंग, भूप, चैती भूप, नन्द, गौरी वसंत, बहार, और उनका स्वरचित, मर्मस्पर्शी राग मालवती, जिसकी द्रुत बंदिशमंगल दिन आज बना घर आयोपहली बार भोपाल में कवि अशोक वाजपेयी के घर रिकॉर्ड पर सुनकर आँखें भीग गयी थीं. कुछ वर्ष बाद मालवती का विलंबित ख़याल भी सुनने को मिला: जा रे चला जा रे बदरा.भोपाल के दिनों में कुमार-जी से देवास में उनके घर दिन भर रह कर एक लम्बी और सामूहिक बातचीत भी की जो मध्य प्रदेश कला परिषद् के आयोजन कुमार गन्धर्व प्रसंगके समय पूर्वग्रहके विशेषांक में प्रकाशित हुई. कुमार-जी अपने घर देवास में मसनद पर बैठते और बायें तबले को हाथ की टेक की तरह इस्तेमाल करते थे. तबले का यह उपयोग देखना मेरे लिए एक नयी बात थी हालांकि इससे पहले मैंने आईटीसी के संगीत सम्मेलनों में तबले पर बैठी कोयल का आकर्षक रेखांकन देखा था. कुमारजी घरानों के मूर्तिभंजक, शास्त्रीयता को लोक संगीत से जोड़ने वाले नवाचारी संगीतकार के रूप में प्रसिद्द थे, उनका एक कल्टबन चुका था और खास तौर सेत्रिवेणीसुनकर महसूस होता था कि कबीर, सूर और मीरा की रचनाओं को इतने अद्भुत ढंग से, उनके अर्थों का विस्तार करते हुए कोई और नहीं गा सकता. गायन के बीच में जब वे मौन होते तो दोनों ओर पूरी तरह मिले हुए उनके तानपुरे भी गाते हुए लगते. वे कहते भी थे कि मैं तानपुरों को स्वरों के लिए कैनवस की तरह इस्तेमाल करता हूँ.’ ‘त्रिवेणीमें उनके गाये हुए कबीर, सूर और मीरा के पद विह्वल करने वाले थे और कबीर की गहरे विराग और अध्यात्म की रचनाओं में वे अतुलनीय लगते थे. मुझे कबीर यह पद खास तौर से प्रिय था जिसे आज भी जब सुनता हूँ तो आँखें नम हो जाती हैं और भीतर कहीं एक रुलाई सी उठती है:

नैहरवा हमका न भावे
सांई की नगरी परम अति सुन्दर जहां कोई आय न जावे
चाँद -सूरज जहाँ पवन न पानी को सन्देश पंहुचावे
दरद यहू सांई को सुनावे
आगे चलूँ तो पंथ नहीं सूझे पीछे दोष लगावे
केहि विध ससुर जाऊं मोरी सजनी विषय रस नाच नचावे
बिन सतगुरु अपनो नहीं कोई अपनो नहीं कोई जो यह राह दिखावे
कहत कबीर सुनो भाई साधो सुपिने में साजन आवे
सुपिनो यहू सांई को सुनावे.

बाद में जब अमीर खां का शुद्ध कल्याण सुना तो महसूस हुआ कि यह राग समुद्र नहीं, एक आकाश, सृष्टि और एक अनंत है, जहाँ स्वर भीमसेन जोशी के गायन की लहरों की तरह नहीं उठते, बल्कि परिंदों की तरह उड़ते जाते हैं, कहीं विलीन होते हुए लगते हैं और गायक के सम पर आते ही लौट आते हैं. अमीर खां का गायन बहुत गंभीर, दार्शनिक किस्म का और अमूर्तनों से भरा हुआ था, लेकिन यह उनकी कला की ऊंचाई थी कि हम उन अमूर्तनों को मूर्त रूप में, एक भौतिकता मेंदेखसकते थे, उनके स्वर आलापचारी के समय पहले ज़मीन पर फैलते-पसरते और फिर उड़ान भरते दिखते. भीमसेन जोशी के कल्याण में गहरी रंजकता, अलंकारिता और विपुलता थी तो अमीर खां का कल्याण अनुचिंतनात्मकमेडीटेटिवआवेग, निरालंकरण और न्यूनतामिनिमलिज्म-- से भरपूर था. अमीर खां की बहुत ज्यादा व्यावसायिक रेकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं थीं (उनकी संख्या बाद में बढ़ी, जब अमीर खां के बढ़ते महत्व के कारण कई निजी संग्रह बाज़ार में आये), लेकिन मैंने अपने परिचितों की मदद से आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों भोपाल, इंदौर, लखनऊ, दिल्ली, कलकत्ता में उपलब्ध रेकॉर्डिंग हासिल कीं और कुछ अमीर खां के शिष्यों सिंहबंधु सुरिंदर सिंह- तेजपाल सिंह, स्व. महेंद्र शर्मा, गाँधी शांति प्रतिष्ठान के राजीव वोरा और कवि कुंवर नारायण के सौजन्य से प्राप्त हुईं. कुंवरजी के घर पर उनकी गायी हुई हंसध्वनिइतनी विलक्षण थी कि अमीर खां के प्रिय शिष्य पंडित अमरनाथ के शिष्य महेंद्र शर्मा समेत कई लोगों ने वह मुझसे माँगी. सन १९७४ में एक कार दुर्घटना में असमय निधन से कुछ पहले अमीर खां ने भोपाल के मध्य प्रदेश कला परिषद् में बागेश्री कान्हड़ा और जनसम्मोहिनी आदि का बेजोड़ गायन किया था. उसकी रेकॉर्डिंग भी मुझे मिली. निजी संग्रहों की ऐसी लम्बी रेकॉर्डिंग मिलना कारूं का खज़ाना हाथ लगने की तरह था. दरबारी, मालकौंस, चंद्रकौंस, हंसध्वनि, शुद्ध कल्याण, नन्द कल्याण, हेम कल्याण, पूरिया कल्याण, यमन कल्याण, अडाना, हंसध्वनि, दरबारी, बागेश्री, बागेश्री कान्हड़ा, रागेश्री, चारुकेशी, जोग, वसन्त मुखारी, शाहाना, सुहा, आभोगी, पूरिया, विहाग, मारवा, कलावती, केदार, वसंत, मेघ, मियां की मल्हार, रामदासी मल्हार, रामप्रिय मेल, बहार, जनसम्मोहिनी, मियाँ की तोड़ी, गूजरी तोड़ी, बिलासखानी तोड़ी,नत भैरव, भटियार, चारुकेशी, कोमल ऋषभ आसावरी, देशकार, नटभैरव, बरवा, रामकली और खुदित पाषाणजैसी कुछ फिल्मों में गाये गीतो की एक से बेहतर एक और कई-कई प्रस्तुतियां, जो अमीर खां की खंडमेरु तकनीक के बावजूद अलग-अलग मनःस्थितियों में गायी होने के कारण एक दूसरे से बहुत भिन्न होती थीं. ऐसे करीब 70 टेप मेरे पास हो गये और जीवन अमीर खां की आवाज़ से आप्लावित हो गया.

एक दिन सुबह कवि रघुवीर सहाय घर आये. समय मिलने पर कभी-कभी वे अपनी पुरानी एम्बेसडर चलाते हुए आते थे. टेप रेकॉर्डर पर अमीर खां का कोमल ऋषभ आसावरी बज रहा था. रघुवीरजी ने पांच मिनट उसे सुना, फिर कहा, ‘या तो हम यह गाना बंद कर दें या अपनी बातचीत बंद कर दें. दोनों काम एक साथ करना मुश्किल है. इस संगीत को बैकग्राउंड म्यूजिककी तरह नहीं सुन सकते. इसके लिए बहुत एकाग्रता चाहिए.रघुवीरजी कोई ज़रूरी बात करना चाहते थे, मैंने टेप रेकॉर्डर बंद कर दिया. लेकिन वे जब जाने लगे तो बोले, ’इसे सुनने मैं फिर किसी दिन आऊंगा.और फिर एक सुबह हम दोनों अमीर खां के इस राग को करीब एक घंटे तक निश्शब्द सुनते रहे. रघुवीर सहाय को संगीत की गहरी समझ और जानकारी थी और उसके प्रति उनका नजरिया बौद्धिक और गैर-भावुक था. शायद इसलिए भी अमीर खां उन्हें बहुत पसंद थे. अमीर खां को सुनते हुए कोई दूसरा काम करने में सचमुच दिक्क़त होती थी और गाना बंद करना पड़ता था क्योंकि उसमें ऐसी चुम्बकीयता थी कि दिल और दिमाग दोनों उसकी ओर खिंच जाते थे. कभी-कभी वे अपने गायन के बीच में कहते सुनाई देते : नग़मा वही नग़मा है जिसे रूह सुने और रूह सुनाये’. उनका गायन सुननेवाले की भी रूह की मांग करता था. एक अनोखी दार्शनिक शान्ति के साथ मंच पर बैठने का उनका अन्दाज शुरू में ही बता देता कि वे लोकप्रियतावादी मनोरंजनकारी कलाकार नहीं हैं और उनसे निरे वाहवाही उपजाने वाले संगीत की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. गाते समय उनका सिर्फ एक हाथ आगे-पीछे कुछ हरकत करता और चेहरे पर तन्मयता और कभी-कभी पीड़ा के अलावा और कोई भावना नहीं दिखती. दरअसल, अमीर खां किसी भी तरह के प्रदर्शन से या जिसे अंग्रेजी मेंप्लेइंग टू द गैलरीकहा जाता है, उससे बहुत दूर थे. वे ऐसा कुछ नहीं करते थे जिसे प्रस्तुतिका नाम दिया जाता है. कभी लगता था कि वे सामने बैठे श्रोताओं के लिए नहीं, बल्कि खुद को ही सुनाने के लिए गा रहे हैं. इसीलिए उनका गायन जितना बाहर व्यक्त होता सुनाई देता था, उससे भी ज्यादा उनके भीतर जाता हुआ होता था. मानसून से सम्बंधित रागों में ज़्यादातर गायक जहां भौतिक और बाहरी आकार को, गर्जन-तर्जन को अभिव्यक्त करते रह जाते हैं, अमीर खां के मेघ (बरखा ऋतु आयी’) और मियां की मल्हार (बरसन लागी री बदरिया/ सावन की अत कारी अत भारी’) आदि को सुनते हुए लगता था जैसे यह कोई आतंरिक बारिश है जिसमें हम भीग रहे हैं. वातावरण-प्रधान रागों को ऐसी अंतर्मुखता देना कोई सरल काम नहीं है.

इस संगीत में क्या था जो बरबस अपनी ओर खींचता था और दुनियावी कामों से दूर ले जाता था? उसे सुनते हुए लगता था, कुछ और नहीं करना चाहिए और अगर हम कुछ और कर रहे हों तो यह संगीत नहीं सुनना चाहिए. क्या वह बौद्धिकता थी या विकलता और मार्मिकता? या रूहानियत और विराग-भाव? शायद यह सभी कुछ उसमें था, लेकिन अमीर खां के संगीत के ये सिर्फ कुछ पहलू थे. अपनी अवधारणा और संरचना में वह कहीं अधिक जटिल और बहुआयामी था. उन्होंने कई स्रोतों-परम्पराओंकलाकारों से अपनी कला को ग्रहण किया था इसलिए उनकी कला का आगम-क्षेत्रकैचमेंट एरिया घरानेदार संगीतकारों की तुलना में कहीं ज्यादा फैला हुआ था. उनके गायन की तामीर ध्रुपद की खंडमेरु शैली पर हुई इसलिए उसमें जोखिम-भरी प्रयोगशीलता के साथ ही प्राचीनता की अनुगूंज भी सुनाई देती थी. किसी तयशुदा घराने का वारिस न होने के बावजूद या इसी वजह से अमीर खां वहां तक गये जहाँ से सभी घरानों का उद्गम माना जाता है. परंपरा की ऐसी अन्तर्निहित स्मृति उनके किसी दूसरे समकालीन में नहीं मिलती. खासकर उनके हेम कल्याण, आभोगी, रागेश्री, मारवा, पूरिया और बरवा में एक पुरातन संगीत-समय भी हमें घेर लेता है. अपनी बंदिशों और उनमें निहित काव्य-तत्व के प्रति पवित्रता और सम्मान का जो भाव अमीर खां के यहाँ है, वह एक दूसरे धरातल पर कुमार गन्धर्व में ही मिलता है. कुमारजी जिस तरह भक्ति-कवियों के पदों और लोक-बंदिशों के मौलिक स्वरूप पर बहुत ध्यान देते थे, वैसे ही अमीर खां ने अमीर खुसरो, हाफ़िज़ और सादी की ज़्यादातर सूफी चेतना की फ़ारसी शायरी को तरानों में शामिल किया था. उन्हें समझने में मुश्किल होती थी इसलिए वे गाते हुए उनके मानी भी बता देते थे.

गायन के अलावा अमीर खां का जीवन भी अभिभूत करनेवाला था, जिसके कई किस्से महेंद्र शर्मा और राजीव वोरा से सुनने को मिलते थे और इस महान गायक के प्रति सम्मान में इजाफा करते थे. दिल्ली के शुरुआती वर्षों में एक बार उन्हें सुनने का मौका मिला थाकमानी सभागार में, जहाँ उन्होंने दरबारी और और कान्हडा के दूसरे प्रकार गाये थे. उन्हीं दिनों सप्ताहिक दिनमानमें अमीर खां से उर्दू शायर और आकाशवाणी के अधिकारी अमीक हनफी का एक इंटरव्यू पढने को मिला, जिसमें पकिस्तान में संगीत को भारतीय संगीत से अलग करने की कोशिशों के सवाल पर अमीर खां ने बहुत सुन्दर जवाब दिया था कि शास्त्रीय संगीत में सात सुर होते हैं. ऐसा तो नहीं हो सकता कि इनमें से चार सुर हिंदुस्तान में रह गये हों और तीन पाकिस्तान चले गये हों.ऐसी बेजोड़ विनोद-वृत्ति के साथ-साथ उनकी शराफत की भी चर्चा होती थी. मसलन, यह कि अमीर खां दूसरे संगीतकारों की तुलना में काफी कम फीस लेते हैं, कोई मोल-भाव नहीं करते, वरीयता के बावजूद संगीत सभाओं में आखीर में गाने का कोई आग्रह नहीं करते और पहले गाने के लिए भी तैयार रहते हैं, नमाज़ पढने मुश्किल से ही जाते, लेकिन दिल्ली में हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाना नहीं भूलते, ईद के दिन बकरा कटवाने से परहेज़ करते और उसके पैसे आसपास के बच्चों में बाँट देते, दूसरों के दुख से तुरंत द्रवित हो उठते और मददगारी का हाथ बढाते. यह इसके बावजूद था कि वे हमेशा हाथ से तंग रहे और फिल्म्स डिवीज़न द्वारा उन पर निर्मित एक वृत्तचित्र में उनकी आखिरी पत्नी रईसा बेगम पैसे के अभाव की शिकायत करती हुई दिखती हैं. एक कवि-मित्र अक्षय उपाध्याय (जिनकी मृत्यु सत्यजित राय के साथ काम करने के दौरान एक ट्राम-दुर्घटना में हुई) ने बताया था कि एक बार कलकत्ता में उनके पास पैसे नहीं थे तो उन्होंने अमीर खां से मांगे, लेकिन उनके पास भी पैसे नहीं थे इसलिए वे एक घर में गये और कुछ देर बाद अपनी एक महिला प्रशंसक से पैसे लेकर आये. इन मानवीय कहानियों से लगता था कि यह एक ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसने अपने को सांसारिक प्रलोभनों से ऊपर उठा लिया हो और जो बिना किसी स्वार्थ के जीता हो.

जिन लोगों ने राग मारवा की उनकी बड़े और छोटे ख़याल की बंदिशें –‘पिया मोरे अनत देस बसें/ना जानूं कब घर आवेंगे’, या रे जग बावरेऔर गुरु बिन ज्ञान न पायेया जनसम्मोहिनी में कौन जतन सों पिया को मनाऊंसुनी हैं, उन्हें अमीर खां के गहन विराग और अमूर्तन का एहसास होगा. उनके मारवा के बारे में पंडित रविशंकर ने कहा था: ऐसा मारवा मैंने इस पृथ्वी पर कहीं नहीं सुना. उनके यमन में भी इसी तरह का अमूर्तन होता था. यमन एक बहुत इस्तेमालशुदा और आरंभिक राग है और उसे प्रस्तुत करना जितना सरल है, नए और अप्रत्याशित आयामों तक पंहुचाना उतना ही मुश्किल है. लेकिन अमीर खां के स्वरों में वह लोकोत्तर अनुभव बन जाता था. यमन के विलंबित में वे कभी एक श्रृंगारिक बंदिश कजरा कैसे डारूंऔर कभी आध्यात्मिक बंदिश शाहाजे करम दरवेश निगरगाते थे और द्रुत में अक्सरऐसो सुघर सुन्दरवा बालमवा / मईका सुरंग चुनरिया दियहू मंगाय’. मध्य लय में एक और बंदिश भी उन्होंने कुछ समय तक गायी: अवगुन न कीजिये गुनिजन.’ ‘ऐसो सुघर सुन्दरवामें वे एक ऐसे सौन्दर्यशास्त्र की निर्मिति करते थे जो बहुत भौतिक और दृश्यात्मक होते हुए भी विस्तीर्ण अमूर्तन में बदल जाता था. श्रोता यह देखसकता था कि वह स्त्री जिसके बालमने उसके लिए सुंदर रंग की चुनरी मंगा दी है, कितनी मासूमियात के साथ उल्लसित है और इस ख़ुशी को तरह-तरह से व्यक्त कर रही है, लेकिन यह सब जहाँ घटित हो रहा है वह इस दुनिया से कहीं दूर, सृष्टि का कोई दूसरा विस्तार और दूसरा देशकाल है. अक्सर यह एहसास होता था कि अमीर्फ़ खां जिस समय में गा रहे हैं, उसे अविलम्ब लांघ रहे हैं, एक दूसरे समय में पहुँच गए हैं और दोनों के बीच एक द्वंद्वात्मक सौंदर्य निर्मित हो गया है.

किसी दार्शनिक का कथन है कि दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं. एक वे जो सांसारिक हैं और अध्यात्म की खोज में रहते हैं, और दूसरे वे जो आध्यात्मिक होते हैं लेकिन उन्हें सांसारिकता के लिए मजबूर होना पड़ता है. अमीर खां दूसरी किस्म के इंसान थे. ऐसे इंसान का न कोई घर बन पाता है, न घराना. अमीर खां ने जितनी बार घर बसाने की कोशिश की, विफलता ही हाथ आयी और जहां तक घराने का सवाल है, वे किसी में नहीं अंट पाये और सभी घरानों से परे जाते रहे. उस्ताद अब्दुल वहीद खां से गायन की कुछ समानता के कारण उन्हें किराना घराने में रखने की मुहिम चली, लेकिन उन्होंने भेंडी बाज़ार घराने के अमान अली खां और देवास के उस्ताद रजब अली खां की गायकी के चुनिन्दा तत्वों को भी आत्मसात किया था, इसलिए उसे कहीं-की-ईंट-कहींका-रोड़ा-नुमा गायकी कहकर उपेक्षित करने की कोशिशें हुईं. अमीर खां अपने शिष्यों को बाकायदा तालीम नहीं दे पाते थे और गाते समय संभवतः अपनी ध्यानावस्था के भंग होने की आशंका से स्वर-संगत के लिए किसी को नहीं रखते थे (इसका संकेत कुछ समीक्षकों ने भी किया है), लेकिन इसके बावजूद आश्चर्य यह है कि उनके शिष्यों और उनका अनुकरण करने वालों की तादाद सबसे ज्यादा रही है और दर्ज़नों गायक रेकॉर्डिंग सुनकर ही उनके स्वर लगाने के तरीके, बढ़त और विस्तार की शैली का अनुकरण करते रहे हैं. रामपुर-सहसवान घराने के राशिद खां की मिसाल अक्सर दी जाती है, जो बहुत से रागों में अमीर खां के पैरों की छाप पर ही अपने पैर रखते हुए बढ़ते हैं. कहते हैं, सितारवादक निखिल बनर्जी ने उनसे कहा था कि आप जो गाते हैं, मैं उसे ही सितार पर बजा देता हूँ.अमीर खां के शिष्यों ने उनके लिए इंदौर घराने की ईजाद की, लेकिन यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे सभी घरानों का घराना, तमाम गायकों के गायक थे--कुछ इस तरह जैसे हिंदी में शमशेर बहादुर सिंह को कवियों का कविकहा जाता था.
संगीत आम तौर पर आनंद की ओर ले जाता है, द्वंद्वों, टकराहटों, दरारों को पाट देता है, विसर्जित कर देता है और समरसता पैदा करता है. लेकिन अमीर खां का संगीत समरसता नहीं उपजाता, बल्कि एक ख़ास तनाव को जन्म देता है जो बहुत रचनात्मक होता है और जिसे आत्मसात करने के लिए सिर्फ दिल नहीं, दिमाग की भी दरकार होती है. इसीलिए वह हमेंबौद्धिकलगता है, लेकिन आश्चर्य कि गाना समाप्त होने पर एहसास होता है कि उसने हमारे भीतर कुछ पैदा कर दिया है और हम कुछ अधिक मनुष्य हो उठे हैं और यह दुनिया भी कुछ सुन्दर हो गयी है, और यह अनुभव भी जितना विलक्षण हो, अंतिम नहीं है, बल्कि हम इसमें कुछ और, अपनी कोई भावना, अपना कोई राग और विराग जोड़ सकते हैं. यह एक महान अमूर्तन था जिसे अमीर खां जीवन भर गाते रहे, लेकिन वह उनके संगीत में इतने स्वाभाविक ढंग से आकार लेता था जैसे, खुद उन्हीं के शब्दों में, ‘पेड़ पर पत्ते आते हैं.
***

गिर्दा के लिये मरदूद का मातम - वीरेन डंगवाल

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(यह लेख नैनीताल समाचार के आर्काइव से साभार)

क्या शानदार शवयात्रा थी तुम्हारी कि जिसकी तुमने जीते जी कल्पना भी न की होगी। ऐसी कि जिस पर बादशाह और मुख्यमंत्री तक रश्क करें। दूर-दूर के गरीब-गुरबा-गँवाड़ी। होटलों के बेयरे और नाव खेने वाले और पनवाड़ी। और वे बदहवास कवि-रंगकर्मी, पत्रकार, क्लर्क, शिक्षक और फटेहाल राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता जिनके दिलों की आग भी अभी ठंडी नहीं पड़ी है। और वे स्त्रियाँ, तुम्हारी अर्थी को कंधा देने को उतावली और इन सबके साथ ही गणमान्यसाहिबों मुसाहिबों का भी एक मुख्तसर हुजूम। मगर सबके चेहरे आँसुओं से तरबतर। सब एक-दूसरे से लिपटकर हिचकियाँ भरते। सबके रुँधे हुए कंठों से समवेत एक के बाद एक फूटते तुम्हारे वे अमर गीत जो पहले पहल सत्तर के दशक में चिपकोआंदोलन के दौरान सुनाई दिये थे और उसके बाद भी उत्तराखंड के हर जन आंदोलन के आगे-आगे मशाल की तरह जलते चलते थे:जैंता एक दिन तो आलो, उदिन यो दुनि में (आयेगा मेरी प्यारी जैंता वो दिन/चाहे हम न देख सकें चाहे तुम न देख सको/फिर भी आयेगा तो प्यारी वो दिन/इसी दुनिया में’)लेने लगता था। रोमांच, उम्मीद और हर्षारितेक से कँपकपाते हुए वे जलूस आज भी स्मृति में एक खंडित पवित्रता की तरह बसे हुए हैं।
 
क्या बात थी यार गिर्दा तुम्हारी भी! अफसोस, सख्त अफसोस कि मैं तुम्हारी इस विदा यात्रा में शामिल नहीं हो पाया, जिसका ये आँखों देखा हाल में लिख रहा हूँ। और इस समय मुझे तुम्हारी यह खरखरी हँसी साफ सुनाई दे रही है जिसे तुम गले से सीधे गालों में भेजते थे और दाँतों से थोड़ा चबाकर बाहर फेंक देते थे।

कैसा विचित्र नाटक है यार! क्या तो तुम्हारी बातें, क्या तो तुम्हारे शक। घाटियों, चोटियों, जंगलों, बियाबानों, जनाकीर्ण मेले-ठेलों, हिमालय की श्रावण संध्याओं और पहाड़ी स्त्रियों के गमगीन दिलों से बटोरे गये काष्ठ के अधिष्ठान जिनसे आग जलाई जाएगी और खाना पकेगा। और तुम्हारी वो आवाज? बुलंद, सुरीली भावों भरी सपनीली: ऋतु औनी रौली, भँवर उड़ाला बलि/हमारा मुलुका भँवर उड़ाला बलि (चाँदनी रातों में भँवरे उड़ेंगे सुनते हैं/हमारे मुलुक में खूब भंवरें उड़ेंगे सुनते हैं/ हरे-हरे पत्ते में रखकर खूब बढ़िया दही खायेंगे हम सुनते हैं / अरे क्या भला लगेगा कि हमारे मुलुक में भंवरे उड़ेंगे ही!

कभी वो पुकार होती थी तुम्हारी, पुरकशिश क्षुब्ध आंदोलनों की हिरावल ललकार: आज हिमाल तुम्हें बुलाता है। जागो-जागो हे मेरे लाल / जागो कि हम तो हिल भी नहीं सकते / स्वर्ग में है हमारी चोटियाँ और जड़ें पाताल / अरी मानुस जात, जरा सुन तो लेना/हम पेड़ों की भी विपत का हाल / हमारी हड्डियों से ही बनी कुर्सियाँ हैं इनकी/जिन पर बैठे ये हमारा कर रहे ये हाल/देखना-देखना एक दिन हम भी क्या करते हैं इनका हाल।ये केवल पेड़ नहीं जिनकी हड्डियों से उनकी कुर्सियाँ बनी हैं। ये केवल आत्मरक्षा की फरियाद भी नहीं, परस्पर सहयोग की माँग है। ये केवल हिमालय भी नहीं है जो अपने बच्चों से जागने को कह रहा है। इतिहास प्रकृति लोक और वर्तमान का ये अनूठा जद्दोजेहद भरा रिश्ता है जो लोकगीतों की मर्मस्पर्शी दुनिया के रास्ते गिर्दा ने अपनी कविता में हासिल किया है और जिस रिश्ते वह सब बेईमानी, अत्याचार, ढोंग और अन्याय के खिलाफ अपना मोर्चा बाँधता है: पानी बिच मीन पियासी/खेतों में भूख उदासी/यह उलटबाँसियाँ नहीं कबीरा/खालिस चाल सियासी।किसान आत्महत्याओं के इस दुर्दान्त दौर के बीस-पच्चीस बरस पहले लिखी उसकी यह कबीरही नहीं, उसकी समूची कविता, उसके गीत, उसके नाटक, उसका रंगकर्म उसका समूचा जीवन सनातन प्रतिपक्ष और प्रतिरोध का है। जैसा कि मौजूदा हालात में किसी भी सच्चे मनुष्य और कवि का होगा ही।

तीस-पैंतीस साल के मुतवातिर और अत्यंत प्रेमपूर्ण संबंध के बावजूद मुझे यह मालूम ही नहीं था कि गिर्दा की उम्र कितनी है। दोस्तों, हमखयालों-हमराहों के बीच कभी वह बड़ा समान लगता और कभी खिलखिलाते हुए सपनों और शरारत से भरा एकदम नौजवान। ये तो उसके मरने के बाद पता चला कि उसकी पैदाइश 10 सितंबर 1943 की थी, अल्मोड़ा जिले के गाँव ज्योली की। वरना वो तो पूरे पहाड़ का लागत था और हरेक का कुछ न कुछ रिश्तेदार। जब उसने काफी देर से ब्याह किया और प्यार से साज-सँभाल करने वाली हीरा भाभी उस जैसे कापालिक के जीवन में आई तो लंबे अरसे तक हम निठल्ले छोकड़ों की तरह दूर से देखा करते थे कि देखो, गिर्दा घरैतिन के साथ जा रहा है।कभी थोड़ा आगे और अक्सर थोड़ा पीछे हमारी सुमुखी भाभी, और साथ में लजाये से, भीगी बिल्ली से ठुनकते हुए गिरदा। दाढ़ी अलबत्ता चमक कर बनी हुई, मगर कुर्ता वही मोटा-मोटा और पतलून, और कंधे पर झोला जिसमें बीड़ी-माचिस, एकाध किताब-पत्रिका, मफलर और दवाइयाँ। यदा-कदा कोई कैसेट और कुछ अन्य वर्जित सामग्री भी। आखिर तक उसकी यह धजा बनी रही। अलबत्ता दिल का दौरा पड़ने के बाद पिछले कुछेक बरस से यह फुर्तीली चाल मंद हो चली थी। चेहरे पर छिपी हुई उदासी की छाया थी जिसमें पीले रंग का एक जुज था- सन् सतहत्तर-अठहत्तर, उन्यासी या अस्सी साल के जो भी रहा हो।

उससे पहली मुलाकात मुझे साफ-साफ और मय संवाद और मंच्चसज्जा के पूरम्पूर याद है। नैनीताल में ऐसे ही बरसातों के दिन थे और दोपहर तीन बजे उड़ता हुआ नम कोहरा डीएसबी के ढँके हुए गलियारों-सीढ़ियों -बजरी और पेड़ों से भरे हसीन मायावी परिसर में। हम कई दोस्त किसी चर्च की सी ऊँची सलेटी दीवारों वाले भव्य एएन सिंह हाल के बाहर खड़े थे जहाँ कोई आयोजन था। शायद कोई प्रदर्शनी। रूसी पृष्ठभूमि वाली किसी अंग्रेजी फिल्म के इस दृश्य के बीचोंबीच स्लेटी ही रंग के ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले, तीखे, लगभग ग्रीक नाक-नक्शों और घनी-घुँघराली जुल्फों वाला एक शख्स भारी आवाज में कह रहा था: ‘‘ये हॉल तो मुझे जैसा चबाने को आता है। मेरा बड़ा ही जी होता है यार इसके इर्दगिर्दअंधायुगखेलने का।मैंने चिहुँक कर देखा- डीएसबी कालेज में अंधायुग ? वहाँ या तो अंग्रेजी के क्लासिक नाटक होते आये थे या रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर के एकांकी। राजीव लोचन साह ने आगे बढ़कर मुझे मिलवाया: ‘‘ये गिरीश तिवाड़ी हैं वीरेन जी, ‘चिपकोके गायक नेता और जबर्दस्त रंगकर्मी। वैसे सौंग एंड ड्रामा डिवीजन में काम करते हैं। बड़े भाई हैं सबके गिर्दा।’’ गिर्दा ने अपना चौड़ा हाथ बढ़ाया। किसी अंग्रेजी फिल्म के दयालु रूसी पात्र जैसा भारी चौड़ा हाथ। देखते-देखते हम दोस्त बन गए। देश-दुनिया में तरह-तरह की हलचलों से भरे उस क्रांतिकारी दौर में शुरू हुई वह दोस्ती 22 अगस्त 2010 को हुई उसकी मौत तक, बगैर खरोंच कायम रही। उसके बाद तो वह एक ऐसी दास्तान का हिस्सा बन गई है जिसे अभी पूरा होना है।जिसके पूरा होने में अभी देर है। गिर्दा को याद करते हुए ही इस बात पर ध्यान जाता है कि यह शख्स अपने और अपने भीषण जीवन संघर्ष के बारे में कितना कम बोलता था। वरना कहाँ तो उसका हवलबाग ब्लॉक का छोटा सा गाँव और कहाँ पीलीभीत-लखीमपुर खीरी में तराई के कस्बे-देहातों और शहर लखनऊ के गली-कूचों में बेतरतीब मशक्कत और गुरबत भरे वे दिन। गरीबी से गरीबी की इस खानाबदोश यात्रा के दौरान ही गिरीश ने अपने सामाजिक यथार्थ के कठोर पाठ पढ़े और साथ ही साहित्य, लोक रंगमंच और वाम राजनीति की बारीकियाँ भी समझीं। संगीत तो जनम से उसके भीतर बसा हुआ था। 1967 में उसे सौंग एवं ड्रामा डीविजन में नौकरी मिली जो उत्तराखण्ड के सीमावर्ती इलाकों में सरकारी प्रचार का माध्यम होने के बावजूद ब्रजेंद्र लाल शाह, मोहन उप्रेती और लेनिन पंत सरीखे दिग्गजों के संस्पर्श से दीपित था। यहाँ गिरदा खराद पर चढ़ा, रंगमंच में विधिवत दीक्षित हुआ और उसकी प्रतिभा को नए आयाम मिले। कालांतर में यहीं वह क्रांतिकारी वामपंथ के भी नजदीक आया। खासतौर पर पहाड़ के दुर्गम गाँवों की जटिल जीवन स्थितियों से निकट के संपर्क, द्वंद्वात्मक राजनीतिक चेतना, और मानवीयता पर अटूट विश्वास ने ही इस अवधि में गिरीश चंद्र तिवाड़ी कोगिर्दाबनने में मदद दी है।चिपकोके इन जुझारू नौजवानों का भी इस रूपांतरण में कुछ हाथ रहा ही है, जो अब अधेड़, और कई बार एक-दूसरे से काफी दूर भी हो चुके हैं, पर जो अब परिवर्तन के साझा सपनों के चश्मदीद और एकजुट थे। वे पढ़ते थे, सैद्धांतिक बहसें करते और लड़ते भी थे। एक-दूसरे को सिखाते थे। नुक्कड़ नाटक करते, सड़कों पर जनगीत गाते थे। साथ-साथ मार खाते और जूझते थे। शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, राजीव लोचन साह, प्रदीप टम्टा, गोविंद राजू, निर्मल जोशी, हरीश पंत, पीसी तिवारी, जहूर आलम, महेश जोशी…. एक लंबी लिस्ट है। गिर्दा ने जब भी बात की इन्हीं, और इन्हीं जैसी युवतर प्रतिभाओं के बाबत ही की। या नैनीताल समाचारऔर पहाड़और युगमंचके भविष्य की। अपने और अपनी तकलीफों के बारे में उसने कभी मुख नहीं खोला। मुझे याद है मल्लीताल में कोरोनेशन होटल में नाली के पास नेपाली कुलियों की झोपड़पट्टी में टाट और गूदड़ से भरा उसका झुग्गीनुमा कमरा, जिसमें वह एक स्टोव, तीन डिब्बों, अपने नेपाली मूल के दत्तक पुत्र प्रेम और पूरे ठसके साथ रहता था। प्रेम अब एक सुदृढ़ सचेत विवाहित नौजवान है। अलबत्ता खुद गिर्दा का बेटा तुहिन अभी छोटा है और ग्रेजुएशन के बाद के भ्रम से भरा आगे की राह टटोल रहा है।

एक बात थोड़ा परेशान करती है। एक लंबे समय से गिर्दा काफी हद तक अवर्गीकृत हो चुका संस्कृतिकर्मी था। उसकी सामाजिक आर्थिक महत्वकांक्षायें अंत तक बहुत सीमित थीं। जनता के लिए उसके प्रेम में लेशमात्र कमी नहीं आई थी। उसका स्वप्न कहीं खंडित नहीं हुआ था। यही वजह है कि उसके निर्देशित नाटकों, खासतौर पर संगीतमय अंधेरनगरी’, जिसे युगमंचअभी तक सफलतापूर्वक प्रस्तुत करता है- अंधायुगऔर थैंक्यू मिस्टर ग्लाडने तो हिंदी की प्रगतिशील रंगभाषा को काफी स्फूर्तवान तरीके से बदल डाला था। इस सबके बावजूद क्या कारण था कि जन-सांस्कृतिक आंदोलन उसके साथ कोई समुचित रिश्ता नहीं बना पा रहे थे। उसके काम के मूल्यांकन और प्रकाशन की कोई सांगठनिक पहल नहीं हो पाई थी। ये बात अलग कि वह इसका तलबगार या मोहताज भी न था। अगर होता तो उसकी बीड़ी भी उसे भी जे. स्वामीनाथन बना देती। आखिर कभी श्याम बेनेगल ने उसके साथ एक फिल्म करने की सोची थी, कहते हैं।

अपनी आत्मा से गिर्दा नाटकों और कविता की दुनिया का एक चेतनासंपन्न नागरिक था। उसके लिखे दोनों नाटक नगाड़े खामोश हैंऔर धनुष यज्ञजनता ने हाथों हाथ लिये थे। लेकिन जानकार और ताकतवर लोगों की निर्मम उदासीनता और चुप्पी उसे लौटाकर लोक संगीत की उस परिचित, आत्मीय और भावपूर्ण दुनिया में ले गई, जहाँ वह पहले ही स्वीकृति पा चुका था और जो उसे प्यार करती थी।

मगर गिर्दा था सचमुच नाटक और नाटकीयता की दुनिया का बाशिंदा। हर समय नाट्य रचता एक दक्ष, पारंगत अभिनेता और निर्देशक। चाहे वह जलूसों के आगे हुड़का लेकर गीत गाता चलता हो या मंच पर बाँहें फैलाये कविता पढ़ते समय हर शब्द के सही उच्चारण और अर्थ पर जोर देने के लिये अपनी भौंहों को भी फरकाता। चाहे वह नैनीताल समाचार की रंगारंग होली की तरंग में डूबा कुछ करतब करता रहा हो या कमरे में बैठकर कोई गंभीर मंत्रणा…. हमेशा परिस्थिति के अनुरूप सहज अभिनय करता चला था वो। दरअसल लगभग हर समय वह खुद को ही देखता-जाँचता-परखता सा होता था। खुद की ही परछाई बने, हमेशा खुद के साथ चलते गिर्दा का द्वैध नहीं था यह। शायद उसके एक नितांत निजी अवसाद और अकेलेपन की थी यह परछाई। खुद से पूरा न किये कुछ वायदों की। खंडित सपनों, अपनी असमर्थताओं, जर्जर होती देह के साथ चलती अपनी ही आत्मा के यौवन की परछाई थी यह। लोग, उसके अपने लोग, इस परछाई को भी उतनी ही पहचानते और प्यार करते थे जितना श्लथ देह गिर्दा को।

सो ही तो, दौड़ते चले आए थे दूर-दूर से बगटुट वे गरीब गुरबा -गँवाड़ी नाव खेने वाले। पनवाड़ी होटलों के बेयरे। छात्र-नौजवान, शिक्षक पत्रकार। वे लड़कियाँ और गिरस्थिन महिलायें- गणमान्यों के साथ बेधड़क उस शव यात्रा में जिसमें मैं ही शामिल नहीं था। मरदूद!

चर्चित लेटिन अमेरिकन कवि ओस्वाल्दो सौमा की कविताएं - अनुवाद एवं प्रस्तुति दुष्यंत

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मूलत: ये अनुवाद kritya international poetry festival के लिए किए गए थे, प्रिंट में ये 'कथादेश 'में आए। दुष्यंत हिंदी के चर्चित कथाकार और कवि हैं। इन्होंने फिल्मों के लिए भी लेखन किया, जो चर्चा में रहा है। अनुनाद के पाठक पहले भी उन्हें यहां पढ़ चुके हैं। अनुनाद ने अपने पुराने लेखक साथी दुष्यंत से इन कविताओं के लिए अनुरोध किया था। इस अनुरोध का मान रखने के लिए अनुनाद उनका आभार व्यक्त करता है।



कोस्टारिका में 1949 में जन्में ओस्वाल्दो अस्सी के दशक में कवि के तौर पर पहचाने जाने लगे। उसके बाद की लेटिन अमेरिकन कवियों की पीढी उन्हें अपना आदर्श मानती है। अब तक 6 कवितासंग्रहों के प्रकाशन के साथ उनकी ख्याति दुनिया भर में हुई है और दुनिया भर के कविता उत्सवों में वे भागीदार रहे हैं, लगातार बुलाए जाते हैं। वे कई समवेत कविता संकलनों के संपादक भी हैं जिनकी चर्चा लगातार पश्चिमी देशों में हुई है। 

हिंदी अनुवाद - दुष्यंत

नाचती है एक स्त्री

रात में छुपी हुई
नाचती है एक स्त्री
अपनी बांहे फैलाती है
बोलते पंखों सी
वायुकेंद्र से वायु चक्र तक
परछाइयों की दीवारों के बीच फैला हुआ
प्रकाश का सूनापन
वो एक सितारे सी घूमती हुई
बनाती है रेखाएं
संभावनाओं के पथ पर
पीछे हट जाती है
नाचती है
परिवर्तित होती है
जैसे उठाएं किसी पक्षी को
और धरती के आलिंगन से
एक चुंबकीय आकर्षण सा
जलते हुए लाल कोयले की तरह
गुफाओं की प्रतिध्वनि सी
नाचती है और हिलती है
बालसुलभ भय से
वो अब भी भयभीत
अपने भीतर से आवाज देती है
नाचती है एक स्त्री
काष्ठ के हृदय पर जलाने को
जिंदगी की अंधी धड़कन
मेरे निष्ठुर घावों पर नाचते हुए
पश्चाताप के पथ पर
नाचती है एक स्त्री
अकेली दुर्भाग्य के विरूद्ध
घूमते हुए ग्रह पर
स्मृतियों की दुर्घटना पर नाचती है
और खुद पर पलटती है
हमारे सामने अपनी व्याकुलता को प्रकट करने को
जो थी धरती के स्वर्ग से निर्वासित
एकांत के यूटोपिया में
मैं शब्दों की ओर देखता हूं
जो भीड़ को गति देगा
जो अपने पाश्र्व में नीहित समस्त शब्दों
को एकत्र करेगा
जो खो गया है उसकी तपन से समृद्ध
एक शब्द
अकथनीय की कुंजी से युक्त होगा
कथित की अतीन्द्रिय दृष्टि
एक शब्द
जो बांध लेगी करीब
हृदय के उस द्वीप में
जिससे समुद्र उस पर टूट पड़े।
उसकी मृदु निद्राहीनता
एक अद्भुत शब्द
केवल जिसकी ध्वनि शत्रु को नष्ट कर देगी
एक आईने की तरह
जहां प्रत्येक स्वयं को दूसरे में देखेगा
और कालनिरपेक्षता में
एक शब्द
बारिश और उसके खतरों से प्रार्थना करने
हवा की तरह
समस्त देशों से मिलेगा
और जैसे ही रोटी की ओर मुड़ेंगे
मनुष्य एक दूसरे से जुड़ जाएंगे।
*** 
बच्चे सरीखे मेरे बूढे पिता

एक
मैंने देखा आपको बहुत भयभीत
बिल्कुल बच्चे की तरह!
मेरे पिता जब आपकी आंखों में
मौत ने मौन सूचना दी अपने आगमन की,
मैं तड़प रहा था
आपको शुक्रिया कहने को
गले लगाने और अलविदा कहने को
आपको याद दिलाने को कि
ईश्वर ने सदा आपको माफ किया
ईश्वर हमेशा उन्हें माफ करता है
जो जिंदगी  के लिए जिंदगी की बाजी लगाते हैं
जो अपने हृदय के साहस से
अपने वजूद के रास्ते खोजते हैं
और इसके तमाम जोखिमों को लांघते हैं
मैं तड़प रहा था आपसे कहने को
कि मैंने आपके श्रेष्ठों में श्रेष्ठ गुणों को
भद्रता में आपकी विशिष्ट भद्रता
और मरूस्थल की सौम्य रेत पर स्थित
आपके अटल गर्व को।

दो


मेरे पिता
मैं तड़प रहा था
आपको ले जाने को आपके पिता की कब्र पर
इस उम्मीद के साथ कि आप
इस जीवन में क्षमा कर देंगे
निस्संगता उनके जीवन की
जो छोड़ गया आपको
जो अब रहते हैं अकेले पोर्ट फादर में
मैं चाहता था कि आप छोड़ जाएं
बिना अपने उपर कोई भार महसूस किए
जिससे दूर तट पर
आपकी परेशानियां होगी न्यूनतम 
और आप भूल सकेंगे अपने घाव इसके कारण।

तीन

अब आप शांति से रह सकते हैं
मेरे बूढे पिता बच्चे से
आपके पोते दोहिते
पहले ही आपके बारे में बात करते हैं
जैसे आप गए नहीं हो कहीं
अब भी तुम मौजूद हो
हमारे समय में
डरिए मत!
जैसे ही आप प्रकाश का रास्ता पार करेंगे
समय फिर से आपको ले जाएगा बचपन में
फिर आप बिछड़े सूरज से खेलोगे
मैं आपको गले लगाउंगा पिताजी!
जे मैं नहीं कर सका मेरे पिता को उनकी मौत पर
जो अब पोर्ट फादर में अकेले रहते हैं
***

शताब्दी का अंत

पहला जाम


मैं बहुत तन्हा हूं
और पुलिस के लिए भी अवांछित
यह काल्डस रम
मेरी उदासी में बेअसर है
मेरा कोई प्रियजन मेरे पास नहीं है
कोई जीवमात्र भी
मुझे याद दिलाने को
इस ग्रह का भाग्य!
मेरे बेटे अपने कामों पर गए हैं
मैं बस अपने ही साथ अकेला
कि समझ तो सकता हूं आत्महत्याओं को
पर खुद को गोली मारने की हिम्मत नहीं करता।

दूसरा जाम


वो सही थे
जब उसने इनसान बनाया
ईश्वर के पास दो जाम कम पड़ रहे थे
अब एकांत है
ख्वाबों का कटोरा
स्त्री जिसे मैं जानता हूं
लौटती है धूल के फूल उगाने को
दो जाम...
और दुनिया का चेहरा बदल जाता है..
छोटे मसले गौण हो जाते हैं
और उनमें से एक करता है मौत से ही दिल्लगी !

तीसरा जाम


आत्मसंतुष्टि के मार्ग को अपनाते हुए
मैं खुद को समझाता हूं
पर ये दिल
अब चाहता है
अपने पिंजरे से मुक्ति
अपने संत होने से नहीं बंधा रहेगा
जो आकांक्षाओं को अस्वीकार करेगा
यह मुक्ति चाहता है
और गलियों तक ले जाते हुए
खुद को खपाना उतावले कामों में
तमाम खतरों का जोखिम उठाता है
यह जानते हुए कि सच्चे यौद्धा की तो
पहले ही मौत हो चुकी है।

चौथा जाम


यह संख्या मुझे
क्यों बार-बार परेशान करती है
क्या इसलिए कि मैं चार भाइयों में तीसरे नंबर का हूं
या यह मेरे हाई स्कूल के प्रायः हासिल होने वाले प्राप्तांक हैं
या मैं नहीं जानता
क्योंकि
यह रहस्यपूर्ण अंक हैं
या केवल इसलिए
कि मैं विषम संख्याओं को ज्यादा पसंद करता हूं।

पांचवां जाम


ली पो का चांद फिर चमका
सहज होने की प्यास में
कोई और धारण करता है मेरी देह
धुल जाते हैं 
सारे पाप और सारी घृणाएं
मेरी छाती के पास पतवार रखते हुए
नाव लड़खड़ाती है
बिल्कुल एक शराबी की तरह।



***

विमलेश त्रिपाठी – 15 कविताएँ

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विमलेश त्रिपाठी अनुनाद के पुराने साथी लेखक हैं। उनकी दो लम्बी कविताएं पहली बार अनुनाद पर छपीं और चर्चा में रहीं। बहुत समय बाद विमलेश ने अपनी कविताएं अनुनाद को दी हैं। अनुनाद इन सभी कविताओं का स्वागत करते हुए, इन्हें पाठकों के हाथ सौंप रहा है। 
- - - 
 

घर में अकेले


इस घर में अकेले रहता हूं तो घूम आता
गांव के पुराने घर के आंगन में कई बार
पेंसिल से लिखी दीवारों पर वर्णमालाएं
अपने नाम के पहले अक्षर
गोटी खेलने वाली वो जगहें
खोजता छूता बेतरह

चला जाता उन सखियों के गांव जो बहुत दूर बियाही गईं
उन दोस्तों के घर
जो चले गए सूरत दिल्ली अरब रोटी की जुगाड़ में
उस बूढ़े गवैये के घर
जो गाता था तो हिलता था पूरा गांव वीणा के तार-सा

घर में अकेले रहता  तो कभी नहीं जाता
हावड़ा ब्रीज पर
विक्टोरिया या नंदन नहीं जाता
कार्यालय तो भूल कर भी नहीं

जाता हूं कुछ देर बैठने उस नदी किनारे
जिसमें बहुत कम रह गया है पानी
उस बगीचे में जहां बहुत कम रह गए हैं पेड़
उस चौपाल पर
जहां अब मेहिनी नहीं होती पूरवी की तान नहीं लहराती

जाता हूं बार-बार लौटकर
जहां अपना बचपन छोड़ आया था एक दिन
बार-बार जाता हूं
उसे ही तलाशता हंकासा-पियासा

और लौट आता हूं बार-बार निराश
इस घर में अकेला 
जिसे मेरा ही घर कहते हैं लोग-बाग ।
*** 

सड़क पर रहते लोग

वे दंगे नहीं करते   हत्या नहीं करते
राजनीति नहीं करते
मंदिर  मस्जिद या गिरिजाघर नहीं जाते
घोर निराशा में भी  वे आत्महत्या  नहीं करते

वे हँसते हैं जोर-जोर
प्रसव करते हैं    बच्चों को पालते हैं
कुत्ते और बिल्लियों को अपना दोस्त बनाते हैं
धूल और धुएँ के बीच जीते हैं
वे अपने देश को गालियाँ नहीं देते
वे कभी देश के लिए खतरा नहीं होते

कुछ खास और सरूख़ लोगों का समुद्रशास्त्र बताता है
कि वे देश के नक्शे पर
गलत जगहों पर उगे मस्से की तरह हैं
तमाम दुख और अभाव के साथ
कुछ काले धब्बे-से
उनका होना देश के लिए शुभ नहीं है

पता नहीं कितनी सदियाँ बीतीं
और मेरा कवि उस दिन का इंतजार कर रहा है
जब वे देश के ललाट पर चिपक जाएंगे
एक सुंदर तिल की तरह
समुद्रशास्त्र का तो पता नहीं
कि देश के व्याकरण और कविता  की भाषा में एक दिन
वे शुभ हो जाएंगे।
*** 

फ़िलहाल

कौन हैं जो साजिशों की अंधेरी परतों में छुपे बैठे हैं
कौन हैं जिन्हे कविता और जनता की भाषा समझ नहीं आती
फर्जी और अबूझ आदेश देने वाले वे लोग
कौन हैं इमान में जिनके काली हँसी तैरती है

कविता और आम जनता की भाषा में बेनकाब वे बहरूपिए
रात-दिन जो बनाते हैं आत्महत्या की रस्सियाँ
जिनके नाम पर जहर बनाने की हजारों फैक्टरियाँ
कौन हैं वे लोग जिनकी दुकानें
इस अभागे देश के नाम पर फल-फूल रही हैं

कौन हैं वे प्रेस कॉन्फ्रेंसों में झूठ उगलते
मंचों पर देशभक्ति दनदनाते
नूक्कड़ों पर ईमानदारी की उल्टियाँ करते
कौन हैं वे लोग जिनकी आत्मा की शर्मो हया
राजनीति के अंधकूप में गिरवी है

आओ इन्हें अपनी कविता के गिलोटीन पर चढ़ा दें
फिलहाल इनके लिए
कोई और दूसरी कठोर सजा नहीं।
***

वह

वह कविता में अभिनय करता
करता प्यार में अभिनय
उसने चेहरे पर लगा रखे हैं
कई तरह के मुखौटे

वही समय का सबसे बड़ा प्रेमी
वही समय का सबसे बड़ा कवि ।

*** 

जब वह दिन

कुछ लोग थे जो बहुत तेजी से खूँखार जानवर में बदलते जा रहे थे
मैं चाहता था  सिर्फ आदमी बने रहना
लेकिन मुश्किल यह
कि आदमी बनकर मैं 
एक अजीब तरह के दुख का शिकार हो जाता था
साँस तक लेने में होने लगती थी तकलीफ

तब मुझे लगता कि इस देश में जिंदा रहने के लिए
मुझे भी एक दिन जानवर में बदल जाना होगा
मेरे सारे प्रतिरोध
एक जगह धरे के धरे रह जाएंगे

वह दिन आया और मैं भी जानवर की शक्ल में तब्दील हो गया
तब मेरे पास दुनिया भर की चीजें थीं
जिनके न होने से गांव घर से लेकर मुहल्ले भर में
अब तक मुझे नकारा समझा जाता था

जब वह दिन आया तब सब कुछ था मेरे पास
सिर्फ कविता नहीं थी ।
*** 
शब्द कहीं नहीं जाते

शब्द कहीं नहीं जाते
धान की तरह रहते ओखर में
तसली में डभकते चावल की तरह
रक्त में चले जाते कुछ देर
हमें ताकत देते 
दुःसमय के खिलाफ लड़ने को 
धमनियों में रेंगते 
और फिर वापिस चले आते 
मौसम के रंग की तरह

और कविता कहां जाती है
सूखे खेत में बारिश के पानी की तरह
चूल्हे में लावन की तरह
शरबत में गुड़ और तरकारी में नमक की तरह

कविता कभी-कभी जाती है परदेश 
कमाने के लिए
और एक दिन मिट्टी के एक घर में
महीनों बाद अन्न की गंध
और मुरझाए चेहरे पर 
हंसी की तरह लौटती है
*** 
दो हाथ मिलकर

एक हाथ एक दुनिया नहीं है
एक हाथ एक दूसरे हाथ के साथ मिलकर दुनिया है
दुनिया अगर दो हाथ बन जाए
तो वह बहुत सुंदर एक शब्द

और दो हाथ मिलकर अगर दुनिया बन जाएं
तो वही मुक्म्मल एक कविता ।
***
 
नए साल में

हालांकि मां को लिखनी ही होगी चिट्ठी
बहनों को भेजना ही होगा राखी के दिन संदेश
पिता को तो प्रणाम भर कर लेने से काम चल जाएगा
लेकिन बच्चों के लिए 
तुतलाते हुए कुछ शब्दों की होगी जरूरत
इस दुनिया में न रहे पितरों के लिए
मंत्रों के कुछ अंश बचा लेने होंगे

दोस्तों के लिए बचा कर रखना होगा
मिसरी-से कुछ मीठे बोल

बावजूद इनके
नए साल में बहुत कम शब्द खरचूंगा

रोजमर्रा की जरूरतों से
शब्द-शब्द बचाकर
बनाऊंगा 
एक ऐसा देश 
जिसके नाम पर रोना नहीं आएगा

नए साल में कविता नहीं
सचमुच का देश लिखूंगा ।
*** 

लौटना

लौट आया हूँ मेरे दोस्त

घोसले में लौटी चिडिया की तरह नहीं
मटमैले घर में किसान की तरह नहीं
न चींटियों की तरह सुरक्षित बिल में

लौट आया हूँ जंगल में अंधेरे की तरह
खेत में सूखे की तरह
उस तरह कि एक पराजित योद्धा
लौटता है लहूलूहान अपने टैंट की ओर

कि जैसे आँख में लौटता है पानी
पैर में झिनझिनी
सिर में असह्य दर्द लौटता है जैसे

लौट आया हूँ जैसे पिता लौटता है
एक मृत शिशु को जमीन में गाड़कर निढाल
माँ लौटती है
बेटी को डोली में विदा कर रूआँसा

लौटता है जैसे दिन
रात को अपनी कोख में छुपाए

लौट आया हूँ संसार की विलुप्त होती
भाषाओं की तरह
जानवरों की तरह
आदिवासियों की तरह

अंततः लौट आया हूँ मेरे दोस्त
कि अब कभी नहीं लौटूँगा ।
*** 
मौलिक

बाद एक शब्द लिखने के सोचता हूँ कि इसे किसी ने पहले ही लिख दिया है
एक वाक्य लिखकर लगता है कि इसे तो पहले
और पहले कई लोगों ने लिख दिया है
एक कविता लिखने के बाद खंगालता हूँ कविता की दुनिया
तो पता चलता है
कि यह कविता भी बहुत पहले लिखी जा चुकी है
मैं लिखे हुए को
फिर-फिर लिख रहा हूँ
और जी रहा हूँ इस एक दुखद भ्रम में कि मैं लिखे हुए को ही दुहरा रहा हूँ
कि घिस रहा हूँ शब्द, वाक्य
और इस तरह कविता को भी
इस तरह बन रही हैं ढेर सारी पहले से ही लिखी जा चुकी कविताएँ
छप रही किताबें
लेकिन यह सब होने पर भी
एक काम करता हूँ जरूर
और वह मौलिक है
नया है
उसमें दुहराव नहीं
कि हर शब्द, हर वाक्य, हर पदबंध
हर कविता के साथ
मैं अपना समय जड़ देता हूँ
जो मेरा अपना समय है
कि अपनी जमीन की थोड़ी-सी माटी भुरभुरा देता हूँ अदृश्य
जो मेरी अपनी माटी है
कि इस तरह हर बार मैं मौलिक
और अलग हो उठता हूँ ।
***

लिखने का स्वप्न

आजकल लिखता नहीं कुछ
लिखने का स्वप्न देखता हूँ
यकीन कीजिए
कुछ न लिखकर
लिखने का स्वप्न देखना
बहुत सम्मोहक
और बहुत खतरनाक होता है ।
***
 
ख़्वाब में कविता

ख़्वाब में चांद चांद ही रहता है
पृथ्वी पृथ्वी ही रहती है
हवा बहती हवा की तरह
रात रहती रात की तरह ही

ख़्वाब में तुम नहीं रहते तुम
घर नहीं रहता घर
हमारे बीच की नदी नहीं रहती नदी

झर जाते स्मृतियों के गुलाब
टूटता भरभराकर हमारे बीच का पुल
नदी का वेग अंतहीन

ख़्वाब में हमारे शब्द
चनकते कांच की तरह
लय टूटता अपने उठान पर
सांस टूटने की तरह

और कविता साध लेती मौन
अंतहीन ।

***

उम्मीद

रात से पूछता हूं
कैसे सहती हो यह एकांत अपनी छाती पर अकेले

रात हंसती है
मेरी देह पर एक शब्द लिखकर
'सुबह'
***
 
महत्वाकांक्षा

चाहता हूँ
एक चिरइ की-सी 
महत्वाकांक्षा

वही लेकर जीना
वही लेकर मरना

बस वही

और
कुछ भी नहीं
नहीं... नहीं ।
***

आत्महत्या

धरती दरक जाती   आसमान सियाह धुंध में ढक जाता
दुनिया की सारी अच्छी किताबें खाक में तब्दील हो जातीं

सूख जाते सब महासागर
नदियों की कोख में उड़ती धूल
संपूर्ण सृष्टि यह मौन - अवाक्

और एक एक कर सारे ईश्वर मर जाते ।
***
विमलेश त्रिपाठी
·        बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म । प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·        प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता विश्वविद्यालय में शोधरत।
·        देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा, लेख आदि का प्रकाशन।
·        कविता और कहानी का अंग्रेजी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
सम्मान       
·        भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार
·        ठाकुर पूरण सिंह स्मृति सूत्र सम्मान
·        भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार
·        राजीव गांधी एक्सिलेंट अवार्ड
पुस्तकें
·        हम बचे रहेंगेकविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
·        एक देश और मरे हुए लोग,  कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन
·        उजली मुस्कुराहटों के बीच, ( प्रेम कविताएँ) ज्योतिपर्व प्रकाशन
·        अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
·        कैनवास पर प्रेम, उपन्यास, भारतीय ज्ञानपीठ
·        आमरा बेचे थाकबो ( कविताओं का बंग्ला अनुवाद), छोंआ प्रकाशन, कोलकाता
·        वी विल विद्स्टैंड( कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद), अथरप्रेस, दिल्ली
·        2004-5 के वागर्थ के नवलेखन अंक की कहानियां राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित।
·        देश के विभिन्न शहरों  में कहानी एवं कविता पाठ
·        कोलकाता में रहनवारी।
·        परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में  कार्यरत।
·        संपर्क:साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
·        ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
·        Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com
·        Mobile: 09088751215




एक वृक्ष का शोकगीत और विषाद की कुछ कविताएँ - राकेश रोहित

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राकेश रोहित ने पिछले कुछ समय में निरन्तर मूल्यवान कविताएं लिखी हैं। प्रकृति के गझिन रूपकों और उदात्त मानवीय भावनाओं के बीच उनकी भाषा ने इधर एक नया लहज़ा विकसित किया है। प्रस्तुत है राकेश जी की ऐसी ही कुछ नई कविताएं।

***
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एक वृक्ष का शोकगीत

कहाँ से सूखता है वृक्ष

पहले जड़ें सूखती हैं
या पहले सूख जाता है टहनियों में बहता रस?

एक दिन पेड़ से झरा पत्ता
अपने दुख की कथा लेकर
लौटता है जड़ों के पास
बदलता करवटें बेचैनी में
धीरे-धीरे घुलता है
मिट्टी बन सोख लिया जाता है
जड़ों में
और निस्पंद टहनियां
उन्मत्त हो गाती हैं बसंत का गीत!

क्या टहनियों के पास झर गये पत्ते की स्मृतियां हैं?
क्या जड़ों को है उसका दुख?
धीरे-धीरे यह जो निरंतर
बिखर रहा है जीवन
और समय का सुगना पाखी
चुग रहा है विह्वल मन
क्या किसी को खबर है कि
कैसे एक दिन उदास हो जाती है टहनियां
और जागते जड़ों के रहते हुए भी
बन जाती हैं ठूंठ?

एक अकेले समूचे वृक्ष की भी
अलग- अलग गाथाएँ हैं
कविता लिखते हुए मुझे दिखता है
सबका अलग- अलग अकेलापन
इसलिए इतनी उदास है मेरी कविताएँ
इसलिए जब मैं एक वृक्ष के बारे में बोलता हूँ
मैं उस वृक्ष में छिपे
थके, आश्रय लेते
हजार अकेलेपन के बारे में सोचता हूँ।

एक साथ नहीं मरता है वृक्ष
पर कलरव में डूबे पक्षियों को खबर नहीं होती
पहले सूख जाती हैं जड़ें
या सूख जाता है पहले टहनियों का रस?

***

और विषाद की कुछ कविताएँ


(1)
दुख वही पुराना था
उसे नयी भाषा में कैसे कहता
पुरानी भाषा में ही
निहारता रहा अपना हारा मन।

हाथ में किरचें समेटे
चलता रहा भीड़ में
किसी ने नहीं पूछा
मैं इतना अकेला क्यों हूँ
किसी ने नहीं पूछा
मेरी खामोशी का सबब।

जब लोग युग का नया मुहावरा रच रहे थे
मैं समेट रहा था अपना आदिम दुख
चौंक गया एक दिन मैं यह देख कर
मेरी आँखों में कितने पुराने आंसू थे!

(2)
मेरे पास एक सपना है
और हजार दुख!

मैं आँसुओं को समेटता रहता हूँ सारी रात
और दुख रेत की तरह किरकिराता है आँखों में
मैं सपने के लिए थोड़ी नमी बचाना चाहता हूँ
और वह कहती है
आँसुओं को बह जाने दो
तो थोड़ा आराम आए!

इस समय में
जहाँ दुख हजार बिखरे हैं
बहुत कठिन है अपना एक सपना बचाना
यह जो धुंधला दिखता है जगत का दृश्य
कह नहीं सकता रेत चुभ रही है आँखों में
या मेरा सपना बिखर रहा है!

(3)
मैं उस जीवन को देखता हूँ जो धुंधला है
उसमें साफ नहीं है मेरी भी तस्वीर
एक अंधेरा जो मन के अकेले कोने से
अधिक काला है
धीरे- धीरे फैल रहा है
रोशनी की शहतीरों के बीच!

कुछ अव्यक्त उदासियों की
धरती पर छाया पड़ रही है
परछाइयाँ जिंदगी में यह कौन सा खेल खेलती हैं
जीवन में जब मैं पहली बार रोया था
क्या जिंदगी में मैं तब भी इतना ही अकेला था?

(4)
यह आकाश है
और इसमें एक ठहरी हुई गेंद
इस गेंद को अगर हाथ से छोड़ दें तो
गेंद ने विज्ञान नहीं पढ़ा
फिर भी गेंद वहीं जायेगी
जहाँ न्यूटन ने कह रखा है
पर अगर गुरूत्वाकर्षण न हो तो
तो यह वहीं थिर रहेगी
अनंत काल तक!

यह शून्य है
और इसमें मेरा मन
इसे नहीं खींचता धरती का कोई बल
इसका कोई भार नहीं है
न ही कोई आयतन
फिर भी यह थिर क्यों नहीं होता
क्यों भटकता है बिना किसी बल के
यह निर्बल, निर्भार?

(5)
दुख के इस पन्ने को रंग दो
नीले रंग से
फिर उस पर खींच दो
काली रेखाएं
अब अपनी आँखें बंद करो
और अपनी उंगली रखो उस पन्ने पर
कहीं भी
वह क्या है जो बिच्छू की तरह
डंक मारता है एक बार
और फिर सारी उम्र
टीसता है!

क्या रंग से पहले इस पन्ने पर
किसी का नाम लिखा था
फिर सारी जिंदगी हम
क्या लिखते रहे काली रेखाओं से?

(6)
जानने को कुछ नहीं रह गया है
गिरने दो विश्वास के वृक्ष का
आखिरी तना
चिड़ियाएं सारी उड़ कर
खो गयी हैं आकाश के एकांत में...

एक पत्ता टूट कर गिरता हुआ
तैरता है हवा में बेमतलब, बेचैन!

जड़ों के पास थोड़ी उखड़ी हुई
भुरभुरी मिट्टी है
और समाप्त हो गई
एक संभावनापूर्ण कथा!

***

अदनान कफ़ील दरवेश की दस कविताएं

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अदनान कफ़ील दरवेश हिंदी कविता के इलाक़े में नया नाम है। मैंने सोशल मीडिया पर उनकी दो-तीन कविताएं पढ़ीं और उनसे कविताओं के लिए अनुरोध किया। राख हो चुकी बहनों का उल्लेख असद ज़ैदी की बहुचर्चित कविता 'बहनें'के बाद उसी तड़प और मर्म के साथ दुबारा देखना एक कवि-प्रभाव के साथ-साथ समाज के उन्हीं कोनों-अंतरों को देखना भी है, जो अब तक कमोबेश वैसे ही रहे आए हैं। आज़ादी के बाद की कविता के पूरे सिलसिले को याद करें तो एक मुकम्मल दृश्य बनता है, जहां हिंदी कविता में दोआबे की वही आंच भरी ज़ुबान बार-बार लौटती है - यह केवल भाषा का सिलसिला नहीं, बच रही मनुष्यता का सिलसिला भी है, हमारे कितने ही कवियों के नाम इस सिलसिले में शामिल हैं। अदनान कफ़ीर दरवेश के रचनाकर्म को लेकर मैं उत्सुक हूं, हमेशा उन पर निगाह टिकी रहेगी। 

अनुनाद पर आपका स्वागत है मेरे नौउम्र साथी।
*** 

पुन्नू मिस्त्री

मेरे कमरे की बालकनी से दिख जाती है 
पुन्नू मिस्त्री की दुकान 
जहाँ एक घिसी पुरानी मेज़ पर 
पुन्नू ख़राब पंखे ठीक करता है 
जब सुबह मैं 
चाय के साथ अख़बार पढ़ता हूँ 
वो पंखे ठीक करता है 
और जब मैं शाम की चाय 
अपनी बालकनी के पास खड़े होकर पीता हूँ 
पुन्नू तब भी पंखे ठीक करता दिख जाता है 
मुझे नहीं मालूम कि उसे पंखे ठीक करने के अलावा भी 
कोई और काम आता है या नहीं 
या उसे किसी और काम में कोई दिलचस्पी भी होगी 
पुन्नू मिस्त्री की केलिन्डर में कोई इतवार नहीं आता 
मुझे नहीं पता जबसे ये कॉलोनी बसी है 
तबसे पुन्नू पंखे ही ठीक कर रहा है या नहीं 
लेकिन फिर भी मुझे पता नहीं ऐसा क्यूँ लगता है कि 
सृष्टि की शुरुवात से ही पुन्नू पंखे ठीक कर रहा है..
मेरे पड़ोसी कहते हैं कि, “पुन्नू एक सरदार है
कोई कल कह रहा था कि, “पुन्नू एक बोरिंग आदमी है 
मुझे नहीं मालूम कि बाकि और लोगों की क्या राय होगी 
इस दाढ़ी वाले अधेढ़ पुन्नू मेकेनिक के बारे में 
लेकिन मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि कोई दिन मैं अपनी गली भूल जाऊँ 
और पुन्नू भी कहीं और चला जाये 
तो मैं अपने घर कैसे पहुँचूँगा ?
मुझे पुन्नू इस गली का साइनबोर्ड लगता है 
जिसका पेंट जगह-जगह से उखड़ गया है 
लेकिन फिर भी अपनी जगह पर वैसे ही गड़ा है 
जैसे इसे यहाँ गाड़ा गया होगा 
पुन्नू की अहमियत इस गली के लोगों के लिए क्या है 
ये शायद मुझे नहीं मालूम 
लेकिन मुझे लगता है कि 
पुन्नू की दुकान इस गली की घड़ी है 
जो इस गली के मुहाने पर टंगी है...
(रचनाकाल: 2016)

- - -

गमछा
पिता जब कभी शहर को जाते 
माँ झट से अलमारी से गमछा निकालकर
पिता के कंधो पर धर देती
जैसे अपनी शुभकामनाएँ लपेट कर दे रही हो
कि सकुशल घर लौट आना
मुन्हार होने से पहले.
जब माँ अपने यौवन में ही ब्याह कर आई थी पिता के घर
तब भी शायद उसने अपने सारे स्वप्नों को एक गमछे में लपेटकर
पिता को सौंप दिया था
पिता 
जो दुनियादारी के कामों में अक्सर चूक जाते
गच्चा खा जाते
कई बार भूल जाते अपना चश्मा 
अपनी कलम 
दुकान की चाबी और तमाम चीज़ें 
शायद उसी तरह माँ के स्वप्नों की पोटली भी
कहीं खो आए 
शहर जाते हुए किसी दिन.
माँ 
जिसे मैंने टीवी और फिल्मों में दिखने वाली
पत्नियों की तरह व्यवहार करते हुए कभी नहीं देखा
कभी कुछ खुल कर माँगते-मनवाते नहीं देखा 
माँ जो सिर्फ़ माँ ही थी 
शायद पिता के लिए भी
कभी न पूछ सकी पिता से कि वे कहाँ उसके 
स्वप्नों की पोटली छोड़ आए...
जब एक दिन ट्रेन पकड़ने के लिए घर से निकला 
माँ ने मेरे कंधो पर भी गमछा डाल दिया
और मैंने सहसा अपने कन्धों पर काफी वज़न महसूस किया
जब स्टेशन पर अकेले किसी कोने में बैठा 
ट्रेन का इंतजार कर रहा था
कंधे पर पड़े गमछे की तरफ मेरी नज़र गई
जिसका मुँह मेरी ही तरह लटका हुआ था 
और मैंने महसूस किया माँ के हाथ का दबाव 
जो वैसे का वैसा ही अब भी गमछे में लिपटा पड़ा था
माँ का विदा में उठा हाथ याद आया मुझे
और पिता का थका कंधा भी 
जो अब गमछे के वज़न से भी अक्सर झुक जाता था...
गमछा जो अब पूरे रास्ते मेरा साथी बनने वाला था
मैंने उसपर हाथ फेरा 
और उसे देखकर शुक्रिया अदा करने की मुद्रा में मुस्कुराया.
गाँव से हज़ारों मीलों दूर 
इस महानगर में जब कभी बाहर धूप में निकलता हूँ 
तो अपने उदास और कड़े दिनों के साथी
अपने गमछे को उठाता हूँ और उसे ओढ़ लेता हूँ 
क्यूँकि मुझे यक़ीन है इस गमछे पर 
इसके एक-एक रेशे पर
जिसमें मेरा ही नमक जज़्ब है !
और
सच कहूँ तो 
एक पुरबिहा के लिए गमछा 
महज़ एक कपड़े का टुकड़ा भर ही नहीं है 
बल्कि उसके कन्धों पर बर्फ़ की तरह 
जमा उसका समय भी है !
(रचनाकाल: 2016)

- - -

जगहें-1

माँ कहती थी-
"...जगहें बोतल की तरह होती हैं
वो भरतीं हैं
और ख़ाली भी होती रहती हैं"
माँ ये भी कहती थी-
"...जगहें कभी पूरी नहीं भरतीं
और न ही कभी पूरी रिक्त होती हैं
हम थोड़ी मशक्कत करके
थोड़ी और जगह बनाते हैं...."
मैंने भी
अपने प्रेम के लिए
थोड़ी जगह बनायी थी
लेकिन अब सिर्फ जगह बची है
प्रेम नहीं
अब प्रेम
उस जगह के खाली होने
और भरने के बीच का
एकांत है.....
(रचनाकाल: 2015)

- - -

राखी

बहनें नहीं आईं इस बार भी
आतीं भी तो किस रास्ते 
जबकि रास्ते भूल चुके थे मंज़िल
भाईयों की कलाइयाँ सूनी थीं 
राखियाँ 
राख में धँस गयी थीं
बहनें राख बन चुकी थीं...
(रचनाकाल: 2016)

- - -

बारिश में एक पैर का जूता

गुरूद्वारे के बाहर 
एक कार के ठीक सामने 
बारिश में एक पैर का जूता भीग रहा है 
पानी पर मचलता हुआ 
उत्सव मना रहा है 
मैं रिक्शे से गुज़रते हुए उसे देख रहा हूँ 
सब ने छतरियाँ ओढ़ ली हैं 
या छज्जों की ओट में आ गए हैं 
सब कुछ धीमा-सा पड़ गया है
बारिश का संगीत जूते को मस्त किये हुए है 
इन हाँफते हुए लोगों में मुझे जूता ज़्यादा आकृष्ट कर रहा है 
जूता 
जिसे अपने पाँव के खो जाने का शायद कोई दुःख नहीं है !

(रचनाकाल: 2016)

- - - 
बीमार दोस्त

मैं अपना हाथ बढ़ाता हूँ 
उसके ख़त की तरफ़ 
और फिर वापिस खींच लेता हूँ 
उसका ख़त तप रहा है 
ठीक उसके माथे की तरह !
(रचनाकाल: 2016)

- - -


धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी 

धूप मुक्की से वैसे ही झाँकेगी रोज़ सुबह,
पछुवा वैसे ही बहेगी और धूल झोंक जायेगी कमरे में 
पंखा अपनी रफ़्तार नहीं बदलेगा 
मैं वैसे ही चारपाई के पायताने घुटनों पर सिर रख के बैठूंगा 
हाँ खूंटी से कुछ कपड़े कम हो जाएँगे
बरसात में पूरब की दीवाल भीगेगी लेकिन उसे देखकर कोई चिंतित नहीं होगा अब 
मेज़ पर पाकीज़ा आँचल अब शायद कभी नहीं दिखेगा
बस रोज़ रात को पच्छिम की दीवाल गिरेगी मुझपर
घड़ी की हर टिक-टिक के साथ किसी की याद बहुत आएगी 
जो अब इस कमरे में कभी उपस्थित नहीं होगा !

(रचनाकाल: 2016)

- - -

पहचान 

बचपन में मुझे
माँ और पिता के बीच मेंसुलाया जाता
मेरी नींद कभी-कभार बीच रात में ही
टूट जाती
और मैं उठते हीमाँ को ढूँढता.
घुप्प अँधेरे में
एक जैसे दो शरीरों में
मैं अंतर नहीं कर पाता
इसलिए मैं
अपनी तरफ़ ढुलक आयेदोनों चेहरों को टटोलता.
पिता की नाक काफ़ी बड़ी थी
सो मैं उन्हें पहचान जाता
मेरे लिए जो पिता नहीं थेवो ही माँ थी
इस तरह मैंने अँधेरे मेंमाँ को पहचानना सीखा।
(रचनाकाल: 2016)

- - - 
बीमारी के दौरान

तुम्हारी याद ने इन दिनों 
बिल्ली के करतब सीख लिए हैं 
वो चली आती है दबे पाँव हर रोज़ 
समय, काल औए मुंडेरों को छकाती हुयी
एकसाथ. 
कितने-कितने दिन बीत गए 
तुम्हें छुए; तुमसे मिले हुए
मेरे रोएँ भी जानते हैं तुम्हारा मुलायम स्पर्श
तुम्हारी गंध को मैं नींद में भी पहचान सकता हूँ
आजकल मैं धीरे-धीरे खाँसना सीख गया हूँ
वक़्त पे दवाएँ भी ले लेता हूँ 
बेवजह बाहर भी नहीं निकलता
देखो तुम्हारे अनुरूप कितना ढल गया हूँ 
कोई दिन तुम आ जाओ मुझसे मिलने
जीवन और मृत्यु के संधिकाल में
आजकल मैं नींद में भी 
एक दरवाज़ा खोल के सोता हूँ !
(रचनाकाल: 2016)
- - -

जब दिन लौट रहा था

जब दिन पश्चिम के आकाश में 
तेज़ी से लौट रहा था
मैं हज़ारों मीलों दूर 
तुम में लौट रहा था
तुम जो मेरा घोंसला थीं
एक थके पक्षी का घोंसला 
मेरा लिबास थीं तुम 
जिसमें मैं समा रहा था
दक्षिण के मलिन आकाश में 
मेरी प्रार्थनाएं गुत्थम-गुत्था हुयी जाती थीं
ईश्वर का मुख विस्मय में खुला था
क्योंकि वो पश्चिम के आकाश में बैठा था 
और मेरा रुख़ उसके मुताबिक नहीं था !
(रचनाकाल:2016)
- - - 
अचानक

वो अचानक नहीं आता 
बता कर ही आता है
क्योंकि उसे मालूम है 
कि मुझे किसी चीज़ का अचानक होना
कोई ख़ास पसंद नहीं 
मुझे वो सुख ज़्यादा प्रिय है जो अपनी 
ख़बर पहले भिजवा दे 
और दुःख 
जो धीरे-धीरे अंधकार में उतरते हों
और जब मैं उससे कहता हूँ कि-
"..
सुनो ! 
मुझे मृत्यु भी धीरे-धीरे ही चाहिए.."
तो वो कई-कई रोज़ मेरे घर नहीं आता 
अचानक भी नहीं !
(रचनाकाल: 2016)
- - -

ठूँठ की तरह

आसमान को कुछ याद नहीं 
कि वो किसके सिर पर फट पड़ा था एक दिन 
ज़मीन को भी कुछ याद नहीं कि उसने किस-किस की 
पसलियाँ तोड़ के रख दी थीं 
उन खरोंचों और चोटों को भूल चुके हैं लोग 
और शायद हम भी 
अब कहाँ याद है कुछ..
एक दिन तुम भी मुझे भूल जाओगे
लेकिन मैं बड़ा ही ज़िद्दी पेड़ हूँ
तुम्हारी स्मृतियों में 
ठूँठ की तरह 
बचा रह जाऊँगा...
(रचनाकाल: 2016)


कवि परिचय:

नाम: अदनान कफ़ील दरवेश
जन्म: 30 जुलाई 1994
जन्म स्थान: ग्राम-गड़वार, ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश
शिक्षा: कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक), दिल्ली विश्वविद्यालय
स्थायी पता: S/O एहतशाम ज़फर जावेद, ग्राम/पोस्ट- गड़वार
           ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश
           पिन: 277121  
प्रकाशन: पत्र-पत्रिकाओं तथा ब्लॉग्स पर छिटपुट प्रकाशित   

संपर्क:
ईमेल: thisadnan@gmail.com
फ़ोन: 9990225150




ज़िंदादिली का दूसरा नाम : कृष्णा सोबती - विपिन चौधरी

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कृष्णा सोबती का होना हिंदी कथा जगत की उपलब्धि है। अनुनाद की साथी कवि विपिन चौधरी ने उन पर अपना आत्मीय लेख हमें सौंपा है। यह लेख फेमिना में छप चुका है। यह इसका पुन:प्रकाशन है और अनुनाद इस सहयोग के लिए विपिन का आभारी है। अगली पोस्ट में विपिन की कुछ कविताएं हम अपने पाठकों से साझा करेंगे।

दिल्ली महानगर,  हिंदी साहित्यकारों का गढ़  माना जाता है. यहाँ लगभग हररोज़ ही साहित्यिक आयोजनों की चहल-पहल होती है,  तमाम तरह की खेमेबाजी और विमर्श को यहाँ जगह ज़मीन मिलती आयी  है. कई बड़े साहित्यकारों की पनाहगाह है दिल्ली. देश से कोने-कोने से यही आकर बसे साहित्यकार दिल्ली की ज़मीन पर उर्वर हुए यहीं की आबो-हवा में वे सब अपनी साहित्यक काबिलियत के बल पर शीर्ष तक  पहुंचे और युवा रचनाकारों की प्रेरणा स्रोत बने.

इसी दिल्ली  में रहती है  91 वर्षीय कृष्णा सोबती,  जिनके लेखन का अंदाज़- ए- बयां  अपनी अलहदा  विशिष्टता के लिए हिंदी साहित्य में अलग से चिन्हित किया जाता है. पकिस्तान के गुजरात शहर में जन्मी कृष्णा जी आज भी जब  अपने बचपन अपने परिवेश को शिद्दत से याद करती हैं तो उनकी आवाज़ में गज़ब की मिठास और आँखों की चमक देखने लायक होती है. कई बार मैं उनकी आँखों की इसी चमक से हो कर गुज़री हूँ.  गाहे-बगाहे उनकी बातों में  कराची शहर, जिसे रोशनियों का शहरमाना जाता है, प्रवेश करता है. फिर बातों से बातें निकलती जाती हैं. गुज़रे समय के यादों के शहर, वहां का खान-पान, वहां का फैशन, बातचीत का सुगढ़ तौर-तरीका, वहां के लोगों में खरीददारी का जुनूनवहां के पुराने घरों और बड़ी-बड़ी हवेलियों की वास्तुकला का सौंदर्य और फिर बगीचों का शहर’, लाहौर  से जुडी अनगिनत यादें चली आती हैं और कृष्णा जी फिर उन्हीं यादों की हो कर रह जाती हैं, मैं उन्हें एकटक देखती हुए सोचती हूँ इतनी बातों और इतनी यादों को मैं अपने करीब कैसे समेट सकूंगी. उनकी स्म्रतियों में विभाजन से पहले के भारत का परिवेश, उस दौर की गहमागहमी अच्छा खासा दबदबा रखते हैं. हर बुजुर्ग की तरह पुरानी यादों में गुम होनागुज़रे समय को मुड- मुड कर देखना उन्हें बेहद अज़ीज़ है. लेकिन एक साहित्यकार का मन-मस्तिक्ष होने के कारण, वे गुजरते समय के साथ बहते हुए भी वर्तमान की विभीषिका पर नज़र रखते हुए अपनी असहमति दर्शाती हैं.  फिर उनके द्वारा महामहिम के नामलिखा पत्र हो, या फिर वर्तमान सरकार की कार्यप्रणाली के प्रति नाराज़गी दर्ज करने वाला उनका लेख हो, उनके लिखे को प्रतिष्ठत अख़बारों में प्रमुखता से जगह दी जाती है. अपनी अस्वस्थता के बावजूद  वे आम जन के दर्द से आज भी पल प्रतिपल गुजरती हुयी दिखती हैंबिसरे दिनों की बेपनाह दुःख और अलगाव भरी यादें आज भी उन्हें सालती हैं. पाठकों ने उनके लेखन में उसी विभाजन के ठहरे हुए दर्द को बार-बार अपना कद निकालते हुए देखा है. उनके प्रतिष्ठित उपन्यास,' जिंदगीनामामें विभाजन से पहले का ग्रामीण परिवेश अपनी पूरी धूसर तबियत और स्फटिक धमक के साथ मौजूद है. अपने लेखन में इसी बानगी के तहत वे युवा पीढी के रचनाकारों में अपने लिए एक अलग तरह की मिठास पाती है. 

भीड़-भाड़ और तमाम तरह की चौंधयाती रोशनियों से दूर कहीं शांत जगह में झिलमिलाता हुआ दीपक मन को असीम शांति से भर देता है ठीक उसी तरह ही दिल्ली की भागमदौड़ और शोर शराबे से दूर मैंने, कृष्णा सोबती के सानिध्य को अपने भीतर ग्रहण किया  सच में  उनका सानिध्य मुझे,शांत और मद्धम-मद्धम आंच देते हुए दीपक जैसा ही महसूस होता है। गाँव के घरों में छोटे-छोटे से आलों में दीपक, जिस सुंदरता से अपने प्रकाश को उजागर करते हुए दिख पड़ते हैं उनकी सहज सुंदरता की शब्दों में व्याख्या करना सहज नहीं। जीवन में कहीं शांति से रचने- पकने की प्राकृतिक सहूलियत है तो इन्हीं सहज चीज़ो के आज-पास है.

कई इंसान भी अपने करीब ऐसी सहज सुंदरता को जगह देते हैं कृष्णा सोबती भी ऐसी ही शख़्सियत हैं जिनका साथ किसी भी मन को असीम तसल्ली दे सकता है. जीवन को जीने का सलीका और अनुशासन उनके संग रह कर सीखा जा सकता है. कई बार एक भोली सी कामना, मन में जगह बनाती है कि उनके जीवन के उत्तरार्ध को मैं आगे बढ़ कर थाम लूँ पर निजता की घोर हिमायती, कृष्णा जी अपने पास सिर्फ अपनी मौजूदगी ही चाहती है. यह एक लेखक का निजत्व है, जो उन्हें हद दर्ज का प्रिय है फिर कोई क्यों उसपर सेंध लगाये ? किसी परिचितअपरिचित से मुलाकात के बाद वे फिर से अपनी सीपी में बंद हो जाती हैं और दुनिया के समुन्दर में आनंदोल्लास करती लहरोँ जैसा उनका रचा हुआ साहित्य, जिसका धरातललोक की बहुलता की बेहद सयंमित अभिव्यक्ति और साफ-सुथरी रचात्मकता के सूत से बुना गया है नज़र आता है. 

कृष्णा सोबती से पहली मुलाक़ात

दिल्ली महानगर की कोलाहल से दूर अपने घर में एक शांत सुकून से भरे वातावरण में कृष्णा जी से पहली मुलाक़ात अपने एक कवि दोस्त की मार्फ़त हुयी।  वरिष्ठ साहित्यकार और अपनी विशिष्ट खूबियों के कारण किवदंती बन चुकी कृष्णा सोबती,  अपनी बढ़ती वय के कारण लेखन कार्यों में हाथ बटाने के लिए वे किसी साहित्यिक सहायिका की तलाश में थी और मैं उनकी मदद के लिए उनके समक्ष थी। एक वरिष्ठ साहित्यकार से नजदीकी की मधुर चाह के चलते ही उम्र की लंबे अंतर के बावजूद मेरी, कृष्णा जी की स्नेहिल दोस्ती पनपी सकी।  लगभग चार साल साल पहले का एक दिनजब  एक शामरात में तब्दील होने को ही थी कि ठीक उसी  वक़्त के आस-पास कवि दोस्त आर. चेतन क्रांति का फ़ोन आया उन्होंने यह कहते हुए,  " कृष्णा जी तुमसे बात करना चाहती हैं"फ़ोन कृष्णा जी को थमा दिया और कुछ सेकंड के अन्तराल में एक बेहद मधुर आवाज़ मेरे कानों में उतरी, बड़ी ही मीठी आवाज़ में  उन्होंने अपना पता नोट करवाया। अगले ही दिन मैं कृष्णा जी की उसी मधुर आवाज़ के आरोह अवरोह में डूबते-उतरते हुए मयूर विहार फेज़ -1 में उनके फ़्लैट के सामने थी. उनसे मेरा यह पहला परिचय था, पहली भेंट आज भी स्मृतियों में सबसे मुखर है.

अपनी सेविका, विमलेश जी  के साथ थोडा झुककर छोटे छोटे क़दमों से कृष्णा जी ड्राइंग रूम में आई और अंग्रेजी में कहा, हेल्लो विपिन यू आर ए स्मार्ट गर्ल’. उन दिनों कृष्णा जी मुक्तिबोध पर एक लंबा लेख लिख रही थी, उसी लेख को उनके साथ पढ़ते और टाइप करते हुए, मैंने मुक्तिबोध को ठीक से जाना और फिर उन्हें तफ़सील से पढने की कोशिश जारी रखी.  

हिंदी साहित्य, कृष्णा सोबती की बेबाक और संयमित अभिव्यक्ति और कलात्मक रचनात्मकता से बखूबी परिचित है. उन्होंने हिंदी की कथा भाषा को विलक्षण ताज़ग़ी से नवाजा हैं. कृष्णा जी ने पचास के दशक में अपने लेखन की शुरुआत की और उनकी पहली  कहानी, 'लामामें 1950  में प्रकाशित हुई। मुख्यत: उपन्यासकहानीसंस्मरण विधाओं में लिखने वाली कथाकार की दिलचस्पी कविताओं में भी हैं इस बात को शायद इस बात को कम ही लोग जानते होंगे.

कृष्णा जी हिंदी की स्टार लेखिका हैं, लेकिन ऐसी स्टार लेखिका जिनके यहाँ किसी तरह की शोशेबाजी कभी दिखाई नहीं दी. हमेशा लंबी ड्रेस में नज़र आने वाली और हशमतनाम से खुद को संबोधित करने वाली कृष्णा जी की  हिंदी साहित्य में जो पैठ है उसका कोई सानी नहीं। 

उनके साथ इतने अरसे सोहबत में मैं जान पायी हूँ कि  भीड़ और जमवाड़ा उन्हें बिलकुल नहीं सुहाताआयोजनो से वे दूर ही रहती  हैं.  सीधे-सीधे इंटरव्यू देना उन्हें पसंद नहींउन्हें कागज़ पर प्रश्न लिख कर दे दो समय मिलने पर वे उनका उत्तर लिख देंगी, काम समय पर हो जाएगा पर उनकी शर्तें अडिग हैं. उनकी ये सारी स्वभावगत आदतें मुझे उनसे दैनिक व्यवहार और बातचीत में साफ दिखी। आँखों में तकलीफ के कारण वे काफी बड़े -बड़े सुंदर शब्दों में लिखती हैं । हशमत, यानी खुद कृष्णा सोबतीअपने आप को एक अर्धनारीश्वर में प्रस्तुत करती हैं यह मानते हुए कि एक स्त्री में आधा पुरुष है और आधी स्त्री और ठीक इसी तरह एक पुरुष में भी आधी स्त्री का समावेश है और इसी तरह दोनों को मिला कर एक पूरा व्यक्तित्व बनता है. 

कृष्णा जी, रात का समय को अपने लेखन के लिए निश्चित करती हैं. रोज़ दोपहर 12 के आसपास उनका दिन शुरू होता है उर्दूपंजाबी, अंग्रेज़ी, हिंदी के अखबारों के साथ. 
किसी नजदीक के इंसान पर लिखने में हमेशा असमंजसता महसूस होती है मुझे. इरादे से कभी ऐसा सोचा होता की कृष्णा जी पर लिखूंगी तो उनसे की गयी ढेर सारी बातों को सिलसिलेवार से नोट या रिकॉर्ड कर लेती.

फिर भी इस लेख को लिखते हुए बहुत सारी चीज़े टुकड़ों में याद आ रहीं हैं, उनके साथ उनके टेलीविज़न पर देखी गयी फिल्मजिसमे उनकी रिश्तेदार युवती ने किरदार अदा किया है. बातों बातों में कई बार कहा गया उनका यह वाक्य कि शरीर अब पुराना हो गया है’. कृष्णा जी को  इकाबल बानो की ग़ज़लें सुनना बहुत अज़ीज़ हैं कई बार खाना खाते हुए वे विमलेश से कहकर इकबाल बानो की सी. डी. लगवाती हैं और फिर देर तक, इकबाल बानों की बुलंद आवाज़ से उनका घर गूंजता है, साथ ही कृष्णा जी का मेज़ पर थपथापना ज़ारी रहता है और फिर शुरू हो जाती हैं इकबाल बानों के गायन की चर्चा. बीच-बीच में अपनी मौज़ में कृष्णा जी कभी कराची की गलियों से गुज़र जाती हैं तो कभी दिल्ली के बनने बिगड़ने की कहानी बयां कहती हैं  और  मैं उनकी बातों के साथ उनके स्वभाव की नरमी को अपने भीतर ज़ज्ब करती जाती हूँ.
उनकी मेहनावाजी भी गज़ब की है. खूबसूरत चाय टिकोजी के साथ  और ढेर सारे खाने के माल-असबाबविपिन को केक भी खिलाओ, कुकीज़ भी, मिठाई भी. खाने की मेज़ पर बार-बार पूछना और यह कहना की जो भी पसंद हो विमलेश से बनवा लो. लेकिन मेरी नज़र उनकी थाली पर रहती है वे बहुत कम खा पाती हैं. "अब इससे ज्यादा नहीं खा पाती"वे कहती हैं. एक बार सर्दियों के दिनों में कृष्णा जी के लिए बाजरे की रोटी बना कर ले गयी जिसे उन्होंने गुड के साथ बड़े चाव से खाया और कहा  - "अरसे बाद बाजरे का स्वाद चखा है". दो साल पहले जब मैंने पी. जी होस्टल को छोड़कर फ़्लैट में शिफ्ट किया तो लगातार उनका अनुरोध बना रहा कि "विपिन तुम अपनी जरुरत के सामानों की  लिस्ट बना कर मुझे दो". अपने घर से दूर दिल्ली में एक वरिष्ठ का ऐसा स्नेहिल आग्रह भला कितने लोगों को नसीब होता है

उनका घर एक खूबसूरत संग्राहलय जैसा दिखता हैं, ड्राइंग रूम में इतिहासकार प्रेम चौधरी द्वारा बनायीं गयी एक बड़ी सी पेंटिंग और श्वेत-श्याम फोटोग्राफस, छोटे बड़े कई बुक शेल्फ्स में सजी किताबें, सोफे,  कई छोटे बड़े कालीन, सभी पर सादगी तारी है. याद हैं मेरे यह कहने पर आपके घर की सारी चीज़े काफी पुरानी हैं ऐसी चीज़े अब नहीं मिलती. इसपर उनका यह कहना"भई हम भी तो पुराने हैं". मुझसे परिचय के बाद जाने कितनी बार उन्होंने कहा - "विपिन पुरानी पत्रिकाओं को पलटते हुए तुम्हारी कवितायेँ सामने आयी". एक बार उन्होंने कहा "कवितायें भी अच्छी हैं और इसके साथ छपी तुम्हारी तस्वीर भी". तब मैंने कहा - "तस्वीर तो चाहे कैसी भी हो उसका क्या "?  इसपर उन्होंने कहा -"नहीं हमारे प्रकाशको को इस पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए हम हिंदी वाले इतने गए गुज़रे नहीं हैं ". मैं कुछ बोली नहीं सिर्फ मुस्कुराई। अपनी खुद की बीमार स्थिति के बावजूद बार-बार फ़ोन कर, सर्दी  जैसी आम व्याधि पर भी फ़ोन पर कई हिदायतें देने की उनकी आदत हमेशा मेरे भीतर गहरे में घर कर जाती है. उनसे मुलाकात से कई साल पहले मैंने सिर्फ उनकी एक ही चर्चित कृति 'मित्रो मरजानी',उनके परिचय के बाद ही उनके विपुल लेखन से भी परिचय हुआ. साहित्य चर्चा में भी उनका उदार स्वभाव प्रकट होता है, सत्येन कुमार, शिवनाथ, पद्मा सचदेव, मुक्तिबोध, कृष्ण बलदेव वैद्य से जुडी अनेकों बातें आपको एक खूबसूरत दुनिया में ले जाती हैं.   

अपनी साहित्यिक अभिरुचि के चलते जल्द ही मैं उनसे जुड़ती चली गयी और मेरा मैं हमेशा यह मानती रही हूँ कि कृष्णा सोबती एक ऐसे ज़ज्बे का नाम है, एक ऐसा नाम जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ को मजबूत आधार देता है. लेखन उनके लिए जीवन का पर्याय और एक कठोर अनुशासन है जिसको उन्होंने बरसो ओढा-बिछाया है.

कृष्णा जी अपने लेखन में शिल्प और कथ्य के सुन्दर और नए प्रतिमान रचती हैं. उनके शांत और स्थिर लेखन के पीछे उनके स्वाभाव की जीवंतता साफ़ झलकती है. उन्होंने अपने शर्तों पर जीवन जिया और एक बादशाह की विराटता की तरह लेखन में अपनी अभूतपूर्व ऊँचाई को स्थापित किया. अपने जीवन की लम्बी साहित्य यात्रा में उन्होंने जो लकीरे खींची वे आने वाली पीढ़ी में एक आदर्श लेखन की तरह मील का पत्थर साबित होंगी. अपने समकालीनों में वे अलग से पहचानी जा सकती हैं. उनके पास शिल्प की असीम गहराई, भाषा का घनत्व, संप्रेक्षण की जीवंत सजलता है, जिसे  वे लगातार मांजती आई है इसलिए उनकी हर नई कृति  नए प्रतिमान रचती है. वे जीवन की मैल को अपने लेखन के धोबी पटके से इस तरह धोती है सारी तथाकथित पाखंडता, नैतिक आडम्बर धरे के धरे रह जाते हैं. अपने अस्तित्व को लेकर वे सदा सचेत रही शायद यही कारण है कि उनके किरदार अपनी पूरी ठसक के साथ सामने द्रष्टिगोचर होते हैं.

अपने पूरे लेखन काल में उन्होंने कभी गुटबंदी का साथ नहीं दिया. वे किसी खेमे विशेष में शामिल नहीं हुयी. उन्होंने सिर्फ और सिर्फ अपनी लेखनी पर विश्वास किया और ताउम्र एक सच्चे शिल्पकार की तरह अपने पात्रो को तराशा. उनके पात्र जीवन की तलझट से कई ऐसे मोती निकाल के सामने लाते हैं जिन्हें अक्सर हम अनदेखा कर देते हैं. उनकी लंबी साहित्यिक यात्रा में रची गयी कृतियों के पात्र हमेशा पाठक की जीवन यात्रा में हस्तक्षेप करते रहते हैं क्योंकि उनके पास अपनी अस्मिता की आवाज़ है और जो आज के निपट अलोकतांत्रिक समय में सबसे जरुरी चीज़ है. डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरजमुखी अँधेरे में’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘ए लड़की’, ‘दिलो दानिश’, हम हशमत, ‘समय सरगम’, ‘शब्दों के आलोक मेंऔर जैनी मेहबान सिंहने बौद्धिक विमर्श को जन्म दिया और समय के साथ हर बार उनके द्वारा रचित पात्रो पर चर्चा  करना जरुरी समझा गया.  सर्वसाधारण लोक की उजास उनके लेखन की महत्वपूर्ण कड़ी है. उनकी कृतियों के पात्रों का इतिहास कभी न मृत होने वाले इतिहास है क्योंकि वर्तमान में आते ही वे पात्र फिर से जीवत हो अपने दैनिक कर्मो में निवृत हो जाते हैं और पाठक को वे अपने करीब का जीवन का आभास देते हैं. कहते हैं जितना बड़ा इंसान होगा उसके साथ उतने ही बड़े विवाद जुड़े होंगे. कृष्णा जी का जीवन भी विवादों से घिरा रहा और उन्होंने हमेशा उससे डट कर सामना किया. कभी अपनी किताबों के शीर्षकों पर अधिकार के लिए लड़ी तो कभी  आज की उम्र में भी वे वकील केस बहस आदि के झगड़ों से अलग नहीं हुयी हैं अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा उन्हें इन विवादों में खर्च करना पड़ा है. पर जो थक कर हाथ खड़े कर दे वो खिलाड़ी ही क्या. वे सच के साथ रहती है इसलिए पीछे हटने का सवाल ही नहीं अपने निज की अस्मिता को गहरे से समझने की वकालत करने वाली कृष्णा जी अपने लेखन की तरह ही अपने जीवन में अनोखी और अद्भुद हैं. बिना किसी लाग लपेट के जीवन के पत्तों को दुनिया के सामने रखने वाली कृष्णा जी कभी सनसनीखेज़ और दिखावटी जीवन में नहीं पड़ी. कृष्णा सोबती जी के साथ बिताया गया समय मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. 
***

विपिन चौधरी की कविताएं

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समकालीन कविता-संसार में विपिन चौधरी का हस्तक्षेप बख़ूबी पहचाना गया है। अनुनाद पर विपिन की उपस्थिति के ये लिंक पाठकों के लिए - 
1.आत्मकथ्य और कविताएं
2.दस कविताएं  
3.माया एंजेला  

अनुनाद के एक पुराने पन्ने पर उनकी दस कविताएं लगाते हुए जो टिप्पणी की थी, उसे यहां दुबारा लगा रहा हूं। 
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विचित्र लेकिन बहुत सुन्‍दर है आज की, अभी की हिंदी कविता का युवा संसार। कितनी तरह की आवाज़ें हैं इसमें,कितने रंग-रूप,कितने चेहरे,अपार और विकट अनुभव, उतनी ही अपार-विकट अभिव्‍यक्तियां। इस संसार का सबसे बड़ा सौन्‍दर्य यही है कि यह बनता हुआ संसार है,इसमें निर्मितियों की अकूत सम्‍भावनाएं हैं। यहां गति है, कुछ भी रुका-थमा नहीं है। यह टूटे और छूटे हुए को जोड़ रही है। इसमें पीछे खड़े संसार के प्रभाव कम, अपने अनुभवों पर यक़ीन ज्‍़यादा है। विपिन चौधरी की कविताएं इस दृश्‍य की लिखित प्रमाण हैं।



विपिन का नाम एक अरसे पढ़ा-सुना जा रहा लेकिन इस नाम परिचित होने के क्रम में बहुत चमकदार पुरस्‍कार या ऐसा कोई मान्‍यताप्रदायी प्रसंग नहीं है। उन्‍हें किसी बड़े नाम ने ऊंचा नहीं उठाया है, विपिन ने अपना नाम ख़ुद की मेहनत और अनिवार्य धैर्य के साथ स्‍थापित किया है। ए‍क बहुत ख़ास कोण है विपिन की कविता का कि वे प्रचलित,ऊबाऊ और अधकचरे स्‍त्री विमर्श की अभिव्‍यक्ति भूले से भी नहीं करती - वे अपनी कविताओं में डिस्‍कोर्स करती नज़र नहीं आतीं,वे बहस छेड़ती हैं। सीधी टक्‍कर में उतरती हैं। अभी के भारतीय समाज (उसमें हरियाणा जैसे समाज) में गहरे तक व्‍याप्‍त सामंतवाद और खाप-परम्‍पराओं से लड़ती हैं। ये सजगता का निषेध और पीछे छोड़ दी गई सहजता का स्‍वागत करती कविताएं हैं।  डिस्‍कोर्स के छिछले और उथलेपन के बरअक्‍स यहां गहरे ज़ख्‍़मों को कुरदने का साहस है। कविता में निजी लगने वाली पर दरअसल जनता के पक्ष में निरन्‍तर जारी रहनेवाली इस लड़ाई का अपना एक अलग सौन्‍दर्यशास्‍त्र है। 

*** 
उसका अकेलापन 


कभी- कभी मन करता 
बढ़ जाते उसकी ओर कदम   
वह,
हमारे स्कूल की एकमात्र एथलीट 
करती स्पोर्ट्स पीरियड को वही गुलज़ार 

स्पोर्ट्स पीरियड की घंटी बजते ही 
लड़के  हो जाते क्लास  से फुर्र 
लड़कियां, मध्यम  गति में मुस्कुराती हुयी 
निकल आती  कक्षा से बाहर  

लड़के खेलते क्रिकेट, वॉलीबॉल 
लड़कियां करती  गपशप 
करती  बातें गए  दिन देखे  सपनों की,  
परियों की, नेल पॉलिश के रंगों की  
स्पोर्ट्स पीरिएड में भी खेलों से रहती कोसों दूर   

वही एक,
खेल में घोलती हंसी-ख़ुशी भी
न होती वह लड़कों की टोली में शामिल
न लड़कियों के लगती नज़दीक 
जाती अक्सर ही खेल प्रतियोगिता में  
कक्षा में दिखती कभी कभार 
पढ़ाई में उसकी रुचि कम ही होती    
हो उठती  परेशान कभी  पीठ दर्द तो कभी पाँव की मोच से
नहीं बन सकी उसकी कोई सखी- सहेली 
 
स्पोर्ट्स पीरियड में लड़के गोल करते 
रन बनाते, विकेट लेते  
खेल से बेरुखी दिखाती लड़कियां 
स्कूल में प्रार्थना के समय   
न्यूज़ में जिक्र करती  
ताबड़तोड़ रन बनाते लड़को की 
 
सहेलियों से बातचीत में साथ जोड़ देती
यह टैग 
हमारा कैप्टन सनी अच्छा खेलता है’ 
मगर मुझे पसंद आता है विकेट कीपर राहुल 
 
आती है याद आज भी वे सब लड़कियां
अपने स्कूल की एकमात्र एथलीट 
जिसने छोटी उम्र में

अर्जित कर ली थी शोहरत,
के साथ
अथाह  अकेलापन
*** 
ठसक  

पुकारती वे प्रेममयी करुणा में  प्रभु-प्रभु 
निर्विकारअदेह हवा सा प्रभु
उनका प्रेमी  
 
इधर,जीवन को रंगीन सूत  में लपेटने वाली हम 
अपनी पूर्वज प्रेमिकाओं की स्मृतियाँ  
हम पर अपनी तह नहीं जमाती
तो कैसे बन पाती हम
नीची नज़रों वाली तुम सी
भीरु प्रेमिकाएं 
 
सीटियाँ बजाते हुए
हर बार हम प्रेम की गहन गुफा में दाखिल हुयी तो
निकली हर बार  चाहे रोते कलपते ही 
मगर हमनें हर बार प्रेम को,
कहा प्रेम ही 
*** 
 
लय के  रेखागणित का भार ढ़ोती, नृत्य-योगिनियां  
 
हमारी भाषा
देह की भाषा 
हमारी चाल,
हथनी की चाल 
हमारी ऊंगलियां,
हिलते हुए पात
नाखूनआभूषण और श्रृंगार मीठे फलों सा  मधुर
हम आदमकद कठपुतलियां,
पृथ्वी की  नृत्य-योगिनियाँ हम

ज्यों  सांप का जहर चूसता  बादी
मन का तमाम जहर विष चूसने में सिद्धहस्त  हम
नृत्य के कड़े अनुशासन भीतर रह
कमान सी कसती  देह को अपनी,
 
सुबह -सवेरे  नृत्य का  अभ्यास  कर 
समेट लेती  देह भीतर,
पृथ्वी की सारी गतियां  
देवदासियां देवालयों में नाचती प्रभु के आनंद में 
हम राज दरबार में  सिंहासनों  पर बैठे प्रबुद्धजनों  खातिर 
नृत्य के अंग-विन्यास में
 
बूँद की तरह मन की धरती पर धिरकती  हम
चाहती थी हम बनना नर्तकी
सिर्फ नर्तकी 
राज सिंहासनों  ने बनाया हमें राज नर्तकी 
भेदे हमारे  नख- शिख 
जांची हमारी गतियां  
पहनाये हमें तमगे
फेंकी हमपर अपने गले की  स्वर्ण मालाएं 
 
घोषित किया हमें राज नर्तकी
राजा की मुग्धता पर लज्जित हुआ तब राज  दरबार 
कैसे मान्य होता दरबार को  हमारा मान- सम्मान ?
हमारी तुलना अप्सराओं से करता राजा तब   
स्वर्ग के देवता फूला लेते अपने चेहरे 
 
हज़ारों होते हमारी देह संचालन पर  मन्त्र- मुग्ध 
कुतूहल करते देह की लचक पर  लाखों  

बदल जाते उनकी दिनचर्या के इशारे 
नृत्य के आँगन में सिमटकर  
तब हम स्त्री से नर्तकी  बनती  
फिर बनती वसंतमालिनी 
कभी बनती कामकंदला 
कभी आम्रपाली 

हमारा परिचय यही
हमारी गति यही 
मोहनजोदड़ो की खुदाई से मिलती हमारी  प्रतिमाएं 
सदियों से कांसे के सांचे में कसमसाती हम, बिना हिले- डुले 
थक गयी थी हमारी देह तुम्हारे मनोरंजन में 
हमने किया पृथ्वी की गोद में जी भर कर लम्बा आराम 
*** 
हर बार यही देहवासवदत्ता


सत्य को तलाशने के लिए  देखती थी हम दर्पण 
प्रेम दिखा तो एक छोटे से झरोखें से 
तेज़ क़दमों से आगे बढ़ता   हुआ 
 
आस जन्मी भिक्षु उपगुत्ता  को  पाने की  
मनचाहा टला इस बार भी  
तुम्हारा मन कब तुम्हारा हुआ वासवदत्ता  ? 
और देह तुम्हारी 
देह से ही हटती तुम बार बार
लौट आती इसकी देहरी  पर फिर 
 
देह की स्वीकृति के लिए नहीं करनी चाहिए प्रार्थना 
तुम करती थी मगर ध्यान 
देह ठहरती तो  आत्मा मोक्ष का गुहार करती 
मन की दूसरे किनारे 
दिखते  बुद्ध
तुम्हारी देह को देह मनवाने के लिए  
 
झूलती रहती  
इस बीच तुम देह और जीवन के मध्य 
उपगुत्ता के  इंकार ने जीवन तपाया 
हामी ने दी नयी दिशा 
 
थी अब तुम देह के उस पार 
दूर बैठे मुस्कुरा रहे थे बुद्ध
विभोर थी तब तुम
कातती हुयी प्रेम की कपास 
देह के नज़दीक रह कर भी
देह से दूर जा कर भी 
*** 
 

प्रशान्त विप्लवी की बारह कविताएं

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प्रशान्त की कविताएं समकालीन युवा कविता संसार में केन्द्रों के बरअक्स सीमान्तों की हूक की तरह हैं। उन्हें पढ़ना दूर-दराज़ के इलाक़ों को पढ़ने जैसा है जबकि कवि का रहवास सीमान्तों या दूर-दराज़ के इलाक़ों का नहीं है। ये सामान्य जीवनानुभव हैं, उन अनुभवों की निजी लेकिन विकट छवियां हैं, जो एक संसार रचती हैं। वह संसार, जो हमारा है, हमारे निकट का है पर जिस पर हमारा ध्यान कभी है, कभी नहीं।


साथ ही यह कविता के केन्द्रों में मान्यता मसला भी है, जहां विशिष्टों का ही बोलबाला है। कविता के सामान्य-से ठिये अनुनाद पर प्रशान्त का स्वागत है।
*** 
प्रशान्त-आलाप


.बदचलन औरतें


कुछ औरतें सचमुच बदचलन होती हैं
जैसे कुछ मर्द होते हैं सद्चरित्र
बाप,भाई, पति और समाज के मुँह पर पोतती हैं कालिख
लेकिन कोई शर्म से डूबकर नहीं मरता
 
मार दी जाती हैं वो औरतें
घर से, समाज से, स्मृति से, शरीर से
कुछ बदचलन औरतें फिर भी रह जाती हैं शेष
कि सचेत कर सके
 
कैसे इंद्र की खूबसूरती एक छद्म है
और उसके देवत्व में छुपा हुआ है कुछ देवताओं का छल-प्रपंच भी

नामर्द जैसे शब्द बेहिचक इस्तेमाल करती हैं ये औरतें
शब्द उच्चारण में एक हिचक
समय से नष्ट हो जाती है
जैसे-जैसे वो शाप-भ्रष्ट होने  लगती  हैं
बदचलन हो जाती हैं एक अदद औरत

किसी बदचलन औरत ने ही किया था पहली बार खुलासा
कि मर्दों की एक बड़ी आबादी है
जो दरअसल मर्द नहीं हैं



२. कविता

शब्दों को रखो ऐसे ..
जैसे तुलसी-चौरे पर रखती थी दादी
 
काँपते हाथों से संभालकर
 
एक टिमटिमाता हुआ दीया
पंक्तियों को बन जाने दो खुद-ब-खुद 
जैसे छोटी लड़कियाँ
 
खेल-खेल में बाँध लेती है
 
अपना-अपना हाथ
संवेदना के ज्वर में तपने दो अभिव्यक्ति 
जैसे देर तक सेंकती है माँ
 
मक्के की रोटी दोनों ही पीठ
बराबर-बराबर ..
बहने दो कविता को 
उसको उसकी ही गति में
 
जैसे कोई बच्चा विदा करता है
 
कागज की कश्ती को किसी बरसाती नाले में ...




३. उदास दोपहर में ..

 
उदास दोपहर में ..
जब छतें बेहद चुप रहती हैं 
और घरेलू बिल्ली दुलकते हुए चलती है सूनी सड़क पे 
सबकुछ ठीक होने की 
एक आश्वस्ति रहती है ..
मुझे रात के किसी भी गंभीर पहर में 
बिल्ली का रोना अच्छा नहीं लगता
 
मुझे नहीं लगता कि कोई घरेलू बिल्ली रात में रोती है
उदास दोपहर में ..
 
सबसे अकेला लगता है वो खजूर का पेड़
 
जिसके खुरदरे शरीर पर
 
शाखें नहीं टिकती
 
उसने एक मुट्ठी हरियाली बचा रखी है
 
अपने ही मुँह में
खजूर का पेड़
 
घरेलू बिल्ली को नहीं डरा रहा अभी ...
बिल्ली दुलकते हुए चल रही है
 
फिर तेजी से फांद गई है
 
एक छत से दूसरे छत
शाम उतरते ही मुस्कुराने लगा है बूढ़ा खजूर




४. कवि की मौत 

 
अंतिम कविता में
पानी माँगा
गाँव माँगा
छाँव माँगी
और अलसाई-सीठाँवमाँगी
कविता के उर्ध्व पंक्तियों में दर्ज की
अपनी अकुलाहट
अंतिम पंक्ति के नीचे
रुग्ण हस्ताक्षर किये
और आँखें गोल कर पढता रहा कई बार
पानी..
गाँव ..
छाँव
ठाँव ..
विछोह में मरते हुए कवि के शब्द पंक्तिबद्ध रहे
पानी के तल-अतल तक
गाँव के सिमाने पर नीम के नीचे
छंद को टिकाये रहा देर तक
भाव पड़े रहे शिथिल-निष्प्राण
पन्नों के ठाँव में ..
एक अदद बाजार में ढूंढती रही कविता
अपने लिए एक छाँव
कवि, झूठे शब्दों के तिलिस्म में फँसा रहा जीवन-भर
पानी सूखते रहे
गाँव उजड़ते रहे
छाँव कौए की पीठ ही रही
हर अलसाई दोपहर में
एक कवि की मौत होती है




५. जनता की आँखों में

सामंती कुर्सी का एक हत्था 
जब जलाया गया घूरे की आग में
 
बिरंची की आँखें चौंधिया गई
 
लालबाबू को विलीन होते देखकर राख में
बिसेसरा को दे दी गई जोत की ज़मींन 
मालती को सौंप दी गई जप्त बकरी गाभिन
 
हेहड़ बच्चा रगेदने लगा खेत से बाछी
परिहारा वाली नवकी को चिढ़ावे बोलकर चाची
गाँव में घसर-घसर चलने लगे चप्पल
किसका घर-किसकी देहरी
कौन मालिक और है कौन मुख्तार
 
पन्नू बूढ़ा जोर से बोले यही है सुराज
अदला है बदला है सपने भी खूब है 
जनता की आँखों में मंहगाई की धूप है
खेत है खलिहान है किसान भी खूब हैं
 
गाँव की आँखों में सपनों की भूख है
कुर्सी का हत्था टूटता कहाँ है
बाप गया हाथ धोने, बेटा यहाँ है
बदला मिजाज़ है, ये कैसी सरकार है
चर्चे चले हैं मँहगे सामान पर 
रिश्ते बढे हैं पडोसी दूकान पर
 
मोहलत में टिकी है गरीबों की गरीबी
 
सपनों को देकर किसने सत्ता खरीदी
पन्नू बूढ़ा देख गए अपना सुराज 
पन्नू बूढ़ा ले गए अपना सुराज
मरे कोई भूख से या जान जाय गोली से
पास करे पढ़कर या टॉप करे लूट से
एक मुद्दा दारु पर अटकी हुई है सुई
कौन जाने इस प्रदेश को नज़र लग गई मुई
 



६. काले चादर पर रौशनी

सिराज़ घर पर नहीं था
उसकी अम्मी ने पानी पिलाया और नोट्स दिये
नये शहर में नॉर्मल और सेंसटिव डे जैसा कुछ फील नहीं होता है
बेकापुर के ललन सर मैथ्स पढ़ाते थे
मुंह में पान की गिलौरी दबाकर
एक एक आर्टिकल मोटे-मोटे अक्षरों से कॉपी भर देते थे
कॉपी में पान के पिक के छींटे ही 
ललन सर के शिष्य होने का प्रमाण था
दिलावरपुर से काली ताजिया होते हुए
बेकापुर के लिए एक सहज रास्ता है
लेकिन किसी आम दिन के लिए
अगर कमेला को पार कर सकते हैं
तो पुरबसराय दिलाबरपुर के नाक के पास है
लेकिन किसी आम दिन के लिए
अज़नबी शहर में शहर के बंदिशों से वाकिफ नहीं था
बेकापुर से दिलावरपुर लौट आया
बीच में काली ताजिया भी आई थी
सिराज़ का घर भी आया था
उसके दादा जी भी खूब पान खाते थे
उस रोज़ अचानक कुर्सी से उठकर आ गए
घर का हालचाल पूछते हुए साथ साथ चलने लगे
दिलावरपुर की सड़क दिखने लगी थी
पान दुकान पर रेडियो पर गाने की जगह खबरे सुनी जा रही थी
दिलावरपुर काली मन्दिर के पास मेरा स्वागत हुआ
देह टटोला गया
कोई खरोच नहीं
कोई खरोच नहीं, उनके लिए हतोत्साहित करने जैसा रहा होगा
कुछ लोग अचरज में भी थे
बेकापुर के लिए रास्ता लम्बा हो गया
रिफ्यूजी कॉलोनी से घूमते हुए बेकापुर
मेरे लिए दुरी असहजता नहीं थी
मेरे लिए असहजता थी
काली ताजिया के पास के उस अभ्यस्त जीवन से दूर हो जाना
उस जाने-पहचाने लोगों को नहीं देख पाने की छटपटाहट
 
मैं बीमार हो गया
जैसे देश बीमार हो गया था
खैर ! लौट आया हूँ ..
लेकिन दिलावरपुर की कोई खबर मेरे पास नहीं है
अखबारी ख़बरों में मेरे हिस्से का दिलावरपुर नहीं है ..

शायद इस जेठ की दोपहरी में सूर्य की चटकती किरनें
उस काले चादर पर पड़ रही होगी
और सिराज़ के दादा जी के होठो पर पान की लाली और गहरी हो गई होगी
दिलावरपुर के लोग
 
उन सबों का हालचाल पूछते हुए
बेकापुर की तरफ बढ़ गए होंगे



७. आदमी मर सकता है

पुराने बाशिंदों के स्मृति लेखों वाली दीवारें
कुछ गिरा दी गई हैं
कुछ गिर पड़े हैं
विह्वल प्रेमियों के नाखूनों से कुरेदे हुए अक्षर
स्वरूप खो चुके हैं
समय ने अक्षरों में झुर्रियाँ दी है
आसमानी इमारतों ने घेर लिया है रंगीन छतों को
सड़के, गलियाँ और मोहल्ले
 
आबादी से पटा है
बंटा है घर
और एक-एक आदमी बंटा है
तन्हाई नहीं है
दोपहर का सूनापन भी नहीं है
दरवाजों के पाटों के बीच फांक से
कोई लड़की नहीं घूरती है सड़क
पुरानी चीजों से जकड़कर भी आदमी मर सकता है
पीपल की छाँव, जहाँ झूले लगे हों
फुरसतिया लोगों के पाँव पसरे हो
कुत्ते झपकियां लेकर पड़े हों चुपचाप
वहां किसी भी आदमी का कत्ल हो सकता है
मगर आदमी उस जी उठने को लालायित आदमी का ही गला घोंट देता है
आईने के झुर्रियों पर आदमी सँवारता है चेहरा
आदमी अपने अंदर उस आदमी का लाश ढोता है




८. बाहर गया हुआ आदमी

सुनो प्रिये..
मैं सकुशल हूँ
 
लेकिन एक उन्मादी भीड़ ने फिर एक निर्दोष को पीट-पीट कर मार डाला
उसके मृत्यु पश्चात एक भीड़ अफ़सोस भी जता रही है
दुर्भाग्यवश मैं इस घटना का चश्मदीद हूँ
और मैं उस मरते हुए आदमी को भूलना चाहता हूँ
कातर होकर उसके जुड़े हुए हाथ
और थूथने से अनवरत रक्तस्राव 
भीड़ से अनुनय और याचना के लिए उच्चारित एक-एक शब्द
अभी भी मुझे कचोट रहे हैं
सुनो प्रिये
मैं ठीक हूँ
 
लेकिन एक निर्दोष व्यक्ति को मरते हुए देखकर
मैं बहुत डरा हुआ हूँ
अंधे-बहरों के बीच में गुनाह बाद में तय होता है
आदमी पहले मार दिए जाते हैं
हाँ, आश्वस्त रहो कि इसी देश में तय गुनाह पर
गुनहगार को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता
सुनो प्रिये
मेरे लिए तुम्हारी चिंता लाज़िमी है
मैं एक डरपोक आदमी हूँ
 
जो न भीड़ बनना चाहती है
 
और न ही भीड़ के खिलाफ की कोई आवाज़
मैं उन मरे हुए लोगों में हूँ
 
जिन्हें कोई निर्दोष आदमी मरते हुए
 
छोड़कर चला जाता है
सुनो प्रिय 
मैं ठीक नहीं हूँ
कभी किसी भीड़ की चपेट में मैं मर जाऊं
तो सोचना मुझे निष्कृति मिली उस प्रायश्चित से
असहज था
निरुपाय था
कि मैं स्तब्ध देख रहा था
एक आदमी लड़खड़ा कर गिर रहा है
और हाँफता भीड़ पसीना पोछ रही है
सुनो प्रिये
आतंकित रहकर भी कुछ किया नहीं जा सकता
पेट के लिए इन वहशी भीड़ के बीच से ही गुज़रना पड़ता है
दस गुनाहगार के साथ एक निर्दोष का मर जाना
 
बुरा तो है , बेपरवाह सा जवाब था भीड़ का, मलाल नहीं था
तुम अपना ख्याल रखना 
बोझिल पैर कितने भी भटक जाएँ
घर का पता ही ढूंढती है
इस भीड़ से बचकर आ पाऊं
 
इसकी प्रार्थना करना
इति 
तुम्हारे घर से बाहर गया हुआ एक आदमी




९. पानी मेरे पिता 

पानी मेरे पिता 
बड़े आयत्व में
 
बेशक बहुत कमतर रहे
 
मगर मौजूदगी कायम रही
 
हर जगह .......
उछाले गए कंकड़-पत्थर
विनम्रता से आने दिया तल तक
 
विस्थापित हुए
 
लेकिन लौट आये समय से
 
अपनी ही जगह पिता
आस टूटने पर 
उतर आये पिता
अन्तरंग तक गीला करने
 
और बुन दिया आहिस्ते-आहिस्ते कोई नयी योजना
निरुपाय पिता 
पानी रहे ...
सूखते रहे
 
सूखते रहे
 
सूखते रहे
 
जैसे लुप्त हो गए
 
फिर आँखों से उमड़ आये
 
मन का बोझ
 
बहा ले गये
 
पानी मेरे पिता
 




१०.नैयकी का स्वांग

चार साल के वैवाहिक जीवन में 
नैयकी को दौड़ा पड़ा पूरे सात बार 
ओझा गुनी सब उम्र-दराज 
हार गया नैयकी के भूत से 
मगर मंतरिया जानता है देह-गंध 
ब्रह्म-डाकिनी और चुड़ैल की
देह सूंघ के कुछ देर तो चुप रहा 
फिर कलाई को आहिस्ते से दबाकर
 
मिलाया आँख-से-आँख
 
भयानक आँच से डरा
 
एक लम्बी सांस छोड़कर जाहिर किया
 
ऐसा-वैसा नहीं बड़का पीपर वाली ब्रह्म-डाकिनी है
 
नैयकी आश्वस्त हुई
 
मंतरिया के आँखों की लाली देख
 
पक्का इलाज़ इसी के पास है
हर रात जब भी संजोती कोई रंगीन ख्वाब 
पिटती और रोकर गुजार देती रात
 
नवेली दुल्हन की टीस
 
और पियक्कड़ दूल्हा
 
दोनों बिछावन के दो तरफ
बंधन में बंधी लड़की 
बनाती है योजना ..
बाल खुलते ही
 
सूर्ख लाल हो जाती है आँखें
 
भवें तन जाती है
 
और घृणा से भर उठता है मन
 
पहले आहट पर गुर्राई
 
कलाई पकड़ते ही चिल्लाई
 
उठा-पटक में पियक्कड़ था बिल्कुल नीचे
 
बैठ उसके छाती चीखती रही
 
तृष्णा और अतृप्त देह की चीत्कार से
 
गूंज उठा पूरा मुहल्ला
 
किसी चुड़ैल का साया है
 
या है ब्रह्म-डाकिनी की ये डाक
उस रात ...
बेसुध सोई नवेली
 
और पियक्कड़ रतजगा बैठा
 
सेवता रहा नैयकी को
 
देह का उत्पीडन तो खत्म हुआ चुड़ैल की
 
मगर यौवन की प्यास में
 
तड़पती रही नवेली कई-कई रात
मन्तरिया का स्नेहिल स्पर्श 
जगा गई है एक क्षीण उम्मीद
 
गाँव की सहमति है
 
कई-कई रात कटे मन्तरिया संग अकेले
 
तब जायेगी ब्रह्म-डाकिनी
 
मगर उसकी आस्था जाग उठी है
 
रोई लिपटकर पति से
 
इस दुर्गन्ध से मुक्ति लो जल्दी
 
वर्ना जायेगी नहीं ब्रह्म-डाकिनी
फिर उस रात के बाद 
न मन्तरिया आया ..न ब्रह्म-डाकिनी
 
न महकी शराब की गंध
 
न उठा कोई कायर हाथ
 
कोख में पैर पटक रही है
 
कोई नई जीव बार-बार
 



११. बनारस

एक बूढ़े शहर के तलघर में 
बची हुई है निझूम शांति 
उसकी खुरदरे जमीन ने बचा रखी है 
पैरों के घर्षण का पुराना संगीत 
अतीत के पन्नों पर कोई रख गया है उम्मीद का एक बड़ा पत्थर 

बूढ़े शहर के पुराने लोग बंद हैं अपने घर के बंद कमरों में
उनकी स्मृति में बूढ़े शहर की सुबहें हैं , दोपहर है , रात है
हर शाम उस जर्जर चाय की दुकान पर
आश्वस्त होने के लिए गटकते हैं गर्म चाय की एक बड़ी घूँट

उस मरगंग के पेट पर
डोल रहे हैं कुछ नाव
कुछ विक्षिप्त लोग एक नाव के मचान पर याद कर रहे हैं अपना पुराना शहर
आगंतुकों की जिज्ञासा पर उत्सुक नहीं है बूढ़ा कवि
बूढ़े कवि ने हाथ में ले रखी है एक नई किताब
उसकी आँखें पीछा कर रही है शब्दों का

मेरे भागते पैर क्लांत होकर टूट रहे हैं
आकुल होकर ढूंढ रहा हूँ एक बूढ़ा शहर
उन घाटों पर चमकीले पोस्टर्स हैं
पागल चिन्तक , चित्रकार , मलंग बेदखल हो चुके हैं
लेकिन वहां बैठा हुआ है एक चिंतित बूढ़ा कवि
उसकी आँखों में मैं देख रहा हूँ
एक शहर , एक पुराना शहर , एक बूढ़ा शहर ....बनारस 



१२. कड़क चाय

कितनी आसानी से पूछ लेती हो
कॉफ़ी या चाय
और मैं अनमने ढंग से बोल देता हूँ
चाय कड़क
तुम सोचती हो हर बार
मैं कॉफ़ी क्यों नहीं बोलता
लेकिन जब भी तुम कॉफ़ी मग बढ़ा देती हो
मैं थामकर, मुस्कुरा देता हूँ
और चुस्कियों में सुनाता हूँ
पापा से जुडी कोई कहानी
बिलकुल मेरे पास बैठकर
तुम तन्मयता से सुनती हो
हर बार कहानी पूरी हो जाती है
और कॉफ़ी ठंढी
तुम दूसरा मग बनाना चाहती हो
सिर्फ मेरे लिए गरमा-गरम
मगर मैं किसी गहरी तन्द्रा में देखता हूँ -
पापा बरामदे पर रेडिओ से आ रही कोई पुरानी गीत सुन रहे हैं
लैंप की पीली रौशनी में
मैं पलट रहा हूँ कोई किताब
माँ आकर बता जाती है कॉफ़ी बनने की बात
मैं होठो की मुस्कान दबाकर झांकता हूँ
पापा का चेहरा
जहाँ सुकून ठहरा है
माँ उबाल कर कॉफ़ी बना रही है
मैं जानबूझकर खड़ा हूँ माँ के पास
एक चम्मच कॉफ़ी बढ़ा देती है माँ
मेरी घूँट तक टकटकी लगाये देखती है
फिर पूछती है आँखों के इशारे से कॉफ़ी का स्वाद
मैं भी आँखों से बहुत खूब कहता हूँ
पापा झांकते हैं रसोई में
और खींच लेते हैं नाक भर, कॉफ़ी की महक
माँ की आँखें भर आती हैं
पापा बहुत खुश हैं आज
उनकी आँखें चमक रही है
मैं जानता था
माँ की आँखे पापा की ख़ुशी में भर आती थी
और हमारे घर कॉफ़ी बहुत कम बन पाती थी
इसलिए जब भी तुम
आसानी से पूछती हो – “चाय या कॉफ़ी
मैं अनमने ढंग से बोलता हूँ
चाय कड़क 
***

हिंदी दिवस विशेष : हिंदी-उर्दू कविता के गढ़वाली रूपान्तरण : नेत्र सिंह असवाल

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सोशल मीडिया पर रहने दौरान अचानक मेरा ध्यान नेत्र सिंह असवाल जी की टाइमलाइन पर गया। वहां हिंदी और उर्दू कवियों की कविता के गढ़वाली रूपान्तरण दर्ज़ थे। अपनी बोली-बानी में इन अनुवादों को पढ़कर मैं चकित रह गया। मेरे लिए मेरी भाषा की ताक़त को इस रूप में देखना सुखद है। मैं बहुत आभारी हूं अग्रज नेत्र सिंह असवाल जी का कि उन्होंने इन्हें अनुनाद पर लगाने की अनुमति दी।
कुंवर नारायण की कविता 'अबकी अगर लौटा तो'और उसका गढ़वाल़ी रूपांतरण :

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा


अबै दा अगर बौड़ुलो त
 

अबै दा अगर बौड़ुलो त
अफु से माथ
सबका साथ ह्वेकि बौड़ुलो

नाक मूड़ लगैकि चूंचदार मूच ना
कमर मा बांधिकि लोखर का पूच ना
दगड़ मा चल्दा बटोयूं तैं द्यूंलो काग भी
नि द्यखुलो वूं तैं---हिर्र, भूखो बाघ-सी


अबै दा अगर बौड़ुलो त
सचे, द्वी हाथ
मनिख से माथ ह्वेकि बौड़ुलो


घर से भैर निकल़्द दा
सड़कु फर आंद-जांद दा
बसु मा चढ़द दा
ट्रेन पकड़द दा
जगा-कुजगा पत्त पत्यड़्यूं प्वड़्यूं
क्वी चखुलो मखुलो- सी ना


अगर बच्यूं रयो त
बड़ो ऐसान मुंड माथ ल्हेकि बौड़ुलो


अबै दा अगर बौड़ुलो त
म्वर्यूं-भज्यूं ना
सब्यूंको भलो-बुरो सोचदो
निगुरो निगुसैं को ना
पैलि चुले पूर्ण सनाथ ह्वेकि बौड़ुलो ।

*** 

वीरेन डंगवाल की कविता 'इतने भले नहीं बन जाना साथी'और उसका गढ़वाली  रूपांतरण :

इतने भले नहीं बन जाना साथी

जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कूवत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाये न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊँचे सन्नाटे में सर धुनते रह गये
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल मुंह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो आता जिसको बस तनना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्ला-पन छोड़ो, उस पर भी तो तनिक विचारो

काफी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

अपणी समझ बदलणा साथी
 

इतगा भलो नि बणि जाणो साथी
जतगा भला चुचौं सरकस का हाथी ।


गधा बणणा मा ही लगै दे
अपणी सर्या ताकत,अक्कल, खैंचाताणी
ना कै से कुछ ल्यायो
ना कै तैं कुछ द्यायो
इनो भी क्या जीवन लोल़ो
फगत उमर गंवाये, बुढे गयो भुजेलो ।


इनो भेल़-भंगार भी नि बणि जाणो अबेड़ो
बुरै की मौ, जु कै तैं मौका हो
तुमु तक क्वी पैंडो पैटाणो/बाटु बणाणो
अपणा ऊंचा निलाट मा ही
कपाल़ रेचदो रै जाणो
पण जीवन को जरा भी मर्म नि जाणो ।


इतगा चंट चलाक भी नि ह्वे जाणो
कि सूणिक/देखिक तुम्हरा रंग-ढंग
मुश्किल ह्वे जाउ
हमु तैं अपुणो मुक लुकाणो
काख मा बोतल़/मुख मा जनता को/
संस्कृति को गाणु बजाणो
छी, इतगा छंट्यूं भी नि ह्वे जाणो ।


इतगा फुंड्या /लकीर को फकीर नि बणि जाणो
कि बात नि ह्वा जब अपणी गौं की
तब खड़बट नरनुरु ह्वे जाणो
देस-दुन्या देखिक ऐ रो, ठैरो
जरा एक नजर अफु जनैं भी हेरो
पोथी पतरा ज्ञान कपट से भौत बड़ो छ मनखी जीवन
नाड़पना छोडो
यां फर भी कुछ सोच विचारो ।


जमनु भौत खराब छ साथी
घोर गिड़कणा घन घमंड का
आसमान की फुटणी छाती
चौछ्वडि़ अंधाघोर अंध्यर मा
चिलबिल चिलबिल मनखी जीवन
जै फर चाल चल्ल/घड़ी घड़ी
अपणी स्वटगी तैं चमकाणी


संस्कृति का ऐना मा
ई जो मुखड़ी छन मल़काणी
यूंकी असल शकल पछ्यणणा साथी
अपणी समझ बदलणा साथी ।
*** 


दुष्यंत कुमार की दो ग़ज़लें और उनका गढ़वाली  रूपांतरण :
 

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

-    - -
ह्वे गए परबत कनी, या पीड़ गल़णी चैंद भै
ये हिमाला से कुई गंगा निकल़णी चैंद भै ।


आज मत्थे पाल़ परदौं की तरौं हलणा लगे
शर्त लेकिन छै कि मूडे़ पौउ हलणी चैंद भै ।


हर सड़क फर, हर गल़ी मा हर नगर हर गौंउ मा
हाथ झटगांदा झटग, हर लाश चलणी चैंद भै ।


सिर्फ हफरोल़ो लगाणो ही मेरो मकसद नि छा
मेरी कोशिश छा कि या बघबौल़ मिटणी चैंद भै ।


मेरा जिकुड़ा मा नि ह्वा त, तेरा जिकुड़ा मा सही
ह्वा कखी भी आग लेकिन आग जगणी चैंद भै ।

- - -


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.
- - -

कखा त बल़्णि छै बग्वाल़ यख मवार खुणै
कखा स्यु हर्चिगे बतुलो भी गौं जवार खुणै ।


यखा त डाल़्यूं का छैलु घाम लगद ब्वयो
चला जि फुंडु कखी हौर गौं गुठ्यार खुणै ।


नि ह्वा कमीज त घुंजौंल पेट ढकि ल्याला
इ लोग कन लौबाणी का जाण पार खुणै ।


खुदा नि ह्वा न सही आदमी को ख्वाब सही
दिखण दिखौण्य त छैं छ दिल दुख्यार खुणै ।


उ बौंहडा. पड्यां कि ढुंगु गैल़ि नी सकदो
मैंकू उठाप्वड. आवाज मा अंगार खुणै ।


तेरो निजाम छ डामी दे थुंथरि शायर की
उज्याड. बाड. जरूरी छ या, गितार खुणै ।


जियां त चांठ अपणा डाल़ि गछ फुलार फुनैं
म्वरां त बोण बिरणा डाल़ि गछ फुलार खुणै ।


***
 
उर्दू शायर निदा फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल और उसका गढ़वाली  रूपांतरण :


बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता

 - - -
क्याप-सी यो दर्द ठहर क्यो जि नि जांदो
जो बीत गए स्यां, स्यु गुजर क्यो जि नि जांदो।


सब कुछ त छ, झणि क्या खुजणी रंदन आंखी
क्या बात छ, मी बगतल् घर क्यो जि नि जांदो।


वा एक ही मुखडी. त नी छ सैरि दुन्या मा
जो दूर छ, वो दिल से उतर क्यो जि नि जांदो ।


मी अपणा ही बिरड्यां बाटौं को तमाशो
जैं पैंड जँदन सब,मी भि सर क्यो जि निजांदो।


वो ख्वाब जो बर्षू से न 'मुखडी.''टुकडी.'
वो ख्वाब बथौं मा बिखर क्यो जि नि जांदो ।

***

हॉली मैक्निश : स्तनपान पर शर्मिंदा : भावानुवाद एवं प्रस्तुति - यादवेन्द्र

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स्तनपान के बारे में वैज्ञानिक शोध चाहे कितनी सकारात्मक बातें कहें पूरी दुनिया में युवा शहरी और कामकाजी स्त्रियों में इसको लेकर नकार का भाव बढ़ता जा रहा है - घर से बाहर की दुनिया में पुरुष बहुमत के मद्देनज़र चाहे पुरुष निगाहों की लोलुपता से बचाने वाली लज्जा हो या स्तनों का आकार बिगड़ जाने का भय , तमाम प्रयासों के बाद भी स्तनपान स्त्रियों के दैनिक जीवन का स्थायी भाव नहीं बन पा रहा है। 

हाल के दिनों में दुनिया के पश्चिमी देशों में समाज के ऊँचे पायदानों पर आसीन कुछ जानी मानी हस्तियों ने लगभग मिलिटैंट तेवर में स्तनपान को अन्य क्रियाकलापों की तरह सामान्य व्यवहार मानने का आग्रह किया है और दुनियाभर में उनकी इस पहल का आम तौर पर स्वागत किया गया है।इनमें अग्रणी नाम है अर्जेंटीना की युवा ऐक्टिविस्ट सांसद विक्टोरिया दोंडा पेरेज़ का जिनकी संसद की कार्यवाही में भाग लेते हुए बेटी को स्तनपान कराते रहने वाली तस्वीर मीडिया में चर्चा का विषय बनी। इस फ़ोटो पर जहाँ भरपूर शाबाशी मिली वहीँ यह भी आरोप लगा कि यह सरासर नॉनसेंस और अश्लील है ,संसद किसी का निजी बेडरूम नहीं बनाया जा सकता।  

ऑस्ट्रेलिया की राजनेता गिउलिआ जोन्स ने भी कैनबरा स्थित एसीटी विधान सभा के अंदर विधायी कामकाज के बीच बच्चे को दूध पिला कर इतिहास बनाया।पूरी दुनिया में यह चलन है कि सुरक्षा और गोपनीयता की आड़ लेकर संसद या विधान सभाओं के अंदर किसी बाहरी व्यक्ति को प्रवेश करने की मनाही होती है ,और कानूनन बच्चे बाहरी व्यक्ति माने जाते हैं।  कुछ साल पहले एसीटी विधान सभा ने नियमों में बदलाव करते हुए नवजात शिशुओं की परवरिश करती महिला सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने की छूट प्रदान की थी। हाँलाकि पूर्व मुख्य मंत्री केटी गेलंघर कैबिनेट मीटिंगों के बीच अपने बच्चों को कैबिनेट मीटिंग के दौरान स्तनपान कराने के लिए मशहूर थीं। श्रीमती जोन्स का साफ़ कहना है :"यदि मेरे बेटे को भूख लगी है और मैं सदन के कामकाज में व्यस्त हूँ तो उसे दूध ज़रूर पिलाऊँगी -  उसके प्रति यह मेरी ज़िम्मेदारी है। यदि वह भूखा है तो उसको दूध पिलाना ही होगा ,इसमें उसकी ,मेरी और पूरे समाज की भलाई है। "

आज से पंद्रह साल ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स की सदस्य जूलिया ड्रोन के प्रश्न के लिखित जवाब में अध्यक्ष ने बताया था कि सदस्यों और बुलाये गए अफसरों सिवा किसी अन्य का संसद में प्रवेश वर्जित है। कोई दस साल बाद कुछ विशेष कमरे इस काम के लिए चिह्नित कर दिए गए। 

इटालियन संसद सदस्य लीसिया रोंजुली की सितम्बर2010  में सदन में डेढ़ महीने के बच्चे को सीने से चिपकाये मतदान करती हुई फ़ोटो पूरी दुनिया  और सराही गयी थी। उन्होंने कहा :"जब हम यूरोपियन संसद में महिलाओं के रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए काम करते हैं तो प्रेस  पर जूँ नहीं रेंगती - जब मैं अपने बच्चे को गॉड में लेकर संसद में आयी तो अब सबको मुझसे इंटरव्यू करने का समय चाहिए। "

पश्चिमी जगत में सार्वजनिक स्तनपान की वकालत करने वालों ने सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य और निजी स्वतंत्रता का हवाला दिया तो विरोध में दूसरा मज़बूत स्वर डिब्बा बंद दूध के चुनाव की आज़ादी के पक्ष में उठ खड़ा हुआ। 

इस तकरार के बीच सोशल मीडिया पर सेल्फ़ी की तर्ज़ पर एक नया शब्द बड़े जोर शोर से उभरा : "ब्रेल्फ़ी" ,यानि स्तनपान कराते हुए खुद की फ़ोटो। 

भारतीय संसद के अंदर ऐसी किसी सम्भावना के बारे में क्या स्थिति है मालूम नहीं चल पाया - पर  निश्चय ही यहाँ  लिखित नियम कानून की तुलना में संस्कृति पोषित लज्जा का पलड़ा भारी होगा इसका अनुमान सहज लगाया जा सकता है।  
 
समसामयिक विषयों पर मुखर प्रतिक्रिया देने वाली ब्रिटेन की अत्यंत लोकप्रिय युवा "स्पोकन वर्ड" कवि हॉली मैक्निश ने स्तनपान से जुड़े लज्जाभाव और परेशानी को व्यक्त करने वाली कविता "इम्बैरेस्ड" ( अनुवाद करते हुए मैंने उसको शर्मिंदा शीर्षक दिया) लिखी जो यू ट्यूब पर लाखों लोगों द्वारा दुनिया भर में देखी और सराही गयी। कैम्ब्रिज में रहने वाली मैक्निश के कविता संकलन और एल्बम बाज़ार में हैं और स्लैम पोइट्री के अनेक ख़िताब वे जीत चुकी हैं। वास्तविक घटनाओं से उपजी इस कविता को लिखने के बारे में वे बताती हैं : 

"यह कविता मैंने अपने छः महीने की  बच्ची  के सो जाने पर पब्लिक टॉयलेट में लिखी। मैं दिनभर बेटी के साथ शहर में यहाँ वहाँ घूमती रही और जब उसको दूध पिलाने लगी तो सामने से किसी ने कॉमेंट किया कि इतने छोटे बच्चे को लेकर मुझे घर में रहना चाहिये ,बाहर निकलने की क्या दरकार है। छोटे बच्चों को हर दो तीन घंटे बाद भूख लगती है और उन्हें दूध पिलाना पड़ता है,और हर दो तीन घंटे बाद काम धाम छोड़ कर घर भागना मुमकिन नहीं है - वैसे भी यह तर्क निहायत मूर्खतापूर्ण है। पर यह कॉमेंट सुनकर मैं शर्म से भर उठी और अगले छः महीने बच्ची के साथ अकेली होती तो दूध पिलाने के समय भाग कर टॉयलेट में घुस जाती - साथ में ब्वॉय फ्रेंड ,दोस्त मित्र या माँ हुई तो अलग बात है। मुझे ऐसा करते हुए हमेशा अपने आपसे घृणा हुई पर करती क्या - डर ,घबराहट और झेंप घेर लेती। अब जब टीवी या मीडिया के बारे में सोचती हूँ तो अजीब लगता है कि न किसी सोप में न  किसी कार्टून में या और न कहीं और ही किसी स्त्री को बच्चे को दूध पिलाते हुए दिखाते हों - भूल कर भी नहीं। अंग्रेज़ और अमेरिकी इस बात से डर कर बहुत दूर भागते हैं - मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है। मुझे अपने देश की संस्कृति बेहद अजीब लगती है जहाँ लोगबाग पैसों से हर सूरत में चिपके रहते हैं। मुझे बड़ी शिद्द्त से महसूस होता है कि कुदरत ने जो नियामत हमें बिना कोई मूल्य चुकाये बख्शी है - अपने शरीर को लेकर मैं उन खुश नसीबों में शुमार हूँ - उसके लिए भारी भरकम राशि खा म खा चुकाते रहने वाले माँ पिता की तादाद हमारे समाज में कम नहीं है।खुद मेरी अनेक सहेलियाँ हैं जिनका बच्चों के लिए फॉर्मूला खरीदते खरीदते दिवाला निकल जाता है पर उन्हें अपना दूध पिलाने में शर्म आती है। आखिर हम खरबपति कंपनियों को वैसी चीज़ से मुनाफ़ा क्यों कमाने दें जो हमारे शरीर में बगैर कानी कौड़ी चुकाये भरपूर मात्र में उपलब्ध है। मार्केटिंग की यह कितनी कुशल रण नीति है कि हम ऐसा कुछ करना  अनुचित समझने लगते हैं- यह सोच सोच कर मैं हर आते दिन ज्यादा उदास हो जाती हूँ। अब वह दिन दूर नहीं जब हम  टेस्कोज़ मॉल  में पसीने की बोतल खरीदने जाया  करेंगे और रात में पढ़ने के लिए इलेक्ट्रॉनिक किताबें -- पढ़ें और साथ साथ खरीदे हुए पसीने की बूँदें अपने बदन पर मलते रहें। आप इन्तजार कीजिये … 

मेरा ऐसा कोई आग्रह नहीं है कि दूसरों के विचार बदल डालूँ ,बस यह चाहती हूँ कि मेरी बात लोगों तक सीधे सीधे पहुँच जाये - जब यह बात लोगों की समझ में आकर प्रतिध्वनित होने लगती है तो बहुत ख़ुशी होती है। स्तनपान पर लिखी इस कविता के बारे में ढेर सारे लोगों ने मुझे ई मेल किये ,उसको बार बार पढ़ा सुना और आश्वस्त हुए ,और घर से बाहर निकल कर स्तनपान कराते हुए ज्यादा सहज महसूस किया।"


शर्मिंदा 
        
मैं अक्सर सोचती हूँ पब्लिक टॉयलेट्स में दूध पीना 
कहीं उसको क्रुद्ध तो नहीं करते 
फैसले लेने की मनमानी से 
और खा म खा की विनम्रता ओढ़े ओढ़े 
अब मैं खीझने लगी हूँ 
कि मेरी बच्ची की शुरू शुरू की घूँटें 
सराबोर हैं मल  की दुर्गन्ध से 
हर वक्त घबरायी और असहज रहती  
जन्म के बाद के महीनों में जब जब उसको दूध पिलाती  
जबकि चाहा सबकुछ अच्छा हो उसके सुंदर जीवन में ....
…………………… 
………………… 
मुझे आठ हफ़्ते लगे जब हिम्मत जुटा पायी 
कि निकलूँ सबके सामने शहर में 
और अब लोगों की फब्तियाँ हैं 
नश्तर की तरह आर पार काटने को आतुर .... 
भाग कर घुस जाती हूँ टॉयलेट के अंदर 
इसमें भला क्या है जो अच्छा लगे ....... 

मुझे शर्म आती है कि 
मेरे बदन की पल भर की कौंध कैसे लोगों को ठेस मार देती है 
जिसकी मैंने कोई नुमाइश नहीं लगाई  
न ही उघाड़ कर दिखलाती ही हूँ
पर लोग हैं कि मुझे घर के अंदर बंद रहने की हिदायत देते हैं 
एक सहेली को धक्के मार मार कर 
लगभग फेंक दिया लोगों ने बस से नीचे 
और दूसरी औरत को खदेड़  दिया 
बच्चे सहित पब से बाहर … 
...................... 
………………… 
जीसस ने इस दूध को पिया 
ऐसा ही सिद्धार्थ ने किया 
मुहम्मद ने किया 
और मोज़ेज ने किया 
दोनों के पिताओं ने भी ऐसा ही किया
गणेश शिव ब्रिजिट  और बुद्ध 
सब के सब ऐसा ही करते रहे 
और मैं पक्के भरोसे के साथ कह सकती हूँ 
कि बच्चों ने भूख से पेशाब के भभकों को  
बिलकुल गले नहीं लगाया  
उनकी माँओं को मुँह छुपाने के लिए सर्द टॉयलेट की सीटों पर 
मज़बूरी में घुस कर बैठना पड़ा लज्जापूर्वक
वह भी ऐसे देश में जो अटा पड़ा है 
वैसे विशालकाय इश्तहारों से 
जिनमें यहाँ से वहाँ  तक चमकते दमकते हैं 
स्तन ही स्तन ....... 
………………  
................... 
प्रदूषण और कचरे से बजबजाते शहरों में 
उनको खूब अच्छी तरह मालूम है 
कि बोतल दूध पीने वाले ढेरों बच्चे मर जाते  हैं 
शहरों में तो पैसों की लूट पड़ी है जैसे हों मिठाई 
और हम चुका रहे हैं भारी कीमत उसकी 
जो कुदरत ने हमें नियामत बख्शी है बे पैसा 
शहरों के अस्पताल में पटापट मर रहे हैं बच्चे 
उलटी दस्त से पलक झपकते 
माँओं का दूध पलट सकता है पल भर में यह चलन 
इसलिए अब नहीं बैठूँगी सर्द टॉयलेट की सीटों पर 
चाहे कितना भी असहज लगे बेटी को सबके बीच दूध पिलाते 
यह  देश अटा पड़ा है 
वैसे विशालकाय इश्तहारों से 
जिनमें यहाँ से वहाँ  तक चमकते दमकते हैं 
स्तन ही स्तन ....... 

अब हमें यहाँ वहाँ बच्चों की दूध पिलाती माँओं को 
देखते रहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।  
****

चर्चित समकालीन मैसिडोनियन कवि निकोला मेदजीरोव की कविताएं ( पेगी, ग्राहम डब्ल्यू रीड, मेगडेल्ना होर्वट तथा एडम रीड के अंग्रेजी अनुवाद से) : हिदी अनुवाद -दुष्यंत

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कवि की औपचारिक अनुमति से हिंदीमें पहली बार अनूदित ये कविताएं प्रिंट में जनसत्ता में आई थीं, (वैसे ये अनुवाद मूलत :kritya international poetry festival के लिए किए गए थे), यानी इनअनुवादों से ही इस कवि को हिंदी दुनिया से पहली बार रूबरू करवाया गया ।स्‍त्रूमिका नामक स्‍थान पर बाल्‍कन वॉर के शरणर्थी परिवार मेंजन्‍में निकोला मेदजीरोव की कविताएं पहली नजर में पलायन की कविताएं लगती है, पर वे गहरे इतिहासबोध के साथ विस्‍थापनऔर बदलते समय को दस्‍तावेज करती महीन काव्‍यात्‍मक कारीगरी वाली कविताएं हैं,उनकी कविताओं के दुनिया की तीस से ज्‍यादा भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।हुबर्ट बुरदा यूरोपियन कविता पुरस्‍कार उन्‍हें मिल चुका है। 


***

दरवाजे से ठीक पहले की माटी में

तुम्हारे घर के गिर्द बनी बाड़ ने
तुम्हारे घर को दुनिया का केंद्र बना दिया है।

हर सुबह/ पर्दे की पारदर्शी बुनाई के फूलों से
फिसलती है सूरज की किरणें
खिड़की के कांच पर फैली धूल उतरती है
निष्ठावान विधवा के चहरे के मैकअप की तरह।

हमारा कमरा एक अंतहीन मरूस्थल है
चौखट पर रखे फूलदानों में सजे कैक्टसों के साथ
दरवाजे से ठीक पहले की मिट्टी में।

हम हर रोज उगाते हैं
वह जो कभी नहीं फलेगा फूलेगा
जैसे नाभिनाल या तुम्हारे कपड़ों झडी धूल का टुकड़ा।

कुछ जो बचा रहेगा हमेशा
जैसे किसी के बचपन से
एक स्टिकर रहता है फ्रिज पर चिपका हुआ।
***

हर दिन एक नई दुनिया है

हर दिन नया/ हम रचते हैं एक नया ही संसार
पहाड़ यहां खड़े होगे/ वहां होगे शहर
आज नदियां हमारे लिविंग रूम में बहेंगी

और कल नए सिरे से
बिल्कुल ही शुरूआत से

पतंगो को रहने दो आसमान में
और वहां युद्धविराम।

इस खेल में/ केवल हम बाहर हैं
हर दिन/ कुदरत तय करती है हमारा स्थान

ठीक उन्हीं जगहों पर
मैं सोने के लिए तैयार था एक माचिस की डिबिया में
और तुम एक वायलिन के बक्से में।
***

साए गुजरते हैं

हम मिलेंगे एक रोज
कागज की नाव की तरह और नदी में तैरते तरबूज की तरह
दुनिया का तनाव हमारे साथ होगा
हमारी हथेलियों से होगा सूर्य ग्रहण
और एक दूसरे तक पहुचेंगे हम
हाथों में लिए लालटेन।

एक दिन जब
हवाएं अपना रूख नहीं बदलेगी
सनोबर के पेड की पत्तियां चली आएंगी
हमारे जूतों में शामिल होकर
हमारे घर की दहलीज तक
हमारी मासूमियत के पीछे पड़ेगे क्रूर लोग
तितलियां अपनी धूल छोड़ जाएंगी
हमारे गालों पर

एक बूढी नानी सुनाएगी हमारी कहानियां
वेटिंग रूम में हर सुबह
यहां तक कि जो कह रहा हूं
वो भी कहा जा चुका है पहले
हम हवा के इंतजार में हैं
जैसे होते हैं दो ध्वज किसी सरहद पर ।

और / एक दिन हमारा साया हमसे आगे चला जाएगा।
***

दो चांद


एक लड़की ने देखा अपना अक्स
शहर की साफ~साफ सरहद पर
और अपनी दो आंखों में दो चांद
खोजी जा चुकी दुनिया के आखिरी कोनों को
उसकी नजर करीब ले आती है।

छतों के पार जाता है उसका काई से सना साया
और नीचे अकेलेपन से मरती स्थानीय प्रजातियों को देखता है
दैहिक कंदरा से लेकर
उसके कूल्हों और अस्थिपंजर के बीच से
चमकती है प्रकाश की एक रेखा हर रात।
***

हमारे जन्म से पहले

सड़कें डामर बिछी हुईं/ हमारे जन्मों से पहले
आकार ले चुके थे/ सारे के सारे तारामंडल।
फर्श के किनारों तक/ पत्तियां सड़ गई थीं
चांदी थी कलंक सी/ मजदूरों की त्वचा पर
नींद की लंबाई तक जा रही थी/ किसी की हड्डियां

यूरोप का एकीकरण हो रहा था
हमारे जन्म से पहले
एक स्त्री के केश बिखरे हुए थे
समंदर की सतह पर/ निःशब्द।
***

सूरज तुम्हारे गर्भाशय में निद्रामग्न है

हमने जो उगाए हैं
अनिश्चितता के बगीचे
रात तक इसमें फल आएंगे
जब सूरज सो चुका होगा
तुम्हारे गर्भाशय में
जो इंतजार में होगा मेरे बीज के।

हम खनिजों के बारे में अनजान हैं
और उन दफनाए गए खिलौनों के बारे में
और उन भंवरों के बारे में भी
दो युद्धरत देशों के बीच

भुला दिए गए/ बचपन के निशान
ढक दिए गए हैं/ बैलगाड़ी के पहियों के निशानों से
और धरती महकती है

यहां से हमारी मासूमियत
और गतिमान होता है चमकीले शहरों की ओर
और वजूद उसका सिर्फ नक्शों में बचा है
और आसमान में/ जब वहां चांद अनुपस्थित है।
*** 
दुष्यन्त हमारे लिए अब तक अनजान रहे कविता के कुछ हिस्से रोशन कर रहे हैं। अनुनाद इन अनुवादों के लिए उनका आभारी है।

अमित श्रीवास्तव की दो कविताएं

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इस दुनिया में रात भर जागती है कोई स्त्री
इसी दुनिया में कोई कोई पागल प्रेम कर बैठता है

सरल, लगभग अभिधात्मक दीखते वाक्यों के बीच भाषा जीवन के बिम्ब बनाती है तो कविता में एक अलग हूक उभरती है। अमित का कवि आजकल ऐसी ही किसी हूक के बीच छपटपटा रहा है। अतिपदत्व की आशंका भी उसे राह से विचलित नहीं करती। हठ सरीखी हूक और हठ सरीखी ही एक भाषा के साथ वह ऐसे इलाक़े में है जहां धूप में पत्तियां गर्म नहीं होतीं/चुपचाप सिर झुकाकर/विलगा लेतीं खुद को..... यह बेबसी अनायास ही उस संसार का पता देती है, जो अब सरल से जटिल हुआ जाता है -  इस जटिलता को ऐसी ही अकस्मात् सरलता में संभव किया जा सकता है।

मित्रताएं, प्रेम, अकेलापनऔर बहुत तपाक से कही गई लगती कई बातें यहां हैं, किन्तु उतना ही ख़ामोश करवटें बदलता एक भीतरी जगत भी है, जिसे समझा जाना हमेशा बाक़ी ही रहा है। कहीं कुछ चरमराने-टूटने की आवाज़ आती है तो आप न देखते हुए भी एक वृक्ष को टूटते देखते हैं – समूचे संसार और उसके अवयवों से हर ओर ऐसी ही आवाज़ें आएं तो आप क्या समझेंगे... गिरती हुई संरचनाओं को थामने जो हाथ आगे बढ़ते हैं, कवि के हाथ हैं .... किसी टूटन को समूचा प्रकट कर देने के बीच ही कहीं उसे थाम भी लेना कवि का काम है – इस मायने में अमित बहुत समर्थ कवि है ..... बहुत दिन बाद अमित की कविताएं अनुनाद को मिली हैं, संयोग ही कहिए कि बहुत दिन अनुनाद पर कोई पोस्ट लग रही है।
***
फिर फिर गुएर्निका

फ्रेंड फॉलोवर एन्ड लाइक

इस दुनिया में

अक्सर
इसका तर्जुमा इतना भर होता
कि वो होता है
क्या होना इतना ही आसान है होना
मैं पूछता हूँ और अतिपदत्व का दोषी हो  जाता हूँ

मेरा होना व्यक्त होना भी है
मैं प्रेम के अतिरेक में थूक देता हूँ
वो घृणा की हद पर जाकर चूम लेता
अनुभूति के सघनतम क्षणों में
इस तरह दोनों ही
स्किज़ोफ्रेनिया के पीड़ित कहलाते

इसी दुनिया में
प्रेम पाने की न्यूनतम योग्यता
न्यूनतम मनुष्य होने की कसौटी से हटाकर
कुछ प्रश्नों के आतुर जवाबों के पीछे छिपा दी गयी है
प्रश्नों में रक्त चाप से सम्बंधित सवाल ज़्यादा हैं
घृणा के बारे में न्यूनतम शर्त कुछ नहीं
आदमी दिखना बस एक बहाना है
पशु हो जाने का

वैसे तो सबकुछ कहा जा चुका
लेकिन अभी अभी कहा गया कुछ
अभी अभी सुना गया है यहां

कहा गया कि तस्वीर के पीछे पहेली वही है
कहा गया कि तस्वीर के हिज्जे वही हैं
सुना गया कि तस्वीर वही है
होने न होने के बीच
पसन्द नापसन्द का झीना पर्दा है
कुछ इशारों की दूरी है
जो अक्सर उतना ही कहती है
सुना ज़्यादा जाता है

कभी किसी इजलास में
भाषा को जब कटघरे में खींचा जाएगा
कौन तय करेगा इशारों की जवाबदेही
गो कि मनुष्यता के सरलतम दांव पेंच में 
फैसला मुश्किल होगा

इस दुनिया में
पर्दे के ऊपर का नीला उजाला
पीछे की अँधेरी धूप से रोशन है
ऐसा कहना इतिहास को प्रेयसी की नज़र से देखना है
धूप में पत्तियां गर्म नहीं होतीं
चुपचाप सिर झुकाकर
विलगा लेतीं खुद को
मियाद पूरी होने के बाद
क्यों तुम्हारे ख़त गुलाबी न रहे
इसलिए क्या कि ख़ाक से रिश्ता टूट गया

इसी दुनिया में मगध सज गया है
द्वारिका बस गयी है
हड़प्पा की अधटूटी मूर्ति  
फिर दफनाई गयी है अभी अभी
समझ नहीं आता यहां घर हैं या चौसर

अपनी उड़ान स्थगित कर दी है पंछियो ने
हमेशा हमेशा के लिए
उन्होंने उड़ते हुए कुछ मगर देखे हैं
इस दुनिया में एक टुकड़ा ज़मीन के लिए
कई घरों का आसमान उधार पर है
इसी दुनिया में हवाएं रुख़ बदलती हैं तो
पानी रंगत छोड़ देता है
इस दुनिया में जलकर भी
प्यास नहीं बुझती
राख से उठती है फिर उड़ने लगती है पंख फड़फड़ाते

ये दुनिया अब भी इसी दुनिया में है
इस दुनिया में इसी दुनिया की
मुकम्मल आवाजाही है 
यही दुनियादारी है

इस दुनिया में रात भर जागती है कोई स्त्री
इसी दुनिया में कोई कोई पागल प्रेम कर बैठता है
***
 
आधा दरिया आधा ख़ाक


कांटे की तरह चुभने लगे 'वो'शब्द
चुन चुन कर निकाले
.......
लहरा रहा गूंगापन
दबे हुए कण्ठ से
अब बोलना मुश्किल लगता है
देखो मैंने मुश्किल कहा ना
लंगड़ी भाषा में
बिना गिरे चलना मुश्किल है
दौड़कर कैसे आऊंगा पास तुम्हारे
कैसे जताऊंगा अपना प्रेम

मैंने किताबें जलाईं 'उनकी'
फैज़ मोमिन ग़ालिब
अरे उफ़ हाय
आधे तो प्रेमचन्द ही जल गए
प्यास के किनारे सूखे होठ
राख से बिखर गए
इस मुए गुलज़ार का क्या करूँ

कटोरियाँ पांच लगाईं
खाली रह गईं तीन
अब भूख से कुलबुलाते
स्वाद से बेजान
दस्तरखान
लपेटकर उठ गया हूँ

कानों को थोड़ा कष्ट हो शायद
अहम् सन्तुष्ट
इसलिए कुछ रागनियां छाँट कर अलग कीं
कुछ भजन रख दिए परे
कुछ घराने अलगाए
वाद्य यन्त्र तो फोड़ ही दिए 'उनके'दिए
नृत्य मुद्राओं से छीन लीं सारी गतियां
इश्क़ मजाज़ी से इश्क़ हक़ीक़ी तक
चौंसठ पड़ाव थे
इतने ही घाव दिए
अपाहिज हुई कला के साथ
सम्राट सा व्यवहार नहीं
सीमा पार से घुसपैठिये आतंकियों
सा व्यवहार किया
अब आलाप में गर्म शीशे सा पड़ता हूँ

मैंने खारिज की नींद आज की
वापिस किया खर्राटों को सिरहाने से खाली हाथ
मुझे 'उनके'बुने नर्म गलीचों से घिन थी
छत को भेद कर बाहिर जाना चाहती थीं नज़रें
ये छत उनके शागिर्दों ने बिछाई थी
मैं रात भर जागता रहा
ये पूरे जीवन की अनिद्रा की शुरुआत थी
सभ्यता के इतिहास में
मैं बेघर हुआ था अभी अभी

उतार कर रख दिए सब लिबास
जिस्म से खाल सी नोच ली
बदबू आती थी उनमें
जिनपर छापे थे 'उनके'
अब नंगा घूमता हूँ
सभ्यता की दहलीज़ के आर पार

आग हवा पानी मिट्टी और आसमान
सबको काटा आधा आधा
आधा उनका आधा मेरा
आधी सांस आधी हिचकी का अनुवाद
पूरी पूरी मौत हुआ मगर
इस तरह जो जतन किये
ख़ुद को अलगाने के
वो अंततः
खुद को ही विसराने के मानी बने

'उन्हें'खरोंच कर निकलता हूँ बार बार
बार बार 'वो'मुझमें उग आते हैं
इस उगने और निकलने के बीच
पहचान के सारे रास्ते बन्द हो जाते
मैं नहीं रह जाता कतई मैं

सच कहूँ तो
मैं भूखा रहना नहीं चाहता
मैं नंगा रहना नहीं चाहता
मैं गूंगा रहना नहीं चाहता
मैं इस तरह मरना नहीं चाहता
मैं बस इतना भर 'वो'होना चाहता
कि मैं 'मैं'रह सकूं

मेरे नागार्जुन - शिरीष कुमार मौर्य

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बाबा का संस्‍मरण
मेरे जीवन में-मन में वह एक-अकेला औघड़ बाबा

प्रगतिशील हिंदी कविता का वह परम औघड़-ज़िद्दी यात्री, जिसे नागार्जुन या बाबा कहते हैं, मेरे जीवन में पहली बार आया तब मैं आठवीं में पढ़ता था। 1986की बात रही होगी जब सुनाई पड़ा कि ये महाकवि हर बरस अपनी गर्मियाँ जहरीखाल में वाचस्पति जी के घर गुज़ारते हैं जो राजकीय महाविद्यालय में मेरे पिता की ही तरह हिंदी के प्राध्यापक हैं। हम उसी इलाक़े में नौगाँवखाल नामक गाँव में रहते थे। दो साल बाद हाईस्कूल की पाठ्यपुस्तक में नागार्जुन की एक कविता बादल को घिरते देखा हैसामने आयी। हालाँकि बरसात के दिनों में मित्रों के साथ शराब पी लेने के बाद पिता को अकसर इस कविता कुछ हिस्से सुनाते हुए पाया था, ख़ासकर वो जिसमें किन्नरों की मृदुल मनोरम अँगुलियाँ वंशी पर फिरती हैं, जाहिर है कविता के उस हिस्से में मदिरा का भी ज़िक़्र था, जो तब तक पिता  के उदर और मस्तिष्क के कुछ अंशों पर हावी हो चुकी होती थी। बताना होगा कि पिता 70के ज़माने में नागपुर में शोध करते हुए नागार्जुन के सम्पर्क रह चुके थे लेकिन उनके ऐसे अद्भुत प्रशंसक थे, जिनमें 60-70किलोमीटर दूर जहरीखाल में मौजूद अपने प्रिय कवि से मिलने जाने की कोई इच्छा मैंने कभी जागते नहीं देखी। कुछ सबन्ध शायद ऐसे ही होते होंगे, जिनमें सम्पर्क करना/रखना अनिवार्य न होता हो।

बहरहाल, वक़्त बहुत जल्दी गुज़रा और 1990की बरसात में हमारा परिवार पिता के स्थानान्तरण के फलस्वरूप नैनीताल जि़ले के रामनगर क़स्बे में जा पहुंचा। यहाँ पहुंचते ही सुनाई दिया कि अब फिर बाबा जहरीखाल से काशीपुर आ चुके वाचस्पति जी के घर पाए जाते हैं। काशीपुर की दूरी रामनगर से27किलोमीटर थी। मैं भी अब बी.एस-सी. का छात्र हो चुका था और कुछ इच्छाएँ साहित्य प्रेम के चलते मेरी भी जागने लगी थीं। अगले बरस यानी 1991में वाचस्पति जी का संदेश आया कि बाबा पधार चुके हैं और हम अगर मिलना चाहें तो हमारा स्वागत है। यूं पिता और मैं उनसे मिलने काशीपुर गए। अब तक मैं नागार्जुन को काफ़ी कुछ पढ़ चुका था और उनके धारदार चुटीले व्यंग्य का कायल था। बस में वक़्त गुज़ारते हुए कई बार दिल की धड़कन बढ़ी कि मेरा भी अत्यन्त प्रिय हो चुका यह बुज़ुर्ग कवि कैसा होगा और हमसे कैसे मिलेगा। पतली गली में आकर थोड़ी खुली जगह पर एक उजड़ रही चूना भट्टी के सामने वाचस्पति जी का घर मिला, जिसके मुख्य द्वार पर कालबेल की छोटी गोल काली बटन तो थी ही, एक मोटी लोहे की साँकल भी थी, जिसे बिजली न होने की स्थिति में दरवाज़े पर भरपूर शोर के साथ बजाया जा सकता था। मैंने अपने उस किशोर उत्साह में दोनों का प्रयोग किया तो ऊपर मंजि़ल से एक कड़क आवाज़ आयी - अरे बेटू देखो तो कौन है? कहो आ रहे हैं भाई, आ रहे हैं! इतनी भी जल्दी क्या है!  फिर तुरत ही ऊपर से मूंछों वाला एक चेहरा नीचे देखता हुआ बोला - कहिये ! किस से मिलना है!  अब पिता ने अपनी वाणी को अवसर देते हुए कहा - मैं हरि मौर्य हूं.... ऊपर वाला चेहरा एकाएक अपनी मूंछों में जैसे खिल उठा - अरे भाई साब आप है! आता हूं। आता हूं!  हम सीढि़यों से ऊपर पहुंचे तो एक गोल बरामदे में हमें बैठा दिया गया। पता चला जिस बेटू को आवाज़ दी जा रही थी, वह वाचस्पति जी का बड़ा बेटा है और घर में मौजूद ही नहीं है। वे मूंछें ख़ुद वाचस्पति जी के चेहरे की शान हैं, जिन्हें शायद उन्होंने अपनी स्वाभाविक मानवीय स्निग्धता और स्नेह को छुपाने के लिए उगाया है, ताकि रौब ग़ालिब करने में कोई कसर न रहे। उन्होंने बताया बाबा अभी खाना खाकर सोए हैं, एकाध घंटे का इंतज़ार करना होगा। तब तक एक स्त्री निकल कर आईं, जिनके समूचे व्यक्तित्व में एक अनोखी आभा थी और उतना ही अनोखा अपनापा भी। वे घर की मालकिन शकुंतला आंटी थीं। परिचय के तुरत बाद ही वे मुझे अपने साथ बरामदे के दूसरे कोने पर मौजूद एक कमरे की ओर ले गईं जो उनका कार्यक्षेत्र था- उनकी रसोई। बिना कुछ बोले एक पीढ़े पर बिठाया और आलू-टमाटर की सब्ज़ी और गर्म पूडि़यों की एक विराट प्लेट मेरे सामने धर दी। मैं हिचकिचाया तो बोलीं-  अरे बस से आए हो। बच्चे हो भाई, भूख लग आई होगी। शर्माओ मत, खाओ। अभी खीर भी गर्म करती हूं।  मैंने सोचा क्या मैं यहाँ तक सिर्फ़ खाना खाने आया हूं? तब पता नहीं था कि यही खाना एक दिन मुझे जीवन की उन राहों तक ले जाएगा, जिन पर मुझे कविता से लेकर प्रेम तक वे तमाम चीज़ें मिलेंगी, जिनके बिना अब जीवन सम्भव नहीं।

कुछ देर बाद अंदर के कमरे से अचानक काफ़ी खाँसने-खँखारने और बलगम निकालने की आवाज़ों का एक विकट सिलसिला शुरू हो गया और वाचस्पति जी ने कहा -लगता है बाबा जाग गए!  यह साधारण-सा लगनेवाला वाक्य मेरे लिए बेहद असाधारण था और मैं तुरत कुर्सी से उठकर अंदर जाने को तत्पर हुआ। वाचस्पति जी ने रोका, कहा - ज़रा रुकिए, पहले देख लें कहीं और तो नहीं सोएंगे।  वे अंदर गए और सूचना लाए कि अब नहीं सोएंगे, आप लोगों को बुला रहे हैं। ख़ुदा-ख़ुदा करके सहर हुई थी। हम लोग अंदर गए। मैं पलंग पर बैठे व्यक्ति को देखकर भौंचक्का रह गया। चेहरा तो फोटो में देखा था और उस चेहरेवाले व्यक्ति की कल्पना एक पतले-दुबले बुर्ज़ग की ही थी पर इतने अशक्त की नहीं। बहुत छोटा-सा क़द जो बैठे होने पर और भी छोटा लग रहा था। इस क़द के बड़प्पन के बारे में अभी मुझे बहुत कुछ जानना था।

हमारी पहली मुलाक़ात के तुरत बाद बाबा दस-पन्द्रह दिनों के लिए हमारे घर रामनगर आए और आनेवाले तीन साल तक इसी तरह आते रहे। कुल मिलाकर अपने जीवन के कोई साठ दिन उन्होंने हमारे साथ गुज़ारे होंगे और इन साठ दिनों की स्मृतियाँ अब मेरे जीवन भर का धन हैं। इस धन में बाबा के पत्रों का कुछ चक्रवृद्धि ब्याज भी है, जिन्हें कभी सबके पढ़ने के लिए उपलब्ध कराऊँगा। अभी की बात सिर्फ़ स्मृतियों की.....बाबा के बारे में जो कुछ मैं लिख रहा हूं शायद सैकड़ों बार कई लोगों ने यही कुछ लिखा होगा ...और ऐसा इसलिए कि बाबा का दिया हुआ स्मृतिधन मेरे अकेले की बपौती नहीं....मुझ जैसे सैकड़ों लोगों के पास वह है और कईयों के पास तो मुझसे कई गुना ज़्यादा। ऐसे लोगों में सर्वोपरि वाचस्पति जी हैं पर इस स्मृतिधन को ख़र्च करने में उनके जैसा कंजूस भी मैंने दूसरा नहीं देखा।

बाबा घर आए तो उनके आने की सूचना मुहल्ले की कुछ धर्मपारायण स्त्रियों को मिली। ऐसी स्त्रियों को जिनके पति सुनार, इंजीनियर, व्यापारी आदि थे और उनके गिर्द घूसखोरी, टैक्सचोरी, गबन आदि का बड़ा मज़बूत घेरा था, जिसके भीतर वे स्त्रियाँ पुण्य की लालसा में मंदिरों, सत्संगों, बाबाओं आदि के चक्कर काटा करती थीं। पुण्य और सत्संग की यही इच्छा उन्हें हमारे घर लायी। वे आयीं तो साथ में पुष्प, अक्षत, धूप, मिठाई वगैरह से भरी भारी-भारी थालियाँ भी लायीं, जिन्हें उन्होंने बाबा के चरणों में रखा। बाबा अद्भुत रूप से प्रसन्न हुए। अपनी मूंछों पर कुछ अंश गिराते हुए मिठाई में से कुछ उन्होंने ग्रहण भी किया। फूल आदि उन औरतों के सिर पर रखे तो वे धन्य हो गयीं। उन्होंने बाबा से सत्संग की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि सुंदर गृहणियों का साथ तो हमेशा ही सत्संग है....वे और भी प्रसन्न हुईं। बाबा ने सासों से बहुओं के हाल पूछे और बहुओं से सासों के। पतियों का भी नंबर आया...कुछ नवविवाहिताएँ लजा गईं। उनके मुखड़े की लाली बाबा को भायी। मैं परेशान हुआ कि यह सब हो क्या रहा है! मुझे बाबा ने कालेज जाने का आदेश दिया। उस सत्संग में आगे क्या हुआ मैं नहीं जानता पर बाबा के प्रवास के दौरान उन स्त्रियों का आना हर साल अबाध रूप से जारी रहा।

मेरी माँ का नाम कला है और वे काफ़़ी साफ़ रंग की हैं पर बाबा ने पहले दिन से ही उन्हें कल्लू कहा। बताया कि उम्र, शक्ल-सूरत और आदतों में वे ठीक बाबा की उड़ीसावाली बेटी की तरह हैं अतः वे उनकी बेटी ही हैं और मेरे पिता उनके दामाद जिन्हें ठीक किए जाने की सख़्त ज़रूरत है। माँ इन बातों से ख़ुश हुई और बाबा की ख़ातिरदारी में लगी रही। सामन्ती कूड़े के बीच ज़िन्दगी गुज़ारते रहने के कारण पिता को ठीक किए जाने वाली बात उन्हें विशेष अच्छी लगी थी। बाबा के साथ उनका सम्बन्ध स्थिर हो गया और स्थायी भी। बाबा ने पिता को तंग करने का कार्यक्रम आंदोलन के स्तर पर शुरू कर दिया। पिता से भयभीत रहनेवाला मैं उनकी विद्रोही गतिविधियों में शामिल रहने लगा।

कविता और साहित्य की कोई बात कई दिनों तक नहीं हुई। फिर एक दिन अचानक कुमाऊँनी के प्रसिद्ध कवि श्री मथुरादत्त मठपाल तशरीफ़ लाए। मठपाल जी का बड़ा बेटा नवेन्दु मुझसे पाँच साल बड़ा था और मेरे भीतर की ज़मीन तोड़ रहा था ताकि आइसा, आई.पी.एफ. और जसम के बीज वहाँ बोए जा सकें। मैं अपनी शिक्षा और संस्कारों से मार्क्‍सवादी ही था सो उसे अपने काम में दिक्‍कत नहीं हुई। मठपाल जी ने साहित्य का ज़िक़्र बड़े ज़ोरों से छेड़ा...बाबा उनके परिवार में दिलचस्पी ले रहे थे पर मठपाल जी थे कि बात को काटकर कुमाऊँनी कविता पर आ जाते थे। उन्होंने आँग-आँग चिचैल है गोशीर्षक अपनी लोकप्रिय कविता का ज़ोरदार पाठ किया और बाबा को उसका भावानुवाद बताते हुए प्रतिक्रिया की अनिवार्य माँग रखी। बाबा ने थोड़ा पानी माँगा और कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद टूटे-फूटे शब्दों में कहा कि जैसे बछड़े को दाग कर साँड बनने और लोगों के बीच आतंक फैलाने के लिए शंकर जी के नाम पर छोड़ दिया जाता है वैसे ही तुम्हें भी कुमाऊँनी के नाम पर किसी ने छोड़ दिया है। यह भीषण प्रतिक्रिया थी और मठपाल जी के कान शायद बाबा की अस्पष्ट आवाज़ को सुनने के लिए ठीक से अभ्यस्त नहीं थे, तब भी इसका भावार्थ उनकी समझ में तुरत आ गया। वे लाल हो गए और चुप भी। अपने आक्रमण के बाद छाए इस युद्धविराम के बीच अब बाबा ने उनकी पत्नी की ओर रुख़ किया। उनसे घर-गृहस्थी की बातें कीं और यह भी पूछा कि एक हठी और इतने ज़बरदस्त कवि के साथ निभाने में उन्हें किन मुश्किलों का सामना आम तौर पर करना पड़ता है। कुछ बातें अपनी पत्नी अपराजिता देवी के बारे में बताई और उनके बलिदानों को सलाम भी पेश किया। मेरे लिए इस सत्संग में शामिल रहना कमाल की बात थी। मुझे अब लगने लगा कि यही बाबा नागार्जुन हैं और यही वह बात है जिसके कारण समूची प्रगतिशील कविता में वे अलग हैं। बाबा से मिलने आनेवालों में लालबहादुर वर्मा, उनके दामाद, स्थानीय रंगकर्मी अजीत साहनी और बहुत से वामपंथी कार्यकर्ता शामिल थे।

बाबा हर बार आते और कहने-सुनने को बहुत कुछ छोड़ जाते। मैं उनके व्यक्तित्व को अब जानने लगा। उनकी कविताओं में जो आग, अटपटापन, अपनी तरह की अनोखी कलात्मकता, सपाटबयानी, छंद, बहक, तोड़-फोड, भटकाव, विचार, प्रतिहिंसा, शास्त्रीयता, लोकराग आदि एक साथ था, वह सबकुछ ज्यों का त्यों ख़ुद उनमें भी उसी स्तर पर मौजूद था। वे अपनी कविताओं की तरह थे और कविताएँ उनकी तरह थीं।

दिनचर्या के बारे में निजी हो कर कहूं तो वे नहाना तो दूर कभी दाँत भी साफ़ नहीं करते थे। कपड़े कभी महीने में मुहूर्त निकालकर बदलते थे। उनके धुले कपड़े भी मनमाने इस्तेमाल के चलते ख़ासे गंदे ही दिखाई देते थे। मेरी माँ उन्हें एक-एक घंटा उबलते पानी में रखती थी। खाने के शौकीन पर कम खाते थे। दिन में एकाध बार बिफरने की हद तक नाराज़ हो जाते थे। भद्रलोक की ऐसी-तैसी करने का कोई मौक़ा नहीं गँवाते थे। भाषा का बोलचाल में कभी-कभी कवितानुमा इस्तेमाल करते थे और कविता में बोलचालनुमा का। मेरे हिस्से के दिनों में मैंने उन्हें कभी कविता लिखते नहीं देखा - हाँ, पत्र लिखा करते थे.... पोस्टकार्ड्स पर कुछ पंक्तियाँ, जो अकसर श्रीकांत, विजयबहादुर सिंह, हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक आदि के नाम होते थे और उनमें बाबा की निकटसम्भावी दिल्ली वापसी का ज़िक़्र होता था।

मेरे पिता पान खाया करते थे... दिनभर में चालीस-पचास......निरन्तर....जबड़ा चलता रहता था....बोलते बहुत कम थे। बाबा को यह बात अच्छी लगी। एक दिन कहा भी कि हरि तुम पान खाते हो और हम लोगों की जान खाते हैं....पान की वजह से बोलते नहीं हो...अच्छा करते हो....कई लोगों को सुख मिलता होगा। औरों का तो पता नहीं पर शायद ख़ुद बाबा को ज़रूर कोई सुख मिलता होगा। बाबा से पिता के रिश्ते पुराने थे...गुरु रामेश्वर शर्मा के ज़माने के, जिन्होंने हमारे चारों प्रगतिशील कवियों पर पहले आलोचनात्मक लेख लिखे। कुछ हँसी-मज़ाक का सम्बन्ध भी था, यूं हँसी-मज़ाक तो बाबा पहली बार मिले आदमी से भी करते थे। मैं भोजन में माँस पसन्द करता हूं और बाबा के लिए मेरा प्रतिदिन का माँसभक्षण उत्सुकता का कारण बनता गया। घर में माँस सप्ताह में एक बार ही बनता था पर मुझे चौराहे पर ठेले पर  मिलनेवाला भुटवा बहुत प्रिय था, जिसे बकरे की आँतों और दूसरे बेकार समझकर अलगाए गए हिस्सों से बनाया जाता था - यह मेहनतकश मजदूर वर्ग का व्यंजन है, उनके लिए प्रोटीन का एक बड़ा स्त्रोत जो कम दामों पर मिल जाता है। हमारे घर रहते हुए बाबा अकसर मुर्गे का सीनेवाला एक टुकड़ा बड़े स्वाद से खाया करते थे। रात के खाने पर अकसर इस बात पर बाबा का पिटारा खुला रहता था कि उन्होंने ख़ुद कितनी तरह का माँस अब तक खाया है। इस विषय में उनके पास तिब्बत से लेकर सिंहलद्वीप तक के अनुभव थे। बिहार और बंगाल का मत्स्यप्रेम इसमें शामिल था। भुटवा के बारे में पता लगने पर उन्होंने बताया कि मुसहरों के साथ भुना हुआ चूहा तक वे खा चुके थे। मछलियों की किस्मों पर बाबा अबाध और आधिकारिक किस्म का व्याख्यान प्रस्तुत करते थे। शाम को अकसर रसोई में पहुंच जाते थे। माँ की पाककला में निखार का बीड़ा उन्होंने उठाया और एक हद तक निखारकर भी दिखाया। आम उन्हें पसन्द थे पर शायद दमे के कारण वे आम खाते नहीं थे। बाबा के रामनगर आगमन का मौसम आसपास के बग़ीचों से ख़ुश्बूदार आम की आमद का मौसम भी होता था। बाबा साबुत आम लेकर उसे बहुत देर तक सूंघा करते। उन्हें मिथिला की अमराईयाँ याद आतीं। कभी कटे हुए टुकड़े पर हल्के-से जीभ की नोक फिराकर वापस रख देते। आम के साथ उनकी ये कार्रवाईयाँ प्रणय के स्तर तक जा पहुंचतीं। बाद में छूट लेते हुए मैंने इस दिशा में प्रकाश डाला तो वे खुलकर हँसे और कहा कि बच्चू इस कच्ची उम्र में प्रणय के बारे में कहाँ से जाना। मेरा जवाब था अज्ञेय के उपन्यास नदी के द्वीपसे। वे हँसे और कहा अगर अज्ञेय से प्रणय के बारे में जानोगे तो उम्र भर खोज पूरी नहीं होगी...वो तो शहरों की तरह स्त्रियाँ बदलता रहा...फिर बाबा ने शमशेर और एक स्त्री और अज्ञेय के किसी त्रिकोण का अस्पष्ट-सा ज़िक़्र भी किया। मैं 19-20साल का था और मेरे जीवन में प्रेम तो नहीं पर एक बेहद आत्मीय मित्रता का रिश्ता पनप चुका था...जो बाद में पक कर प्रेम बना।  बाबा आम के सन्दर्भ में कही गई मेरी बात को लेकर लगातार संज़ीदा होते गए। वे बार-बार पूछते कि कितनी लड़कियों से तुम्हारी दोस्ती है....नहीं है तो क्यों नहीं है....और है तो किस हद तक है। एक अजीब से संकोच में मैं उन्हें कभी सीमा से नहीं मिला पाया, जो मेरी पत्नी बनी।

मैं भाऊ समर्थ की किताब चित्रकला और समाजसे बेहद प्रभावित था और उसके असर में रेखाचित्र बनाने लगा था जो कुछ पत्रिकाओं में छपने लगे थे। कविताएँ भी कुछ लिखीं थीं पर उन्हें किसी को दिखाया तक नहीं था...पता नहीं क्यों कविता करना मुझे प्रेम करने जैसा लगता था। वह संकोच और आइसा के कुछ कार्यकर्ताओं के बीच गोपन सम्भाषण का विषय था। मैंने बाबा को कविताएँ तो नहीं, रेखांकन ज़रूर दिखाए। उन्हें पसन्द आए और उन्होंने मुझसे कलाओं की सामाजिक भूमिकाओं पर कई बार बातचीत की। भाऊ समर्थ उनके मित्र रहे थे और मेरे पिता के भी....उन दोनों के बीच भाऊ की बातें अकसर हुआ करती थीं।

रामनगर रहते हुए बाबा से मिलने और उन्हें अपने घर न्योतने कई लोग आते थे। एम.ए. की कुछ लड़कियाँ थीं जिनमें कविता की समझ तो बिलकुल नदारद थी पर नागार्जुन का नाम और हैसियत उन्हें हमारे घर खींच लाती थी। एक सुंदर-सी लड़की ने बाबा के साथ फोटो खिंचाने की ख़्वाहिश जाहिर की तो बाबा ने कहा पहले कच्ची-पक्की कैसी भी एक कविता लिखकर लाओ हम फोटो खिंचा लेंगे। लड़की ने कहा उसे लिखना नहीं आता। बाबा ने जाँच बिठाई कि कुछ तो लिखती होगी...कुछ नहीं तो सहेलियों और रिश्तेदारों को पत्र.....वैसा ही कुछ ले आओ। इस संवाद के बाद उस लड़की ने हमारे घर का रुख़ कभी नहीं किया। फोटो के मामले में बाबा बहुत चौकन्ने थे। वाचस्पति जी ने भी बता रखा था कि वे फोटो खिंचाना पसन्द नहीं करते। मैं इस मामले में सावधान रहता था पर उन्होंने कई फोटो खींचने का मौका मुझे दिया।

बाबा की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई करने का जिम्मा मेरा था। हालाँकि वे इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होते थे। कभी दमे का हवाला देते तो कभी हाइड्रोसिल का, जिसका वज़न बक़ौल बाबा साढ़े-तीन पाव था। मैंने अपनी नौजवानी के कुछ बेहद ऊर्जावान दिन उस औघड़ के साथ गुज़ारे और वह मेरे भीतर कहीं हमेशा के लिए बस गया। वे मुंहफट थे, जि़द्दी थे, अटपटे थे लेकिन जीवन और अपार प्रेम से भरे। मेरे साथ रहते हुए उन्होंने कविता की बातचीत कम की...ख़ुद की कविता की तो बिलकुल नहीं। वाचस्पति जी ने दो-तीन बार उनके सम्मान में जो काव्यगोष्ठियाँ आयोजित कीं, उनका आनन्द बाबा ने अपने हिसाब से लिया। इन गोष्ठियों में स्थानीय तुक्कड़ और हास्य के नाम हद दर्जे़ की फूहड़ता परोसने वाले लोग होते थे जिन्हें किसी हाल में कवि नहीं कहा जा सकता। कवि वहाँ दो होते थे- बल्लीसिंह चीमा और हरि मौर्य... एक बार मुरादाबाद से नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी आए, जिन्हें सुनना अच्छा लगा। बाबा मौज में होते थे और अपनी बेतरतीब खिचड़ी मूंछों में मुस्कान बिखरते। एक बार ऐसी ही गोष्ठी से कुछ पहले बाबा ने अपने झोले से सीताकान्त महापात्र की कविताओं का हिंदी संकलन निकाला और मुझे कहा जल्दी से पढ़ जाओ। यह 92या 93की बात है। मैंने उसे उलटाया-पलटाया और भगवान को धिक्कारती  एक कविता पर रुक गया...बाबा को वह पेज दिखाया....बोले - बिलकुल सही जगह पकड़े हो कविता को ...किताब अपने पास रखो और पेज नंबर भी याद रखो। गोष्ठी शुरू हुई और किसी फार्म हाउस की मालकिन एक महिला ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। कुछ और लोगों की वाणी गूंजी फिर अचानक बीच राह में बाबा कड़के - यह कविता है? कविता की ऐसी तैसी हो रही है! फिर बोले ये जो कोने में लड़का बैठा है न हरि जी का सुपुत्र यह आपको बताएगा कि कविता क्या होती है। मैं अचकचाया। सारे लोगों की कुपित दृष्टि मुझ पर मानो मैंने बाबा को भड़का दिया हो। एक-दो बार थूक गटक कर मैंने बाबा को देखा, उनका चेहरा ख़ुराफ़ात करने के बाद किसी शैतान बच्चे-सा खिला हुआ....वैसी ही मुस्कान। मैं समझ गया। मैंने काँपते हाथों से वह किताब खोली और उस कविता का पाठ करना शुरू किया। शुरूआती भर्राहट के बाद स्वर भी स्थिर हो गया। यह मेरे जीवन का पहला कवितापाठ था और आश्चर्यजनक रूप से कामयाब भी...पीछे बाबा की मुस्कान टूटे-अधटूटे गँदले दाँतों वाली....कहती हुई ....अजी घिन तो नहीं आती? अजी बुरा तो नहीं लगता?

मैंने कविताएँ लिखीं...95में कथ्यरूप से पहला संकलन एक पुस्तिका के रूप में आया...तब तक बाबा का काशीपुर-रामनगर आना छूट गया था। पता लगा कि बाबा के बड़े पुत्र को उनकी ऐसी यात्राएँ नहीं भातीं थीं। मैं दिल्ली गया पर अपनी पुस्तिका उन्हें नहीं दी। वे कभी ठीक से नहीं जान पाए कि शिरीष कविता लिखता है। मैंने अपनी पुस्तिका त्रिलोचन जी, कृषक जी, सलिल जी सहित कई कवियों को दी पर बाबा को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बाबा कहते थे नए कवि अपनी कविताएँ लेकर प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया और अन्यथा प्रोत्साहन की आकांक्षा में पुराने कवियों की तरफ भागते हैं जबकि कविताओं को जनता के बीच जाना चाहिए। जनता ही किसी को कवि बना सकती है,कोई पुराना कवि या आलोचक नहीं। मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई कि मैं बाबा को अपनी कविताएँ दिखाऊँ। मेरी यह कायरता दरअसल उस छोटे-से कमज़ोर शरीर के भीतर मौजूद हिंदी की महाकाय और महान कविता के प्रति मेरा प्रेम और आदर था और हमेशा रहेगा। मुझे ख़ुशी है कि बाबा ने मुझे एक राजनैतिक कार्यकर्ता और उत्साही नौजवान के रूप जाना और अपना प्यार दिया। वह बीहड़ व्यक्ति और कवि मेरी साहित्यिक ही नहीं, व्यक्तिगत और निजी स्मृतियों का भी वासी है, यह बात मुझे उपलब्धि की तरह लगती है और सुक़ून देती है। यह संस्मरणनुमा थोड़ा-सा लेखाजोखा भी उसी का एक छोटा-सा अंश है, बहुत कुछ बताना-कहना अभी शेष रह गया है, ठीक मेरी ऊटपटांग कविताओं की तरह!

पुरखों की ये कोहराम मचाती यादें इसी तरह धीरे-धीरे व्यक्त होंगी।  
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यात्री की कविता
यह क्षार-अम्‍ल,दाहक विगलनकारी

मैं अपनी शुरूआती पढ़त में जिन कविताओं को नागार्जुन की समझता रहा,बाद की पढ़त में वे यात्री की निकलीं। इस नाते मैंने तय किया है कि बाबा के इस चिरसंगी कवि की उन्‍हीं प्रिय कविताओं में से पांच को नाभिक बनाकर अपनी इस लिखत के दूसरे खंड को पूरा करूंगा।
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मिथिला बाबा का अपना अंचल है पर यात्री की ये कविताएं आंचलिक नहीं हैं। इनमें बोली-बानी की भाषिक सुन्‍दरता और शक्ति है,जो मैथिली से हिन्‍दी रूपान्‍तरण में कहीं नष्‍ट नहीं होती। बाबा कई भाषाओं के आधिकारिक विद्वान थे पर त्रिलोचन की तरह इस मामले में उन्‍होंने किन्‍हीं किंवदंतियों जन्‍म नहीं दिया – यही नहीं,जिन चंद भाषाओं से अधिक आत्‍मीयता अनुभव की उनमें कविता भी लिखी। मैथिली तो उनकी मां-बोली ही है। बाबा ने संस्‍कृत में पारम्‍परिक और आधुनिक कई कविताएं लिखी पर उनमें से अधिकांश उपलब्‍ध नहीं हैं,जो बच गईं वे रचनावली में संकलित हैं। बांग्‍ला से बाबा का गहरा लगाव रहा और अपनी इस प्रिय भाषा में उन्‍होंने महत्‍वपूर्ण कविताएं लिखीं। इन सभी कविताओं में मैथिली की कविताएं हिन्‍दी कविताओं में बहुत हद तक घुल-मिल गईं और अधिकांश आरम्भिक पाठक उनमें फ़र्क़ अनुभव नहीं कर पाते। बहरहाल मैं उस पहली कविता पर आता हूं,जिसने मुझे कविता के विज्ञान और तर्क संसार की समझ दी। यह भी सोचें कि यह समझ किसी विज्ञान स्‍नातक भारी-भरकम भारोपीय अज्ञेय कवि से नहीं,एक फक्‍कड़ यायावर और कई लोगों द्वारा बहुत समय तक लगभग अराजक गंवार समझे गए कवि की ओर से आयी -

क्षार अम्‍ल
विगलनकारी,दाहक
रेचक,उर्वरक...
रिक्‍शावाले की पीठ पर तार-तार बनियाइन
पसीने के अधिकांश गुण-धर्म को
कर रही है प्रमाणित
मेरा मन करता है
विज्ञान के किसी छात्र से जाकर पूछूं
अधिक-अधिक से क्‍या सब होता है
पसीने का गुण-धर्म ?
रिक्‍शावाले की पीठ की चमड़ी
और कितनी शुष्‍क-श्‍याम होगी ?
स्‍नायुतंत्र की ऊर्जा और कितनी पिघलेगी ?
इस नरवाहन की प्राणशक्ति और कितनी पकेगी ?
और कितना ....
क्षार-अम्‍ल,दाहक विगलनकारी
                      (पसेनाक गुण-धर्म/पसीने का गुण-धर्म,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

संयोग ही था कि जब बाबा से मेरी संगत बढ़ी मैं विज्ञान स्‍नातक का ही छात्र था और बाबा ने यह कविता सुनाकर मुझे बेदर्दी से घेरा। रसायन विज्ञान के अनुसार पसीना क्षार है लेकिन यह भी तय है कि जितना क्षार शरीर से निकलेगा,शरीर में अम्‍लीयता बढ़ेगी। तो इस तरह वाकई क्षार-अम्‍ल दोनों पसीने के गुर्ण-धर्म में शामिल हुए लेकिन कविता पसीने के बारे में नहीं है –वह इस बारे में है कि यह पसीना किसका है और क्‍यों है। इस पसीने के गुण-धर्म की असल परीक्षा रिक्‍शावाले की पीठ पर है। कवि चेहरे की बात नहीं करता,कविता में विवरण की बारीक़ी का यह आलम कि दरअसल यह पीठ ही है जो रिक्‍शा की सवारी को दिखती है,चेहरा नहीं। पीठ की चमड़ी का शुष्‍क-श्‍याम होते जाना वर्षों की मेहनत और संताप का सख्‍़त निशान है,जिसके गहराते जाने के बारे में कवि के सवाल का उत्‍तर मैं नहीं जानता,शायद कोई नहीं जानता और सबसे ख़ास बात यह कि सवाल ख़ुद कोई उत्‍तर नहीं चाहता – इसका यही आदर्श उत्‍तर हो सकता है कि हालात ऐसे हो जाएं कि यह सवाल ही न बने। उस नरवाहन के स्‍नायुतंत्र की लगातार पिघलती ऊर्जा और पकती प्राणशक्ति के बौखला देने वाले बिम्‍ब बनाता वह क्षार-अम्‍ल,दाहक विगलनकारी कब तक बहता रहेगा का प्रश्‍न बिना कोई नारा लगाए,न अधिक शोर मचाए साम्‍यवादी वैचारिकी में उतर जाता है। पसीने के गुण-धर्म की बात संसार में वर्गभेद और अन्‍याय के मूल प्रश्‍नों में बदल जाती है और यही कविता की वह कला है,जिसमें बाबा का जोड़ नहीं। दुनिया का महान लेखन किस तरह आपस में जुड़ता है ,यह मैंने बाद में निकोलाई ओस्‍त्रोवस्‍कीके विख्‍यात उपन्‍यास व्‍हेन दि स्‍टील वाज़ टेम्‍पर्ड पढ़ते हुए जाना,जहां इस कविता के दाहक विगलनकारी प्रसंग की याद भी लगातार मेरे साथ बनी रही।     
***

2

शिशु कंकाल
तरुण कंकाल
वृद्ध कंकाल
कंकाल वृद्धाओं के
कंकाल तरुणियों के
कंकाल नन्‍हीं बच्चियों के
साफ़ चमड़ीवाले कंकाल
काली चमड़ीवाले कंकाल
पांडुश्‍याम चमड़ीवाले कंकाल
घूमते-टहलते कंकाल
चलते-फिरते कंकाल
लेटे कंकाल
खड़े कंकाल
सोए कंकाल
जगे कंकाल
सूखे स्‍तन वाले कंकाल
छंटुआ गर्भ वाले कंकाल
मालगाड़ी वाली साइडिंग की ओर
लाइन के दोनों किनारे
अंजुरी-अंजुरी भर,मुट्ठी-मुट्ठी भर
दाना मिश्रित धूल उठाते कंकाल

सप्‍लाई विभाग के चपरासी की नज़र थाहते कंकाल
दो-दो  प्‍लेटफार्म आमने-सामने फंलागते
पांचेक कुलियों का
तनिक-सा मात्‍सर्य,रत्‍तीभर सहानुभूति
अनायास हासिल करते कंकाल
ज्‍येष्‍ठ की दुपहरी में जलते कंकाल
गया की तरफ़ का कोई ब्राडगेज स्‍टेशन
क्‍या रहा होगा नाम ?
अनुग्रह नारायण रोड !
या फिर गुरारू !या फिर तो क्‍या
लेकिन अभी तो शेष बच रहा है
वहां की स्‍मृति के खाते में
कंकाल ही कंकाल
कंकाल ही कंकाल   
                  (कंकाले-कंकाल/कंकाल ही कंकाल,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

हिन्‍दी में अल्‍पज्ञात यह एक महान कविता है यात्री की। कंकालों की हूक को चांपकर खड़ी हो जाने वाली शासन की बंदूक वाला दोहा हम हिन्‍दी वालों को याद है। अकाल और उसके बाद के दो सधे हुए चित्र प्रस्‍तुत करने वाली कविता तो ख़ासी प्रसिद्ध है। कंकालों की इस कविता में कोई उत्‍तरकाल नहीं है। कंकालों की स्‍मृति को अपने भीतर गुंजाते हुए दोहराने वाली इस कविता का बेसम्‍भाल शिल्‍प किसी उत्‍तरकाल की अपेक्षा भी नहीं रखता। मैं उत्‍सुक हूं यह जानने के लिए क्‍या दुनिया की किसी भाषा में इस तरह की कोई कविता उपलब्‍ध है?शायद इथोपिया-सोमालिया जैसे अफ्रीकी देशों में किसी जनकवि ने कुछ लिखा हो। वामिक जौनपुरी ने बंगाल के अकाल पर नज्‍़म लिखी थी पर वह छंद में और हावी होते नारे में व्‍यर्थ-सी हो गई। ये कंकाल तो किसी और ही अकाल के बनाए कंकाल हैं। यह भूगोल गया के पास का छोटा-सा भूभाग भर है और वहां मनुष्‍यों की इस दुर्दशा को देखकर लगता है कि बाक़ी देश-समाज शायद मर चुका है। जाहिर है कि इन कंकालों का समकाल सर्वव्‍यापी कंकालों का समय नहीं है – यह तो इनका अपना कंकाल-समय है। इस कंकाल-समय को किसने बनाया यह प्रश्‍न कविता में न पूछा जाकर भी इस कविता सबसे बड़ा प्रश्‍न है,जो इन कंकालों की हूक को साध कर बार-बार हमारे आगे खड़ा हो जाता है। कुलियों में तनिक-सा मात्‍सर्य और रत्‍तीभर सहानुभूति वर्गबोध की थोड़ी-सी आंच का पता देती है लेकिन वह पर्याप्‍त नहीं। देश में बड़े-बड़े किसान-आंदोलन वर्गबोध की पूरी आंच न मिल पाने के कारण स्‍खलित हो गए,यह तो रत्‍तीभर का मामला है। यात्री ने अपनी इस छोटी-सी (कविता)यात्रा में इस बड़ी सच्‍चाई से पर्दा उठाया है,जिसे अब तक दूसरे तो छोड़ दीजिए,हमारे साम्‍यवादी दल  तक ठीक से पकड़ नहीं पाए। इस कंकाल-समय की जिम्‍मेदारी वर्गशत्रुओं तक सीमित नहीं,वर्गमित्र भी इसके दायरे में आते हैं। नागार्जुन ने अपने जीवन काल में कविता से इतर कई बार इन प्रश्‍नों को उठाया लेकिन अब वे निरुत्‍तरित ही संसार से जा चुके हैं।
***

3

तीसरी कविता भी हिन्‍दी के लिए अल्‍पज्ञात है लेकिन 2013 वर्ष इस के समापन काल में इस‍की प्रासंगिकता अनुभव करने की बात है और इसका महत्‍व तो हमारे देश की राजनीतिक आपाधापी में हमेशा प्रमाणित रहेगा। नाम है – देशदशाष्‍टक। हाल ही में गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति-स्‍थापना को लेकर राजनीति में एक नई कुकुरहाव शुरू हुई है। यह कविता उस समय का दस्‍तावेज़ है,जब नेहरू और पटेल दोनों जीवित थे। आज का मसला रा.एस.एस. और मोदी द्वारा पटेल को हाईजैक करने का है।आधुनिक इतिहास भारत के इतिहास से परिचित जन जानते हैं कि नेहरू समाजवादी विचार के हामी थे और पटेल उसके विरुद्ध। नेहरू मंत्रीमंडल में पटेल को चुनौती देने की स्थिति में नेहरू अकसर नहीं रहते थे। इसका यह अर्थ नहीं कि पटेल आर.एस.एस. के निकट थे। स्थिति इससे उलट ही थी,वे गांधी जी की हत्‍या के बाद आर.एस.एस. की राजनीति पर पूरी सख्‍़ती के साथ अंकुश लगाकर उसे सांस्‍कृतिक संगठन की भूमिका तक सीमित कर चुके थे। यह एक निकट का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य है,जिसके तथ्‍य प्रमाणित हैं और दस्‍तावेज़ों में सुरक्षित भी हैं। यात्री की इस कविता पहला खंड उस समय में इन दोनों राजनेताओं की स्थिति पर रोशनी डालता है –

फैल गए हैं नेताओं के सूंड़
बूढ़े जर्जर हो गए जवाहर
प्रभु पटेल हैं सर्वशक्तिसम्‍पन्‍न
तब भी कितना रुला रहे चीनी की ख़ातिर
                                      (पत्रहीन नग्‍न गाछ)
  
जवाहर आयु में पटेल से कुछ पांच-छह बरस छोटे थे फिर यह उलट स्थिति क्‍यों....जाहिर है कि बात शरीर की नहीं राजनैतिक क़द और शक्ति की हो रही है। नेहरू का समाजवाद क्षीण हुआ और पटेल की वह राष्‍ट्रवादी भावना बलवती हुई,जिसके परम कट्टर रूप की स्‍थापना आर.एस.एस. में है। यह कविता दरअसल बढ़ती मंहगाई और उसकी मार से पस्‍त जनता के बारे में है। गृहमंत्री पटेल के नियंत्रण में कितना कुछ था,इस बारे में कविता का बयान साफ़ है। यात्री ने उस वक्‍़त में कारपोरेट-राजनीति-नौकरशाही के कुटिल गठजोड़ को भी बख़ूबी पहचाना था –

बनिए-लीडर-अफ़सर तीन त्रिमूर्ति
कर रहे अपनी मनोरथ पूर्ति
अपने हित में सब करते हैं औरों के लिए झांसा
रोते फटे कलेजा जैसे देने हेतु दिलासा
                            (पत्रहीन नग्‍न गाछ)

मैथिली का सधा हुआ छंद यहां हिन्‍दी रूपान्‍तर में गड़बड़ा गया है पर हमें ध्‍यान देना है कही गई बात पर,यों भी यह कविता काव्‍यकला की सिद्धि के निमित्‍त नहीं लिखी गई है। बहुत बड़े कारपोरेट घराने तब दो ही थे – टाटा और बिड़ला,ये दोनों ही हमेशा नागार्जुन की कविता की ज़द में रहे। स्‍यवं नेहरू को उनके साथ गठजोड़ में भागीदार पाया गया शायद इसीलिए उनका समाजवादी स्‍वप्‍न उनकी मृत्‍यु से बहुत पहले ही बिला गया।  
***

4

पुराने गाछ का  एकमात्र यह पूरा कटहल
फला सहज ही प्रकृति के प्रताप से
जुआया सहज ही प्रकृति के प्रताप से
पका सहज ही प्रकृति के प्रताप से
गिरा उसी तरह
उसी तरह उपलब्‍ध हुआ हम लोगों को
                             (पाकल आछि ई कटहर/पका है यह कटहल,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

यह कविता हिन्‍दी में बहुज्ञात है। कटहल जैसे खुरदुरे फल पर कविता लिखना उतना ही खुरदुरा काम हो सकता था पर यात्री ने इसे भरपूर महक और लहक के साथ लिखा। प्रकृति के प्रताप का बहुल्‍लेख देखकर कोई अनाड़ी सहयात्री हमारे पुरनिया यात्री को कोरा प्रकृतिवादी न समझ बैठे इसलिए मैंने सबसे पहले यही अंश उद्धृत किया है। सहज पर कबीर ने बल दिया और बाद में एक ही पीढ़ी के त्रिलोचन और नागार्जुन ने....नागार्जुन ने किसी के लिए असहज लगते को भी अकसर सहज ही बना दिया है। कटहल को शहराती जन सब्‍ज़ी के रूप में खाते हैं लेकिन ग्रामीण जन पके कटहल का फलरूपी स्‍वाद भी ख़ूब जानते हैं। बाटनिक्‍ली भी कटहल फल ही है। पके कटहल की सुगंध लोकजीवन और लोकउपलब्धियों की सुगंध है। उसके सहज गिरने और सहज ही लोगों को उपलब्‍ध होने में कवि की सहज-समाधि भी भरपूर समझ आती है। कविता आगे रोचक होती जाती है - 

महाकाली का यह अपूर्व प्रसाद
शताब्‍दी के बाद ही मिलता है लोगों को
आओ,आओ,अजी ओ फलां
शुचिभाव से ग्रहण करो प्रसाद
कान को होने दो पवित्र
प्रसाद-ग्रहण करते ही सुनने में आएगा
एक अद्भुत,एक अश्रुतपूर्व मंत्र...
अकाली...
काली...
कंकाली...
महाकाली...
विकाली...
सकाली...
ला रे अभागे
बढ़ा अपनी गरदन
पड़ने दे उस पर
मेरी कता,मेरी भुजाली
इधर देख,इधर देख,करम-हीन
कहां देखा होगा यह रूप मुंडमाली
क्‍लीं क्‍लीं क्‍लूं क्‍लूं
ऐं ह्वीं हूं आं हों
खच् खच् खच् खचाक् 
                      (वही)

प्रसंग कटहल के बंटवारे का है और लगता है कि यहां यात्री का खिलंदड़ा मौजी स्‍वभाव उभर कर आ रहा है। यह खेल तो है पर बेहद गम्‍भीर अभिप्रायों वाला खेल। यह पुराने गाछ का एकमात्र पूरा कटहल है जो लोगों की क्षुधापूर्ति के निमित्‍त सहज ही गिरा और उपलब्‍ध हुआ है। यह घटना जैसी नहीं लगने वाली एक बड़ी घटना है। जिस देशकाल में यह घटी है,उसने इसे बड़ा बनाया है। असहज स्थितियों में पूर्ण सहजता सिद्ध कर लेने वाले यात्री ने इस देशकाल को कविता के उत्‍तरार्द्ध में प्रकट किया है-

अजी ओ फलां,डर कर भाग नहीं जाना आप
आजकल वह मंत्र काम कहां करता है
उलट गया है अर्थ
आओ,आओ,लो माता का प्रसाद
अकाल का प्रसाद
दुर्भिक्ष का प्रसाद
इसी तरह किया था प्राप्‍त
दादा के दादा के दादा,नाना के नाना के नाना ने
....
अमरीका का दलिया,कनाडा का दुद्धी पाउडर
न जाने,कहां-कहां का स्‍वाद
समेटे है अपने भीतर
                            (वही)

यहां तक आते-आते यात्री आपको कटहल के गाछ के नीचे से लाकर अंतर्राष्‍ट्रीय कुचक्रों के बीच कहीं खड़ा कर देते हैं,जहां पी‍ढ़ियों से अकाल और दुर्भिक्ष के दिन हैं। यात्री की कविता-कला,एक पूर्णबिद्ध राजनैतिक कला है,इसे इसकी सहजता के साथ पाना किसी भी कवि के लिए एक दुर्लभ सिद्धि होगी।     
*** 

5

मैंने चार कविताएं लीं जिनका स्‍वर राजनैतिक है। पांचवी और अंतिम कविता अलग है। यह हिन्‍दी में ख़ूब पढ़ी और सराही गई है। लम्‍बी कविता है इसलिए कुछ अंश देते हुए उन पर बात करनी होगी,पूरी कविता देना सम्‍भव नहीं। प्रसंग यात्री के अपने गांव तरौनी का है -

कच्‍ची सड़क पर  
देखा पास-पास छोटे-छोटे मंदिरों का एक जोड़ा
पूछा एक घसियारिन से
अरी ओ किसने बनवाया है
बीच परती-पांतर में यह जोड़ा मंदिर
                               (जोड़ा मंदिर,पत्रहीन नग्‍न गाछ)

यह गांव के राउत (पिछड़ी जाति) के बूढ़ा-बूढ़ी (भोकर राउत-मुंगिया माई) का मंदिर है,जिसे उनके बेटे सरजुगी राउत ने बनवाया है। इस मंदिर जोड़े के होने में कुछ ख़ास अभिप्राय हैं। एक तो साधारण (उस पर पिछड़े) मनुष्‍यों की स्‍मृति में मंदिर एक अनहोना स्‍थापत्‍य है,जो वर्ण से लेकर ईश्‍वर तक के कई परम्‍परागत स्‍थापत्‍यों को चुनौती देता है।

पहले देखें कि यह जोड़ा मंदिर बना किन संसाधनों से –

पतली मूंछोंवाला सांवला ग्रामीण युवक
सरजुग राउत
बोला निरभिमान स्‍वर में –
अपने ही हाथों बूढ़े ने पिछले वर्ष
लगाया था पांच कट्ठे में गन्‍ना
इसी में से पांच-एक सौ
लगा दिए उनके नाम पर
माह भर के भीतर ही दोनों जनों ने मूंद ली आंखें
                                  (वही)

हमारे आसपास जिस तरह धार्मिक मंदिर बनते हैं,सब जानते हैं कि उनके लिए कितना चंदा,कितने धत्कर्म होते हैं। यह उस श्रमसरूप बूढ़े का ही अर्जन था,जिसे उसके बेटे ने इस तरह की विरासत में बदल लिया कि वह मंदिर रूप में साकार हो पाया। पाठक मंदिर शब्‍द के भ्रम में आ जाएं,इसकी कोई गुंजाइश यह कविता नहीं छोड़ती – यह लोकजगत के अपने विरल स्‍वर में श्रम की स्‍थापना है और प्रेम की - 

हमारे बूढ़े-बूढ़ी में रहा करता था हद से ज्‍़यादा मेल
वैसा नहीं देखा होगा किसी ने कहीं
सो हम और आप भी गवाह
सभी को है पता अच्‍छी तरह से
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी हुआ झगड़ा-तकरार
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी रहा मनमुटाव
कहावत भी है कि एक प्राण,दो देह
बिलकुल उसी का नमूना रहे हमारे बूढ़े-बूढ़ी
इसी कारण सूझी यह बात
बना दिया जोड़ा मंदिर 
                        (वही)

इस जोड़ा मंदिर के बनने में किसी भी पौराणिक-मिथकीय श्रद्धा का न हेतु है,  न प्रयोजन। एक दीर्घ दाम्‍पत्‍य दो जनों ने हाड़तोड़ मेहनत में खटते हुए जिया और क़दर जिया कि बेटे की स्‍मृति में यह प्रेम और श्रम,दोनों ही सदियों के जमे संस्‍कारों की परतें साफ़ करते हुए सर्वोच्‍च स्‍थान पर जा बैठे। इस मंदिर जोड़े को देख यही कुछ यात्री के मन में भी हुआ।

बाबा ने हमेशा लोक के उपकरणों को कविता में लिया लेकिन उन्‍हें अपनी धार देते हुए जनसंघर्षों की अभिव्‍यक्ति के औज़ारों में बदल दिया। काश हमारे आज के कुछ सायास लोकवादीबने कवि इसका कुछ अंश भी कर दिखाते तो वंश नहीं बूड़ता....हालांकि नागार्जुन विरासत उनके पास नहीं,कविता में गद्य लिखने को आरोप की तरह सहने वाले दूसरे युवा राजनैतिक कवियों के पास अधिक है – जहां उसे पूरा सम्‍मान मिलता है। 

अंत में अपनी भी कहूं तो श्रम और प्रेम की यह सम्मिलित महत्‍ता ही मेरे लिए मेरी राजनैतिक विचारधारा है। मैं बिना हिचक के कहूंगा कि विचार मैंने पहले साहित्‍य से सीखा और फिर सैद्धान्तिक किताबों में उसे पढ़ा। ऐसे ही पूर्वजों की किताबों से गुज़रते हुए मैं अपनी राजनैतिक और साहित्यिक समझ के बारे में कम से कम इतना तो कह ही सकता हूं कि वह ग़लत किताबों की संतान नहीं है।    
*** 

यह नोट तो तुम्हें वोट के बदले मिला है - पंकज चतुर्वेदी की नई कविताएं

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प्रतिरोध और बहस की सुन्दरता पंकज चतुर्वेदी के सौम्य और सादे लहजे में जिस तरह निखरती है, उसे जानना, समकालीन कविता में कला के संघर्ष को जानना है। आज की कविता पर विचार करते हुए प्रगतिशीलता जैसे चलन से बाहर हो चुके शब्द को पंकज एक नया मूल्य और एक नई रोशनी प्रदान करते हैं। समकालीन संकटों और उनसे हमारे बेेबस समझौतों के बीच पंकज की ये नई कविताएं हम हासिल कर पाए हैं और इनके लिए कवि के आभारी हैं। इस पढ़त के लिए पाठकों से जो मेरा अनुरोध है, उसके लिए मैं एक अटूट याद और यक़ीन की तरह वीरेन डंगवाल के ये शब्द इस्तेमाल कर रहा हूं - 



ज़रा सम्भल कर
धीरज से पढ़
बार-बार पढ़
ठहर- ठहर कर
आँख मूंद कर आँख खोल कर.


***

इमरजेंसी

इमरजेंसी भी लौटकर
आती है इतिहास में
कहती हुई :
मैं वह नहीं हूँ
जिसने तुम पर
अत्याचार किये थे

इस बार
मैं तुमसे
करने आयी हूँ
प्यार
***
 
पूर्ण बहुमत 

जब पूर्ण बहुमत
दिया जाता है
तब सरकार
पूर्णता से
काम करती है :
पूर्ण उपेक्षा
पूर्ण अत्याचार

दोस्तो,
पूरे मन से
इसे करें
स्वीकार !
***
 
यह नोट
 
पहले कभी-कभी
कोई ऐसा नोट
मुझे मिल जाता था
जिसे परखकर
दुकानदार कहते थे
कि 'नक़ली है'

अब वे कहते हैं
कि नक़ली तो नहीं है
पर चलेगा नहीं
क्योंकि यह नोट तो
तुम्हें वोट के
बदले मिला है
***
 
तुम्हारी मेहरबानी
 
कॉर्पोरेट घरानों का
अरबों रुपये क़र्ज़
माफ़ करने से
जो बैंक औंधे मुँह गिरे
उन्हें नग़दी के
भारी संकट से
उबारने के लिए
तुमने दो सामान्य नोट
अचानक चलन से बाहर किये
और समूचे अवाम को
मुसीबत में डाल दिया

यों छोटे कारोबारियों, बिचौलियों
और जालसाज़ों से
जो हासिल होगा
काले धन का
कुछ हिस्सा
वह उस घाटे की
भरपाई के लिए
जो कॉर्पोरेट घरानों पर
तुम्हारी मेहरबानी का
नतीजा है

और जब कोई पूछता है :
यह अराजकता, तकलीफ़
और अपमान
हम किसके लिए सहते हैं
तो तुम कहते हो :
देश के लिए

जबकि सच यह है
कि पूँजीपतियों का सुख
और जनता का दुख
जिस कारख़ाने में
तुम बनाते हो
उसका नाम तुमने
देशभक्ति रखा है !
***
 
उन्हें यह कल्पना नहीं थी

लोग यह जानते थे
कि बीते पच्चीस बरसों में
तीन लाख किसानों की तरह
ऋणग्रस्त होने पर
आत्महत्या करने से
बचाने उन्हें
कोई नहीं आयेगा

भारत विभाजन से लेकर
गुजरात दंगों तक के उदाहरण से
लोग यह जानते थे
कि साम्प्रदायिकता के चलते
उन्हें कभी भी मारा जा सकता है

कश्मीर को लेकर
अगर युद्ध हुआ
तो लोग यह जानते थे
कि पड़ोसी देश की
आकस्मिक बमबारी में
उनकी जान जा सकती है

इसी तरह बाढ़, भूकंप, अकाल
बीमारी, दुर्घटना सरीखे
मृत्यु के हज़ार हाथ हैं
लोग यह जानते थे

मगर उन्हें यह कल्पना नहीं थी
कि अपनी ही चुनी सरकार के
व्यवहार से
बैंकों में अपने ही जमा
पैसों को पाने की कोशिश में
असमाप्य-सी क़तार में खड़े-खड़े
असंभव इंतिज़ार में
एक दिन उन्हें मरना पड़ेगा
***
 
शासक की रुलाई

अगर शासक रोने लगे
तो जनता सोच में
पड़ जाती है
कि आख़िर 
गुनहगार कौन है ! 
***
 
कसौटी

किसी राज्य की
नृशंसता जाँचनी हो
तो देखो :
उसकी पुलिस
कितनी कायर है
***
 
'सत्यमेव जयते'मार्ग
 
शुरू में उसने
ख़ुशी ज़ाहिर की :
अब भारत धार्मिक राज्य
बनने की ओर बढ़ चला

मगर मैंने कहा :
संविधान में तो
'पंथनिरपेक्ष'लिखा है

उसने जवाब दिया :
उसका मतलब
'धर्मनिरपेक्ष'नहीं
और अगर है भी
तो यह तो
तभी तक लिखा है
जब तक हम उसे
लिखा रहने दें

फिर मैंने बात बदली :
संविधान में भारत को
'समाजवादी'लिखा है

वह बोला : यह एक
विदेशी विचारधारा है
देश का विकास
पूँजी के बग़ैर
नहीं हो सकता
जो महाजनों के
पास है

लोकतंत्र का सबक़ है :
'महाजन जिस राह जायें
वही पन्थ है'

फिर उसने सहसा
नाराज़ होकर कहा :
लिखा तो जगह-जगह
'सत्यमेव जयते'भी है
पर सत्य की जीत
हो कहाँ पायी ?

हम इसी अभियान में लगे हैं
और अगर जज
और पत्रकार मदद करें
तो यह लक्ष्य हम पा लेंगे
***
 
इतिहास में कभी-कभी

इतिहास में कभी-कभी
विपक्ष भी सत्ता में होता है
ज़्यादा सही यह कहना होगा
कि उसकी उप-सत्ता रहती है

उप यानी जो पास में हो
और हूबहू प्रधान न हो
बल्कि उसके जैसा हो

जैसे अध्यक्ष के पास जो रहे
वह उपाध्यक्ष होता है
वैसे ही विपक्ष होता है
***
 
बधाई हो 

कारण वही हैं

मगर कश्मीर में
पहले कभी इतनी
दहशत नहीं थी

न इज़रायल की
दमन-शैली में
लोग अंधे
किये गये थे
न उनके हाथ में
थे पत्थर

और न ही
देश की सीमा पर था
ख़ून-ख़राबे का
यह मंज़र

अब यही
सामान्य जीवन है :
युद्ध न हो तो भी
युद्ध के हालात में
उसकी मानसिकता में
रहना है

राजसत्ता ने
साबित किया है :
पुराने कारणों से
नये कार्य
पैदा किये
जा सकते हैं

नये महाराज को
बधाई हो !
***
 
रौशनी उतनी ही 

जन-शक्ति निर्भर
नहीं किसी पर

वह बिजली की
तीक्ष्ण रेखा-सी
तड़पती है
दुर्दिन के घुमड़ते
घन घमंड में

रौशनी उतनी ही है
जितनी जनता ने
संभव की है

राजसत्ता ने जो
पैदा किया है अँधेरा
उसके बावजूद !
***

नरेश सक्सेना की कविता : कत्लगाहों की तरफ़ फुसलाते शब्द -आशीष मिश्र

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ठंड से नहीं मरते शब्द 
वे मर जाते हैं साहस की कमी से 

केदारनाथ सिंह के इन शब्दों को आलोचना के सन्दर्भ में देखना रोचक है। आशीष मिश्र ने युवा आलोचना में एक हद तक यह साहस संभव किया है कि शब्द बचे रहें। इस वर्ष अनुनाद सम्मान के ज्यूरी मेंबर सुबोध शुक्ल ने उनके नाम की अनुशंसा की और सर्वसम्मति से उनकी पुस्तक के प्रकाशन को अनुनाद सम्मान के लिए चुना गया। आशीष के इस साहस से कोई बचा नहीं है, बतौर कवि मैं भी नहीं, आशीष की आलोचना का यही पक्ष मुझे उनकी लिखत की ओर आकर्षित करता है। वे अपना मत निर्भीक हो व्यक्त करते हैं, उनके निष्कर्षों पर बहस हो सकती है। वे दरअसल बहस का आमंत्रण देते हैं। यहां पल-प्रतिपल के आलोचना अंक में छपे उनके लेख का पुन:प्रकाशन किया जा रहा है। कहना न होगा कि इस पर बहस अपेक्षित है।
**** 
 कत्लगाहों की तरफ़ फुसलाते शब्द

क़ाबा एक ऐतिहासिक पत्थर है। बल्कि एक पत्थर मात्र है। इसकी ऐतिहासिकता कोई नितांत भिन्नकारी वैशिष्ट्य नहीं है। तमाम पत्थर,तमाम चट्टानें हैं,जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। यह विशिष्ट इस अर्थ में है कि विश्व-विस्तृत समुदाय की आस्था का केन्द्र है। दुनिया भर में बसे हुए एक समुदाय को इस केन्द्र से अर्थ मिलता है। और क़ाबा को इस विश्व-विस्तृत समुदाय से पहचान। इस केन्द्र के न होने से इस समुदाय का वही अर्थ न रह जाएगा। यह पूरी संरचना इसी तरह के सत्ता-केन्द्रों का संजाल है। भाषा इन्हीं सत्ता-केन्द्रों की एक संकेत-व्यवस्था है। प्रत्येक आस्थावन मुस्लिम इस पत्थर की तरफ़ मुँह करके दिन में पाँच बार प्रार्थना करता है। इसके हर सज़्दे के साथ यह पत्थर और भी ज़्यादा ताक़तवर होता जाता है। सज़्दा करता प्रत्येक मुसलमान दिग्सूचक है। यह बताता है कि काबा किस दिशा में है। यह संकेत है कि क़ाबा है। काबा और सज़्दा करता हुआ व्यक्ति एक-दूसरे को पहचान और अर्थ देते हैं। इसी तरह शब्द हर समय सत्ताओं के सज़्दे में झुके होते हैं। सत्ताएँ शब्दों को अर्थ देती हैं और शब्द उन्हें पहचान और स्थाईत्व। ये एक-दूसरे को छिपाते हैं,एक-दूसरे का सार्वभौमीकरण करते हुए सामान्य बोध का हिस्सा बनाते हैं। अर्थ और सत्ता का यह समंजन बच्चों को सुनायी जाती लोरी से लेकर हुंकार तक,समाचार से लेकर संगीत फैला होता है। हमारे स्वप्न,हमारी चाहतें,उदासी,आनंद इसी से समंजित हैं। हमारी चेतना इसी सत्ता और भाषा की संबद्धता का प्रभावोत्पाद है। हमारा रोज-ब-रोज का सामान्य भाषिक व्यवहार इसी दायरे में,इसी के दम पर,इसी को मज़बूत करता हुआ संभव होता है। हमारे द्वारा दुहराया गया हर वाक्य इस उपलब्ध संरचना को मज़बूत करता है। उपलब्ध वाक्य को दुहराना अतीत को दुहराना है। इस तरह हम हर दुहराव के साथ अपनी आत्मविरोधी दुनिया रचते जाते हैं। और हर दुहराव के साथ इसे और मज़बूत करते हैं। किसी भी भाषिक सृजन का काम गहराई में इस दुष्चक्र को तोड़ना है। शब्दों में कुछ पुरानी अर्थ-छवियों को पुनर्जीवित करना या नई अर्थ-छवियां पैदा करना है। पुरानी लय को तोड़ना और नई लय पैदा करना है। शब्दों को इस तरह का संदर्भ उपलब्ध करवाना जिससे उनके भीतर छिपा इतिहास दिखने लगे और अर्थ-छवियों के गमन से उनके भीतर बनी राह खुल जाए। आपको यहाँ तक पहुँचने में समय ज़रूर लगा परन्तु इस बिन्दु से ही सार्थकता,सम्प्रेषण और लोकप्रियता जैसे तमाम मुद्दे जुड़ते हैं। 

भाषिक व्यवहार वर्तमान सत्ता संरचना,उसकी लय,उसकी विचारधारा के अनुकूल है तो सम्प्रेषण और लोकप्रियता सहज संभाव्य है। परन्तु इस रास्ते सृजन और सार्थकता संभव नहीं है। अतः कविता का संभव होना सार्थकता और सम्प्रेषण के तनाव पर ही निर्भर है। एक कवि दुनिया में संवेदना के गमन के लिए नई जमीन तोड़ता है। उसे नया लय,नया भावावेग देना और साथ ही सृजन को संप्रेषणीय भी बनाना होता है। इसके लिए मौजूद भाषिक संरचना का एक हद तक उपयोग भी करना होता है। वरना बात ही संप्रेषित न होगी। अगर वह मौजूद भाषिक संरचना में ही क़ैद रह जाता है तो कविता संभव न होगी। किसी कवि की जमीन,उसकी दिशा की पड़ताल करने के लिए यहाँ तक आना ही होता है। अगर आप यहाँ नरेश सक्सेना की कविताएं लाएँ तो उनकी ताक़त और उनका अधूरापन दोनों साफ़ हो जाएगा।

नरेश सक्सेना की कविताएं श्रुतिसुखद और सहज संप्रेषणीय कविताएं हैं। जो तार्किक क्रम में आगे बढ़ती हुई एक लय और ठोस मुद्रा का रूप ले लेती हैं। इस तार्किक रचाव के नाते कविताएं गठे हुए वाक्य-विन्यास के साथ बहुत सधी हुई लगती हैं। इनमें सब कुछ बंधा-बँधाया और पूर्व निश्चित लगता है। नरेश सक्सेना के लिए कविता सत्य को पाने की भाषा नहीं बल्कि पाये और जाने हुए की अभिव्यक्ति का माध्यम है। इन कविताओं में तकनीक इतनी भारी है कि भाव-आवेग उसे लाँघ नहीं पाता। या भाव-आवेग इतना मद्ध्म और अनुकूलित है कि वह कवि-कौशल के लिए चुनौती नहीं बन पाता। मुझे इस संदर्भ में दूसरी बात ज़्यादा सटीक लगती है। उनकी एक लोकप्रिय कविता है- कंक्रीट। गिट्टी में रेत,रेत में सीमेंट,सीमेंट में पानी के लिए जगह होती है। इसलिए रिश्तों में जगह होनी चाहिए। यह कविता बहुत गणितीय ढंग से आगे बढ़ती है। जैसे कोई प्रमेय सिद्ध किया जाए। विशिष्ट से सामान्य निष्कर्ष तक निगमनात्मक तर्क-पद्धति का व्यवहार है। “रिश्तों में जगह होनी चाहिए”- इति सिद्ध्म। अपनी इसी ठोस संरचना और बहुपरिचित कथ्य के कारण ही कविता आसानी से संप्रेषित होती है। यह नरेश सक्सेना की रचना प्रक्रिया की सामान्य विशेषता है। और उनकी मंचीय सफलता का कारण भी यही है। लेकिन दूसरी तरफ़ से यह सीमा भी रच देती है। और कविता बहुवर्णी दुनिया से सहज भावात्मक संबंध और नैतिक व सौंदर्यात्मक उपलब्धि के बदले ठस्स वास्तु रचते हुए आसान लोकप्रिय मुहावरे में चुक जाती है। दाँतों के कीड़े,ईंटें,लोहे की रेलिंग,पत्थर,पानी,सीढ़ी और तमाम कविताएं इसी तरह की कविताएं हैं। कविता तर्क-पद्धतियों और शास्त्रों से बहिष्कृत दुनिया की पुनर्स्थापना है। नितांत तार्किक प्रक्रिया में विविधवर्णी दुनिया और इसकी बहु आयामिता को नहीं समझा जा सकता। इस बात को गहराई से,दार्शनिक स्तर पर समझने के लिए फ्रेंकफुर्त स्कूल और क्रिटिकल थ्योरी को समझना चाहिए। इस समय जबकि हमारे समाज पर फ़ासिज़्म की पकड़ बढ़ती जा रही है तो अपने समयों में उसके महीन रेसों को पकड़ रहे दार्शनिकों को पढ़ना चाहिए। उद्धृत कविता इतनी तेजी से संप्रेषित होती है तो इसके पीछे कारण यह तर्क पद्धति ही है। तर्क पद्धति सामान्य बोध का हिस्सा होती है। बात सिर्फ एक पंक्ति की है और पूरी कविता उसकी पैराफ्रेजिंगहै। हिन्दी कविता में अधिकांश लोग बहुत शाहख़र्च हैं। जिनकी जेब से एक दमड़ी नहीं निकलती वे शब्दों को पत्तों की तरह उड़ाते हैं।         

“आपस में सट कर फूटी कलियाँ
एक दूसरे के खिलने के लिए जगह छोड़ देती हैं

जगह छोड़ देती हैं गिट्टियाँ
आपस में चाहे जितना सटें
अपने बीच अपने बराबर जगह
खाली छोड़ देती हैं
जिसमें भरी जाती है रेत

और रेत के कण भी
एक दूसरे को चाहे जितना भींचें
जितनी जगह खुद घेरते हैं
उतनी जगह अपने बीच खाली छोड़ देते हैं।
इसमें भरी जाती है सीमेंट

सीमेंट
कितनी महीन
और आपस में सटी हुई
लेकिन उसमें भी होती हैं खाली जगहें
जिसमें समाता है पानी
और पानी में, खैर छोड़िए

इस तरह कथा काँक्रीट की बताती है
रिश्तों की ताकत में
अपने बीच
खाली जगह छोड़ने की अहिमयत के बारे में।“

रिश्तों में थोड़ी व्यक्तिगत जगह भी होनी चाहिए। दूसरे के व्यक्तित्त्व को फलने-फूलने भर हवा-पानी और आसमान होना चाहिए। इसमें कोई नयापन नहीं है,यह सामान्य बोध का हिस्सा बन चुका है। छठे दशक से यह बोध हा हिस्सा बनने लगता है। पिछले साठ वर्षों में न जाने कितनी कहानियाँ,नाटक और कविताएं लिखी गयी हैं हिन्दी में। बल्कि मीडिया ने तो इतना जगह पैदा कर दिया है कि आवाज़ भी पहुँचना मुश्किल है या फिर उसकी ज़रूरत नहीं रही। दूसरे जिन माध्यमों से इस निष्कर्ष तक कविता में पहुँचा जा रहा है उससे प्रेम का पदार्थीकरण हुआ है। गिट्टी,रेत और पानी हमारे भावात्मक दुनिया का हिस्सा बनने के बजाए भौतिक तथ्य ही रह जाते हैं और उलटे प्रेम का भी पदार्थीकरण होने लगता है।      

नरेश सक्सेना अनुकूलित भाव-दृष्टि के कवि हैं। नवगीत की आत्मबद्धता के दायरे को वे कभी तोड़ नहीं पाए। सर्जनात्मक उन्मेष उन्हीं कवियों में दिखता है जो इस दायरे को तोड़ने में सफल रहे। जैसे केदारनाथ सिंह। यहाँ उद्देश्य तुलना करना नहीं है। लेकिन दोनों कवियों को साथ देखते हुए कुछ नयी बातों तक पहुँच सकेंगे। केदारनाथ सिंह आरंभिक दौर से ही अपने सघन अनुभवों से कविता रचने का प्रयास करते हैं। अनुभवों को समझने और रचने के प्रयास में ही केदारनाथ सिंह नई दिशाओं की तरफ़ बढ़ते हुए दिखते हैं। उनमें एक विकास है,जिसकी एक रेखा खीची जा सकती है। नरेश सक्सेना की कविता में कोई विकास नहीं है- न आंतरिक भाव-सम्बन्धों के संयोजन में और न ही भाषा में। वे पहले दिन से ही बहुत कुशल हैं! उनकी रचनात्मकता एक वृत्तीय गति का आभास कराती है। इसका कारण यह है कि वे अनुभव के बजाय रचना में कारीगरी के विश्वासी रहे हैं। जिस कवि में कोई विकास न दिखे उसके बारे में यह समझना चाहिए कि वह पूर्वाग्रह,अवधारणा,और कारीगरी से कविताएं गढ़ रहा है। इतनी अटल और अपरिवर्तनशील सिर्फ़ अवधारणाएँ और कारीगरी ही हो सकती हैं। इससे यह समझना चाहिए कि कवि जीवन की गतिशीलता से छिटका हुआ अपने आत्मबद्ध दायरे में क़ैद हो चुका है। नरेश सक्सेना का अनुभव-संसार बहुत सीमित है। वे हिन्दी के एक मात्र कवि हैं जिनकी कविता में कोई परेशान मनुष्य नहीं दिखता,कोई संघर्ष करता हुआ इंसान मौजूद नहीं है। कहीं कोई अपराधबोध नहीं है,न किसी तरह का तनाव! नरेश सक्सेना का कविही इस मटमैले कशमकश से भरी दुनिया का नहीं लगता। हम जिस तरह की दुनिया में रह रहे हैं,वहाँ हर दिन तमाम समझौते करने होते हैं। हम तमाम तरह के दबावों और अपराधबोध के बीच जिंदगी जीते हैं। एक कवि जो इन्हीं सब के बीच रह रहा है परन्तु उसकी कविताओं पर इसका तनाव नहीं दिखता,तो यह सामान्य स्थिति नहीं है। यह बोध अपने आपमें आत्मग्रस्तता का प्रमाण बन जाता है। रूमानी और ट्रिकबाज़कवियों के लिए यह स्थिति अस्वाभाविक भी नहीं है। कविता अवधारणा और कवि की निजी छापों से बाहर संसार की दत्तता का अनुभूति कराती है। अगर किसी कवि से यह संभव नहीं हो पा रहा है तो इसका अर्थ यह है कविता उसके तईं अहम के आभूषण से ज़्यादा नहीं है।

नरेश सक्सेना के लिए कविता बहु-विमीय यथार्थ को उद्घाटित करने की भाषा के बजाय उद्घाटित और दुहराये गए पक्षों को छविवान बनाने या इसके रहस्यकरण का प्रयास है। इनकी लगभग कविताओं में एक सार्वभौमिक धारणा होती है। जिससे पाठक सुपरिचित होता है- ठीक मिथकों की तरह। कविताएं भौतिकी के सार्वभौमिक धारणा/तथ्य से शुरू होकर नीतिशास्त्र के किसी सामान्य सूक्ति तक जाती हैं। इसी के बीच नरेश सक्सेना का कुल कवि कर्म है। शास्त्र और विज्ञान का सीमित देश-काल नहीं होता। आइंस्टीन की सापेक्षता का सिद्धान्त हर जगह लागू होता है। यह यूरोप में भी सही है और इतनी गरीबी के बावजूद एशिया में भी! हर जगह पानी हिमांक से नीचे जम जाता है। बर्फ कंबल का काम करने लगती है और इसके नीचे अपेक्षाकृत तापमान ज़्यादा बना रहता है। इसलिए मछलियाँ बची रह जाती हैं। चूँकि यह एक सामान्य प्रक्रिया है इसलिए सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी इसे समझ ही लेता है। नरेश सक्सेना इस तथ्य का रहस्यकरण करते हैं और बताते हैं कि “पानी क्या कर रहा है”। पानी के कार्य को बताने के लिए एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का कविताकरण शुरू होता है-

“सतह का पानी ठंडा और भारी हो
लगाता है डुबकी
और नीचे से गर्म और हल्के पानी को
ऊपर भेज देता है ठंड से जूझने”

संवहन की इस प्रक्रिया का जितना भी रहस्यकरण हुआ हो परन्तु इसमें मार्मिकता नहीं है। फिर पानी के जमने की प्रक्रिया बताते हैं- “तीन डिग्री हल्का/ दो डिग्री और हल्का और / शून्य डिग्री होते ही,बर्फ बनकर / सतह पर जम जाता है”। तीन चौथाई कविता पानी के जमने की प्रक्रिया बताती है और चूँकि सिर्फ प्रक्रिया वर्णन से कविता हो नहीं सकती थी इसलिए उसे किसी तरह मानवीय संदर्भ से जोड़ देना है।

“पानी के प्राण मछलियों में बसते हैं
आदमी के प्राण कहाँ बसते हैं?

नरेश सक्सेना की कविता तथ्य के रहस्यकरण की एक प्रक्रिया है। कुछ जगहों पर कविता तथ्य से शुरू होकर सामान्य भाव-समवेदनाओं में घुल जाती है। परन्तु अधिकांशतः यह इसी तरह कसरत होकर रह जाती है। वे कहते हैं कि कविता में उनकी दिशा पदार्थ से जीवन की तरफ़ आने की है। लेकिन हैं ठीक इसके उलट- कविताओं में जीवन का पदार्थीकरण होने लगता है। कुछ कविताओं में,जहाँ वे सहज हैं और संसार की दतत्ता को थोड़ा भी महसूस कर पाते हैं,वहाँ अच्छी कविताएं संभव हुई हैं। इसी तरह की एक कविता है – उसे ले गये। “अरे कोई देखो / मेरे आँगन में गिरा कट कर /  गिरा मेरा नीम / गिरा मेरी सखियों का झूलना / बेटे का पालना गिरा / उड़ीं उसकी चिड़ियाँ / देखो उड़ा उनका शोर / देखो एक घोसला गिरा / देखो / वे आरा ले आये ले आये कुल्हाड़ी / और रस्सा ले आये उसे बांधने / देखो कैसे काँपी उसकी छाया / उसकी पत्तियों की छाया / जिनसे घाव मैंने पूरे”। इस कविता में भी नवगीत वाली आत्ममुग्धता है। पेड़ बिकने और कटने के लिए बाबा और बेटा जिम्मेदार है,कवि उसमें शामिल नहीं है। यह आत्ममुग्धता नवगीतों से साथ चली आयी और किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद है। परन्तु इस कविता में जो मार्मिकता है वह उनकी किन्हीं और कविताओं में नहीं है। अधिकांश कविताएं मार्मिकता के अभाव में सरकस हो गयी हैं। पहले संग्रह में रोशनी शीर्षक से एक कविता है। इसमें प्रकाश के तरंग और कण वाले दोहरी प्रकृति के बारे में बताया गया है। तरंग हूँ तरंग हूँ कहती हुई / कणों में कर सकती है संचरण/ और दोनों जगह अपने सही होने का/ दे सकती है प्रमाण”। ऐसी कविताओं में भौतिक तथ्यों पर आरोपित मानवीकरण और रहस्यकरण हास्यास्पद हो जाता है। जैसे एक जादूगर आता है। वह बच्चे को बॉक्स में छिपाकर सिर्फ चाकचिक्य और भाषिक विस्फार के दम पर आपको किसी रहस्य का आभास कराना चाहता है। अगर आप इस ट्रिक को समझते हैं,अगर आप जानते हैं कि बच्चा छिपा हुआ है,तो आपके लिए हास्यास्पद उछल-कूद है। यदि आप इस ट्रिक को नहीं समझते तो अज्ञानता का अपना सुख होता ही है! भौतिक तथ्यों से कविता की शुरुआत करना और एक मानवीय-संवेदनात्मक जमीन तक उतार देना एक बड़ी बात होती,लेकिन इन कविताओं में यह नहीं है। इसके लिए मनुष्य और इस धरती के प्रति जिस अकूत प्रेम की ज़रूरत होती है,वह कलेजे में नहीं है। पहले संग्रह में एक कविता है – लालटेनें। इस कविता का ठीक से पाठ होना चाहिए। समुचित पाठ से आप नरेश सक्सेना की कविताओं की बनावट समझ पाएँगे।

“रोशनी का नाम लेते ही
याद आता है सूरज 
याद आती हैं बिजली की बत्तियाँ और टार्चें
लेकिन अन्धे तहख़ानों
और जहरीली गैसों से भरे मैनहोलों में
उतारी जाती हैं सिर्फ लालटेनें

जो अक्सर वहाँ से बुझी और तड़की हुई लौटती हैं
हमें ख़तरों का पता देती हुई
क्योंकि जहाँ जाकर लालटेनें बुझ जाती हैं
वहाँ जाकर आदमी का दम घुट जाता है।

आग को जलने के लिए ऑक्सीज़न की आवश्यकता होती है। यह आप पहले से जानते होंगे। पुराने समय में ऑक्सीज़न की उपस्थिति को जानने के लिए खानों में विशेष तरह की लालटेन ले जाया जाता था। जहाँ ऑक्सीज़न कम हो जाती थी,वहाँ लालटेन बुझ जाती थी और लोग उसके आगे नहीं जाते थे। अब इस तरह के तमाम आधुनिक यंत्रों की खोज हो चुकी है कि लालटेन गधा गाड़ी के जमाने की बात हो गयी। पूरी बात सिर्फ ऑक्सीज़न और आग के सामान्य भौतिक संबंध की है। लेकिन इसके लिए एक रहस्य बुना गया है और इसमें सूर्य से लेकर टार्च और बल्ब तक,सबकुछ शामिल कर लिया गया है। तब भी पाठक इसे किसी मानवीय भाव-संबंध से नहीं जोड़ पाता। कोई मार्मिकता नहीं आ पाती। कविता का काम विज्ञान- उद्घाटित सत्य के बजाए जीवन के रहस्य से प्रेम करना है। इसके लिए एक धड़कता हुआ हृदय चाहिए ट्रिक और कौशल नहीं।                             

नरेश सक्सेना की अधिकांश कविताओं में ऐसी ही वैज्ञानिक अवधारणाएँ हैं। वैज्ञानिक अवधारणाओं का कोई सीमित देश-काल नहीं होता। इनकी कविताओं से किसी निश्चित भूगोल,स्पष्ट पारिस्थितिकी का आभास नहीं होता। कविता थल और काल के फ्रेम में सीमित सत्य को पकड़ती है। नरेश सक्सेना का थल और काल दोनों ही पकड़ से बाहर है। और आप देखेंगे कि नरेश सक्सेना की कविताओं में ऐतिहासिक समय नहीं अनैतिहासिक काल है। नरेश सक्सेना की एक कविता है- पृथ्वी। यह कविता खगोल-विज्ञान समझाती है। “पृथ्वी अपने केंद्र पर घूमती है / साथ ही एक और केंद्र के चारों ओर लगातार”। इस समझ के बाद कविता स्त्री और धरती की पारंपरिक छवियों पुनरुत्पादित करती है- “पृथ्वी क्या तुम कोई स्त्री हो/ तुम घूमती हो/ तो घूमती चली जाती हो। यह स्वाभाविक है। नरेश सक्सेना की कविताएं सामान्य वैज्ञानिक अवधारणओं को ही नहीं बल्कि पारंपरिक भाव-बोध को भी पुनरुत्पादित करती हैं। पुंसवाद चीज़ों का एक बाइनरी रचता है। उसके लिए सबकुछ एक द्वितत्व में है। पाप –पुण्य,सही-गलत,स्त्री-पुरुष,धरती- सूर्य। इसमें एक पक्ष कमतर या अवतर भी है। सूर्य ताक़तवर और केंद्र है। धरती उपग्रह है और सूर्य के चारों तरफ़ घूमती है। स्त्री खेत है और पुरुष हलवाहा। वह बीज डालता है और स्त्री और धरती एक पात्र है। यह प्रतीक बार-बार दुहराया जाता है। स्त्री चिंतकों ने बार-बार इस तरह के प्रतीकों को ख़ारिज किया है। उन्होने इस सौंदर्य के पीछे की राजनीति को उद्घाटित किया है। प्रसिद्ध समाज विज्ञानी लीला दुबे ने भारतीय स्तर पर इसे समझने का प्रयास किया है। लेकिन सामान्य सौंदर्यबोध के पुनरुत्पादन को ही सृजन समझने वाले व्यक्ति के लिए इस सबसे क्या?नरेश सक्सेना इसे जस का तस उठा लेते हैं और चाहते हैं कि हम इसे सिर्फ सृजन ही न मान लें और उन्हें सामाजिक न्याय का उदगाता भी समझें। इस तरह के तत्त्व ताली पिटवाऊ कविताओं की ख़ास विशेषता है। ताली पिटवा लेना कोई बुरी बात नहीं है। दिक़्क़त तब होती है जब इन तर्कों के आधार पर दूसरी तरह की कविताएं सिद्ध करने का प्रयास किया जाए। जब गधे के गुणावगुण के आधार पर घोडा सिद्ध करने का प्रयास हो तो सारे तर्क हास्यास्पद हो जाते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण विष्णु खरे द्वारा नरेश सक्सेना पर लिखा गया लेख है। नरेश सक्सेना की एक कविता है – छः दिसंबर। विष्णु खरे इसे इस विषय पर हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कविता कहते हैं। मुझे पता नहीं उन्होने इस विषय पर हिन्दी की कितनी कविताएं पढ़ी हैं। परन्तु यह कविता इस विषय पर औसत से भी नीचे की कविता है। “इतिहास के बहुत से भ्रमों में से / एक भ्रम यह भी था / कि महमूद गजनवी लौट गया था। लौटा नहीं था वह /यहीं था”। जब ऊपर की पंक्तियों में लिखा जा चुका है कि उसका लौटना एक भ्रम था तो पुनः नीचे लौटा नहीं था वह यहीं था” से कौन-सा नया अर्थ पैदा हो रहा है?तीसरे बन्द में फिर उसे मिलते-जुलते ढंग से दुहराया गया – सैकड़ों वर्ष बाद वह अचानक / प्रकट हुआ अयोध्या में। सिर्फ अंतिम बन्द के लिए ऊपर के तीन बन्द जोड़े गये हैं। सोमनाथ में उसने किया था / अल्लाह का काम तमाम/ इस बार उसका नारा था / जय श्रीराम”। 6 दिसम्बर की घटना से भारत का सामाजिक ढाँचा ढह गया। पूरी राजनीति बदल गयी। आतंकवाद नये-नये रूपों में हमारे सामने बढ़ता जा रहा है। एक ऐसी घटना जिसने हमारे समाज की नींव हिला दी उसे तुक और ट्रिक के जरिए इतने सपाट ढंग से कह दिया गया है! बार-बार दुहराई गयी पंक्तियों में जरा भी मार्मिकता नहीं है। विष्णु खरे को युवा कवि अनिल कुमार सिंह की अयोध्या 1991शीर्षक कविता पढ़नी चाहिए। यह चर्चित कविता है। इसे नामवर सिंह ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया है। खरे जी को चाहिए कि इस कविता पर नामवर सिंह का निर्णायक मत भी पढ़ें। इस विषय पर तमाम कविताएं उद्धृत की जा सकती हैं और तुलना भी हो सकती है। लेकिन इसकी ख़ास अवश्यकता नहीं है। इस तरह की कविताओं का भविष्य समय तय कर देता है। इसी तरह की कविता है – गुजरात एक और गुजरात दो। यह कठकरेजपन स्वाभाविक है। इसकी अनुगूँज शुरू से अन्त तक कविताओं में मौजूद है। कई बार वह चरित्र के स्तर पर सामने आ जाता है। यह संभव नहीं है कि आप श्रीराम कविता पाठ में मुरली मनोहर जोशी के साथ कविता पाठ भी कर लें और उसे संवेदनात्मक स्तर पर महसूस भी कर सकें। समझौते की कुछ क़ीमत तो होती ही है। और यह क़ीमत कविता और मनुष्यता को सबसे ज़्यादा चुकानी पड़ती है। नरेश सक्सेना “कविता की तासीर” को पके फोड़े को चीरने वाला चाकू कहते हैं,जिससे वाह नहीं आह निकले। पर अपनी कविताओं में सबसे आसान वाह-वाह का रास्ता ही चुनते हैं! एक कविता का शीर्षक है- दीमकें। “दीमकों को /पढ़ना नहीं आता/ वे चाट जाती हैं / पूरी किताब”। पूरी कविता में पढ़ना और चाट जाना दो पद हैं। इन्हीं दो पदों पर कविता पूरी तरह मुनहसिर है। दोनों का अलग- अलग सामान्य अर्थ पहले से निर्धारित है। चाट जाना शब्द दीमकों के लिए ही व्यवहृत होता है। उनके खा जाने को चाट जाना कहते हैं। कविता में इन पदों का सामान्य अर्थ ही मुख्य है। इसमें कुछ जुड़ता नहीं। इसी तरह की कविता है चट्टानें। पत्थर,पानी,सीढ़ी तमाम कविताएं इसी तरह की शाब्दिक खेल से गढ़ी गयी हैं। कोई कविता अगर अगर व्यवहृत पदों का अर्थ नहीं बदल सकती तो वह कविता नहीं हो सकती। नरेश सक्सेना इसी तरह शब्दों से कविता बनाते हैं। वे चाहते हैं कि इसे कविता मान लिया जाए (मनवाने के लिए जिन भौतिक चीज़ों की ज़रूरत होती है वह उनके पास है ही – ज्ञानरंजन जैसे संपादक और विष्णु खरे जैसे समीक्षक हैं।) और वाह भी नहीं आह! कहा जाए। यह कविता नहीं कविता की दांडी मारना है। और सही कहा गया है कि दांडी मारने वाला बनिया पल्ला बहुत पीटता है!             

नरेश सक्सेना की तारीफ़ कुछ आलोचक इसलिए करते हैं कि उन्होने गिट्टी,मोरंग,बालू और तमाम ऐसी चीज़ों को कविता में जगह दिया। यह सही है। नरेश सक्सेना ने पहली बार तमाम ऐसी उपेक्षित टूटी-फूटी चीज़ों से कविता बनाया। लेकिन यह कहने के साथ अपने एक उम्रदराज कवि का मूल्याँकन भी होना चाहिए। मुग्धता चिंतन के लिए सबसे सहज और घातक बात है। ध्यान इस बात पर भी होना चाहिए कि ये तमाम चीजें मनुष्य की भावात्मक दुनिया का हिस्सा कितना बन पाती हैं। दुनिया की प्रत्येक वस्तु अपने भौतिक गुणों के साथ सामाजिक – सांस्कृतिक और ऐतिहासिक निर्मितियों का साझीदार भी है। कोई वस्तु कलात्मक सृजन का हिस्सा तब बन पाती है जब वह सांस्कृतिक संदर्भ के साथ आए। नरेश सक्सेना के यहाँ अक्सर ऐसा नहीं होता। वे चीज़ों के सांस्कृतिक सन्दर्भ के बजाय उसके भौतिक गुणों को ही रहस्य बनाने लगते हैं। नरेश सक्सेना की कविता में विज्ञान-ज्ञान भी बहुत गहरा हो,ऐसा नहीं है। यह भौतिकी की अति सामान्य समझ पर आधारित है। अगर भौतिकी के गहरे समझ का जरा भी अक्स होता तो यह कविता का ठस्स और चुस्त ढाँचा ढह जाता। आधुनिकता के प्रारम्भिक दौर में भौतिकी ही चिन्तन का केन्द्र था। पूरी सृष्टि को एक बड़ी मसीन समझा जाता था। और चिन्तन के स्तर पर स्वीकार किया जाता था कि भौतिकी का सत्य इतिहास,संस्कृति और चेतना पर भी लागू होता है। आगे यह नकार दिया गया। कार्ल पापर ने सिद्ध कर दिया कि विज्ञान का सत्य भी निर्मितियों से बाहर नहीं है। अब विज्ञान को समझने के लिए खुद भाषा की तरफ़ लौटना पड़ता है। यह स्वीकृत है कि तर्क के द्वारा हम बहुआयामी यथार्थ को नहीं पकड़ सकते। इसके लिए हमें कलाओं की ओर लौटना पड़ेगा। लेकिन नरेश सक्सेना आधुनिकता के प्रारम्भिक निर्मितियों से बाहर नहीं हो पाए हैं। यह सब कविता में बहुत गहराई से दिखता है। काव्यवस्तु में समाजार्थिक तनावों का अभाव और वास्तु में शैलीगत यांत्रिकता से यही समझ बनती है। आधुनिकता के भाव-बोध के जो भीषण परिणाम देखने को मिलते हैं,उसका अक्स बहुत गहराई में नरेश सक्सेना के सौंदर्यबोध में भी झलक जाता है।         

कविता का संबंध अनुभव से है और विज्ञान का तथ्य से। नरेश सक्सेना तथ्य से अनुभव की तरफ आते हैं। लेकिन बहुवर्णी संसार से अपरिचय और अनुभव की क्षीणता के नाते कविता तथ्य के चारों तरफ़ ही चक्कर काट के रह जाती है। कविता मनुष्यता के सांस्कृतिक सन्दर्भ और उसके भावात्मक संसार को प्रदीप्त नहीं कर पाती। यह कविता होने के बजाए तमासा हो जाती है। मन के उलझे हुए यथार्थ को अवधारणाओं में रचने समझने का प्रयास निर्धारणवाद की तरफा ले जाता है। वे चिन्तन में भौतिकी से प्रभावित हैं। और कविता में लय व कारीगरी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं:ये दोनों ही बातें अलग लग सकती हैं,लेकिन हैं नहीं। जिसके बोध का आधार भौतिकी की यांत्रिक समझ हो उसके लिए कविता में मार्मिकता कोई महत्त्वपूर्ण तत्त्व नहीं है तो यह स्वाभाविक है। वे सेना के अनुशासन से मोहित होते हैं और लेफ्ट-राइट में लय खोजते हैं। और उसे सृष्टि की लय बताते हुए उसका ग्लोरीफिकेशन करते हैं। यह फ़ासिज़्म की अनुगूँज है।   

साहित्य में ही बहु-विमीय यथार्थ को खोलना संभव है। जहाँ आधुनिकता द्वारा रूढ तार्किकता से एक अलग तरह के सार्थक अतर्क और काव्य-न्याय से सत्य को पकड़ना और रचना संभव हो पता है। जीवन की यांत्रिक समझ और उसे समाजार्थिक परिदृश्य से काट देना सेना की लय को सृष्टि की लय कहने की तरफ़ ही ले जाएगा। जो सेना की इस लय की ताक़त को सत सत प्रणाम कहता है उससे हिन्दी के समझदार लोगों को प्रणाम कर लेना चाहिए। कविता में फ़ासिज़्म तख़्ती लगाकर नहीं आता,इतने ही सौंदर्यात्मक ढंग से आता है। इसे विश्लेषित करने और समझने की ज़रूरत पड़ती है।

“शनैः-शनै: लय के सम्मोहन में डूब
सेतु का अन्तर्मन होता है आन्दोलित
झूमता है सेतु दो स्तम्भों के मध्य और
यदि उसकी मुक्त दोलन गति मेल खा गई
सैनिकों की लय से
तब तो जैसे सुध-बुध खो केन्द्र से
उसके विचलन की सीमाएँ टूटना हो जाती हैं शुरू
लय से उन्मत्त
सेतु की काया करती है नृत्त
लेफ़्ट-राइट, लेफ़्ट-राइट, ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे
अचानक सतह पर उभरती है हल्की-सी रेख
और वह भी शुरू करती है मार्च
लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रैन्मुख
रेत नहीं रेत । लोहा, लोहा अब नहीं
और चूना और मिट्टी हो रहे मुक्त
शिल्प और तकनीकी के बन्धन से
पंचतत्त्व लौट रहे घर अपने
धम्म...धम्म...धम्म...धम्म...धम्म...धड़ाम

लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम”
   

धड़ाम से प्रणाम को मिलना चाहिए बकिया भाव और अर्थछवियां जाएँ भाड़ में। भाषा भेदिया होती है। वह अंदर का सारा पता देती है। नरेश सक्सेना का सारा वाक्य-विन्यास बहु-प्रयुक्त और सामान्य है। इसका अर्थ यह होता है कि उनकी भावदृष्टि भी सामान्य है। दूसरी बात यह कि उनकी भाषा का इतिहास-भूगोल बहुत सीमित है। इनके साथ लिख रहे तमाम कवियों की भाषा का भूगोल इनसे बहुत विस्तृत है। यह सिर्फ भाषा और शिल्प जैसा यांत्रिक मसला नहीं,भाव और संवेदना की सीमाओं को भी दर्शाता है।             
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यहां लोक की बहुत ऊपरी और सतही समझ से काम नहीं चल सकता - आलोचक जीवन सिंह से कवि महेश पुनेठा की बातचीत/1

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(वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह और सुपरिचित कवि महेश पुुनेठा की यह महत्वपूर्ण बातचीत चार खंडों में अनुनाद पर आएगी। अनुनाद इस सहयोग के लिए महेश पुनेठा का आभारी है।)



डॉ0जीवन सिंह हिंदी के प्रतिष्ठित,प्रतिबद्ध और ईमानदार आलोचक हैं। अलवर राजस्थान में रहते हैं। अब तक आलोचना की तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पहली किताब कविता की लोक प्रकृतिनाम से प्रकाशित हुयी। दूसरी किताब कविता और कवि कर्मबहुत चर्चित रही। तीसरी किताब शब्द और संस्कृतिमें भक्तिकालीन कवियों के अलावा साहित्य और संस्कृति पर बहुत जरूरी आलेख संकलित किए गए हैं। लोकधर्मी कविता के लिए जाने-जानी वाली पत्रिका कृति ओरमें वह निरंतर लिखते रहे। अलीबख्शी ख्याल और मेवाती लोक संस्कृति पर गहरी पैठ रखते हैं। अपने गांव जुरहरा (भरतपुर) की रामलीला में पिछले पैंतालीस वर्षों से जुड़ाव और रावण का अभिनय करते रहे हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के सर्वोच्च मीरा पुरस्कारसे पुरस्कृत और ब्रजभाषा अकादमी से सम्मानित। 1968से 2004तक राजस्थान के विभिन्न राजकीय कॉलेजों में अध्यापन करते रहे। प्रस्तुत है उनसे फेसबुक के माध्यम से हुई लंबी बातचीत के कुछ अंश
-महेश पुनेठा  
                         
महेश चंद्र पुनेठा-आज लोक और लोकधर्मिता को लेकर हिंदी कविता और आलोचना में खूब कहा जा रहा है। खंडन और मंडल दोनों ही पुरजोर तरीके से हो रहा है। सबकी अपनी-अपनी व्याख्याएं हैं। यह बात शायद आप भी स्वीकार करेंगे कि लोक और लोकधर्मिता को बहस के केंद्र में लाने का श्रेय विजेंद्र जी को जाता है,जिसे आपने आगे बढाने का काम किया है। आपकी तीनों पुस्तकें-कविता की लोक प्रकृति,कविता और कवि कर्म तथा शब्द और संस्कृति इसका प्रमाण हैं। आपकी और विजेंद्र जी की लोक की अवधारणाओं में मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई देता है, लेकिन पिछले दिनों आपने लोक की परिभाषा को लेकर विजेंद्र जी से अपने मतभेद की बात कही है। क्या आप उन मतभेदों के बारे में  विस्तार से बता पायेंगे?

जीवन सिंह-दो व्यक्तियों की बातों में समानता के बिन्दु होते हुए भी जरूरी नहीं कि हरेक बिन्दु पर समानता और एकता रहे। प्रारंभ में जब एक व्यक्ति कुछ सीखता है तो वह दूसरों से यानी अपने बड़ों से प्रभावित होकर अपना रास्ता निश्चित करता है। मैं आपातकाल की अवधि में बूँदी में था। 1980में तबादला कराकर अपने जिले के पास गंगापुर सिटी आ गया। यहाँ से मेरे गाँव का रास्ता भरतपुर होकर था। भरतपुर में मैंने 1960से1963तक रहकर स्कूली शिक्षा हासिल की थी। इस वजह से भरतपुर से लगाव था और वह मेरा जिला भी है। विजेन्द्र जी की कविता की आधारभूमि यही अंचल रहा है। इस वजह से हम एक दूसरे के समीप आए। वैसे भी कविता में ब्रजभाषा की देशज शब्दावली और परिवेश ने उनकी कविता के प्रति मेरे मन में आकर्षण पैदा किया। वैसे बूँ्दी में रहते हुए मैं अपने कई साथियों के साथ विचार सभाओं में अक्सर कोटा जाया करता था,जहाँ आपातकाल के विरोध में मेरे मन में समाजवादी विकल्प की एक जमीन तैयार हुई, इसमें मथुरा के कामरेड सव्यसाची के व्याख्यानों की एक बड़ी भूमिका है। वे मथुरा के एक कालेज में पढाते थे किन्तु आचरण में इतनी सादगी, सच्चाई ,लोकतांत्रिकता और सहयोग की भावना थी कि उनके विचारों का असर हुए बिना नहीं रहता था। यह एक जमीन थी जिस पर हम मिलकर आगे चले थे। विजेन्द्र जी के बारे में जहाँ तक मुझे मालूम है कि पहले वे भी लोहिया के समाजवाद से प्रभावित रहे। व्यक्ति एक दिन में नहीं बनता, कितने प्रभाव, सम्पर्क, अभिरुचि,संस्कार, अनुभव, अध्ययन आदि होते हैं, जो व्यक्ति को छीलते, छाँटते रहते हैं। जो कदली कभी कटता नहीं, वह फल देना बंद कर देता है। बहरहाल, विजेन्द्र जी से लगातार सम्पर्क सघन होता गया। इसी में से निकला लोकधर्म और समाजवाद। मैं पहले से ही तुलसी की कविता के सबसे ज्यादा नजदीक था। इस सम्पर्क ने उसको मजबूत किया। वैसे अपने परिवेश, परिवार व संस्कारों की वजह से मेरी रुचि नई कविता में इसलिए नहीं थी कि उसमें छंद नहीं था। जबकि ब्रज कविता छंदमय थी। विजेन्द्र जी उस समय भरतपुर से ओरनाम से पत्रिका निकालते थे। बाद में यही कृति ओरहुई। इस सम्पर्क और सत्संग का लाभ यह हुआ कि मेरी नई मुक्त छंद कविता में रुचि पैदा हुई। अब हमारी समान रुचि और जीवन दृष्टि होने से हम आपस में समीप होते चले गए। जब भी अवसर मिलता मैं भरतपुर चला जाता। दोनों दिनभर घना अभयारण्य में घूमते। पक्षी विहार का बहुत नजदीक से नजारा देखते। कविता पर बतियाते। विजेन्द्र जी की अक्सर सलाह होती कि गद्य लिखो। पत्रिकाओं के नाम बतलाते कि इसमें भेजो। इसी यात्रा में उस समय के मध्यप्रदेश के दुर्ग से महावीर अग्रवाल के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका में मेरा लेख कविता की लोकप्रकृतिप्रकाशित हुआ। इस तरह से एक दिशा बनती गई। इस दृष्टि से विजेन्द्र जी के कविता संग्रहों पर लिखा और त्रिलोचन,केदार, नागार्जुन,कुमारेन्द्र,कुमार विकल आदि की कविता पर भी। इसका कारण था कि इनकी कविताओं में लोक को एक आधारभूमि की तरह रखा गया था। मुक्तिबोध भी इस बीच मेरे मन में बसने लगे थे। यद्यपि उनको समझ पाना आसान नहीं था। सच तो यह है कि जिसकी मार्क्सवादी दृष्टि कमजोर है या यांत्रिक है वह मुक्तिबोध को कम ही पसंद करता है। मुक्तिबोध को रामविलास जी तक नहीं समझ पाए। विजेन्द्र जी ने भी मुक्तिबोध का उल्लेख तो हमेशा किया किन्तु उनकी कविता का खुला समर्थन कभी नहीं किया। इसकी एक बड़ी वजह हमारा लोक के खूँटे से बँध जाना भी था। मैं आज मानता हूँ कि इससे एक अजीब तरह का दृष्टिसंकोच पैदा हुआ। इसके बाद 2011में मैं जब अपने सुपुत्र के साथ आस्ट्रेलिया के सिडनी नगर में रहने के लिए गया तो मुक्तिबोध का सारा साहित्य अपने साथ पढ़ने को ले गया। वहाँ समय ही समय था। अपने पौत्र को लगभग पन्द्रह किलोमीटर दूर मिरांडा नाम के उपनगर के एक प्ले स्कूल में उसे छोड़ने जाता ,तब वहाँ चार घण्टे ठहरने का समय मिलता। वहाँ पास में ही एक लाइब्रेरी थी, जिसमें जितनी देर चाहो बैठकर पढो, मैं चार घंटे वहीं बैठता। पौत्र को वापस जो लाना होता था। रेल से आते जाते। यहीं मुक्तिबोध को बार बार पढ़ा। या फिर आस्ट्रेलिया के आदिवासियों के बारे में या उसके इतिहास के बारे में। मुक्तिबोध की खूबी मैनें देखी कि वे दृष्टि विस्तार करते हैं और सभी तरह की संकीर्णताओं और रुढ़िवादिता का पता बतलाते हैं। इसी से मुझे लगा कि यह कवि सीधे-सीधे जनपक्षधर और बेहद ईमानदार होते हुए भी हमारे लोक परिसर में अपनी सुनिश्चित जगह नहीं बना पाता। हमारी लोकदृष्टि में ही कहीं खोट है। इसी से मेरे सोच की भिन्नता शुरु हुई। हाँ,दो साल हुए, केदारनाथ सिंह दिल्ली से यहाँ अलवर एक कार्यक्रम में अलवर आए, इससे पहले भी वे जौकहरा में एक कार्यक्रम में बहुत गर्मजोशी से मुझसे मिल चुके थे, जबकि मैंने उनकी कविता पर बहुत आक्रामक तरीके से लिखा था। लेकिन उनके माथे पर इस बात की एक भी शिकन नहीं। बेहद लोकतांत्रिक और निर्दम्भ व्यक्तित्व। अपने भोजपुर से अगाध लगाव। उनके इस पक्ष को लेकर उनके अलवर आगमन पर एक कविता लिखी, जो फेसबुक पर डाल देने से पकड़ में आ गई। इसे मेरा विचलन कहा गया और इस बारे में अमीरचंद वैश्य के सम्पादन में कृति ओरमें सव्याख्या छापा गया जिसमें 1980में विजेन्द्र जी को लिखे मेरे एक पत्र का हवाला दिया गया और यह सिद्ध किया गया कि मेरा यह विचलन है। जबकि बहुत सी बातें ऐसी होती हैं, जिनको हम अपने विचारों की विकास प्रक्रिया में पुराने को छोड़ते हैं और बहुत सी नयी बातें जोड़ते हैं बशर्ते कि उनमें कुछ पाने के उद्देश्य वाला अवसरवाद न हो। 

हाँ इस बीच केदारनाथ सिंह का नया संग्रह सृष्टि पर पहराआया जिसकी कविताओं में मुझे पहले से अलग रंग दिखाई दिया, इसका उल्लेख भी मैंने एकाध जगह किया। कहने का तात्पर्य यह है कि लोकबद्धता में यदि हम संकुचित होते जाते हैं तो अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारते हैं। पुराना समय अब बहुत बदल चुका है। यथार्थ भी आज पहले से बहुत बदला हुआ है।

महेश चंद्र पुनेठा-विजेंद्र जी तो लोक को सर्वहारा का पर्याय मानते रहे हैं। अभिजात्य और शास्त्र का विपरीतार्थी कहते हैं। उनके लिए तो लोक का मतलब वह वर्ग है, जो शारीरिक श्रम से जुडा है। वह शहर या गांव कहीं भी रह सकता है। तब ऐसे लोक की बात करना आपको खूँटे से बँध जाना क्यों प्रतीत होता है?

जीवन सिंह- इसकी वजह जिस तरह के सर्वहारा की बात मार्क्स ने की,उस तरह का सर्वहारा हमारे यहाँ नहीं रहा। सर्वहारा का मतलब सिर्फ गरीब और श्रम से जुड़ा होना ही नहीं है,यह उस संगठित श्रम विवेक का नाम है जो पुरानी व्यवस्था को बदलता है। हमारे यहाँ जो भी व्यक्ति है वह सबसे पहले एक जातिगत इकाई है। हमारे देश जो खेती करता है,वह स्वयं को एक किसान से पहले ब्राह्मण,ठाकुर,बनिया,जाट,गूजर,अहीर,मीणा,लुहार,कुम्हार इत्यादि मानता है। इस वजह से हमेशा उसकी जातिगत अहमन्यता या बेचारगी कभी कम नहीं होती। दलितों और स्त्रियों के सवाल अलग है। वैसे सारी स्त्रियाँ पितृसत्ता से पीड़ित हैं, किन्तु उनकी जातिगत अहमन्यता कभी एक स्त्री लोक में संगठित नहीं होने देती। एक ब्राह्मण स्त्री और शूद्र स्त्री हमारे यहाँ कभी एक नहीं हो सकती क्योंकि स्त्री होने से पहले वे एक जाति हैं। हमारे यहाँ की अस्मिताओं में श्रम आधारित संगठित सामूहिक अस्मिताएं कहाँ रही हैं। हमारे देश में जाति एक बड़ा और क्रूर विभाजनकारी सामंती कारक ऐसा है, एक सामान्य मजदूर को भी जाति की अस्मिता से अलग नहीं होने देता। हमारे यहाँ मजदूर संगठनों की राजनीतिक चेतना हमेशा सामाजिक अस्मिता की भेंट चढ़ जाती है। यदि ऐसा होता तो आज विधान सभाओं और संसद में किसान और मजदूरों के प्रतिनिधि होते,न कि जातियों के। इसलिए वह लोक कहाँ है जिसे हम सर्वहारा कहते या मानते हैं। यह कविता लिखने के लिए तो ठीक है यथार्थ में सब कुछ उल्टा- पुल्टा है। कवि दरअसल यदि सचाई को नहीं जान रहा है तो सारी बात हवा में कर रहा है। जबकि कवि का उद्देश्य सचाई को प्रकट करना भी है। तभी उस सौन्दर्य की रचना संभव है, जो युगान्तरकारी होता है। साहित्य सृजन में रचना का आधार हमारे जीवनानुभव होते हैं, वे जितने बुनियादी हों सचाई तभी उजागर हो पाती है। इसीलिए हमारे यहाँ सर्वहारा के अलावा वह मध्यवर्ग ज्यादा महत्व का है जो सचाई को ज्यादा जानता है और उसको जानने में मदद करता है। लोक और सर्वहारा की एक किताबी धारणा तो ठीक है,लेकिन सर्जना तो वास्तविकता और व्यावहारिकता यानी जीवनानुभवों से होती है। कदाचित,यही वजह रही मुक्तिबोध ने श्रमिकों को ध्यान में रखते हुए भी मध्यवर्ग की भूमिका को अपनी आँखों से कभी ओझल नहीं होने दिया। उसकी दोनों तरह की भूमिकाओं को खुली आँखों से देखा। इसलिए इस सवाल को बहुत सरलीकृत करके नहीं समझा जा सकता। आभिजात्य और शास्त्र के विभाजन में भी हमारे यहाँ हर ब्राह्मण, राजपूत कृषक कर्म या मजदूरी करने के बावजूद अपने उस लोक समूह के साथ संगठित नहीं होता, जो शूद्र बताई गई जातियों से आता है। यह खुली वास्तविकता है जिसे न चाहते हुए भी लोग जीते हैं। इसको दूर करने में सर्वहारा या लोक के सहयोगी सचेतन,संघर्षशील और डिक्लास करने वाले मध्यवर्ग के योगदान को नकारा नहीं जा सकता ,जो अपने आभिजात्य के साथ लोक की बातों को पसंद करता है।

लोक इस वजह से हमारे यहाँ वैसी संज्ञा व्यावहारिकता में नहीं है। वह कविता और आलोचना के लिए वास्तविक आधारभूमि कम, सैद्धांतिक आधारभूमि ज्यादा सुलभ कराती है। कई बार तो आभिजात्य,शास्त्र और लोक सब हमारे यहाँ गड्डमड्ड हो जाता है। शायद, इसीलिए कबीर ने अपने जमाने में उस लोक का विरोध किया जो वेद के साथ भागता था। इस सचाई को समझकर उन्होंने लोक और वेद दोनों का रास्ता छोड़कर अपना तीसरा रास्ता बनाया था। कबीर उस लोक का विरोध करते हैं जो आभिजात्यवादी है। वे कहते हैं-पाछे भागा जाय था, लोक वेद के साथ। आगे थें सद् गुरु मिला, दीपक दीया हाथ।जबकि तुलसी लोक और वेद दोनों को एक साथ जरूरी मानते हैं। क्या यह सच नहीं है कि आज का हमारा समाज कबीर की अपेक्षा तुलसी के विचारों से ज्यादा प्रभावित है।

यदि हम इस जटिलता की उपेक्षा कर सिर्फ लोक की तोता रटन्त करते हैं तो वह खूँटे से बँध जाना नहीं है। फिर उस मध्यवर्गीय सचाई का क्या करोगे, जिसको जाहिर करने में मुक्तिबोध ने अपनी पूरी ऊर्जा और जीवन लगा दिया।हम भी अब लोक का हिस्सा कहाँ रहे हैं। क्या यह सचाई नहीं है कि जिन्दगी में कहीं न कहीं हम भी तो आभिजात्य का हिस्सा हैं।

महेश चंद्र पुनेठा-तब क्या यह माना जाय कि लोकधर्मी कविता या आलोचना जैसा वर्गीकरण अब अप्रासंगिक हो गया है? क्या किसी नये शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए?

जीवन सिंह- लोकधर्मी कविता या आलोचना हो सकती है और लोकदृष्टि से रचना और विश्लेषण दोनों संभव है। पहले से भी होता रहा है किन्तु यह मोटे- मोटे अर्थ में ही सही है। रचना तो अधिकांशतः मध्यवर्ग के लोग करते हैं, जिसमें उनके जीवन का अपना यथार्थ भी आता है। सच तो यही है कि व्यापकता की दृष्टि से लोक का आधार ही मुख्य आधार बनता है। किन्तु आज स्थितियां जितनी जटिल हैं, उनमें लोक की बहुत ऊपरी और सतही समझ से काम नहीं चल सकता। श्रम के सौन्दर्य और प्रकृति सौन्दर्य को केन्द्र में रखने से किसे गुरेज और एतराज हो सकता है और श्रम के शोषण उत्पीड़न के प्रतिरोध से भी। हमारे यहाँ दलित और स्त्री विमर्श भी इसी वजह से चला कि इनका इनकी अपनी स्थितियों से शोषण उत्पीड़न होता रहा है, किन्तु सवाल यह भी है कि इसके प्रतिरोध में मध्यवर्ग क्यों तटस्थ ,उदासीन और अवसरवादी हो जाता है। वह जिसे हम लोक कहते हैं, उसके साथ नहीं रहना चाहता। उसका पक्ष लेने वाले भी उसके स्वामी की मुद्रा में क्यों रहते हैं। हम जिस किसान मजदूर को लोक या सर्वहारा मानते हैं, वह स्वयं आपस में इतना विभाजित क्यों है? इसलिए हमको लोक के साथ साथ प्रगतिशीलता और जनवाद के लिए मध्यवर्ग द्वारा किये जाने वाले संघर्ष और उसकी ज्ञानात्मक भूमिका को ध्यान में रखना होगा। वैसे चाहें तो हम प्रगतिशीलता और जनवाद को कई दौरों में अलग-अलग करके देख सकते हैं। क्या यह सच नहीं है कि 1935-36के बाद से हिंदी साहित्य में जिस तरह से प्रगतिशील-प्रगतिवादी दौर की शुरुआत हुई, वही जीवन दृष्टि आज तक चली आ रही है। उसके दौर जरूर बदले हैं। आज भी हम निराला से अपनी शुरुआत करते हैं और कई बार प्रमाण में उनकी कविता को उद्धृत करते हैं। किसी भी तरह के बुनियादी बदलाव के लिए लम्बी यात्रा तय करनी पड़ती है। इसीलिए हमारे यहाँ भक्तिकाल की कविता चार सौ सालों तक चलती रही। रीतिकाल दो सौ साल तक चला। ऐसे ही पिछले अस्सी सालों से प्रगतिशील-जनवादी कविता के दौर चल रहे हैं। नई कविता के काल में भी मुक्तिबोध ने अपनी कविता को नया तो बनाया लेकिन प्रगतिशील दृष्टि का परित्याग नहीं किया। ऐसे ही नागार्जुन,केदार, त्रिलोचन आदि ने स्थानीयता को आधार बनाकर प्रगतिशील नजरिए के साथ रचना की। कई कवियों ने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि को अपनाया। केन्द्र में प्रगतिशील-जनवादी दृष्टि ही रही, जिसे आज हम लोकदृष्टि भी कह देते हैं।

लोकधर्मिता एक प्रतिमान तो हो सकता है। कविता को परखने की पूरी कसौटी नहीं। आज का यथार्थ इतना बहुआयामी और जटिल है कि उसे केवल लोक के प्रतिमान से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यदि लोक से ही परिभाषित करना है, तो उसके आधार को बहुत व्यापक बनाना होगा। मुख्य तो प्रगतिशीलता और जनवाद ही हैं जिनसे हम जटिल से जटिल यथार्थ को समझ सकते हैं।

कविता का सम्बंध सम्पूर्ण जीवन से होता है। यदि हम उसे एक निश्चित दायरे या सीमा में बाँध देंगे तो कविता का एक ही तरह का रूप सामने आयगा। उसकी विविधता खत्म हो जायगी। मसलन कोई यदि केवल मध्यवर्ग के नकली और अवसरवादी चरित्र पर ही व्यंग्य की कविता लिखता है तो लोक के प्रतिमान की दृष्टि से उसे कहाँ रखेंगे। कोई लोक की बात किए बगैर यदि सामन्ती, पूँजीवादी,फासीवादी प्रवृत्तियों के प्रतिरोध में ही काव्यसृजन करता है तो उसे कहाँ रखेंगे। एक और बात कि हमारी लोकधर्मी कविता और आलोचना दोनों में श्रम और पूँजी के संघर्षपूर्ण और निरंतर अमूर्त होते संबंधों के बारे में बहुत कुछ नहीं आ पाता। केवल श्रम सौन्दर्य या श्रमरत समाज की पीड़ाओं का उल्लेख और किताबों में लिखा जाने वाला सैद्घांतिक सा प्रतिरोध। सच तो यह है कि हमारे यहाँ श्रम का जो जातिगत और वर्णव्यवस्थावादी विभाजन है, उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता। जबकि कबीर, प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन के यहाँ उसकी शक्ल सूरत ज्यादा स्पष्ट, मूर्त और साफ रूप में आती है। उनके यहाँ साफ दिखता है कि हमारे यहाँ श्रम का आर्थिक ही नहीं ,सामाजिक शोषण उत्पीड़न होता रहा है। इसलिए हमारे यहाँ का लोक बहुत विभाजित रहा है जो आज भी है।

हमारे यहाँ के गांव इस तरह के सामाजिक श्रम विभाजन से शहरों की अपेक्षा ज्यादा पीडित रहे हैं इस सत्य को जानकर डॉ0अम्बेडकर ने दलितों का आह्वान किया था कि वे गाँवों को छोड़कर शहरों में जा बसें। क्या हमारी लोकधर्मी कविता और आलोचना इस तरह के असुविधाजनक का सामना करती है? जैसा कि मैंने पूर्व कहा कि इसी कारण से कबीर वेद के साथ साथ लोक का विरोध भी करते हैं ?क्या हम इस तरह के लोक का विरोध कर पाते हैं या हमेशा उसके सम्मोहन में बने रहते हैं। हमारे यहाँ लोक के भी अपने गहरे अन्तर्विरोध रहे हैं जिनको अम्बेडकर के जीवनानुभवों से जाना और समझा जा सकता है।

महेश चंद्र पुनेठा- लोक में किस तरह के अन्तर्विरोध रहे हैं? थोडा विस्तार से कहिये।

जीवन सिंह- लोक के इस सामाजिक अन्तर्विरोध से आर्थिक-राजनीतिक अन्तर्विरोध पैदा होते हैं।मेहतर के काम का मेहनताना भी उतना ही कम होता है जितनी उसकी सामाजिक हैसियत होती है। इसी सामाजिक बुनियाद पर देश का लोकतंत्र ,जातितंत्र में बदल चुका है। पिछले दिनों प्रो0तुलसी राम की आत्मकथा के दो भागों-मुर्दहिया और मणिकर्णिका को पढ़ने से मालूम हो जायगा कि हमारे उस समाज की वास्तविकता क्या है जिसे हम लोक कहते हैं। अब आप खुद देख लीजिए कि लोक के नाम से जानी जाने वाली कविता में इस तरह के अन्तर्विरोधों को कितना लाया गया है। जब लोक आदर्श बन जाता है तो उसके अन्तर्विरोधों को देखने वाला कहाँ से आयगा। हमने तो लोक को सर्वहारा का दर्जा दे रखा है।यह कौन देखे कि इस लोक की वास्तविकता क्या है? मार्क्स ने दुनिया के मजदूरों को एक होने का नारा दिया लेकिन किसने जाँचने की कोशिश की सामाजिक अन्तर्विरोधों के चलते देश दुनिया की बात तो दूर,हमारे एक छोटे से गांव का मजदूर ही एक नहीं है। वह जाति-बिरादरी के ऊँच नीच के सोपानों में विभाजित है। जहाँ तक कविता का सवाल है अभी तक उसको जाँचने की कोई वस्तुगत कसौटी नहीं बनी है। सब कुछ बहुत मोटे ढंग से देखा,परखा और समझा जाता है। कुछ सूत्र बना लिए जाते हैं सिर्फ उनसे कविता का मूल्यांकन कर लिया जाता है। इसमें पाठक के अपने सोच, संस्कार, अनुभव,अभिरुचियाँ, अध्ययन और समझ काम करती है। इसीलिए हर युग में कविता का एक ढर्रा सा बन जाता है। उस ढर्रे से यदि कोई थोड़ा भी बाहर निकलने या दिखने की कोशिश करता है तो ढर्रेवादी लोग मैदान में कूद पड़ते हैं। मसलन मुक्तिबोध का उदाहरण ही लें,क्या लोकवाद के चलते उनको एक बड़े कवि के रूप में देखा और समझा जा सकता है। हमने लोक की जो कसौटी बना ली है, उस पर शायद ही वे खरे उतर पाये। रामविलास जी ने तो साफ- साफ लिख दिया है कि किसान जीवन के अनुभव उनके यहाँ नहीं हैं और मार्क्सवादी नजरिये के प्रति भी उनके मन में संदेह रहता है। जबकि मेरा मानना यह है कि इस दर्शन को उन्होंने जितना समझा और भारतीय जीवन संदर्भों और उसके यथार्थ के अनुरूप व्यवहृत किया है उतना दूसरा कोई नहीं कर पाया है। लेकिन वे हमारी लोक की कसौटी के प्रतिमान नहीं हैं।जब हमारा इतना बड़ा और बहुत आगे तक कविता के आँगन को रोशन करने वाला कवि हमारी कसौटी पर नहीं आ पा रहा है तो हमको इस मुद्दे पर गम्भीरता से सोचने और मनन करने की जरूरत है।

आज की लोकधर्मी कविता में श्रम का सौन्दर्य है उसका छोटा मोटा सामान्य संघर्ष भी है,विशेषीकृत नहीं,। कुछ सैद्धांतिक आख्यान भी है।किसान मजदूर की पक्षधरता और प्रशंसा भी है। प्रकृति सौन्दर्य और श्रम एवं पूँजी के अन्तर्विरोध भी हैं किन्तु वह अन्दरूनी सचाई नहीं जो आज देश और समाजों को क्रूर विभाजन और अमानवीय विषमता के स्तर तक ले आई है जिससे फासिज्म दरवाजे तक आ गया है। क्या आपको लोकधर्मी कविता में कही आवारा पूँजी से बढ़ती अपसंस्कृति और अलगाव अजनबीपन से संघर्ष नजर आता है।

सिद्धांत कविता नहीं होते। कविता एक पूरा जीवन व्यवहार होती है।कविता हमारे मन का निर्माण तभी कर सकती है जब वह सचाई का ऊपरी ऊपरी नहीं, पूरी गहराई के साथ पता दे।

लोकधर्मी प्रतिमानों की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उसमें शहरी मध्यवर्ग द्वारा व्यक्त किए और रचे जा रहे यथार्थ को जगह नहीं होती। इससे गांव और शहर के विभाजन का खतरा भी रहता है। आज दरअसल वे परिस्थितियां नहीं हैं जो पच्चीस साल पहले थी। नई नई तकनीकों और तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने आदमी का सोच और व्यवहार दोनों बदल दिए हैं। अब कितने से लोग हैं जो सोचते हैं वैसा ही करते भी हैं। सब कुछ मैनेजरों के हाथ में आ गया है। प्रापर्टी डीलिंग ,सटोरियों,दलालों और कम्पनी नौकरशाहों की पूँजी का कोई ओर छोर नहीं है। तकनीक ने दिमागों पर कब्जा ही नहीं किया है उनके पूरे जीवन पर कब्जा कर लिया हैं। हम जो कहते हैं वैसा करते कहाँ है। अब निराला, नागार्जुन,त्रिलोचन,केदार के जमाने का यथार्थ नहीं है। इसलिए हमको एक व्यापक जनवादी सोच की ही नहीं, व्यवहार की भी आवश्यकता है क्योंकि दुनिया जितना व्यवहार से बदलती है सिद्धांतों से नहीं।
एक बात और कि क्या हमने कविता में लोक के नाम पर नये मिथकों का सृजन किया है या मिथकों को तोड़ा भी है।कबीर का महत्व हमारे लिए आज इसीलिए है कि उन्होंने अपने समय तक चले आ रहे कई सामाजिक-धार्मिक-साँस्कृतिक मिथकों को ध्वस्त किया। ऐसा वे तभी कर पाए जब वे पहले से लोक प्रचलित मिथकों का भंजन कर सके क्योंकि वे इस रहस्य को जान गये थे कि लोक में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं चलता। मीरा ने स्त्री के पारम्परिक मिथक पर अपनी कविता और आचरण दोनों स्तरों पर प्रहार किया और स्त्री के लिए एक नया रास्ता दिखलाया ,जिसका उल्लेख आज के नए जीवन संदर्भों में किया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि लोक को भी द्वंद्वात्मक रूप में देखने की आवश्यकता है। प्रेमचंद ने भी लोक को कभी इकहरी दृष्टि से नहीं देखा। हमारे ग्रामीण लोक के वे सबसे बड़े चितेरे हैं। उसी लोक के अनुभवों से वे सद्गति, ठाकुर का कुंआ,सवा सेर गेंहू जैसी कहानियां लिखते हैं। क्या हम आज इस तरह के अनुभवों और सवालों के रूबरू होकर काव्य सृजन करते हैं या फिर हमने लोक का वैसे ही मिथक नहीं गढ़ लिया है कि सारा लोक सर्वहारा है। क्या हमने वहाँ इन सर्वहाराओं के विभिन्न ऊँचे नीचे सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्तरों को गहराई से देखा और समझा है। हमारे लोक में आपस में चल रहे शोषण-उत्पीड़न को महसूस किया है? हमारी पुरानी चली आ रही मान्यताओं की परख कर उनको तोड़ने या उठाने की कोशिश की है या हमने अपने लिए सृजन की सुविधा के लिए अपना मनोलोक निर्मित कर लिया है। लोक के नाम पर हम अपने एक गढ़े हुए लोक में रहने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हम उसके बिल्कुल इधर-उधर नहीं जाना चाहते। मैं आपके उत्तराखंड के लोक में निर्मित और अभी तक प्रचलित एक संस्कारगत मान्यता को बतलाना चाहता हूँ। हुआ यह कि मेरे एक गढवाली ब्राह्मण मित्र हैं उनकी अच्छी पढी-लिखी खूबसूरत बेटी का रिश्ता गढ़वाली ब्राह्मणों में करना था ।उनको मालूम हुआ कि अलवर के जिस कालेज में मैं अध्यापक हूँ। वहाँ विज्ञान संकाय में कार्यरत एक गढ़वाली ब्राह्मण प्राध्यापक के सुपुत्र के साथ उनकी सुपुत्री के रिश्ते की चर्चा चलायें। इस प्रयोजन से मैं उनके आवास पर मिलने गया और यह चर्चा भी प्रसंगवश चला दी। उनका पहला ही सवाल था कि वे कैसे ब्राह्मण हैं? ऊँची धोती वाले या नीची धोती वाले ? मैं इस सवाल से चकित और हतप्रभ दोनों था : मुझे हमारे यहाँ मेवात में प्रचलित एक चुटकुला याद आया कि गौड़ों में भी गौड़। इस वजह से ही वह रिश्ता नहीं हुआ। इस तरह की अनेक विभाजनकारी बातें और रीति रिवाज हैं जो गांव प्रधान देश के लोक में आज तक बहुत पढ़े लिखों में भी प्रचलित हैं। क्या इस तरह के अनुभवों को छेंककर एक आदर्श लोक में रहते हुए अपना सुविधाजनक सृजनकर्म करते रहें या फिर उसके यथार्थ का दायरा व्यापक बनाये।

अन्त में,एक बात और कि यह हमारे मौजूदा लोक का यथार्थ ही है कि राजनीति का सारा कर्मकाण्ड हमारे यहाँ सोशल इंजीनियरिंग यानी जाति पाँति और सम्प्रदायों के ध्रुवीकरण से धड़ल्ले से चल रहा है और हम हैं कि इस लोक को एक बार जो देख लिया उसके अलावा और शायद ही कुछ देखना चाहते हैं।

महेश चंद्र पुनेठा- कुछ लोग लोक, लोक संस्कृति और लोकधर्मिता शब्दों के प्रयोग से परहेज करते हैं उनका मानना है कि लोक में बहुत कुछ सामन्ती और प्रतिगामी है. इसलिए जब लोकबद्धता की बात की जाती है तो कहीं न कहीं सामन्ती और प्रतिगामी मूल्यों का समर्थन हो जाता है. लोक की सारी प्रवृतियों का महिममंडल होने लगता है. इससे बचने के लिए वे जन, जन संस्कृति और जनधर्मी शब्दों के प्रयोग करने की बात करते हैं. क्या जन और लोक शब्दों में आपको कोई अंतर दिखाई देता है?

जीवन सिंह- लोक एक ही तरह का कभी नहीं रहा। आपको पहले भी कह चुका हूँ।उसे द्वंद्वात्मक नजरिए से देखना चाहिए ।यह ठीक है कि लोक बहुत पुराना शब्द और धारणा है जो तरह तरह के अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है।इससे विभ्रम पैदा होते हैं।मैने जब कविता की लोक प्रकृति की बात कही. थी तब वह अभिजन के विरोध में थी लेकिन आज के जटिल और समग्र यथार्थ को व्यक्त कर पाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।हमारी ही कमी और गलती रही कि हम एकमात्र इसी प्रतिमान से सारी कविता का मूल्यांकन करने लगेःदरअसल हुआ यह कि जिस तरह से नामवर जी ने अपनी कृति कविता के नए प्रतिमान में नागार्जुन।त्रिलोचन, केदार,शील ,कुमारेन्द्र आदि की जानबूझकर या तत्कालीन मध्य वर्ग के आधुनिकता वादी कवियों के दबाव में इनकी उपेक्षा की और इनकी कविता को नए प्रतिमानों का आधार नहीं बनाया, उन परिस्थितियों के तहत इस लोकप्रतिमान को खड़ा किया गया ,यह गंभीरता से नहीं सोचा कि इस तरह से हम एक दूसरी अति कर रहे हैं।विजेन्द्र जी की कविता भी इसमें कवर हो जाती थी और हमारे स्वभाव में स्थानीयता,जनपदीयता का सम्मोहन था इसलिए यह सब होता गया।दूसरे यह जिन राजनीतिक-आर्थिक विश्व परिस्थितियों में उस समय एकध्रुवीय विश्व नहीं बना था। सोवियत संघ का विकल्प भी मौजूद था। फासिज्म का कोई बड़ा खतरा भी आसपास दिखाई नहीं देता था। वैसे भी कबीर पहले ही लोक और वेद दोनों का विरोध कर चुके थे। हमारे मन पर भी कबीर से ज्यादा तुलसी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मान्यताओं का गहरा असर था। जबकि हमको और अधिक व्यापक स्तर पर सोचा जाना चाहिए था क्योंकि विश्व परिस्थितियां और राष्ट्रीय परिस्थितियां बहुत तेजी से बदल रही थी। नवउदारवाद दरवाजे पर आ खड़ा था। हम अपने मनोलोक में थे। सच यह भी लोकबद्ध होना हमारी परम्परा का हिस्सा है, किन्तु आज के विश्व में मध्यवर्ग की भूमिका की कम जरूरत नहीं है। श्रम सम्बंधों की वास्तविकता को केवल लोकबद्धता से नहीं समझा जा सकता। समझेंगे तो यह हमारा द्रविड़ प्राणायाम होगा।

महेश चंद्र पुनेठा-लोकधर्मिता और जनधर्मिता में क्या अंतर है? क्या लोकधर्मिता में प्रगतिशील और जनवादीदृष्टि समाहित नहीं है?

जीवन सिंह- मौजूदा परिस्थितियों में जनवाद अधिक व्यापक है और उसकी जरूरत भी है। उसके भीतर लोक स्वतः ही आ जाता है उसकी अवज्ञा नहीं होती। वैसे भी डेमोक्रेसी के लिए तीन शब्दों में से सबसे सटीक ,तथ्यपूर्ण,आधुनिक और व्यापक अर्थ देने वाला जन ही है,जो व्यक्ति और समाज दोनों के द्वंद्वात्मक रिश्ते को जाहिर करता है। जबकि लोक अमूर्त सामूहिकता को ज्यादा कहता है। जनवाद से क्यों परहेज है।जनसंस्कृति शब्द का प्रयोग खूब करते ही हैं।चाहें तो जनधर्मी भी कह सकते हैं।

हमारा जीवन भी उस समय संग्राम हो जाता है जब हम किसी कला माध्यम से रचना कर्म में उतरते हैं।रचना कर्म का मतलब समय के अनुसार बदलते जीवन मूल्यों और सम्बंधों की सही पहचान एवं उनकी रचना। इसमें मूल्य विरोधी प्रक्रियाओं को समझते हुए उनसे संघर्ष भी करना पड़ता है। इस संग्राम में सही अस्त्र-शस्त्रों और रणनीति का उपयोग करना भी जरूरी है, इसलिए समय-समय पर आत्माकलन की जरूरत भी होती है।समय जैसे बदलता है व्यक्ति को भी उसके अनुरूप अपने दाव पेच बदलने पड़ते हैं,जो नहीं बदलता उसका असफल होना या एक ही जगह पर ठहर जाना लाजिमी है।बार बार खुद को जाँचने की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है।कविता या आलोचना इस प्रक्रिया का अपवाद नहीं है।सही दिशा को पाने के लिए बदलना कभी विचलन नहीं होता।प्रेमचंद लम्बे समय तक गाँधीवादी रास्ते पर चलते हैं किन्तु आगे चलकर अपने अनुभवों के आधार पर और अधिक वस्तुगतता की ओर आते हैं।खुद को बदल लेते हैं।

महेश चंद्र पुनेठा-क्या यह माना जाय कि साहित्य के मूल्यांकन के लोकधर्मी प्रतिमान पुराने पड़ चुके हैं और आज की कविता का उससे सही-सही मूल्यांकन संभव नहीं है?

जीवन सिंह- पुराने नहीं, अधूरे। उनसे आज की पूरी कविता या साहित्य का मूल्यांकन संभव नहीं है।गंगा में तब से बहुत पानी बह चुका है।लोगों का आपस में मिलबैठकर संगठित सोच विचार संचार की आधुनिकतम तकनीकों से इतना प्रभावित है कि उसने सभी को अपना शिकार बना लिया है।तकनीकों ने श्रम को परिदृश्य से लगभग आउट जैसा कर दिया है और लोगों के दिमागों पर अपना कब्जा जमा लिया है और हम हैं कि वही पुराने गीत आलापने में लगे हैं ।आज का आदमी वस्तुओं के एक ऐसे छद्म मोहक संसार में आ गया है । मिथ्या लोभ लालच की एक नई भाषा की गिरफ्त में आज का आदमी क्या अपनी पहचान को नहीं खो रहा है। आज का आदमी चौबीस घंटे धन के लालच पाश में नहीं आ फँसा है क्या फ्राँसीसी विचारक बौद्रिआ की इस बात में दम नहीं है कि अब श्रम उत्पादन को तय नहीं करता, स्वचालन की प्रक्रिया व तकनीकी विकास ने उसे उत्पादन के तमाम उपकरणों में से एक उपकरण जैसा नहीं बना दिया है क्या? तो क्या इस नए यथार्थ के संदर्भ में और आदमी के लगातार बदलते स्वरूप पर जरा भी गौर न करके अपनी वही पुरानी ढपली बजाते रहना चाहिए ?

महेश चंद्र पुनेठा-क्या पुराने को बचाने की आपको कोई जरूरत महसूस नहीं होती?इस पुराने में ही क्या हमारी लोकसंस्कृति निहित नहीं है. लोकसंस्कृति से हमारी पहचान जुडी है ,यही पहचान है जो हमें हमारी जमीन से जोड़े रखती है.तब क्या इससे कट जाना अपनी पहचान को खो देना नहीं होगा?

जीवन सिंह- गति का नियम है द्वन्द्वात्मकता। जब संसार नित्य नवीन हो रहा है और हम उसकी नई से नई तकनीक को अपने रोजमर्रा के उपयोग में ला रहे हैं तो कुछ तो कविता, साहित्य के बारे में भी सोचना पड़ेगा। पुराने को बचाना ही नए का काम नहीं होता। पुरानी स्वस्थ बातों को बचाते हुए काम नया ही करना पड़ता है। फिर पुराना भी हमारा सब कुछ एक जैसा कहाँ है?उसमें ऊँच-नीच ,उतार-चढाव बहुत हैं। पुराने को चयनित रूप में बचाते हुए नए को लाओ, तभी गति संभव है। मुझे तो ऐसा ही लगता है। पुराना ही सब कुछ अच्छा और शिवकारी होता तो नए की जरूरत ही क्या थी। पुरातन और सनातन तो धर्म में चलता है ,ज्ञान विज्ञान में नहीं। जहाँ तक हमारी लोकसंस्कृति का सवाल है,वह तब की संस्कृति ज्यादा है जब हमारे यहाँ कृषि से सामूहिक उत्पादन होता था। आज कृषि का दबाव नहीं रह गया है। सब कुछ कारपोरेट के नियंत्रण में आ चुका है। वह पुरानी लोकसंस्कृति जहाँ पैदा हुई वहीं उसके ऊपर बहुत से दबाव हैं। अब उत्तम खेती वाली बात कहाँ है?

हम अपने बच्चों से खेती कराने के बजाय ऊँची से ऊँची नौकरी कराना चाहते हैं तो पुरानी लोकसंस्कृति को बचाने वाले कहाँ से आयेंगे। सब तो गाँवों को छोड़कर शहरों की ओर आ रहे हैं। उस पुरानी गांव आधारित लोकसंस्कृति को कौन बचायेगा? हाँ,इतना अवश्य है कि उसके, साधारणता,सादगी, और सामूहिकता जैसे मूल्यों को अपने आचरण से बचा लें,यही लोकसंस्कृति को बचाना है। नए संचार माध्यमों से भी पुराना बहुत कुछ बचाया जा सकता है। बचाया भी जा रहा है। मुख्य हैं साधारणता और सादगी, वह जीवन में कैसे बचे, इस पर सोचने की जरूरत है। जहाँ तक जमीन से जोड़े रखने का सवाल है वह सही अर्थों में इन्सानियत से जुड़े रहने का सवाल है । जमीन का अर्थ यहाँ सिर्फ भूगोल नहीं है इतिहास भी है। इतिहास का मतलब है, गहरा इतिहास बोध, कि दुनिया कहाँ से कहाँ जा पँहुची है और कौन सी शक्तियां है, जो ऐसा कर रही हैं। इसी में जब हम श्रम और पूँजी के सम्बंधों पर विचार करते हैं, तभी हमारी जमीन का सही पता हमको चलता है। अन्यथा हम जमीन के नाम पर एक बँधे बँधाये भावलोक से बाहर नहीं निकल पाते। इससे पूरी सचाई सामने नहीं आ पाती। इससे हम संकीर्णता के एक ऐसे जाल में फँसते जाते हैं जिससे बाहर निकल पाना तभी संभव हो पाता है, जब हम अपनी जमीन की सचाई पर गंभीरता से सोचकर उसके बदलते आयामों को भी अपनी रचना प्रक्रिया का हिस्सा बनायें। अन्यथा हम भी जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि के शिकार हो जायेंगे।  पहचान खोना तो तब होगा, जब हम अपनी भाषा और इंसानों को भूल जायेंगे। जब तक अपनी भाषा-बोलियों और श्रमसंलग्न जीवन मूल्यों से आचरणपरक रिश्ता है तब तक हमारी पहचान को कोई खतरा मुझे नहीं लगता।खतरा तो तब ज्यादा है जब हम लोकसंस्कृति का उपयोग सिर्फ कविता लिखने के लिए करें, स्वयं को तदनुरूप बदलने के लिए नहीं। आज सबसे बड़ा संकट यह है कि मध्यवर्ग जो कहता और लिखता है वैसा कर नहीं पाता।

महेश चंद्र पुनेठा-बिलकुल सही कहा, तकनीक और अर्थव्यवस्था में आ रहे बदलाव के कारण लोकसंस्कृति की बहुत सारी बातें लुप्त होती जा रही हैं। लेकिन कुछ लोगों द्वारा उसे उसके पुराने रूप में ही बचाए रखने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए अभियान चलाये जा रहे हैं। महोत्सवों का आयोजन किया जा रहा है। मंचों में लोकगीत-नृत्य,लोक कला आदि को प्रस्तुत किया जा रहा है। दूसरी ओर लोकसंस्कृति के केंद्र माने जाने वाले गाँव पलायन से लगातार खाली होते जा रहे हैं। क्या आपको लगता है कि लोकजीवन को बचाए बिना लोकसंस्कृति को बचाया जा सकता है?

जीवन सिंह- लोकजीवन अपनी संस्कृति को बचाता ही नहीं था बल्कि लगातार उसे समय के अनुसार नई से नई बनाता जाता है। उसे अलग से बचाने की जरूरत नहीं थी ।वह नयी होती जाती संस्कृति में समाहित होती जाती थी। जैसे पुरानी कविता नई कविता में समाती जाती है। इसीलिये तो मुक्तिबोध ने कहा कि कविता कभी खत्म नहीं होती। खत्म होते हैं उसके पुराने रूप। जैसे कविता लगातार लिखी जा रही है, लेकिन उसका कथ्य,अन्तर्वस्तु और रूप विधान समय के अनुसार बदल रहा है। जैसा समाज होता है और जैसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ होती हैं वैसे ही संस्कृति भी अपना नया वेश धारण करती जाती है। अब चूंकि पुराना कृषि समाज हाशिये पर चला गया है और उसका स्थान एक नए तरह के समाज ने ले लिया है तो पुरानी बातों से मोह खत्म हो रहा है। आज के हमारे गांव भी वैश्वीकृत बाजार की जद में आ गये हैं। यह सब नये संचार साधनों और रोज नयी से नयी होती तकनीक ने किया है। अतः लोकसंस्कृति को आज की तकनीक ही बचा सकती है या फिर समाजवादी व्यवस्था। जैसे सोवियत संघ ने अपना वह सब पुराना बचाने का प्रयास किया था,जिसकी नए के लिए आवश्यकता थी।पुराने लोकरूपों को नई अकादमियाँ खोलकर भी बचाया जा सकता है। लेकिन मुनाफाखोर बाजार और उसका लोगों के दिमागों पर नियंत्रण सिवाय बाजार के और कुछ नहीं बचाना चाहता। वह क्रिकेट और फिल्मों को इसलिए बचा रहा है कि वे बाजार को फैलाने के काम आती हैं।जो कुछ बाजार के काम का है आज वही फल-फूल रहा है। उसी को विकास बतलाया जा रहा है। इसका प्रतिरोध करने का कोई तौर तरीका लोकसंस्कृति के पास है क्या? इसीलिए उसे सरकारों ने पर्यटन विभाग को सौंपकर बाजार को सौंप दिया है। इस तरह से अब वही काम का है जो बाजार के काम का है। हमारी शिक्षा भी एकमात्र बाजार के लिए संसाधन तैयार कर रही है। सब कुछ मैनेजमेंट में बदल रही हैं। गाँवों में अँग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण अपने बच्चों को इसी बाजार में प्रवेश दिलाने की वजह से है और इसी को विकास ,ग्रोथ और सूचकांकों से रोज परिभाषित किया जा रहा है। टी वी ने हमारे दिमागों में ही जैसे बाजार खोल दिया है। जब भाषा-बोलियाँ ही नहीं रहेंगी तो संस्कृति कहाँ से बचेगी। जिस देश में अपनी भाषाओं में पढ़ना पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा हो वहाँ संस्कृति को बचाने वाले कहाँ से आयेंगे। इसीलिये आज जहाँ भी बाजार की दौड नहीं है, वहीं थोड़ी बहुत लोकसंस्कृति बची हुई है।

लोककलाओं के महोत्सव तो बाजार भी आयोजित करा रहा है। आप देख नहीं रहे हैं कि जयपुर में हर साल जनवरी में एक अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव होने लगा है। लेकिन उसका प्रयोजन संस्कृति नहीं बाजार है। आज आवारा पूँजी की तो कमी नहीं है उससे कला-संस्कृति सबको खरीदा जा सकता है।

जो कला-संस्कृति के महोत्सव आयोजित करेंगे, बाजार उनको सारी सुविधाएं उपलब्ध करा देगा। आज एन जी ओ भी बहुत कुछ बचाने में लगे हुए हैं। लेकिन नयी संस्कृति कौन बनायेगा ?पहले के लोकजीवन में लोकसंस्कृति के नए नए रूप भी विकसित होते थे क्योंकि उसको विकसित करने वाला समाज मौजूद था।क्या आज उसका सर्जक समाज बचा है?

जब गाँवों से लगातार पलायन हो रहा है तो इस मसले पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि जो किसान कभी अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं होता था,आज उससे मुक्ति पाकर शहर क्यों आना चाहता है। बाजार, रोजगार और जीवन की अन्य सारी सुविधाएं शहरों में हैं तो कोई असुविधा और अभावों में क्यों रहना चाहेगा। आवश्यकता ही आविष्कार करती है ऐसे ही जरूरतें ही जरूरी को लाती हैं और बचाती भी हैं।

संपर्क- डॉ0जीवन सिंह 1/14अरावली बिहार, अलवर-301001 (राजस्थान)
महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502


अमित श्रीवास्तव की नई कविता - चुनो

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देश के 5 राज्यों में चुनाव हैं। जनता के बीच कुछ भ्रम पहले से थे और कई इस बीच डाल दिए गए हैं। ऐसे ही भ्रमों के बीच हमें अमित श्रीवास्तव की यह कविता मिली है, जो कई जाले साफ़ करती है और किनारे खड़े होकर नहीं, संकटों बीच धंसे रहकर बोलती है।

  

गालियों और नारों के बीच
चुनो
फतवों और निषेधाज्ञाओं के बीच
चुनो
हत्या और आत्महत्या के बीच

चुनो
अपनी आख़िरी आवाज़
अगला बंकर
जंग खाए ताले
और उलझी बेड़ियों के बीच

चुनो
दरवाज़े चुनो
ये पर्दे फट चुके हैं
ढांपने को कुछ नहीं है
पर चुनो
कि बेशर्म साँसे उधड़ी पड़ी हैं

चुनो भूख चुनो
प्यास चुनो
चुनो बेघर होने के तमाम इंतजामों के बीच
कौन सा बेहतर है

चीख और आंसुओं में
अरदास और प्रार्थनाओं में
घण्टे की पुकार और मुहरों के तिरस्कार में
चुनो

रक्त छायाओं
और सफेद होती परछाइयों में
चुनो
साजिशों को चुनो

हत्यारा चुनो
अपनी सज़ा
अपनी अदालत
चुनो
राम या रहमान
चुनो
अपना इम्तेहान

चुनो
कि चुनने के अलावा
अब कोई और चारा नहीं

बदरंग और बेस्वाद के बीच
उलझन और उदासी के बीच
ठहाकों के बीच अपनी कमजोरियों से एक चुनो

चुनो बंजर आसमान
काली धरती
बेहद शुष्क हवाओं के बीच

बेवा या बलात्कार चुनो

चुनो
तुम चुनने को स्वतन्त्र हो
चुनो कि तुम
अभिशप्त हो
चुनो कि अब तक तुमने चुना नहीं
सुना नहीं
हड्डियों के ढाँचे
खिंची हुई तलवारें
भिंचे हुए जबड़े
फटे हुए नक्शे
झुके तराजू
सुनो इनकी मरी हुई आवाज़ें
सुनो ध्यान से सुनो

जल गई एक किताब के पन्नों की राख़ उँगलियों में लगाकर
चुनो
अपना विपक्ष चुनो
***
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