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मुक्तिबोध मेहनतकश की आजादी के पक्षधर हैं : वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह से कवि महेश पुनेठा की बातचीत/2

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महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध के समय बहुत सारे आधुनिकतावादी कवि यह कहते हुए पाए जाते थे कि जनवाद,समाजवाद भीड़ की मनोवृति के परिचायक हैं। जुलूस,हड़ताल आदि राजनीतिक सामूहिक कार्य गलत हैं।जनता ढोर है ,वह पशु है,क्योंकि वह नेताओं के बहकावे में आती है क्योंकि उसमें स्वतंत्र निर्णय करने की शक्ति नहीं है।  इस पर आपका क्या कहना है?

जीवन सिंह- मैं इस तरह की धारणाओं को गलत मानने के साथ-साथ इनका विरोध करता हूँ। यह जनवाद ही तो है जो हमको सामंती प्रवृत्तियों से बचाए हुए है। आज इस जनवाद को ही चारों तरफ से घेरकर एक नयी तरह के फासीवाद की तरफ धकेल कर ले जाने की कोशिशें संस्कृति के नाम से राजनीति और अर्थ नीति के स्तर पर की जा रही हैं। इसलिए जनवाद की रक्षा आज की पहली आवश्यकता है। रही समाजवाद की बात, जनवाद यदि सुरक्षित है और वह लगातार परिपक्व होता है तो अगली सीढ़ी समाजवाद की ही होगी।लेकिन आज जब जनवाद पर ही संकट के बादल मँडरा रहे हैं तो समाजवाद अभी दूर की बात है।सच तो यही है कि पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प यदि कोई है तो वह समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है।

जनवाद और उससे अगली सीढ़ी समाजवाद भीड़ की मनोवृत्ति के सूचक नहीं हैं। मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में इस बात को साफ करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है,‘कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह जानता है कि एक स्थान में एकत्र संगठित जनता भीड़ नहीं है,क्योंकि वह संगठित है।जहाँ संगठन है वहाँ एक प्रेरणा और एक उद्देश्य भी है। जहाँ एक प्रेरणा और उद्देश्य है,वहाँ एक स्फीत और सक्रिय चेतना है। देश-विदेश के पिछले इतिहास में हमें यह सूचित होता है कि संगठित जनता ने असाधारण कार्य किए हैं। 

सत्ता के प्रतिरोध में संगठित जनता ने ही जुलूस ,हड़ताल और अनशन जैसे विभिन्न संघर्ष-रूपों का आविष्कार किया है। ये लोकतांत्रिक प्रतिरोधों के अनुसार विकसित हुए हैं। इनके माध्यम से जनभावनाओं की अभिव्यक्ति होती है। यही कारण है कि दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में जनता अपनी भावनाओं और आकांक्षाओं को इन्हीं माध्यमों से व्यक्त करती है। मुक्तिबोध उन आधुनिकतावादियों के विचारों को उद्धृत करके उनकी काट प्रस्तुत करते हैं। वे तो मानते ही यह हैं कि सामान्य जन और मेहनतकश के पास ही ईमान का डंडा और अभय की गैंती और तगारी है जिससे आत्मा के नये भवन बनाए जा सकते हैं।
 
महेश चंद्र पुनेठा- समाजवाद में व्यक्ति के स्थान पर समाज को अधिक महत्व दिया जाता है। एक व्यक्ति को क्या करना है यह भी समाज तय करता है। जबकि मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं। उनका मानना है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य कला के लिए ,दर्शन के लिए ,विज्ञानं के लिए अत्यधिक आवश्यक और मूलभूत है। यह कैसा अंतर्विरोध है?

जीवन सिंह- मुक्तिबोध व्यक्ति और समाज में इकतरफा रिश्ता मानने के स्थान पर इन दोनों का द्वन्द्वात्मक रिश्ता मानते हैं। समाज अपनी जगह पर महत्वपूर्ण होता है किन्तु जीवन के अनेक क्षेत्रों का नेतृत्व करने में व्यक्ति की भूमिका भी कम महत्व की नहीं होती। मार्क्स, गांधी, लेनिन,भगत सिंह ,आइंस्टीन,प्रेमचंद आदि व्यक्ति ही थे,जो समाज के लिए अपना सब कुछ त्याग कर जीवन संग्राम में उतरे ,जिन्होंने समाज की दिशा बदलने का काम किया।यहाँ व्यक्ति की सामाजिक भूमिका स्पष्ट हो रही है।क्या व्यक्ति की इस भूमिका को नकारा जा सकता है।मुक्तिबोध इसी अर्थ में समाज के साथ व्यक्ति की भूमिका को कम आ्ँककर नहीं चलते।इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वे व्यक्तिवाद के समर्थक हैं। व्यक्ति की भूमिका और व्यक्तिवाद में जमीन-आसमान जैसा फर्क होता है।

महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक थे लेकिन उनका कहना था कि मुनाफाखोरों और उत्पीड़कों के व्यक्ति स्वातंत्र्य के लक्ष्य और जनता के व्यक्ति स्वातंत्र्य के लक्ष्य में अंतर है। यह अंतर किस तरह का है? कुछ प्रकाश डालिए।

जीवन सिंह- स्वाधीनता के बिना सृजन संभव नहीं होता।होता भी है तो वह पराधीनता की परिधि से बाहर नहीं निकल पाता। इसलिए व्यक्ति स्वातंर्त्य जरूरी होता है अन्यथा सचाई को व्यक्त कर पाना संभव नहीं होता ।लेकिन मुक्तिबोध का स्पष्ट कहना था कि स्वतंत्रता का अर्थ इस बात में है कि समाज में उसका क्या उपयोग किया जा रहा है और जन-कल्याण तथा मानव-उत्थान के लिए उसे कौन सी दिशा में ले जाया जा रहा है। वे मुनाफाखोरी करने वाली या किसी का भी शोषण -उत्पीड़न करने वाली स्वतंत्रता का बेहिचक विरोध करते हैं। उनकी एक कविता है,‘जमाने का चेहरायह कविता कहीं से भी दुर्बोध नहीं है। इसमें वे साम्राज्यवादी उत्पीड़कों और मुनाफाखोरों का विरोध करते हुए कहते हैं-फल-पुष्प-भारमय/वृक्षों की हरी भरी /शाखाओं पर बैठे हैं वानर व वन-बिलाव/साम्राज्यवादियों का वास्तविकता व वह/भविष्य को बढ़ने ही नहीं देगा जब तक/कि उसका न नाश हो/ इसी सोच-सोच में/लिखता जाता हूँ/कविता की पंक्तियाँ।पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था जहाँ भी हैं अपनी मुनाफाखोरी के लिए आजादी की बात करती हैं किन्तु ये ही मेहनतकश की आजादी पर लगाम लगाती हैं। इसलिये वे मेहनतकश की आजादी के पक्षधर हैं शोषक वर्ग की आजादी के नहीं।

मेहनतकश की आजादी से उस लेखक की आजादी निर्धारित होती है जो उसके पक्ष में लिखता है और शोषक-उत्पीड़क वर्ग का विरोध करता है। लेकिन जिस व्यवस्था में मेहनतकश वर्ग की आजादी पर अंकुश लगा दिया जायगा तो यह रचनात्मकता पर भी प्रकारान्तर से अंकुश होगा ,जिसे मुक्तिबोध स्वीकार नहीं करते। वे रचना के संदर्भ में किसी भी तरह के रेजीमेंटेशन के विरोधी हैं। मुनाफाखोर के स्वातंत्र्य में शोषण होता है जबकि श्रमिक स्वातंत्र्य में रचनात्मकता की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध का व्यक्ति-स्वातंत्र्य अज्ञेय के व्यक्ति स्वातंत्र्य से किस रूप में भिन्न है?

जीवन सिंह- व्यक्ति-स्वातंत्र्य प्रयोजन और परिस्थिति में भिन्न स्वरूप ग्रहण कर लेता है। एक व्यक्ति का व्यक्ति-स्वातंत्र्य सिर्फ और सिर्फ अपने निजी लाभ और स्वार्थ-पूर्ति के लिए होता है उसे समाज और दूसरे लोगों के हितों से ज्यादा लेना देना नहीं होता।दूसरा व्यक्ति वह होता है जो सामाजिक हितों के प्रयोजन से व्यक्ति-स्वातंत्र्य की माँग करता है। अज्ञेय और मुक्तिबोध की व्यक्ति- स्वातंत्र्य की धारणाओं में यही अन्तर है।अज्ञेय की धारणा का सम्बंध निजी स्वातंत्र्य से है जबकि मुक्तिबोध की धारणा का सामाजिक हितों के लिए काम में आने वाली स्वतंत्रता से। इसीलिए वे अँधेरे मेंकविता के इस अंश में साफ-साफ कहते हैं-कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ वर्तमान समाज में चल नहीं सकता। पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता, स्वातंर्त्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता मुक्ति के मन को ,जन को।

इसी वजह से नई कविता आन्दोलन में स्वतंत्रता के बारे में जो बातें अज्ञेय और उनके शिविर द्वारा उठाई गयीं थीं, कि समाजवादी व्यवस्था व्यक्ति-स्वातंर्त्य की सबसे बड़ी दुश्मन होती है तब मुक्तिबोध ने इस तरह की पक्षपातपूर्ण बातों का बिन्दुबार जवाब दिया था। तब उन्होंने यह भी कहा था कि कोई व्यवस्था सम्पूर्ण स्वतंत्रता नहीं देती। सम्पूर्ण स्वतंत्रता कहने भर की बात है।सामाजिक प्रतिबंध हर व्यवस्था लगाती है। देखने की बात यह है कि व्यक्ति-स्वातंत्र्य की जो सीमा बाँधी गई है। वह मानव मूल्यों और मानव मुक्ति के लक्ष्यों के अनुकूल है या प्रतिकूल।यही फर्क है अज्ञेय और मुक्तिबोध की व्यक्ति-स्वातंत्र्य सम्बंधी धारणाओं और उनके व्यवहार में।

महेश चंद्र पुनेठा-मुक्तिबोध लेखक और कलाकार की स्वतंत्रता को समाज-सापेक्ष या समाज-स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। क्या यह एक तरह से लेखक और कलाकार की स्वतंत्रता में कुछ प्रतिबन्ध स्वीकारना तो नहीं है?क्या आपको लगता है कि किसी समूह या संगठन का हिस्सा रहते हुए एक लेखक अपनी स्वतंत्रता को बनाए रख सकता है?

जीवन सिंह- इस सम्बंध में मुक्तिबोध की मान्यता को ही समझना चाहिए। उनके एक लम्बे निबंध समाज और साहित्यमें उन्होंने कहा है, ‘‘प्रत्येक युग, अपनी सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति की अनुभूत आवश्यकता के अनुसार अपना साहित्य निर्माण किया करता है।’’ उन्होंने साहित्य और कला में मूल्यवान क्या होता है जैसे प्रश्न को समाज के साथ काल-सापेक्ष्य मानते हुए कहा है कि यदि हम सम्पूर्ण मानव समाज के विकास क्रम को देखें तो पायेंगे कि मनुष्य समाज ने प्रत्येक प्रत्येक नवीन समाज रचना में पूर्वकालीन समाज-रचना से अधिक स्वतंत्रता पायी है। स्वतंत्रता जिस तरह से समाज और काल-सापेक्ष्य होती है उसी तरह वह व्यक्ति-सापेक्ष्य भी होती है। यह बात एक लेखक को ही सुनिश्चित करनी होती है कि वह प्रदत्त स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करता है? वह अपनी ऐतिहासिक, सामाजिक स्थिति की आवश्यकताओं के अनुसार अपने प्रधान विषय चुनता है। इन विषयों में वह तत्कालीन मानव सम्बंध, विश्व दृष्टि और जीवन मूल्यों को व्यक्त करता है। अब यह लेखक की अपनी मूल्य दृष्टि और वर्गीय जीवनानुभवों की ग्राहकता से तय होता है कि उसने प्राप्त स्वतंत्रता का कितना और किस तरह से उपयोग किया है। ऐसे भी लेखक होते हैं जो प्राप्त स्वतंत्रता का पूर्ण उपभोग करने से साहित्येतर कारणों से नहीं कर पाते। देश को आजादी मिलने के बाद पहले के कई लेखक ऐसे थे जिन्होंने अपनी दिशा और दृष्टि दोनों को बदल लिया था। तब भी नागार्जुन।त्रिलोचन, केदार और मुक्तिबोध सरीखे लेखकों ने अपनी घोर उपेक्षा सहकर तत्कालीन स्थितियों से समझौता नहीं किया और प्राप्त स्वतंत्रता का अपनी दृष्टि और मूल्य विवेक के अनुसार उपयोग किया।

किसी लाभ-लोभ से लेखक स्वयं अपनी स्वतंत्र स्थिति पर सेंसर लगा लेता है या उसके अनुभव संसार की परिधि उसके आकार को स्वयं छोटा कर देती है। मध्य वर्ग के लेखक जो लोक की बात करते हैं, वे भी लोक के दुख-दर्द की बात तो करते हैं और श्रम करते हुए लोक के सौन्दर्य का आख्यान भी रचते हैं किन्तु कोई अपवाद स्वरूप ही उन कारणों का तथ्यपूर्ण विश्लेषण कर पाता है, जिसकी वजह से उसके दुख-दर्दों की अनन्त श्रृंखला सी चलती रहती है।उनमें स्वयं मध्यवर्ग की स्थिति और वास्तविक भूमिका का शायद ही उसे कोई ऐसा बोध रहता है कि जो उन स्थितियों को बदलने में एक ईमानदार भूमिका अदा कर सके। यह स्वयं लेखक पर ही निर्भर करता है कि वह प्राप्त स्वतंत्रता का उपयोग किस उद्देश्य से करता है। लेखक संगठन और समूह में रहते हुए भी लोकतांत्रिक स्थिति में कोई ऐसी पाबंदी नहीं होती कि वह अपनी स्वाधीनता का उपयोग न कर सके। समाज भी एक समूह ही होता है जिसके द्वारा लगाई गई अनेक तरह की पाबंदियों के भीतर रहते हुए भी यह व्यक्ति और उससे निर्मित कोई समूह ही होता है जो अमानवीय स्थितियों के विरुद्ध वातावरण बनाकर एक दिन उनको तोड़ डालता है।

महेश चंद्र पुनेठा- मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अंतरात्मा के कठोर नियमों के अनुशासन की बात भी करते हैं। उनका मानना है कि इस अनुशासन के बिना व्यक्ति स्वातंत्र्य निरर्थक और विकृति हो जाता है ,खोखला हो जाता है। यह अंतरात्मा के कठोर नियमों के अनुशासन से उनका क्या आशय है? यह किस प्रकार संभव है?

जीवन सिंह- लेखक की अन्तरात्मा एक दिन में नहीं बनती। वह निरन्तर बदलती और विकसित होती है।वह एक जगह पर स्थिर और जड़ नहीं होती।इस बारे में उनकी एक कविता हैअन्तःकरण का आयतन’,जिसके बारे में वे बतलाते हैं कि यह संक्षिप्त होता है,।मनुष्य की बुद्धि इतनी कम है और उसके सामने यथार्थ इतना विस्तृत और उलझा हुआ है कि उसे केवल एक लेखक अपनी सीमित ग्यान प्रक्रिया से नहीं जान सकता।इसलिए उसे सम्पूर्ण जगत की ग्यान और भाव प्रक्रिया में शामिल होने और रहने की जरूरत होती है तभी वह उसका सर्वश्लेषी आकलन करने में समर्थ हो पाता है।उनके लिए अन्तरामा का प्रश्न उनकी या एक लेखक की अपनी आत्मा का सवाल नहीं है।इसका सम्बंध सम्पूर्ण जगत और उसकी स्थितिजन्य वास्तविकताओं से है,जिनको विश्व ग्यान परम्परा में जाकर समझना पड़ता है।इसीलिए एक व्यक्ति की अन्तरात्मा का आयतन संक्षिप्त ही रहता है।उसके विस्तृत करने की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है।उसे राष्ट्रीय परिधियों में सीमित ज्ञान से भी आगे विश्व ज्ञान परम्परा में शामिल होने की जरूरत होती है।तभी असल में अन्तरात्मा का प्रयोजन पूरा हो पाना संभव है।वे संसार से असावधान रहने वाले लेखक के बारे में यह भी बतलाते हैं कि मनुष्य कभी कभी अपने ही बनाए जाल में फँस जाता है और अपनी अन्तरात्मा के प्रयोजनों के मार्ग से स्वयं ही हट जाता है और अपने जीवन में तरह तरह के समझौतों का शिकार होकर अपना रास्ता तक बदल लेता है।इस तरह के समझौतों से उसका व्यक्तित्व नपुंसक हो जाता है।

यही अन्तरात्मा का कठोर अनुशासन है कि वह समझौता विहीन जिन्दगी जीता हुआ न केवल अपने अन्तः:करण के आयतन का विकास करे वरन इस प्रक्रिया को कभी शिथिल न होने दे।यह संसार लेखकों द्वारा बनाया हुआ नहीं है बल्कि यह अपनी गति से चलता है।लेखक को पहले इसके सत्य को जानना पड़ता है ।चूंकि आज का संसार अपनी गति को बहुत तेज कर चुका है इसलिए उसे समझने के लिए लेखक को भी उसी तरह की तैयारियों की जरूरत होती है।यही है उनके कठोर अनुशासन की प्रक्रिया।यह संसार कितने ही तरह के प्रलोभन पाशों में लेखक को फँसाता है जिससे वह अपना मार्ग बदल ले।वैसे भी अधिकांश लेखक यश पाने और धन अर्जित तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। इस वजह से भी कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है।

चूंकि इस संसार में किसी का भी व्यक्ति स्वातंत्र्य खरीदा जा सकता है और इसे बेचा भी जा सकता है।जो आजकल खूब हो रहा है। इससे लेखक के अन्तःकरण का आयतन विस्तृत होने के बजाय सिकुडता जाता है और एक लेखक के रूप में वह शीघ्र ही मृत्यु का शिकार हो जाता है या फिर एक समय की ढर्रे प्राप्त बातों को ही आजीवन दुहराता रहता है। उसके विकास की प्रक्रिया एक जगह आकर दम तोड़ देती है लेकिन वह अपनी ही बात पर अड़ा रहता है।वे यह भी मानते हैं कि जो व्यक्ति स्वातंत्र्य समाजवाद और जनतंत्र के समन्वय में बाधक हो या इन दोनों में से किसी भी एक का उत्सर्ग करने के लिए उत्सुक हो,ऐसे व्यक्ति स्वातंर्त्य की वे निन्दा करते हैं और इसे वे तिरस्करणीय मानते हैं। वे कहते हैं कि समाजवाद, जनता की, जनसाधारण की मुक्ति का राजपथ है।लेखक का यह प्रयोजन उसके अनुशासित व्यक्ति स्वातंर्त्य ,विश्व ज्ञान प्रक्रिया में उसकी ईमानदार संलग्नता और अपनी समृद्ध होती हुई संवेदनात्मक प्रक्रिया तथा तदनुरूप आचरण से ही संभव है। 

महेश चंद्र पुनेठा- यह बात बिलकुल सही है कि एक लेखक समझौता विहीन जिंदगी जीता हुआ न  केवल अपने अन्तःकरण के आयतन का विकास करे वरन इस प्रक्रिया को कभी शिथिल न होने दे। निश्चित रूप से यह कठोर अनुशासन है. आपको क्या लगता है आज का कवि-लेखक इस कठोर अनुशासन का पालन कर पा रहा है? आपके पास कुछ उदाहरण हों तो जरूर उल्लेख कीजियेगा।

जीवन सिंह- आज के अधिकाश लेखक उस मध्य वर्ग से आते हैं जो धीरे धीरे नव धनाढ्य वर्ग में शामिल हो रहे हैं।उनके पास जिन्दगी की वे सभी उच्चतर सुविधाएं मौजूद हैं जो कभी उच्च वर्ग के पास हुआ करती थी।इसके साथ वह निम्न मध्य वर्गीय लेखक भी है जो औसत जिन्दगी में संतोष कर लेता है।इस तरह का वर्ग विभाजन उनकी संवेदना भूमि की परिधि को तय करता है क्योंकि जिन बातों का कभी अनुभव ही लेखक को नहीं हुआ ,उनको वह रचना में कैसे ला सकता है।अखबारी अनुभव भी बहुतों को होते हैं जैसे किताबी ज्ञान से होता है ।किन्तु क्या कबीर की यह बात आज भी सच नहीं है कि पोथी पढ़ने मात्र से कोई पंडित नहीं होता।पंडित होने के लिए जीवन संग्राम में उतरना जरूरी है।जितनी दूर तक जो उतरेगा ,उसकी रचना भी उतनी ही दूर तक उसका साथ देगी।रचना कर्म की पहली सीढ़ी इन्द्रियबोध है,जिससे उसके जीवनानुभव समृद्ध होते चलते है।सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और लेखक के लिए सबसे ज्यादा काम की यही सीढ़ी है।इसी के ऊपर रचना का भवन निर्मित होता है।इन्द्रियाँ ही उसे बतलाती हैं कि जिन्दगी के सबसे निचले धरातल पर क्या चल रहा है।ग्यानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दोनों मिलकर रचना की आधार भूमि का निर्माण करती हैं क्योंकि यथार्थ और क्रूर एवं कठोर वास्तविकताओं को प्रामाणिक तौर पर मालूम करने का कोई दूसरा जरिया नहीं होता।इन सवालों पर विचार करते हुए जब आज के रचनाकार और उसके रचना संसार को देखते हैं तो बहुत कम लोग ऐसे दिखाई देते हैं जो अपना लेखन पूरी ईमानदारी और तैयारी के साथ कर रहे हैं।अधिकांश लेखक तो अपनी अस्तित्वगत मजबूरियों के चलते इसे सहलेखन की तरह करते हैं।यानी आजीविका से अलग।

पिछले पच्चीस सालों से जिस तरह की नई भौतिक परिस्थितियाँ पूरे विश्व और अपने देश में बनी हैं उनमें मध्य वर्ग में भी अलगाव की प्रक्रिया बहुत तीव्र हुई है जो एक तरफ व्यक्तिवादी दर्शन की राह दिखाती है ,साथ ही आत्ममुग्धता को भी बढ़ाती है।इससे तेजी से लेखक की सक्रिय और व्यवहारगत सामाजिकता का तेजी से क्षरण हुआ है।उसका मूल्य पक्ष भी दुर्बल हुआ है।धीरे धीरे उद्देश्यों ने भी दिशा बदल ली है।कुलमिलाकर आज के लेखक के लिए रचना कर्म करना और अपने सिद्धांत पर टिके रहना तथा नए यथार्थ को समझ पाना पहले से मुश्किल हुआ है।मौकापरस्त लेखकों की बाढ सी आ गई है।

महेश चंद्र पुनेठा- साहित्यकारों की नयी पीढ़ी में इस दृष्टि से आपको क्या संभावना दिखाई देती है?

जीवन सिंह- संभावना हर युग में होती हैं।किसका क्या पता कि कब कौन अपनी साहित्य-साधना और जीवन-साधना को एकरूप कर ले।यद्यपि मौजूदा स्थितियों और परिस्थितियों में ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है।सुख-सुविधाएं इतनी अधिक हो गई हैं और मध्य वर्ग के लिए अब जीवन यापन करने जैसी कठिनाई भी लगभग समाप्त हो गई है।दूसरी तरफ निम्न मेहनतकश की मुश्किलें ज्यादा बढ़ जाने से मध्य और निम्न वर्ग में अलगाव और फासला दोनों ही बहुत बढ़ गये हैं।इस वजह से मध्य वर्ग से आने वाले लेखक समुदाय के अन्तःकरण का आयतन विस्तृत होने के बजाय सिकुडने की स्थितियों में आ गया है।ऐसी स्थिति में ज्यादातर लेखक अपने सीमित अनुभवों में ही शिल्पगत वैशिष्टय के माध्यम में या अपने एक ही क्षेत्र के अनुभवों से प्राप्त बारीकियों को उकेरने तक ही सीमित रहने का खतरा उत्पन्न हो गया है ।इससे कला के आयाम तो विकसित अवश्य होते हैं किन्तु साहित्य का प्राण तत्व कमजोर पड़ जाता है।

मुझे तो उन युवा मित्रों में ज्यादा संभावना नजर आती है जो साहित्य-साधना के साथ जीवन-साधना भी करते हैं।हमारे साहित्य की परम्परा ही इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।भक्ति काल और आधुनिक काल के साहित्य से ही इसको समझा जा सकता है।भक्ति का्ल का कवि साहित्य से आगे जीवन को रखता है इसलिए दरबारों की शरण में नहीं जाता ।सूर,तुलसी चाहते तो अकबर के दरबार में जा सकते थे।एक जनश्रुति है कि तुलसी के लिए रहीम ने ऐसा प्रयास किया भी था कि वे अकबर की मनसबदारी स्वीकार कर लें ।तो पता है उन्होंने क्या उत्तर दिया... हम चाकर रघुबीर के,पटौ लिखौ दरबार । तुलसी अब का होंहिगे , नर के मनसबदार।। सूर से आयु में बड़े अष्टछाप के प्रमुख कवि कुंभनदास का वह पद तो प्रसिद्ध है ही ,जिसका संबंध अकबर से ही बतलाया जाता है।उनका यह मशहूर पद है-संतन कौ कहा सीकरी सौं काम। आबत जात पनहिया टूटी, बिसर गयौ हरि नाम। जिनकौ मुख देखे दुख उपजत ,तिनकौं करिबे परी सलाम। कुंभनदास लाल गिरधर बिनु,और सबै बेकाम।

इससे दरअसल, यह पता चलता है कि एक कवि या रचनाकार को कैसा होना चाहिए। किसी भी तरह की सत्ता और प्रलोभनों से उसका कैसा रिश्ता होना चाहिए । क्योंकि इस दुनिया में चारों तरफ तरह तरह के प्रलोभनों का जाल फैला हुआ है जिसमें व्यक्ति को उलझाकर उसकी धार को कुन्द कर दिया जाता है। भक्तिकाल के बाद जब हिन्दी कविता राजदरबारों में प्रवेश कर गई तो आम जन से कट गई।वह राजदरबारों को रिझाने का काम करने लगी और उसके बदले में कविगण इनाम-इकरार और जागीर पाने लगे।उनको अपने समय में अपार धन और वैभव हासिल हुआ ।कविता रचने की प्रतिभा उनमें कम नहीं थे।वे बेहद प्रतिभाशाली और मेधा के धनी थे जिसका उपयोग उन्होंने निजी हित यानी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए किया ।इस वजह से उनकी कविता लोकहृदय से दूर हो गई ।जब तक राजदरबार रहे ,उस कविता को महत्वपूर्ण माना गया।उसकी कीर्ति कथाएं भी साहित्यशास्त्र में लिखी गई लेकिन जब राजदरबारों की जगह पर लोकतंत्र आया तो उनकी सचाई सबके सामने आ गई।सबको मालूम हो गया कि ये प्रतिभाशाली तो हैं किन्तु उसका उपयोग इन्होंने निजी फायदे के लिए किया है।इनके जीवन में वैसा त्याग और कुर्बानी का भाव नहीं है जो भक्तिकाल के कवियों में था या आधुनिक काल में भारतेन्दु, महावीरप्रसाद द्विवेदी ,प्रेमचंद, निराला,आचार्य रामचंद्र शुक्ल,मुक्तिबोध सरीखे लेखकों में था।इनमें दो का सम्बंध-प्रेमचंद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का अलवर के तत्कालीन राजदरबार से जुड़ा। 1908में अलवर के तत्कालीन नरेश जयसिंह ने अपनी रियासत की राजभाषा हिंदी को घोषित कर दिया था और इस काम को अंजाम देने के लिए काशी से उक्त दोनों हिंदी विद्वानों को अच्छे वेतन-भत्तों और अन्य राजसी सुख-सुविधाओं के साथ अलवर आमंत्रित किया गया था। इनमें प्रेमचंद ने राजदरबार की नौकरी करने से साफ इन्कार कर दिया। उनकी पत्नी शिवरानी जी ने जब उनके न जाने का कारण जानना चाहा तो प्रेमचंद ने जवाब में कहा कि अलवर जाने पर मैं राजा का लेखक रह जाता, जनता का नहीं।कहते हैं कि अपने परिवार के दबाव में शुक्ल जी यहाँ चले तो आए किन्तु एक-दो माह से ज्यादा टिक न सके ।ये प्रसंग दरअसल इस बात के प्रमाण हैं कि लेखक के लेखन का प्रयोजन और उसके जीवन मूल्य क्या हैं? और उसके लिए उसकी तैयारी और उसका तरीका क्या है?इसका तात्पर्य यह भी है कि लेखक चाहे कितना ही प्रतिभाशाली है किन्तु उसकी जीवन-साधना और प्रयोजन सही दिशा में नहीं हैं और वह.केवल यश या अर्थार्जन के लिए साहित्य रचता है तो वह अपने समय में भले ही चर्चित हो जाय, बड़े बड़े सम्मान और पुरस्कार भी पा जाय किन्तु वह जनता के सम्मान का भागी नहीं बन सकता।अब आप स्वयं ही इस कसौटी पर अपने समय के साहित्यकार को देख लीजिए तो बहुत कम ऐसे साहित्यकार मिलेंगे ,जो किसी भी तरह की तिकडम, जोड-तोड से दूर रहकर अपने पुरखों जैसी जीवन और काव्य-साधना में लगे हों। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि इस समय ऐसा कोई भी नहीं है।आज भी सत्ता प्रलोभनों से दूर ऐसे लोग हैं जो अपनी साधना में ईमानदारी से लगे हुए हैं।मैंने आपको ही नजदीक से देखा है कि आपने अपने शिक्षक होने के दायित्व को कितनी सक्रियता और ईमानदारी से अंजाम दे रहे हैं।यही आपके रचना-कर्म में सहायक होगा ।जो अपनी जिन्दगी में ईमानदार नहीं ,वह रचना में भी कम फ्राड नहीं करता। मुक्तिबोध ने अपनी डायरी में एक जगह पर लिखा है जिन्दगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है।वह एक प्राइमरी स्कूल है,जहाँ टाट-पट्टी पर बैठना पड़ता है,जरा-सी बात पर चाँटे के आघात की सारी संवेदनाएं गालों पर झेलनी पड़ती हैं।तो जो जिन्दगी को एक सरकारी प्राइमरी स्कूल मानकर चलता है वही जिन्दगी के बुनियादी सरोकारों तक अपनी पँहुच बनाए रख सकता है।जिसकी जिन्दगी एक विश्वविद्यालय की तरह है उसका साहित्य भी जिन्दगी की बुनियाद से उतना ही दूर मिलेगा।पिछले दिनों मैं एक प्रतिभाशाली युवा रचनाकार अच्युतानंद के सम्पर्क में आया।उन्होंने कविता-कर्म भी किया है किन्तु इन दिनों वे आलोचना-कर्म में संलग्न हैं।वे आज के सभ्यता संकट और रचना कर्म से जुडे सवालों पर काम करने में लगे हुए हैं।जब हम इस तरह से सभ्यता के संकट को जानने की कोशिश करते हैं तो कोई विकल्प अवश्य निकल कर आता है।श्री मिश्र ईमानदारी से अपना काम कर रहे हैं।उन्होंने मध्यवर्ग में तेजी से बढ़ रही अलगाव की प्रवृति और आधुनिक विग्यान के अध्ययन के साथ फिर से आधुनिकता का सवाल तथा ज्ञान और ताकत का साझा इतिहास जैसे सभ्यता से सम्बंधित नए सवालों पर गहनता से विमर्श किया है।उनकी जिज्ञासा और ज्ञानात्मकता का क्षेत्रविस्तार रचना कर्म के लिए भी आवश्यक है।हमें इस तरह के सवालों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। पिछले दिनों जब शुभम श्री की कविता पोएट्री मैनेजमेंटपर कवयित्री को भारतभूषण अग्रवाल सम्मान घोषित किया गया तो कविता के पारम्परिक हल्कों में बड़ा बावेला मचा। जबकि मैं यह मानकर चलता हूँ कि वह एक संभावनाशील कवयित्री हैं। उन्होंने सभ्यता के संकट के उस बिन्दु को पकड़ा है और उस प्रवृत्ति की मजाक उडाई है जो मध्य वर्ग में तेजी से पनप रही है। उसने कविता को आत्मपरक भावुकता से आगे ले जाकर वस्तुपरक जमीन पर खड़ा किया है और उसके लिए पुराने शिल्प को भी ध्वस्त कर दिया है।हर समय की कविता की एक लीक बन जाती है। नयी से नयी कविता की भी।जब उसको कोई तोड़ता है तो हलचल मचती है। जबकि हमारी जिन्दगी हमारे नियंत्रण में नहीं है। उस पर विश्व शक्तियों का नियंत्रण हो चुका है और हम हैं कि अपनी ही ढपली बजाए चले जा रहे हैं।ढर्रे पर चलने से कुछ भी होने वाला नहीं है।उससे एक तरह का रीतिवाद पैदा हो जाता है।दूसरी बात यह है कि कला का काल भी बहुत छोटा नहीं होता।समझदारी आने में समय लगता है।मैंने किसी रूसी किताब में पढ़ा है कि हमारा जीवन हमारे चारों तरफ नए नए कार्य प्रस्तुत कर रहा है।हमें खुद को नई बात के अनुकूल बनाना पड़ता है।अठारह वीं-उन्नीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध महान जापानी चित्रकार होकुसाई ने कहा था कि उन्होंने छः साल की उम्र से चित्र बनाना शुरु किया।पचास साल तक कई चित्र बनाए, लेकिन सत्तर साल की उम्र पर पँहुचने पर ही मैं कुछ महत्वपूर्ण कर पाया, इससे पहले नहीं।73साल की उम्र में मैंने जानवरों, चिड़ियों,कीटों और पौधों की संरचना का अध्ययन किया।उन्होंने कहा कि अस्सी साल की उम्र तक मेरी कला विकसित होती रहेगी। 90साल की उम्र पर पँहुचकर ही मैं कला के मर्म को समझ पाने में समर्थ हो पाँऊगा।
 
इस तरह से मैं कह सकता हूँ कि नयी युवा पीढ़ी में कुछ रचनाकार ऐसे अवश्य हैं जो रचना कर्म के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाए होंगे ।संभावनाएं हमेशा नई पीढ़ी और नया सोच रखने वालों में ही होती हैं।जो पुराने हो चुके हैं वे तो हर बात को अपने ही रंग में देखना चाहते हैं।इनमें बुनियादी उलट फेर भाषा के तर पर हुआ है।धीरे धीरे अँग्रेजी का इतना प्रभुत्व व वर्चस्व बढ़ गया है कि वह गाँवों के दरवाजों और खेतों तक जा पँहुची है।उसने देश की भाषाओं के भीतर अपनी घुसपैठ कर ली है।यह सब मध्य वर्ग की बढ़ती और नीचे के श्रमिक वर्ग की घटती ताकत का एक छोटा सा सबूत है।बाजार और आवारा पूँजी ने इस खेल को इतना फैला और बढ़ा दिया है कि अब सारी दुनिया एक मैनेजमेंट होकर रह गयी है।मनुष्य की अवधारणा तक को बदला जा रहा है और हम अपना पुराना राग ही आलापने में लगे हैं।अब हमारी भाव प्रणाली पर भी इन बातों का असर हुआ है।इस वजह से आज के ताकतवर होते मध्य वर्ग और निम्न वर्ग के बीच अलगाव की खाई तैयार हुई है।पुराने समय में एक व्यक्ति के दस-पाँच मित्र हुआ करते थे,अब फेसबुक ने मित्रों की संख्या बढ़ाकर पाँच हजार कर दी है।इस बारे में अच्युतानंद ने अपने एक आलेख में सवाल उठाया है कि क्या इस तरह के मित्र-संवाद की प्रक्रिया में हमारा जैविक अस्तित्व उसी तरह सक्रिय होगा ,जैसे कि पहले था।फिर इस पाँच हजार की संख्या के साथ हमारे मस्तिष्क का तालमेल किस तरह का होगा ? किस किस्म की तार्किक संवेदना हमारे मस्तिष्क में निर्मित होगी?‘इस तरह के सवालों को उठाते हुए आखिर में एक प्रश्न वे छोड़ते हैं कि इन प्रक्रियाओं से होकर जो मनुष्य बनेगा।क्या वह स्थायी रूप से अधिक क्रूर, अधिक यांत्रिक और अधिक अमानवीय नहीं होगाष्? ऐसे बदले और हर साल तेजी से बदलते समय में कविता के मानदंड क्या पुराने ही रहेंगे ?कविता के रूप-स्वरूप में क्या कोई बदलाव नहीं होगा?कविता के वनोद्यान में क्या एक ही तरह की तरुमालाएं होंगी या जीवन में आ रही भिन्नता की तरह उसमें भी अनेक तरह के फूल खिलेंगे? आज भी कविता में पुराने ढंग की कविताएं खूब लिख रहे हैं ।गीत-गजल भी खूब लिखी जा रही हैं ।सभी तरह का काव्य-व्यापार चल रहा है।उसमें यदि कोई साहसिक कवयित्री कोई जोखिम उठाती है और किसी नए रूप विधान में नयी बात को लाती है तो पुरानी बातों को मानते हुए भी नए का स्वागत नहीं किया जाना चाहिए ?

महेश चंद्र पुनेठा- आपने शुभम श्री की कविता पोयट्री मेनेजमेंटका उल्लेख किया है। इस पर पिछले दिनों सोशियल मीडिया में बहुत अधिक चर्चा हुयी। बहुत सारे कवि-आलोचकों का कहना था कि यह कविता होने की शर्तों को भी पूरा नहीं करती। इसमें तो न लय है और न ही काव्यात्मक भाषा। उस लद्धड गद्य का एक नमूना है जैसा आज की बहुत सारी अमूर्त और अबूझ कविताओं में दिखाई देता है। इस तरह की कविताएं आज बहुतायत में लिखी जा रही हैं। जैसा कि आप मानते रहे हैं कि एक अच्छी कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है,सामाजिकता के तीखे प्रश्नों से रु-ब-रु होती है, समय और समाज के यथार्थ और जीवन सौन्दर्य को व्यक्त करती है, वेदना के स्रोतों को संगत और पूर्ण निष्कर्षों तक पहुंचती है, मध्यवर्ग की सीमाओं को तोड़कर लोक के दुःख-दर्द और संघर्षों तक ले जाती है,उसमें अपनी जमीन की खुशबू होती है,जीवन की आवेगमयी अन्तर्व्याप्ति होती है, स्वयं के जीवन की ईमानदार और सच्ची अभिव्यक्ति होती है,इन्द्रियबोध की विलक्षणता होती है, उसमें मनुष्य जीवन का एक बड़ा सत्य व्यक्त होता है, जीवन का यथार्थ कविता बनता है ,अपने रंजक धर्म से पाठक के हृदय में प्रवेश करती और उसे अपना दोस्त बना लेती है, हृदय के रस्ते मन-मष्तिष्क तक पहुँचती है आदि-आदि। क्या आपको लगता है कि शुभम श्री की यह कविता उक्त कसौटियों से कुछ में भी खरी उतरती है? यदि हाँ तो इसके कविता होने पर ही प्रश्न खड़े करने वालों की काव्य समझ के बारे में क्या कहेंगे?

जीवन सिंह- इस तरह का ध्यानाकर्षण तो शायद इस कवयित्री की तरफ भी नहीं होता यदि इसकी एक कविता पर भारतभूषण अग्रवाल सम्मान की घोषणा न होती तो।शुभम श्री तो इससे पहले से लिख रही हैं।पहले भी एक बार इनकी कविताएं फेसबुक पर ही मेरी नजर में आईं थी।तब भी मेरे मन पर उनकी नवीनता का असर हुए बिना नहीं रहा था।ऐसा ही जब पहली बार शाहनाज इमरानी की कविताएंष्कृति ओर सम्मानष् के संदर्भ में पढ़ने को मिली थी तो उनका एक प्रभाव मन पर कायम हुआ था।नवीनता का भी अपना आकर्षण होता है और उसका पता पहली बार तभी चलता है जब उनमें कोई बात लीक से हटकर होती है।शुभम श्री की कविता का बदलाव कविता की अन्तर्वस्तु और उसके रूप विधान दोनों स्तरों पर है।उन्होंने कविता को मध्य वर्ग में तेजी से पैर पसार रही बोलचाल उस नयी भाषा में कविता को रचा है जो एक तरह से ऐसी संकर भाषा है जो जमीन से कटी हुई है।लेकिन है आज की वास्तविकता।वे उसे अपने व्यंग्य का निशाना बनाती हैं।ऊपर से जब हम उस भाषा को अभिधा में पढ़ते हैं तो वह कहीं से भी कविता नजर नहीं आती।इसके विपरीत वह कविता की खिल्ली उड़ाती जान पड़ती है।लेकिन वह व्यंजना में लिखी हुई कविता है जिससे उसकी पूरी संरचना का अर्थ बदल जाता है।इसीलिए तो वह कविता की लीक से अलग जाती हुई विरोध और विवाद का विषय बनती है।जिन्होंने ने भी कविता में इस तरह का नवाचार करने का प्रयास किया है,उनको विरोध झेलना पड़ा है।

दूसरे नवाचार करने वाले कवि भी जब किसी की नजर में आयेंगे, उनकी तरफ भी अवश्य ध्यान जायगा।देर-सबेर हो सकती है क्योंकि आज कोई ऐसा निश्चित स्थान नहीं है जहाँ कविता के प्रचलित सभी रूप सबको एक साथ पढ़ने को मिल जाते हों।इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि आज की वास्तविकता की जैसी पकड और उसको व्यक्त करने तथा हर तरह का जोखिम उठाने की जो शुरुआती समझ शुभम श्री के यहाँ है,वह विरल होती है।

महेश चंद्र पुनेठा-क्या आपको नहीं लगता है कि इस कविता को लेकर फेसबुक पर कुछ आवश्यकता से अधिक चर्चा हो गयी ?जो बहस हुयी क्या वह आपको किसी निष्कर्ष तक पहुँचती लगी? या कुछ लोग खारिज करने में और दूसरा बचाव करने में ही लगे रहे? क्या कुछ आवश्यकता से अधिक आक्रामक नहीं लगे?

जीवन सिंह- कविता के बारे में एक बार जिसकी जो धारणा बन जाती है,उसे छोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है। हम एक समय में बनी हुई धारणा के अनुरूप जब हर कविता को जाँचते हैं तो इस तरह के विवाद होते ही हैं।जब कोई चीज टूटती है तो आहट होती ही है।व्यक्ति किसी भी तरह की नवीनता को आसानी से स्वीकार नहीं करता :पहले उसका विरोध होता ही है।आज तक भी ऐसे लोगों और पाठकों की संख्या बहुत अधिक है जो मुक्त छंद में लिखी कविता के प्रति नानुकर का रवैया अपनाते हैं।कोई बात नहीं, ज्यादा चर्चा हो गई तो।मंथन से ही अमृत भी निकला और गरल भी।दधि मंथन के बाद नवनीत और छाछ दोनों निकलते हैं तब नवनीत ही नहीं, छाछ भी सेहत के लिए उपयोगी होती है।दोनों पक्ष एक दूसरे से सीखते हैं और इसी प्रक्रिया से बात आगे बढ़ती है बशर्ते कि बात सदाशयतापूर्वक और समझदारी बढ़ाने के प्रयोजन से की गई हो।जरूरी नहीं कि कोई बहस तुरंत किसी निष्कर्ष तक पहुंचे लेकिन निष्कर्ष की दिशा में जाने के लिए एक कदम ही सही ,बात आगे बढ़ती है।लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी यही है।जो लोग किसी बहस का तुरंत परिणाम चाहते हैं वे नहीं जानते कि एक छोटे से बीज से ही एक दिन छतनार वृक्ष बन जाता है।

जो किसी बात को खारिज करते हैं या बचाव करते हैं उनके बीच एक ऐसा तटस्थ वर्ग भी होता है जो बहस की तराजू के दोनों पलड़ों के वजन को देख लेता है।इसी से आगे कोई फैसला होने में मदद मिलती है।आक्रामकता की प्रकृति कैसी है बात इससे तय होती है।हमारे यहाँ एक कहावत है कि ठंडा करके खाना चाहिए।बहुत गर्म खाने से मुँह ही नहीं जलता, आँतों और पेट को भी नुकसान होता है। भोजन को चबा चबाकर खाने से जो रस बनता है वह जल्दबाजी से नहीं।आक्रामकता और आत्मरक्षा दोनों ही युद्ध कला के अन्तर्गत आते हैं। कई बार कोरी आक्रामकता बहुत नुकसानदेह होती है।

संपर्क- डॉ0जीवन सिंह 1/14अरावली बिहार, अलवर-301001 (राजस्थान)
महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502








वर्तमान सन्दर्भ में उत्तरभारतीय तालों का व्यावहारिक स्वरूप: एकअध्ययन

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वर्तमान सन्दर्भ में उत्तर भारतीय तालों का व्यावहारिक स्वरूप: एकअध्ययन

श्रीमती ललिता, शोधार्थिनी, संगीत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल
डा०रेखा साह, असिस्टेन्ट प्रोफेसर, संगीत विभाग, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

संगीत प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ प्रदत्त कला है। संगीत का स्वरूप प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है, जिनका अनुभव जीवमात्र के द्वारा निरन्तर किया जाता है। प्रकृति संगीत की जननी है, परन्तु संगीत में स्वर तथा लय इसके आधार स्तम्भ है जिनके बिना संगीत का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। प्रकृति की रचनाओं मेंस्वर तथा लय का स्वरूप परिलक्षित होता है, जैसे : कोयल के कूकने का स्वर, नदियों की निर्झर ध्वनि, पक्षियों का चहकना, अन्तरिक्ष में ग्रह एवं नक्षत्रों की समान गति, मनुष्य की ह्र्दयगति, धमनियों में रक्तप्रवाह आदि,यह सब प्रकृति के द्वारा प्रदान की हुई गति है, जिसको मनुष्य ने जाना व पहचाना तथा प्रकृति की गति व ध्वनि को स्वर तथा लय का नाम दिया, इन्ही के आधार पर संगीत की रचना की जाती है। संगीत में समय के असीमित काल को निश्चित समय में बांधने के लिये ताल की परिकल्पना की गई जो कि मानव के अंक ज्ञान के पश्चात ही संभव हो पाया।
"ताल"संगीत रचना का आधारतत्व है, मात्राओं की निश्चित आवृति को ताल का स्वरूप दिया गयासंगीत के मूल तत्व स्वर तथा लय है परन्तु आधार ताल ही है। ताल पर ही संगीत को स्थापित किया जाता है, यदि गायन, वादन तथा नृत्य से ताल को निकाल दिया जाये तो संगीत, प्राण शुन्य शरीर की भांति हो जायेगा। संगीत में स्वर सीमित हो सकते है, परन्तु ताल की कोई सीमा नही है। ताल गति का निश्चित क्रम संगीत को रसानुभूति तथा स्थायित्व प्रदान करता है।
पाण्डे, शुधांशु (२०१३) संगीत रत्नाकर के अनुसार:
                                                तालस्तलप्रतिष्ठाय मितिधातोर्धत्रिस्मृत:
                                                गीतं वाद्यं तथा नृत्ययतस्ताले प्रतिष्ठितम॥

अर्थात: प्रतिष्ठा अर्थवालीतलधातु मेंधञप्रत्यय लगाने पर ताल शब्द बनता है, गीत, वाद्य और नृत्य इसमें सम्मिलित होते है, यहां पर प्रतिष्ठा का अर्थ व्यवस्थित करना, एक सूत्र में बांधना तथा आधार प्रदान से है, अर्थात गीत, वाद्य एवं नृत्य के विभिन्न तत्वों को व्यवस्थित या आधार प्रदान करने वाला ताल ही है।
राताजन्कर, एस. एन. (१९४०)
 वैदिक काल में ताल की परिकल्पना की गई, महान ऋषियों ने वेदों का संकलन सूक्तिबद्ध किया, उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित प्रणाली ह्र्स्व, दीर्घ एवं प्लुत उच्चारणो द्वारा वेदों की संगीत प्रणाली विकसित हुई जो आगे चलकर छंदोबद्ध हुए और पिंगलशास्त्र का निर्माण हुआ| दर्शनकाव्य आदि समस्त शास्त्र छंदबद्ध बनाये गये जिससे वे स्वर ताल और लय में गाये जा सके और सुगमता से कंठस्थ किये जा सके।
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)
निश्चित ही तालों की युक्ति छन्दों द्वारा ही प्राप्त की गई क्योंकि छन्दों के समानताल में भी समान वर्ण, मात्रा, लय, गति यति और चरण सम्बन्धी नियमों का पालन किया जाता है।
मिश्र, छोटेलाल (२००६)  
ताल पद्धति से तात्पर्य यह हैकि ताल व्याख्या, ताल गठन के नियम, ताल खण्ड, निश्चित पटाक्षर, सशब्द निशब्द क्रिया, ताल प्रस्तुति, ताल विस्तार आदि का विवेचन। नाटयशास्त्र में ताल की परिभाषा इस प्रकार की गयीहै"कलापात और लय से युक्त जो काल विभा गया परिणात्मक प्रमाण जो घनवर्ग में आता है ताल कहलाता है"। साधारण व्यवहार के काष्ठानिमेश या पल के परिमाण को ताल प्रसंग में कला नही कहा जाता।५ निमेशकाल को मात्रा कहते हैतथा एक मात्रा से, अथवा मात्राओं के योग से बनेगा न समय को कला कहा है।मात्राओं के तीन स्वरुप बताये हैं, लघू, गूरु, और प्लुत। लय के तीन प्रकार बताये है, द्रुत, मध्य, तथा विलम्बित। प्राचीनकाल में ताल लक्षणों के अनुसार मात्राकाल ही पात के द्योतक थे, प्रबन्ध या छन्दगायन होता था जिनगी तों में (गीतकों में) कहां कहां घात हो उस आधार पर धात का काल निश्चित किया जाता था और उसी अनुसार तालवादन होता था| "प्राचीनकाल के पूर्व में पंचमार्गी तालों का प्रचार था जिनका उल्लेख भरत ने नाटयशास्त्र में किया है। इन तालों का स्वरूप इस प्रकार है:

चचत्पुट:                                                                          Š                                              = मात्रा८
                                                                          ता           

चाचपुट:                                                                                                                        =मात्रा६
                                                             ता                         ता                           

षटपितापुत्रक                          Š                                                                    Š              = मात्रा१२
                                                             ता                         ता                         ता

सम्पक्वेष्टाक                              Š                                                     Š                              = मात्रा१२
                                                ता                         ता                         वा

उदघट                                                                                                                            = मात्रा६
                                                नि                        

प्राचीनकाल में मार्गी तालों के साथ देशी तालों की भी परिकल्पना की गई व असंख्य देशी तालों का निर्माण किया गया। सर्वप्रथमदेशी शब्दका उल्लेख मतंग मुनि नेवृहद्देशीमें किया है परन्तु तालाध्याय लुप्त होने के कारण देशी ताल का विवरण प्राप्त नही होता। शारंग्देव ने संगीत रत्नाकर में १२० तालों का विवरण प्रस्तुत किया है।नन्दिकेश्वर द्वारा रचित ग्रन्थ भरतार्वण में कुल ११२ तालों का वर्णन है, जिनको कि अंगों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। इन तालों में प्रथम पांच तालें मार्गीताल है तथा अन्य १०७ तालें देशी तालें है। इसमें सबसे कम मात्रा की ताल एकताला ही है जो कि आधे मात्रा की है एवं सबसे अधिक मात्रा की ताल सिंहनन्दन है जो कि ३२ मात्रा की है। इसी ग्रन्थ में ६ मात्रा, ८ मात्रा, ७ मात्रा, ९ मात्रा, १० मात्रा, १२ मात्रा, १४मात्रा आदि तालों का वर्णन भी प्राप्त होता है।

प्राचीन ग्रन्थों में समान मात्रा की विभिन्न तालों का विवरण भी प्राप्त होता है जैसे- आठ मात्रा की मार्गीताल चत्चप्पुटम तथा देशीताल, श्रीरंगताल, मण्ढताल, जयमंगलताल, नान्दीताल, प्रतिमढयताल, वर्णताल आदि। जिनका प्रयोग सम्भवत: भिन्न-भिन्न प्रकार की संगीत रचनाओं के लिए होता होगा। गर्ग, प्रभुलाल (१९४०) प्राचीनकाल में असंख्य देशीतालों की रचना की गई परन्तु कुछ ही तालों का प्रयोग संगीत में किया जाता था इस विषय मेंदूल्हाखाँजी ने स्वरसागर में लिखा है
                                                "पंचहजार नौ सौ कई, ताल कहावत नाम।
                                                इनमें ते सोलह लिए, इन से चलता काम॥"

भारतीय संगीत से भारतीय संस्कृति की पहचान होती है, प्राचीनकाल में तथा पूर्वमध्यकाल में मार्गी तथा देशी संगीत पद्धति प्रचार में थी, परन्तु उत्तरमध्यकाल में उत्तर पर मुस्लिम आक्रमण के पश्चात भारतीय संगीत के प्रारम्भिक स्वरूप पर अत्यन्त प्रभाव पडा तथा मुस्लिम शासकों की रुचि तथा उनके संगीत की विशेषतायें भारतीय संगीत में सम्मिलित होकर नवीन रुप में परिलक्षित हुई। भारतीय संगीत में ध्रुपद धमार का स्थान ख्याल गायकी ने ले लिया व अन्य संगीत शैलियाँ जैसे : टप्पा, ठुमरी, दादरा आदि श्रंगारिक शैलियों का प्रचार बढने लगा। मुगलों के प्रभाव के कारण भारतीय संगीत की दो पद्धतियों का निर्माण हुआ। उत्तरभारतीय संगीत पद्धति व दक्षिणी संगीत पद्धति, दक्षिणीभारतीय संगीत में प्राचीन भारतीय संगीत की सैद्धान्तिक गरिमा की रक्षा की गई है जबकि उत्तरभारतीय संगीत में ऐतिहासिक उत्थान-पतन के कारण संगीत का स्वरूप परिवर्तित हो गया।
कुदेशिया, शोभा (२०१२) आधुनिक काल दक्षिण भारतीय सप्त मुख्य तालों के प्रचार व विकास का ऐतिहासिक काल कहा जा सकता है। सोलहवीं शताब्दी में पितामह के रुप में विख्यात पुरन्दरदास नेअलंकार, गीत तथा कीर्तन आदि के साथ इन सप्तसुलादि तालों का प्रयोग किया एवं प्रचार में लाये। तदोपरान्त मद्रांचल, रामदास, क्षैत्रेयारामदासस्वामी आदि संगीतज्ञों ने अपनी रचनाओं द्वारा इन तालों को अत्यन्त समृद्धशाली बनाया, शीघ्र ही ऐसी स्थिति आयी कि प्राचीन तालों का लोप होकर इनका बहुलता से दक्षिणी संगीत में प्रयोग होने लगा। यह पद्धति"सप्तसूल्लादि"नाम से जानी गयी। प्राचीन तथा मध्यकालीन तालों में से इन सातों तालों का चुनकर इनका विकास हुआ तथा जाति भेद के आधार पर क्रमश: ३५ एवं १७५ तालों की रचना हुई |

वर्तमान दक्षिणी तालपद्धति का मुख्य आधार अंगजाति तथा सात तालें है। दक्षिणी सप्तताल- ध्रुव, मठ, रुपक, झम्प, त्रिपुट, अठ, तथा एक तालों को प्राचीन पद्धति के समान अणुद्रुत, द्रुत, लघु, गुरु, प्लुत तथा काकपद छ: अंगों के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है तथा जाति चतुरश्र, त्रयश्र, खण्डमिश्र और संकीर्ण के भेद के आधार पर 7X5=35 की रचना की जाती है।

उत्तरभारत में मुगल प्रभाव के कारण उत्तरीसंगीत प्राचीन संगीतपद्धति को संजोकर नही रख पाया, तथा उत्तरभारतीय संगीत में अनेक परिवर्तन आये। मध्यकाल में ध्रुपद तथा धमार गायकी का प्रचार था और पखावज का खूब प्रयोग किया जाता था, मुस्लिम आक्रमण और शासन के पश्चात भारतीय संस्कृति तथा कलाओं पर यवन संस्कृति का प्रभाव पडना प्रारम्भ हो गया, अकबर युग में ध्रुपद की चार बाणियां प्रचार में थी। मुगल शासक मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में अनेक व्यवसायी कलाकार थे, जिनमें से कुछ पखावजी तथा कुछ तबलावादक थे, तथा उस समय तबला तथा पखावज की घरानों की नींव पडने लगी। ध्रुपद तथा धमार शैली का प्रभाव कम होने के कारण और ख्याल गायकी का अधिक चलन होने के कारण पखावज का स्थान तबले ने ले लिया, इसके अलावा अन्य श्रंगार शैलियाँ ठुमरी, दादरा, टप्पा आदि प्रचार में आने लगी जिनका आधार तबला ही था और तबला बदलती जनरूचि के अनुसार सर्वश्रेष्ठ अवनद्धवाद्य बन गया।
बदलती मान्यताओं, जनरूचि एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण ताल प्रयोग तथा ताल स्वरूपों में भी अनेक परिवर्तन परिलक्षित होते है। प्राचीनकाल में निर्मित अधिक संख्या वाली क्लिष्ट तालें तथा उनके साथ रचित रचनायें लगभग समाप्त हो  चुकी है। क्लिष्ट तालों का स्थान अब सहज तालों ने ले लिया इनका निर्माण विभिन्न संगीत शैलियों के साथ संगत करने के लिये किया गया। संगीत में विभिन्न विधायें(गायन, वादन, नृत्य) तथा संगीत की विभिन्न शैलियाँ शास्त्रीय संगीत, उपशास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत, तथा लोकसंगीत में ताल के प्रयोग की विशिष्ट भूमिकाहै, शास्त्रीय संगीत की विधाओं में प्रयोग होने वाली तालों का प्रयोग उपशास्त्रीय संगीत, सुगमसंगीत, तथा लोकसंगीत में नही किया जाता है जैसे : ख्याल गायकी में प्रयोग होने वाली तालें तीनताल, झपताल, एकताल आदि का प्रयोग ख्यालगायकी एवं शास्त्रीय संगीत वादन तक ही सीमित रहता है। उपशास्त्रीय संगीत में प्रयोग होने वाली तालें दीपचन्दी, झपताल, पंजाबी, दादरा आदि तालों का प्रयोग ठुमरी, दादरा तक ही सीमित है, एवं लोकसंगीत हेतु विभिन्न प्रदेशों में लोक संगीत की आवश्यकतानुसार तालों का प्रयोग किया जाता हैतथा ध्रुपद-धमार शैली के साथ पखावज पर बजनेवाली चारताल, सुलताल, तथा तीव्रताल आदि का प्रयोग किया जाता है।

प्रत्येक तालरचना का उद्देश्य विभिन्न विधाओं के साथ संगत करना सार्थक सिद्ध होता है; विलम्बित ख्याल के साथ संगत हेतु एकताल, तिलवाडा, झूमरा तथा आडाचार आदि तालों को ही निश्चित किया गया, इन तालों में धागेतिरकिट जैसे बोलों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि धागेतिरकिट को जितना चाहे उतना विलम्बित किया जा सकता है, जैसे धाऽगेऽतिऽरऽकिऽटऽ |इन तालों का प्रयोग विलम्बित लय में सरलता से किया जा सकता है।
इसी प्रकार छोटा ख्याल में अधिकतर मध्यलय तथा द्रुतलय में तीनताल, रुपकताल तथा झपताल तालें प्रयुक्त तथा उपयुक्त सिद्ध हुई जिनमें तबलावादक अपने कौशल प्रयोग से ठेके का भराव, तिहाई, मुखडे, मोहरेरेले, कायदे आदि रचनाओं का प्रदर्शन सौन्दर्यानुभूति हेतु करता है। इसी प्रकार ठुमरी, टप्पा आदि श्रंगारिक शैलियों के लिए दीपचन्दी, रुपक, कहरवा, दादरा आदि श्रंगारिक तालों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें श्रंगाररस की उत्पत्ति होती है।

प्राचीनकाल में तालरचना केवल ताल के दस प्राण काल, मार्गक्रिया, ग्रह, अंग, जाति, कला, लय, यति, तथा प्रस्तार के आधार पर की जाती थी, परन्तु आधुनिककाल में उत्तरी संगीत में ताल प्राण के मूलस्वरूप में परिवर्तन हुआ। तालरचना के लिए नये सिद्धान्त निश्चित कर दिये गये जैसे:
. मात्राओं की संख्या
. ताल के अंग या विभाग
. ताल की जाति
. ताल क्रिया का स्थान
. ताल में बोलों का चयन

वर्तमान में तालों का प्रयोग तबले पर विभिन्न बन्दिशों कायदों का उलट-पलट कर प्रस्तार किया जाता है। विभिन्न गतिभेद अथवा लयकारियों के द्वारा चमत्कारिक प्रदर्शन किया जाता है|

कला हमेशा सामाजिक परिवर्तन से प्रभावित होती रहती है, वर्तमान तालव्यवहार में परिवर्तन भी सामाजिक वातावरण, जनरुचि के आधार पर परिलक्षित हुआ है। वर्तमान में ताल व्यवहारिक स्वरूप संगत, तन्त्रवाद्यों के साथ, नृत्य के साथ, वाद्यवृन्द, तालवाद्य कचहरी, जुगलबन्दी, फ़िल्मी संगीत तथा सुगम संगीत आदि के साथ प्रयोग किया जाता है

गायन वादन तथा नृत्य के साथ संगत:
अवनद्धवाद्यों का प्रयोग मुख्यरुप से गायन तथा अन्य संगीत शैलियों के साथ संगत हेतु किया जाता हैसंगतिशब्द का मुख्य अर्थ अनुसरण करना होता है, संगतकार का मुख्यकार्य गायन, वादन तथा नृत्य में लय तथा ताल को नियन्त्रित करते हुए संगत करना होता है। वादक, गायक या नर्तक कलाकार को रचनात्मक सांगीतिक सहयोग देता है, कई बार संगतकार गायक के दोषो को उजागर नही होने देते हैं। वर्तमान में वादक कलाकार ठेके को नये रुप में सौन्दर्यपूर्ण रचनात्मकता उत्पन्न करने में सक्षम है। शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद तथा धमार के साथ पखावज वादन की प्रथा थी, परन्तु वर्तमान में पखावज के स्थान पर तबले के साथ ध्रुपदधमार गाया जाता है, आज पखावज की तालें चारताल, सुलताल जो ध्रुपद तथा धमार जैसी गम्भीर शैलियां है, इनका तबले पर खूब प्रयोग किया जाता है।

तंत्रवाद्यों के साथ संगत:
कुदेशिया, शोभा (२०१२)  
तालव्यवहार का स्वरूप वादन के साथ संगत हेतु भी दिखाई पडता है, जिनमें विशेषत: तंत्रवाद्य होते है जो स्वर प्रधान होते है इनके साथ संगत हेतु तबले पर ताल तथा लय प्रदर्शन किया जाता है। "तन्त्रवाद्यों में ध्वनि सूक्ष्मखण्डों में उत्पन्न होने के कारण छंद और लयकारी के वादन की सुविधा रहती है, इसलिये उनमें जो रचनायें बजायी जाती है, उन्हेंगतकहा जाता है, उनकी वादन शैली को तंत्रकारी या गतकारी के नाम से सम्बोधित किया जाता है।"गतें दो प्रकार की होती है: . मसीतखानी गत जो प्राय: विलम्बित त्रिताल में होती है तथा २. रजाखानी गत जो मध्य या द्रुत त्रिताल में निबद्ध होती है। अन्यतालों में विलम्बित लय में बजायी जाने वाली गतों को क्रमश: ’मध्यलय की गततथाद्रुतलय की गतकहा जाता है, मिजराब प्रहार से बजाये जानेवाले वाद्यों की वादनशैली में छंद और लय का अधिक महत्व होने से उनकी संगति में स्वतंत्र तबलावादन में प्रयोग किये जाने वाले उठान, पेशकार, कायदा, रेला, तिहाई , मुखडा, गत, टुकडा, रौ आदि रचनाओं को किसी सीमा तक प्रयोग करने का अवसर मिल जाता है। वादक तबले के इन संरचनाओं के आधार पर समुचित बोल संयोजना द्वारा संगति करता है। तंत्रवाद्यों में झालावादन के साथ तबला-वादक कोठे के और रेलो की तैयारी प्रदर्शित करने का अवसर रहता है। घर्षण या फ़ूंक के द्वारा बजाये जानेवाले वाद्यों की ध्वनि में स्थिरता अधिक होने से वह कंठध्वनि से कुछ साम्य रखता है, इसीलिए इन वाद्यों में गायकी अंग की शैली का प्रयोग किया जाता है। इन वाद्यों के साथ गायन शैलियों की भांति ही संगति की जाती है।
जौहरी, रिमा (२०११)  
नृत्य की संगति गायन एवं वादन दोनों से ही भिन्न एवं कठिन होती है, नृत्य के साथ संगत सर्वाधिक बुद्धि चातुर्य व परिपक्वता से पूर्ण कार्य होता है, इस विद्या की संगत में वादक को आरम्भ से ही अत्यन्त तैयारी एवं सूझबूझ के साथ कलात्मक क्षमता का परिचय देना होता है। कत्थक नृत्य के साथ संगति में तबलावादक को नर्तक के पैरो द्वारा निकाले गये बोलों को उतनी ही मात्रा व उसी वजन के अनुरुप तबले पर निकालना होता है।
उदाहरण के लिए नृत्यकार का बोल
                                "तत     तत          थेई          तिगधा    दिंग         दिग         "थेई"
है तो इसी वजन को ध्यान में रखकर
                                "ति                       ता            धाधातिरकिट         धा"
तबले पर बजाया जायेगा।
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)  
इसी प्रकार चारताल में निषद्ध गणेश जी की स्तुति दी जा रही है जिसका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है - सुन्दर कानवाले, ज्ञान के देवता का नाम गणपति है जिनका बडा सा पेट और एक दांत है। इन रचना में पौने दौगुन (बिआऽ) की लय का अधिक प्रयोग हुआ है:
                                श्रवणसुनदरनाऽमगणपति    ज्ञाऽन      नाऽथग   जाऽन     नमधेटे
                                धाऽन                      धिकिट                    धाधिता                   धिऽनगतिरकिट,  
                                लऽबो                      दरएक                    दऽन्त                      धा, तिरकिट,          लऽम्बो    दरएक
                                दऽन्त                      धा, तिरकिट           लऽम्बो                    दरएक                    दऽन्त।    धा

वृन्दवादन या वाद्यवृन्द
श्रीवास्तव, गिरिशचन्द्र (२००६)
 "वाद्यवृन्द और वृन्दवादन दोनो समानार्थक है। आज भी भारत की साधारण जनता वाद्यवृन्द से अधिक विदेशी शब्द आरक्रेस्ट्रा से परिचित है। साधारण अर्थ में विभिन्न वाद्यों या ध्वनियों के सुमधुर संयुक्तवादन को वाद्य-वृन्द कहते है। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद वृन्दवादन के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किया गया। आकाशवाणी दिल्ली केन्द्र में भारत सरकार की ओर से वृन्दवादन की एक यूनिट का निर्माण किया गया, जिसमें सुप्रसिद्ध सितारवादक प०रविशंकर, बांसुरीवादक स्व.श्री पन्नालाल घोष तथा जयराममणिअय्यर आदि प्रकाण्ड विद्वानो ने अपना सहयोग दिया और उच्चस्तर की वृन्दरचनाएं तैयार की आकाशवाणी के वृन्दवादन की टोलियाँ समय-समय पर विभिन्न केन्द्रों पर अपना प्रदर्शन करती रहतीहै।"

आज वृन्दवादन या वाद्यवृन्द का प्रसार धीमी गति से हो रहा है इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी हो सकता है कि प्रत्येक वाद्य का वादक को एक साथ निश्चित समय पर अभ्यास करना पडता है, अत्यधिक व्यस्त जीवनशैली तथा समय के अभाव के कारण कलाकार अभ्यास नही कर पाते।

स्वतंन्त्रवादन:
जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है, स्वतंन्त्र रुप से किया गया वादन, स्वतंन्त्र वादन होता है। तालवादक अपनी इच्छानुसार तालव्यवहार करने हेतु पूर्णरुप से स्वतंन्त्र होता है, एकलवादन प्रस्तुत करते समय कुछ तबलावादकजैसे : लखनऊ घराना के कलाकार पहले बन्दिश की पढन्त करते हैं, तदुपरान्त बन्दिशों को तबले पर उसका वादन प्रस्तुत करते है जिससे श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। विद्वानो द्वारा स्वतंत्र या एकलवादन प्रस्तुत करने की विधि तैयार की गई है जिसके अनुसार वादक को वादन प्रस्तुत करना होता है। प्रत्येक घराने की अपनी विशेषता है उसी के अनुसार तालवादक ताल का चयन करता है साथ ही यह भी निश्चित करता है कि किस घराने की शैली में तालव्यवहार करना है जैसे : बनारस घराने के कलाकार वादक उठान से स्वतंन्त्र वादन प्रस्तुत करते है जबकि फ़र्रुखाबाद घराने में चाल तथा चलन विशेष रुप से बजाया जाता है। मध्यकाल में घराना पद्धति का जन्म हुआ। घराना पद्धित के तबलावादक अपने घराने का बखूबी प्रस्तुत करते थे, आजादी के कई वर्ष बाद तक भी घरानेदार वादक वादनशैली का प्रदर्शन करते थे परन्तु अब घरानों का लोप हो जाने के कारण भारतीय वादन पद्धतियों में अनेक परिवर्तन हुये। आज तबलावादक सभी घरानों की विशेषताओं को अपने वादन के द्वारा प्रदर्शित करता है। सर्वप्रथम तबलावादक ताल चुनाव के पश्चात हारमोनियम के साथ अपना वादन प्रदर्शित करते है, स्वतन्त्र वादन में उठान, पेशकारा, कायदा, रेला, गत, टुकडा, परन, चक्करदार, तिहाई आदि तालविषयक बन्दिशों को प्रस्तुत किया जाता है। पखावज वादन मेंरेला, पडार, तिहाई आदि का वादन किया जाता है।
तालवाद्य कचहरी:
जौहरी, रीमा (२०११) 
तबला, पखावज, ढोलक, नाल, नक्कारा, तासा, घटम आदि लय- ताल वाद्यों का एक निश्चित ताल और लय में क्रम से अथवा एकसाथ वादन करना तालवाद्य कचहरी कहलाता है। ऐसे प्रदर्शन में अनेक लय- तालवाद्यों पर विभिन्न लयकारियों में काम बहुत मनोरंजक होता है।

तालवाद्य कचहरी में सभी वाद्य उत्तरभारतीय होते है तालवाद्य कचहरी में तालवादन पेशकारा या उठान से प्रारम्भ किया जाता है फ़िर बाकी वादक बारी-बारी से मिलती जुलती रचनाओं का वादन करते है संगीत गोष्ठियों में इस प्रकार के आयोजन देखने को मिल जाते है।
जुगलबन्द युगलबन्द:
जौहरी रीमा(२०११) 
इन दोनों शब्दों का भावार्थ और शब्दार्थ एक ही है। जुगलबन्दी उर्दू भाषा और युगलबन्दी हिन्दी भाषा का शब्द है। फ़ारसी के शब्द जुकत का अर्थ है जोडा या दो। इसी से उर्दू में जुगलबन्दी शब्द बना, इसका अर्थ दो या जोडा है। इस प्रकार के कार्यक्रम में दो गायक, वादक या नृत्यकार पूर्वनिश्चित किसी एक ताल में या एक राग में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते है, जैसे प०रविशंकर और उस्ताद अली अकबर खां की सितार व सरोद की जुगलबन्दी या प०राजन साजन मिश्र की गायन में या उस्ताद अल्लारखा खाँ व जाकिर हुसैन की तबले में"जुगलबन्दी" |
संगीत में जनरुचि के आधार पर अनेक परिवर्तनों में से एक परिवर्तन ताल भी है। वर्तमान में तालव्यवहार केवल प्रत्यक्ष रुप से इलैक्ट्रोनिक वाद्यों के माध्यम से भी प्रदर्शितकियाजासकताहैतथाइसकाप्रचलनतथाप्रयोगबढताजारहाहै।जैसे: मैट्रोनोम, तालमाल, सुनादमाला |
मैट्रोनोम:
श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र (२००६)घडीकेआधारपरबनेइसयन्त्रकाअविष्कार"एमेर्स्टडम"केवैज्ञानिक"तिकिल"नेकियातथासुधारवियेनाके"जानमैजिलनेसन१८१६मेंकिया"यहयन्त्रघडीकेआधारपरबनाहैजोएकनिश्चितगतिघटायीऔरबढायीजासकतीहै।कुछसुधरेहुएयन्त्रमेंलयकेसाथ-साथतालकाभीआभासमिलताहै।जिसमेंएकनिश्चितमात्रासंख्याकेउपरान्तएकघंटीकीध्वनिभीसुनायीपडतीहै।यहसर्वविदितहैकिसंगीतस्वरऔरलयपरआधारितहैऔरएकसफ़लसंगीतज्ञबननेकेलियेयेदोनोगुणअपेक्षितहैप्राय: विद्यार्थीअभ्यासकरतेसमयअपनीनिश्चितलयभूलजाताहैऔरलयसेइधर-उधरभटकजाताहै।प्रत्येकसमयमार्गदर्शकयाशिक्षककाउपलब्धहोनासम्भवनहीहैअत: ऐसेसमयमेंमैटोनोमकाप्रयोगउपयोगीसिद्धहोताहै|
तालमाला:
इसयन्त्रकीआकृतिएकरेडियोकेसमानहोतीहैजिसमेंविभिन्नतालोंकेठेकेबजतेरहतेहैंजिसमेंआवश्यकतानुसारठेकोंकीगतिकोविलम्बित, मध्ययाद्रुतकीजासकतीहैअभ्यर्थियोंकेलियेयहयन्त्रअत्यन्तउपयोगीसिद्धहोरहाहैतालमालाकेसाथगायन, वादनतथानर्तनतीनोंप्रकारसेअभ्यासकियाजासकताहै।
सुनादमाला: (हारमोनियम)
सुनादमालाकोइलैक्ट्रोनिकलहराभीकहाजाताहै,यहयन्त्ररागोंतथातालोंसेजुडेलयात्मकधुनेप्रस्तुतकरताहैइसकीध्वनिहारमोनियमकीध्वनिकेसमानहीसुनायीपडतीहैइसयन्त्रमेंलय, सुरतथाध्वनिकीगतिकोभीनियन्त्रितकियाजासकताहै।
सामान्यत: इसप्रकारकेवाद्योंकाप्रयोगकेवलविद्यार्थीवर्गतथाफ़िल्मीवसुगमसंगीतमेहीउपयोगीपायागयाहैशास्त्रीयसंगीतमेंइसप्रकारकेवाद्योंकोअधिकमहत्वनहीमिलताहै।
भारतीयसंगीतकेतालव्यवहारमेंअनेकपरिवर्तनहुएजिसमेंसेएकविशेषपरिवर्तनतालकाठेकाकेरुपमेंदिखाईपडताहै, संगीतशास्त्रीयोंनेप्रत्येकतालकीपहचानकरनेकेलिएठेकानिश्चितकियाजोकिसीभीतालकापर्यायमानाजाताहै।डा०लालमणिमिश्रजीलिखतेहै"मध्यकालसेमृदंगवादनकीपद्धतिमेंजोसबसेबडाअन्तरहुआ, वहहैउसमेंतालविशेषकाठेकावादन।प्राचीनकालमेंतालकाठेकाबजानेकीप्रथानहीथी।तालकेठेकाकावादनकरनेकीजिसप्रथाकासूत्रपातमृदंगसेहुआउसकोतबलेनेपुष्पिततथापल्लवित्तकिया।विद्धानोंनेतबलासाहित्यकीसमृद्धिकेलिएमृदंगढोलक, नक्काराआदिसेबोललियेऔरउन्हेतबलाकेयोग्यबनालिया।"
प्राचीनकालसेआजतकवादनकेपाटाक्षरोंमेंभीअनेकपरिवर्तनहुएवर्तमानमेंतबलावादनगीतयागतकीप्रकृतितथावजनकेअनुसारबोलनिश्चितकरनवीनठेकाकानिर्माणकरसंगतकरताहै।
मिश्र, लालमणि (२०११)प्राचीनबोल:
                                . मटकत                घिघघट्घेघघोटट     मंधि         घंघन        घिघि।
                                                . घड      गुटु           गुटुमघे     दो            घिंघ          दुघि          दुघेंघि।
                                                . किंकाकिटुभेदकितां             किंकेकितांद             तसितां      गुटुग।
                                                . मद्धि    कुट          घेघेमत्थिद्धिघ            खुखुणंघे   घोट्त्थिमट।आदि

मध्यकालीनबोल:
                                                . ननगिड।गिडदगि॥
                                                . ननग्डिदि
                                                . नखुंनखुं
                                                . खचटकिट
                                                . घिकटघिकट
                                                . थोगिणि।थोथांगि॥
                                                . थिरकिथों॥
                                                . नगिझेंनगिझें॥आदि

वर्तमानमृदंगकेबोल:
                                                धुमकिट   धुमकिट   तकिटत   , किट
                                                धुमकिट   धुमकिट   तकिटत   का, किट
                                                धुमकिट   तकधुम    किटतक  गदिगन
                                                धा            देत           देत           धुमकिट   तक       धुम
                                                किटतक  गदिगन    धा            देत           देत
                                                धुमकिट   तकधुम    किटतक  गदिगन

वर्तमानतबलाकेबोल:
                                                धगिनधा   ऽगधग     धिनाऽध   गिनधग    धेनेगेने
                                                धातिरकिट्ध             गिनधग    तिनकिन।
                                                तगिन       ता            ऽगतग     तिनाऽतगिनतक       धिनगिन
                                                धातिरकिरध             गिनधग    धिनगिन॥
उपर्युक्तबोलोंकेअक्षरोंकेसामान्यअन्तरपरिलक्षितहोताहैजोविशेषकालकासूचकहै।जिसप्रकारबोलचालकीभाषामेंपरिवर्तनहोतारहाहै।यद्यपिउतनीमात्रामेंनही, मृदंगकेइनपाटाक्षरोंमेंभीलगभगउसीप्रकारकापरिवर्तनदृष्टिगोचरहोताहै
भारतीयसंगीतमेंजनरुचि, सांगीतिकवातावरणतथाआवश्यकतानुसारविभिन्नसमपदीतालोंकानिर्माणतथाप्रयोगनिश्चितकियागयाजैसे : तिलवाडाताल१६मात्रा, तीनताल१६मात्रा, आडाचार१४मात्रा, झपताल१०मात्रा, कहरवाताल८मात्रा, दादराताल६मात्रा, एकताल१२मात्राआदि।प्राचीनकालमेंप्रचलिततालोंकाप्रयोगअत्यधिकक्लिष्ठताकेकारणसमाप्तहोगयाअत: नवीनतालोंकाप्रचलनबढगया।आजसममात्रिकतालोंकाहीनहीअपितुविषममात्रिकतालोंकाप्रयोगस्वतन्त्रवादनतथासंगतहेतुकियाजानेलगाहै।प्राचीनभारतीयसंगीतमेंतालकेमुख्यतत्वजिनकोतालकेदसप्राणकहाजाताथातालपद्धतिमेंमहत्वपूर्णस्थानप्राप्तथापरन्तुवर्तमानमेंतालप्राणोंकाअधिकमहत्वनहीरहगयाहै।आजकलतालव्यवहारमेंक्रियाकाप्रयोगकेवलदोरुपोंमेंकियाजाताहैसशब्दक्रिया, निशब्दक्रिया।क्रियाकेअन्यप्रकारोंकाप्रयोगपूर्णत: लुप्तहोचुकाहै।अंगोकेस्थानपरविभागकाप्रयोगकियाजाताहै, तालविभागमेंमात्रासंख्याकेआधारपरतालकीजातिनिश्चितकीजातीहैजैसे: तीनतालचतुरश्रजातितथादादरातालत्रयश्रजातिकीहैइसकेअलावातालप्रस्तारकास्वरूपहीबदलगयाहैआजतबलावादकबन्दिशोकोउलटपलटकरतालकाविस्तारकरताहै।
प्राचीनकालमेंलयकोविलम्बित, मध्यतथाद्रुततीनोरुपोंमेंप्रयोगकियाजाताथा।औरवहआजभीप्रचलितहैपरन्तुआजलयकारियोंकाप्रयोगठाह, दुगुन, तिगुन, चौगुन, अठगुन, आड, कुआड, बिआडआदिकाप्रयोगवादनमेंरसोत्पादनतथासौन्दर्यनुभूतिहेतुकियाजाताहै।आजतालवादकतालकोआकर्षकबनानेकेलियेबांयेतबलेकोदबाकरयाढीलाकरकेध्वनिउत्पन्नकरताहै।जिसेदांबगांसकहाजाताहैअधिकतरधागेबजानेमेंदांबगांसकाप्रयोगकियाजाताहै।ठेकेकास्वरूपअधिकआकर्षकबनानेकेलिएठेकेकाभरावकरबजायाजाताहै।जिससेतालमेंसौन्दर्यउत्पन्नहोताहै।
उत्तरभारतीयसंगीतमेंप्राचीनकालसेवर्तमानतकअनेकपरिवर्तनपरिलक्षितहुएहैअत: परिवर्तनकामूलआधारसामाजिकजनरुचिहै।सामाजिकअभिरुचिकेकारणतालकाव्यवहारिकस्वरुपस्थापितकियागया।तालकेद्वारासामान्यजनकोआकर्षितकरनेकाकार्यकियागयाहै।आजतालव्यवहारसिर्फ़संगीतशास्त्रीयोंकोहीनहीसामान्यश्रोताओंकोभीआनन्दितकरताहै।

सन्दर्भग्रन्थ:
·         कुदेशिया, शोभाप्राचीनतालकेपरिपेक्षमेंवर्तमानतबलावादन, राधापब्लिकेशन्स, नईदिल्ली, २०१२, पृ०स०१२६, १२७, २४१.
·         गर्ग, प्रभुलाल, तालकीविशेषता(सम्पादकीय), संगीततालअंक, संगीतकार्यालय, हाथरस, १९४०, पृ०स०१०.
·         जौहरी, रीमा, वर्तमानपरिपेक्षमेंभारतीयताल: स्वरुपएवंप्रयोग (शोधप्रबन्ध), दयालबागएजुकेशनलइन्स्टीटयूट (डीम्डविश्वविद्यालय), दयालबाग, आगरा, पृ०स०१२८, १७२, १७३.
·         पाण्डे, सुधांशु, तालप्राण, सांस्कृतिकदर्पण, लखनऊ, २०१३, पृ०स०२.
·         मिश्र, छोटेलाल, तालप्रबन्ध, कनिष्कपब्लिशर्सएवंडिस्ट्रीब्युटर्स, २००६, पृ०स०१११, १०८
·         मिश्र, लालमणिभारतीयसंगीतवाद्य, भारतीयज्ञानपीठ, नईदिल्ली, २०११, पृ०स०२१०, २११
·         राताजन्कर, एस. एन. हिन्दुस्तानीसंगीतमेंतालविचार, संगीततालअंक, संगीतकार्यालय, हाथरस, १९४०
·         श्रीवास्तव, गिरीशचन्द्र, तालपरिचय, भाग-, रुबीप्रकाशन, इलाहाबाद, २००६, पृ०स०९५, १२७,१४०,१४१


ईरानी कवयित्री और ऐक्टिविस्ट नसरीन परवाज़ की कविता : अनुवाद और प्रस्तुति - यादवेन्द्र

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ईरानी कवियित्री और ऐक्टिविस्ट नसरीन परवाज़जेल की सज़ा भुगत चुकी हैं।मानव त्रासदी कितनी कितनी विकट होती है, फिर भी साधारण लोग अपने conviction के भरोसे इसपर काबू पा लेते हैं। 

जेल में प्रेम 
               -- नसरीन परवाज़

उसकी मुस्कान से लबालब आँखें 
मुझे याद दिला रही हैं हमारे पहले चुम्बन की  

तभी कानों को भेदती हुई आवाज़ आती है गार्ड की :
पाँच मिनट .. और छूना नहीं ... बस दूर से

हम दोनों के बीचों बीच एक टेबल पड़ा ह
पर मैं सुन पा रही हूँ उसकी एक एक साँस 

चुप्पी वही तोड़ता है :
सुनो ,तुम जेल से जल्दी ही छूट जाओगी 
मैं चाहता हूँ तुम मुझे भूल जाओ 
मान लो जैसे मैं इस दुनिया में कहीं हूँ ही नहीं 
किसी भले इंसान को देखो  
जो हमारी औलाद को अपना मान ले 
और उस से निकाह कर लो।

उसके ये शब्द मुझसे बर्दाश्त बाहर थे 
मैं भला तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ
हमारी औलाद को तुम्हारे बारे में सब कुछ मालूम होगा। 

बिलकुल नहीं ,मैं तुम्हारा अतीत हूँ
मेरी यादों के साथ जिन्दा रहने के कोई मायने नहीं 
बच्चे को भविष्य चाहिए 
तुम अतीत नहीं भविष्य के साथ जीवन जियो। 

चलो ,अब मुलाकात का समय ख़तम हो गया .... 

झट से वह टेबल पर कमानी सा झुका 
और चूम लिया मेरा मुँह 
मेरी कोख में पल रहा बच्चा हिलने डुलने लगा था  
कि तभी गार्ड आकर घसीट ले गया उसको 
गोली से उड़ाने को .... 

मालिनी गौतम की कविताएं

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1. दर्द पके-पके-से

लड़की जब भी देखती है 
काँच के पानी भरे ग्लास में पड़े 
बर्फ के चौकोर टुकड़े को 
उसे लगता है 
एक और ज़िंदगी डूब गयी...
पिघल-पिघल कर पानी हो गयी...

घूँट-घूँट उतरते पानी में 
फ्रीज़ होता जाता है पोर-पोर 
और जीने की एक रेशमी-सी डोर 
सर्रर्ररर से फिसल जाती है 
बेजान उँगलियों से..

लड़की रात भर
सपनों में देखती रहती है 
ट्यूमर की सर्जरी के कारण कटे बालों वाले 
कीमोथेरेपी से झड़े बालों वाले चेहरे
जिनकी हँसी सबसे ज्यादा दर्दनाक होती है

वो अक्सर आँख-मिचौली खेलती है 
इस दर्द से
अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर 
नज़रें चुराकर झाँकती है
कैंसर की गाँठों में, ट्यूमर में 
और बेबस-सी देखती है 
वहाँ पलते अवसाद, घुटन, 
बैचेनी, प्रतिरोध, तनाव, और आक्रोश को...

इंच-इंच छूकर महसूसती रहती है 
अपने शरीर पर उगती गाँठों को 
पगली है....इतना भर नहीं जानती 
कि मुट्ठी भर ज़मीन 
और बित्ता भर आसमान पर भी 
अपना नाम न लिख पाने की पीड़ा 
कब धीरे-धीरे गाँठों में बदल जाती 
है कोई नहीं जानता .....
***

2.  प्रेम खिचड़ी-सा

प्रेम के बिखरे-बिखरे रंग
लड़की को समझ नहीं आते
पहले पहर के गुलाबी प्रेम का
दिन ढलते-ढलते साँवला हो जाना
उसे पूरी रात बैचेन करता रहता है

वो प्रेम में समरस होना चाहती है  
लड़की अक्सर सोचती है
कि ये प्रेम खिचड़ी-सा क्यों नहीं होता..
.दाल, चावल, मिर्च-मसाले.
.किसी का अलग-अलग अस्तित्व नहीं ...
फिर भी थाली और मुँह
कैसे भरे-भरे लगते हैं  

लड़की हर रोज़ प्रेम के
बिखरे-बिखरे स्वाद और रंग इकट्ठे करती रहती है
खालिस देसी प्रेम के तड़के में
सारे रंग-स्वाद पकाती है ।
एक..दो...तीन...दिन बीतते जाते हैं
प्रेशर कुकर की सीटियों की तरह,
पर खिचड़ी जैसा प्यार नहीं पकता  

लड़की बार-बार जलती है..
सहेजती है आत्मा पर पड़े
बैचेनी और इंतज़ार के फफोले ..
पर हिम्मत नहीं हारती।
अधपके प्यार में से फिर चुनती है
चावल का स्वाद ... सब्जी का रंग ...और
भोरे-भोरे सीले जीवन को
सुलगाती, फूँक मारती...
फिर पकाने में जुट जाती है
खिचड़ी जैसा प्रेम ....
पगली है ....समझना नहीं चाहती
 कि खिचडी पकने के लिए आँच का,
बरतन के बाहर और अंदर
एक-सा होना जरूरी होता है ।
***
 
3.  सौ से शून्य तक
 
लड़की हर रोज
शुरू करती है काउंटडाउन
सौ से शून्य तक...
अंतिम दस से शून्य तक
गिनते समय
बेहद सतर्क हो जाती है
दस,नौ,आठ.....तीन,दो,एक
जैसे शून्य बोलते ही
उसके आस-पास की दुनिया
बिल्कुल बदल जायेगी....

लड़की के लिए वक़्त
हिलता हुआ पेंडुलम नहीं है
बल्कि दीवार पर टँगी सुनहरी फ्रेम है
जिसके चित्र कभी नहीं बदलते

लड़की नींद आने के डर से
पलकें नहीं झपकाती
उसे सपने में दिखती हैं
सफेद कपड़ों वाली...कटे पंखों वाली परियाँ
सब के सब एक जैसे चेहरों वालीं
माँ-नानी-दादी के
मिले-जुले चेहरों वाली परियाँ
जो पीठ पर अँगीठियाँ बाँधे
पकाती रहतीं हैं जिंदगी
कभी कच्ची तो कभी पक्की

लड़की बार-बार कोशिश करती है
पंखों को सँवारने की
अपनी पीठ के अंगारों पर
विस्मृति की एक बर्फीली सफेद चादर ढँकने की
और पुनः शुरू करती है काउंटडाउन
सब ठीक होने की उम्मीद में
पगली है ...
नहीं जानती कि
लड़कियों के हिस्से में फफोले ही आते हैं
ज़िन्दगी कम पके या ज्यादा ......
***
 
4. इश्क जामुनी-सा

लड़की बगीचे में बैठकर हर रोज़
एक उचटती सी नज़र डालती है
लाल गुलाब पर...

सुर्ख़ गुलाब देखकर
अब उसके चेहरे का रंग लाल नहीं होता..
दीवारों से झड़ते पलस्तर-सा
झड़ जाता है रंग उसके चेहरे का  

अतीत के अलग-अलग सिरे पकड़ कर
वह गूँथने लगती है चोटी
और आखिरी सिरे पर
बाँध देती है एक लाल रिबन कसकर
ताकि वापिस लौटने की
 कोई भी सँकरी गली
खुली न रह जाये।

लड़की की पुरानी फ्रॉक की जेब में
अब भी फड़फड़ाती हैं कुछ तितलियाँ ...
जिन्हें उसने चुराया था
किसी की झरने-सी चमकती हँसी से  

हर दिन तितलियों को
मुक्त करने की जद्दोजहद में
वह पके घाव-सी रिसती चली जाती है
मुक्त करने और मुक्त होने के
 इस निरन्तर प्रयास में
उसने तय की है यात्रा
लाल से जामुनी रंग तक की  

लड़की इन दिनों
उगाना सीख रही है
वक्त की क्यारियों में
जामुनी बूगनबेलिया,
जामुनी डहलिया, जामुनी कमल और जामुनी गुलाब....
उसे शिद्दत से है इंतज़ार
उस दरवाज़े का जिस पर
अपने दोनों हाथों की जामुनी छाप लगाकर
वह लाल रंग को अलविदा कह सके....

बावरी है ....
नहीं समझती कि रंग भी अभिषप्त हैं
अपनी सदियों से गढ़ी परिभाषाओं से ...
इश्क का रंग
भला कब जामुनी हुआ है ...
***
 
5. जूठे जामुन जैसे ख़्वाब

लड़की हर रात नींद में भी
अंजुरी भर-भर के
पानी छाँटती रहती अपनी आँखों पर
इस उम्मीद में कि शायद
धूल-मिट्टी और किरचों के साफ़ होने पर
उसे दिखाई देने लगेंगे
वो सपने, वो लोग
जिन्हें वो नींद में भी देखना चाहती है

 इंतज़ार की कच्ची डोर बार-बार टूटती
अब डोर में डोर कम गिरहें ज्यादा थीं
 उलझे बालों की लटें भी
सुलझने के इन्तजार में
और उलझती चली जा रहीं थीं

ऐसी तमाम रातें
लम्बी-लम्बी उम्र लिखवा कर लातीं अपने नाम ..
लड़की रात भर दम साधे
अँधेरे के लट्टू पर
उजालों के धागे लपेटती
और जैसे ही चहचहाती दूर कहीं.. कोई चिरैया
वो अपने सपनों पर लगा देती
पलकों का ताला 

आईने के सामने खड़ी होकर
अंजुरी भर पानी छाँटती चेहरे पर
और गौर से देखती
लाल-लाल, फूली-फूली आँखों को
गोया पलकों के एक किनारे पर
कहीं कोई सपना
छूट तो नहीं गया न
पगली है ....
इतना आसान होता है क्या
सुग्गे के जूठे जामुन जैसे
मीठे जामुनी ख़्वाबों का नींद में आना .....
***
 
6. पीठ पर जंगल
 
लड़की अपनी पीठ पर
एक शहर लादे चलती है
जिसमें बेतरतीब फैले हैं यादों के जंगल..

उम्र की हर सीढ़ी पर
उसके रोपे हुए तुलसी के बिरवे
कब कँटीले बबूल बन जाते हैं
उसे पता ही नहीं चलता,
उससे एक हाथ आगे चलती नदी
भरी बरसात में गायब हो जाती है
किसी के कमण्डल में
और वह
उदासियों की मुस्कराहट ओढ़े
पीछे बची रेत पर
काग़ज की छोटी-छोटी कश्तियाँ
तैराती रहती है..
छोटी-सी खिड़की वाले एक घर में
कभी उसकी हँसी फैलकर 
बरगद बन गयी थी,
उसकी कुर्ती का गुलाबी रंग
किसी के होठों पर फ़ैल गया था..
लड़की अब भी शहर के
बाहर बने मन्दिर में
घण्टियाँ बजाती है,
अपनी पीठ पर चुभे काँटे 
घाट पर धोती है
नींद में फूटते हैं तुलसी के बिरवे
उसकी आँखों में
बरगद पर झूले पींगें लेते हैं,
नदी समो जाती है उसके दुपट्टे में
और गुलाबी रंग गहरा कर जामुनी बन जाता है

बावरी है लड़की
फूलों की चाहत में पीठ पर
काँटे उठाये चलती जा रही है...
***
 
7. अक्कड़-बक्कड़ बम्बे-बो

लड़की घुटनो में चेहरा छिपाये
जार-जार रोती है
रोने के अनेकों कारण 
पतझर के पीले पात-से
हौले-हौले उड़े चले आते हैं
लड़की..अक्कड-बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी- नब्बे पूरे सौ ..गिनकर
कारण और आँसुओं को मैच करती रहती है 
कलेजे से उठती हूक का
असली कारण इमली के पेड़ पर
फंदा लगाकर झूल जाता है...

वो चारपाई-सी चरमराती रहती है
कैलेंडर के बदलते पन्नों
और तारीखों के शोर में
गुजरते वक्त से 
बार-बार गुजरने की चाहत में 
ढलते बरस की आख़िरी सीढ़ियों पर खड़ी 
वो बेबस-सी तलाशती है
वापिस लौटने वाली सीढ़ियाँ
लड़की सहमते-सहमते 
पहनती है इन दिनों 
यादों के स्वेटर
कि डरती है अब वो
स्वेटर की तरह उधड़ जाने से,
फंदों को बुनना-उधेड़ना
उठाना-गिराना आया ही नहीं उसे,
वो तो कड़कड़ाती ठण्ड में भी
खुरपी लिए करती रहती है
यादों की गुड़ाई-निराई
सींचती है उन्हें आँसुओ से
और देखती है उनका घावों को चीरकर
अँखुआना, फूटना, पल्लवित होना

बावरी है लड़की
नहीं जानती कि
जब-जब यादों पर फूल खिलेंगे
वह फिर से रोयेगी जार जार
और फिर एक हूक 
लटक जायेगी इमली के पेड़ पर ...
***
 
8. एक बदरंग कोलाज

लड़की रोज़ आँखों में 
काजल आँजती है
उसे लगता है कि
काजल लगाने से उसकी आँखे
बड़ी-बड़ी हो जायेंगी
और वो नींद में देख सकेगी
बड़े-बड़े सपने,
उदास नींद,खारे आँसू, जिद्दी सपने
सब काजल के साथ मिलकर बनाते
एक बदरंग-सा कोलाज
हर सुबह लड़की के चेहरे पर,
परछाइयों पर परछाईयाँ जमती चली जातीं
और खिली धूप-सी लड़की 
साँवली होती चली जाती

लड़की भटकती है 
जंगल-जंगल,पहाड़-पहाड़
अपनी मुट्ठी में दबाये सपनों के बीज,
अपनी आँखों पर भरोसा नहीं उसे
वो तलाशती है उन आँखों को
जो उसके सपनों का गर्भ पाल सकें
आँखें मिलतीं...लड़की हौले से रोपती 
उन आँखों में अपने सपनों के बीज
दिन चढ़ते...पात टूटते....फूल झरते
मौसम बदलते
और न जाने कब आँखें भी बदल जातीं
सपने सड़ जाते
पकने के पहले ही...
लड़की इन दिनों आईना नहीं देखती
डरती है वो अपनी आँखों से
अपनी आँखों में बसी आँखों से
लड़की आजकल
अपनी टूटी कलम से 
काग़ज पर सपने लिखती है 
बावरी है ...नहीं जानती
कि काग़जी सपने कभी सच नहीं होते ।
***
मालिनी गौतम
574, मंगल ज्योत सोसाइटी
संतरामपुर-389260
जिला-महीसागर
गुजरात
मो. 9427078711









गज़ब कि अब भी, इसी समय में - राकेश रोहित के कविकर्म पर अनुराधा सिंह

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जब नष्ट हो रहा हो सब कुछ
और दिन आखिरी हो सृष्टि का
मेरी प्रियतुम मुझे प्यार करती रहना!
...क्योंकि यह प्यार ही है
जिसका कविता हर भाषा में अनुवाद
उम्मीद की तरह करती है।
          (अनुनाद, २०१५)

एक कवि जो लगातार कविता की सम्प्रेष्णीयता और सार्थकता पर एकांत में बैठा लिख रहा है और विश्वास कर रहा है उसके चरित्र की अनश्वरता पर, वह कवि राकेश रोहित हैं. राकेश रोहित की कविता लाउड नहीं है, और यह जानते ही उनकी कविता के दूसरे आयाम अनायास स्पष्ट होने लगते हैं. ये बड़े फलक की कविताएँ हैं जो प्रकृति के माध्यम से जीवन का लगभग हर पक्ष छू लेती हैं. इस घोर हड़बड़ी और उथल पुथल के समय में ये कविताएँ वह अंतराल प्रस्तुत करती हैं जहाँ खड़े होकर हम उनके लिखे हुए पर मनन कर सकते हैं. कवि के ह्रदय का जीवट और धैर्य उनकी कविताओं में भी परिलक्षित है.
उनकी विषय वस्तु प्रायः प्रेम, दुःख, जीवन और कविता है, जिसे वे क्षिति जल पावक गगन समीर से साधते हैं. उनकी कविता स्थूल से सूक्ष्म की तरफ बहती है. प्रकृति सायास बिम्बों के रूप में उपस्थित नहीं होती बल्कि यह तो चट्टान के नीचे का सतत नए आकार धरता अथाह पाताल है.

इच्छाओं ने मनुष्य को अकेला कर दिया है
आत्मा रोज छूती है मेरे भय को
मैं आत्मा को छू नहीं पाता हूँ।
मैं पत्तों के रंग देखना चाहता हूँ
मैं फूलों के शब्द चुनना चाहता हूँ
संशय की खिड़कियां खोल कर देखो मित्र
उजाले के इंतजार में मैं आकाश के आँगन में हूँ।

ऐसे विराट दृश्य गढ़ती है उनकी कविता . लगता है कि जैसे एक दिन ये सब चुक जायेंगे, ये दृश्य, ये शब्द, ये बिम्ब और इन सबसे बनने वाली उनकी कविताएँ भी लेकिन ऐसा नहीं होता. राकेश की कविताओं में प्रकृति जीवन के सारे तत्व: अपनी हरियाली और तरलता में डुबो कर पुनः प्रस्तुत करने के लिए ही अपने भीतर समेटती है.  हर कविता में उन्हें सांगोपांग परिवर्तित कर देती है, :

इसलिए जब मैं एक वृक्ष के बारे में बोलता हूँ
मैं उस वृक्ष में छिपे
थकेआश्रय लेते 
हजार अकेलेपन के बारे में सोचता हूँ।

वृक्ष का अकेलापन एक मुखर कविता के रूप में ढल जाता है और एक अनासक्ति प्रवाहित होती है अनायास पाठक के ह्रदय में.

वे कविता को केन्द्र में रखकर बहुत  कविता कहते हैं क्योंकि उन्हें उसकी अगोचर और सर्वव्याप्त सत्ता पर विश्वास है. शायद अलौकिक सत्ता से भी कहीं आगे पाते हैं इसे वे :

मैं समझता हूँ
सृष्टि की तमाम अँधेरी घाटियों में
केवल सूनी सभ्यताओं की लकीरें हैं
कि जहाँ नहीं जाती कविता
वहाँ कोई नहीं जाता.

एक कवि के लिए कविता शब्दों की बाज़ीगरी न होकर एक सप्राण अस्तित्व हो, इससे बड़ी बात क्या हो सकती है. केवल कविता को ही नहीं अपनी कविता में लाये हुए हर बिम्ब को वे इतनी ही संवेदनशीलता से निबाहते हैं .

उनके लिए नदी एक स्त्री है घुटनों तक अपना परिचय साथ लाती हुई.

नदियाँ तो अकसर
हमसे कुछ फ़ासले पर बहती हैं
और हमारे सपनों में किसी झील-सी आती हैं
पर मैं कब चाहता हूँ नदी
अपने इतने पास
जितने पास समुद्र
मेरे सामने टँगे फ्रेम में घहराता है.

नदी का अस्तित्व उन्हें जीवन में पिता के होने की सी आश्वस्ति देता है-

कितना भयानक होगा
उस समुद्र का याद आना
जब पिता पास नहीं होंगे
किसी नदी की तरह.

राकेश की भाषा व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करती है मुझे. यह न केवल बहुत परिमार्जित भाषा है बल्कि कविताकर्म  के अनुरूप गति तरलता और कोमलता से भरपूर है. और उनकी कविता के वैचारिक और यथार्थवादी फसाड के अनुरूप भी है. उनका कवि निरंतर है. उन्होंने उसे ऐसे साध लिया है जैसे चलना, खाना और जीना साध लिया जाता है. वे कहते हैं मैंने अपने जीवन की किरचों को बंद ग्लास के भीतर रख दिया है. यह देखने वालों को सुंदर लगता है और चुभता सिर्फ मुझे है.

उनकी कविता में दुःख है एकांत है लेकिन वह पाठकों को चुभता नहीं है, दर्शन के सांचे में ढल कर कविता बन जाता है. हर कवि दुःख पर सबसे सहज हो लिखता है लेकिन राकेश ने पहले दुःख को भोथरा किया तब उस पर कविताएँ लिखीं क्योंकि अनगढ़ दुःख कविता नहीं एकालाप सिरजता है। उनका मनुष्य और कविता दोनों इस बिखराव से दूर हो पक चुके हैं.

दुख वही पुराना था
उसे नयी भाषा में कैसे कहता
पुरानी भाषा में ही
निहारता रहा अपना हारा मन
जब लोग युग का नया मुहावरा रच रहे थे.

ये कविताएँ जीवन के ठोस धरातल पर खड़े होकर सोचे गए सच की कविताएँ हैं. ‘मंगल ग्रह पर एक कविताऔरविषाद की कुछ कविताएँश्रंखला में कविता की सहजता और माधुरी ओढ़ कर यदा कदा विज्ञान भी आता है. जैसे

मेरा मन
इसे नहीं खींचता धरती का कोई बल
इसका कोई भार नहीं है
न ही कोई आयतन
फिर भी यह थिर क्यों नहीं होता.

वे अपने एकांत में गहमा गहमी से दूर कविता करते रहते हैं लेकिन दुनिया के क्रीड़ा कौतुक देखना नहीं भूलते . अपनी कविता"ग़ज़ब कि अब भी, इसी समय में'उन्हें खेद है कि इन्सान को दूसरे इन्सान की उपस्थिति या अस्तित्व का आभास तक नहीं. रोज़ मन में दर्शन के ऐसे सवाल उठते हैं कि नींद में देह जीवन से अलग होकर कहाँ जाती है आखिर. वे कहते हैं

ग़ज़बकि इस समय में मुग्धता
नींद का पर्याय है।

समय इतना नृशंस हो चुका है कि कवि प्रेम के व्यक्त न होने की आशंका भर से व्यथित हो जाता है. वे कहते हैं कि:

ग़ज़बकि ऐसे समय मेंअब भी,
तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ है।

जिन्हें यह लगे कि राकेश ऐसे कोमल कवि हैं जो मात्र चाक्षुष प्राकृतिक बिम्बों के साथ अद्भुत प्रयोग कर सकते हैं उन्हें ये कविताएँ भी पढ़ लेनी चाहिए. कवि का एक नया आयाम खुलेगा उन पर. उनकी कवितामेरे अन्दर एक गुस्सा हैका अंश..... कई बार बहुत कोमल बिम्बों के माध्यम से ऐसा अशमनीय क्रोध व्यवस्था, ज़माने और व्यक्ति के लिए कविता के रूप में उमड़ पड़ता है.

एक जंग जैसे है दुनिया, एक दिन जीता, एक दिन हारा
कुछ मन में छुपाए बैठा हूँ, कुछ सब को बताए बैठा हूँ ।

हाय ! हमें ईश्वर होना थाबहुत क्षति के भाव की कविता है . वे मानते है कि धरती के सारे शब्दों की सुन्दरता है इस एकईश्वरशब्द में, यह सबसे छोटी प्रार्थना है. अभिमंत्रित आहूतियां, पितरों के सुवास और जीवन की गरमाई से बना है ईश्वर का अस्तित्व. इसलिए प्रत्येक विशिष्ट इंसान के लिए आवश्यक था कम से कम एक बार ईश्वर हो पाना .

सोचो तो जरा
सभ्यता की सारी स्मृतियों में
नहीं है
उनका ज़िक्र
हाय ! जिन्हें ईश्वर होना था

रेखा के इधर उधरमें मनुष्य के द्वारा अपने ही लिए बनायीं गयी वर्जनाओं और सीमाओं के प्रति खेद प्रकट किया है . केवल एकरेखाशब्द के माध्यम से हम इतनी बड़ी बात मानव जीवन की अन्यतम त्रासदी को अप्रतिम रूप से उद्घाटित कर लेते हैं।

मैंने नहीं चाही थी
टुकड़ों में बँटी धरती
यानी इस ख़ूबसूरत दुनिया में ऐसे कोने
जहाँ हम न हों
(नवनीत पत्रिका)

उनकी कविता बाज़ार के अतिभौतिकतावाद की परतें भी उधेड़ती है. बाज़ार में वह हर वस्तु और व्यक्ति बिक जाता है जिसका दाम लगा हुआ है लेकिन बाज़ार असम्प्रक्त है और निर्दयी भी. उन लोगों को पूछता भी नहीं जिनका सांसारिक सफलता के पैमाने पर कोई मूल्य न हो. यह कविता एक डिफरेंट मूड शेड की कविता है  जो अनुभवों के जरिये ज़िन्दगी को बहुत कुछ सिखा जाती है.

अब उसमें थोड़ा रोमांच है, थोड़ा उन्माद
थोड़ी क्रूरता भी
बाज़ार में चीज़ों के नए अर्थ हैं
और नए दाम भी।

राकेश की कविताएँ मुझे जीवन से जोड़े रखती हैं. कविताएँ वैचारिक हैं और व्यवस्था का विद्रूप भी प्रस्तुत करती हैं लेकिन कहीं भी वे जीवन से नहीं कटती हैं. जैसे प्रेम अपने कोमलतम रूप में उपस्थित है भले ही वह है, एक पीड़ा, टीस और विरह के आभास के साथ.

वह जो तुम्हारे पास की हवा भी छू देने से
कांपती थी तुम्हारी देह
वह जो बादलों को समेट रखा था तुमने
हथेलियों में
कि एक स्पर्श से सिहरता था मेरा अस्तित्व.....और जब कहने को कुछ नहीं रह गया है
मैं लौट आया हूँ .

राकेश रोहित की कविताएँ हैं संवेदना की, सृष्टि की कविताएँ, जूनून भी है इनमें. यह कविता है एक निडर जीवन पर्व की जिसे कवि जी लेना चाहता है विश्रांति से पहले, लक्ष्य पर पहुँचने से पहले, उत्साह चुकने से पहले. नैसर्गिक अंडरटोन के साथ दार्शनिकता भी सतत बहती है राकेश की कविताओं में. वे अपने काव्यकर्म में उस कड़कती बिछलती दामिनी की तरह नहीं हैं जो आँखें चौंधियाते और गर्जना करते हुए प्रकट होती है और अचानक लुप्त हो जाती है. वे चन्द्रमा के निरंतर व शीतल प्रकाश के साथ बने रहेंगे लगातार अभूतपूर्व कविताएँ रचते हुए, और अपनी सुन्दर वैचारिक कविताओं से हिंदी कविता के फलक को और अधिक समृद्ध करते हुए. और इसी प्रकार पूरी होती रहेगी उनकी यह अभिलाषा- -

चाहता हूँ कविता ऐसे रहे मेरे मन में
जैसे तुम्हारे मन में रहता है प्रेम!

 अनुराधा सिंह

यहां कविता में पुराने छंद चाहे न आ रहे हों किन्तु उन छंदों की लय आज भी बची हुई है - वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह से महेश पुनेठा की बातचीत/3

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महेश चंद्र पुनेठा -आप कविता के केंद्र में मनुष्य भाव को मानते हैं.कविता ही मनुष्य भाव की रक्षा करती है.यह अच्छी कविता का एक आधार बिंदु है. आखिर यह मनुष्य भाव क्या है ? भाव और मनुष्य भाव में क्या अंतर है? कविता में मनुष्य भाव का विस्तार कैसे संभव है?

जीवन सिंह-मनुष्य भाव दरअसल वे भाव हैं जो एक व्यक्ति की मनुष्यता को व्यक्त करते हैं।लेकिन इस संघर्षशील और वर्ग विभाजित दुनिया में बहुत आसान काम नहीं है।इसे समझते हुए उन ताकतों को पहचान कर संघर्ष करना पड़ता है जो मनुष्य भावों की विरोधी होती हैं।इसे आचार्य शुक्ल ने लोकमंगल की साधनावस्था कहा है। पुराने साहित्यशास्त्रियों ने मनुष्य के मन में नौ स्थायी भाव बतलाए हैं जिनमें प्रेम,क्रोध, उत्साह, घृणा,करुणा, भय,हास,आश्चर्य आदि भाव आते हैं।इन भावों की क्रिया-प्रतिक्रिया में सारा मनुष्य जीवन संचालित होता है।साहित्य सृजन इसी भाव संसार के भीतर होता है।मनुष्य अच्छाई से प्रेम करता है तो बुराई से घृणा और क्रोध भी।वह पीडित के प्रति करुण होता है तौ उसके मन में उत्पीडक के प्रति क्रोधित।वह भयानक से भयभीत होता है तो अचरज की बातों से आश्चर्यचकित।यह मनुष्य जीवन की भाव प्रक्रिया है।चूंकि मनुष्य एक विचारशील प्राणी भी है इसलिए भाव प्रक्रिया के साथ विचार प्रक्रिया भी चलती है जो भावों को अनुशासित करते हुए उनको सही दिशा भी प्रदान करता है। लेकिन यह सब व्यक्ति की अपनी स्थिति से तय होता है।

आधुनिक शब्दावली में मुक्तिबोध ने इसी को संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना नाम दिया।चूंकि समाज में अनेक तरह के उत्पीड़क होते हैं जो बिखरे हुए अच्छे लोगों का अपनी ताकत से उत्पीडन करते हैं इसलिए समाज के भीतर अनेक तरह के संघर्ष चलते रहते हैं।इनकी सही समझ जब तक किसी रचनाकार को नहीं होती, वह अच्छा और प्रभावी साहित्य नहीं रच सकता।

मनुष्य प्रकृति की संतान है ।इसलिए प्रकृति के प्रति भी हमारे मन में तरह तरह के भाव उत्पन्न होते रहते हैं।इन सबका प्रभाव मन पर पड़ता है जो हमारे भावों को उर्वरता प्रदान करता है। कोई भाव तभी मनुष्य भाव बनता है जब वह अपनी व्यक्तिगत सीमा से बाहर निकल कर सबका भाव बन जाता है अर्थात निजी भाव का जब साधारणीकरण हो जाता है।दुनिया में हरेक माँ अपने बेटे को प्यार करती है ।अपने परिवार से सबको लगाव होता है।हमारे प्रति जब कोई अन्याय करता है तो हमको गुस्सा आता है।निजी परेशानियों और मुश्किलों-तकलीफों से निजी स्तर पर सब दुखी होते हैं।यह भावस्थिति है यहाँ मनुष्य भाव नहीं।मनुष्य भाव वह तब बनता है जब हम सबके दुख में दुखी होते हैं और यह प्रयास भी करते हैं कि कोई दुखी न रहे।हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने ऐसा किया और अपने स्तर पर मनुष्य भाव का सर्वोच्च प्रदर्शन किया।ऐसे ही छोटे छोटे स्तरों पर भी लोग करते हैं किन्तु दूसरों को पीड़ित करके जो लोग सरप्लस धन से दान धर्म का पाखंड करते हैं उसमें ऊपर से हमको मनुष्य भाव लगता है किन्तु सच में वह होता नहीं।एक कपटपूर्वक किया गया छल ही होता है।

कविता में हम सचाई के साथ सौन्दर्य की रचना करते हैं।जब भी हम सचाई को दिखाने का प्रयास करेंगे, तभी साधनावस्था वाला सौन्दर्य रचा जा सकेगा।इसमें ही हमको पता चलेगा कि परोक्षतः ही सही,हम स्वयं भी कहीं न कहीं उस उत्पीड़क और उत्पीड़न की प्रक्रिया में शामिल हैं ,जिसका प्रत्यक्षतः हम कविता में विरोध कर रहे हैं।मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में ज्यादातर इसी विषय को अपनी कविता की अन्तर्वस्तु बनाया है।इस वजह से भी उनकी कविता हमको दुर्बोध लगती है क्योंकि वे लीक से हटकर चलते हैं। हर युग में कविता की एक लीक बन जाती है।पिछलग्गू कवि ऐसी ही युग लीकों पर चला करते हैं।लीक छोड़कर चलने वाले को उपेक्षा और प्रहार सहने ही पड़ते हैं इसीलिए तो कहा गया.... लीक लीक गाड़ी चलै,लीकै चलै कपूत। लीक छाँडि तीनों चलैं , शायर सिंह सपूत।लेकिन यह बात हर शायर पर लागू नहीं होती क्योंकि अभी तक का अनुभव यह कहता है कि अधिकांश शायर युगलीक पर ही चलने वाले होते हैं।

महेश चंद्र पुनेठा-मुक्त छंद कविता के सन्दर्भ में जानना चाहूँगा कि वह कौनसा तत्व है जो उसे गद्य से अलगाता है, बहुत सारे पाठक कहते हैं कि इसमें तुक-ताल-छंद तो कुछ भी नहीं हैं. बस इतना है कि उसे छोटी -बड़ी पंक्तियों में लिख भर दिया है.क्या किसी अनुच्छेद को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिख दिया जाय तो उसे कविता कहा जा सकता है? अपनी बात को छोटी-बड़ी पंक्तियों में लिख देने को कविता मान लेने की मानसिकता के चलते ही हर लिखने वाला आज खुद को कवि कहने लगा है.यही हाल तुकांतता को कविता मानने वालों का है. वास्तव में वह कौनसा तत्व है जो किसी रचना को कविता बनाता है?

जीवन सिंह- पहले इस बात पर सोचने की जरूरत है कि ऐसी कौन सी परिस्थतियां थीं जिनकी वजह से दुनिया की लगभग सभी भाषाओं की कविताओं में मुक्त छंद को लाना पड़ा।यह जनता की मुक्ति से जुड़ा हुआ सवाल है।इसको वे ही समझ और सराह सकते हैं जो कविता के साथ-साथ जीवन के विकास क्रम और उसके इतिहास को भी जानते हैं और जिन्होंने जिन्दगी के दर्पण में कविता को देखा है।कविता का सारा सौन्दर्य विधान जीवन का सौन्दर्य विधान है।जीवन में जब लगातार मुक्ति के प्रयास चल रहे हों तब साहित्य उनसे कैसे बच सकता है।आपने देखा है कि पिछली दो शताब्दियों में ही सभी जीवन क्षेत्रों में ज्ञान-विज्ञान का कैसा और कितना विस्फोट हुआ है।यह न होता तो दुनिया में आज सभी जगह राजतंत्र या कबीलाई तंत्र ही होता।जहां की जनता में आधुनिक ग्यान विग्यान की पँहुच नहीं बन पाई है या ताकत से इस प्रक्रिया को रोककर रखा गया है,वहाँ आज भी कबीलाई या सामंती अँधेरा मौजूद है।हमारा भिन्नताओं वाला और पुरातनपंथिता का अभ्यस्त देश ,लोकतंत्र आ जाने के बावजूद पुरातन रूढ़िवाद से जूझ रहा है।नए ज्ञान-विज्ञान को आज भी लोग विदेशी आयातित ज्ञान कहते और मानते हैं। ऐसे में भाव,संवेदना के साथ आधुनिक ग्यान और विचार प्रक्रिया को पुराने बँधे हुए रूपाकारों में व्यक्त कर पाना जब संभव नहीं रह गया तो मुक्त छंद जैसा नया काव्य रूप आया।जब हमारी जिन्दगी का रूप विन्यास बदल रहा है तो कविता का क्यों नहीं बदलेगा।हमारी बोली भाषा, वेशभूषा, घर आवास, भोजन और रीति रिवाजों पर आधुनिकता का गहरा असर हुआ है तब कविता कैसे पुरानी रह सकती है।यदि पुरानी रहेगी तो नई बातें आने से रह जायेंगी।सागर में विस्तार और गहराई न हो तो उसमें देश की सारी नदियों का पानी कैसे समा सकता है। यही बात कविता के साथ भी है।डबरे में जितना पानी समा सकता है उतना ही उसका महत्व है।

कविता में पुराने छंद चाहे न आ रहे हों किन्तु समझदार कवियों में उन छंदों की लय आज भी बची हुई है।निराला, नागार्जुन ,त्रिलोचन,मुक्तिबोध सभी की कविता में लय मौजूद है।इन्होंने तो आधुनिक छंदों में भी कविताएं की हैं और नए छंदों का सृजन भी किया है।साथ ही मुक्त छंद में कविताएं लिखी जा रही हैं।अज्ञेय,रघुवीर सहाय ,सर्वेश्वर ,धूमिल ,कुमारेन्द्र,कुमार विकल ,मानबहादुर सिंह ,विजेन्द्र ,केदारनाथ सिंह,राजेश जोशी, अरुण कमल ,नरेश सक्सेना, कात्यायनी ,नीलेश रघुवंशी आदि सभी के मुक्त छंदों में लय का पूरा समायोजन मौजूद है। इनके अलावा और अनेक नाम छूट गये हैं जिनमें मुक्त छंद की लय मौजूद है। ध्यान रखें मुक्त छंद की लय।हाँ,आज कई ऐसे कवि भी हैं जो मुक्त छंद की बजाय छंद मुक्त कविता लिख रहे हैं। सारा गड़बड़घोटाला उन लोगों ने ज्यादा किया है जो भारतीय और हिन्दी काव्य परम्परा को जाने, समझे बिना सीधे कविता के मैदान में उतर गये हैं।मुझे तो गद्य कविता जैसी दिखने वाली विष्णु खरे की कविता में भी नवोन्मेष और जीवन के मर्म तक पँहुचने की गति जैसी संरचना में लय नजर आती हैं।आप सब पिछली पीढ़ी से सीखकर कविता में लय को बचा रहे हैं।जो अपनी निकटस्थ काव्य परम्परा तक को नहीं जानते, वे ही सारा गड़बड़झाला कर रहे हैं।जिन्होंने अपनी बोलियों के लोकगीतों को थोड़ा भी जान लिया है और उनको अपने मानस में बिठा लिया है वे मुक्त छंद की लय से बाहर नहीं हैं। दूसरे कविता अनेक रूपों में रची जाती है।हर युग में अच्छी और खराब दोनों तरह की कविताएं कही गई हैं।आज भी हिंदी कविता में गीत,गजल,दोहों में उस भावबोध को पूरी लय के साथ ला रहे हैं जो मुक्त छंद की कविता में आने से रह गई है।आप जानते हैं नवगीतकारों और जनगीतकारों में एक जमाने में रमेश रंजक ने हलचल पैदा कर दी थी।गजल में जैसे दुष्यंत कुमार, अदम गौंडवी को कैसे भूला जा सकता है।नवगीतकारों में माहेश्वर तिवारी, राम सेंगर आदि ने गीतों के माध्यम से लोकयथार्थ की नई जमीन को तोड़ा है।नचिकेता नवगीत और जनगीत दोनों के एक समर्पित योद्धा रहे हैं।हिंदी में गीतकाव्य की एक सुदृढ़ परम्परा रही है।यह सब भी हमारी काव्य परम्परा का हिस्सा है।

कविता को कविता बनाने वाला कोई एक तत्व नहीं होता।पुराना समय होता तो मैं कह देता कि रस ही काव्य की आत्मा है।यदि मैं अलंकार से कविता को जाँचता तो कह देता कि कविता को अलंकार से पहचानो क्योंकि अलंकार ही काव्य की आत्मा है।इसी तरह किसी ने ध्वनि, किसी ने वक्रोक्ति और किसी ने इन सभी के औचित्य को कविता कहा:कविता क्या है?इस सवाल का सटीक उत्तर आज तक नहीं मिला है।कविता दरअसल अपने समय के जीवन के जटिल यथार्थ की ऐसी रूपाकार अभिव्यक्ति है जो अनेक रूपों में अनेक तरह से मुक्ति का मार्ग इस तरह से बनाती है कि पढ़ने और सुनने वाले को सुलाए नहीं वरन उसे जगाकर एक ऐसे मनुष्य में बदलने की सामर्थ्य रखती हो ,जो सम्पूर्ण मानवता का नागरिक बन जाए।

महेश चंद्र पुनेठा-आप अच्छी कविता,श्रेष्ठ कविता,बड़ी कविता और महान कविता जैसे पदबंधों का अक्सर प्रयोग करते रहे हैं . इनमें क्या कोई अंतर है ? जबकि ऊपर से देखने पर एक दूसरे के पर्याय ही लगते हैं।

जीवन सिंह- इस तरह का विभाजन टी एस इलियट ने किया है गुड पोएट्री एण्ड ग्रेट पोएट्री। दरअसल जैसा कि सभी को पता है कि कविता एक तरह की नहीं होती।सामान्य और एक ढर्रे में बँधी कविताएं भी हर युग में लिखी जाती हैं इनमें से ही अच्छी और महान कविता का जन्म होता है। अच्छी और महान कविता में भी अन्तर होता है।मसलन हमारे यहाँ भक्ति काल की कविता महानता के सभी स्तरों तक पँहुचती है उसमें कई कवि हैं जो कविता को महानता के स्तर तक ले जाने का काम करते हैं। ...... कबीर, जायसी,सूर ,तुलसी, मीरा, रहीम आदि ने यह काम किया है।इसके बाद आधुनिक काल ही है जिसमें कविता के सभी स्तरों के उदाहरण मिलते हैं।कुछ कवि ऐसे होते हैं जो जीवन की अधिरचना में ही ज्यादा विचरण करते हैं उसके आधारभूत सवालों तक उनकी दृष्टि नहीं पँहुच पाती। महानता आधार और अधिरचना के रिश्ते का सही तौर पर निर्वाह किए बिना नहीं आती।कविता के विभाव का काम करने वालों में मनुष्य से लगाकर सम्पूर्ण प्रकृति कीट,पतंग आदि कुछ भी हो सकता है लेकिन उसकी बुनियादी बातें अलग होती हैं।मसलन उपन्यासकार-कहानीकार तो सैकड़ों की संख्या में हैं पर प्रेमचंद का सानी दूसरा नहीं।इसकी वजह वे जिन्दगी के आधारभूत सवालों को लेकर चलते हैं,जिन पर चल पाना आसान नहीं होता।मैदान पर चलने वाले तो बहुत होते हैं पर साँसों की शक्ति का पता पहाड़ों की चढ़ाई से चलता है।

महान रचना वहीं है,जहाँ से जीवन व समाज की महानता पैदा होती है।जीवन की महानता और कविता की महानता में खास फर्क नहीं है ।एक जीवन व्यवहार के स्तर पर है तो दूसरी शब्द रचना के स्तर पर।इसलिए अपने लक्ष्य को पाने के लिए रचनाकारों को भी खतरे उठाने पड़े हैं अभिव्यक्ति के खतरे, सत्ता के प्रतिरोध करने के खतरे जिससे सही ,सच्ची और बुनियादी बात रची जा सके।इसके लिए सुख-सुविधा, यशध्कीर्ति आदि का लोभ त्याग कर जीवन संग्राम में उतरना पड़ता है।जो ऐसा नहीं कर पाते वे महान रचना से दूर रह जाते हैं।जहाँ तक अच्छी रचना का सवाल है उसे अनेक प्रतिभाशाली रचनाकार वैसे भी कर लेते हैं।रीतिकाल में अनेक प्रतिभाशाली और बेहतरीन रचनाकार हैं लेकिन महान नहीं।महानता सूरज की तरह होती है जो हर युग में प्रकाश देने की क्षमता रखती है।

नई कविता के समय के दो बड़े कवि अज्ञेय और मुक्तिबोध को ही लें तो जीवन के बुनियादी सवालों को जिस स्तर पर मुक्तिबोध उठाते हैं अग्येय नहीं उठा पाते।अज्ञेय निस्सन्देह अच्छे कवि हैं लेकिन उनकी कविता आधार से ज्यादा अधिरचना के सवालों में ही मशगूल रहती है।

महेश चंद्र पुनेठा-आपने भक्तिकालीन कवियों की कविता को महान कविता की श्रेणी में रखा है. दलित और स्त्री विमर्श के इस दौर में कबीर की स्त्रीविषयक कविताओं और तुलसी की जाति-लिंग सम्बन्धी अवधारानाओं को दृष्टि में रखते हुए क्या उन्हें आज भी महान कविता की श्रेणी में रखना उचित होगा?लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ये कवि कितने प्रासंगिक कहे जा सकते

जीवन सिंह- महानताओं का आधार ऐतिहासिक होता है और कालबद्ध भी।वह समय के अनुसार पुनर्व्याख्यायित तो अवश्य होता है जिससे उसके स्वस्थ और प्रासंगिक को स्वीकार कर अप्रासंगिक को छोड़ते हुए आगे के लिए सीखा जा सके।संसार में पूर्णता नहीं होती,सब कुछ विकास के क्रम में रहता है ।इस यात्रा के अगले पडावों में पुराने के सु को अपनाकर कु को छोड़ देने की जरूरत होती है।वर्तमान को ही देख लीजिए, दलित जीवन की त्रासदियों,अमानवीयताओं और यातनाओं पर जितनी. प्रामाणिकता और तात्विक रूप में दलित लेखक लिख पाए हैं उतना सार्थक और सटीक सहानुभूति वाले लेखक नहीं ।दलित रचनाकार प्रो तुलसी राम की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा--मुर्दहिया और मणिकर्णिका का उल्लेख यहाँ दुबारा करना चाहूँगा,रौंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव हैं।प्रेमचंद जैसे महान लेखक ने दलित जीवन की पीड़ाओं और त्रासदियों पर सबसे अधिक और प्रभावी लेखन किया है किंतु जो बातें तुलसी राम के यहाँ हैं उनकी जानकारी प्रेमचंद को भी नहीं थी।प्रेमचंद ने दलितों पर सहानुभूति के आधार पर लिखा जबकि तुलसी राम स्वानुभूतियों के आधार पर लिखते हैं।यही बात स्त्री लेखन के लिए भी सही है।स्त्रियों में फिर भी दो वर्ग हैं उच्च वर्ग की स्त्री का अनुभव संसार वह नहीं है जो निम्न मेहनतकश स्त्री का है फिर भी स्त्री जीवन की कुछ समानताएं ऐसी हैं जो पितृसत्ता की चक्की में समान रूप से पिसती रही हैं। इन पर पुरुष लेखक उतनी प्रामाणिकता और भावनाओं की गहराई के स्तर तक पँहुच पाने में उतने सफल नहीं रहे, जितनी स्वयं भुक्तभोगी स्त्रियाँ रही हैं।
जहाँ तक लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक दृष्टि का सवाल है। यह माँग वैसी ही है जैसे अशोक और 

अकबर महान से कोई लोकतांत्रिक होने और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की माँग करे। महानताएं समय सापेक्ष होती हैं। प्रकृति की तरह तटस्थ और निरपेक्ष नहीं। जब मानव यात्रा विज्ञान और लोकतंत्र के आधुनिक पड़ाव तक पँहुची ही नहीं थी तब कबीर और तुलसी से इसकी माँग करना हमारे इतिहासबोध की कमी ही नहीं, इनके प्रति हमारी ज्यादती भी होगी।

महेश चंद्र पुनेठा-क्या यह माना जा सकता है कि कबीर और तुलसी की लोकप्रियता का कारण उनके काव्य की अंतर्वस्तु का धार्मिक और आध्यात्मिक होना है?

जीवन सिंह- नहीं, यह बात बिल्कुल नहीं है।इनकी बेमिसाल साहित्यिक उत्कृष्टता,अपने समय के जीवन की वास्तविकताओं की इनकी समझदारी और उदात्तता की वजह ही हैं जो इनको महान कवियों की श्रेणी का कवि बनाती हैं।यह अलग बात है कि धार्मिक समाज भी इनका अपने तरीके से उपयोग करता है।ऐसा यद्यपि विरल होता है कि एक साहित्यिक रचना लोकजीवन का धर्म भी बन जाय। हमारा समाज आज तक कभी एकरूप और एकस्तरीय समाज नहीं रहा है।अभिजात वर्ग का साहित्य हमेशा से अलग रहा है।उसको समझने के लिए जब तक साहित्य की शास्त्रीय परम्पराओं और उसके प्रवाह की थोड़ी बहुत समझ पाठक को नहीं होगी तो वह उसको न समझ पायगा और न ही उससे अपनत्व स्थापित करेगा।वैसे भी जब से हमारा समाज वर्ण व्यवस्था और बाद में जाति व्यवस्था में विभाजित हुआ, तब से पढ़ने -लिखने का काम एक विशेष वर्ण और जाति का काम बन गया, तब से हमारे यहाँ शिक्षा जैसे परिवर्तनकारी में तरह तरह के अवरोधक लगा दिए गए ।यहाँ तक कि समाज के पचास प्रतिशत स्त्री वर्ग तक को शिक्षा से दूर कर दिया गया।इससे ग्यान-विग्यान के विकास और फैलाव में तीव्र गतिरोध पैदा हुआ।ऐसे में साहित्य भी विभाजित हुआ ।लोक ने अपने लिए अलग साहित्य रचा, जो लोकसाहित्य कहलाया ।अभिजन वर्ग ने अपना अलग रचा।क्योंकि दोनों का अनुभव संसार अलग रहा था।स्त्रियों ने अपने लिए अलग साहित्य रच लिया।यह विभाजन यहाँ तक हुआ कि मध्यजातियों ,दलितों और आदिवासियों ने अपना साहित्य सबसे अलग रचा।

हमारे यहाँ मध्यकाल से इस्लाम मतावलम्बी एक समुदाय रहता है और दूसरे गैरइ्स्लामिक मतावलम्बी भी साथ साथ रहते हैं।इस्लाम मतावलम्बी समुदाय मेव कहलाता है और उसकी बोली मेवाती कहलाती है जो हिंदी की अनेक बोलियों में एक है।इस बोली में इस समुदाय ने अपने जीवनानुभवों और समझ के आधार पर अपना लोकसाहित्य अलग से रच रखा है जिसमें गीत,बात,दूहा-बिरहड़ा और गाथा साहित्य मौजूद है।

हमारे यहाँ एक समय रहा है जब घर्म को साहित्य का भी धर्म बना दिया गया ।एक तो धर्म का तात्विक दार्शनिक रूप अलग से विकसित हुआ, उसका भावात्मक अनुभूतिपरक दूसरा रूप साहित्य के माध्यम से विकसित हुआ।इस वजह से भक्ति काल का साहित्य धर्म और साहित्य के भेद को मिटा देता है लेकिन वह साहित्य के मामले में भी उच्च स्तरीय एवं उच्च कोटि का साहित्य है।उसकी भाषा लोक की भाषा होने की वजह से वह लोक में इतना लोकप्रिय हुआ कि वह सबका साहित्य बन गया।

वैसे उसका दूसरा बड़ा सच यही है कि वह हमारे जीवन का साहित्य है।धर्म चूंकि जीवन का हिस्सा रहा है इसलिए उसकी अभिव्यक्ति भी उसके माध्यम से हुई किन्तु वह धार्मिक साहित्य नहीं है।है वह मूलतः साहित्य ही,हमारे जीवन की वास्तविकताओं को व्यक्त करने वाला साहित्य।मसलन जायसी सरीखे कवियों ने सूफी सिद्धांतों को अपना कर जीवन में प्रेमानुभूति के महत्व और उसकी भूमिका का प्रतिपादन किया।उनका प्रयोजन प्रेम है न कि सूफी सिद्धांत ।ऐसे ही कबीर, सूर ,तुलसी, मीरा , रहीम आदि का साहित्य है।वह मनुष्य जीवन का साहित्य है।इनकी लोकप्रियता की वजह इनके द्वारा किया गया लोकजीवन व उसकी आकांक्षाओं का चित्रण रहा है।
 
महेश चंद्र पुनेठा-क्या आपको लगता है कि रामचरितमानस एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं होता तो घर-घर इतना अधिक पढ़ा और सम्मानित होता?

जीवन सिंह- इस बारे में मेरा यह मानना है कि पहले वह कविता ही है लेकिन उसका अनुभूति पक्ष और चरित्र कथा कुछ इस तरह की बन गयीं है कि वह धर्म और धर्म-व्यवसायी दोनों के काम आने लगी।हमारे देश में आप जानते हैं कि कथावाचकों की एक लम्बी और सुदृढ़ परम्परा रही है।इस सम्बंध में पहला बड़ा और राष्ट्रीय स्तर का नाम है बरेली के राधेश्याम कथावाचक का।वे रामचरितमानस को आधार बनाकर सस्वर संगीतमय और ओजस्वी मनोरंजक धर्म निर्वाह करने वाली कथा सामान्य जन के सामने कहते थे,जिसका सम्मोहक प्रभाव जन-मानस पर होता था।कदाचित इस प्रभाव का आकलन करते हुए गीताप्रेस गोरखपुर ने इस ग्रन्थ को पुराण परम्परा में रखते हुए घर-मन्दिरों में लोकप्रिय बना दिया और धार्मिक साहित्य के साथ इसको इतने सस्ते मूल्य पर प्रकाशित किया कि यह घर घर की भक्तिभाव वाली एक धार्मिक कृति बन गयीं।वैसे भी भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण करते हुए जार्ज ग्रियर्सन को इसकी प्रति किसी मन्दिर में ही मिली थी।हिंदी में साहित्य बोध का संस्कार लम्बे समय तक रीतिवादी रहा है इस वजह से भी भक्ति को जीवन में रसानुभूति की मान्यता से दूर रखा गया।

हमारे यहाँ आलोचना-विवेक विलम्ब से विकसित हुआ।जो हुआ उस पर रीतिवादी-सामंतवादी संस्कार हावी रहे।इस वजह से भक्त कवियों का सही साहित्यिक मूल्यांकन देरी से हुआ और ये धर्म की वस्तु बने रहे।लेकिन जब जीवन दृष्टि में बदलाव आया और वह आधुनिक हुआ, तब समझ में आया कि इनमें भक्ति और धार्मिक भावभूमि के अलावा और बहुत कुछ ऐसा है जो जीवन के विभिन्न पहलुओं और साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यंत उच्च कोटि का है।तब स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल सरीखे आलोचक ने इस युग की कविता के साथ लगभग एक हजार साल की हिन्दी रचनाशीलता को जब आधुनिक जीवन विवेक से परखा तथा इसका वस्तुगत आकलन किया ,तब हमारी साहित्यिक दृष्टि में बहुत बड़ा बदलाव हुआ।प्रगतिशील आन्दोलन ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ,जिससे रामचरितमानस को नए प्रतिमानों के आधार पर द्वन्द्वात्मक नजरिए से देखा गया।इस मामले में रामचरितमानस की लोकप्रियता अपने स्थान पर आज भी अक्षुण्ण है। वह धार्मिक भी है और साहित्यिक भी। पहली बात तो यह कि तब यह केवल धार्मिक ग्रंथ ही होता।यह चूंकि साहित्यशास्त्रीय कसौटी पर रचा गया एक अद्भुत ग्रंथ है इसलिए इसका बहुविध उपयोग हुआ है।रामलीला जैसे लोकनाट्य रूप ने भी इसको लोकप्रिय बनाया है। इस ग्रंथ को घर घर में लाने का काम इसके सस्ते संसकरणों ने भी किया और हमारे लोकजीवन की उन परिस्थितियों ने भी जो व्यक्ति को हमेशा बड़े दुखों और त्रासदियों के सागर में डुबोकर रखे हुए हैं।कुछ लोग इसके माध्यम से जिंदगी को सुधारने का लालच भी दिखाते रहे हैं।तो ये अनेक पहलू हैं जो इसे लोकप्रिय बनाते हैं।तब इसको कथावाचक ही लोकप्रिय बना देते क्योंकि इसकी लोकभाषा में और लोकानुभवों में वह आन्तरिक ऊर्जा मौजूद है जो इसे लोकप्रिय बना देती।
 
महेश चंद्र पुनेठा-क्या आपको लगता है कि आम पाठक इसका काव्यशास्त्रीय ढंग से आस्वाद लेता है?

जीवन सिंह- किसी भी साहित्यिक रचना के आस्वादन की कुछ सामान्य शर्तें होती हैं,जिसे हम साहित्यिक संस्कार या अभिरुचि कह सकते हैं।इसके बिना उसका एक कला कृति के स्तर पर आस्वादन संभव नहीं है।ऐसा भक्ति भाव के स्तर पर ग्रहण की गई सभी रचनाओं के साथ होता है। यही कारण रहा है कि भक्ति भाव से ग्रहण किया गया साहित्य उसका ऐतिहासिक यथार्थ परक आस्वादन नहीं कर पाता।साहित्य का अध्यापन करने वाले अनेक शिक्षक आज भी ऐसे हैं जो इनका केवल भक्ति परक पाठ ही करते हैं।अन्य पक्षों को वे इन पर आरोपित मानते हैं।दरअसल अध्यापक ने अपना संस्कार कहाँ बदला है।इसलिए इनके धार्मिक और भक्ति परक पाठ ही अधिक प्रभावी रहे हैं।जहाँ बदलाव आ गया है वहाँ इनके नए पाठ आ गये हैं।प्रगतिशील-जनवादी दृष्टिकोण ने बदलाव का बहुत बड़ा काम किया है किंतु वह लोक स्तरों तक व्यापक नहीं बन पाया है।वह कुछ साहित्यकारों की दुनिया में सिमटकर रह गया है।यह बहुत बड़ा काम है।और इसके लिए व्यापक स्तर पर दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है।

महेश चंद्र पुनेठा-आपका मानना है कि सधे जीवन के कवि बड़ी कविता नहीं लिख सकते हैं.जिन्होंने जीवन साधा है उनकी कविता कभी बड़ी नहीं हो सकती है. इसका मतलब क्या यह माना जाय कि कविता रचने के लिए काव्य-कौशल की अपेक्षा जीवनानुभव अधिक जरूरी हैं और एक मध्यवर्गीय कवि बड़ी कविता नहीं रच सकता है?

जीवन सिंह- जीवनानुभव ही तो किसी बड़ी रचना का आधार होते हैं।अनुभव ही तो हैं जो अनुभूति और संवेदना में बदलते हैं।कबीर के पास उनके समय में जो जीवनानुभव थे,वैसे दूसरों के पास कहाँ हैं? लेकिन रचना केशल अनुभवों से ही संभव नहीं है वह संस्कार और बुनियादी मेधा भी होना जरूरी है जो अनुभवों को रचना में बदल सकें।इसके लिए उस ग्यान की आवश्यकता भी है जो किसी कृति को अद्यतन जीवन,समय और उसके विवेक से जोड़ता है।लेकिन बुनियाद जीवनानुभव ही होते हैं। कोई न कोई अनुभव तो हरेक व्यक्ति के पास होता है उसे वह व्यक्त कर सकता है और सृजन की प्रतिभा है तो अपने सीमित अनुभवों को सृजनात्मक रूप प्रदान कर सकता है।यही वजह रही कि जीवनानुभवों के अनुसार साहित्य में भी वर्गीय श्रेणियाँ बन जाती हैं। सामान्यतया मध्यवर्ग ही होता है जो इस तलह का रचना कम करता है किन्तु बड़ी रचना के लिए उसे अपनी वर्गीय सीमा का अतिक्रमण करके सम्पूर्ण और जटिल जीवन यथार्थ को समझना जरूरी होता है और लगातार जड़ीभूत होती सौंदर्याभिरुचि का परिवर्तन एवं परिष्कार करना आवश्यक होता है अन्यथा जड़ होने का खतरा बना रहता है। वही मध्यवर्गीय कवि बड़ी रचना कर पाया है जिसने अपने अनुभवों की सीमाओं से आगे जाकर अपना वर्ग विस्तार कर लिया है। जैसे मुक्तिबोध ने करके दिखला दिया।कथा साहित्य में यह काम प्रेमचंद ने करके दिखलाया।

महेश चंद्र पुनेठा-बड़ी कविता लिखने के लिए एक कवि के लिए आप किस तरह की तैयारी जरूरी मानते हैं? कविता तो अनुभूति का मसला है,उसके लिए अध्ययन की क्या जरूरत है ? क्या अध्ययन कवि की मौलिकता को प्रभावित नहीं करता है?

जीवन सिंह- जैसे व्यक्ति जिंदगी के अन्य क्षेत्रों में महत्ता के लिए साधनारत रहता है इसीलिए आचार्यों ने कविया रचना कर्म को साधना का दर्जा दिया है। साधना करना भी पूरा काम है आधा अधूरा नहीं या बैठे ठाले लोगों का मनोरंजन कर्म नहीं है। किसी भी जीवन क्षेत्र में बड़ा होना आसान नहीं।रीति काव्य इसीलिये तो महानता की कोटि तक नहीं पहँुच पाया कि कवि में काव्य प्रतिभा होते हुए भी वहाँ जीवन की साधना बहुत कमजोर है। भक्ति काल में कवियों ने बहुत बड़ी जीवन साधना की है किसी भी तरह की सत्ता के लोभ लालच को पूरी तरह छोड़कर साहित्य कर्म किया है। आधुनिक काल में प्रेमचंद, निराला,नागार्जुन,मुक्तिबोध इसके उदाहरण मौजूद हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक जगह पर कहा है कि जिनका हृदय बहुत संकुचित या निम्न कोटि का होता है,कविता उनसे बहुत दूर की वस्तु होती है,कवि वे भले ही समझे जाते हों।

कवि का यह संकोच उसकी निरंतर जीवन साधना करने से दूर होता है सिर्फ घर में बैठकर साधना करने से नहीं।जीवन के जितने बड़े और गहन थपेड़ों का अनुभव कवि को होगा ,उतना ही बड़ा उसका साहित्य कर्म होता जायगा। अध्ययन या ज्ञान की साधना कम महत्त्व नहीं रखती। आधुनिक समय का आधार ही ज्ञान है,जिसे हम नवजागरण कहते हैं।ज्ञान और विज्ञान न होते तो दुनिया आधुनिक नहीं होती। साहित्य कर्म जितना जीवन साधना है उतना ही उसे समझने के लिए ग्यान साधना भी है।

जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान बढ़ते और विकसित होते जायेंगे, वैसे वैसे कविता या साहित्य कर्म भी नया स्वरूप ग्रहण करता जायगा।यह नया जीवन यथार्थ ही था जिसको कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने मुक्त छंद को अपनाया अन्यथा नए छंद. की क्या जरूरत थी ?अनुभूति तो पुराने छंदों में व्यक्त हो सकती थी।इसका सीधा सा मतलब यह है कि समय के अनुसार विचार और भावधारा भी बदलती है।इसे नए समय की ज्ञान साधना के बिना समझ पाना संभव नहीं है।यदि सही दिशा में जाने के लिए अध्ययन सहायक होता है तो मौलिकता खत्म नहीं होती।कवि की मौलिकता का संबंध उसके अनुभव संसार से रहता है ।वह जितना गहरा और व्यापक होगा ,उतनी ही उसकी मौलिकता का स्वरूप भी व्यापक होता जायगा।वैसे अनुभव का रिश्ता भी ज्ञान से होता है जीवन का जितना ज्यादा अनुभव होता है ज्ञान का फैलाव भी उतना ही होता जाता है।कबीर ने तो अपने अनुभवों से ही सब कुछ जान लिया था। दूसरी तरफ तुलसी हैं जिनके यहाँ जीवन साधना की तरह ज्ञान साधना भी है लेकिन कई बार पारम्परिक शास्त्रीय ज्ञान भी कवि को एक नए किस्म के बंधन में बाँध देता है।जैसे तुलसी की कई धारणाओं में वह दिखाई देता है।इसी तरह से हर व्यक्ति के अनुभवों की सीमा भी होती है।मसलन स्त्रियों के मामले में कबीर के साथ हुआ।
 
महेश चंद्र पुनेठा-आपने ठीक कहा कि नए जीवन यथार्थ को कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने के लिए कवियों ने मुक्त छंद को अपनाया पर क्या यह मुक्त छंद कविता की लोकप्रियता की कमी का कारण नहीं बनता जा रहा है. कविता की अति गद्यात्मकता ने क्या पाठकों को उससे दूर नहीं कर दिया है? या आपको पाठकों की दूरी का कोई और कारण लगता है?

जीवन सिंह- दरअसल , हम छंदों में रची गई जिन पुरानी कविताओं की लोकप्रियता की बातें अक्सर करते रहते हैं वह वास्तविकता कम,मिथक ज्यादा है।कविता के रूप में लोकप्रिय होना अलग बात होती है,जिस समाज में कविता लोकप्रिय हो ,उस समाज की उदारता और नैतिकता का स्तर बहुत ऊँचा होना चाहिए।उस समाज से संकीर्णताओं और तरह तरह के अंधविश्वासों और रूढ़यों का अंत होना चाहिए लेकिन हमारे यहाँ तो सब कुछ उलटा पुलटा चल रहा है।रामचरितमानस की लोकप्रियता का उदाहरण ही यहाँ रखता हूँ जो लोकप्रियता का एक माणक ग्रंथ है।साहित्यिक दृष्टि से देखें तो उसका सबसे बड़ा संदेश त्याग का है और एक शैतान की व्यवस्था से. संघर्ष का ।राम उस सोने की बनाई लंका की एक जनविरोधी व्यवस्था से लड़ते हैं और खुद पारिवारिक सत्ता के लिए संघर्ष से बचते हैं।यह इस कृति का साहित्यिक संदेश है लेकिन कितने पाठक हैं जो इस संदेश से प्रभावित होते हैं।यदि रामचरितमानस की लोकप्रियता का कोई साहित्यिक प्रभाव समाज पर होता तो उसकी सामाजिक -नैतिक संरचना आज दूसरी ही होनी चाहिए थी ।लेकिन समाज तो इसका ठीक उलट है ।लोभ-लालच और स्वार्थों के लिए कितना भयावह संघर्ष आज समाज में चल रहा है ,आप जानते हैं।तह तो मैंने सबसे अधिक लोकप्रिय कृति की बात की है।मैं आपसे सवाल करता हूँ कि हिंदी पढ़ाने वालों में ही साहित्य के प्रति कितना लगाव है यदि यह उनकी रोजी-रोटी न हो तो।तो जिसे आप लोकप्रियता कह रहे हैं वह एक मिथक ज्यादा है। हाँ,कुछ अन्य कारणों से, जो साहित्येतर ज्यादा हैं एक तबके का साहित्य लोकप्रिय अवश्य है ।ऐसा हर युग में होता है।

हमें यदि सच में कविता से लगाव होता तो घर घर में कविता की पुस्तकें और हर घर में एक कक्ष निजी पुस्तकालय के लिए होता।कितने लोग हैं जो घर का नक्शा बनवाते समय आर्किटेट से एक छोटा सा किताब घर बनाने का प्रावधान रखने के लिए कहते हैं।क्या कविता से प्रेम बिना किसी तरह की अभिरुचि दिखाये बिना संभव है।कितने श्रोता हैं जो कविता पाठ जैसी गोष्ठियों में आते हैं।कितने लोग हैं जो आज का गंभीर कथा साहित्य --उपन्यास, कहानी आदि पढ़ते हैं।कथा साहित्य तो मुक्त छंद में नहीं है फिर भी आपके आसपास समाज में कितने लोग हैं जो साहित्य के गंभीर पाठक हैं।क्या यह सच नहीं है कि हमारे यहाँ साहित्य बड़े सामाजिक स्तर पर साहित्य कभी जिन्दगी की प्राथमिकताओं में रहा ही नहीं ।समाज का निम्न मेहनतकश वर्ग तो रोटी--रोजी पाने की परेशानियों में ही सारा जीवन गुजार देता है।मध्य वर्ग के पास अवकाश भी रहता है और खर्चने को धन भी।किन्तु इस वर्ग के कितने लोग हैं जो अपनी जिन्दगी के केन्द्र में नहीं तो कम से कम हाशिये पर ही रखते हैं।एक बहुत छोटा सा समुदाय है जो साहित्य सृजन और उसका पठन पाठन करता है।इसमें भी एक ऐसा वर्ग है जो विशुद्ध मनोरंजनधर्मी कविता को कविता मानता है जिसे गंभीर साहित्य का कुछ भी अता- पता नहीं होता । इसलिए कविता और उसकी लोकप्रियता का सवाल है इस धारणा में मिथक की मात्रा बहुत अधिक है।यह बात सही है कि गीत शैली में गाकर सुनी-सुनाई जाने वाली कविता और गजल की प्रियता मुक्त छंद में लिखी जा रही कविता से अधिक है।लेकिन उस तरह की कविताओं में क्या वह और अधिक जटिल एवं खुरदुरा ऊबड़खाबड़ यथार्थ आ पाता है,यह सवाल अपनी जगह पर बना रहता है।मुक्तिबोध ने मुक्त छंद में जो दिया है क्या वह छंदबद्ध कविता में आ पाना संभव था।
 इसलिए मेरा मानना यह है कि एक विविध रुचि वाले समाज के लिए कविता की विविध विधाओं में साहित्य सृजन हो ,जो बड़े स्तर पर तरह तरह से साहित्यिक संस्कार का निर्माण करें, जिससे कविता ,समाज की प्राथमिकताओं में अपना स्थान बना सके।जिस रोज यह होगा, मुक्त छंद की कविता में भी पाठकों का मन रमने लगेगा। इसलिए गीत,गजल जैसी विधाओं को भी गंभीरता से लेने की जरूरत है क्योंकि ये साहित्य के संस्कार और उसकी जमीन बनाने का काम करते हैं।


संपर्क- डाॅ0जीवन सिंह 1/14अरावली बिहार, अलवर-301001 (राजस्थान)
महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी न्यू पियाना पो0डिग्री कालेज जिला-पिथौरागढ़ 262502


स्त्री-कविता का सामाजिक स्वर और शुभा की कविताएँ - आशुतोष कुमार

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आलोकधन्वा  की  कविता “भागी  हुई  लड़कियां” १९८८ में छपी . यह  घटना  हिंदी कविता के इतिहास  में  एक मील का   पत्थर है . इसके  बाद  ही  हिंदी में  पितृसत्ता  को  सीधे  निशाने  पर  लेनी  वाली  स्त्रीवादी कविताओं  का  सिलसिला  शुरू  होता  है . कात्यायनी  की  ‘हॉकी  खेलती  लड़कियां’  , गगन  गिल  की  ‘एक  दिन  लौटेगी लड़की’ , सविता  सिंह की “मैं  किसकी  औरत  हूँ’, अनीता  वर्मा की  “ चेहरा” , अनामिका की  “प्रथम स्राव” और  अनिता  भारती  की  “जहांगीरपुरी की  औरतें”  जैसी  विविध  रंगों  की  बहुत-सी कविताएँ  इस  सिलसिले  में शामिल  हैं. तेजी  ग्रोवर  , नीलेश  रघुवंशी , निर्मला  गर्ग , लीना  मल्होत्रा राव ,   वंदना  ग्रोवर , शुभम श्री समेत  अनेक  कवयित्रियों  ने  इसे  आगे  बढाया है . फिर  भी इस  बात  से  शायद  ही  कोई  इंकार करे कि आलोकधन्वा  की  इस प्रसिद्ध कविता ने  हिंदी  की  स्त्रीवादी  कविता  के  लिए  जमीन और  माहौल  बनाने  में महत्वपूर्ण  भूमिका  निभाई . अगले  साल  आई उनकी   कविता “ब्रूनो की  बेटियाँ”  ने इस माहौल को और  जीवंत कर  दिया . 

आलोकधन्वा की  इन  कविताओं  को  छोड़  दें  तो हिंदी  में  महादेवी  वर्मा  के  बाद पितृसत्ता क्ले  प्रतिरोध की स्त्री  को  सम्बोधित करती कोई  बड़ी  कविता  दिखाई  नहीं  देती . हिंदी  कविता  के  उर्वर  दौर  में  स्त्री-कविता  का  इतना  अकाल  क्यों  है ? “भागी  हुई  लड़कियां” मध्यवर्गीय घरों  में मौजूद पितृसत्ता के उन बद्धमूल ‘कुलीन’  संस्कारों  पर   चोट  करती हैं , जिन्हें आमतौर पर दबा कर , ढंक  कर ,  रखा  जाता  है . मगर  जब कोई लडकी  घर  से  भाग  खडी  होती  है तब  ये   जंजीरें साफ़  दिखाई  देने  लगती  हैं. 

यह  कविता  सर्वश्रेष्ठ  उदाहरण है  कि एक  पुरुष  स्त्री  को कितनी  सहानुभूति दे  सकता  है  और  उसके  साथ  कितनी  समानुभूति  महसूस  कर  सकता  है . लेकिन  यह  उस  सीमा  का  उदाहरण  भी  है  , जिसके  आगे  पुरुष  शायद नहीं  जा  सकता .

“......तुम
जो
पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेखौफ भटकती है
ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में ! ...”

पत्नी , प्रेमिका , वेश्या - पुरुषप्रसंग  में  स्त्री  की  यही  तीन  भूमिकाएं  समाज  ने  तय  की  हैं . इन  तीनों  को ठुकराकर  आलोकधन्वा  की  स्त्री अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व   हासिल  करने  के  लिए  भटकती  है , लेकिन  उसके  पास  इन्ही तीन  भूमिकाओं  को  एक  में  मिला  देने  से  अधिक  रचनात्मक कोई  और  उपाय  नहीं  है .   कवि  उत्पीड़ित  स्त्री  को  मुक्त तो  देखना   चाहता  है , लेकिन  उसके  पास  मुक्त-स्त्री की  कोई  स्वतंत्र कल्पना नहीं  है .

स्त्रीवादी  कविता इस  नई मुक्त-स्त्री  की परिकल्पना के  साथ  शुरू होती  है . चाहे  कात्यायनी की   हॉकी खेलती  लड़कियां  हों या जहांगीरपुरी की मजदूरी  के  लिए  आती-जाती औरतें, उन्हें अपने  वजूद  को  परिभाषित  के  लिए  किसी  पुरुष –सन्दर्भ की न  जरूरत  है , न प्रतीक्षा . सविता  सिंह  की  औरत रेखांकित  करती  है  कि  वह  किसी  मर्द की  औरत  नहीं  है . पुरुष  प्रधान  समाज  द्वारा  निर्धारित रिश्तों से अलग एक  ‘मनुष्य’  और  एक ‘स्वतंत्र  व्यक्ति’  के  रूप  में खुद को पाने  के  उत्कट इच्छा यानी  आत्म-रेखांकन  इस  नई  स्त्री की  सबसे  पहली  पहचान है . 

शुभा  की  कविता “प्रेम  की  इच्छा” इस  दोनों आकांक्षाओं   को  सबसे साफ़  दर्ज़  करती  है . ऐसा  इसलिए कि इस  कविता  में  लड़की प्रथम  पुरुष  में  बात  करती  है . अन्य  पुरुष  में  नहीं  . वह कहीं  आती-जाती या  खेलती-कूदती  लडकियों को  दूर  से  देख  कर उनकी आज़ादी  का a जश्न  नहीं  मनाती . वह  ख़ुद  अपनी  आजादी की  घोषणा  करती  है .

“... मैं  चाहती  हूँ
नोटिस  लिया  जाए 
इस  बात  का 
कि  मैं  यहाँ  हूँ , इस  धरती  पर
एक  साधारण  लडकी
जिसमें  खलबला  रही  है
एक असाधारण  लड़की
पक्षी  की  तरह  डैने फैलाए ..”

वह  अपनी  असाधारणता के प्रति  सजग है  , लेकिन  साधारणता को  गंवा  नहीं  देना  चाहती . परिवार , समाज , राज्य  और  बाज़ार  स्त्री  पर  असाधारण  होने  का  दबाव  डालते  हैं. स्त्री  अगर  विश्व-सुन्दरी या  ओलम्पिक –विजेता  हो  तो उसका मोल  बढ़  जाता  है . एक  साधारण  लड़की  का  कोई  मोल  नहीं  है . लड़का  जनम  लेते  ही  अनमोल मान  लिया  जाता  है. एक  साधारण  लडकी  के  रूप  में  खुद  को  पहचानना स्त्री  के  आत्म-रेखांकन  की  पहली  सीढ़ी  है .

साधारण  होते  हुए  भी  हर  व्यक्ति असाधारण  होता  है  , क्योंकि  कोई  किसी और  की जगह  नहीं  ले  सकता . इस  साधारण असाधारणता पर  जोर  देना एक  अपने  स्वतंत्र और  व्यक्तित्व का  दावा करना  है .  एक  स्वतंत्र व्यक्ति  के रूप  में  ही स्त्री मनुष्यता के  इतिहास  की समूची  विरासत  पर  अपना  दावा  ठोंक  सकती  है और  अपने “मनुष्य” होने की  घोषणा  कर  सकती  है . स्वामित्व की  भावना  के  साथ  नहीं  , बल्कि  मनुष्य  होने  की  तकलीफों  और  कुर्बानियों  में  भागीदार होने की  तैयारी  के साथ !

“..  क्या  किसी  मनुष्य  ने
ठीक  यही कोण  बनाया था ,
सूरज  के  मुकाबले ,
जो  मैं  बना  रही  हूँ

पृथ्वी  बहुत  परिचित  लगती  है  आज
पूर्वजों  के पदचाप  से
गूँज  रही  हैं  शिलाएं
और  घने  ऊंचे  पेड़
यह  धरती  आज  लगती  है 
सचमुच  मातृभूमि

भला  मनुष्य  बनने  की 
इच्छा  जग  रही  है  मुझमें
जो  ले  जाएगी  मुझे मेरे  दुखों 
और मेरी कुर्बानियों  तक “

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समकालीन  स्त्रीवादी  कविता के  अनेक  प्रवृत्तियाँ   हैं . इनमें से चार  की शिनाख्त  आसानी  से  की  जा  सकती  है . इसे  वर्गीकरण  या  श्रेणीकरण का प्रयत्न    समझा  जाए . यह  केवल  शुभा की  रचनाप्रक्रिया  को  समझने की  सुविधा  के  लिए  सुझाया  जा  रहा  है . इन्हें  स्त्री  कविता  के चार  स्वरों  की  तरह  देखना चाहिए .

पहला स्वर आंदोलनकारी स्त्री-कविता  का  है , जिसे  कात्यायनी और  शुभमश्री की कविता  में  आसानी  से  देखा जा  सकता  है . स्त्री  यहाँ   आमतौर  पर  समूची  स्त्री-जाति  की प्रतिनिधि  बनकर  आती  है . वह  इस  ‘पौरुषपूर्ण समय’  में  अपनी जेंडर-अस्मिता  के  लिए  संघर्ष कर  रही  है .

दूसरा  स्वर गगन गिल , सविता  सिंह और अनीता वर्मा  के यहाँ देखा  जा  सकता  है . यह  स्त्री    अपनी  स्त्री-अस्मिता  के प्रति  सचेत  है , पुरुषवादी  समाज  में  अपनी  अवस्थिति की  जटिलता और  उसके  खतरों को  समझती  है , और  अपने  निजी  वज़ूद  की  रक्षा  के  लिए संघर्षरत है . यहाँ पर्सनल  ही  पोलिटिकल है. इसे  स्त्री  कविता  का निजी  स्वर  कह  सकते  हैं . इन कविताओं  में  आकांक्षा , स्वप्न , आखेट और कहीं-कहीं अवसाद  की  गहरी  छायाएं डूबती-उतराती मिलती हैं. कविता  को  शुरुआती  आवेग  किसी व्यक्तिगत  दुख की गहरी  अनुभूति से  मिलता  है . फिर  वह  क्रमशः उसके  सामाजिक आशय  , मानवीय  सारतत्व और  कभी –कभी  आध्यात्मिक संकेतों की ओर  बढने  की कोशिश  करती  है .

तीसरे  स्वर  को स्त्री  कविता  का  सामाजिक  स्वर  कह  सकते  हैं. यह  स्त्री अपनी  स्त्री-अस्मिता के  प्रति  सचेत है , अपनी  निजता  के  प्रति  सम्वेदनशील  है , लेकिन उसका  सामाजिक दायित्वबोध भी उतना  ही  मुखर  है . उसके  लिए  पोलिटिकल ही  पर्सनल है . इन  कविताओं  में  जेंडर  के अलावा  दीगर राजनीतिक-सामाजिक प्रश्नों  से टकराने का  बराबर  उत्साह  दिखता  है , जेंडर के  परिप्रेक्ष्य में  ढील  दिए  बगैर.  यह अक्सर  सामाजिक त्रासदी के  किसी  साक्षात्कार से शुरू  होती  है और क्रमशः उसकी  व्यक्तिगत अनुगूंजों  को सुनने  की  कोशिश  करती  है   अनामिका , शुभा ,निर्मला  गर्ग ,  संध्या  नवोदिता और  लीना  मल्होत्रा  राव आदि  की  कविताएँ इस  सन्दर्भ  में  याद  की  जा  सकती  हैं .

चौथा  स्वर  इसी  तीसरे  स्वर  का विस्तार है . यह  स्त्री  कविता  का  दलित  स्वर  है , जिसका  प्रतिनिधित्व रजनी  तिलक  , अनिता  वर्मा और  रजनी  अनुरागी आदि  की  कविताओं  में  देखा  जा  सकता  है . यहाँ  जेंडर  के  साथ  जाति-उत्पीड़न  का  सवाल प्रमुखता  से  जुड़  जाता  है .

शुभा  की कविताई में तीसरा स्वर  प्रमुख  है , लेकिन जो  चीज   इसे  सबसे ख़ास  बनाती  है वह है  उनकी राजनीतिक चेतना  और इतिहासबोध .   राजनीतिक  चेतना शक्ति-सम्बन्धों  की  चेतना है , जिसका  स्वरूप  कभी-कभी  गैरराजनीतिक  भी  हो  सकता  है .  शक्ति-सम्बन्धों का बदलता  हुआ   गतिविज्ञान  क्रांति से  लेकर   प्रेम  तक को  प्रभावित  करता  है .  शुभा  की  कविता  में  विशुद्ध  प्रेम  जैसी  कोई  चीज  नहीं है . न सनातन  सत्य  जैसी  कोई  बात  है . उनकी  कविता  इतिहास  की  बदलती  हुई  चाल  और  उसके  पीछे की  राजनीति को  ध्यान  से  देखती –परखती  रहती  है. इसलिए  अनुभव  में  निहित  ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि को  आसानी  से  उद्घाटित  कर  पाती  है . झोलझाल , धुंधलापन , दुविधा , रहस्य और  अनिश्चय यहाँ  कम  से  कम  मिलेगा , लेकिन  कविता  की अर्थ-समृद्धि और  सांकेतिकता की कमी  नहीं  मिलेगी .

तीसरे  स्वर  की कविताओं  की   रचना-प्रक्रिया पर  लौटें . हमने  निवेदन  किया  था  कि  यहाँ  पोलिटिकल ही  पर्सनल है , इसलिए  कविता प्रायः  किसी  सामाजिक  त्रासदी के साक्षात्कार  से  शुरू होती  है और  क्रमशः उसके  व्यक्तिगत   आशयों तक  पहुँचती  है . यह  इतिहास  को  अपनी  रगों  में  महसूस  करने  जैसी  बात  है . इतिहास  की धड़कनों  को  अपनी  धड़कनों  में सुनने जैसी  बात . “हमारे समय  में” इस  रचना - प्रक्रिया को देखा  जा सकता  है .

“हम महसूस करते रहते हैं
एक दूसरे की असहायता
हमारे समय में यही है
जनतंत्र का स्वरूप

कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास

एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं

आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं

हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है.”

जनतंत्र  और  स्वाधीनता आधुनिकता  को  परिभाषित  करने  वाली  अवधारणाएं  हैं. आधुनिक  युग  में  साधारण  जन  को  शक्तिसम्पन्न करने  वाली धारणाएं  हैं . लेकिन ठीक  अपने समय  में हम  इन्हें  व्यर्थ  और  विफल  होता  देख  रहे  हैं. दुनिया  के  अलग  अलग  हिस्सों  में  नब्बे  की  बाद जनतंत्र  विरोधी फासीवादी  शक्तियों का  उभार हुआ  है , जबकि  सोवियत  संघ  के  पतन  के बाद  यह घोषणा की  गई  थी कि यह जनतंत्र  के  अंतिम विजय  का  युग  है . भारत में  हम  चुनावों  को  आते  जाते  देखते  रहे  हैं. इसे  दुनिया  की  सफल  लोकतांत्रिक  व्यवस्थाओं  में  गिना  जाता  है . लेकिन आमजन  का  अनुभव यही  है  कि हर  चुनाव एक  और बड़ी  निराशा  देकर  जाता  है . लोकतंत्र  में  “असहायता”  के  अनेक  रूप  हैं . एक तो  यह  कि लोकतंत्र में  बदलाव  की कुंजी  जनता  के  हाथ  में  होती  है . वह वोट  के जरिए  राजनीतिक  बदलाव  सम्भव  करने  का  संतोष पा  लेती  है  , इसलिए  उसका  सम्मिलित  असंतोष  कभी  भी  क्रांतिकारी विस्फोट नहीं  बन  पाता. लेकिन ऊपरी  तौर  पर  चीजें  जितनी  बदलती  दिखाई  देती  हैं  , उतनी  ही ज्यों  की  त्यों  बनी  रहती  हैं.   दूसरे  जीते-जागते  मनुष्य की  पहचान  एक  वोट  में  बदल  जाती  है . मनुष्य  अपना  प्रतिनिधि    रहकर  समूह , समाज  , समुदाय , धर्म या  जाति  का  यानी  किसी    किसी  वोटबैंक  का प्रतिनिधि बना  दिया  जाता  है .

कविता  असहायता के  इस  अनुभव  से  जनम  लेती  है और स्वाधीनता  की  उस  विडम्बना में  घटित  होती  है  , जिसमें  हर  असहमति  और  अधिक  सूनेपन  या अकेलेपन तक  ले जाती  है. असहमति  लोकतंत्र  की  जान  है . अगर  वह  जान  के जोखिम  में  बदल  जाए तो  लोकतंत्र  की इससे  बड़ी  विडम्बना  क्या होगी ? असहायता  की  चरमसीमा  पर  पहुँच  कर  सिर्फ  आत्महत्या करने  और  अंतिम  नोट  लिखने  की  स्वाधीनता  बची  रह  पाती  है  . यह कोई  कविकल्पना  नहीं  , हक़ीकत  है . इसे  हम रोज  हज़ारों किसानों  और  नौजवानों  के साथ  घटित  होता  देखते  हैं. इस  तरह  लोकतंत्र  सामूहिक  हत्याओं  के एक  विराट  उत्सव  में  बदल  जाता  है  , जिसमें  शरीक  होना प्रत्येक  नागरिक  की विवशता  हो  जाती  है . इस शरीक  होने  में कोई  विकल्प  नहीं  होता  . साँस  लेने  की  कोई  जगह  नहीं  होती . शहीद   होने  और   समर्पण  करने  के बीच कोई रास्ता  नहीं  होता . यहाँ  आकर  इस लोकतंत्र  में  निहित क्रूरता  और असहायता का अनुभव एक    निजी  यातना  में  बदलने लगता  है .इस  यातना में  साथ  होते  हुए  भी एक  दूसरे  को  तसल्ली  देने का  कोई  उपाय   नहीं  रह  जाता  , क्योंकि  भरोसेमंद शब्द  पहले  ही  बेमानी  हो  चुके  होते हैं. यह भयानक  घुटन रोजमर्रे  की ज़िन्दगी का एक  ऐसा  अनुभव  है  , जिससे कोई  बचा हुआ  नहीं  है . लेकिन  शुभा  की  कविता  से  गुजरते  हुए  हम इस निजी घुटन    के सामाजिक  और  राजनीतिक स्रोतों  तक  पहुँच  जाते  हैं . यह  पहुंचना  यातना  के निजी  दायरे  को  तोड़  देता  है और  कविता  मुक्ति  की  एक  बड़ी  सामाजिक  रणनीति   का हिस्सा  बन  जाती  है .

दुख  है  . दुख  का  कारण  है . ऐसा  बुद्ध  ने  कहा  था . उनके  लेखे व्यक्ति  का  अज्ञान ही  दुख  का  असली  कारण  है  . लेकिन  शुभा  की कविता  कहती  है  कि  हर  दुख  राजनीतिक  है . इसलिए  व्यक्तिगत  ज्ञान , धीरज और  साहस  इसे  मिटाने  के  लिए  काफ़ी  नहीं  है . उनकी  चर्चित  कविता ‘अतिमानवीय  दुख’ में निजी  गुस्से  और  आंसुओं  से  इस  दुख  को  उठाया  नहीं  जा  सकता . कविता , विचार , संगठन  और  ऐतिहासिक  शक्तियों  के बूते इसे  उठाने  की  कोशिश  की  जाती  है . कम्युनिस्ट  पार्टियां  इसे उठाने  की  कोशिश  करते  बिखरती  जाती  हैं. यह  भारत  में  कम्युनिस्ट  आन्दोलन के  बिखराव की स्वीकृति है और इस  परिणति  के  लिए  जिम्मेदार  उनके भटकाव  की  ओर एक  इशारा  भी . अगर  कविता  इस  निराशा  के  साथ  खत्म हो  जाती या  फिर  कोई  झूठी उम्मीद  जगा  कर तब  शायद यह  एक राजनीतिक  कविता न  होती. अंतर्दृष्टि  से  खाली  आलोचना  मध्यवर्गीय अवसाद  की  अभिव्यक्ति  तो  हो  सकती  है , प्रगतिशील राजनीतिक चेतना नहीं  . शुभा  की ताकत  यही  है कि  उनकी  कविताओं  में  भविष्य  का संकेत  मौजूद  रहता  है . ध्यान से  देखने  पर  दुख  के  घटाटोप  के  भीतर  से वह  दिशा  दिखाई  दे  जा  सकती है , जिधर सकारात्मक  परिवर्तन  की  सम्भावना  मौजूद हो .

“...इसे उठाने के लिए
कुछ और चाहिये
इन सबके साथ
उठाने का कोई नया ढब..”

अब  उठाने  का  नया  ढब  चाहिए . यानी परिवर्तनकामी शक्तियों  को  अपनी  समूची  रणनीति  और  कार्यनीति  पर  पुनर्विचार  करने  की  जरूरत  है !

नब्बे के बाद हिंदी कविता में प्रेम कोई निरापद विषय नहीं रह गया है . स्त्री-कविता के हस्तक्षेप लैंगिक असमानता से ग्रस्त समाज में प्रेम की हक़ीकत खुलने लगती है . लैंगिक विभाजन वर्गीय विभाजन से कहीं अधिक पुराना और मूलगामी है . स्त्री- पुरुष का रिश्ता दास स्वामी की रिश्ते में इस हद तक संरचित हो चुका है कि यह प्रेम को तनावग्रस्त कर देने से कुछ अधिक करता है . शमशेर की कविता टूटी हुई, बिखरी हुईहिंदी की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में इसलिए शुमार की जाती है कि यहाँ प्रेम के भीतर के तनाव , टूटन और बिखराव दिखाई देते हैं. यहं कम से कम एक ऐसा पुरुष है जो ईमानदारी से प्रेम की शक्ति-संरचना के दबाव में प्रेम के भीतर होने वाली टूटफूट को दर्ज करता है . पितृसत्ता के अंतर्गत एक सच्चे और संवेदनशील पुरुष को भी यह टूटा-फूटा प्यार हीमिल सकता है .यह एक  हादसा  तो  है  ही , लेकिन पुरुष  के  लिए  यही इस  हादसे  की  आख़िरी हद  है .आख़िर  वह  इस  समाज  का स्वामी  है  .   स्त्री  दास  है  , इसलिए  उसका  अनुभव कुछ  और  है  . उसके  लिए तो  प्रेम एक  खूबसूरत  धोखा या  मीठे  ज़हर  के  सिवा  और  कुछ  हो  ही  नहीं  सकता . पुरुष  के वर्चस्व को  बनाए  रखने   के  निमित्त स्त्री  का  समर्पित  सहयोग  पाने का  उपाय  , ताकि  , जहां  तक  हो  सके , बलप्रयोग    करना  पड़े !  प्रेम  का  यह  स्त्री-दमनकारी रूप किन्ही  ख़ास  वर्गों  या  जमातों  तक सीमित  नहीं  है . सबसे  उदार  और  प्रगतिशील  पुरुष  भी इससे  मुक्त  नहीं  हो  सकते .  यह  उनके  चुनाव  का  मामला  नहीं  है .  सामाजिक संरचना  की  परिणति  है . जब  तक  पुरुष  का प्रभुत्व   कायम  है  , स्त्री  के  लिए  पुरुष  का प्रेम दास  के  प्रति  स्वामी  के  प्रेम  से गुणात्मक  रूप  से  भिन्न  हो  ही  नहीं  सकता . लालसा  हो  या  करुणा , स्त्री  की  लिए  पुरुष का  कोई  भी   भाव ‘उपभोग’  की  दायरे  को  पार  नहीं  कर  सकता  . स्वामी सेविका  पर  कोड़े  बरसाए  या  उसे  फूलों  से सहलाए , दोनों   उपभोग  के ही  दो  अलग  अलग  तरीके    हैं.

स्त्री-पुरुष  के बीच स्वामित्व का  रिश्ता केवल  सांस्कृतिक  और  राजनीतिक  कारणों  से  नहीं  है . इसका  ठोस  आर्थिक  आधार है . यह  उस आदिम  लैंगिक  श्रमविभाजन का परिणाम है , जिसकी  ईज़ाद  स्त्री  पर  पुरुष का वर्चस्व  बनाए  रखने  के  लिए  की  गई  थी. श्रमविभाजन  का  वह  रूप अब  भी कायम  है , इसीलिए  स्वामित्व  भी कायम है . इस  रिश्ते  को  बदलना इस  श्रम-विभाजन  को  बदले  बिना  नामुमकिन  है . “मित्रों  की  दुनिया “  में  प्रेम  के इस समूचे  यथार्थ  को देखा  जा  सकता  है .

“....   मेरी खुदाई के निशान बंज़र ज़मीन पर कम मेरे हाथों पर ज़्यादा पड़ते थे
मैं पानी देती थी उनके खेतों में

वे अपनी फसल लेकर मण्डी में जाते थे
मैं क्या लेकर जाती मण्डी में पानी के साथ मेरी मेहनत ख़र्च हो चुकी होती थी...”

पुरुष-वर्चस्व  की बुनियादी  संरचना  भले  ही हज़ारों  वर्षों से  बहुत    बदली  हो , इसका  स्वरूप  और इससे  उपजने  वाली  हिंसा आर्थिक-राजनीतिक  ढाँचे  के  बदलने  के साथ  बदल  जाती  है . शुभा की  कविता  का  इतिहासबोध  इसे  बारीकी  से  देखता  है . हमारे  अपने  समय  में स्त्री  के  खिलाफ़ हिंसा  में तेज बढ़ोत्तरी  हुई  जान  पडती  है  .इस   बढ़ोत्तरी  के पीछे एक  बड़ा  कारण स्त्री  की  बढती हुई  चुनौती है  , जो  घर  से बाहर  तक  पुरुष को मिल  रही  है  . पुरुषों  के  एकाधिकार  वाले  बहुत  से इलाकों  में   स्त्रियों  ने घुसपैठ  कर ली  है . कहीं  कहीं  वे सत्ता केन्दों   पर  भी  काबिज  होने  लगी  हैं . शिक्षित  बारोजगार स्त्री घर  के कामकाज  में भी सहयोग मांगने  और  लेने  लगी  है . पुरुष  इस  तेज  बदलाव  के लिए  न तो मानसिक  रूप से  तैयार  है  , न  प्रशिक्षित  है . वह  कुंठित  और  भयभीत  है  . यह  बढ़ती  हुई  सामूहिक कुंठा गैंगरेप  की  बढती  हुई  वारदातों के  पीछे  एक  कारण  हो  सकता  है . ‘गैंगरेप ‘  कविता  में यौनहिंसा  का  यह  सारा  समकालीन  समाजशास्त्र अपनी  समूची  जटिलता  के  साथ  मौजूद  है . लेकिन कविता  कुछ  और  है  . यह  कुछ  और  न होता  तो  कविता एक  सामाजिक  दस्तावेज़ हो  कर  रह  जाती . यह  कुछ  और  है भयोत्कंठित हिंस्र  पुरुष  की तुलना  में  उसे  चुनौती  दे  रही स्त्री  को   एक  उच्चतर और  शुभ्रतर प्राणी-प्रजाति  के  रूप  में  परिकल्पित  करना . ‘ गैंगरेप ‘ कविता  का  अंत इसी  कुछ  और  पर  होता  है .

“...योनि, गर्भाशय अण्डाशय, स्तन, दूध की ग्रंथियों 
और विवेक सम्मत शरीर के साथ
गुणात्मक रूप से अलग मनुष्य
जब नागरिक समाज में प्रवेश करता है
तो वह एक चुनौती है

लिंग की आकृति पर मुग्ध
विवेकहीन लिंगधारी सामूहिक रूप में अपना
डगमगाता वर्चस्व जमाना चाहता  है.”

‘लिंगधारी’ आदमखोर  हो  चुके  इस  कुंठित पुरुष-प्राणी  को कविता  द्वारा  दिया गया नाम  है . यह  एक  नाम  अकेले  इस कविता  को  सार्थक करने  की  क्षमता  रखता  है . लिंगधारी  वह  व्यक्ति  प्रतीत  होता  है  , जिसकी  सम्पूर्ण  चेतना  लिंग  में  समाहित  है . लिंग  ही उसकी सम्पूर्ण  अस्मिता  है , लिंग  ही  महत्वाकांक्षा .

यह  लिंगधारी  आदमखोर  मासूम  बच्चियों के साथ बलात्कार  कर  सकता  है . गैंगरेप  में  शामिल  हो  सकता  है . लेकिन इस  प्रत्यक्ष हिंसा  में शामिल  हुए बिना  भी आदमखोर  बना  रह  सकता  है . स्त्री  को  सम्पूर्ण  मनुष्य  के  रूप  में  देखने की  जगह  उसे  अवयवों के   एक समुच्चय   के रूप  में  देखनेवाला हर  एक  लिंगधारी उतना  ही  बड़ा  आदमखोर  है .
“आदमखोर” कविता  का  पहला  अंश  यों  है .

“.. एक  स्त्री  बात  करने  की  कोशिश  कर  रही  है
तुम  उसका  चेहरा  अलग  कर  देते  हो  धड़  से
तुम  उसकी  छातियाँ  अलग  कर  देते  हो
तुम  उसकी जांघें  अलग  कर  देते  हो

एकांत  में  करते  हो आहार 
आदमखोर तुम  इसे  हिंसा  नहीं  मानते ....”
स्त्री  के  खिलाफ़  पुरुष की  हिंसा  इस  से  भी  अधिक सूक्ष्म और छलनामय  हो  सकती  है .
वह  करुणा  का  भेष बना  कर  भी    सकती  है . रेप  की  विस्तृत  कहानियाँ  छापने वाले  अखबार , उनके नाट्य-रूपांतरित दृश्य  दिखानेवाले  टीवीचैनल , उन  पर बननेवाली  सुपरहिट फीचर  फ़िल्में  अपनी  करुणा  जताने और  दर्शकों  की  करुणा  जगाने के  लिए  अक्सर  किसी लुटी-पिटी  , शर्मसार , रोटी-बिलखती  लड़की की  तस्वीरें  दिखाते  हैं .रेप  करनेवाले  शर्मसार  या बेशर्म  लिंगधारी  नहीं  दिखाए  जाते . दिखाने  पर  दर्शक  का  आक्रोश  जाग सकता  है . लेकिन  रेप  के  खिलाफ़  आक्रोश  नहीं  जगाना , सर्वाइवर को  शर्मसार  करना  है  . फिर  उसकी  तस्वीरें दिखा कर  हर  लडकी  को खुद   ‘भावी  शिकार’  के रूप  में  देखने  और  शर्मसार  होने  के  लिए मजबूर  करना  है .  उत्पीड़ित  अपमानित  लड़की की  यह छवि  लिंगधारी  की करुणा का  सहज  उपादान  बन  जाती  है , क्योंकि यह  उसे  आश्वस्त  करती  है . बताती  है  कि  उसका  लिंग सुरक्षित  है . उस  लिंग की  घातक  क्षमता  सुरक्षित  है . उसका  वर्चस्व  सुरक्षित  है . करुणा  इस  आदमखोर लिंग  को  कवच  प्रदान  करती  है .
‘गौरवमयी  संस्कृति’ कविता  की  अंतिम पंक्ति  यों  है –

“स्त्रियों के  आंसू   हमें  उसी  तरह  प्रिय  हैं
जैसे  अपनी  वीरता  और  अपना  पौरुष “

शुभा  की  कविता  में  आदमखोर  लिंगधारी  की  शिनाख्त पुरुष  मात्र  को  हिंस्र  प्राणी के  रूप  में  प्रदर्शित  करने  के  लिए  नहीं  है . अगर  ऐसा  होता तो  दोस्त , प्रेमी , साथी  और  पिता  के  रूप  में  पुरुषों  को  इतनी  शिद्दत  और  उम्मीद  से  याद    किया  जाता . आदमखोर  है  वह पुरुष-सत्ता , जो स्त्री के  साथ  साथ  पुरुष  को  भी  अपना शिकार  बना  रही  है . “पिताओं  के  बारे  में’’ कविता  में  आए  पिता  लोग  लगभग  माताओं  की तरह  ही  असहाय  और  वेध्य  हैं . ऐसे  ही  “हमेशा  रहने वाले” कविता  के  प्रेमी  लड़के  हैं, जो  खदेड़े  जा  रहे  हैं  , अपमानित  किए  जा  रहे  हैं , पारिवारिक हत्याओं  के  शिकार  हो  रहे  हैं , आत्महत्या  की  तरफ  धकेले  जा  रहे  हैं  , लेकिन प्रेम  करना  नहीं  छोड़ते . जीवन  और मृत्यु  में  प्रेमी  लड़कियों के साथ खड़े होते  हैं. शुभा  की  कविता  कहीं  एक स्वर  में  पुरुष-निंदा नहीं करती .
शुभा  की  सामाजिक  चेतना देख  लेती  है  कि जहां  जेंडर  और  वर्ग  की  सत्ताओं  का गंठबंधन होता  है और  वय  की प्रौढ़ता  भी  उससे  जुड़  जाती  हैं , वहाँ  खतरा सबसे  अधिक  होता  है , उम्मीद  सब  से  कम .

“सवर्ण प्रौढ़ प्रतिष्ठित पुरुषों के बीच
मानवीय सार पर बात करना ऐसा ही है
जैसे मुजरा करना
इससे कहीं अच्छा है
जंगल में रहना पत्तियाँ खाना
और गिरगिटों से बातें करना।“

वहीं “मैं  हूँ  एक  स्त्री” कविता  में वह एकलव्य  और  शम्बूक  से  ईर्ष्या करती नज़र  आती  है , क्योंकि  स्त्री को   तो एकांत-साधना करने तक  का अधिकार  प्राप्त नहीं  है . अपना  अंगूठा  काट  कर  किसी द्रोणाचार्य  को  देदेने  का  हक़ भी  उसे हासिल  नहीं  है  , क्योंकि  उसके अंगूठे  पर  भी पति  का अधिकार  है !
***
( हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका 'पक्षधर'के नए अंक में छपे इस लेख को श्री आशुतोष कुमार ने हमें उपलब्ध कराया, इसके लिए अनुनाद उनका आभारी है।)

वीरू सोनकर की नई कविताएं

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वीरू सोनकर की कविताएं पहले भी अनुनाद पर पाठकों ने पढ़ीं हैं और उन कविताओं पर मेरी टिप्पणी भी। इस बीच उनके कथन में कुछ फ़र्क़ आया है, कुछ और आयाम उनके कवि-व्यक्तित्व में जुड़े हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर बेवजह की बहसों से कुछ दूरी बनाते हुए जनप्रतिबद्धता और एक गाढ़ी होती जाती वैचारिक समझ की ओर क़दम बढ़ाए हैं। वे कुछ बड़े कविता आयोजनों में शामिल हुए हैं, कविता के भीतर और बाहर कुछ ज़रूरी यात्राएं उन्होंने की हैं - इन यात्राओं के सकारात्मक प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ें, वे हर शोर और हर छिछलेपन से दूर रहें, ऐसी मेरी कामना है। 



१-
घुसपैठिया

हर अँधेरे का अपना रहस्य है
हर गहराई की अपनी भव्यता

अतीत उँगलियों की पोर पर बैठा स्पर्श है
टटोलना स्मृतियों से संवाद है

तस्वीरें मुझसे एकालाप करती हैं
मैं उनकी खो गयी आत्माओं के प्रेम में हूँ

बहुत गहरे जा कर बैठना,
धरती से मेरी सबसे क्रूर असहमति है
मेरा एकल चिंतन उजाले के पक्ष में
सबसे ईमानदार मतदान है

मेरा चेहरा दुखो का जीवित इतिहास है
और आँखे भविष्य की खुली बैलेन्स शीट

दूर खड़ा,
सबसे प्रिय एक भविष्य हँसता है
मैं उसके प्रेम में थोड़ा और उदास हो जाता हूँ

मेरा हँस देना दुःख की सबसे निर्मम हत्या है
और सहज होना मेरी सबसे प्राचीन उपस्थिति

भविष्य मेरे कंधे पर हाथ रखता है
मैं उसके भरोसे में खो गया सबसे मासूम योद्धा हूँ

मैं अँधेरे में बैठी सबसे चमकदार प्रार्थना हूँ
मेरा पहला उठा हुआ पैर उजाले का उदघोष हैं
मेरे हाथ से बेहतर दुनिया का कोई औजार नहीं
मेरी आवाज से बड़ा कोई नारा नहीं
मेरे हक़ से बड़ी कोई जिद नहीं

मेरी आँखों की चमक दुनिया की हर आंख में बराबर बाट दो
मैं अंततः तुम्हारे घर से ही बरामद होऊंगा
मैं तुम्हारी जेब में पड़ी सबसे आखिरी पूंजी हूँ

मेरे हाथ चूम लो, यही तुम्हारे हाथ हैं
मेरे पैर, तुम्हारे हिस्से की यात्रा में हैं
मेरा चेहरा ध्यान से देखो
इसके हर हिस्से से तुम्हारी पहचान फूट रही है
मैं कोई और नहीं
तुम्हारे एकांत में घुस आया
भविष्य का सबसे बड़ा घुसपैठिया हूँ

२-
एक और प्रेम के लिए

मैं इतना कृतज्ञ था
कि मैंने उदासी को एक जश्न की तरह जिया

इतना क्रूर हुआ कि अपनी पीठ पर चाबुक लकीरों से अपने पहले प्रेम की पाठ-भाषा रची

मैं इतने दुःख में हुआ कि सुख के हरे उपहारों को हताशा के पीले पत्तो सा चबाया

इतना विद्वान हुआ कि मुक्ति की चाह में सब कुछ विस्मृति के हवाले किया

मैं इतना बड़ा कायर हुआ कि चाहता था सातो महाद्वीप के आगे तक हो मेरा पलायन

इतना बेवकूफ कि फिर से तैयार हुआ
एक और प्रेम के लिए

३-
[ मैं हूँ तो सही ]

हाँ, मैं हूँ
अपनी विचित्रता के आकुल पाठ में
बनती-बिखरती लय में

मुझे मर जाना चाहिए था
अपने बचे रहने की अतिसूक्ष्म संभावना की टकटकी में
पर मैं हूँ
अधिकता में बहुत थोड़ा सा बचा हुआ
तंत्र में विद्रोह सा
सन्नाटे में जरुरी शोर सा!

पहाड़ का दुःख जहाँ घाटियों में रिसता है
नदी की पगडण्डी पर
घिस रहे एक कमजोर किनारे सा,
अवांछनीयता में छूट गयी बहुत थोड़ी सी अनिवार्यता सा
नृत्य में जो लयविहीन है
आकाश में तल न बन पाने के दुःख से धरती में बिधा हुआ
संवादों में किसी गैरजरूरी उल्लेख सा
विलाप में बिना बताए चले आए आलाप सा
अपने ही अस्तित्व पर चौकता
और फिर मिल जाता
एक जानी-पहचानी भीड़ में, सबसे अनजान हिस्सा बन कर

अपने पहचान चिन्हों को जेब में छुपाए
मैं हूँ तो सही.
कातर दृष्टि से देखता, पहचानो से भरी एक विराट पृथ्वी को
जहाँ पहचान-विहीनता से मर जाना
एक अभिशाप है

स्मृति के पंजों से खुद को निकालता
और हारता
उस वर्तमान से
जिसके हर आश्वासन से स्मृति झांकती है
चिढ़ चुके भविष्य को फुसलाता
स्वप्न में एक काव्य बुनता
जागता तो उसके चीथड़े गद्य में बटोरता
मैं हूँ तो सही.

न होने की तमाम नजदीकी शुभेच्छाओं में भी
मैं बिल्ली की उठ खड़ी हुई सतर्क पूँछ हूँ
बाघ की दहाड़ में छुपा हुआ कोई आदिम डर हूँ
कमजोर के भीतर चल रहे ताकतवर के विध्वंस की स्वप्निल परिणति में
मैं हूँ तो सही.

एक सभ्रांत बहस में घुस आए किसी आपत्तिजनक वाक्य सा
- आश्वस्ति को छू कर गुजरते
किसी अपराधी संशय सा!

४-
[ दोनों हाथ ]

मै इतने सकून में था
कि घुस जाने दिया चींटियों को अपने पैरों की नसों में
एक दिन को माना पिछले दिन का पुनर्जन्म, जहाँ गलतियां पुण्य में बदली जा सकती थी
और हर रात को मृत्यु का पूर्वाभ्यास!
अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है उस रात के बाद सुबह मेरा जाग जाना!

रात-दिन के इस खेल में इतना सकून था कि मैंने दोनों हाथों से अपना मौन लुटाया!

घावों को यूँ रखा खुला
कि वायु उनका चेहरा चूम सके
मानो वह युद्ध में कट मरे अपराजित योद्धा हैं

मैं इतना गुस्से से भरा था कि एक पूरा दिन बड़े सकून से अपने जबड़ो में चबाया.
मैं इतना अधिक आशा से भरा था
कि चुपचाप देखता रहा
एक व्यग्र कवि को,
जो अपने पक्ष से धीरे-धीरे हट रहा था
धीरे-धीरे जो एक समूची पृथ्वी के पक्ष में जा रहा था

मैं अपने सकून की वृक्ष-छाया में
आलोचनाओ के प्रतिउत्तर में ओढ़ा हुआ मौन हूँ
जिज्ञासाओं के पहाड़ की तरह उगा हुआ एक ढीठ
शिनाख्तो का सबसे बड़ा सेंधमार, जिसकी हर सुरंग खुद में खुल रही थी

बावजूद इसके, मैं इतने सकून में था
कि आकाश मेरे लिए बहुत धीमे पक रही एक प्रार्थना है
जिसे एक दिन अचानक मेरे हाथों में गिर पड़ना है

मैं उम्र की व्यग्रता में मृत्यु के सकून का पहला पाठ हूँ
मुझे देर तक पढो
मेरे दोनों हाथ भरे हैं!

५-
चुम्बन

धूप का सबसे सुंदर चुम्बन है
कपास के होंठो पर सिमट बैठी सफेदी

कपास के होंठो पर खिल गया एक सफ़ेद बादल
उसके प्रेम की पहली खबर है

कपास का विरह-गीत है
धूप की गुनगुनी स्मृति से भरा
हर त्वचा का चुम्बन!

६-
जन्म

मैं अपनी स्मृतियों का जाग्रत अवतार हूँ
स्मृतियों के कुँए से बाहर निकल कर आया
यथार्थ का सबसे नवीन संस्करण!

ठीक उसी जगह पर,
जहाँ मेरी और तुम्हारी स्मृतियों के संसर्ग से
एक वर्तमान ने जन्म लिया है

***

७-
तुम्हारे लिए ( तीन कविताएं )

१-

मैं आकाश में भूमि हो जाने की संभावना हूँ
मैं कहीं नहीं जाऊँगा
मरूँगा भी नहीं

यही कहीं इसी धरती पर
तुम्हारी आँखों में
आकाश हो जाने की संभावना सा
चमकता रहूँगा

२-

तुम मुझ तक आओ
रेंगते हुए
घास के गुच्छो की तरह
मैं तुम तक आऊँ
जैसे हवा पर चल कर आती है नमी

हम मिल कर
उस खनिज की अनिवार्य नियति में बदल जाएँ
जिसकी धार
हमारी स्वांस-भट्ठी में दहक रही है

३-

मैं तुम्हे चूमना चाहता हूँ
ताकी तुम एक देह में बदल जाओ

गोद में उठा कर एक तेज़ चक्कर लगाना
तुम्हे एक सुविधाजनक भार में बदल देगा

तुम्हारी आँखों में झाँकना
एक समानांतर पृथ्वी को रच देना है

जानता हूँ यह सब एक कल्पना है
पर तुम सुनते रहना

मेरा कहना, तुम्हारा सुनना
तमाम आशंकाओं का विस्थापन है

प्रेम की बची हुई संभावनाओं का ईश्वर हो जाना है
मेरा चूमना
और तुम्हारा देह में बदल जाना!
***

८-
नदी: पाँच कविताएं

१-

नदी गर्भ से है
और उगल रही है वह नग्न स्त्रियां
स्त्रियां भी गर्भ से हैं
और मछलियां उनका प्रसव परिणाम
नदी की दह में बैठ गया एक पुरुष
नदी को एक पक्का सुरक्षित मकान जान कर
पुरुष मछलियों को खा रहा है
और मुग्ध हो रहा है उन स्त्रियों पर

किसी आश्चर्य सी एक नाल उगती है नदी के पेट में
और बांध देती है पुरुष के पेट में एक गाँठ
उस गांठ को पुरुष, स्त्रियां और मछलियाँ घृणा से देख रहे हैं

नदी किसी जर्जर ईमारत सा ढहती है
और पानी पानी हो जाती है

२-

नदी एक चीख में बदल रही है
और किनारे उसका गला दबोचे दो निर्मम हाथ
हाथ कसते ही जा रहे है
और बढ़ता ही जा रहा है नदी का दुःख!

मछलियाँ नदी की गूँगी बहने है
जिनके आँसू नदी का क्षार बढ़ा रहे है
और घटा रहे है
निर्मम किनारों का जड़त्व!

एक दिन मछलियाँ जीत जाएँगी
और नदी की चीख पृथ्वी के चेहरे पर किसी हँसी सी फ़ैल जायेगी

३-

जंगल नदी के आलिंगन में लिपटा अतृप्त प्रेमी है
प्रेम-पाश में बेसुध नदी
सर पटकती है
पर जंगल अपनी बाहें ढीली नहीं करता
नदी तुनक कर थोड़ा आगे भागती है
और जंगल,
किसी चीरे सा बढ़ता जाता है

कि रास्ते में एक बांध आता है

फिर नदी और जंगल किसी कहानी में बदल जाते है

४-

नदी की हजार बाहें हैं
पकडे हुए पृथ्वी की पीठ को
कि उछल न जाये अपनी चंचलता में नदी आकाश की ओर

पृथ्वी की पीठ मिटटी की एक इतिहास यात्रा है
जिसके कई पन्ने कुछ नदियों को किसी अफवाह सा दर्ज किये हैं
अक्सर भयानक गर्मियों में
जब ये पन्ने फड़फड़ा उठते हैं

किसी पृथ्वी की पीठ
एक मुरझाए हुए चेहरे में बदल जाती है

इतिहास फिर उसके बाद बदलता है

५-

नदी पाँव पाँव चलती है आकाश को देखते हुए
और आकाश झाँकता है
घर में बंद किसी बच्चे की खिड़की से,

नदी रोड पर जा रही है
नदी की आँखे नीली है

आकाश उसके नीलेपन से चिढ कर बार बार उसे पानी से धोता है
आकाश और सफेद हुआ जाता है
नदी और भी नीली पड़ती है

पृथ्वी गोल घूमना बंद नहीं करती कुछ इस चाह में
कि किसी दिन दोनों में कोई छिटक कर नीचे आएगा
या कोई ऊपर उछल जायेगा

पृथ्वी शरारती है
इन बिछड़े प्रेमियों की इतिहास कहानियां
अपने पेट में दबाए
वह चुपचाप हँसती है
***

संपर्क- 7275302077

संदीप तिवारी की कविताएं

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संदीप तिवारी नौउम्र विद्यार्थी हैं। संयोग है कि मेरे ही निर्देशन में पीएच.डी. के लिए एनरोल्ड हैं। संदीप की कुछ कविताएं उनकी फेसबुक दीवार से ले रहा हूं। 
 
रेल


(1)
माँ बाप ने तो
केवल चलना सिखाया
जिसने दौड़ना सिखाया
वह तुम थी ....
रेल
भारतीय रेल....

(2)
जब मेरे मन में पहली बार
घर से भागने का विचार
कौंधा
तो सबसे पहले
तुम याद आई थी,
रेल..
भारतीय रेल
फ़िर जिस ने भागने से मना किया
समझाया और लौटाया भी,
वह तुम थी!
रेल
भारतीय रेल...

(3)
कुछ भी हो
इस देश में बहुतेरे लोग
मेरी तरह
कर्जदार हैं तुम्हारे,
वह तुम हो..
जो कभी तगादा नहीं करती!
रेल
भारतीय रेल...

(4)
कोई भी हो
बँधा तो रहता ही है,
जात पात में
ऊँच नीच में
पर तुम हो
केवल! तुम...
जो इस बंधन से मुक्त,उन्मुक्त हो,
रेल
भारतीय रेल...

(5)
ज़िन्दगी तो रोज ही
उतर जाती है पटरी से
पर एक तुम हो
जो गुजार देती हो अपना जीवन
पटरियों पर ही
रेल
भारतीय रेल...

***
यात्राएँ


1-
बिना पैसे की यात्राएँ
ज्यादा रोचक होती हैं
ठीक वैसे ही,
जैसे ज़िन्दगी !

2-
किताबें बोझ हो सकती हैं
मगर
यात्राएँ नहीं,
किताबों के पात्र
यात्राओं में
ज़्यादा सहज होते हैं..

3-
किसान की भाषा में कहूँ, तो
यात्राएँ,
खाद-पानी होती हैं,
बिना इनके
लहलहाना संभव नहीं।

4-
बिना कैमरे के भी
होती हैं
यात्राएँ,
गवाही के लिए
चाँद है, सूरज है
और तस्वीरें .......
उसे रास्ते दफना के
एल्बम बना देते हैं।

5-
किताबों में बहुत हद तक
झूठ हो सकता है,
मग़र यात्राएँ......
यात्राओं में ऐसा कुछ नहीं होता।
किताबों में भूत होते हैं
यात्राओं में नहीं होते,
कहीं नहीं-
सिर्फ़ डराते हैं..

6-
कुछ करें न करें..
पर आदमी को
सूखने नहीं देती हैं,
यात्राएँ..

7-
छोटी बड़ी नहीं होती,
सुरीली होतीं हैं
यात्राएँ...
सिर्फ़ यात्री पहचानते हैं,
इनके
सुर और ताल

***
गाँव, घर और शहर


याद न करना घर की रोटी
घर का दाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना


बड़ी खोखली है यह दुनिया
थोड़ी चोचली है यह दुनिया
किसिम-किसिम के जीव यहाँ पर
इनसे बचकर आना-जाना
मत घबराना.....


शहर की दुनिया में जब आना
गली शहर की मुस्काती है
फ़िर अपने में उलझाती है
इस उलझन में फँस मत जाना
शहर में रुकना है मज़बूरी
गाँव पहुँचना बहुत ज़रूरी
गाँव लौटना मुश्किल है पर
मत घबराना...


समय-समय पर आना-जाना
चाहे जितना बढ़ो फलाने
स्याह पनीली आँखों से तो
मत टकराना
धीरे-धीरे बढ़ते जाना
कुछ भी करना,
हम कहते हैं घूँस न खाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना.....


जब भी लौटा हूँ मैं घर से
अम्मा यही शिकायत करती
झोला टाँगे जब भी निकले
मुड़कर कुछ क्यों नहीं देखते
अब कैसे तुम्हें बताऊँ अम्मा
क्या-क्या तुम्हें सुनाऊँ अम्मा
तुमको रोता देख न पाऊँ
तू रोये तो मैं फट जाऊँ...
सच कहता हूँ सुन लो अम्मा...
यही वज़ह है सरपट आगे बढ़ जाता हूँ
नज़र चुराकर उस दुनिया से हट जाता हूँ
आँख पोंछते रोते-धोते थोड़ी देर तक
पगडंडी पर घबराता हूँ
किसी तरह फ़िर इस दुनिया से कट जाता हूँ

***

नये साल की कौन बधाई

नाम वही है. काम वही है,
वही सबेरा शाम वही है
साल बदलने से क्या होगा?
ताम वही सब, झाम वही सब,
अपने अल्लाह राम वही सब,
साल बदलने से क्या होगा ?

***
टिकट काटती लड़की


हल्की पतली नाक
और चमकती आँख
गेहुँआ रंग, घने बालों में
हल्का होंठ हिलाकर बोली
चलो बरेली चलो बरेली
बस के अंदर टिकट काटती
टिकट बाँटती लड़की....


गले में काला झोला टाँगे
हँस-हँस कर बढ़ती है आगे
बहुत आहिस्ता पूछ रही है
कहाँ चलोगे??


कान के ऊपर फँसा लिया है
उसने एक कलम
हँसकर शायद छिपा लिया है
अपना सारा ग़म
उसी कलम से लिखती जाती
बीच-बीच में राशि बकाया,
बहुत देर से समझ रहा हूँ
उसकी सरल छरहरी काया....

बस के अंदर कोई फ़िल्मी गीत बजा है
देखो कितना सही बजा है...
"तुम्हारे कदम चूमे ये दुनिया सारी
सदा खुश रहो तुम दुआ है हमारी।"


घूम के देखा अभी जो उसको,
टिकट बाँटकर
सीट पे बैठे
पता नहीं क्या सोच रही है
किसके आँसू पोंछ रही है.
कलम की टोपी नोच रही है..!



उपासना झा की कविताएं

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उपासना झा ने इधर अपनी कविताओं से एक मौलिक पहचान हिंदी-जगत में बनाई है। हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण ब्लाग्स पर उनकी कविताएं पिछले कुछ समय से लगातार पढ़ी जा रही हैं। अनुनाद पर वे पहली बार छप रही हैं। इन कविताओं के प्रकाशन के साथ अनुनाद उन्हें लम्बी रचना-यात्रा के लिए शुभकामनाएं देता है।
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प्रतीक्षा
 

संसार की सब सूनी आँखों से
भाप बनकर उड़ गए थे आँसू
धरती पर योंही इतना खारा पानी
आँसुओं के महासागर नहीं

 
जबकि जिए जाने को ज़रूरी थी नमी

पत्थरों की दरारों से कभी-कभी
कोई दरक उठ आना ज़रूरी था

 
जिन आँखों ने इंतज़ार पहन लिया हो
वे सीख जाती हैं अपनेआप
स्थिर रहना, शांत रहना, निर्लिप्त रहना

जिन स्त्रियों के प्रिय नहीं आते लौटकर
ना ही आ पाती है कोई ख़बर बरसों-बरस
उनके लिए सब मौसम बर्फ़ीले होते हैं
 

जब भी हिलने लगे तुम्हारा भरोसा प्रेम से
ऐसी किसी स्त्री से मिलना

संसार जिनका सब कुछ छीन चुका हो
नहीं छीन पाया हो उनके हिस्से का प्रेम
तुम बाँटना मत उन्हें उन स्त्रियों में
जिनके प्रिय परदेश चले गए
या सीमा की रक्षा में रत रहे
या बने आतंक के पैरोकार


एक दिन में, एक पूरे दिन में
धरती भी घूम जाती है अपनी धुरी पर
हर तीन महीने में मौसम बदल जाता है
हर छः महीने में छोटे-बड़े हो जाते हैं दिन-रात
तीन सौ पैसठ दिनों में बदल जाता है कैलेंडर
हर चौथे साल में फरवरी हो जाती है उनतीस की
पांच सालों में बदल जाता है दिल्ली का निजाम
हर छठे साल होगा अर्धकुंभ

इन स्त्रियों के दिन नहीं लौटते
इन स्त्रियों की क़िस्मत नहीं बदलती
इस बेढब दुनिया में बचा हुआ
प्रेम, विश्वास और जीवन
यही स्त्रियाँ हैं जो खड़ी रहती हैं
रोज़ घर के दालान में
किसी नहीं आने वाली चिट्ठी के इंतज़ार में

***

किस्सा-कोताह 
प्रेम का एक तर्जुमा हमने ये किया था
कि उसे मेरी उघड़ी हुई पीठ पर हाथ रखना पसंद था
और मुझे उसे सोते देखना
 

उसे देह के आदिम गीत का पाठ, पुनर्पाठ
कंठस्थ करना था
 

मुझे रुचते थे
उसके कंठ से जरा नीचे बने दो गह्वर
जहाँ छिप कर मैं सो सकती थी छह महीने लंबी नींद
 

दुनिया के इतिहास, भूगोल
सिमट आये थे बस उस घर की चौहद्दी में


प्रेम बना देता है मनुष्य को आधी नींद सोया पाखी
जहाँ उसकी भूख-प्यास-नींद-चाह
सब आधे में ही तृप्त रहती हैं।
 

उसे भाने लगा था मेरी तरह ही पानी और आकाश का रंग
बसंत का रंग मुझे भी अब ठीक लगने लगा था
हमने चुन लिया था एक बीच का रंग भी,
..उस रंग को देखकर अब भी काँप उठते हैं पैर
और सोचने लगता है मन
कि वो रास्ता किधर गया
जहाँ बैठकर पढ़ने लगा था वो मेरी पसन्द की किताबें
और मैं देखने लग गयी थी मार-धाड़, साइंस-फ़िक्शन
कुमार गंधर्व से लेकर नुसरत साब
अब बंटे हुए नहीं थे।
आदतें घुलमिल गयी थीं चाय में चीनी की तरह..


मुआ शायर कहता है कि दिल टूटने की चीज़ थी
मुझे यकीं है उसका दिल टूटा नहीं होगा कभी
नहीं तो दिलासा भी ऐसी नहीं लिखता
प्रेम बन गया था एक आदमख़ोर
दूर से खून सूँघ लेता था
और जब कोई शिकार न मिले तो
अपने ही दिल से भूख मिटा लेता था।
 

रूमी कहते हैं कि
दिल को टूटने दो, इतनी बार-इतनी बार
की खुल जाए,
उसे क्या मालूम कि इस खुलने में बिखरना भी बहुत होता है।
दर्द भले पहचाना हो घाव तो नया ही लगता है।


अब बस मसला है नींद का, जो चली गयी है किसी अनजान यात्रा पर
हँसी का जो कभी आये तो हैरान करती है
कि तमाम बातें भूलकर भी हँसना नहीं भूल सके।
होना यह था कि वह हीर सुनता मेरे साथ सुबह उठकर
जबकि आँख खुलते ही साथ उठता है
कनपटी से उठता दर्द।

*** 
 
रोना
 

1
रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार
हथियार नहीं उठ सकता था

रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार
क्रांति नहीं हो सकती थी


2
रोना सुनकर
निश्चिन्तिता उतर आई थी
प्रसव में तड़पती काया में

रोना सुनकर
चौका लीपती सद्यप्रसूता की
छातियों में उतर आया था दूध


3
रोना था साक्षी

संयोग-वियोग का
जीवन-मरण का
मान-अपमान का
दुःख-सुख का
ग्लानि-पश्चाताप का
करुणा-क्षमा का
व्यष्टि-समष्टि का
प्रारब्ध और अंत का


4
रोकर
नदी बनी पुण्यसलिला
आकाश बना दयानिधि
बादल बने अमृत
पृथ्वी बनी उर्वरा
वृक्षों पर उतरा नया जीवन
पुष्पों को मिले रंग


5
रोना भूलकर
बनते रहे पत्थर
मनुष्यों के हृदय
उनमें जमती रही कालिख
उपजती रही हिंसा
उठता रहा चीत्कार
काँपती रही सृष्टि


6
रोना

बनाये रखेगा स्निग्ध
देता रहेगा ढाढ़स
उपजायेगा साहस
बोयेगा अंकुर क्षमा का
इतिहास ने बचा लिया है
शवों के ढेर पर रोते राजाओं को


7
स्त्री को सुनाई कल्पित मिथकों में

वह कथा सबसे करुण है
जिसमें उसके रोने से
आँसू बनते थे मोती
उनकी माला
आजतक गूँथकर पहना रही है स्त्री
पुरुष 'नकली है'कह कर रहा
और मालाओं की इच्छा


8
रोना है

सबसे सुंदर विधा
अपने आँसुओं से धुलती है
अपनी ही आत्मा

रोना
इसलिए भी जरूरी था
कि मर जाने की इच्छा
टुकड़ो में जीती रहे।
***

तुम्हारे लिए
आँखों में काजल हो-न-हो
उनके नीचे काले घेरे बने रहते हैं
जिन्हें उल्टा चाँद तुम कह लेते हो
कभी किसी कोमल क्षण में,
और अपनी छोटी उंगली से फैला हुआ काजल
ठीक करते हुए बहाने से एक टीका
लगा देती हूँ तुम्हारे कान के जरा नीचे
और तुम जिस तरह मुस्कुराते हुए पूछते हो
'कुछ था क्या'
जवाब में सर हिलता है नहीं में
लेकिन छाती में उठती है जो अकुलाहट
उसे कौन से सुर में बताया जाए
तुम्हारे लिए मेरा प्रेम वर्णमाला का वह अक्षर है जो किसी को पढ़ना नहीं आता
एक शब्दकोश है
जिसकी लिपि लुप्तप्राय है
मैं लिखती हूँ तुम्हें कई चिट्ठियां उसी भाषा में; हर रोज़
और बीच चौराहे उसे टाँग आती हूँ
किसी इश्तेहार की तरह
तुम्हारा नाम लेने भर से
बहुत ख़राब मौसम बदल सकता है
रुमानियत में
और उस पाकिस्तानी मक़बूल शायर की तरह
मैं भी कह देना चाहती हूँ
'कोई तुम सा हो तो फिर नाम भी तुमसा रखे'
***

गाँव के प्रति
 

बची रहे पगडंडियां और उनसे गुजरती राह
बची रही मेरे गाँव में बहती गण्डक में धार
बने रहे घाट और लोग जोहते बाट
उन परदेसियों की जो
आते हैं सालों बाद
या न भी आयें
तो बची रही उम्मीद उनके लौट आने की
बचे रहे धान-दूब,
बची रहे हरीतिमा
बची रही सुबह के सूरज में लालिमा
सौंधी रहे धरा नीला रहे आकाश
टिमटिमाता रहे गाँव के ठाकुरबाड़ी का प्रकाश
बने रहे पञ्च बनी रहे धारणा
की न्याय अब भी मिलता है वहाँ
बची रहे चूल्हे में थोड़ी सी आंच
मकई की रोटी और खेसारी के साग
साल दर साल खाली होते मेरे गाँव में
बची रही अब भी खेती करने की ललक
बनी रही आस्था आषाढ़ के मेघ में
बना रहा बसा रहे मेरा ये गाँव

****

नवल अल सादवी : अनुवाद एवं प्रस्तुति - सुबोध शुक्ल / 1

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(सुबोध शुक्ल हिंदी के तेजस्वी युवा हैं। कुछ समय पहले उनके सम्पादन में पश्चिम के स्त्रीवादी चिंतन पर एक महत्वपूर्ण किताब गूंगे इतिहासों की सरहदों परआधार प्रकाशन से छपी है। पहलके लिए उत्तरआधुनिकता पर एक सिरीज़ वे इन दिनों लिख रहे हैं। इसी क्रम में पक्षधरने मिस्त्री चिंतक व लेखिका नवल अल सादवी की एक किताब पर उनके काम को अपने अंक में प्रमुखता से छापा है। पक्षधर वाले लम्बे आलेख को अनुनाद पत्रिका के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत करने जा रहा है। हमारे बर्बर समाजों के इन हिंसक प्रसंगों पर हिंदी में मूल पाठ कम पढ़े गए हैं, इस तरह यह सुबोध के प्रति आभार ज्ञापित करने का भी समय है कि वे उन मूल पाठों तक हमारी पहुंच बना रहे हैं।) 

-अनुनाद

नवल अल सादवी,मिस्री स्त्री-लेखिका, चिन्तक और पेशे से चिकित्सक रही हैं. मुस्लिम समाज में स्त्रियों की दिशा और दशा को रेखांकित करने वाली अग्रणी महिला-विमर्शकारों में उनका नाम लिया जाता है. यह प्रस्तुति उनकी मानीखेज़ कृति The Hidden Face Of Eve : Women In the Arab World (1977)से है जिसमें वे अरब समाज में अनवरत समानांतर रूप से मौजूद साम्राज्यवादी शक्तियों और कट्टरपंथी ताकतों की आपसी मिलीभगत के अरबी औरतों पर पड़ने वाले प्रभावों को जांचती-परखती हैं साथ ही वे अरबी स्त्री के जैविक और सामाजिक संघर्षों के अंतर्विरोधों और अड़चनों का भी विश्लेषण करती हैं.]   



                                                         प्राक्कथन



चिकित्सा-क्षेत्र में ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में लम्बे समय से काम करते रहने, और दिन-ब-दिन मेरे घर की घंटियाँ बजाते, मेरी दहलीज़ पर आते-जाते स्त्री-पुरुषों के मनोवैज्ञानिक और यौन समस्याओं के बोझ से भरे चेहरों ने, मुझे यह किताब लिखने के लिए प्रेरित किया.

बहुत सारे लोग ऐसा सोचते हैं कि यह अध्ययन सिर्फ औरतों, उनके परिवारों, बच्चों और पतियों तथा उनके अपने निजी जीवन की भावनात्मक तथा यौन उलझनों से सम्बंधित है. स्त्रियों से जुड़े हुए परम्परागत अध्ययन सबसे नगण्य और तुच्छ विषय माने जाते हैं क्योंकि इन्हें बड़ी सीमित प्रकृति वाला, एक ख़ास समूह से सम्बंधित और बड़ी संकीर्ण संभावनाओं से भरी समस्याओं वाला माना जाता रहा है. क्या औरतों का संसार, परिवार और बच्चों तक ही सीमित नहीं मान लिया गया है? और कैसे यह छोटी सी दुनिया हमारे वक़्त के बड़े मानवीय और राजनीतिक मुद्दों से सामने खड़े हो सकने की हिम्मत कर सकती है जो आज़ादी, न्याय और समाजवाद के भविष्य से जुड़े हुए हैं और जो हमारे जूनून और विचारों को हिम्मत देते हैं; उन्हें आगे लाते हैं.

और फिर समाज में महिलाओं की दशा का गहराई से अध्ययन का कोई भी प्रयास, यदि उसे मात्र प्रजनन का साधन मानने के रवैये से मुक्त कर देखा जाएगा, तो मनुष्य जीवन से जुड़े तमाम मामलातों के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य को लेकर आगे बढेगा. यह अध्ययन हमें राजनीति से सम्बंधित सामान्य चिंताओं की ओर ले जाएगा जोकि आज़ादी और सत्य के अनंत संघर्षों के साथ गुंथी होती है. 

चूंकि किसी भी देश की ‘उच्चतर’ राजनीति बहुत सारे छोटे-छोटे पत्थरों की निर्मिति होती है, साथ ही उन वृत्तांतों की भी जो जीवन के सामान्य ढांचों में घुले-मिले होते हैं. ये वृत्तांत व्यक्ति की निजी ज़रूरतें, समस्याएं और कामनाएं हैं. व्यक्तियों की निजी जिंदगियां और उनकी ज़रूरतें ही वे निर्देशात्मक और उत्प्रेरक शक्तियां हैं जो राजनीतिक इच्छा, नीतियों एवं देश की राजनीति की विवेचना में रूपांतरित होती हैं. इस निजी जीवन में ही यौनाचार की जटिलताएं, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध और श्रम-विभाजन तथा उत्पादन के सम्बन्ध शामिल हैं. वे जो स्त्रियों की समस्याओं और यौनाचार को बात करने के लिए नाकाबिल मुद्दा मानते हैं, राजनीति के सिद्धांत को या तो समझते नहीं या उसकी उपेक्षा करते हैं. इस तथ्य से अधिक समय तक मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि स्त्रियों की हीन दशा, आपेक्षिक पिछड़ापन, समाज को भी पूरी तरह से एक अपरिहार्य पिछड़ेपन की ओर धकेलता है. इसी वजह से स्त्री-मुक्ति को, उत्पीड़न के सभी रूपों के खिलाफ संघर्ष, और साथ ही समाज के सभी शोषित वर्गों एवं समूहों की मुक्ति, जो निश्चित ही राजनीतिक और यौन भी है ही, का आभ्यंतरिक  हिस्सा माने जाने की ज़रुरत है.

कुछ ऐसे हैं जो अभी भी इस बात से इनकार करते हैं कि अरब औरतें हमारे क्षेत्र की सामाजिक प्रगति में पीछे हैं और इस सिलसिले में अपनी हो रही आलोचना से भी मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसा रवैया, अपनी बुनियादी बेईमानी के अलावा, अरब देशों के विकास के रास्तों में बड़ी बाधा है. इस वजह को निर्मूल करने के लिए जिस निष्ठा की आवश्यकता है वह यह कि हम अपनी कमजोरियों को छिपाने के बजाय उन्हें उजागर करें. यह ज़रूरी है अगर हमें उन पर विजय पानी है.

विगत सालों में बहुत सारे गंभीर अध्ययन प्रकाशित हुए हैं जिन्होंने सामाजिक बुराइयों को बेनकाब करने में बड़ा योगदान दिया है. अगर अरब समाज सभी क्षेत्रों में अपना विकास चाहता है तो उसे इन्हें निदान के तौर पर अपनाना चाहिए- वह आर्थिक, राजनीतिक, मानवीय या नैतिक कोई भी हों. अरब विद्वानों के बहुत से अध्ययनों में मैं हलीम बराकत की किताब The River With No Embankmentsका ज़िक्र करना चाहूंगी.उन्होंने बताया कि कैसे १९४८ से १९६७ के बीच लड़े गए क्रमिक युद्धों के दौरान, इजरायलियों ने प्रवास को बौखला देने के लिए, पारंपरिक फिलिस्तीनी अरबों की ‘यौन संवेदनशीलता’ का फायदा उठाया. १९६७ के युद्ध में अरबियों के जौर्डन के पश्चिमी तट को छोड़कर जाने के लिए मजबूर कर देने वाले कारणों में से एक था- अपनी औरतों की इज्ज़त को बचाने की चाह. अब यह समझना आसान होगा की क्यों कुछ अरब चरमपंथी A’ard (इज्ज़त) शब्द को शब्दकोष में  Ard (ज़मीन) शब्द से बदले जाने की वकालत करते हैं.

इस तरह से हम निजी मामलों जैसे स्त्री-कौमार्य और ख़ास राजनीतिक घटनाओं जैसे अरब शरणार्थियों के विशाल समूह के प्रवास के अंतर्संबंध को विवेचित कर सकते हैं, जिसकी वजह से इजरायल अरबियों की जमीन पर कब्ज़ा कर सका. बहुत सारे उदाहरणों में से यह एक है जो बताता है कि लड़कियों और स्त्रियों की समस्याओं के अध्ययन के ज़रिये, समाज में यौन और नैतिक संबंधो के विभिन्न पहलुओं पर, उन सभी लोगों द्वारा  पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो हमारे देश के भविष्य को लेकर वाजिब चिंता रखते हैं.

कुछ सालों में अरब देशों में मेरी कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं, जो इन सवालों से जूझती हैं. लेकिन इन सभी किताबों में Women And Sex वह किताब है जिसने वृहत्तर रूप में आम जीवन को बेहद प्रभावित किया. इसका पहला संस्करण बहुत तेजी से बिक गया पर बढ़ती हुई मांग के कारण आगामी संस्करणों की ज़रुरत महसूस होने लगी. जैसे ही यह आया मुझे लगा कि मैं ज्वालामुखी के कगार पर बैठी हुई हूँ और लगातार इसकी गर्जना को अपने पास आते सुन रही हूँ. दिन ब दिन चिट्ठियों की खेप, टेलीफोन की आवाज़, जवान और बुज़ुर्ग स्त्री-पुरुषों की आवाजाही धीरे-धीरे बढ़ने लगी. इनमें से सबसे ज़्यादा वे थे जो समस्याओं का निदान चाहते थे. इसके बाद कुछ थे जो निराश थे और मैत्रीपूर्ण माहौल में बतियाना चाहते थे, बहुत कम ही थे जो शरारती किस्म के और धमकाने वाले थे.

मैं दरवाज़े पर बार-बार बजने वाली घंटियों, डाक-पेटी में दिखती चिट्ठियों के बंडलों, फोन की घंटियों और मेरे कस्बाई छोटे से घर के हॉल में अथवा मेरे ऑफिस के फर्श पर चलते हिचक भरे क़दमों की आदी हो चली थी. यहाँ तक कि कुछ लोग तो पड़ोसी अरब मुल्कों से भी आने लगे थे.

आने वालों के लिए मेरे दरवाज़े, दिल और दिमाग सब खुले थे. पर जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया मुझे लगने लगा कि यह एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है और तमाम अडचनों से भरी है. क्योंकि हमारे समाज में औरत और मर्दों की समस्याओं का कोई अंत नहीं है और तब तक कोई समाधान भी नहीं है जब तक एक पुख्ता और व्यापक प्रयास अपनी कमजोरियों को समझने और उनको जड़ समेत सामने लाने का नहीं किया जाएगा. वे जडें जो असल में राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक, यौनिक और इतिहासगत संरचनाओं में निहित हैं, जिस पर हमारी ज़िन्दगी खड़ी है. बहुत सारे पत्रों ने मुझसे इस ज़िम्मेदारी को लेने और इस पर आगे बढ़ने को कहा. मेरे लिए एक ही साथ यह चिंता और खुशी का विषय था. पहले की अपेक्षा मैं इस बात को लेकर और आश्वस्त हो चली थी कि हमारे समाज में औरतों और मर्दों की एक बड़ी संख्या ज्ञान की प्यास और विकास की भूख को संजोये है.

हालांकि, यह भी बड़ा स्वाभाविक था कि एक बहुत ही अल्पसंख्यक वर्ग मेरे इस काम से आतंकित और डरा हुआ था. कलम से लिखे गए शब्द नश्तर की तरह मांसपेशियों में घुसकर स्पंदनशील नसों और गहरी धंसी धमनियों को उभारकर कर सामने ले आते हैं. यह अँधेरे में रहने के आदी लोगों का भय था जो एकाएक रोशनी पड़ने से बौखला गए थे. कुछ चिट्ठियों में मुझे उन तमाम तथ्यों और सूचनाओं को प्रकाशित करने से मना किया गया जो मैंने सालों के धैर्य से अर्जित किये थे. उनकी बातें बिलकुल वैसी थीं जैसे एकाएक प्रकाश पड़ने से आँखों को हाथों से बंद करने का प्रयास किया जाय. और एक दूसरा अल्पसंख्यक वर्ग जो सत्ता और अधिकार संपन्न था उसने मुझे मिस्र के जन-स्वास्थ्य मंत्रालय के स्वास्थ्य-शिक्षा के निदेशक पद से हटाने का फैसला सुना दिया; साथ ही Health पत्रिका के अधिकार से भी जिसके बोर्ड ने मुझे प्रबंध सम्पादक के तौर पर चुना था.पर ऐसी घटनाओं ने भी, जो बेहद दर्दनाक थीं, मेरे प्रयासों को धीमा या मेरे उत्साह को हल्का नहीं किया. मेरी कलम तथ्यों और मामलों के खुलासे, निपटारे करती रही और जिस सच पर मुझे भरोसा था उसको रेखांकित भी.

क्योंकि मैं अच्छे तरह से जानती थी कि असल नुकसान Women And Sex के बारे में सच को छिपाने से होगा बजाय इसकी खोज या इसके बारे में बताने के. सत्य बहुत बार तयशुदा विचारों की जड़ शान्ति को हिलाता-झिंझोड़ता है; पर कई बार एक सटीक हलचल दिमाग को जगा सकती है और आँखें खोल सकती है यह देखने के लिए कि आस-पास क्या हो रहा है.

इसमें कोई शक नहीं कि अरब समाज की औरतों के बारे में लिखना और जबकि लेखक स्वयं एक स्त्री हो, बीहड़ और संवेदनशील क्षेत्र में पाने पाँव रखने जैसा है. यह कुछ-कुछ दिखाई पड़ने वाली और न दिखने वाली बारूदी सुरंगों के बीच अपना रास्ता बनाने जैसा काम है. लगभग हर कदम किसी पवित्रता से भरे और दिव्य तार को छेड़ सकता है जिसे छूने से मना किया गया है और ऐसी मान्यताएं को भी भी जिन पर कोई सवाल नहीं उठाये जा सकते क्योंकि वे धार्मिक और नैतिक स्थापत्य का हिस्सा हैं. और जब सवाल स्त्री के सम्बन्ध में हों और कोई हाथ उन्हें आज़ाद कराने के लिए आगे बढे तो यह मूल्य लोहे की छड़ों की तरह बाधा बन कर सामने आ जाते हैं.

आमतौर पर धर्म, सत्य के शोधकों और खोजियों के प्रयासों को कमतर करने या समाप्त कर डालने का एक हथियार है. मैंने इसे बहुत साफ़ तरीके से महसूस किया है कि धर्म आज के समय ज़्यादातर आर्थिक और राजनीतिक ताकतों का औज़ार बनाकर काम में लाया जा रहा है.  यह एक ऐसी संस्था है जो शासकों द्वारा शासन करने के लिए न्यायिक, प्रशासनिक और यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक तंत्र के रूप में स्त्री, बच्चों और गुलामों के दमन के द्वारा ऐतिहासिक रूप से पैदा पितृसत्तात्मक परिवार को बनाए और जारी रखने के लिए काम में लाई जाती है. अतः किसी भी समाज में धर्म को राजनीतिक व्यवस्था से और यौनाचार को राजनीति से अलगा कर नहीं देखा जा सकता.

समाज में सबसे अधिक संवेदनशील; राजनीति, धर्म और यौनाचार का त्रिक है. यह संवेदनशीलता अपने चरम पर ग्रामीण पृष्ठभूमि और संस्कृतियों वाले विकासशील देशों में पहुँचती है जहां सामंती रिश्ते प्रचंड रूप से प्रभावी होते हैं. यूरोप की औद्योगिक, तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति ने वहाँ की जन-संस्कृति को धर्म और यौनाचार के जीर्ण-शीर्ण मूल्यों और सामंतवाद के ताकतवर प्रभाव से आज़ादी दिलाने में बड़ा योगदान दिया है. यह प्रक्रिया चर्च के ख़िलाफ़ बड़े कठोर संघर्षों के ज़रिये संभव हो सकी. यह संघर्ष दो पारस्परिक विपरीत मान्यताओं का प्रतिफलन था- पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव और मध्यकालीन सामंती बोध का. और सभी सामजिक संघर्षों की तरह संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी ही इसका सबसे ज़्यादा शिकार हुए. उनमें से कुछ जिन्होंने चर्च की प्रभुता मानने से इनकार कर दिया उन्हें जिंदा जला डाला गया.Giordano Bruno जैसे पुरुष जिसने घोषणा की कि पृथ्वी आकाश में निरंतरता के साथ सूर्य का चक्कर लगा रही है या फिर मशहूर Joan of Arc. पर एक दिन आया जब संघर्ष समाप्त हुआ और नई पूंजीवादी ताकतों ने चर्च और धर्म-गुरुओं पर विजय हासिल की. यह मानवीय इतिहास का एक बड़ा मोड़ है जहां आर्थिक कारण सबसे ऊपर उठ गए यहाँ तक कि धर्म से भी ऊपर.

क्योंकि मनुष्य का जीवन और उसकी ज़रूरतें अर्थ पर निर्भर होती हैं, धर्म पर नहीं.समूचे मानव-इतिहास में धर्म के मानदंड और मान्यताएं अर्थ द्वारा ही बदले और संचालित किये गए हैं. किसी भी समाज में स्त्री का दमन, आर्थिक निर्मितियों का ही प्रतिफलन होता है जो भूमि-स्वामित्व, उत्तराधिकार और अभिभावकत्व के तंत्र तथा पितृसत्ता के रूप में अन्तर्निहित एक सामाजिक इकाई के तौर पर दिखता है. हालांकि मानव-इतिहास ने समय-समय पर यह सिद्ध किया है कि औरतों की हीन स्थिति और उत्पीडन का कारण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था ही है फिर भी बहते सारे लेखक-विश्लेषक आज भी समस्या की जड़ धर्म ही मानते हैं. इसके पीछे एक वजह है, वह यह कि पश्चिमी स्रोत जब अरबी औरतों की स्थितियों की बात करते हैं तो यह जतलाने की कोशिश करते हैं कि अन्य धर्मों की तुलना में इस्लाम का रवैया उन्हें सताने वाला अधिक रहा है. यह विश्वास संभवतः इस्लाम से जुड़े पूर्वाग्रहों और अधूरी समझ के कारण बना है और साथ ही सामाजिक बदलावों में निभाई गई उसकी भूमिका के कारण भी. यह इस्लामी ज्ञान और व्यवस्था की नासमझी का परिणाम है साथ ही शासक-वर्ग के निहित आर्थिक स्वार्थों को ढंकने-मूंदने, जो नव-उपनिवेशवादी शक्तियों से गठजोड़ बनाते हैं, और असल तथ्यों को छिपाने के प्रयास से भी पैदा होता है.

कुछ देशों, जिसमें अरब मुल्क भी शामिल हैं और तीसरा विश्व भी, में बहुत सारे स्थानीय स्वार्थ, नव-उपनिवेशवादी ताकतों के साथ सहयोग बनाकर सावधानी से निरंतर चलते रहने वाले अभियनों में शामिल होते हैं जो धर्म की शिक्षाओं और उपदेशों से मनुष्य को भ्रमित, दिशाहीन बनाकर गलतबयानी करते रहते हैं. धर्म को झंडे की तरह लहराकर तमाम रास्तों पर उसका इस्तेमाल किया गया है- सऊदी अरब से ज़्यादा से ज़्यादा तेल निकालने के लिए, Mossadeq की सत्ता को उखाड़कर ईरान में तेल एकाधिपत्य वाली सरकार को पुनर्स्थापित करने के लिए, सुकर्णो को कैद कर इंडोनेशिया में बड़े पैमाने पर जन-संहार कराने के लिए, चिली में सल्वाडोर अलांद को बर्बाद कर सैन्य शासन स्थापित करने के लिए जहां तोपों, मशीनगनों, जेलों के साथ ही सड़कें गश्त लगाते फौजियों के बूटों की थाप से गूंजती रहती हैं. साथ ही  बांग्लादेश में मुजीब अब्दुल रहमान की हत्या में, लेबनान में भ्रातृ-ह्त्या के बाद महीनों चलने वाले युद्ध जो और कुछ नहीं बल्कि राष्ट्रवाद, जम्हूरियत और विकास की उभरती हुई ताकतों को ज़मींदोज़ कर देने का षडयंत्र था में भी धर्म ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. धर्म के नाम पर अरबी देशों में हज़ारों लोग भयावह मौतों को झेल चुके हैं और झेल रहे हैं. और मिस्र में धर्म की सरपरस्ती में रूढ़िवादी, कट्टरवादी और शोषणकारी ताकतें जनता को रोजी-रोटी और रोजमर्रा की आवश्यकता से वंचित करने के लिए आपस में गठजोड़ बनाती रही हैं. यह चंद लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए घोषणा करती हैं कि औरतों का स्थान घर में है और साथ ही हरम का एक आधुनिक ढांचा स्थापित करना चाहती हैं. यही वे ताकतें हैं जो औरतों के खतने की बर्बर पद्धति को प्रचलित किये हुए हैं जिसे कुछ अरब देशों में आज भी लडकियां झेल रही हैं. बड़े नपे-तुले और क्रूर अभियानों के ज़रिये भगनासा-विच्छेद और कभी-कभी समूल बाहरी यौनांगों की सफ़ाई को लड़कियों के ब्रेनवाश के साथ काम में लाया जाता है जिससे उनकी सोचने समझने की शक्ति को पंगु बना दिया जाता है. सदियों से ऐसा ही तंत्र निर्मित किया गया है जिसमें औरतों की अपने ऊपर हो रहे शोषण को देख सकने की और उनके कारणों को समझ सकने की काबिलीयत को मार डाला जाता है. ऐसी व्यवस्था स्त्री-दशा को इस तरह चिन्हित करती हैं जैसे उसका स्त्री होना नियंता के हाथों की तैयार एक नियति है और इसलिए वे मानव नस्ल में निम्न प्रजाति की हैं.   

धर्म पर कोई भी गंभीर अध्ययन यह साफ़ बता देगा कि अपनी मौलिकता में इस्लाम में स्त्रियों की अवस्था यहूदी और ईसाई धर्म को देखते हुए अधिक खराब नहीं है. वस्तुतः स्त्रियों का दमन यहूदी और ईसाई धर्म में अधिक चटक कर सामने आता है. परदा, इस्लाम के बहुत पहले यहूदियों की ही देन है. ओल्ड टेस्टामेंट में कहा गया कि Jehova की प्रार्थना करते समय स्त्रियाँ अपने मस्तक को ढंका करती थीं, जबकि पुरुष खुले मस्तक से प्रार्थना कर सकते थे क्योंकि वे ईश्वर की छवि से बने थे. यह विश्वास यहीं से पैदा हुआ कि औरतें अधूरी हैं, बिना मस्तक की देह हैं, एक देह जो पुरुष के साथ पूरी होती है जो उसका पति है क्योंकि मस्तक उसके ही पास है. यहीं से गैर-इस्लामी समाजों में सर्जिकल और मानसिक खतने के रूप में स्त्री के लिए शुचिता-पेटी (chastity Belt) की शुरुआत हुई- धातु का एक कवच पेट के निचले हिस्से में बाँध दिया जाता था. इनके अलावा और भी उत्पीड़न और दमन के रूप पितृसत्तात्मक परिवारों के अस्तित्व में आने के साथ प्रकाश में आते गए.

पितृसत्तात्मक परिवार, जो भूमि-अधिग्रहण, उत्तराधिकार, पैत्रिक सम्बन्ध स्त्री और गुलामों के दमन पर आधारित था के बहुत पहले मनुष्य स्त्री और पुरुष दोनों देवताओं की पूजा करता था. बहुत सारी पुरानी सभ्यताओं में, प्राचीन मिस्र भी जिसमें शामिल है, औरतों की समाज में विशेष स्थिति थी एवं देवियों का बहुत सारी जगहों पर शासन माना जाता था. पर जैसे ही नई आर्थिक व्यवस्था और पितृसत्ता ने मोर्चाबंदी की, पुरुष ईश्वरों ने एकेश्वरवादी धर्मों पर एकाधिकार कर लिया. देवियाँ गायब हो गईं और उपदेशकों और पुजारियों का पूरा काम पुरुषों के अधिकार-क्षेत्र में आ गया.

अरबी औरतों की आज़ादी तब तक संभव नहीं है जब तक दमन की जड़ों और उसके बढ़ते प्रभावों को ख़त्म नहीं किया जाता. असल मुक्ति सब तरह के शोषणों से ही मुक्ति है वह चाहे आर्थिक, यौनिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हो. आर्थिक आज़ादी मात्र भी पर्याप्त नहीं है. एक समाजवादी व्यवस्था जहां स्त्री को पुरुषों के बराबर वेतन मिलता है ज़रूरी नहीं कि पूर्ण मुक्ति की और ले जाय. जब तक पितृसत्तात्मक परिवार हावी रहेंगे, स्त्री-पुरुष संबंधों के सफल  परिणाम  नहीं निकलने वाले.इसमें कोई शक नहीं कि आर्थिक-मुक्ति, स्त्री-मुक्ति की दिशा में एक बड़ा योगदान रखती है. पर इसे उत्पीड़न के अन्य रूपों के साथ भी जुड़ना चाहिए चाहे वह सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक हो तभी स्त्री और पुरुष सही मायनों में मुक्त हो सकेंगे.

नवल अल सादवी
काहिरा
१९७७                
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अपाहिज आबादी                                             

१.   एक सवाल जिसका कोई जवाब नहीं

मैं छः साल की थी उस रात, जब एक बेहद सुकून से भरे माहौल में जागने और सोने की हालत के बीच कहीं अपने बिस्तर पर लेटी हुई थी. मासूम परियों की तरह, बचपन के गुलाबी सपने साथ में मंडरा रहे थे. इसी बीच मैंने अपने कम्बल के नीचे एक हलचल सी महसूस की. मेरे शरीर को टटोलता वह एक बड़ा सा हाथ था- ठंडा और रूखा, जैसे कुछ तलाश रहा हो. लगभग उसी समय एक दूसरा हाथ जो पहले वाले की ही तरह ठंडा, कठोर और उतना ही बड़ा था, ने मेरा मुंह भींच लिया ताकि मैं चिल्ला न सकूं.

 वे मुझे गुसलखाने की ओर ले गए. मुझे पता नहीं कि वहाँ और कितने लोग मौजूद थे, न मुझे उनके चेहरे दिख रहे थे न मैं यह कह सकती थी की वे मर्द हैं या औरतें. दुनिया मुझे एक अँधेरे कुहरे में लिपटी हुई महसूस दे रही थी जिसके कारण मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था या हो सकता है उन्होंने मेरी आँख पर किसी तरह का कपड़ा बाँध दिया था. जो मुझे याद है वो यह कि मैं बेहद डरी हुई थी और वहाँ बहुत सारे लोग जमा थे. और एक मजबूत चंगुल ने मेरी बाज़ुओं और जाँघों को जकड़ रखा था, ताकि मैं विरोध करने या यहाँ तक कि हिलने में भी असमर्थ हो जाऊं. अपने नग्न शरीर के नीचे मुझे गुसलखाने के फ़र्श का ठंडा अहसास अभी भी याद  है. अजनबी बोलियाँ, भिनभिनाहट के स्वर जब-तब, एक कर्कश धातु की आवाज़ के साथ, बीच में सुनाई पड़ रहे थे जो मुझे उस कसाई की दिला रहे थे जो अपने चाकू की धार, ईद के मौके पर भेड़ को जिबह करने के लिए तेज़ किया करता था[1]

मेरा खून मेरी धमनियों में जम सा गया था. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ चोरों ने कमरे का दरवाज़ा तोड़ कर मुझे बिस्तर से ही उठा लिया था और वे मेरा गला काटने की तैयारी कर रहे थे जैसा हमेशा उन लड़कियों के साथ किया जाता था जो मेरी तरह बात न मानने वाली होती थीं- ऐसा मैंने अपनी पुराने गाँव वाली दादी की चाव से सुनाई जाने वाली कहानियों में सुन रखा था.
 

मैंने अपने कानों पर बहुत जोर लगाकर किसी धातु के रगड़ने की आवाज़ को पकड़ने की कोशिश की. जिस वक़्त यह आवाज़ रुकी मुझे लगा जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया है. मैं कुछ देख नहीं पा रही थी और मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी सांस भी बंद हो गयी है. फिर भी मैंने महसूस किया कि जो चीज़ रगड़ की आवाज़ पैदा कर रही थी वह लगातार मेरे नज़दीक आती जा रही थी

हालांकि, जैसी मैंने उम्मीद की थी वो मेरे गले के पास नहीं आई बल्कि शरीर के किसी दूसरे हिस्से पर चली गयी- कहीं मेरे पेट के नीचे मेरी जाँघों के बीच दबी हुई कोई चीज़ तलाश रही थी. उसी वक़्त मैंने महसूस किया कि मेरी जांघें और नीचे के शरीर का हर हिस्सा जितना संभव हो सकता था फैला दिया गया है जिन्हें बेहद मजबूती से पकड़े रखा गया था. मुझे लगा कि कोई धारदार चाकू या ब्लेड मेरे गले की ओर बढ़ता हुआ  एकाएक मेरी जाँघों के बीच आ गया और वहाँ से मेरे शरीर के मांस का एक हिस्सा काट लिया.

मेरे मुंह को भींच रखा गया था उसके बावजूद मैं कराह कर बुरी तरह से चीखी क्योंकि यह दर्द सिर्फ दर्द न होकर बेहद तेज़ आंच की तरह था जो मेरे पूरे शरीर में दौड़ गया था. कुछ ही देर बाद मैंने अपने कूल्हे के चारों ओर खून ही खून लगा देखा.


मुझे पता नहीं था कि मेरे शरीर से उन्होंने क्या काट कर अलग किया था और मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की. मैं सिर्फ़ रो रही थी और अपनी माँ को मदद के लिए पुकार रही थी. और ऐसे वक़्त पर जो सबसे धक्का लगने वाली बात थी वह यह थी कि जब मैंने चारों और देखा तो उन्हें अपने ही पास खड़े पाया. हाँ, यह वही थीं. मैं गलत नहीं थी. अपनी पूरी मौजूदगी के साथ उन अनजान लोगों के ठीक बीच में खड़ी हुई, उनके साथ बतियाती, मुस्कुराती जैसे अपनी बच्ची को जिबह करने वालों में वो खुद भागीदार रही हों.

वे वापस मुझे मेरे बिस्तर पर ले गए. मैंने उन्हें अपने से दो साल छोटी बहन को भी ठीक वैसे ही पकड़ते हुए देखा जैसे वे थोड़ी देर पहले मुझे पकड़े हुए थे. मैं अपनी पूरी ताकत के साथ चिल्लाई – नहीं ! नहीं !! मैं उनके कठोर हाथों के बीच में फंसा अपनी बहन का चेहरा देख सकती थी. यह मृत्यु का पीलापन था. उसकी बड़ी काली आँखें, मुझसे थोड़े वक़्त के लिए मिलीं, उस अँधेरे दर्द से भरी दृष्टि को मैं कभी नहीं भूल सकती. थोड़ी ही देर में वह उसी गुसलखाने  में ले जाई गयी जहां मुझे ले जाया गया था. थोड़ी देर के लिए मिली उस नज़र में जैसे हमने आपस में कहा हो ‘ हम जानते हैं कि यह सब क्या है? हम जानते हैं कि हमारी त्रासदी कहाँ मौजूद है? हम एक विशेष लिंग में पैदा हुई थीं- स्त्रीलिंग. हमारी नियति इस यातना को झेलने के लिए और हमारे शरीर के हिस्से को जड़, संवेदनहीन और क्रूर हाथों द्वारा काटकर फेंक दिए जाने के लिए पहले से ही तय कर दी गई है.’

मेरा परिवार कोई अशिक्षित मिस्री परिवार नहीं था. इसके उलट मेरे माँ-बाप उन दिनों के हालात को देखते हुए, एक अच्छी शिक्षा हासिल करने के मामले में पर्याप्त किस्मतवाले थे. मेरे पिता विश्वविद्यालय से स्नातक थे. और उस साल (1937) में दक्षिण काहिरा के डेल्टा क्षेत्र में Menoufia प्रांत के शिक्षा नियंत्रक के पद पर नियुक्त किये गए थे. मेरी माँ को उनके पिता ने फ्रांसीसी स्कूलों में पढ़ाया था जो सैन्यभर्ती के महानिदेशक हुआ करते थे. इसके बावजूद लड़कियों के खतने का रिवाज़ उन दिनों बहुत आम था और कोई भी लड़की इससे बच नहीं सकती थी- चाहे वह परिवार ग्रामीण हो या शहरी. जब कुछ दिनों बाद घर पर आराम कर, ठीक होकर मैं स्कूल लौटी तो मैंने अपने सहपाठियों/ मित्रों को अपने साथ हुए इस वाकये के बारे में बताया और यह जाना कि सभी लड़कियां बिना अपवाद समान अनुभव से गुज़र चुकी थीं. और वे किस सामाजिक वर्ग से आती थीं इसका कोई मतलब नहीं होता था (उच्च, मध्य अथवा निम्न-मध्यवर्ग)

ग्रामीण इलाकों में, गरीब किसान परिवारों के बीच सभी लड़कियों का खतना किया जाता है जो बाद में मुझे Kafr Tahla के अपने रिश्तेदारों से पता चला. यह रिवाज़ अभी भी गाँवों में बड़ा सामान्य है; यहाँ तक कि शहरों में रहने वाले परिवारों का बड़ा हिस्सा इसकी ज़रुरत पर भरोसा करता है. हालांकि, शिक्षा के प्रसार और अभिभावकों के बीच की समझदारी के भाव ने ऐसे माता-पिता की संख्याओं को बढ़ाया है जो अपनी लड़कियों के खतने से परहेज़ करते हैं.

खतने की याद एक बुरे सपने की तरह मेरा पीछा करती रही. मैं एक असुरक्षा के भाव से घिरी रहती थी जैसे भविष्य की ओर बढ़ते हर कदम पर कुछ ‘अनजाना’ सा मेरा इंतज़ार कर रहा है. मैं नहीं जानती थी कि मेरी मां, पिता, दादी और आसपास के लोगों द्वारा बहुत कुछ अनोखी और अपरिचित सी घटनाएं मेरे लिए इकट्ठी की जा रही हैं. समाज ने मुझे महसूस करा दिया था कि जिस दिन मैंने अपनी आँखें खोलीं मैं एक लड़की थी और जब भी कोई इस शब्द Bint (लड़की) का संबोधन करता तो त्यौरी और नाक-भौं चढ़ाकर ही करता.

तब भी जब मैं बड़ी हुई और एक चिकित्सक के रूप में 1955 में स्नातक हुई, मैं उस दहशतज़दा घटना को कभी भूल न सकी जिसने मेरे बचपन को हमेशा के लिए छीन लिया था, साथ ही जिसने मेरी जवानी के समय और शादीशुदा ज़िन्दगी में लम्बे अरसे तक अपनी यौनिकता की पूर्णता का आनंद लेने से तथा जीवन की समग्रता से वंचित रखा जोकि केवल चौतरफ़ा मनोवैज्ञानिक संतुलन से ही पाया जा सकता है. तमाम तरह के दु:स्वप्न सालों तक मेरा पीछा करते रहे विशेषकर उस दौर में जब मैं ग्रामीण इलाकों में चिकित्सक के रूप में काम कर रही थी. वहाँ मुझे आमतौर पर उन लड़कियों की देखभाल करनी होती थी जो खतने के बाद विपुल रक्तस्राव के कारण आपात उपचार केन्द्रों में लाई जाती थीं. उनमें से बहुत सारी सर्जरी के  अमानवीय और आदिम तरीकों के फलस्वरूप जो अपने आप में पर्याप्त बर्बर थे, अपनी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठती थीं. कुछ थीं जो दीर्घकालीन और तीव्र संक्रमण से पीड़ित रहती थीं जिसे उन्हें अपनी बाकी बची ज़िन्दगी में झेलना था और उनमें से बहुत, अपने इन अनुभवों के कारण बाद में यौनगत और मानसिक विकृतियों का शिकार हो गयी थीं.

मेरे रोज़गार ने विभिन्न अरब देशों से आये मरीजों का परीक्षण किया. उनमें सूडानी औरतें भी थीं. मैं यह देखकर खौफ़ज़दा थी की सूडानी लड़की खतने की जिस प्रक्रिया से गुज़रती है वह मिस्री लड़कियों की प्रक्रिया से दस गुना क्रूर प्रक्रिया है. मिस्र में सिर्फ़ भगनासा को ही काटा जाता है वह भी पूर्णतया नहीं, लेकिन सूडान में सर्जरी के ज़रिये समूची बाहरी जननेंद्रिय को पूरी तरह से हटा दिया जाता है. वे पहले भगनासा को काटते हैं और फिर दोनों वृहद् भगोष्ठों और दोनों लघु भगोष्ठों को अलग कर देते हैं.बाद में घाव का उपचार किया जाता है. योनि का बाहरी मुख ही बचे हुए हिस्से के बतौर छोड़ दिया जाता है, बिना इस बात को जांचे कि सर्जरी के दौरान मुख को कुछ अतिरिक्त टांकों के साथ ज़्यादा ही छोटा कर दिया गया है. फलस्वरूप शादी की रात में छुरे या उस्तरे से बाकी मुख को चौड़ा करने के लिए एक या दोनों छोरों को काटा जाता है ताकि पुरुष अंग उसमें प्रवेश कर सके. और तो और जब सूडानी औरत का तलाक होता है तो फिर उसके योनि-मुख को छोटा किया जाता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वह अब यौन-सम्बन्ध नहीं बना सकती है. और जब वह पुनः शादी करती है तो यही प्रक्रिया फिर से दुहराई जाती है.

गुस्से और विद्रोह का मेरा अहसास उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया जब मैंने इन औरतों को मुझे, एक सूडानी लड़की के साथ खतने में क्या-क्या होता है, बताते हुए सुना. मेरा गुस्सा तब कई गुना बढ़ गया जब १९६९ में सूडान की यात्रा के दौरान मुझे पता चला कि खतने की यह कुरीति अब भी बदस्तूर जारी है चाहे वह ग्रामीण इलाके हों या शहरी कस्बे.

मेरे चिकित्सकीय लालन-पालन और शिक्षा के बावजूद उन दिनों मैं यह समझ सकने में असहाय थी कि लड़कियों को इस बर्बर प्रक्रिया से क्यों गुज़ारा जाता है. लगातार मैं स्वयं से यह सवाल पूछती – क्यों ? क्यों ?? लेकिन कभी मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता जो उस दिन से मुझे लगातार मथ रहा था जिस दिन मेरा और मेरी बहन का खतना हुआ था. मैं इस सवाल का जवाब खोज पाने में नाकाम थी जो लगातार मेरे दिमाग में चक्कर लगा रहा था.

यह सवाल बहुतेरी दूसरी चीज़ों से भी जुड़ा हुआ महसूस होता था जो मुझे अक्सर उलझन में डाले रहते थे. जैसे खाने और घर से बाहर जाने की आज़ादी के मामले में क्यों वे मेरे भाई को तरजीह देते थे? इन सारे मामलों में उसके साथ मुझसे बेहतर सुलूक क्यों होता था? क्यों मेरा भाई खुल कर हंस सकता था जबकि मैं लोगों की आँखों में भी सीधे नहीं देख सकती थी? ऐसी दशा में जब किसी से मेरा सामना हो तो मुझे अपनी नज़रें नीची करनी होती थीं. जब मैं हंसती तो मुझसे आवाज़ को धीमा रखने की उम्मीद की जाती ताकि लोग मुझे शायद ही सुन सकें या फिर इससे बेहतर होता कि मैं बहुत धीरे से सकुचाते हुए मुस्कराकर चुप हो जाऊं. जब मैं खेलती  तो मेरे पांवों को बेतरतीबी से हिलाने की इजाज़त नहीं थी और उन्हें एक साथ एक-दूसरे से जुड़ा रहना था. पढ़ाई और स्कूल के साथ-साथ मेरा बुनियादी काम घर की सफाई और खाना बनाना था. जबकि लड़कों से पढ़ाई के अलावा और कोई उम्मीद नहीं की जाती है.

चूंकि मेरा परिवार पढ़ा-लिखा था और मेरे पिता स्वयं एक अध्यापक थे, इसलिए लड़के और लड़कियों के बीच का फ़र्क उस सीमा तक नहीं था जो आमतौर पर परिवारों में होता था. मुझे अपने रिश्ते की उन छोटी बहनों के लिए बहुत अफ़सोस होता था जब या तो ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े के लिए उनका स्कूल छुड़वाकर उन्हें किसी बूढ़े आदमी से ब्याह दिया जाता था या फिर जब उनके छोटे भाई सिर्फ इसलिए, क्योंकि लड़के होने के कारण वे अपनी बहनों पर अधिकार जमा सकते थे, उन्हें बेवजह पीटते और परेशान करते थे.   

मेरे भाई ने भी मुझ पर हुक्म चलाने की कोशिश की पर मेरे पिता एक उदार हृदय के व्यक्ति थे और उन्होंने पूरी कोशिश की कि लड़के और लड़कियों के बीच के फर्क के बगैर बच्चों के साथ व्यवहार हो. मेरी माँ का भी यही मानना था पर पर मैंने महसूस किया कि असल में ऐसा होता नहीं है.

जब-जब ऐसी असमानता हुआ करती मैं विरोध किया करती कभी-कभी हिंसक रूप से भी और और अपने माता-पिता से पूछती कि क्यों बावजूद इसके कि स्कूल में मैं उससे बेहतर कर रही हूँ मेरे भाई को विशेष अधिकार मिले हुए हैं जो मुझे नहीं दिए गए हैं. ‘ऐसा ही होता है’, मेरे माँ-बाप के पास हालांकि इसके सिवाय कोई उत्तर नहीं हुआ करता था; मैं बदले में पूछती, ‘ लेकिन ऐसा होता ही क्यों है?’ और फिर से वैसा ही एक तरह का जवाब मिलता, ‘ क्योंकि ऐसा ही है?’ और अगर मैं जिद पकड़ लेती तो इस सवाल को दुहराती रहती, तब अपना आपा खोने की हालत में पहुँचते हुए वे दोनों एक समान स्वर में कहते,’ क्योंकि वह लड़का है और तुम लड़की हो’.

शायद उनको लगता होगा कि मुझे चुप कराने के लिए या विश्वास दिलाने के लिए यह जवाब काफ़ी था, लेकिन इसके उलट यह जवाब मुझे और चिढ़ाता और अधिक जिद्दी होने के लिए उकसाता और मैं पूछती, ‘ लड़का और लड़की में क्या फर्क होता है’?

इस मौके पर हमारी दादी, जो हमारे घर अक्सर आती थीं, बातचीत को बीच में रोक देती थीं, जिसे वे हमेशा ‘ अच्छे आचरण का उल्लंघन’ कहती थीं, मुझे तेजी से फटकारतीं. ‘ मैंने जीवन में ऐसी लम्बी ज़बान वाली कोई लड़की नहीं देखी, हाँ, तुम अपने भाई की तरह नहीं हो. तुम्हारा भाई एक लड़का है, एक लड़का, सुना तुमने ! कितना अच्छा होता कि तुम उसकी तरह एक लड़का पैदा हुई होतीं.’

परिवार में कोई भी ऐसा नहीं था जो मेरे सवालों का भरोसे लायक जवाब दे सके. इसलिए सवाल बेचैनी के साथ मेरे ज़ेहन में घूमना जारी रहते और हर बार कुछ भी घटित होने पर आगे बढ़कर पहलकदमी करते जो इस बात को और मजबूत करता कि पुरुष के साथ हर वक़्त ऐसा सुलूक इसलिए किया जाता था कि वे उस वर्ग से आये हैं जिनके पास ताकत और अधिकार हैं.

जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया तो ध्यान दिया कि अध्यापक कॉपी में मेरे पिता का नाम लिखते थे मेरी माँ का नहीं. ‘क्यों’, मैंने माँ से पूछा तो उसने फिर से वही जवाब दिया, ‘ऐसा ही होता है’ पिता ने हालांकि बताया कि बच्चों का नाम उनके पिता के नाम पर रखा जाता है और जब मैंने इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने उसी घिसे-पिटे जुमले को दुहरा दिया जो मैं अच्छी तरह जानती थी  कि ऐसा ही होता है. मैं अपने पूरे साहस को जगाकर पूछा ‘ऐसा क्यों होता है?’ और तब मैं अपने पिता के चेहरे को ध्यान से देखा. उन्हें सच में उसका जवाब पता नहीं था. बाद में मैंने उनसे दुबारा वह सवाल नहीं पूछा सिवाय तबके जब मेरी सच की खोज मुझे बहुत सारे सवालों की ओर ले गयी और मैंने बहुत से विषयों पर उनसे बात की जो मैं अपने रास्ते में खोज रही थी.

हालांकि, उस दिन के बाद से मैं समझ गयी थी कि मुझे अपने सवाल का जवाब खुद पाना होगा जिसका कोई जवाब नहीं देता था.उस दिन से मेरा रास्ता और लंबा हो गया जो इस किताब तक चला आया.
 


[1]ईद, मसलमानों में रमज़ान के महीने के बाद आने वाला चार दिनों का त्यौहार है. यह बहुत उमंग और उत्साह का अवसर माना जाता है. दूसरी ईद जिसे ईद एल अदा कहते हैं वह इस ईद के डेढ़ महीने बाद मनाई जाती है जिसे कुर्बानी का त्यौहार कहते हैं. जिसमें भेड़ या मेमने की कुर्बानी दी जाती है. यह अब्राहम की अपने बेटे के स्थान पर मेमने की कुर्बानी के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. 
.......... क्रमश: 



   

नवल अल सादवी : अनुवाद एवं प्रस्तुति - सुबोध शुक्ल / 2

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नवल अल सादवी

स्त्री-संतति के प्रति यौन दुराचार

सभी बच्चे जो सामान्य और स्वस्थ पैदा होते हैं खुद को सम्पूर्ण मनुष्य के रूप में महसूसते हैं. पर, स्त्री संतान के साथ ऐसा नहीं है. जिस वक़्त से वह पैदा और कुछ बोल सकने में सक्षम होने को होती है, आस-पास की आँखों का भाव और उनका लहजा यह दर्शाने लगता है कि वह कुछ ‘अधूरी’ या फिर ‘कुछ कमी के साथ’ पैदा हुई है. पैदा होने के दिन से लेकर मौत के समय तक एक सवाल लगातार उसका पीछा करता है कि क्यों? उसके भाई को हमेशा तरजीह मिलती है इसके बावजूद कि वे बराबर हैं, यहाँ तक कि बहुत सारे मामलों में वह उससे बेहतर हो सकती है या फिर कम से कम कुछ पहलुओं में तो निश्चित ही ?

पहला आघात जो स्त्री-संतान महसूस करती है वह यह भाव है कि लोग उसके दुनिया में आने से खुश नहीं हैं, उसका स्वागत नहीं करते. कुछ परिवारों में और ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाकों में यह ‘ठंडापन’ थोड़ा और आगे बढ़ सकता है और मातम तथा अवसाद के माहौल तक पहुँच जाता है; यहाँ तक कि माँ की सज़ा अपमान, मार-पीट या फिर तलाक तक पहुँच सकती है. जब मैं बच्ची थी तो मैंने अपनी एक चाची को गाल पर थप्पड़ खाते देखा क्योंकि उसने तीसरी बार लड़के के बजाय लड़की को जन्म दिया था. संयोगवश उनके पति को यह धमकी देते हुए भी सुना कि अगर उसने अगली बार लड़के के बजाय फिर लड़की जनी तो वह उसे तलाक दे देगा.[1]पिताको अपनी इस नवजात बच्ची से इस हद तक घृणा थी कि वह तब भी अपनी पत्नी को सताया करता था जब वह उसकी देखभाल करती थी या उसे दूध पिलाया करती थी. बच्ची अपनी ज़िन्दगी के चालीस दिन पूरा करने के पहले ही मर गई. मुझे नहीं पता कि उसे उपेक्षा ने मार डाला या फिर माँ ने ही गला दबाकर – ‘शांत रहो और शान्ति दो’ की हमारे मुल्क की कहन के आधार पर.

ग्रामीण इलाकों में शिशु मृत्यु-दर बहुत ऊंची है. कुल मिलाकर अरबी देशों में, रहन-सहन और शिक्षा के निम्न स्तर के परिणामस्वरुप यह अनुपात स्त्री-संतान के लिए, पुरुष-संतान से कहीं अधिक है. और अक्सर यह उपेक्षा के कारण होता है हालांकि यह स्थिति बेहतर आर्थिक और शैक्षणिक मानदंडों के फलस्वरूप बेहतर हो रही है[2]और स्त्री तथा पुरुषों के बीच शिशु मृत्यु- दर का अंतर गायब हो रहा है.

एक स्त्री-संतान अगर वह शहर में एक शिक्षित अरब परिवार में पैदा हुई है ज़्यादा से ज़्यादा मानवीय अहसासों और कम से कम निराशाजनक माहौल को पाती है. इसके बावजूद उस पल से जब वह घुटनों के बल चलना या अपने दो पैरों पर खड़ा होना शुरू करती है, उसे सिखाया जाने लगता है कि उसका यौन अंग ‘डर’ का सबब है और बड़ी सावधानी के साथ उसकी संभाल उसे करनी है; विशेषतः वह हिस्सा जिसे जीवन के बहुत बाद में वह योनिच्छद (Hymen) के नाम से जानने लगती है.

स्त्री-संतानें, इसीलिये एक ऐसे माहौल में पाली-पोसी जाती हैं जो उनके यौन-अंगों के प्रदर्शन और स्पर्श के आगाहों और डरों से जुड़ा है. जैसे ही किसी स्त्री-संतान का हाथ अपने यौन-अंग को टटोलने की मुद्रा में पहुंचता है जोकि सभी बच्चों के लिए बड़ा सामान्य और स्वाभाविक ज़रिया है अपने शरीर की जानकारी का, तुरंत माँ की निगरानी भरी अँगुलियों या हाथों के ज़रिये चपत या घूंसों के द्वारा उसे सबक सिखाया जाता है, कभी-कभी पिता के द्वारा भी. किसी भी बच्चे को अचानक कभी भी थप्पड़ जदा जा सकता है; पर ज़्यादा सावधान और तार्किक अभिभावक अविलम्ब चेतावनी या कड़े शब्दों में घुड़ककर इस काम को अंजाम दे सकते हैं.
अरब समाज में स्त्री-संतान को मिलने वाली शिक्षा, निरंतर चेतावनियों की श्रृंखला है उन चीज़ों के बारे में जिन्हें धर्म द्वारा हानिकारक, निषेधयोग्य, निंदनीय अथवा गैर-कानूनी माना जाता है. बच्चे को अपनी इच्छा को दबाने के लिए, खुद से जुड़ी हुई असल, मौलिक चाहनाओं और इच्छाओं से खाली करने के लिए और उस खालीपन को दूसरों की कामनाओं के अनुसार भरने के लिए सब कुछ करना पड़ता है. स्त्री-संतान की शिक्षा इसलिए, एक धीमे विध्वंस की प्रक्रिया में रूपांतरित हो जाती है- उसके व्यक्तित्व और मस्तिष्क के क्रमिक मरण के तौर पर जहां सिर्फ उसका बाहरी खोल चिपका रह जाता है. शरीर, हड्डियों, मांसपेशियों और खून का जीवन-रहित साँचा जो एक तनावपूर्ण  रबर की गुड़िया में दौड़ रहा है.

एक लड़की जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं रह गया है. आज़ाद होकर सोचने की ताकत और दिमाग का इस्तेमाल भी वह नहीं कर सकती, वह वही करेगी जो दूसरे उससे करने के लिए कहेंगे. इसी तरह से वह उनके हाथों का खिलौना और उनके फैसलों का शिकार बनती जाती है.

फिर वे दूसरे कौन हैं जिनके बारे में हम बात कर रहे हैं? ये परिवार के या कभी-कभी परिवार से बाहर के पुरुष हैं जो जीवन के अलग-अलग मौकों पर उससे संबधित होते रहते हैं. ये पुरुष जो अलग-अलग उम्र के होते हैं और बच्चे से लेकर बूढ़े तक फैले होते हैं. सब अलग-अलग पृष्ठभूमियों से होते हैं. पर सबमें एक बात सामान्य होती है कि वे खुद उस समाज के शिकार होते हैं जो लिंगों को बांटता है, और यौनाचार को पाप तथा निंदनीय मानता है और जिसे सिर्फ आधिकारिक विवाह-अनुबंध के दायरे में ही मंजूरी मिली होती है. यौन संबंधों के इस अनुमतिपूर्ण मार्ग के अलावा समाज किशोरों और युवा पुरुषों को किसी भी रूप में यौनाचार से मना करता है सिवाय स्वप्न-दोष के. मिस्री माध्यमिक विद्यालयों में किशोरों को ‘ रिवाज़ और परम्पराएं’[3]नामक पाठ के अंतर्गत ऐसा शब्द दर शब्द पढ़ाया जाता है. यह भी वर्णित है कि हस्तमैथुन वर्जित है क्योंकि यह नुकसानदेह है और उतना ही खतरनाक है जितना किसी वेश्या से यौन सम्बन्ध बनाना.[4]इसलिए जवान पुरुषों के पास तब तक इंतज़ार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता जब तक अल्लाह और पैगम्बर के निर्देशानुसार शादी के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे न इकट्ठे हो जाएँ.

राशि चाहे छोटी हो या बड़ी, काम-काज और शिक्षा में खर्च होते-होते, खासतौर पर शहर में, जवान पुरुष को सालों लग जाते हैं. इसलिए ग्रामीण इलाकों के मुकाबले शहरी युवक की  शादी की उम्र अनुपात में बढ़ जाती है. अधिक दौलतमंद वर्ग के बेटों और बेटियों की शादी बहुत जल्दी हो सकती है लेकिन ऐसा बड़ा कम होता है. दूसरों के लिए शिक्षा और रोज़गार के अलावा शादी में अटकाव वाला मामला – रहन-सहन की कीमत में ज़बरदस्त उछाल, घरों का बहुत मंहगा होना और हद से ज़्यादा किराया है. तो परिणामस्वरूप ऐसे जवान लड़कों की तादाद बढ़ती जाती है जो आर्थिक वजहों से शादी करने में अक्षम हो जाते हैं और लगातार बढ़ता हुआ अंतराल जहां एक ओर जैविक प्रौढ़ता और यौन आवश्यकताओं के बीच पैदा होता है वहीं आर्थिक सम्पन्नता और शादी के अवसर के बीच भी पैदा होता है. यह अंतराल औसतन, दस साल से कम की अवधि का नहीं होता. इसीलिये एक सवाल उठता है कि कैसे एक युवा अपनी स्वाभाविक यौन ज़रूरतों को इस अवधि के दौरान संतुष्ट करे, एक ऐसे समाज में जो हस्तमैथुन के ख़िलाफ़ है उसके शारीरिक और मानसिक रूप से हानिकारक होने के कारण और जो वेश्याओं के साथ, स्वास्थ्य के खतरे को देखते हुए, यौन संबंधों को बनाने की अनुमति भी नहीं देता. यौन रोगों के द्रुत प्रसार की वजह से वेश्यावृत्ति को बहुत सारे अरब देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है. इसके साथ ही वेश्या के साथ समय बिताने की कीमत भी बड़ी संख्या में जवान पुरुषों के लिए अब संभव नहीं रह गयी है. शादी के बाहर यौन-सम्बन्ध और समलैंगिकता दोनों पूरी तरह से समाज द्वारा प्रतिबंधित हैं.जवान पुरुष बिना किसी समाधान के असहाय छोड़ दिए गए हैं.

 तो ऐसे हालातों में, एक मात्र स्त्री, जो एक जवान लड़का या पुरुष आसानी से अपनी पहुँच में पा सकता है वह उसकी छोटी बहन है. बहुतेरे घरों में वह साथ लगे बिस्तर पर सो रही होती है या फिर एक ही बिस्तर पर एक किनारे . वह सो रही हो या जगी हो उसके हाथ उसे छूना शुरू करते हैं. किसी भी मामले में अधिक फर्क नहीं पड़ता वह जगी भी हो तो अपने बड़े भाई के खिलाफ़ उसकी हैसियत के कारण नहीं जा सकती जो रिवाजों और क़ानून के द्वारा उसे दी जाती हैं. अथवा परिवार के भय के कारण या फिर अपराध-बोध के बहुत गहरे जमे हुए अहसास की वजह से जो इस तथ्य से पैदा होता है कि वह भी उसके छूने से आनंद का अनुभव करती है या फिर बहुत छोटी होने के कारण जो यह समझने में असमर्थ है कि उसके साथ क्या हो रहा है?

बहुत सारी स्त्री-सन्ततियां ऐसी घटनाओं से जूझती रहती हैं. परिस्थितियों के अनुसार वे समान या अलग हो सकती हैं. इस मामले में पुरुष कोई  भी हो सकता है-  भाई, चचेरा भाई, चाचा, मामा,दादा यहाँ तक कि पिता.यदि परिवार का सदस्य नहीं तो घर का चौकीदार, संरक्षक, अध्यापक, पड़ोसी का लड़का या कोई भी दूसरा पुरुष.

इस किस्म के यौन हमले बिना किसी ताकत के इस्तेमाल के घटित होते हैं. यदि लड़की बढ़ती उम्र की है और विरोध करती है तो फिर हमलावर कोमलता और चालाकी के मिश्रण के ज़रिये अथवा शारीरिक ताकत के ज़रिये उस पर काबू पाता है. अधिकाँश मामलों में लड़की समर्पण कर देती है और किसी से भी शिकायत करने में डरती है. और अगर किसी तरह की कोई सज़ा मिलनी भी होती है तो वह लड़की पर आकर ही ख़त्म होती है. वह अकेली है जो अपनी इज्ज़त और कुंवारेपन को खोती है. पुरुष का कुछ नहीं बिगड़ता-खोता, जो कड़े से कड़ा दंड उसे मिल सकता है (अगर वह परिवार का सदस्य नहीं है तो) वह यह है कि वह लड़की से शादी कर उस पर अहसान कर दे.

बहुत लोग ऐसा सोचते हैं कि ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का हैं, गिनी-चुनी हैं. पर इस मामले की असलियत यह है कि यह सब कुछ बहुत आम है और छुपा रहता है- बच्ची के अस्तित्व की रहस्यात्मक खोह के भीतर. न वह किसी को बताने का दुस्साहस करती है कि उसके साथ क्या हुआ और न ही पुरुष कभी यह स्वीकार करता है कि उसने क्या किया.

बच्चों अथवा जवान लड़कियों के साथ घटने वाले ये सभी यौन दुराचरण, शैशव-स्मृति विस्मरण(infantile amnesia) की प्रक्रिया के द्वारा भुला दिए जाते हैं. मानवीय स्मृति के पास एक प्राकृतिक क्षमता होती है कि जो बात वह भूल जाना चाहे वह भूल सके, खासतौर पर तब जब वह दर्दनाक घटनाओं, क्षोभ और अपराध-बोध की भावना से सम्बंधित हो. यह उन तयशुदा घटनाओं का एक बड़ा सत्य है जो बचपन में घटित हुई होती हैं और जिसकी जानकारी किसी को भी नहीं है; पर यह विस्मरण बहुत सारे मामलों में कभी पूरा नहीं होता क्योंकि इसका कुछ हिस्सा अवचेतन में दबा रह रह जाता है और वह सतह पर किसी भी मानसिक और नैतिक संकटग्रस्तता के समय उभर के ऊपर आ सकता है.                                                  
                           
बीमार बुज़ुर्ग     

अनगिनत मामले जो मैंने अपनी क्लीनिक में देखे, उन्होंने मुझे अपने जीवन के एक बड़े हिस्से को,समाज के दोगले चेहरे को उजागर करने में समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया, जिसमें हम रहते हैं –एक समाज जो खुले में मूल्यों और नैतिकता के उपदेश देता है पर चोरी-छिपे बिलकुल भिन्न आचरण करता है.
एक चिकित्सक होने के नाते मेरा काम मरीज़ की परीक्षा करने के पहले, यदि बीमारी शारीरिक है तो उसे निर्वस्त्र करना था और यदि बीमारी मानसिक है तो उन मुखौटों को हटाना था जिसमें लोग अपना स्वत्व, अपनी आत्मा ढंके रहते हैं.  

दोनों स्थितियों में, जब शरीर नग्न होता है अथवा स्वत्व नकाबहीन तो सम्बंधित व्यक्ति, भयंकर यातना और भय के कब्ज़े में होता है. यही कारण है कि बहुत सारे लोग शारीरिक या मानसिक रूप से खुद को आवरणहीन करने से इनकार कर देते हैं और तेजी से बिस्तर की चादरों को खींचकर अपना शरीर ढंकने लगते हैं या फिर अपना सार्वजनिक मुखौटा व्यवस्थित करने लगते हैं; और यह सब करके वे लोगों को वह देखने से रोकने की कोशिश करते हैं जो असल में वे हैं और अपनी असलियत, निजता और स्व को अपने अचेतन की गहरी भूल-भुलैया से भरे खोह में छिपाए रहते हैं. क्योंकि सच कितना भी गहरा दफ़ना दिया जाय वो हमेशा जीवित रहता है. जब तक मनुष्य जीवित है और सांस ले रहा वह छिपा सच भी सांस ले रहा होता है. जैसे धरती के अन्दर गहरा दबा कीड़ा अचानक बाहर निकल आता है वैसे ही सत्य भी मनुष्य के दिमाग से उस वक़्त बाहर आ जाता है जब उस पर किसी भी किस्म की चौकसी या पहरा नहीं रह जाता. मनुष्य भले ही कितना भी सजग रहे वह ज़्यादातर बिना पहरे के ही होता है – गुस्से, वासना और डर के मौकों पर. ऐसे मौकों पर वे जल्दबाजी में अपने मुखौटे को पहनना भूल जाते हैं और समझदार आँखें आसानी से ताड़ लेती हैं कि अन्दर क्या-कुछ भरा पड़ा है.

खासतौर पर ऐसे समय में यह अधिक घटित होता है जब व्यक्ति बीमार होता है. क्योंकि तब वह मुखौटे को अपनी जगह पर बनाए रखने में अक्षम हो जाता है. यह गिर जाता है और शरीर तथा आत्मा नग्न हो जाती है. कपड़ों, मुखौटों, नकाब, शर्म छिपाने की आड़ के गिरने से आत्मा और शरीर की नग्नता, अब बीमारी के खतरे के बनिस्बत कहीं कम भयोत्पादक होती है, क्योंकि स्वास्थ्य और जीवन को किसी भी कीमत पर बचाया जाना चाहिए.

ऐसे मामलों में मुझे आज भी वह शरारती, गहरी आँखों वाली एक लम्बी सी लड़की याद आती है. वह बहुत सारी दिमागी और शारीरिक तकलीफों की शिकायत कर रही थी. मैं उसकी बीमारी के ब्यौरों में नहीं जाऊंगी लेकिन उसकी कहानी मेरी स्मृति में आज भी ताज़ा है. जाड़े की एक सर्द रात, मेरी बैठक में हीटर चल रहा था और जब हम शटर गिरा कर बैठे हुए थे, उसने मुझे बताया‘मुझे याद है कि मैं पांच साल की थी जब मेरी माँ मुझे अपने मायके साथ ले जाया करती थी. उनका परिवार एक बड़े से घर में Helislopolis(काहिरा) के नज़दीक Zeitoun  जिले में रहता था.मेरी माँ अपनी माँ और बहनों से हंसती बतियाती रहती थी जबकि मैं परिवार के बच्चों के साथ खेलती रहती थी. घर खुशदिल आवाजों से चहकता रहता था, जब तक कि दरवाज़े की घंटी नहीं बजती थी. यह मेरे नाना के आने की खबर होती थी. तुरंत ही सारी आवाज़ें दब जाती थीं. मेरी माँ बहुत धीमी आवाज़ में बात करने लगतीं और बच्चे सामने से गायब हो जाते. मेरी नानी दबे पाँव दादा के कमरे में जातीं जहां उन्हें नाना के कपड़े और जूते उतारने में मदद करनी होती थी, उनके सामने चुपचाप सर झुकाए हुए खड़े होकर.बाकी परिवार की तरह बड़े हों या बच्चे, मैं भी अपने नाना से डरती थी और कभी भी उनकी मौजूदगी में खेलती- हंसती नहीं थी. पर, दोपहर के खाने के बाद जब घर के और बुज़ुर्ग आराम कर रहे होते तब वह मुझे थोड़ी कम कठोर आवाज़ में बुलाते – ‘ आओ, बगीचे से कुछ फूल चुन लेते हैं.’ 
 
जब हम बगीचे के एक कोने में पहुँच जाते तो उनकी आवाज़ मेरी नानी की तरह कोमल हो जाती और वह मुझे अपने बगल में लकड़ी की बेंच पर बैठने के लिए कहते जिसके सामने गुलाबों की क्यारी थी. वह मुझे कुछ लाल और पीले फूल पकड़ा देते और जब मैं उन रंगों और पंखुड़ियों में डूब जाती तो वे मुझे अपनी गोद में बिठाकर दुलराने और गाने लगते जब तक कि मैं आँखें बंद कर सोने की हालत में न पहुँच जाऊं. लेकिन मैं कभी सोती नहीं थी क्योंकि मैं हर वक़्त उनके हाथ को महसूस कर सकती थी जो बड़े चुपके से मेरे कपड़ों के अन्दर रेंगता था और उनकी उंगली मेरे निक्कर के अंदरूनी हिस्सों में चली जाती.

मैं केवल पांच साल की थी लेकिन जाने कैसे मुझे यह पता था की नाना जो कर रहे हैं वह गलत और अनैतिक था. और अगर मेरी माँ को यह पता चला तो वह मुझ पर ही गुस्सा होंगी और फटकारेंगी. मैंने सोचा कि मुझे अपने नाना की गोद से उतर जाना चाहिए और अब जब वह मुझे बुलाएं तो उनके साथ बगीचे में आने से इनकार कर देना चाहिए.पर कुछ दूसरी बातें भी साथ में ही चल रही थीं. सिर्फ पांच साल का होने के बावजूद मुझे यह महसूस हुआ कि मैं अच्छी बची नहीं हूँ क्योंकि मैं नाना की गोद से उतरने के बजाय वहीं बैठी रही. और उससे भी अधिक ग्लानि इस बात की थी की उनके हाथों की हरकत से मुझे भी अच्छा लग रहा था. और इसी बीच  जब वह मेरी माँ को मेरा नाम पुकारते सुनते तो झट अपना हाथ वापस खींच लेते. मुझे हिलाते जैसे वह मुझे नींद से जगा रहे हों और कहते, ‘तुम्हारी माँ बुला रही है’. मैं अपनी आँखें ऐसे खोलती जैसे नींद से जगी हों और सपाट सा चेहरा लिए माँ की ओर भागती जो किसी पांच साल के बच्चे का नहीं हो सकता था. वह मुझसे पूछतीं, ‘कहाँ थीं तुम?’ और मैं बड़ी मासूमियत भरी आवाज़ में उन्हें कहती, ‘ बगीचे में नाना जी के साथ’.

यह जानकार कि मैं बगीचे में नाना के साथ हूँ वह बड़े सुकून  और सुरक्षा का अनुभव करतीं. वह हमेशा मुझे बगीचे में अकेले आने के लिए आगाह किया करतीं और ‘उस आदमी’ माली के बारे में अपनी चेतावनी को दोहराना कभी नहीं भूलती थीं जो चिकना सा लबादा पहने रहता था और फूलों पर पानी का छिड़काव किया करता था. ऐसे में मुझे केवल माली से ही नहीं बल्कि पाइप से निकलने वाली पानी की बूंदों से भी डर लगता था.फिर जब-जब नाना घर की सीढियां चढ़ते, अपने रुआब के साथ जिससे सब डरते थे, तस्बीह उनके हाथों में चलती रहती थी. मैं यह सोचने लगी थी कि नाना जो मुझे बगीचे में दुलराते-सहलाते हैं वो वह नाना नहीं हैं जो अपनी मेज पर बैठते हैं और जिनसे मैं डरती थी. कभी-कभी मुझे लगता था कि मेरे दो नाना हैं. 
 
सुबोध शुक्ल
जब मैं दस साल की हुई नाना गुज़र गए. मैं उनकी मौत से दुखी नहीं थी. इसके उलट एक अजब सी धुंधली खुशी का अहसास था और मैं बच्चों के साथ हंसती खेलती कूद-भाग रही थी. लेकिन माँ ने मुझे फटकार लगाई और यह कहकर घर में बंद कर दिया कि क्या तुम्हें पता नहीं की नाना नहीं रहे? ज़रा भी सलीका नहीं है तुम्हें?

मैं उनसे पूछने को हुई, क्या नाना को पता था कि सलीका किसे कहते हैं? पर यह पूछ सकने का मेरे पास साहस नहीं था सो मैं चुप रही और यह बात मेरे दिल में ही रही. यह पहला मौक़ा है डॉक्टर जब मैं किसी को अपनी आपबीती सूना रही हूँ.’

मैंने वह पूरा ब्यौरा नहीं दिया है जो उस महिला ने कई साल पहले उस रात मुझे बताया था. उसने तभी अपना दिल मेरे सामने खोला जब उसे यकीन हो गया कि मैं उसके बारे में कोई नैतिक निर्णय कायम नहीं करूंगी. बहुत सारी लड़कियां और औरतें जो मेरी क्लीनिक में आती थीं, अपने दिल के अन्दर छिपे हुए रहस्यों को उघाड़ने में बड़ी हिचक से भरी होती थीं. पर एक बार आत्मविश्वास और भरोसा कायम हो जाने पर वे कितनी ही दर्दनाक बातों को साझा करने लगती थीं जो वे सालों से ढोती आ रही थीं. 

[1] यह १९४२ की घटना है, मेरे गाँव Kafr Tahla की जो Kalioubia प्रांत में था.
[2] मिस्र के स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट, १९७१. १९५२ में हज़ार जन्म पर १२७ की शिशु मृत्यु-दर जो १९७७ में ११५ हो गयी.
[3] शिक्षा-मंत्रालय, तीसरे वर्ष के छात्रों के लिए मनोविज्ञान की पाठ्य-पुस्तक ( माध्यमिक स्तर, कला एवं साहित्य) लेखक डॉ. अब्दुल अज़ीज़ अल कूज़ी और डॉ. सैयद गौनेम, काहिरा १९७६.
[4] उपर्युक्त, अध्याय ११, पृष्ठ १२३-१७४ 

मनुष्यता का महान आख्यान : कमल जोशी/1

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कमल दा से तीन-चार मुलाक़ातें थीं पर परिचय बहुत पुराना था। साथ उनकी यायावरी के कई क़िस्से थे। वे अचानक चले गए। पुलिस ने प्रथम दृष्टया इस चले जाने को आत्मघात कहा है, जांच अभी चलेगी। उनका जाना और इस तरह जाना एक सदमा है। उनके लिएजाने कितनों का दिल फफक रहा है। उनसे किताबों के आवरण के लिए चित्र मांगता था, पता न था उनके बाद उनसे इस तरह चित्र मांगने होंगे।  

इन चित्रों को चार-पांच पोस्ट्स में यहां लगाऊंगा, ताकि कुछ और लोग उस नायाब दिल को देख पाएं, जो केवल कमल दा के पास था। वे फोटोग्राफर नहीं, विचारक थे। उनकी वैचारिकी का पता उनकी ये तस्वीरें बेहतर देती हैं। पढ़िए मनुष्यता के उस महान आख्यान को, जिसे कमल जोशी अपनी तस्वीरों में लिख गए हैं।

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स्त्रियां

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 ......अगली पोस्ट में जारी




राकेश रोहित की ग्यारह कविताएं

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राकेश रोहित हमारे समकाल के प्रमुख कवि के रूप में उभरे हैं। अनुनाद के वे पुराने साथी हैं, उनकी कविताएं कई बार अनुनाद ने छापी हैं। यहां आप पाएंगे कि राकेश रोहित की कविताओं के पास एक बहुत बड़ा कैनवास है, वे लगातार अनुपस्थित तथ्यों और दृश्यों को इस कैनवास पर सम्भव कर रहे हैं। इधर हिंदी कविता का हाल भी बहुधा यही हुआ है कि वह किसी न किसी स्टूडियो के झूटे दरवाज़े के पास खड़ी है। बंद स्टूडियो की दो-चार सीढियाँ चढ़कर ही वह स्वयं को बुलंद महसूस कर लेती है, ऐसे में राकेश रोहितजैसे कवि अपनी ही एक असमाप्त यात्रा पर निकलते हैं तो कविता के उल्लेखों में एक सुंदर दृश्य बनता है। 

अनुनाद ने रोकश रोहित से कविताओं के लिए अनुरोध किया था, जिसे उन्होंने पूरा किया। कवि को शुक्रिया और शुभकामनाएं। 
***
सागर किनारे : राकेश रोहित

उसकी तस्वीर

उसकी जितनी तस्वीरें हैं
उनमें वह स्टूडियो के झूठे दरवाजे के पास खड़ी है
जिसके उस पार रास्ता नहीं है
या फिर वह एक सजीले मेज पर कुहनी रखे
टिका रही है हथेली पर अपने चेहरे को
सोच की मुद्रा में।
पास में बंद स्टूडियो की दो- चार सीढियाँ हैं
एक में वह सीढियां चढ़कर
थोड़ा मुड़कर देख रही है
और समय फिर वहीं ठहरा हुआ है।
हर तस्वीर खिंचवाने के पीछे कितनी कवायदें होती थीं
उसने तय किया था वह एक दिन रोयेगी
अपनी इन सारी तस्वीरों के साथ
जबकि सिर्फ साफ दिखता है स्टूडियो का नाम
अब भी आंखें भरी- भरी लगती हैं
उन श्वेत- श्याम तस्वीरों में!
अपनी पुरानी तस्वीरें देखकर वह
खुद हैरान होती है
उसके पास नहीं है ऐसी तस्वीर
जिसमें उसके हाथ में फूल हो
और वह तितली के पीछे भाग रही हो!
पुरानी तस्वीरें देखते हुए
वह याद करती है अपनी पुरानी कविताएँ
जिसमें उसका अजाना बचपन छिपा है
कच्ची अमिया खाना उसे बहुत पसंद था
पर हाथ में पत्थर उठाये उसकी कोई तस्वीर नहीं है।
***  

परसों हम मिले थे
 
परसों हम मिले थे
याद है?
मैंने संजो रखी है वह मुलाकात!
आजकल मैं छोटी- छोटी चीज सहेजता रहता हूँ
जैसे कागज का वह टुकड़ा
जिस पर किसी का नंबर है पर नाम नहीं
जैसे पुरानी कलम का ढक्कन
खो गया है जिसका लिखने वाला सिरा
जैसे बस की रोज की टिकटें
उस एक दिन का छोड़ जब मैं खुद से नाराज था
जैसे अखबार के संग आये चमकीले पैम्फलेट
जैसे भीड़ भरी बस में
एक अनजान लड़की की खीज भरी मुस्कान!
जब कोई मेरे साथ नहीं होता
मैं उलटता- पलटता रहता हूँ इन चीजों को
जो मेरे पास है और जो मेरे मन में है
नौकरी मिलने पर भाई ने पहली बार चिट्ठी लिखी थी
पिता ने बताया था घर आ जाओ
शादी पक्की हो गयी है
माँ ने कहा था कोई दवाई काम नहीं करती
मशरूम वाली दवाई खा लूँ
दोस्त ने शहर आने की सूचना दी थी
और आया नहीं बता कर भी
बहुत सी स्मृतियाँ मैं अपने साथ समेट कर
भीड़ भरे शहर में अनमना घूमता रहता हूँ।
यह जो असबाब इकट्ठा कर रखा है मैंने
मन के अंदर और घर के उदास कोनों में
क्या एक दिन मैं इनको सजाकर तरतीब से
खोजूंगा अपनी जिंदगी का उलझा सिरा
और किसी गुम हँसी को अपने चेहरे पर सजा कर
गाने लगूंगा कोई अधूरा गीत!
कल मुझे अचानक वह नाम याद आया
जिससे दोस्त मुझे बुलाते थे
मुझे उनका इस तरह पुकारना कभी पसंद नहीं आया
पर मैंने उसे भी संजो लिया है
और कई बार खुद को पुकार कर देखता हूँ उस नाम से
क्या वह आवाज अब भी मुझ तक पहुंचती है!
अखबार के कई पीले पड़ गये टुकड़े
जिस पर छपे खबर की प्रासंगिकता भूल चुका हूँ मैं
अब भी रखे हैं मेरी पुरानी कॉपी में
और साहस कर भी उन्हें फेंक नहीं पाता
क्या था उन खबरों में जिसे मैं सहेजता आया इतने दिन
सोचता हूँ और गुजरता हूँ
स्मृति की अनजान गलियों में
किसी दिन वह जागता हुआ क्षण था
अब जिसकी याद भी बाकी नहीं है।
सहेजता हुआ कुछ अनजाना डर
मैं कुरेदता रहता हूँ
अनजान चेहरों में छुपा परिचय
संजोकर रखता हूँ कुछ अजनबी मुस्कराहटें
परसों हम मिले थे
याद है?
पर क्या हम कल भी मिले थे?
***
 
रंग कहाँ हैं
 
प्रिय!
रंग कहाँ हैं?
बस तुम्हारी आंखों में
जिसमें एक अधूरे स्वप्न की छाया है
और मेरी कविताओं में
जहाँ तुम्हें पुकारते कुछ शब्द हैं।
तुम्हारे लहराते दुपट्टे में
आसमान की सतरंगी छाया है
तुम्हारे होठों पर ठहरा हुआ है
सूरज की शोखी का रंग लाल
तुम्हारे मुस्कराहटों से धरती पर
थोड़ी पीली धूप फैली हुई है
तुम्हारी नजरों के देखे से
हरे रंग में रंगी हैं दिशाएं!
इनके अलावा
इन सबके अलावा रंग कहाँ हैं?
बस सारी उदासी को हटाकर जहाँ
मैंने प्यार का आख्यान लिखा है
वहाँ जिन्दगी में अब भी बचे हैं
रंग की निशानदेही करते कुछ शब्द
उनके अलावा
उन सबके अलावा रंग कहाँ हैं?
टूटने दो उस सितारे को
तुम तक जिसकी रोशनी नहीं पहुंचती
बस तुम्हारी हथेली में
एक शब्द प्रिय
झिलमिलाता रहने दो!
इस स्याह- सफेद दुनिया में
रंगों की तलाश करते मेरी कविता के शब्द
तुम्हारे सांसों की ऊष्मा से जरते हैं
जवां होते हैं!
एक दिन तुम्हारी आंखों में देखता हुआ मैं
देखता हूँ शाश्वत अग्नि से दहकती हुई धरती
एक दिन मैं देखता हूँ कविता
कैसे छुपी हुई थी तुम्हारे होठों के आस्वाद में
एक दिन हम तुम मिलकर लिखते हैं
धरती का धानी रंग
एक दिन बारिश में हरा हो जाता है
पत्तों का पीला रंग!
***
 
नमक के बारे में कविता और अपरिचय की कहानियाँ
 
वह मुझसे थोड़ा नमक चाहता था!
नमक! मैं चकित था
हाँ नमक! उसने कहा तो उसकी आँखों में नमी थी
जो शायद उसने बचा रखी थी
इसी दिन के लिए जब वह
एक अजनबी से सरे राह नमक मांगेगा!
पर नमक क्यों?
क्या भूखे हो तुम?
सुंदर, सजीले इस बाजार के दृश्य में
मैं कहाँ तलाश सकता था चुटकी भर नमक!
कुछ खाना है?
मैंने पूछा
यह सबसे सरल प्रस्ताव था मेरे लिए
पर उसने कहा, नहीं भूखा नहीं हूँ मैं
मैं भूल चुका हूँ जिंदगी का स्वाद
नहीं भूख नहीं, तुम्हारी आँखों में छाया
अपरिचय डराता है मुझे
मैं आज तुमसे लेकर थोड़ा नमक
कृतज्ञ होना चाहता हूँ एक अजनबी के प्रति!
पर क्यों
नमक ही क्यों चाहिए उसे?
मैं खुद से पूछता हूँ
और लगता है
जैसे अपने ही बेसबब सवाल से डर रहा हूँ
वे जो टूटी सड़क के कोने पर
मूंगफलियां बेच रहे हैं
क्या उनके पास होगा नमक!
मैं इस सृष्टि में विकल मन की तरह दौड़ रहा हूँ
नमक की तलाश में
मैं उस खोमचे वाले के सम्मुख अपना अपरिचय लिये
नतमस्तक खड़ा हूँ
क्या उसे पता है
मुझे चाहिए चुटकी भर नमक!
रोज हमारी जिंदगी का नमक कम हो रहा है
पर मैं रोज व्यग्र नहीं होता हूँ नमक की तलाश में
मैं अपनी याचना की दुविधा को
अपनी मुस्कराहट से ढकता हूँ
मैं चाहता हूँ नमक
जो थोड़ा कुछ बचा है
जतन कर लपेटी छोटी पुड़ियाओं में।
मैं चुटकी भर नमक
उस अजनबी के हाथ में रखकर
देखता हूँ उसकी आँखों की चमक
और नमक विहीन यह सृष्टि!
मैं उदास हूँ
मैं गले से चिपट कर रोना चाहता हूँ उसके
पर ठिठक कर पूछता हूँ
तुम बहुत दिनों से तलाश रहे थे नमक
कुछ खास बात है भाई इसमें?
हाँ खास है न!
वह कहता है
कुछ खास बात है इस नमक में
तभी तो, इस नमक की तलाश में
बेकल नदियाँ समंदर तक पहुँचती हैं
इसी नमक को खोकर मैं
मिलता हूँ तुमसे विह्वल रोज
और तुम तक नहीं पहुँचता!
***
 
मॉल में भय

वह देख कर सचमुच चकित हुआ

पैरों के नीचे जमीन नहीं थी, कांच था
और कांच के नीचे लोग थे!
यह नये युग का बाजार था
कांच से सजा हुआ
कांच की तरह
कि कोई छूते हुए भी डरे
और कांच के पीछे कुछ लोग थे बुत की तरह खड़े!
कोई देखता नहीं
यह कैसा है उल्लास का एकांत
है खड़ा कोने में वह
अस्थिर और अशांत!
सामने स्पष्ट लिखा हुआ
पर नहीं किसी को खबर है
सावधान आप पर
सीसीटीवी की नजर है!
बाहर निकलते हुए भी नजर करती है पीछा
यहाँ आपकी ईमानदारी की परीक्षा करता
एक दरवाजा लगा है!
आपसे है अनुरोध महाशय
आप इधर से आएं!
क्या खरीदा है, क्यों खरीदा है साफ- साफ बतलायें?
आप अच्छे ग्राहक हैं अगर आप बेआवाज निकल जायें!
*** 
पेड़ पर अधखाया फल
 
पेड़ पर अधखाया फल
पृथ्वी के गाल पर चुंबन का निशान है
यह प्रेम की अधसुनी आवाज है
यह सहसा मुड़ कर तुम्हारा देखना है।
यह तुम्हें पुकारते हुए
ठिठक गया मेरा मन है
यह कोई मधुर कथा सुनते हुए अचानक
तुम्हारे आंखों में ढलक आयी नींद है।
अधखाये फल से छुपाये नहीं छुपता है
प्यार का मीठा ताजा रंग
अधखाये फल से झरते हैं बीज
तो हरी होती है धरती की गोद
अधखाया फल अचानक हथेली पर गिरा
तो मैंने चाँद की तरह उसे समेट लिया
यह धरती पर सितारे बरसने की रात थी
मैंने हौले से चूम लिया उसे
जैसे उनींदे उठ कर तुम्हारा नींद भरा चेहरा।
**** 
 

प्रेम में हूँ इसलिए
 
मैं प्रेम में हूँ
इसलिए बेवकूफ हूँ।
मैं दुख में हूँ
इसलिए सिकुड़ा हुआ हूँ।
मैं जागता हूँ
तो रोता रहता हूँ
मैं नींद में हूँ
इसलिए डूबा हुआ हूँ।
तमाम फैले ज्ञानी जन
तैरते रहते हैं जल में
मैं कवि हूँ
इसलिए तल में हूँ।
*** 
 
शून्य के साथ
शून्य के साथ रखा अंक
सुन्दर लगने लगता है
जैसे पांच की जगह पचास!
जैसे अपने हृदय का शून्य
सौंपता हूँ तुम्हें
और महसूसता हूँ विराट की उपस्थिति!
अपना शून्य लेकर
भटकता रहता हूँ इस निर्जन वन में
तुमसे मिलता हूँ तो साकार हो जाता हूँ।
***  

मनुष्य को खा जाता है दुख
गेहूँ को घुन खा जाता है
और कभी-कभी पिस भी जाता है।
कीट खा जाते हैं हरी पत्तियाँ
और कभी मिल भी जाते हैं मिट्टी में।
सूखते पत्तों के संग
झर जाते हैं, जर जाते हैं
खाद हो जाते हैं।
मनुष्य को खा जाता है दुख
मनुष्य मर जाता है
दुख नहीं मरता
बस धीरे से देह बदल लेता है।
***  

नम अँधेरे में उम्मीद 
 
झर गया हूँ
पत्ते से कहता हूँ
पर टूटा तो नहीं हूँ!
टूट गया हूँ
पेड़ से कहता हूँ
पर उखड़ा तो नहीं हूँ!
उखड़ गया हूँ
जड़ से कहता हूँ
पर सूखा तो नहीं हूँ!
सूख गया हूँ
बीज से कहता हूँ
और चुप रहता हूँ!
इस नम अंधेरे में जन्मना है तुम्हें फिर
कहता है इस बार बीज।
***
 
रह जाता
धरती की तरह
             सह जाता
नदी की तरह
             बह जाता
चिड़िया की तरह
            कह जाता
तो दुख की तरह
            रह जाता
मैं भी
मन में और जीवन में!
***

अरुण देव की नई कविताएं

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अरुण देव हमारे वक़्त के दुश्चक्रों से लड़ने वाले कवि हैं। उनकी कविता देश के कठिन समय में संविधान की प्रस्तावना हमारे सामने रखती है। विक्षत मनुष्यता के लिए कलपती कविता, जिस ज़रूरी क्षोभ से भरी होनी चाहिए, उसका अनन्य उदाहरण अरुण देव की कविताएं हैं। कविता में राजनीतिक समझ का एक अचूक औज़ार उन्होंने अर्जित किया है, जिससे सीखा जा सकता है। वे छह वर्षों से हिंदी की महत्वपूर्ण ई-पत्रिका समालोचन का सम्पादन कर रहे हैं। महज सहित्यकार हो जाने के बरअक्स उन्होंने साहित्य और विचार का कार्यकर्ता हो रहना स्वीकार किया है। ज्ञानपीठ और राजकमल से उनके दो कविता संग्रह आए हैं। अनुनाद को अरुण देव की कविताओं का इंतज़ार रहता है। इन कविताओं के लिए अनुनाद अपने कवि को शुक्रिया कहता है।  
**** 

वे अभी व्यस्त हैं

जब गाँधी अहिंसा तराश रहे थे
आम्बेडकर गढ़ रहे थे मनुष्यता का विधान
भगत सिंह साहस, सच और स्वाध्याय से होते हुए
नास्तिकता तक चले आये थे
सुभाषचंद्र बोस ने खोज़ लिया था खून से आज़ादी का रिश्ता
नेहरु निर्मित कर रहे थे शिक्षा और विज्ञान का घर

फतवों की कटीली बाड़ के बीच
सैय्यद अहमद खान ने तामीर की ज्ञान की मीनारें

तब तुम क्या कर रहे थे ?

तुम व्यस्त थे हिंदुत्व गढ़ने में
लिखने में एक ऐसा इतिहास जहाँ नफरतों की एक बड़ी नदी थी
सिन्धु से भी बड़ी

तुम तलाश रहे थे एक गोली, एक हत्यारा और एक राष्ट्रीय शोक

सहिष्णुता की जगह कट्टरता
आधुनिकता की जगह मृत परम्पराएँ
चेतना की जगह जड़ता

तुम माहिर हो उन्माद रचने में

किसान, श्रमिक, युवा, स्त्री, वंचित जब भी तुमसे कुछ कहना चाहते
उधर से एक मशीनी आवाज़ आती
आप जिनसे सम्पर्क करना चाहते हैं वे अभी व्यस्त हैं?


इस देश की सबसे सार्थक कविता

याद हो कि न याद हो
भारत एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य है

इसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक
न्याय, विचार, अभिव्यक्ति
विश्वास, धर्म, उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा, अवसर की समता प्राप्त है

समरसता, समानता, भ्रातृत्व की भावना बहे
धर्म, भाषा, जाति, वर्ग और क्षेत्र की सीमाएं बाधक न बनें

त्याग दी जाएँ ऐसी प्रथाएं और विचार
जो मनुष्यों में भेद करते हों
स्त्रियों के सम्मान और गरिमा के प्रतिकूल हों

गंगा जमुनी तहज़ीब की मजबूत रवायत के महत्व को समझा जाए
वे समृद्ध हों सार्थक बनें

वन, झील, नदी, जीवों के लिए भी इस भूभाग पर जगह रहे
वे इसके आदि नागरिक हैं
फले, फूले, निर्भीक विचरें

वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद, ज्ञानार्जन, प्रगति की भावना से हम बढ़ें
हिंसा से दूर रहें

हो सतत प्रयास
सभी क्षेत्रों में बेहतरी की ओर बढ़ने का

जिससे राष्ट्र बढ़ें
विश्व सजे

यह वही कविता है जिसे इस देश के नागरिकों ने मिलकर अपने खून से लिखा है
आज़ादी की कविता

यही है देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति.


उत्तर – पैगम्बर  

१.
वह यह तो चाहेगा कि तुम नेक बनो
पर तुम्हारी वफ़ादारी उसने कभी नहीं मांगी
उसे आज्ञाकारी दास नहीं चाहिए थे

ये ज़ंजीरें तुम्हारी ख़ुद की हैं.

२.
तुम ख़ुशहाल रहो
आख़िरकार उसने तुम्हें बनाया जो है

पर तुम उसके कहर से न जाने क्यूँ डरते रहे
बचते रहे उसके श्राप से
वह तुम्हारे लिए विनाश और तबाहियाँ क्यों लाएगा
जबकि उसने तुम्हारे लिए सूरज चाँद तारे बनाये
सुकून भरी रातें और स्वाद भरे फल बिखरे दिए धरती पर

उसने सुन्दरता को पहचानने  के लिए रौशनी दी है तुम्हे.

३.
वह सर्वशक्तिमान है
वह तुम्हारे प्रसाद और बलि का मोहताज़ नहीं
उसे तुम्हारी कृतज्ञता भी नहीं चाहिए.

४.
उसे कुछ कहना होगा तो कह लेगा
उसे सब भाषाएँ आती हैं

वह आकाश के कागज़ पर कडकती बिजलियों से इबारत लिख सकता है

उसे किसी सन्देशवाहक की जरूरत नहीं
न कभी उसने भेजे

क्या उसने शेर को बताया उसका जंगल
चिड़िया को उसकी उड़ान
नदी को उसकी गति

क्या तुमने कभी खरगोश को प्रार्थना गाते सुना है
उसकी दौड़ ही प्रार्थना है.

५.
वह न्यायप्रिय ठहरा

और तुम उसके मानने वाले अपनी बहनों से ही नाइंसाफी करते हो
और फर्क करते हो उसकी संतानों में
काले गोरे नाटे लम्बे सब उसके ही साँचें ढले हैं

लोगों को उनके सद्गुणों  से पहचानों
उनके ज्ञान, विवेक और सहृदयता का सम्मान करो
श्रम की इज़्ज़त करना सीखो.

६.
वह तुम्हारा रखवाला है

बेवज़ह उसकी कृपा के लिए
झुके हुए बुदबुदाते रहते हो उसका नाम
वह बेख़बर  नहीं है तुमसे
उसकी कोई रीति नहीं
न ही उसका कहीं कोई घर है.

७.
वह सर्वव्यापी है
दिग्दिगन्त तक फैली है उसकी आभा
उसने तुम्हें विवेक दिया

वह कोई कातिब नहीं कि आखिरत में तुम्हारा हिसाब-किताब करेगा
न जन्म के पहले कुछ था न मृत्य के बाद कुछ है.

८.
तुम कैसे रहते हो
क्या पहनते हो
तुम्हें क्या खाना चाहिए

इसके लिए उसने कोई दिशा निर्देश नहीं दिए
नहीं तो वह तो तुम्हारी पीठ पर इन्हें उकेर देता

यह तुम खुद तय करो.

९.

जहाँ हो
वहीँ बना लो स्वर्ग

खिलो और फिर अपनी सन्ततियों में खिलते रहो
अपने कर्मों में महकते रहो
यही अमरता है.

१०.

और यह भी कि
यह धरती सिर्फ तुम्हारी नहीं है
आकाश, समुद्र और जमीन साझे के हैं
इस पर रहने वाले छोटे से छोटे कीट की भी यह उतनी ही है

एक असमय पड़ा पीला पत्ता  
कहीं किसी पेड़ के सूख जाने की तरफ इशारा करता है
और पेड़ों का काटा जाना जगलों की तबाही है
जहाँ से मिलती है तुम्हें हवा
और पहाड़ों के पीठ पर पानी से भरे बादल हैं
काले धुंए से पीला पड़ा प्रकाश तुम्हारे लिए विभीषका लाएगा
बचो खुद के पैदा किये कचरे से

मैंने तो तुम्हें साफ-सुथरी पृथ्वी दी थी
कल-कल करती नदी
और चमकती हवा


अगर कहीं कोई पीछे रह गया है तो रुक कर अपने में उसे शामिल कर लो.
         ***


प्रदीप अवस्थी की कविताएं

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अनुनाद जिन युवाओं में गहरी उम्मीद देखता है, प्रदीप अवस्थी उनमें से एक हैं। यह देख पाना भी सुखद है कि वे किसी भी अतिरेक और क्लीशे (Cliche) से अलग कविताएं सिरज रहे हैं। उनमें वह अनिवार्य धैर्य है, जिसके बल पर लम्बी यात्राओं पर निकला जा सकता है। यहां छप रही कविताएं इंद्रपस्थ भारती में पहले छप चुकी हैं। 

अनुनाद पर इससे पहले पाठकों ने उन्हें पढ़ा है, वे लिंक भी हम साझा कर रहे हैं - 
1. http://www.anunad.com/2015/06/blog-post_22.html
2. http://www.anunad.com/2016/04/blog-post_19.html
 
हमारे रहस्य सिर्फ़ हमारे होते हैं

पतंग लूटने जैसा आसान होना था जीवन
गिरकर लुढ़क जाने और घुटने छिल जाने जैसा होना था संघर्ष
घुटने से फटी पेंट को रफ़ू कराने जैसे समाधान

पर यह क्या होता गया

फ़रेब कहें या कमजोरियाँ
उनकी भेंट चढ़ते गए हम
खिड़की से बाहर गर्दन निकालो तो कसाई खड़ा था एक गंड़ासा लिए
खुशियों का हर त्यौहार हमारी बलि चढ़ाता था

अखबार पढ़ना छोड़ दिया मैंने
रोज़ सुबह दरवाज़े पर खून किसे पसंद है
फिर चाय के साथ उसे पीना भी

तुम कुछ भी कर सकते थे
मुझे ख़ुद पर हंसने से नहीं रोक सकते लेकिन.

हमारे रहस्य सिर्फ़ हमारे होते हैं

हम अपने रहस्यों के साथ अकेले छूट जाते हैं
बहुत अँधेरे में खोलते हैं उनका मूँह
डर कर वापस लौट आते हैं
हमारे रहस्य सिर्फ़ हमारे नहीं होते.
***

और कोई रास्ता सुझाओ

अचानक ख़याल आया मैं बाहर था जब कहीं
वे मुझे समझा रहे थे कि यह मौका है, पैसे अच्छे मिलेंगे
कुछ नहीं सूझा, मैं दौड़ता हुआ घर आया और
अल्मारी से निकालकर तोड़ दिया तीन साल से संभालकर रखा फ़ोटो-फ्रेम
कोई दुःख नहीं हुआ, ना कोई शान्ति मिली

बात प्रेम, प्रतिशोध या नफ़रत की नहीं थी
बस उस चीज़ के वहाँ रहने का महत्व ख़त्म हो गया था

ये उदासी इतनी लम्बी चली
कि कई घरों में बच्चे पैदा होकर हँसना और बोलना सीख गये
और हम कोशिश में रहे कि खिलखिलाएँगे देखना

मुस्कुराना सिर्फ़ फेसबुक और व्हाट्सएप की स्माइली तक सीमित रह गया था.

कितना कुछ छिपाकर जीना था उनसे जिन्हें सब कुछ बताना था
रोज़ उन तक जाना और चुपचाप लौट आना था
दीपिका पादुकोने की माँ अच्छी है, पर वे कितनों को बचा पाये
कोई आता था, रसोई से रोटियाँ चुरा ले जाता था माँ बनाती थी जब

मैंने खिड़की से छुपकर जोड़े हाथ कि माँ चुप कर
मैंने सड़कों पर गिराये आँसू कि लौट आ
मैंने ख़ुद से कहा कितनी बार कि मेरे बस का नहीं

अब एक थका हुआ दिमाग़ है
इसलिए मैं बात करते करते कहीं भटक गया हूँ, क्षमा करें

दुःख बाँटना मुझे असहाय बनाता है
और कोई रास्ता सुझाओ.
***

टालने से ठीक नहीं होती बीमारियाँ

बीमारी से कैसे मरते हैं लोग
यह जाना बीते कुछ वर्षों में  
टालता रहा जब अपना इलाज
छुपाता रहा घर से कि नहीं ! नहीं ! सब ठीक है
दोस्तों को देता रहा दिलासा कि हाँ जाऊँगा अब अस्पताल ही डॉक्टर को दिखाने

टालने से ठीक नहीं होती बीमारियाँ
बड़ी होकर सामने आती हैं
यूँ ही मरते हैं दुनिया भर में लोग


कम बोलने वाला कम देखने वाला नहीं होता
ज़्यादा देखने वाला ज़रूर हो सकता है

बहुत निर्धन है इंसानी भावों और तकलीफों को समझने के मामले में
हमारे लोग

आलसी मत कह दो किसी को यूँ ही
यदि वो नहीं जुटा पा रहा शक्ति बिस्तर से उठ भर पाने की
उसके शरीर में यक़ीनन कहीं कोई विकलांगता नहीं, आप दिमाग़ का नहीं सोचते लेकिन

उदास को अकेले छोड़ना ही पड़ेगा
पर उसे कोई दो ऐसा जो मिलता रहे कभी-कभी
चिड़चिड़े को मत कह दो चिड़चिड़ा
किसी के सामने मत करो उसकी कमज़ोरियों का ज़िक्र
हर दुःख को निकलते रहने दो आँखों से

जो रोना चाहे वो रो पाये चोट लगने पर
यह नेमत ना छीनी जाये किसी से

तीन वक़्त का खाना और शांत सुंदर नींद रोज़
इससे बड़ी कोई ज़रूरत नहीं इंसान के ठीक-ठाक जीने के लिये
खाने में रोटी और तरह-तरह की सब्जियाँ और दाल ज़रूर हो.
यह बात अनुभव से कहता हूँ.

दुःख में भले कोई साथ ना हो
सुख में हो.
***

एक दुश्मन है मेरा जो मुझमें बैठा है

घर से निकलना चाहिए दिन में एक बार तो कम से कम कहते सब
जाना कहाँ चाहिए कोई नहीं बताता
किसके साथ !

फटी जेब को सिलने का कोई नुस्खा काम नहीं आता

अकेले कमरे में इंतज़ार करता है वह जो है लेकिन उसकी उपस्थिति के बारे में बात नहीं की जा सकती. बताने चलो किसी को तो समझाना पड़ता. समझाने चलो तो क्या ? सब तो सही है

एक दुश्मन है मेरा जो मुझमें बैठा है

मैं जो कह रहा हूँ आपको वही समझना चाहिए जबकि यह शुरुआत है मेरे झूठ बोलने की

अब तक मैंने किसी स्त्री के बारे में बात नहीं की क्योंकि उजाले से जोड़ा जाना चाहिए उन्हें

कुछ रहस्य हमें बचा कर रखने चाहिए
वे हमें दो हिस्सों में चीरें रोज़ थोड़ा-थोड़ा भले ही

हम बिना तकलीफ़ के रोयें
जैसे बिना किसी बात के ख़ुश रहते हैं लोग

समय बीत जाने के बाद खोलेगा अपने राज़ स्वयं.
***

अपने लिये सबसे नकारा

इस बात का अर्थ छिटक कर कहीं गिर गया
मुझ तक बस शब्द पहुँचे

उसने मुझसे पूछा था मेरी याद आयेगी ?

शब्द टकरा कर लौट जाया करते थे
और मैं आईने पर सिर मारकर देखा करता था
कहीं कोई दीवार उग आयी है क्या सिर के इर्द-गिर्द

मुझे बस इतना याद है कि किसने कब कब मेरा कितना अपमान किया

जब तुम्हारे लिये मैं दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति था
अपने लिये सबसे नकारा ,
यही एक बात गोल-गोल घूमती रही मेरे दिमाग़ में जैसे घूम रहा है पंखा  

तुम मेरे लिये रोटियाँ ख़रीदती घर वालों से छुपाकर और एक मिठाई
मैं तुम्हें पैसों में तोलकर बताता अपनी औकात

उन्होंने मुझे घर बुलाकर गालियाँ दीं
मुझे गुस्से के बजाय तरस आया उनकी बेचारगी पर
पहले से ज़्यादा नफ़रत और चुप्पी लेकर लौटा मैं

क्या हमें पानी की याद आती है जबकि हम उसके बिना जी नहीं सकते

मुझे बस अपने प्यार के लायक होना था
यही एक काम बड़ा भारी पड़ा
फिर डॉक्टर ने सिखाया.
***

आदित्य शुक्ल

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आक्रोश को अपना यू.एस.पी. नहीं बनाना चाहिए.
-    - वीरेन डंगवाल

यह कथन वीरेन डंगवाल की स्मृति में पहल से आयी पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक में दर्ज़ है। आदित्य शुक्ल की कविताएं पढ़ता हूं तो यह वाक्य याद आता है। आक्रोश यहां, अंडरकरेंट की तरह है, वह इन कविताओं का यू.एस.पी. नहीं है। ऐसा भी हुआ है कि आदित्य ने अपनी कविताओं पर कुछ कहने की जगह दिवंगत कवि-साथी प्रकाश को आत्मकथ्य में याद किया है। मेरा इस प्रसंग में ज़्यादा कुछ कहना इसकी सांद्रता को नष्ट करना होगा, इसलिए इन कविताओं और प्रकाश पर इस टिप्पणी के लिए मैं आदित्य को शुक्रिया भर कहूंगा।
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प्रकाश - आना से लौटना तक: आत्मन के नृत्य.

जीवन के प्रति एक उत्सुकता है। जीवन में एक उदासी है। उदासी में एक दृष्टि है। दृष्टि में एक कल्पना है। कल्पना में एक जीवन है। यही चक्र है।

*वह जीवित, मृत्यु नाम की जगह पर
बार-बार जाता था
और हर बार अपनी जगह पर
चुपचाप लौट आता था
उसके हाथ में एक खंजड़ी थी
वह गाता-बजाता जाता था
और वैसा ही वापस आता था

लेकिन आश्चर्य कि आत्मन्‌ कहता था
कि वह कभी कहीं गया ही नहीं!

आत्मन ने अपना भविष्य देख लिया था। या यूं कहें कि उसने अपना एक भविष्य तैयार कर लिया था। उसका जीवन संछिप्त था। उसने संछिप्त को अपना लिया था। वह संछिप्त में उतना ही सुखी था जितना कि जीवन ने उसे दुःख दिया था। उसके हाथ में एक खँजड़ी थी। उसे वह गाता बजाता था। वह जीवन को समूचा जी लेना चाहता था पर यह कहता नहीं था। उसने संछिप्त से जीवन में जीवन पूरा जी लिया। वह अपने जीने की जगह पर पूरा केंद्रित था। उसने जीवन को समझ लिया। उसने जीवन की गुत्थी अपने लिए खोल दी और उसमें कूद पड़ा। वहां बहुत अन्धकार था। वह उसमें विलीन हो गया। वहां से उसकी प्रतिध्वनि आती रही। उसने मानवता के एक छोटे से समूह को जीवन के बारे में प्रेरणा देने के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया। उसने दुःख को पकाकर सुन्दर कर दिया। उसके यहां दुःख में निराशा की एक अंतर्धारा थी लेकिन वह उसे प्रकट नहीं होने देता। बड़ी चालाकी से वह उसे छिपा ले जाता और चुपचाप सब देखता सुनता और गुनता। वह बहुत कुछ कहना चाहता था, उसकी उत्सुकता उससे बहुत कुछ खोज लेने और कहने के बारे में कहती थी लेकिन वह विवश था। वह जानता था इस दुनिया में कहने का कोई मोल नहीं। वह उदास मन से कहने को इच्छा पर ही रुका हुआ था। वह करुणा की दृष्टि से इस विश्व को देखता था और मन ही मन पहेलियों को सुलझाता रहता था।

*आत्मन्‌ खाता था और रो पड़ता था
वस्तुतः वह ख़ुद, ख़ुद से खाया जाता था
वह हैरत से ख़ुद को खाया जाता देखता था
उसकी आँख फटी रह जाती थी
कि वह रोज़-रोज़ थोड़ा कम होता जाता था !
उसको एक उपाय सूझता था
वह रो-रोकर आँसुओं से
ख़ुद को थोड़ा अधिक कर लेना चाहता था
पर रोते-रोते एक दिन
वह नहीं की गुफ़ा में चला गया!

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए अनुसंशित कवि प्रकाश की कविता-श्रृंखला 'आत्मन के गाए कुछ गीत'हिंदी कविता की थाती हैं। कवि प्रकाश हिंदी की उपलब्धि हैं। आज उनके बहाने मैं एक लगभग अप्रासंगिक हो चुके मुद्दे को उठा रहा हूँ - कविता की रोमांटिक शैली। अशोक बाजपेयी और उनके बाद के तमाम कवियों पर यह आरोप लगता रहता है कि उन्होंने अपनी ही शैली के कवियों को बढ़ावा दिया। हो सकता है यह आरोप सच हो पर हमें उससे क्या। कवियों और कविताओं की अपनी तय नियति होती है। हम उसे चुपचाप स्वीकार कर रहे हैं। इस क्रम में इस अल्पायु प्राप्त विलक्षण कवि की बात की जानी जरूरी है। प्रकाश एक द्रष्टा कवि हैं। उनमें करुणा फूट-फूट कर भरी है। वे विश्व को देखते हैं, अपने प्रति हुए अत्याचारों को देखते हैं और सिर्फ करुणा के शब्द कहते हैं। कहीं कोई बनावट नहीं, कहीं कोई धोखा नहीं, कहीं कोई शिकायत नहीं। हलांकि यह विदित है कि उनकी मृत्यु हिंदी साहित्य में कितनी दुखद घटना है। यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है। लेकिन उनकी मृत्यु के लिए सिर्फ हिंदी साहित्य को दोष देना भी अनुचित है। यह एक समूचे समाज की असफलता है। यह हमारे देश-काल की विद्रूपता है।

कवि प्रकाश ने कहन की नई शैली भले ही विकसित न की हो लेकिन वे जिस परम्परा के तहत लिखते हैं, उसी में एक नए धरातल की पड़ताल करते हैं, यह अलग बात है कि उनका अनुसंधान पूरा नहीं हो सका। 'आत्मन के गाए कुछ गीत'श्रृंखला की कविताएं देखिए- करुणा के गहनतम धरातल पर उतरकर वे समूचे विश्व की मानवता की विद्रूपता रचते हैं। उनकी इन कविताओं में अनावश्यक महत्वकांक्षा नहीं है। वे विद्रूपता को देखते हैं और उसे रिकॉर्ड करते हैं और एक कवि इससे अधिक कर क्या सकता है। उनके यहां तो संतो जैसी असंपृक्तता है। आखिर बिचारा मनुष्य करे तो क्या? सत्तासीन मनुष्य विनाश करता है और निर्बल मनुष्य रोता है, यही मानव सभ्यता की नियति है।

*आत्मन्‌ अपनी छड़ी फेंक देता था
अस्त-व्यस्त कपड़ों को भूल
बेतरतीब नाचता था

भीड़ खड़ी पूछती थी-- हुआ क्या ?
आत्मन्‌ कहता था-- देखो और जानो!

आज जबकि भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार के संदर्भ में हिंदी साहित्य में अनावश्यक बवेला मचा हुआ है, अपने इस अग्रज कवि को याद करते हुए नमन करने की जरूरत है। इस कवि को हमेशा याद रखने की जरूरत है। इस कवि की कविताओं को पढ़ने और गुनने की जरूरत है। हम कितनी जल्दी एक से आगे बढ़कर दूसरे पर पहुँच जाते हैं जबकि एक का भी सम्पूर्ण निरक्षण ही न हुआ हो?!

*सभी कविताएं कवि प्रकाश की कविता श्रृंखला 'आत्मन के गाए कुछ गीत से'।
**********

आदित्य शुक्ल की कविताएं
 
ुझे,ये चींटियाँ.


अंधेरे की एक कोई दीवार
चौकोर,

चार तीखे कोनों वाली
और ये चींटियां
बारिश रिसी दीवारों पर।

ये चींटियां,
अंधेरा तोड़ तोड़ ले आती हैं
उनमें अपने घर बनाती
गहरे, बहुत गहरे सुराख कर
दो दुनिया के रास्ते तय कर लेतीं
ये चींटियां छोटी छोटी।

मुझे ये
मेरे चारों तरफ घेर लेतीं
किसी रात के उजाले में
रखे होते जहां अंधेरे अनाज के टुकड़े,
मुझे ये चींटियां मरी हुई लाश समझकर
कभी कभी मुझ पर उजाले उगल देतीं।

मुझे ये चींटियां
कभी कभी
महीने-साल का राशन दे जातीं,

अंधेरी जमीन को खोद
कहीं उस पार
अगली बारिश तक के लिए चलीं जातीं।
***

मेरे गाँव की क़ब्र.
मेरे गांव में एक भी क़ब्र नहीं है,
मेरे गांव में एक भी क़ब्र नहीं है
लेकिन खूब खुली-खुली जगहें हैं,
घास है,
ईंट/पत्थर/सीमेंट/कामगार हैं।
लोग-बाग मरते भी हैं बहुधा
मेरे गांव,
फूल के बागीचे हैं।
मेरे अपने बागीचे,
मेरे अपने फूल के पौधे।
काश, मेरी अपनी एक क़ब्र भी होती
खुले आसमान के नीचे,
कहीं भी,
जिसपर अंकित होता मेरा परिचय, मेरे शब्द,
मेरे स्वप्न,
मेरी असफलताएँ;

एक-एक कर,
अपने सारे ये फूल मैं उस क़ब्र पर चढ़ा आता,
यूं,
फूलों का बोझ मेरे सर से उतर जाता।
***

बस स्टैंड पर

बस-स्टैंड पर लोग-बाग बातें कर रहे हैं
और हो रही है बारिश.
हवाएं उड़ा लाईं हैं कुछ हरे पत्ते
कागज के टुकड़े
जो ठिठक गए हैं आकर पोल के पायताने जमे पानी में

लोग-बाग बाते कर रहें हैं
उनकी बातों में हैं तमाम बातें
बस की अब नहीं है उन्हें कोई चिंता
बस आएगी अपने नियत समय पर
बादल गरजेंगे
बारिश होगी
रास्ते में लग जाएगा जाम
पोल के पायताने जमा रहेगा पानी.
दूर रेडियो पर बजती रहेगी जानी-पहचानी धुन
बादल गरजते रहेंगे.

लोग-बाग बातें करते रहेंगे
बस-स्टैंड एक दृश्य बनकर लटक जाएगा सड़क किनारे.
लोगों की बातों में इन बातों का नहीं होगा कोई जिक्र
नहीं होगा कोई जिक्र कि कैसे कौन हवाएं उन्हें यहां लाकर ठिठका देती हैं
और फिर यकायक उड़ा भी ले जातीं हैं
वे तो जानते तक नहीं
अपना रुकना, ठहरना, दृश्य बन जाना

बस के आने तक होगा दृश्य
टूट जाएगा फिर
लोग हंसते-मुस्कुराते इधर उधर चले जाएंगे
अपनी अपनी छतरियां खोले
फिर कहीं और ठिठक जाने के लिए.
***

नींद ही है कि सच है

अधखुली आँखों से नींद टपकता,
बिस्तर रेशमी होता जाता है। तुम्हे आधा देखते और आधा छूते मैं पूछता हूँ
देखो तो सुबह हो आई है क्या, यह झुटपुटा सा क्यों है, सूरज लाल है क्या क्षितिज पर देखो तो।
मानसून की पहली बारिश है, हो रही। सड़कें भीग गयी है। कोई दो प्रेमी इस मिट्टी के रस्ते से गुजरे हैं
बारिश हो रही है। आँखों से टपकती है नींद बिस्तर रेशमी होता जाता है तुम कहती हो
चलो कहीं चले चलते है।
दूर।
तो क्या तुम मेरे साथ गाँव चलोगी, वहां हम खेतों में काम करेंगे और गन्ने और मक्के उगाएंगे
गाँव के लोगों ने कामचोरी में आकर ऐसी खेती करनी बन्द कर दी है या शायद वे उम्मीद करते करते ऊब गए हैं अब कुछ और नहीं, अब ईश्वर ही उनका एकमात्र सहारा है। वे अब मंदिरों और प्रार्थनाओं में अधिक मान्यताएं रखने लगे है। बजाए इसके कि वे खेती करते।
गाँव चलोगी क्या
या अगर मन बदल जाए तो मैं तुम्हारे साथ गाँव को जाने के लिए बैठे ट्रक पर से अचानक उतरकर कहूँ
कि नहीं, नहीं। चलो पहाड़ों पर चलते हैं जहाँ हमें कोई भी जानता नहीं। तो फिर भी तुम चलोगी क्या?
तुम मौन हो स्वप्न में मौन हो। पर तुम्हारी आँखें खुली हैं। पूरी की पूरी। तुम्हारी आँखों में दृश्य चल रहा होगा। दृश्य हमें मौन कर देते हैं फिर तुम कहती हो:
हाँ, चलो न। चलो कहीं भी। कहीं से उतर कर कहीं भी चले चलेंगे। मैं थोडा बहुत जितना भी जीना चाहती हूं वो बस तुम्हारे साथ। अगर हम पहाड़ों पर चले तो वहां एक स्कूल चलाएंगे। अब मुझे कभी-कभी बच्चों को पढ़ाने का मन करता है।
यह कहकर अकस्मात् तुम्हारी आँखों से नींद टपकती है बिस्तर किसी विशाल समुद्र में तब्दील हो जाता है।
मानसून की पहली बारिश है अलसुबह, अखबार बेचने वाला पुराने रेनकोट में आधा भीगते और चिल्लाते हुए कहीं से आ रहा है और कहीं को ओर चला गया। अखबारों में पता नहीं कैसी-कैसी ख़बरें हैं। कोई अच्छी खबर होती तो वह मेरे घर की बालकनी में भी अखबार फेंक जाता या पिछले महीने का बकाया मांगने आ जाता जब मैं या तुम अधखुली नींद में एक घण्टे बाद आने को कह देते।
नींद ऐसी टपकती है कि सब कुछ रेशम हो जाता है शहतूत के पौधे पर लगे फल मीठे हो जाते हैं और हम तोड़ते बीनते खाते जाते हैं। नींद टपकती आँखों के सामने न जाने किस फूल के पौधे पर तितलियाँ मंडरा रही हैं तितलियाँ ही हैं कि न जाने कुछ और और स्वप्न में नींद का ऐसा खुमार है कि तितलियाँ जान पड़ती हैं वे।
***

किसी अदृश्य में तुम.

एक अदृश्य में तुम्हारी
प्रतिछाया मिली
एक अदृश्य के साथ
शहर के हर रेस्तरां में गया
हर अनबैठे कुर्सियों पर बैठने
हर अनकही बात बताने के लिए
हर अनखाया व्यंजन खाने के लिए।

सारा अनहुआ, हुआ हो गया।
पृथ्वी पर कोई जगह नहीं बची
जहाँ हमारे पदचिन्ह न हों।
सारा अनकिया घटित हुआ
- जिस अदृश्य में तुम्हारी प्रतिछाया थी।
*** 

एक अदद बंदूक की जरूरत.

मैं इतना अच्छा आदमी हूँ कि सनक गया हूं
अँधेरे में मुझे आता देख एक साठ साला औरत अपने आँचल सम्भालती है
ये शर्म की बात उससे अधिक मेरे लिए
मैं अपने सौ से भी ज़्यादा टुकड़े कर सकता हूं
मेरे मस्तक में कीड़ों का साम्राज्य उग आया है
उनकी टांगें मेरे सिर पर छोटे छोटे सिंग जैसे बढ़ रहे हैं
आप मुझे कुछ भी ऑफर कर सकते हैं
बीड़ी, गांजा या बन्दूक।
***


ब्रज श्रीवास्तव की कविताएं

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प्रार्थना

बच्चे स्कूल में इस समय
कतार में खड़े हो गए हैं
गा रहे हैं प्रार्थना


जो बच्चे इस वक्त स्कूल में नहीं हैं
जरूर
किसी होटल पर धो रहे होंगे प्लेट
या मालिक की दुत्कार सुन रहे होंगे


मुमकिन है कि पास के स्कूल में चल रही
प्रार्थना की आवाज भी सुन रहे हों वे
उनको हो गयी होगी आदत
घंटी और प्रार्थना की आवाज सुनते हुए ही
चाय का गिलास देना
होटल के ग्राहकों को.


ग्राहक भी बस उपभोक्ता की तरह ही है.
जैसे कि बच्चों के माता पिता
केवल जनक हैं उनके
बाजा़र और पूंजी के शिकार हैं ये दोनों


प्रार्थनाएं लगातार गाई जा रही हैं कई जगहों पर
लगातार मंत्र गूंज रहे हैं
सबके भले के लिए प्रार्थना कर रहे हैं
कुछ भले ही लोग

बुरे लोग पहले तो
शब्दों के ही प्राण हर लेते हैं
और अपने भलेपन के नकली पौधे पर
सींचते  रहते हैं पानी


बुरे लोगों ने प्रार्थना नहीं सुनी
शब्दों में छिपे महान अर्थों को
धता बता दिया है उन्होंने
बच्चों की मासूमियत को उनकी क्रूरता ने
दबोच लिया है


स्वर और शब्द कलपते रह जाते हैं.
वातावरण में उदास संगीत बजता रह जाता है

बचपन की ही तरह
प्रार्थना की भी हत्या हो जाती है.


यह जो प्रार्थना आप सुन रहे हैं
इसमें जान नहीं बची है.
अलबत्ता बच्चों में जीवन ही नहीं
उम्मीद और उत्साह भी बचा है.

*** 
 
पत्थर मारो

उसकी मदद करते हुए मैं
ख़ुश रहा
तुम नाखुश हो जाओ


उससे गुफ्तगू की मैंने
मुझे बुरा कहो
मुझे कोस लो


उसके हक़ में आवाज उठायी
तुम शत्रु हो जाओ मेरे


उसके बारे में सोचता ही रहा
तुम मुझसे घृणा करो.


मैं उसके साथ चला
मुझे पत्थर मारो


उससे दूर हुआ आख़िर मैं
अब जश्न करो.

*** 
 
बगीचे में वृद्ध

शाम हो गई है और
वृद्ध जन
लिफ्ट से उतरकर
मल्टीफ्लेटस
के अहाते में बने बगीचे में.
बैठ गए हैं.


वे अलग अलग प्रांतों से हैं
अपनी अपनी बोलियों में बोलते हुए
बहुत मज़ेदार लग रहे हैं.


देखते हैं चारों ओर, तने ऊँचे भवन
वाहनों की चिल्लपों के बीच
अपने - अपने कस्बों की
याद कर रहे हैं


जबकि जिंदगी भर के तजु़र्बे
मुंह पर ही रखे हैं उनके
पर फ्लेट की कैद में
उनसे बतियाने को कोई नहीं है


बेटा और बहू तो
बुरी तरह व्यस्त हैं नौकरी में
इन फ्लेटों में रिश्ते नहीं
मशीनें रहती हैं


बस ये वृद्ध ही हैं यहाँ
जिन्होंने संबंधों का जीवन जिया है 
अपने ज़माने में

आहें भरते हैं ये अक्सर
अपने संवादों में
और अपने कस्बों में लौटने के सपने देखते हैं.

***

हताशा

आज फिर आना पड़ा हताशा
तुम्हैं
मुझे बहलाने के लिए


मेरे भरोसों के पांव में
चुभ गये हैं काँटे
धोखे, विहँस रहे हैं
साजिश की कामयाबी का जशन मनाते हुए वे लोग
आज ज्यादा ही पी रहे हैं.


आज फिर मेरे दावे
बिखर गए हैं जो
मैंने किये थे हमेशा ही कविता में
उनको लेकर.


कितनी चीजों से मिलकर बनी आशा
जब ओझल हो गई है
हताशा ही है
जो मेरा साथ दे रही है.

*** 

कर्फ्यू के बाद

सड़कें खुशी से झूम रही हैं
दरवाजे और खिड़कियों ने कहा सबसे स्वागत है
कर्फ्यू के बाद शहर में.


कैद से हुए पांव और वाहन
चलने लगे हैं
खुली हवा को तसल्ली हुई कि
उसका उपयोग होने लग गया
जले हुए मकानों ने कहा
अब अपने रिश्तों को न जलाना
हथियारों ने कहा
हम तो अब खुदकुशी करें तो बेहतर

परसों ही सब कुछ ऐसा था
जैसा आज है खुलापन
 

मगर अब सबके मन में कुछ बातें हैं
कुछ सवाल हैं
कुछ पछतावे और धिक्कार है कि
इक ज़रा सी बात को हम जैसे किसी ने
बर्दाश्त नहीं किया
और मजबूर किया सारी बस्ती को
कि वो बर्दाश्त करे  कर्फ्यू की कैद.

***
मोबाइल नंबर 9425034312


अंतिम दिन की अनुभूति - चन्द्रकांत देवताले

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शोक की एक लहर.... जो अभी उठनी शुरू हुई है...और ऊंची उठती जाएगी.... यह कविता अनुप्रिया देवताले ने शेयर की है।
वीडियो परिकल्पना रुचिता तिवारी की है, सहयोग युवा कवि अमित श्रीवास्तव का। सबके प्रति आभार।

रेखा चमोली की कविताएं

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रेखा चमोली उन नई कवियों में हैं, जिन्हें हम इस यक़ीन के साथ पढ़ते हैं कि वे हमारे सामाजिक जीवन के संघर्षों और विद्रूपों को हमारे आगे कुछ और खोलेंगे। रेखा चमोली पर हमारा यक़ीन हर बार सही साबित होता है। 'चाकू को फूल में और फूलों को चाकू में बदल देने वाले'जादूगर के इस उत्थान-काल में हम उनकी नई कविताएं पाठकों को ठीक उसी यक़ीन के साथ सौंप रहे हैं। इन कविताओं के लिए अनुनाद कवि को शुक्रिया कहता है। 



जादूगर खेल दिखाता है                                                                 
जादूगर खेल दिखाता है
अपने कोट की जेब से निकालता है एक सूर्ख फूल
और बदल देता है उसे पलक झपकते ही नुकीले चाकू में
तुम्हें लगता है जादूगर चाकू को फिर से फूल में बदल देगा
पर वो ऐसा नहीं करता
वो अब तक न जाने कितने फूलों को चाकुओं में बदल चुका है।

जादूगर पूछता है कौन सी मिठाई खाओगे ?
वो एक खाली डिब्बा तुम्हारी ओर बढाता है
तुमसे तुम्हारी जेब का आखिरी बचा सिक्का उसमें डालने को कहता है
और हवा में कहीं मिठाई की तस्वीर बनाता है
तुम्हारी जीभ के लार से भरने तक के समय के बीच
मिठाई कहीं गुम हो जाती है
तुम लार को भीतर घूटते हो
कुछ पूछने को गला खंखारते हो
तब तक नया खेल शुरू हो जाता है।

जादूगर कहता है
मान लो तुम्हारा पड़ोसी तुम्हें मारने को आए तो तुम क्या करोगे ?
तुम कहते हो , तुम्हारा पड़ोसी एक दयालू आदमी है
जादूगर कहता है ,मान लो
तुम कहते हो , आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ
जादूगर कहता है, मान लो मानने में क्या जाता है?
तुम पल भर के लिए मानने को राजी होते हो
तुम्हारे मानते ही वह तुम्हारे हाथ में हथियार देकर कहता है
इससे पहले कि वो तुम्हें मारे ,तुम उसे मार डालो
जादूगर तुम्हारे डर से अपने लिए हथियार खरीदता है।

जादूगर कहता है
वो दिन रात तुम्हारी चिन्ता में जलता है
वो पल पल तुम्हारे भले की सोचता है
वो तुम्हें तथाकथित उन कलाओं के बारे में बताता है
जिनसे कई सौ साल पहले तुम्हारे पूर्वजों ने राज किया था
वो उन कलाओं को फिर से तुम्हें सिखा देने का दावा करता है
वो बडे-बडे पंडाल लगाता है
लाउडस्पीकर पर गला फाड फाडकर चिल्लाता है
भरी दोपहरी तुम्हें तुम्हारे घरों से बुलाकर
स्वर्ग और नरक का भेद बताता है
तुम्हारे बच्चों के सिरों के ऊपर पैर रखकर भाषण देता है
तुम अपने बच्चों के कंकालों की चरमराहट सुनते ही
उन्हें सहारा देने को दौड लगाते हो
गुस्से और नफरत से जादूगर की ओर देखते हो
तुम जादुगर से पूछना चाहते हो उसने ऐसा क्यों किया
इस बीच जादूगर अदृश्य हो जाता है

उसे दूसरी जगह अपना खेल शुरू करने की देर हो रही होती है।
***

अच्छे बच्चे

अच्छे बच्चे सवाल नहीं पूछते
वे अपनी चीजें व्यवस्थित रखते हैं
अपने कपड़े और बाल खराब नहीं होने देते
कोई इनसे मारपीट कर दे तो चुपचाप रोते हैं
किसी बड़े के डांटने पर नाराज नहीं होते
पुकारे जाने पर तुरंत जबाब देते हैं
बुलाने पर अपना खेल छोड़ दौड़ कर आते हैं
हमें जरूरत होती है बहुत सारे अच्छे बच्चों की
इसीलिए हमने बहुत सारे स्कूल खोल लिए हैं।
***

प्रेम में डूबा मन सबसे अधिक दयालू होता है

प्रेम में डूबा आदमी जोर से नहीं बोलता किसी से
झल्लाता नहीं बात बात पर
चहकता महकता है
बेवजह मुस्काता है
उसका पौरूष किसी को डराता नहीं
चट्टानों पर भी राह बनाता है
बंजर पर भी अन्न उगाता है
उसका स्पर्श फूलों सा कोमल होता है
उसकी आवाज बच्चों की आवाज सी मीठी होती है

प्रेम में डूबी स्त्री
पृथ्वी से भी अधिक धैर्यशाली होती है
उसके हौंसलों के आगे सागर भी हार मानता है
उसके चेहरे का नमक समय के साथ फीका नहीं पडता
उसके शरीर की फुर्ती कई बार बाघिन को भी मात दे देती है
वो अपने रोजमर्रा के जीवन से उपजे दुखों को
ज्यादा मुंह नहीं लगाती ,तुरंत फटकार देती है
अपनी छोटी से छोटी खुशी को
अपने भीतर रोप देती है
प्रेम फिर फिर उपजता है उसके भीतर

प्रेम में डूबे स्त्री -पुरुष
कभी निराश नहीं होते
कितनी भी अंधेरी हो रात
सुबह की उम्मीद को मिटने नहीं देते
इन्हें साथ साथ चलने पर भरोसा होता है
ये पतझड़ में भी सौन्दर्य देखते हैं
इन्हें घंटो बांधे रखती है नदी की आवाज
ये बेमतलब भीगना चाहते हैं बारिश में
बच्चों की तरह सवाल पूछते हैं
अभावों में भी ढूंढ ही लेते हैं कोई न कोई साधन
ये जीवन को काटने पर नहीं
साथ साथ जीने में विश्वास रखते हैं
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि
अगर कोई बचा पाया ये धरती
तो वे प्रेम में डूबे स्त्री -पुरूष ही होंगे।
***

विद्या माता की कसम

सुनो मेरी जान
जब तुम ब्राउन गोगल्स लगाए
फर्राटे से स्कूटी पर निकलती हो
इधर-उधर खडे लोगों के दिलों से आह निकलती है
नयी-नयी गाड़ी चलाना सीख
हाईवे पर चक्कर लगाती हो
ओ मेरी मां ,कह कोई आदमी आवाज लगाता है
इन आहों और आवाजों को सुन
तुम्हारी आंखें और कान और सजग हो जाते हैं

दुकानदार के गलत हिसाब से मिले ज्यादा रूपए
वापस लौटाती हो
वो मैडम जी कह खींसे निपोरता है
तुम दुबारा उसकी दुकान पर महीनों नहीं जाती हो

तुम्हें परवाह नहीं होती कैसी दिख रही हो तुम
बिंदास चलती हो मस्त हथिनी की तरह
रास्ते के कुत्तों की भौं भौं पर मन ही मन मुस्काती हो
ये जानकर भी कि कई जोड़ी आंखें तनी हैं तुम पर
बीच रास्ते किसी बात पर जोर का ठहाका लगाती हो

फूल सी नाजुक हो
पर लडने-भिड़ने में महारत है तुम्हें
कहीं भी कुछ भी गलत होता देख
डरते तो हम किसी के बाप से भी नहीं कह अड़ जाती हो

कभी घंटों-दिनों रहती हो चुप
अखबार फेंक देती हो तोड़-मरोड़
टी वी का स्विच गुस्से से करती हो ऑफ
पूछने पर कुछ नहीं कह टालती हो
जाने किन-किन बातों से बेचैन रहती हो
फिर खुद ही इकठ्ठी करती हो अपनी उम्मीदें
नयी कोई योजना बनाती हो
फैलाती हो उजियारे रंग अपने आसपास
अपनी निराशा को पछोड-पछोड कर धो डालती हो

विद्या मॉं की कसम मेरी जान
तुम मेरा दिल लूट ले जाती हो।
*** 
डरे हुए लोग

डरे हुए लोग किसी एक तरफ नहीं होते
वे थोड़ा थोड़ा सबकी तरफ होते हैं
बात तो आप ठीक कह रहे हैं पर क्या करें ?
दुनियादारी भी देखनी होती है कहकर
हर एक को साथ लिए होते हैं
ये वर्तमान में जीने के बजाए अतीत का गुणगान करते हैं
भविष्य में मिलने वाले लाभों पर चर्चा करते हैं
इन्हें मनुष्यों से ज्यादा भरोसा देवताओं पर होता है
ये नाक की सीध में आते जाते हैं
और किसी भी पचड़े में नहीं पड़ते
इनका पेट और बिस्तर सुरक्षित रहे बस
इनका कोई मत या विचार नहीं होता
इनका मुख और कान सिर्फ फायदा बोलता और सुनता है
ये उठते -सोते समय दिशा का और गंदगी करते समय
अपनी चारदीवारी का ध्यान रखते हैं
ये कभी कभी इतना डर जाते हैं कि इनके पेड़ों पर लगे फल
पेड़ों पर ही सड़ जाते हैं पर किसी के साथ बंटते नहीं
ये पडोसी के बेटे को गली में छिपकर सिगरेट पीता देख डांटते नहीं
बचकर निकलते हैं और किसी तीसरे के साथ बैठकर
संस्कारों पर बात करते हैं
डरे हुए लोग अपने डर को दूसरों पर थोपते हुए चलते हैं
जिससे अपनी एक बडी बिरादरी बना सकें
और डरने को सार्वजनिक मान्यता दिला सकें।
*** 
शराबी पिता

वे पिता जो हर शाम शराब पीकर घर आते हैं
कभी नहीं जान पाते
अपने बच्चों के स्कूल या दोस्तों की बातें
क्लास में आज क्या हुआ ? शाबासी मिली या डांट
कैसे खेलते हुए मुड़ गया पैर और लंगड़ाकर आना हुआ घर

उनकी बेटी कभी बता नहीं पाती उनको
एक शाम कैसे डरते-डरते घर लौटी वह
रास्ते भर लगा कोई पीछे है उसके
मुड़ कर देखने का भी न हुआ साहस

दीवार पर लगी बच्चों की बनाई नयी पेंटिग
आइसक्रीम खाने की छोटी सी खुशी
रात को गैस का चूल्हा साफ करने की बारी पर हुयी नोंक झोंक
कुछ भी पता नहीं चलता उन्हें

वे कभी नहीं जान पाते
दोपहर बाद चलने वाली हवाओं से किस कदर भर जाती है घर में धूल
देर शाम उनकी छत से कितना सुंदर दिखता है आसमान
क्यों लोगों को बच्चों का खेलना ही लगता है शोर
जब बच्चों को होती है घर आने में देर
उनकी मां कहां-कहां जाकर ढूंढती है उन्हें ?

वे नहीं जान पाते बच्चे उनसे ज्यादा चाचा या मामा का साथ पसंद करते हैं
उन्हें देख निचुड जाता है पत्नी के चेहरे का पानी
बच्चों को बताते हुए कि सब ठीक हो जाएगा जल्दी ही
खुश रहने का दिखावा करते हुए कितनी बेचारी लगती है वह

अचानक किसी दिन किसी के ध्यान दिलाने पर वे पाते हैं
उनके कंधे तक आने लगा है बेटा
बेटी को लोग परखने वाली नजरों से देखने लगे हैं
वे कहते हैं समय कितनी जल्दी गया
वे पत्नी की तरफ देखते हैं
वो अचानक उन्हें बूढ़ी लगने लगती है
वे शिकायत करते हैं ,उनके कहने सुनने में नहीं हैं बच्चे
घर में नहीं है उनकी कोई अहमियत 

अपनी उम्र का अधिकांश हिस्सा समझाए जाते हुए ,डांट खाते हुए,
दुत्कारे जाते या दूसरों के सामने आने से कतराते हुए ये पिता
जब किसी दिन गुस्से से झल्ला कर कहते हैं
मेरी मर्जी मैं जैसे चाहे जियूं
मैंने क्या बिगाडा है किसी का ,
तो नहीं जान पाते इस बीच कितना कुछ खत्म हो गया होता है
इस बीच वे कितने कम हो गए होते हैं।
*** 
रेखा चमोली
निकट ऋषिराम शिक्षण संस्थान
जोशियाडा , उत्तरकाशी 249193
उत्तराखण्ड


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