Quantcast
Channel: अनुनाद
Viewing all 437 articles
Browse latest View live

अनिल कार्की की लम्‍बी कविता- नमक बोती औरतें

$
0
0
(अपनी इजा, कोजेड़ज्या, काकियों और अपनी भौजियों को जो जिन्दा है और उन आमाओं को जो पहाड़ जीते हुए शहीद हो गयीं - उनको जिन्होंने पहले पहल मुझे हिमालय दिखाया)



-

पहाड़ों पर नमक बोती औरतें 
बहुत सुबह ही निकल जाती हैं
अपने घरों से
होती है तब उनके हाथों में
दराती और रस्सी
चूख1के बड़े-बड़े दाने
सिलबट्टे में पिसा गया
महकदार नमक 

छोड़ आती हैं वे बच्चों की आँखों के भीतर
सबसे मीठी कोई चीज
लेकिन नहीं होती वे पर्वतारोही
दाखिल होते हैं पहाड़ अनिवार्यताओं के साथ
उनके जीवन में
हर दिन पहाड़ों को पाना होता है
उनसे पार
उनके पास होता है तेज चटपटा नमक व गुड़ भी
जिसे खर्चती हैं वे मोतियों की तरह
किसी धार2पर
ढलान में उतरते हुए या फिर चढ़ते हुए
इस तरह होती हैं उनकी अपनी जगहें
जंगलों के बीच भी
जहाँ वे जोर से हंसती हैं
दरातियों के
नोक से ज़मीन को कुरेदते हुए
बहुत सारा नमक बो आती हैं
वे पहाड़ों पर

-
उगता है उनका नमक
अपनी ही बरसातों में
अपने ही एकांत में
अपनी ही काया में
अपनी ही ठसक में                                                                                                                              

वे बैठ जाती हैं तब
किसी धार की नोक में                                                                                                                                     
टिके पत्थर पर

छमछट दीखता है
जहाँ से नदी का किनारा
दूर घाटी में पसरती नदी की तरह महसूस करती हैं
तब वे खुद को                                                                                                                                 

उनके गादे3 से झांकती हैं
हरी पत्तियां बांज की
एकटक
अपने तनों से मुक्त
न्योली4गाते हुए 

करती हैं वे संबोधित
अपनी ही भाषा में
अपने ही अनगढ़ शब्दों में पहाड़ को

वे गढ़ती हैं छीड़5  
फिर गिरती हैं
और बुग्यालों में पसर जाती हैं
उनकी दराती तब
घास बनकर उगती है
चारों ओर हरी
उनका यह महकदार नमक सीझता नहीं
बल्कि बिखर जाता है
वे फिर से काट लाती हैं
हरापन अपने घरों के भीतर
और बो आती हैं नमक फिर से पहाड़ों पर

-
नमक बोती हुयी औरतें
थकती नहीं
याकि उन्हें थकना बताया ही नहीं गया है
वे होती हैं 
एक शिकारी चिड़िया की तरह
जो खदेड़ देती हैं 
बहुत दूर
अंगुलीवाले चीलों को
अपने घोंसले से

-
उनकी रातें भी होती हैं
अपने परदेस गये पतियों के लिए नहीं
बल्कि अपने दुखों को साझा करने
वे रातों को चल पड़तीहैं
मीलों दूर
जत्थों में
चांचरी6गाने
वे बहुत शातिर
छापामारों की तरह
कर देती है तब
रात को गोल घेरे में बंद
वे हाथों में हाथ लेकर
बना लेतीं हैं चक्रव्यूह
जहाँ नहीं घुस पाती
उदासी
तब फाटक पर टंगी
बोतलबत्ती
धधकतीहै
बांज के गिल्ठे
लाल हो रहे होते हैं कहीं किसी कोने में
उनके गीतों की हवा पाकर
तब धूल उठती है
ज़मीन निखर जाती है
वह अपने पतियों के बिना भी रहती हैं खुश
पति उनके लिए केवल
होते हैं पति
या फिर फौजी कैंटिन के सस्ते सामान की तरह
 
-
पहाड़ पर नमक बोती औरतें 
अपने परदेस जाते
पतियों को पहुँचाने
धार तक आती हैं हमेशा
फिर लौट जाती हैं धार के उस तरफ
घास से भरे ढोके7लेकर
या पानी की गगरी कांख में दबाये
क्योंकि वे जानती हैं
लौट आते हैं परदेस गये लोग
अपनी ज़मीनों को एक दिन
इसलिए वे बसंत का स्वागत करती हैं
दरवाजों पर फूल
रखती हैं
बसंतपंचमी को
वे जाती हैं जंगल
दे देती हैं वह अपनी सारी टीस
हिलांस8को
अपने विरह को भूल जाती हैं 
घुघूती9की सांखी10से निकलती घूर-घूर की आवाज में 
अपने रंग में रंग देती हैं जंगलों को
तब बुरांश11खिलता है लाल
काफल12में भर जाता है रस
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
महकदार नमक लिए
चलती हैं हमेशा 

-
पहाड़ पर नमक बोती औरतों
के होते हैं प्रेमी
वे खुद होती हैं महान प्रेमिकाएं
अपने देशाटन गये
पतियों से वे करती आई हैं 
विद्रोह
और घुमक्कड़ों के साथ भागने के
उनके किस्से अब तक
जिन्दा हैं पहाड़ों पर*
वे भेड़ों का
रेवड़ लेकर
चली आती हैं भोट से 
कत्युर राजाओं के दरबारों तक
अपने प्रेम को व्यक्त करने
राजाओं के दरबारों से सुरक्षित
निकल भी जाती हैं
अपने जंगलों को
उन्हें पाने के लिए
राजा खोते आये हैं 
अपनी सेनाएँ

अपनी ओर उठती जमींदारों की आँखें फोड़कर
भाग आती हैं वे अपने प्रेमियों के पास अक्सर
वे खोंच देती हैं बागनाथ की मूर्ति की आँखें
भगवानों के घूरने की आदत से परेशान होकर**
वे नदियों को देती हैं सोने के सिक्के दान***
कहती हैं बहती रहना
पत्थरों को मिट्टी बनाते रहना घिस-घिसकर
तब जब वह बन जायेंगे मिट्टी                                                                                
हम बो देंगीं उन पर नमक 

-
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
होती हैं माँएं
उनके बच्चे
खेलते हैं मिट्टी में
और खा भी लेते हैं
मिट्टी का स्वाद जानते हैं 
उनकी नाक बहती हैं 
बहती हुयी नाक
का नमकीनपन
उन्होंने चखा है
माँ के वक्ष से लगते हुए
यह प्रमाणित हो जाता है
खुद-ब-खुद
पसीने से कुछ अलग नहीं होता
माँ के वक्ष का स्वाद
जो होठों पर चिपका रहता है
उनके जवान हो जाने पर भी
जवान होने से पहले वह
पहाड़ों पर खेलते हैं 
फिसलनेवाला खेल
फिसलतेहुए
फट जाती है
उनकी पेंट पिछवाड़े से
और स्कूल की खाकी पेंट के पीछे हो जाते हैं छेद
जिन्‍हें वे आजीवन सीते रहते हैं फिर
माँओं से अलग होकर
वह पहाड़ों पर
जाते हैं गाय चराने
तब रिभड़ाते हैं बैलों को
और जला देते हैं
सबसे ऊँचे पहाड़ पर खतडुवा13
उनकी माएँ
तब उनके लिए पकाती हैं
रोटी
और पीसती हैं नमक
पहाड़ पर नमक बोती औरतें
जब कभी
पहाड़ों से
घास के ढोके के साथ
गिरती हैं
छमछट ढलान पर
लुढ़कते हुए
नदी के पास पहुँच जाती हैं 
या एक नदी हो जाती हैं 
तब बदल दिया जाता है उस धार का नाम
उनकी शहादत पर

पिताओं और पतियों के घर से
दूर इस जंगल में
में वे याद की जाती हैं हमेशा
घस्यारिनों द्वारा

तब शाम का पीला घाम केवल उनके लिए ही पसरता है पहाड़ों पर
ताकि सूख सके
मासिक धर्म में पहनी गयी उनकी धोती
इसी धूप में नहाती हैं वे गाड़-खोलों में
बैठ जाती हैं गाड़ के सबसे ऊँचे टीले पर
यही धूप मिलती है छुतियासैणी14को
सूरज की ओर से
पहाड़ लपक कर पकड़ लेता है इस धूप को 
अपने सच्चे हक़दारों के लिए

उस वक्त घरों पर बैठीं
पहाड़ पर नमक बोनेवाली औरतें
पहाड़ों से गिरी हुयी शहीद औरतों को
याद करती हुयी
अपने बच्चों को बताती हैं
कि क्यों आता है पीला घाम पहाड़ों पर सांझ को ही

कैसे पड़ा होगा
नाम इस दुनिया में
जगहों का
पेड़ों का
चिड़ियों का 
यहाँ तक की प्योली के फूल15का भी
और इस तरह बताती हैं
अपने इतिहास और अपनी लड़ाईयों में
वे राजधानी से दूर
किस तरह होती हैं शामिल
किस तरह होती हैं शहीद
किस तरह करती हैं गर्व
किस तरह उगती हैं ढलानों पर
किस तरह भींच लेती हैं ज़मीनों को अपनी जड़ों से
बच्चे सुनते हैं
और अधबीच में सुनते हुए सो जाते हैं
और एक लम्बे अन्तराल के बाद
अभिमन्यु घिर जाता है
चक्रव्यूह में
ज्यों ही जवान एकलव्य निकलता है
अपने क़बीले से बाहर काट दिया जाता है
उसका अंगूठा
तब इतिहास में अर्जुन लिखे जाते हैं
गांडीव धनुष के साथ
जबकि पहाड़ पर नमक बोती औरतें
मरकर भी नहीं छोड़ती अपनी ज़मीनें
वे घट्ट16वालीगाड़
जंगलवाली धार
और नौले17वाले खोले18में रहती हैं मौजूद हमेशा
उनके हिस्से का नमक
उनके हिस्से का टीका
उनके हिस्से के कपड़े
उनके हिस्से की दरातियाँ 
और उनके हिस्से का दर्पण आज भी
चढाता है जगरिया19
कहीं किसी धार पर डर के मारे
मरकर भी नहीं छोडतीं वे
अपनी संगज्यों20को
हर दुःख में उन्हें देती हैं 
लड़ने का हौसला
पहाड़ पर नमक बोते रहने की जिम्‍मेदारी से
कराती रहती हैं अवगत
वे सपनों में फटी धोती पहनकर चली आती हैं 
मांगती हैं चूख
मांगती हैं नमक
महकदार
बुलाती हैं जंगलों में
अपनी सहेलियों को
धार पर बैठकर सुनाने को कहती हैं न्योली
औरतें जाती हैं जंगल
और फिर-फिर बो आती हैं
नमक पहाड़ों पर
***
1-चूख- बड़ा नीबू 2-धार - पहाड़ की चढाईयां, पर्वतों की चोटी 3- गादे- टांट के कपड़े से कमर में  बाँध कर बनाया गया झोला 4-न्योली- एक विरहगीत जो गहन जंगलों के बीच घस्यारिनें गातीहैं 5 -छीड़-जलप्रपात या झरना 6- चांचरी- एक लोकनाट्यगीत - गोल घेरे में गाया जाता है 7- ढोके- रिंगाल की एक शंकुनुमा डलिया जो घस्यारिनें पीठ पर बांधती हैं 8- हिलांस -एक पहाड़ी पक्षी 9- घुघूती - पहाड़ों में विरह का प्रतीक फ़ाख्ता की प्रजाति का एक पक्षी 10 - सांखी-गर्दन 11- बुरांश -लाल रंग का एक पहाड़ी फूल 12- काफल - एक पहाड़ी रसीला जंगली फल 13 -खतडुवा- एक उत्सव जिसमें  ऊँची पहाड़ी पर घास-फूस इकठ्ठा कर जलाया जाता है,मुख्यतः इसे जानवरों के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है14 - छुतियासैणी- मासिकधर्म   वाली स्त्री, पहाड़ों में इस दौरान इन्हें अछूत समझा जाता है और घर के सदस्य तक इन्हें नहीं छूते15- प्योंली-पीले रंग का  एक फूल जिसके साथ लोककथाओं में किसी पहाड़ी स्त्री के पुनर्जन्‍म की कथा जुड़ी हुयी है16 - घट्ट- घराट 17-नौला- जलाशय  18- खोले  - गधेरे  19- जगरिया -पहाड़ी ओझा, झाड़-फूंक करने वाला20- संगज्यों- साथी घस्यारिनें

*लोकश्रुतियों के अनुसार एक ब्राह्मण तीर्थयात्रा को गया और उसकी पत्नी भानानाथ मत के प्रसिद्ध जोगी और घुमक्कड़ गंगनाथ के साथ भाग गई। गंगनाथ कुमाऊं में मूलतः दलितों का देवता माना जाता है।

**लोकगाथाओं के अनुसार कुमाऊं की प्रसिद्ध प्रेमकथा राजुलामालुसाही की नायिका राजुलासौक्याण, भोट उसका क्षेत्र मध्यहिमालय में निवास करनेवाली रंजन जाति की बहादुर स्त्री जो कत्यूर राजा मालुसाही से प्रेम करती थी  जिसने बागनाथ की मूर्ति की आँखें फोड़ डाली जो उसे घूर रही थीं और जमींदारों की भी आँखें फोड़कर अपने मालुसाही राजा के भवन तक पहुँची और शक्तियों से उसने पूरे राज्य को गहरी नींद में सुला दिया और राजा भी उसकी शक्ति से नहीं बचा सोये हुए राजा के सिरहाने वह एकपत्र लिखकर गई" अगर तूने अपनी माँ के स्तनों का दूध पिया है तो मेरे भोट आकर मुझे ब्याह  कर ला तब तू सच्चा राजा" और फिर सुरक्षित अपने घर भी लौट  गई राजा ने उसके इलाके में चढाई की और उसकी पूरी सेना इस युद्ध में ख़त्म हो गई


*** नदियों को सोने के सिक्के दान देने वाली रंजन जाति की एक महिला झसुलीदताल

पांच कविताएं : स्‍थायी होती है नदियों की याददाश्‍त , मुश्किल दिन की बात ,सुबह हो रही है ,किसी ने कल से खाना नहीं खाया है और सांड़

$
0
0




स्‍थायी होती है नदियों की याददाश्‍त

कितनी बारिश होगी हर कोई पूछ रहा है
कुछ पता नहीं हर कोई बता रहा है

बारिश तो बारिश की ही तरह होती है
पर लोग लोगों की तरह नहीं रहते
रहना रहने की तरह नहीं रहता
भीगना भीगने की तरह नहीं होता

नदियां मटमैले पानी से भरी बहने की तरह बहती हैं
बहने के वर्षों पुराने छूटे रास्‍ते उन्‍हें याद आने की तरह याद आते है 
वे लौटने की तरह लौटती हैं
पर उनकी आंखें कमज़ोर होती हैं
वे दूर से लहरों की सूंड़ उठा कर सूंघती हैं पुराने रास्‍ते
और हाथियों की तरह दौड़ पड़ती हैं

बारिश नदियों को हाथियों का बिछुड़ा झ़ंड बना देती है
जो हर ओर से चिंघाड़ती बेलगाम आ मिलना चाहती हैं
किसी पुरानी जगह पर
जहां उनके पूर्वजों की अस्थियां धूप में सूखती रहीं बरसों-बरस

नदियों के पूर्वज पूर्वर्जों की तरह होते हैं
पुरखों की ज़मीन जिस पर आ बसे नई धज के लोग
नई इमारतें
वहां से उधेड़ी गई मिट्टी,काटे गए पेड़ और तोड़ी गई चट्टानें
पहाड़ पानी के थैले में बांध देते हैं दुबारा
वहीं तक पहुंचाने को

वापिस लौटाने होते हैं रास्‍ते
बारिश की इसी बंदोबस्‍ती में 
लोगों की तरह नहीं रहने वाले लोगों को
छोड़नी पड़ती है ज़मीन
जो पीछे नहीं हटता ग़लती या ख़ुशफ़हमी में
मारा जाता है

नदियां हत्‍यारी नहीं होतीं
हत्‍यारी होती हैं लोगों की इच्‍छाएं सब कुछ हथिया लेने की
बारिश तो बारिश की ही तरह होती है
पहाड़ों पर
मैं भी इसी बारिश के बीच रहता हूं
भीगता हूं भीगने की ही तरह
मेरी त्‍वचा गल नहीं जाती ढह नहीं जातीं मे‍री हड्डियां
मैं ज्‍़यादा साफ़ किसी भूरी मज़बूत चट्टान की तरह दिखता हूं
उस पर लगे साल भर के धब्‍बे धुल जाते हैं धुलने की तरह

कुछ अधिक तो नहीं मांगती
मेरे पहाड़ों से निकल सुदूर समन्‍दर तक जीवन का विस्‍तार करती नदियां

बस लोग लोगों की तरह
रहना रहने की तरह
छोड़ देना कुछ राह जो नदियों की याद में है याद की तरह

नदियों की पूर्वज धाराओं की अस्थियों पर बसी बस्तियां
स्‍थायी नहीं हो सकतीं

पर स्‍थायी होती है नदियों की याददाश्‍त  
***

मुश्किल दिन की बात

आज बड़ा मुश्किल दिन है
कल भी बड़ा मुश्किल दिन था
पत्‍नी ने कहा –
                   चिंता मत करो कल उतना
                   मुश्किल दिन नहीं होगा
उसके ढाढ़स में भी उतना भर संदेह था

मुश्‍किल दिन मेरे कंठ में फंसा है
अटका है मेरी सांस में
मैं कुछ बोलूं तो मुश्किल की एक तेज़ ध्‍वनि आती है
मुश्किल दिन से छुटकारा पाना
मुश्किल हो रहा है

मां उच्‍च रक्‍तचाप और पिता शक्‍कर की
लगातार शिकायत करते हैं
पत्‍नी ढाढ़स बंधाने के अपने फ़र्ज़ के बाद
पीठ के दर्द से कराहती सोती है  

अपनी कुर्सी पर बैठा मैं
घर का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाता हूं
बच्‍चे की नींद और भविष्‍य ख़राब न हो
इसलिए मैं बहुत चुपचाप बाहर निकलता हूं

बाहर मेरे लोग हैं वे मेरी तरह कुर्सी पर बैठे हुए नहीं हैं

उनमें से एक शराब के नशे में धुत्‍त
बहुत देर से सड़क पर पड़ा है
मैं उसे धीरे से किनारे खिसकाता हूं
वह लड़खड़ाते अस्‍पष्‍ट स्‍वर में एक स्‍पष्‍ट गाली देता है मुझे
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

एक हज़ार रुपए में रात का सौदा निबटा कर
बहुत तेज़ क़दम घर वापस लौट रही है एक परिचित औरत
एक हज़ार रुपए इसलिए कि दिन में यह आंकड़ा बता देते हैं
उसकी रातों के ज़लील सौदागर
मैं मुंह फेर कर उसे रास्‍ता देता हूं
कल सुबह मिलने पर वह मुझे नमस्‍ते करेगी
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

एक अल्‍पवयस्‍क मजदूर
एक दूकान के आगे बोरा लपेट कर सोया पड़ा है
कल जब मैं अपने काम पर जाऊंगा
वह चौराहे पर मिलेगा अपने हिस्‍से का काम खोजता हुआ
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

घबरा कर कुर्सी पर बैठे हुए मैं घर का दरवाज़ा खोल वापस आ जाता हूं
कमरे के 18-2020अट्ठारह- बीस तापमान पर भी पसीना छूटता है मुझे
कम्‍प्‍यूटर खोलकर मैं अपने जाहिलों वाले पढ़ने-लिखने के काम पर लग जाता हूं
अपने लोगों को बाहर छोड़ता हुआ
कल मुझे उन्‍हीं के बीच जाना है
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

मेरे स्‍वर में मुश्किल भर्राती है
मेरी सांस में वह घरघराती है पुराने बलगम की तरह
मैं उसे खखार तो सकता हूं पर थूक नहीं सकता
मुश्किलों को निगलते एक उम्र हुई
कल भी मैं किसी मुश्किल को निगल लूंगा
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा

जानता हूं
एक दिन मुश्किलें समूचा उगल कर फेंक देगी मुझे
मेरी तकलीफ़ों और क्रोध समेत
जैसे मेरे पहाड़ उगल कर फेंक देते हैं अपनी सबसे भारी चट्टानें
बारिश के मुश्किल दिनों में
और उनकी चपेट में आ जाते हैं गांवों और जंगलों को खा जाने वाले
चौड़े-चौड़े राजमार्ग
दूर तक उनका पता नहीं चलता
कल कोई ज़रूर मेरी चपेट में आ जाएगा
कल बड़ा मुश्किल दिन होगा
                                   लेकिन मेरे लिए नहीं 
***

सुबह हो रही है

सुबह हो रही है मैं कुत्‍ता घुमाने के अपने ज़रूरी काम से लौट आया
घर वापस
घर में बनती हुई चाय की ख़ुश्‍बू
और पत्‍नी की इधर से उधर व्‍यस्‍त आवाजाही
आश्‍वस्‍त करती है मुझे
कि यह सुबह ठीक-ठाक हो रही है

यह इसी तरह होती रही तो घर की सीमित दुनिया में ही सही
एक अरसे बाद मैं कह पाऊंगा अपने सो रहे बेटे से
कि उठो बेटा सुबह हो गई
वरना अब तक तो कहता रहा हूं उठो बेटा बहुत देर हो गई

रात होती है तो सुबह भी होनी चाहिए
पर वह होती नहीं अचानक लगता है दिन निकल आया है बिना सुबह हुए ही
रात के बाद दिन निकलना खगोल विज्ञान है
जबकि सुबह होना उससे भिन्‍न धरती पर एक अलग तरह का ज्ञान है

इन दिनों मेरे हिस्‍से में यह ज्ञान नहीं है
सुदूर बचपन में कभी देखी थी होती हुई सुबहें
अब उनकी याद धुंधली है

पगली है मेरी पत्‍नी भी
मुझ तक ही अपनी समूची दुनिया को साधे
कितनी आसानी से कह देती है
मुझे उठाते हुए उठो सुबह हो गई

मैं उसे सुबह के बारे में बताना चाहता हूं
रेशा-रेशा अपने लोगों की जिन्‍दगी दिखाना चाहता हूं
जिनकी रातें जाने कब से ख़त्‍म नहीं हुईं
बस दिन निकल आया
और वे रात में जानबूझ कर छोड़ी रोटी खाकर काम पर निकल गए
जबकि रात ही उन्‍हें
उसे खा सकने से कहीं अधिक भूख थी

मेरी सुबह एक भूख है
कब से मिटी नहीं
जाने कब से मै भी रोज़ रात एक रोटी छोड़ देता हूं
सुबह की इस भूख के लिए

पर यह एक घर है जिसमें रोटी ताज़ी बन जाती है
मैं रात की छोड़ी रोटी खा ही नहीं पाता
और फिर दिन भर भूख से बिलबिलाता हूं

मेरी सुबह कभी हो ही नहीं पाती
वह होती तो होती थोड़ी अस्‍त–व्‍यस्‍त
बिखरी-बिखरी
किसी मनुष्‍य के निकलने की तरह मनुष्‍यों की धरती पर

जबकि मैं नहा-धोकर
लकदक कपड़ों में
अचानक दिन की तरह निकल जाता हूं काम पर
*** 

किसी ने कल से खाना नहीं खाया है

रात मेरे कंठ में अटक रहे हैं कौर
मुझे खाने का मन नहीं है
थाली सरका देता हूं तो पत्‍नी सोचती है नाराज़ हूं या खाना मन का नहीं है

यूं मन का कुछ भी नहीं है इन दिनों
अभी खाने की थाली में जो कुछ भी है मन का है पर मेरा मन ही नहीं है

मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग स्थिति है

मैंने दिन में खाना खाया था अपनी ख़ुराक भर
भरे पेट मैं काम पर गया

शाम लौटते हुए
सड़क किनारे एक बुढिया से लेकर बांज के कोयलों पर बढिया सिंका हुआ
एक भुट्टा खाया था
वह भी खा रही थी एक कहती हुई –

बेटा कल से बस ये भुट्टे ही खाए हैं और कुछ नहीं खाया
तेज़ बारिश में कम गाड़ियां निकली यहां से
इतने पैसे भी नहीं हुए एक दिन का राशन ला पाऊं
पर सिंका हुआ भुट्टा भी अच्‍छा खाना है भूख नहीं लगने देता

मैंने भी वह भुट्टा खाया था और अब मेरा खाने का मन नहीं
अपने लोगों के बीच इतने वर्षों से इसी तरह रहते हुए
अब मैं यह कहने लायक भी नहीं रहा
कि किसी ने कल से खाना नहीं खाया है
इसलिए मेरा भी मन नहीं

कविता के बाहर पत्‍नी से
और कविता के भीतर पाठकों से भी बस इतना ही कह सकता हूं 
कि मैंने शाम एक भुट्टा खाया था 
अब मेरा मन नहीं

और जैसा कि मैंने पहले कहा मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग
एक स्थिति है
***

सांड़

सांड़ की आंखों को लाल होना चाहिए पर गहरी गेरूआ लगती हैं मुझे
विशाल शरीर उसका
अब भी बढ़ता हुआ ख़ुराक के हिसाब से
उसके सींग जब उसे लगता है कि हथियार के तौर पर उतने पैने नहीं रहे
उन्‍हें वह मिट्टी-पत्‍थर पर रगड़ता है पैना करता है

राह पर निकले
तो लोग भक्तिभाव से देखते हैं
क़स्‍बे के व्‍यापारियों ने पूरे कर्मकांड के साथ छोड़ा था उसे शिव के नाम पर
जब वह उद्दंड बछेड़ा था
तब से लोगों ने रोटियां खिलाईं उसे
उसकी भूख बढ़ती गई
स्‍वभाव बिगड़ता गया
अब वो बड़ी मुसीबत है पर लोग उसे सह लेते हैं

वह स्‍कूल जाते बच्‍चों को दौड़ा लेता है
राह चलते लोगों की ओर सींग फटकारता है कभी मार भी देता है
अस्‍पताल में घायल कहता है डॉक्‍टर से
नंदी नाराज़ था आज पता नहीं कौन-सी भूल हुई

उसे क़स्‍बे से हटाने की कुछ छुटपुट तार्किक मांगों के उठते ही
खड़े हो जाते हिंदुत्‍व के अलम्‍बरदार

इस क़स्‍बे की ही बात नहीं
देश भर में विचरते हैं सांड़ अकसर उन्‍हें चराते संगठन ख़ुद बन जाते हैं सांड़

सबको दिख रहा है साफ़
अश्‍लीलता की हद से भी पार बढ़ते जा रहे हैं इन सांड़ों के अंडकोश
उनमें वीर्य बढ़ता जा रहा है
धरती पर चूती रहती है घृणित तरल की धार
वे सपना देखते हैं देश पर एक दिन सांड़ों का राज होगा
लेकिन भूल जाते हैं कि जैविक रूप से भी मनुष्‍यों से बहुत कम होती है सांड़ों की उम्र

ख़तरा बस इतना है
कि आजकल एक सांड़ दूसरे सांड़ को दे रहा है सांड़ होने का विचार

उनका मनुष्‍यों से अधिक बलशाली होना उतनी चिंता की बात नहीं
जितनी कि एक मोटे विचार की विरासत छोड़ जाना

सबसे चिंता की बात है
इन सांड़ों का पैने सींगो,मोटी चमड़ी और विशाल शरीर के साथ-साथ
पहले से कुछ अधिक विकसित बुद्धि के साथ
मनुष्‍यों के इलाक़े में आना  
***

इशरत के लिए -प्रेमचंद गांधी

$
0
0
प्रेमचंद गांधी की यह कविता इशरत जहां के बारे में है लेकिन यह दूसरी इशरत जहां के बारे है....कवि की एक मि䦆त्र के बारे में...नामगत साम्‍य ने इसे अचानक गुजरात में मारी गई इशरत जहां और और उस राह से जोड़ दिया है, जहां से हमारे देश में लगातार निरंकुश होती फासिस्‍ट ताक़तों के दुश्‍चक्रों का पता मि䦆लता है। एक प्रतिबद्ध कवि की कविताएं कैसे निजता से बाहर समाज में अपना सम्‍बोधन और पता बदल लेती हैं, इसका एक अच्‍छा उदाहरण है यह कविता। अनुनाद इस कविता के लिए प्रेम भाई का आभारी है। 


  
 
यह तस्‍वीर इशरत जहां की नहीं है लेकिन यह तस्‍वीर इशरत जहां की ही है



इस जहां में हो कहां
इशरत जहां
तुम्‍हारा नाम सुन-सुन कर
पक ही गए हैं मेरे कान

आज फिर उस उजड़ी हुई
बगीची के पास से गुज़रा हूं तो
तुम्‍हारी याद के नश्‍तर गहरे चुभने लगे

तुम कैसे भूल सकती हो यह बगीची
यहीं मेरी पीठ पर चढ़कर
तुमने तोड़ी थीं कच्‍ची इमलियां
यहीं तुम्‍हारे साथ खाई थी
बचपन में जंगल जलेबी
माली काका की नज़रों से बचकर
हमने साथ-साथ चुराए थे
कच्‍चे अमरूद और करौंदों के साथ अनार

सुनो इशरत
इस बगिया में अब हमारे वक्‍त के
कुछ बूढ़े दरख्‍त ही बचे हैं

एक तो शायद वह नीम है
जिस पर चढ़ने की कोशिश में
तुम्‍हारे बांए पांव में मोच आ गई थी
लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं नष्‍ट हुआ वह जटाजूट बरगद
जिसके विशाल चबूतरे पर जमी रहती थी
मोहल्‍ले भर के नौजवान-बुजुर्गों की महफिल
इसी बरगद की जटाओं पर झूलते हुए
हमने खेला था टार्जन-टार्जन

अब वह छोटा-सा शिवालय नहीं रहा
एक विशाल और भव्‍य मंदिर है यहां
नहीं रहे पुजारी काका
अब तो पीतांबर वर्दीधारी दर्जनों पुजारी हैं यहां
रात-दिन गाडि़यों की रेलपेल में
लगी रहती है भक्‍तों की भीड़
हमारे देखते-देखते वह छोटा-सा शिवालय
बदल गया प्राचीन चमत्‍कारी मंदिर में

बहुत कुछ बदल गया है इशरत
इसी बगीची के दूसरे छोर पर
करीब एक मील आगे चलकर
शिरीष, गुलमोहर, नीम, पीपल और बबूल के
घने दरख्‍तों से घिरी थी ना
सैय्यद बाबा की निर्जन-सी मजार
जहां शाम के वक्‍त आने से डरते थे लोग
कहते थे यहां पहाडि़यों से आते हैं
हिंसक वन्‍य जीव पास के तालाब में पानी पीने
वह छोटी-सी उपेक्षित मजार
तब्‍दील हो गई है दरगाह में
दरख्‍तों की हरियाली वहां अब
हरी ध्‍वजाओं में सिमट गई है

इस तेज़ी से बदलती दुनिया में
हमारे बचपन और स्‍मृतियों के साथ
ना जाने क्‍या-क्‍या छूटता चला गया
मन के एक हरियल कोने में
तुम्‍हारे नाम की चंचल चिडि़या
कूकती रही लगातार
गुज़रे वक्‍त के लिए मेरे पास
कोई ठीक शब्‍द नहीं
पाश की भाषा में कहूं तो यह सब क्‍या
हमारे ही वक्‍तों में होना था?
मज़हब और जाति के नाम पर
राजनीति का एक अंतहीन खूनी खेल
जिससे घायल होती रही
मेरे मन में बैठी
तुम्‍हारे नाम की नन्‍हीं चिडि़या
उसकी मीठी कूक
धीरे-धीरे बदल गई रूदन में

फिर जो गूंजा तुम्‍हारा नाम खबरों में
तो हैरत में पड़ गया था मैं...
*** 


लहू बहने के ठीक पहले -मृत्‍युंजय की कविता

$
0
0
स्‍त्री संसार पुरुष कवियों की कविता में आता है तो अभिव्‍यक्ति में अपने साथ कई जोखिम लाता है, ऐसे ही जोखिमों का सफलता से सामना करते हुए कई अर्थच्‍छायाओं के बीच अपनी ख़ास आकृति रचती है मृत्‍युंजय की यहां दी जा रही कविता। दुनिया और अपनी देह पर लगे घावों को सिलने चली कुशल जर्राह संगतिनों के सधे क़दमों की आहट देती इस कविता और इसे हम तक पहुंचाने के लिए मृत्‍युंजय का स्‍वागत। 
***

पतली ब्लेड जैसी छुरी से
मन है कटा 
लहू के पहले, भयानक सफेदी से भरा
यह आत्मलोचन का समय 
अनचक खड़े हैं रक्त के कण  
घर से इस औचक निष्कासन पर 

सर्वग्रासी जाल फैला जा रहा है दर्द का 
परस्पर एक-दूजे को संदेशा भेजते 

हर एक मन को खबर करते 
मसानी खामोशी को मथ रहे
हैं, चींटियों के झुंड व्याकुल  
इसी क्षण के दृश्य टुकड़े
चतुर्दिक बिखरे हुए
फैला हुआ पैनोरमा  

समय की पीठ पर हैं दर्द के से नीलगूँ
बहुल शाखा वृक्ष दु:ख के
इस नील वन में हिंस्र पशु हैं
नुकीले तेज पंजे
और दांतों की भयानक वक्रता है
पिताओं की पुरानी क्रूरतायें
आधुनिकता से गले मिलतीं 
कि जैसे किसी प्राक्तन वृक्ष पर चढ़ती अमरबेली

रकत क आँस, मांस कै लेई
से बनी हैं भव्य वे अट्टालिकाएँ 
जितने आज तक के प्रगति और विकास सब हैं 
रचे जाते रहे हैं हड्डियों की नींव पर  

हिंस्र पशुओं से भरे वे नील वन
घर की दरारों में व्यवस्थित 
लपलपाती शाख, पत्ते ब्लेड जैसे चीर देते खाल 
सो परिवार के ऊंचे दरख्तों से लटकते ही रहे सब ख्वाब
आँगन में चुनी जाती रहीं कब्रें, बजती रही सांकल  

समय का रथ सजीला हाँकते हैं
धनी-मानी मनु के बेटे 
पट्टी आँख पर रोपे हुए
टट्टर की संधों से सटे हैं कान 

कैद कर दी गई वह
अपने बदन में 
पृथ्वी से प्रकृति से और बहनों से नहीं मिलने दिया जाता 

भाषा कीलित की गई है
शक्ति औसंपत्ति से
उनके तईं ताकत भरी गई  
युगों के बरबर-पने की मूर्तियाँ है शब्द 
उन्हीं से लिखी जाती रही है अपहृत लाड़ली की कथा

हकीकत की कड़ी चट्टान पर अपमान के हैं सींखचे 
गर्दन हाथ पैरों में खड़ी बेड़ी मशक्कत कर रही है
भरा दिल है
और आँखें चुप्प के पीछे भभकती आग  में
छटपटाती मछलियां  

बुर्के सरीखी
रात काली दे रही पहरा
लिए पंजे नुकीले 
चाँद-तारे मढ़े, देवरों-पतियों-पिताओं ने खींच दी रेखा
दम घुट रहा है
हवा की गठियल अंगुलियाँ गले पर 
खड़ा है उस पार अनेकों राष्ट्र-शीशों का नया रावण 
छिन्नमस्ता हो, बढ़ी आओ, यही है शर्त उसकी  
डाल गलबहियाँ बुलाते, मुसकुराते राम-लक्ष्मण 

तो हजारों बरस की हत्या-प्रथाएँ
यों नवीकृत हो रही हैं 
सामराजों की ढली बेला
नए साधन जुगाड़े जा रहे
चरम बर्बरता मनोरंजन बनी जाती
अनोखे आर्यव्रत में चीख उठती, गूँजती किलकारियाँ
वहशी दुनिया-गाँव का मुखिया, दलाल
उसके खनकते डॉलरों में खेलते हैं
हेड-हंटिंग का पुराना खेल 

प्रेत-लीला चल रही है
धान के खेतों तलक पसरी हुई 
छांह गड़ती है नवेले भूतपतियों-भूमिपतियों की 
गर्दन टूटती है
ईंट के रंदे बढ़े जाते सिरों पर 
अंगुलियाँ पैर की हैं काँपती
कस कर पकड़तीं सखी धरती को 
धधकती आग के मैदान हैं वे खेत भट्ठे कारखाने 
जिनको तैरकर घर तक पहुंचना
सही साबुत असंभव है
काठ की यह देह
जलती सुलगती है रोज 

और घर, खामोश दिखता बहुत गहरा एक दरिया 
जिसके तली में हैं काँच के टुकड़े
नुकीले गर्दन में बंधा पत्थर
हर क्षण डूबती है देह एक-इक सांस की खातिर
पूरा ज़ोर हिम्मत और आशा 
सब लगा होता यहाँ है दांव पर
जीभें काट ली जातीं यहाँ पर
सदा से यह है रवायत 

जंगलों के हरेपन में, खदानों में 
पहाड़ों की बर्फ
और नदी घाटी हर कहीं पर
फौज-फाटा, पुलिस पी ए सी  अंगरेज़ हाकिम के नए वंशज,
भूरे साहबों के काठ-पुतले  
देह में वे गाड़ देते राष्ट्र का झण्डा 
खिलखिलाते, अधमरी पृथ्वी कुचलते मार्च करते 
क्रूरता की आधुनिक वहशी ऋचाएं बद रहे हैं 
गगनचुंबी नये महलों में अनवरत हो रहे अनुवाद इनके
अंगरेजी में, जिसमें लिखा जाना अंततः है शक्ति का पुरुषार्थ
सुनहिल अक्षरों में 

चरम अनुकूलनों का दौर भयकर
सत्ता और संस्कृति की विराट मशीनरी 
देह की घिर्री बना सृजित करती नई
परिभाषा सुख की मुक्ति की आज़ाद मन की 
मनस पर प्रेतबाधा सी घुमड़ती 
देह रंगती 
मानिंद गोश्त के सौंदर्य की कीमत नियत करती  

अपने से अलग की गई वह मैत्रेयी 
हजारों साल के इतिहास के पत्थर तले
कुचला गया, आत्म उसका 
पितृसत्ता और पूंजी के द्विविध पंजे फंसी
है छटपटाती 

लहू बहने के ठीक पहले 
यहीं बिखरा हुआ है
तीक्ष्ण चाकू से कटा वह समय
इसी क्षण की
छटपटाहट
गूँजती है एक नारे में 
पिघल कर, कैदखाने फांद सारे, सड़क पर 
जोड़ कांधा, बढ़ रहा दल गाँव-कस्बों ओर  
जहां से आएंगीं वे
बसूला,धागा-सुई ले
कुशल जर्राह संगतिन वे
सधे कदमों बंधी मुट्ठी 
अद्भुत मसृणता गति भरी दुनिया
और मन को छीलने करने बराबर 
समय के जख्म सीने,
हड्डियों में प्राण भरने 
देश-दुनिया को नया करने।

**** 
चित्र गूगल इमेज से साभार

परमेश्‍वर फुंकवाल की आठ कविताएं

$
0
0
परमेश्‍वर फुंकवाल मेरे और अनुनाद के लिए बिलकुल नए कवि हैं। ये कविताएं मेल से प्राप्‍त हुईं और अब मैं इन्‍हें ज़रूरी प्रतिक्रियाओं के लिए अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख रहा हूं। कवि का अनुनाद पर यह प्रथम प्रकाशन है, उनका स्‍वागत। 

1. और मुझे क्या चाहिए

मेरी इच्छा सूची में है
सच की खाद से बढ़े
और समय की आंच में सिके हरे चनों का स्वाद

किसी स्कूल के बाहर भीषण बरसात में भीगता
अपनी बहन की प्रतीक्षा करता भाई

थकी साँसों से सुलगी
अपने कल पर होने वाली बहस की बीड़ी
और उसके बचे हुए ठूंठ पर
दस लोगों के फेफड़ों की गंध

इस दौड़ में
कट रहे हैं गले और
धमनियों के रक्त में बह चला है चिपचिप करता एक गाढ़ा द्रव
ऐसे में यदि मिल सके
इस पीढ़ी के लिए काफी
थोडा सा श्मशान वैराग्य

जीवन को अपने अंत से बाँधने वाली
एक छोटी सी रस्सी चाहिए मुझे.
*** 
2.कीमत

भीड़ देखी और
दर्शन खरीदे
ताज के बाहर
उसके प्रतिरूप ले लिए
उत्पादों से पहले उनके इश्तेहार बिके
समय से पहले
मैच के सारे रोमांचक पल
समय की व्याकरण में ढली कविताएँ
बेस्ट सेलर बन कर
स्टाल से गायब होती रहीं
पर इन सबके बीच ऐसा भी कुछ था
जो रहा अनबिका सबकी निगाहों से दूर
जैसे मौसम के मिजाज़ से आधे पके आधे कच्चे आम
सब्जी मंडी के कोने में बैठी बूढ़ी का सौदा
एक कैदी द्वारा पश्चाताप में काता गया सूत
और माँ के रहते घर
एक कविता जो आत्मा की गहराइयों को नाप लाई थी
किसी डायरी के पन्नों में सुख का अनुभव करती रही
वह नहीं बिकी
बिक गया चाहे
उसकी कलम का घर
भरी दोपहर में नीम का पेड़ आज भी
बांटता दीखता है
ठंडी छांह
जिस दिन वह बिकेगा
आप देखेंगे एक शहरी बाज़ार दृष्टि के अंत तक
पर आपकी पहुँच से कोसों दूर.
*** 
3.माँ

वह मुझे मिल जाती है
अक्सर कई कई बार
ऐसे जैसे मैं रात में अपने स्वप्नों से मिलता हूँ
और दोपहर में अपने टिफिन में रखी गंध से

सड़क पर परत दर परत मजबूती का काला डामर
गिट्टी के साथ बिछता है
पुल का पाया अपनी कंक्रीट के गारे में एक चट्टान का अंश लिए खड़ा है
कच्चे रास्तों पर
वो धूल जो काँटों को अपने अन्दर खोंस लेती है
वह क्या लगती होगी मेरे पैरों की

दुनिया में आकर
भोंचक होकर घिघ्घी न बंध जाये
और रोने के दुःख के साथ
मैं ले सकूँ अपने फेफड़ों में
पहली पहली सांस
यह प्रयास कौन करता होगा
रोज़ रोज़ जीवन के नए आश्चर्यों के बीच
मेरे पल पल होते अनंत जन्मों में

कितनी भी दूर जाकर
देर रात गए
लौट सकता है
मेरे अन्दर का पथिक
आश्वस्त होकर
चूल्हे में आग अभी भी बाकी होगी
‘दाल पकने में
समय ही कितना लगता है’
जैसा धुंए को चीरता आ खड़ा होता रोशनी का स्वर
किसका होता होगा

इस तपते ज्वर में
मेरे साथ जागती है
एक ऐसी आशा सवेरे तक
जो जानती है
सिर की पट्टी कब बदलनी है
और रक्त की इस आंच को
कितने ओढ़ने की तहें
पसीने में बदल सकेंगी

अपने पूजाघर की
मूर्तियों पर
मांगों के क़र्ज़ चढाने के बजाय
माँ से मिल आना
दे देता है मुझे
मेरे हाथों में
मेरी तकदीर लिखने वाली कलम.
*** 
4.जीवित शब्द

जैसे गिलहरी के हाथ में आ जाता है
किसी आधुनिक अनजान रेशे से बुना कपडे का अबूझ टुकड़ा
और वह उसे कुतरना चाहती है
और अपनी जीभ से चखना भी 
उस स्वाद को पहचान लेना उसका मकसद है
ताकि फिर हंसी न उड़े
समय की फैशन से अपरिचित होने की
वैसे ही मेरे जेहन में शब्द आ जाते हैं

मेरा पीछा करते हैं
वह ठोक पीट कर जो एब्सट्रेक्ट आकार बनाकर
वाहवाही में लिपटा फिरता हूँ मैं
वह असल में है क्या जैसे प्रश्न
ये पहली बार आर्ट गैलरी में आकर
गुम सा अनुभव करने वाले आम आदमी के प्रश्न है
जिन्हें वह पूछ ही लेता है
अपने आसपास खड़े सब कुछ समझने वाले लोगों से
छुपते छुपाते

कुछ प्रश्न होते हैं
सूचना के अधिकार के तहत मांगे गए जवाबों से भी सपाट
वो खबर लेते हैं
अन्दर के कागजों पर क्या टीप किसने लिखी
और कितनी इमानदारी से
उनका जवाब टालना पड़ता है
यदि देने से बचा न जा सके

मुझसे पहचान बना कर
आँखों में आँख डालकर
पूछे जाने वाले इन प्रश्नों का डर
मुझे मिलवाता है
उन शब्दों से जो
लिखे भी जाते हैं
और अपने अर्थ सहित जिए भी
*** 
5.ठंडी चाय

छोटू चाय ला
छोटू पंचर ठीक से बनाना
छोटू आठ नंबर का पाना दे
ईश्वर के विपरीत लगभग हर जगह मिल जाता है
उसका ये छोटा प्रतिरूप

छोटू स्कूल नहीं जाता
‘स्कूल जाऊंगा तो खाऊंगा क्या’
और एक कट चाय का गिलास ठक से टेबल पर

उम्र के पहले पकी उसकी भाषा में कई प्रश्न हैं
यह जमीन किसकी है
सेठ की होगी
सेठ के पास कैसे आयी
पुरखों से
और वे कहाँ से लाये
उनके पुरखों से, वे जमींदार होंगे
उनके पास?
उनने ताक़त से जीती होगी
किस से
उत्तर नहीं मिलता
एक लम्बे मौन के अंतराल में
मैं पढ़ सकता हूँ
उसके मस्तिष्क में
बिजली की तरह कौंधता एक छोटा सा सवाल
हम फिर ताक़त से ले सकते हैं ये सब?
जब तक मैं प्रश्न का जवाब सोच पाऊं
चाय ठंडी हो चुकती है.
*** 
6.पहचान

यह शहर के विकास
की पहचान है
कि आत्मा का एकांत लुप्त होने लगे
धरती से रूठी गोरैय्या की तरह


दिन के घटना क्रम पर
मोमबत्ती जूलूस निकले
और हुजूम के भीतर पालथी मार बैठी रहें
वो सारी संभावनाएं
जिनके वजूद को वह
नारों से ख़त्म करने
उतरा हो सड़क पर

हर उद्देश्य को मेराथन में तब्दील कर खुश होता रहे
हर रिश्ते को एक दिन में समेट दे
और हर नदी को सिर्फ अपने दामन में धब्बे की तरह मिटाने की जुगत करे 

जहाँ बारिश हो तो बस बाढ़ के लिए
धुप खिले तो चेहरों को नकाब में बदलने को   
और सर्दी रोक दे फेफड़ों की सांस

किसी घटना पर जब यह
इकट्ठा हो तो लगे 
मनोरंजन कर रहा हो
अपने ही तमाशे से

वे कई लोग जो यहाँ संभावनाओं से भरा जीवन तलाशने आते हैं
जब समझ लें कि इसमें जीवन भी बस एक सम्भावना ही है
तो कहने की ज़रुरत नहीं है
इसने विकास की दहलीज़ लाँघ ली है.
*** 
7.कारण

तितली
जीती है रंग बनकर
मधुमक्खी का सारा जीवन
शहद होने में है
एक चिड़िया का होना
आसमान का होना है
जैसे चींटी का होना एक कोशिश का अस्तित्व है
इंसान के पास एक अबूझ व्यस्तता है
जिसमें डूबकर वह
प्रेम न हो पाने के कारण तलाशता है.
*** 
8.अपना समय

बीज अब फसल की हद तक हैं
फसल अब बीज नहीं होती
फसलें नदियों से अलग हो कर जीती हैं
और नदियाँ जीवन से
किसान दानों को मोहताज रहता है

इधर चलना सीखने के पहले फार्मूला कारों के नाम
हमारे शब्दकोष का हिस्सा बन चुके होते हैं
घर ऐसे हैं जिनकी न जमीन न आकाश
जुड़ते जाते हैं सारे संसार से
और खोते जाते हैं अपना ही पता
तकनीक की बेतार कोशिकाओं में

बच्चे माँ के गर्भ से अलग
पनपते हैं
और क्रेच की दुनिया में खोजते रहते हैं अपने 

हम एक ऐसे समय के साक्षी हैं
जब नींद से अलग कर देखे जाते हैं सपने
और अर्थ से अलग कर शब्द.


जन्म: 16 अगस्त 1967
शिक्षा: आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में परास्नातक
साहित्य और अनुसन्धान में गहन रूचि. राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित. 
विभिन्न वेब पत्रिकाओं (अनुभूति, लेखनी, नवगीत की पाठशाला, नव्या, पूर्वाभास आदि) में रचनाओं का प्रकाशन.
सम्प्रति: पश्चिम रेलवे अहमदाबाद में अपर मंडल रेल प्रबंधक के रूप में कार्यरत
संपर्क: pfunkwal@hotmail.com

कमलजीत चौधरी की नई कविताएं

$
0
0
कमलजीत चौधरी
कमलजीत चौधरी मेरे लिए अग्निशेखर के बाद कविता में जम्‍मू की एक अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण किन्‍तु अलहदा आवाज़ है। हिन्‍दी में सीमान्‍तों की कविता जिस तरह से विकसित हो रही है,यह घटना आने वाले वक्‍़त में कविता का एक बड़ा प्रस्‍थान बिन्‍दु साबित होने वाली है। मैं अलग-अलग राज्‍यों से एक-एक नाम का ही कुछ अधूरा-सा उल्‍लेख करूं तो केशव तिवारी,अजेय,विजय सिंह,प्रभात,नीलोत्‍पल,नित्‍यानन्‍द गायेन,मोनिका कुमार आदि कई नाम एक साथ याद आ जाते हैं। इनमें नीलोत्‍पल ज्ञानपीठ से छपे संग्रह की वजह से एक बार केन्‍द्र में आते हैं लेकिन फिर ख़ामोशी अपने ख़ास सीमान्‍त को चुन लेते हैं। इन सभी में कोई हड़बड़ी नहीं है। ग़नीमत है कि भौतिकी का घूर्णन नियम कविता में लागू नहीं होता और सीमान्‍त की यह कविता अपने विषय,लहजे और स्‍वभाव में कहीं से भी केन्‍द्र की ओर नहीं खिंचती।

कमलजीत चौधरी छोटी कविताएं लिखते हैं किन्‍तु अपनी विशिष्‍ट अर्थच्‍छायाओं से एक बड़ी जगह घेरते हैं। उनकी भाषा में जम्‍मू घाटी की ख़ुश्‍बू है लेकिन उनके विषय देश-देशान्‍तर की घटनाओं से एक विशेष सैद्धान्तिकी में प्रेरित होते हैं। यहां प्रकाशित कविताओं को देखें तो इनमें कोपेनहेगेन की बैठक को सफल बताता वनमहोत्‍सव मनाता लकड़हारा है,दादी की के हाथों से पोते के हाथों तक मिट्टी  को मिट्टी का दुश्‍मन बनाने के ग्‍लोबल षड़यंत्रों से घिरी घड़े की यात्रा है,लम्‍बे आदमी का क़द के बहाने सदी के महानायक के रूपक में निम्‍नमध्‍यवर्ग में पूंजी के बढ़ते प्रभाव की सुलझी हुई पड़ताल है। उत्‍तराखंड की हालिया त्रासदी में घिरा मैं प्रकृति के बेलगाम दोहन और पूंजीवादी विकास के ढांचे पर टिप्‍पणी करती कविता अश्‍वमेधी घोड़ा का मर्म बेहतर समझ पा रहा हूं। हड़ताली पोस्‍टरका साफ़ बयान और शेर कहां है का खुला रूपविधान – इन दो छोरों पर कमलजीत चौधरी का अपना शिल्‍प युवतर हिन्‍दी कविता में अलग से पहचाने जा सकता है। वे पहले भी अनुनाद पर छपे हैं। यहां उनका पुन: स्‍वागत और इन कविताओं के लिए आभार।

 शार्पनर 

 हम आँगन उठा लाए  हैं 
 घर की लॉबियों में 
 आकाश टांग-टूंग आए हैं
 बालकनियों में

 सावन को गैलरी में रखे
 चार-छह गमलों में  
 सूरज को मॉन्टी पर उगता छोड़ 
 पार्कों में घूमने से पहले 
 पैरों को कारों में भूल आए हैं 

 टेबुलों पर ग्लोब घुमाते
 मोबाइल-कंप्यूटर चलाते 
 पेंसिलों को छीलते-छिलाते -

 हम शार्पनर होते जा रहे हैं। 
 **** 


 अश्वमेधी घोड़ा 

 तुम्हे पेड़ से हवा नहीं 
 लकड़ी चाहिए 
 नदी से पानी नहीं 
 रेत चाहिए 
 धरती से अन्न नहीं 
 महँगा पत्थर चाहिए 

 पक्षी मछली और साँप को भूनकर
 घोंसले सीपी और बाम्बी पर 
 तुम अत्याधुनिक घर बना रहे हो 
 पेड़ नदी और पत्थर से 
 तुमने युद्ध छेड़ दिया है 
 पाताल धरती और अम्बर से ....

 तुम्हारा यह अश्वमेधी घोड़ा पानी कहाँ पीएगा !
 ****


 पहाड़ 

 पहाड़ झुके-झुके 
 चलते थे द्वापर में 
 पहाड़ झुके-झुके 
 चलते हैं कलियुग में
 पहाड़ धरती की पीठ पर कुब्जा हैं -

 कृष्ण कहाँ हैं।
 ****

 फ़र्क  - १ 

 बारिशें
 ख़ूब बरसीं 
 आँगनों का 
 फ़र्क किए बगैर -
 तुम ढूँढ़ते रहे 
 छत ओढ़कर 
 अपने हिस्से का भीगना !
 ***

 फ़र्क  - २ 

 बादल क्यों बरसे
 आँगनों का फ़र्क किए बगैर 
 वे जान क्यों नहीं पाए 
 तारे गिनती कच्ची छत का सौन्दर्यशास्त्र 
 छत ओढ़कर भीगने वालों से 
 कितना अलग है !
 ****

 घड़ा 

 मेरी मिट्टी की दादी 
 खरीदती थी 
 मिट्टी के आमदन से 
 मिट्टी  के भाव का 
 मिट्टी का घड़ा 
 घड़े पर ठनकती थी 
 दादी की उंगलियाँ ठन ठन ठन !!!
 घड़ा बोलता था -

 मैं पक्का हूँ।

 आज पे-कमीशनों की दुनिया में 
 मैं ढो रहा हूँ 
 ठण्डे ब्राण्डेड घड़े 
 बीच बाज़ार खड़े 

 ठनक मेरी उँगलियों में भी है 
 पर बोलने के लिए 
 मिट्टी का घड़ा नहीं है !

 जीवन के बाहर जाती  दादी
 घर में बचाकर रखे पुराने
 एकमात्र मिट्टी के घड़े को
 जीवन के बाहर ले जाना चाहती है 
 वह जानती है -

 आज अन्दर के जीवन
 और 
 जीवन के अन्दर 
 मिट्टी को मिट्टी का दुश्मन बनाया जा रहा  है। 
  ****

 अमेरिका 

 कोपेनहेगन की बैठक 
 सफल बता रहा है -

 लकड़हारा वनमहोत्सव बना रहा है।
 ****

 हड़ताली पोस्टर 

 कैसे मानूं कायनात है 
 स्याह काली रात है 
 कील जड़े बूटों में 
 खून हमारी जात है 
 चौक नहीं यह श्‍मशान है 
 सकते में मेरी जान है
 गोलियों का अभ्यास है 
 यह काया उनकी घात है 
 दिल्ली दिल्ली दिल्ली 
 यह भी कोई बात है 

 कैसे मानूं कायनात है ....
 ****

 शेर कहाँ हैं 

 काले चश्मे पहने 
 कुर्सियों पर बैठे 
 सियार शेर के लिबास में हैं 
 सलाहकार लोमड़ियाँ अपने कयास में हैं 

 भरे हुए तालाब में मछलियाँ मर रही हैं
 हरी टहनियों पर फ़ाख्‍़ताएँ सूख रही हैं 
 दो तरफ़ा रेंगते केंचुए चुप हैं 
 हिरन चौकड़ी भरने में खुश हैं 
 दिन में धूप सेंकते गीदड़ रात में ठण्डाते रोते हैं 
 पीठ थपथपाते ही कुत्ते भौंकते हैं .

 सूंड़ हवा में लहरा 
 हाथी यह भांपने के प्रयास में हैं -

 जंगल तो यही है
 ये शेर कहाँ हैं!
 ****

  लम्बे आदमी का कद
 
  सुबह और शाम की लम्बी
  परछाईयों के साथ
  एक लम्बा आदमी
  पैर तिजोरी में छोड़
  लम्बे होने की
  नई परिभाषा गढ़ता
  एक टेलीविजन शो में
  हॉट सीट घुमाता
  कोटि - कोटि प्रणाम पाता
  एक आदमी को करोड़पति बना रहा है
  मीट्ठी आंच पर
  खाली कढ़ाही में कड़छी घुमा रहा है
  मेरी थाली से रोटी चुरा रहा है ...
  उसे घड़ियाँ बेहद पसन्द हैं
  वह घड़ियों से समय नहीं
  समय से घड़ियों को देखता है
  मुट्ठी पर मुट्ठी रखे अंगूठे काटता है
  लम्बा आदमी सदी का महानायक कहलाता है  
  देश के सबसे अमीर भगवान को भेंट चढ़ाता है
  भगवान उस पर खुश रहता है
  अपनी जन्मतिथि भूल गए लोग
  उसका जन्मदिन मनाते हैं
  एक दूसरे की ईंटें चुराकर
  उसका मन्दिर बनाते हैं
  सरकार उसका डाक टिकट जारी करती है
  वह फिल्म में
  अन्यायी ठाकुर के जुल्म से टकराता है
  जीवन में एक ठाकरे से डरता है
  वह अपनी मिट्टी के हक़ में नहीं बोलता
  जबकि वह जानता है
  उसकी मिट्टी से हर कोई
  बर्तन तो मांझना चाहता है
  पर उस पर पेड़ कोई नहीं लगाना चाहता
  जिस वक़्त दायाँ हाथ जेब में डाले
  महानायक अपनी लम्बाई पर डोल रहा है
  कैमरे के सामने अग्निपथ - अग्निपथ बोल रहा है
  उसी वक़्त एक दोपहर का सूरज
  उसकी सुबह और शाम को छोटा करता
  अपनी पूरी उर्जा के साथ
  रश्मियों को कसता
  तनकर खड़ा हो गया है
  उसके सर के ऊपर नोकदार तम्बू सा
  यह दोपहर का सूरज
  यह जनसड़क का सूरज
  उसे जला नहीं रहा
  बस बता रहा है -
  देखो सदी के सबसे लम्बे नायक
  तुम्हारा कद
  तुम्हारे जूते से बड़ा नहीं है।
  ****
 
 सम्पर्क : -
 कमल जीत चौधरी 
 गाँव व डाक - काली बड़ी 
 तहसील व जिला - साम्बा { १८४१२१ }
 ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com 
 दूरभाष - 09419274403


  

डी.डी.नेशनल/सबद निरन्‍तर : लिखत-पढ़त

एक देश और मरे हुए लोग -विमलेश त्रिपाठी की लम्‍बी कविता

$
0
0
युवा कवि विमलेश त्रिपाठी की यह कविता अनुनाद पर लम्‍बी कविताओं के प्रसंगों का एक महत्‍वपूर्ण अंग बनने जा रही है। मैं विमलेश को शुक्रिया कहता हूं कि उन्‍होंने इस मंच को उपयुक्‍त समझा। अनुनाद पर पहले भी उनकी एक लम्‍बी कविता छपी है, जिसे यहां पढ़ा जा सकता है। विमलेश की दूसरी लम्‍बी कविताओं की तरह ही इस कविता में भी कथातत्‍व इसके रचाव में एक बहुत महत्‍वपूर्ण उपकरण की तरह सामने आता है, जिसके सम्‍बोधन पर्याप्‍त कवितामय हैं। कविता की शुरूआती घोषणा ही इस बारे में बहुत कुछ कह देती है। और फिर अंत के क़रीब का कथन -

एक लंबी कविता है यह देश 
और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र 

- यही इस कविता की कथा है....और इस लम्‍बी कथा की कविता भी। पाठकों की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।  

एक देश और मरे हुए लोग 


[1]
एक हकीकत को कथा की तरह
और कथा को हकीकत की तरह
सुनिए भन्ते

एक समय की बात है किसी देश में एक राजा रहता था

जब वह राजा बनकर सिंहासन पर बैठा लोगों ने तालियां बजाई मंत्री-कुनबों ने दी बधाइयां
राजमाता ने राजा के सम्मान में आयोजन किया एक बड़े भोज का खजाने के द्वार खोल दिए गए खूब मुर्ग-मसल्लम खाने-पीने की छिलबिल
लेकिन बहुत जल्दी ही इल्म हो गया राजा को कि उसके चारों ओर मर चुके लोगों की जमात है
मरे हुए मंत्री मरे हुए कुनबों-संत्रियों के बीच उसे घुटन होती वह चाहता था कहना अपनी बात राजमाता से कई बार
कई बार उसने पद त्याग करने की बात भी सोची
लेकिन जब गया वह कहने अपनी बात तो जो एक बात उसे पता चली वह यह थी
कि राजमाता तो पहले से मर चुकी हैं और पता नहीं कितने समय से ढो रही हैं अपनी लाश

राजा को आश्चर्य होता कि इतने सारे लोग मर कर भी खुश और सहज कैसे हैं

राजा पढ़ा लिखा था सादगी पसंद थोड़ा पुराने खयालों वाला इसलिए अपने देश के लिए
चाहता था कुछ करना कुछ ऐसा जो पहले किसी ने न किया हो और गुलामी के बाद भी
जहां पहुंची नहीं थी रोशनियां वहां तक पहुंचाना चाहता था रोशनी के कतरे
रोटी और दाल कम से कम

लेकिन बहुत जल्दी पता चल गया मंत्री कुनबों को कि दरअसल जो राजा बना है
वह जिंदा है और मरी हुई जनता के बीच पहुंचाना चाहता है रोशनियां
फिर साजिशें शुरू हुईं और लंबी चौड़ी जिरह के बाद बात जो सामने आयी वह यह थी कि राजा को राजत्व और मौत में से किसी एक को चुनना था

राजा बहुत गरीब घर से आया था और राजा बनने के पहले मर चुका था असंख्य बार
इस आशा में कि एक बार राजा बनने के बाद वह फिर से जिंदा हो जाएगा और मिटा देगा
बार-बार मरने के अपने कलंक लेकिन फिर वही मसला था

तो इस बार आखिरी बार वह मरा और चुपचाप हो गया
मरने के बाद शामिल हो गया वह भी मुर्दों की जमात में
फिर उसके शासन काल में मुर्दे लोगों के लिए की गई तरह-तरह की और उन्नत व्यवस्थाएं
सुविधाएं दी गई उन्हें घोटाले हुए बड़े-बड़े
हुए सेकैम और हत्याकांड बलात्कार और ऐसी-ऐसी चीजें
जनता जिसकी अभ्यस्त थी बहुत पहले से
सिर्फ मुट्ठी भर जिंदा लोग पसीजते रहे डर-डर कर बोलते रहे और जिसने भी बहुत अधिक दिखाया उत्साह उसे झट तब्दील कर दिया गया एक मुर्दे में

कहते हैं राजा ने एक विशेष आदेश जारी कर किसी दूसरे देश से मंगवायी थी एक मशीन
वहां के वैज्ञानिकों ने रात दिन मिहनत कर के खास राजा के देश के लिए बनायी थी वह मशीन
जो जिंदा लोगों को तुरंत मुर्दे में बदल सकती थी और तथ्य यह कि इसमें उसके सभी मुर्दे विरोधियों की भी सहमति थी शामिल
ऐसा कहते हैं लोग
उस मशीन के आने के बाद बाकी बचे जिंदा लोगों को भी तेजी से बदला जाने लगा मुर्दे में
उसमें कवि-लेखक,  कलाकार,  समाज सेवी और तरह-तरह के लोग थे जो आसानी से हो सकते थे उनके शिकार
कहते हैं वह ऐसी मशीन थी जो कभी भी किसी भी शक्ल में बदल सकती थी और उसके दिमाग में सदियों की स्मृतियों के सॉफ्टवेयर शामिल थे उसके पास इतिहास की गहरी समझ थी पुराने दर्शन से लेकर उत्तर आधुनिक विमर्शों पर भी दखल था उसका।
उस मशीन के जरिए पीढ़ियों की एक फेहरिश्त को बनाया गया मुर्दा

और समय के साथ राजा के खानदान के कई लोग राजा बने और मशीन ने उनका साथ दिया भरपूर
वे खुश थे कि उनका शासन चलता रहेगा लागातार और कोई भी उनकी सत्ता को दे नहीं पाएगा चुनौती

लेकिन हर देश में हर समय में जिंदा रहती हैं कुछ विलुप्त मान ली गई प्रजातियां वे छुप-छुपकर रहती हैं जिंदा और कुछ के पास तो जन्मतः ही होता है एक कवच-कुण्डल और जिन्हें मार पाना कभी भी नहीं रहा आसान किसी भी तंत्र के लिए

ऐसे लोगों की तलाश में घूमता रहता है तंत्र
मसलन एक कवि था पिछली सदी में जो बच गया था जिंदा अपने मरने के ठीक पहले तक और मरने के कुछ समय बाद वह नए सिरे से हुआ था जिंदा कई लोगों को एक साथ जिंदा करता हुआ
उसके नाम में गणेश और कृष्ण साथ में जुड़े हुए थे वह अपने बोध में सदैव रहा मुक्त हलांकि तंत्र उसकी तलाश में था
होती थीं जासूसियां उसके खिलाफ और वह भटकता रहा एक गुहांधकार में मुर्दों को जिंदा करने के मंत्र खोजता हुआ

तो ऐसे लोग निशाना बनते रहे मारे जाते रहे रास्ते से हटाए जाते रहे रोड़ों की तरह

लेकिन हकीकत और कथा के बीच एक और बात है जो कविता में स्वप्न की तरह हो रही थी घटित
कुछ लोग जो जिंदा थे और लड़ रहे थे और लड़ते-लड़ते बहुत कम रह गए थे
एक खंडहर में मिले एक बार  दो बार  तीन चार और सौ- हजार बार
और वेश बदल कर फैल गए पूरे देश में शब्दों के जादू मंतर लेकर  जिंदा करने मरे हुए लोगों को
बनने लगे गुप्त संगठन मरे लोगों को पता चलने लगा कि दरअसल मर चुके हैं वे और उन्हें जिंदा होना है

और संक्षेप में कहा जाय तो एक सुबह राजा के किले पर हुआ हमला
जिंदा लोगों के सामने देर तक नहीं टिक पाए मुर्दे और उनकी मरी हुई सेना
कहते तो यह भी हैं कि सैनिक सारे जिंदा होकर शामिल हो गए क्रांतिकारियों के खिलाफ
ढह गया किला
समय के चेहरे पर जीत की एक कथा लिखी कुछ लोगों ने मिलकर
इतिहास में और इतिहास के बाहर साथ-साथ एक साथ

हालांकि कथा तो यहीं खत्म हो जानी चाहिए

लेकिन कविता और कविता के बाहर
मैं सोचता हूं कि आखिर वह मशीन कहां गई जो जिंदा लोगों को मुर्दे में तब्दील कर देती थी
मैं बहुत समय से खोज रहा हूं वह मशीन वह रोज मेरे सपने में आती है और झंकझोर कर चली जाती है
उस खतरनाक मशीन का पता लगाना
और नष्ट करना जरूरी है
क्या आप आएंगे मेरे साथ.....??


[2]
एक मरा हुआ आदमी घर में
एक सड़क पर
एक बेतहासा भागता किसी चीज की तलाश में

एक मरा हुआ लालकिले से घोषणा करता
कि हम आजाद हैं
कुछ मरे हुए लोग तालियां पिटते
कुछ साथ मिलकर मनाते जश्न

हद तो तब
जब एक मरा हुआ संसद में पहुंचा
और एक दूसरे मरे हुए पर एक ने जूते से किया हमला

एक मरे हुए आदमी ने कई मरे हुए लोगों पर
एक कविता लिखी
और एक मरे हुए ने उसे पुरस्कार दिया

एक देश है जहां मरे हुए लोगों की मरे हुए लोगों पर हुकूमत
जहां हर रोज होती हजार से कई गुना अधिक मौतें

अरे कोई मुझे उस देश से निकालो
कोई तो मुझे मरने से बचा लो ।


[
3]

एक आदमी चित्र बनाता है
एक कविता लिखता
एक लिखता है लंबे-लंबे लेख
कुछ लोग जिंदा होते अचानक
और उठकर खड़े हो जाते हैं
देश के संसद भवन के सामने

मरे हुए लोगों की कड़ी नजर है उनपर
सबसे ज्यादा डर इन जिंदा लोगों से
कुछ भी कर के वे
उन्हें भी शामिल करना चाहते अपनी जमात में


एक आदमी पैदा होता है जिंदा
और धीरे-धीरे एक मुर्दे में तब्दील हो जाता
वह जीत रहा चुनाव
हथिया रहा बड़े-बड़े ओहदे
वह खुद को साबित करना चाहता जिंदा
कि उसके कंधे पर एक देश का भार

एक पहले से मरा हुआ
गाता देश भक्ति के गीत
एक सदियों का मरा आदमी
ईश्वर और मुक्ति के उपाय पर
करता प्रवचन
मरे हुए लोग मुक्ति के लिए
लगाते भीड़ उसके आस-पास
मरे हुए लोगों का बढ़ रहा कारोबार

एक देश जहां मुर्दे लोग सबसे अधिक ताकतवर
जिंदा लोगों को भेजा जा रहा जेल
चढ़ाया जा रहा सूली पर
उन्हें मारने के लिए की जा रहीं
तरह-तरह की साजिशें

अपने ही देश में सच बोलना मना
सच सोचना मना
सच को सच की तरह लिखना मना
छुप-छुप कर डर डर कर जीना
मना मना मना जिंदा रहना

मैं खुद को बचाता-छुपता चला आया हूं
कविता की दुनिया में
यहां भी दखल बढ़ रहा मरे हुए लोगों का
मेरे उपर लागातार मरने का दबाव

मुझे अपने जिंदा होने पर
नहीं हो रहा यकीन कई बार

मैं लागातार शब्दों से टकरा रहा
जानता हूं
जब सब कुछ खत्म हो रहा धीरे-धीरे
तो क्या अब शब्द ही बचा सकते हैं मुझे
मर जाने से

उम्मीद-सा कुछ
बस इतना-सा यकीन ।

[4]

कभी हिन्दी का एक कवि कहता रहा कि न सोचने और न बोलने से मर जाता है आदमी

मरा हुआ आदमी सोच रहा है बोल रहा है बोल- कुबोल एक मरे हुए की सोच में सारे जिंदा लोग मरे हुए
यह देश मरा हुआ
मरे आदमी के पास तरह-तरह के हथियार
तरीके असंख्य
वे गिन रहे हैं उंगलियों पर जिंदा लोगों की लाशें
और हंस रहे हैं घटती जा रही रोज-ब-रोज जिंदा लोगों की संख्या पर

मैं चुपचाप देख रहा हूं
विसुर रहा अपनी वेवशी पर

मुझे निकलना है अपने ही अंदर की सुंरगों से बाहर लड़ना है एक युद्ध अपने ही लोगों के खिलाफ
कविता के भीतर
और कविता के बाहर

एक समय मर रहा है
और मैं चुप-चाप देखता
खुद के जख्मों से लहूलुहान
तब्दील होता जा रहा हूं आदमी से एक डमी में ---

{
मर गया देश
और जीवित रह गए तुम
यह कैसे हुआ
यह क्योंकर हुआ
ऐसा कभी हुआ है कि देश मर गया और जिंदा बच गया कोई}

देश और देश और देश के बीच
मरे हुए और मरे हुए लोगों के बीच
बचे हुए कुछ जिंदा शब्द
हंस रहे पूरे आत्मविश्वास के साथ

बन रही है कहीं कोई एक कविता ।



 [5]

आया वह अचानक सृजन की तरह
कविता में आए कोई ठेठ गंवई शब्द जैसे
असंख्य वायदे के साथ
प्यार किया
बड़ी-बड़ी बातें कीं
मरे हुए लोगों के बीच एक जिंदा आदमी की तरह
रहा बहुत दिन जिंदा
एक दम जिंदा

लेकिन समय के जटिल रेशे में उलझा
एक दिन बेबश वह
रोने-रोने को
कहा उसने कि मेरे चेहरे के मुखौटे को नोचो
मैं चुप - हतप्रभ
कुछ देर के सन्नाटे के बाद
मैंने नोच दिया
सुंदर और मासूम उसका वह चेहरा
और हैरान

उपर सिर्फ मुखौटा था
और नीचे एक कंकाल
असह्य गंध
झूठ फरेब मक्कारी इत्यादि
जो जीवन और कविता दोनों के लिए गैर जरूरी

वह पता नहीं कितने समय से
मरा हुआ एक विभत्स कंकाल
एक जिंदा मुखौटा लगाकर घुमता
लोगों को प्रेम की कविताएं सुनाता

एक देश
जहां मरे हुए लोगों के पास असंख्य मुखौटे
अपनी चमक से विस्मित करते
लुभाते
लैश गहरे आकर्षण से

मैं कविता में 'जिंदा' लिखता
और वह लिखा मरे हुए शब्द में तब्दील हो जाता

सुनिए सुनिए
अजी सुनिए बहुत तकलीफ है कहने में
फिर भी सुनिए

आप मेरे चेहरे का मुखौटा नोचिए
तफ्तीश कीजिए
क्या मेरे मासूम चेहरे के पीछे छुपा है कोई कंकाल

मेरी कविता ने जवाब देना
छोड़ दिया है ।

[6]

नशे में वह खूब गालियां बकता
रखता अपने उजले आदर्शों को बार-बार मेरे समीप
जैसे एक बच्चा
उछाह से दिखाता खिलौने छुपाए हुए

उसे समय पर बहुत क्रोध
चाहता वह कि बन जाए सब कुछ अच्छा
पर नहीं दिखता जब कुछ भी अच्छा-बातरतीब
तो आंखों में सियाह बादल तैरते

और वह चला जाता समय की अंधेरी सुरंगो में
दौड़ता बदहवास
इतिहास की नंगी-अंतहीन सड़कों पर
कर आता बहस
हवा पानी या तारे में तब्दील हो गए अपने पुरखों से

पेड़ों से पूछता कबीर और बुद्ध का पता
चिडियां से पूछता
उड़ने का राज

नदी में रक्त
और समंदरों में आंसूओं का खारा पानी
देखकर सन्न हो जाता
चाहता छू लेना उस हवा को
कि जिसमें पिछली सदी के मुर्दों के इमानदार नारे
गूंजते बहुत धीमी आवाज में

और कुछ खन बाद वह लौटता जब मेरे समीप
रो पड़ता फफककर
मुंह ढांपकर हिचकी लेता

बहुत देर बाद चुप होता
सबकुछ शांत
बीच में पुराना पंखा घूमता - खड़खड़ाता
यह रोज का किस्सा अब
कि इसके बाद बुदबुदाता
कविता जैसा कुछ
कविता ही

और हर रोज मरता
मेरे अंदर कुछ....
हर रोज जिंदा होता
मेरे अंदर कुछ....।।

 [7]

एक ने बनाया इतिहास को मरोड़कर
एक ढोलक
जिसे डम-डम बजाता फिरता
लोग उसकी अदा पर हो रहे थे मोहित
जुट रही थी भीड़ उसके चारों ओर

यह ढोल नगाड़ों का समय था
खाप पंचायतों का समय था
राजनीति का समय था
मक्कारी और बेशर्मी का समय था
इस समय सबसे अधिक होड़
सबसे कम आदमी रह जाने के लिए थी

एक मरा हुआ आदमी
कविता को पान की तरह चबाकर थूकता था
एक शराब की बोतल के साथ
पूरी पीढ़ी की कविता को
गटागट पी जाना चाहता था

मुझे कवि नहीं बनना था
कवि नहीं कहलाना था
लेकिन शब्द मेरे पास आकर जमा हो रहे थे
ढल रहे थे कविता में

मैं इंतजार में था
कि शब्द किस तरह बारूद और बंदूकों में ढलेंगे
शब्द भागते हुए आते थे
कुछ छटपटाकर मर जाते
जो बच जाते
चुप-चाप कविता में शरण ले लेते थे

शब्द हथियार में कभी नहीं बदले

मैं चाहता था
उन्हें हथियारों में बदलना
लेकिन हर बार
हथियार में बदलने के पहले ही
हो जाती थी शब्दों की हत्या
कविता का बलात्कार

मैं चुप-चाप देखता रह जाता था मायूश

गूंजता था अट्टहास
होते थे चुनाव
जितती थीं पार्टियां
होते थे जश्न
देश की जनता मर रही थी हर रोज
भय से
दुख से
मक्कारी से
अब और कोई रास्ता नहीं बचा था

एक ऐसा समय था वह
जब मंच पर एक आदमी भाषण देता
और रात में एक लड़की के साथ रात बिताता
इस तरह से हो रहे थे शोध उस देश में
बांटी जा रही थीं डिग्रियां
बांटे जा रहे थे पद
बांटी जा रही थी कुर्सियां

मरे हुए लोगों की कतारें थी लंबी
जेब में पैसे
और अंतर की गुहाओं में मक्कारी

एक देश जहां हर दूसरा आदमी
मरने के लिए सज संवर कर बैठा रहता था
हर मौत पर मनायी जाती थीं खुशियां
भर सकती थीं जेबें
मिल सकती थी नौकरियां
मिल सकती थी प्रेमिकाएं

मरने पर ही मिल सकती थी
जिसे उस समय में
मुक्ति कहते-समझते थे लोग

लेकिन उसी देश में मैं लिखता था कविताएं
और आप तो जानते हैं
कि कविता लिखने वाले को
उस देश के लोग किस निगाह से देखते हैं

मरे हुए लोगों के बीच
मेरी कविताएं कब तक रहेंगी जिंदा
मेरे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात
यही थी

लेकिन अंधेरे और मरे हुए समय में
अपने से ज्यादा यकीन
खुद से भी ज्यादा भरोसा
मुझे सिर्फ और सिर्फ
कविताओं पर ही था...

मैं मरना चाहता था एक साधारण मौत
जो प्रकृति ने मुकर्रर की थी मेरे लिए
मरने से पहले मरना
कुबुल नहीं था
क्या इसलिए मैं लिखता रहा कविताएं!

देखता समय की रेत पर
सबको फिसलते और मरते हुए
अपने जिंदा होने पर
भयभीत
उन्मादित
कातर
और..... करता अफसोस...

[8]

मुहल्ले में एक जिंदा आदमी था
गाता था आबल-ताबल गीत
वह आया था पूरब के देश कहीं से
उसके गाने को लोग आबल-ताबल ही कहते --

मरहिं के बेरिया इतना बतायो जा घर से जीव आया हो...
हो..हो...हो.....
मरि गयो लोग देस मह सारे
मुर्दे राज करतु हैं संतो जागो ...
संतो जागो........

एक फटा हुआ खादी का झोला
एक कंथरी पहने
गाता रहता था रात दिन
जागो-जागो जागते रहो जिंदा करता सबको
कि जैसे मुर्दगी सन्नाटे में
नगाड़े की तरह बजते थे उसके शब्द


पूरे मुहल्ले में वही था एक जिंदा
जो तंत्र की साजिशों का करता था परदाफाश
रात भर लैंपपोस्ट की नीम रोशनी में
लिखता था गीत
सुबह गाता घूमता था इस पाड़ा उस पाड़ा
इस मुहल्ला उस मुहल्ला

मरे हुए लोग उसे पागल कहते
बच्चे जो मरे हुओं की संगत में
बदलते जा रहे थे मुर्दे में
पथ्थर फेंकते उसकी कुचैली देह पर
चिकट कहते
उस विराट आदमी के पीछे भागते
हल्ला मचाते

वह अंधेरे घर की दीवारों पर लिखता था
हिन्दुस्तान
इसके बाद आजादी
इसके बाद 1947
और इसके बाद 2012
एक चित्र बनाता था
जिस चित्र में एक आदमी के सहस्त्र सिर होते
और उसके चारों ओर रोते बिलखते
असंख्य आदमी

कहते हैं
वह इतिहास से बचकर
चला आया एक आदमी था
जो वर्तमान में गाता घूम रहा था
और भविष्य की ओर देखते हुए
जार-जार रोता था

हर बार जब मिलता था
उसकी आंखों में जो होता था
उसके अर्थ किसी शब्दकोष में
मुझे नहीं मिला था आज तक
हालांकि इसके लिए बहुत कोशिशें की थीं मैंने

पता नहीं क्यों जब नहीं दिखा
वह बहुत दिनों तक एक समय

बहुत दिनों बाद जब उससे मिला मैं
वह डरा हुआ था
डरा हुआ और हैरान परेशान कि उसकी सासें अब जवाब दे रही थीं

उसकी कथरी में असंख्य गीत थे
उसके दिमाग में कहीं और ज्यादा
इतने कि उससे एक देश बनाया जा सके
उसके गीत घर तो न बना सके
लेकिन देश बना सकते थे

उसकी चिंता को समझ रहा था मैं
वे गीत अब उसके साथ चले जाएंगे
कैसे बचेंगे वे गीत
जो जरूरी बेहद समय के लिए
उसकी चिंता में शामिल हो रही थीं मेरी चिंताएं

मैं आपसे पूछता हूं पाठकों
वह गीत जो चले जाएंगे उसकी अर्थी को कांधा देते
गुम हो जाएंगे वर्तमान के किसी खोह में
अतीत की अंधेरी सुरंगों में लौट जाएंगे
उन्हें कैसे बचाया जाए

मैं सोचता हुआ वापिस लौट आता हूं
अपने तीसरी मंजिल के फ्लैट में
रोशनी से दूर
बल्ब की धुंधली छाया में

अपनी डायरी में लिखता हूं
एक प्रश्न
और रक्त बीज की तरह
वे हजार-लाखों प्रश्नों में बदल जाते हैं
मुझे घेरते
नोंचते
मेरी देह और आत्मा को लहूहुहान करते

सुबह तक चलती हैं जोर-जोर सांसे
बुझते दिए की रोशनी
बुझती लागातार धीमे-चुप

तड़के भागता मैं पहुंचता हूं
अंधेरे तहखाने में
कोई नहीं वहां सिर्फ न होने की गंध के अलावे

दौड़ता हूं लोक-लोक ग्रह-ग्रह
नक्षत्रों तक पहुंचते हैं मेरे कदम
भागता रहा हूं सदियों
उस बूढ़े की तलाश में
जिसे पागल कहता था पूरा मुहल्ला

क्या आपको मालूम है
कि वह समय का सबसे बूढ़ा आदमी
कहां रहता है अब?

कि कहां मिलेगा?

[9]

आइने के सामने खड़ा हूं
खुद से सवाल पूछता
जाना चाहता हूं लौटकर वहीं
जहां मेरे पुरखों की देह की राख
मिली है मिट्टी में

खो रहा है गांव
बंसवारी उजड़ रही है
रह गए हैं केवल बूढ़े बेरोजगार अलबटाह लोग
महिलाएं सिसकती
बच्चे धूल में खेलते मटिआए

उन बच्चों को क्या चाहिए
एक आदमी जोर-जोर से चिल्लकार पूछता है
उसके चेहरे पर राजाओं की-सी चमक
और भाल पर
बल गर्व की कांति

क्या चाहिए इन बच्चों को
मोबाईल
लैपटॉप
पॉर्न किताबें
कम्प्युटर
या हवा और पानी
और रोटी
जो अब तक नहीं पहुंच पाई है साबुत
और हमें गर्व है कि हमने पिछले साल ही
आजादी का छठां दशक मनाया है

एक आदमी पता नहीं कब से रो रहा है
उस फूटपाथ पर खड़ा
मुर्दों की भीड़ उसे चिरती हुई
निकल रही है
अपनी-अपनी कब्रों में जल्दी पहुंचने को
उसका बेटा अमेरिका चला गया है
और अब कभी न लौटने
की खबर आयी है अभी कुछ देर
पहले ही

एक आदमी खूब ठोक बजाकर
करता है अपने शिष्यों का चुनाव
देता है चालच नौकरी का
परीक्षाएं पास कराने का
वह चाहता है कि उसके शिष्य
उसका गुणगान करें
साबित करें
उसे समय का सबसे बड़ा कवि-आलोचक-कथाकार
वह एक मंडली तैयार करता है
जहां लोग उसको अच्छी लगने वाली बात
कहते और सुनते हैं
जिसपर भी उसे शक होता है
कि वह सच बोल देगा
उसके चेहरे का नकाब नोंच कर फेंक देगा
उसे निकाल बाहर करता है
अपनी मंडली से

वह इस नयी सदी में
खुद को साबित करना चाहता है भारतेंदु हरिश्चंद्र
उसकी आंखें
अमरता की तलाश में बेचैन दिखती हैं
लेकिन मंच पर
वह बन जाता है सबसे भोला-भाला
उजबक सलोना
जैसे अनाथ कोई नाथ

अकेले में होता खूंखार
लड़कियों के सामने शिष्ट
लेकिन रात के अंधेरे में
करता है उन्हीं लड़कियों का शिकार
बन जाता खूंखार कामुक

उसे अमर होना है
इतिहास में नाम दर्ज कराना है
हे नाथ क्षमा करना
वही करता है भ्रष्ट सब काम
उसके चेहरे पर कई चेहरों की पर्तें
जिनका जरूरत के मुताबिक
करता इस्तेमाल
यह देश उसे ही मानता है आजकल
सभ्य नागरिक
शिष्टजन
अध्यापक
वैज्ञानिक
राजनीतिज्ञ
समाजशास्त्री
भाषाविद
इत्यादि.....

मैं गुमनाम कवि एक ऐतिहासिक शहर का
खोजता हूं इतिहास में
उन तीन गांवों का नक्शा
जिसे मिलाकर बना था यह शहर
वह जमीन कहां है
जहां उगा था पहली बार इसका नाम

लोग जल्दी में हैं
सबको दर्ज करना है अपना-अपना इतिहास
मैं संकोची
एक जमाने पहले खेत बधार छोड़कर आया
लौटना चाहता हूं
उस समय में
जब सच कहना रिवाज था
झूठ की आंखों में घोंप दी जाती थीं सूईयां

चलिए माट साहेब
आप तो अमर हो गए
मेला ठेला सिंपोजियम सेमिनार कर के
हम लौटते हैं
अपने पुराने समय में
अपने सच के साथ

वह कौन इतिहास था
जो क्षमा नहीं करता था भीष्म को भी
अब तो नहीं रहा ऐतबार इतिहास पर भी
और कविता
कविता को क्या कहूं...

आप भी कहिए न.....।

[10]
एक कवि तलाश रहा जिंदा शब्द
जिंदा और साबुत
आदमी के अंदर लागातार धड़कते दिल की तरह
एक जिंदा शब्द
वह लिख रहा कविताएं
रंग रहा पोथियां
गा रहा गीत
बज रही तालियां

लेकिन शब्द वह जिसकी तलाश उसे
वह बहिष्कृत
निष्कासित सदियों हुए एक जंगल में
बन गया आदिवासी
मर रहा – वह
जिंदा हो रहा – वह
पेड़ों की तरह कट रहा
जल रहा खेत में पकी फसलों की तरह
सदियों – सदियों हुए

कोई इतिहास नहीं उसका
कोई भूगोल नहीं
राजनीति और समाजशास्त्र की बात भूल जाइए
नहीं उसका कोई अर्थशास्त्र भी

उसे खोजने के लिए घुसना होगा
अतीत की गहरी अंधेरी और संकरी गलियों में
यह बीड़ा कौन उठाएगा
किसे है अधिक परवाह उस शब्द की
कविता से ज्यादा
रंग से ज्यादा
पोथियो-तालियों से ज्यादा

देखो, गोलियां चलने लगी हैं
चैनलों पर लाशें दिखने लगी हैं
बहस करने लगा है वह लड़का
जिसे देश से ज्यादा अपनी नौकरी की चिंता

मरे हुए लोगों की जुटने लगी है भीड़
भाषण होने लगे हैं
टिप्पणियां रिकॉर्ड हो रही हैं
फुटेज कवर हो रहे हैं

उफ्फ...उफ्फ...उफ्फ... हाय....हाय...हाय....
कत्ल
दंगे
घोटाले
पार्टियां – उनके झण्डे
चुनाव – करोड़ों रूपए
वह कवि खड़ा है छतरी ओढ़े कतार में
उसके वोट का नंबर नहीं आया
उसके झोले में रखे सारे शब्द मर चुके
वह खड़ा है
वह जिंदा दिखता है
हालांकि वह मर चुका है पंद्रह-बीस साल पहले ही

1857 की क्रान्ति को एक शोकेस में सजाकर
धूप और अगरबत्ती दिखा रहे हैं कुछ लोग
बिरसा मुण्डा बिरसा मुण्डा
चिल्ला रहा है एक आदिवासी
एक लड़की लक्ष्मी बाई की तस्वीर
और झण्डा लेकर खड़ी है
पुरूषों की सदियों पुरानी परंपराओं के खिलाफ

मंच पर पता नहीं कितने समय से
चल रहा है यह दृश्य
यह नाटक रूकने का नाम ही नहीं लेता
जब कि इस देश को आजाद हुए
हो गया पैंसठ साल से ज्यादा





[11]



सोच रहा हूं मैं एक गुमनाम कवि


कहां गए वे निःश्वास जिनसे जन्म के समय का परिचय
दीवारों पर नाखूनों से खुरचकर बनाई गई वे परियां
नींद की एक पवित्र दुनिया में चलना जिनके साथ
और अतीत के पार से आतीं पूर्वजों की आदिम पुकार
जिनकी महत्ता इतनी कि मेरे मनुष्य के लिए उनका पीछा करना जरूरी

कितने तो शरीर जिनसे पुतलों की शक्ल में मिला
जैसे इतनी दूरियों ने मेरे शरीर से आत्मा जैसी किसी चीज का हत्या कर दी हो
कहां उन मंत्रों की परंपरा जिन्हें हमारे पूर्वजों ने ही अपने खून से गढ़े
और जिनके साथ की पोटली में
मुर्दा तक को जिंदा कर देने की जादुई क्षमताएं

एक घर है जिसमें मरा मैं हजार मरण
मेरी हत्या किसी तलवार चाकू या बंदूक से नहीं हुई
मेरी हत्या की उन किताबों ने जिसे इस देश के करोणों लोग पवित्र मानते रहे
इन पवित्र मंत्रों की आड़ में हुईं जितना हत्याएं
नहीं हुई किसा विदेशी आक्रमण में
जालियांवाला बाग में मरने वाले निर्दोषों की संख्या
नगण्य है इन मीठी हत्याओं के आगे

एक घर एक देश का करोणों घर है जो मेरी कलम की नोक पर आ बैठता है
और मुझे अपनी कविताओं पर आती है शर्म
कि मेरा एक भी शब्द उतना ताकतवर नहीं
कि एक किसान की आत्महत्या के पहले
अनाज में बदल जाए...।।


[12]


कविता से हीन इस समय में
शब्दों से हीन इस समय में
मूल्यों से हीन इस समय में
क्या कविता और दुख के साथ ही
रहना है हमें

एक लंबी कविता है यह देश
और दुखों का एक लंबा आख्यान यह लोकतंत्र

दवाइयां सब बेअसर
कविताएं सब बेमानी

फिर भी एक गुमनाम कवि मैं

अंततः
एक चौराहे पर खड़ा होकर
जोर-जोर से चिल्लाना चाहता हूं
देश
देश और लोकतंत्र
कि कविता कविता
और कविता... ।
**** 
·        ब्लॉग: http://bimleshtripathi.blogspot.com
·        Email: bimleshm2001@yahoo.com
·        Mobile: 09748800649





कुमार कृष्ण शर्मा की तीन कविताएं

$
0
0
कमल जीत चौधरीकी कविताओं के प्रकाशन के बाद अनुनाद को जम्‍मू-कश्‍मीर से कई कवियों की कविताएं मेल द्वारा मिल रही हैं। सभी को एकसाथ छाप पाना सम्‍भव नहीं है किन्‍तु मेरा प्रयत्‍न होगा कि धीरे-धीरे कुछ कविताएं अनुनाद पर लगाई जाएं ताकि अब तक एक कम सुने गए इलाक़े की आवाज़ हम तक निरन्‍तर पहुंचती रहे। इस क्रम में प्रस्‍तुत हैं कुमार कृष्ण शर्मा की तीन कविताएं।

जम्‍मू कश्‍मीर पर्यटन विभाग से साभार

मुझे आईडी कार्ड दिलाओ

शहर सुनसान है
हर तरफ पसरा सन्नाटा
शहर के मुख्य चौराहे पर घायल पड़ा व्यक्ति
दर्द से चिल्ला उठा
मुझे पहचानो
मेरी मदद करो...

क्यों मेरी कोई नहीं सुन रहा
अरे... 
मैं हूँ धरती का स्वर्ग
डोगरों का शौर्य
और लद्दाख का शांति स्वरूप

अब मुझे कोई नहीं पहचान रहा
मेरे ही घर में मांगा जा रहा है मेरा आईडी कार्ड। 

घायल
माथे का खून पोंछते हुए फिर चिल्लाया
अरे कोई तो युवा उमर को आवाज़ दो
उमर नहीं सुन रहे तो क्या
फ़ारूख़आज़ादमहबूबागिलानीमीर वाइज़कर्णखजूरियारिगजिनदुबे...
अनगिनित नाम है
किसी को तो बुलाओ
सन्देश पहुँचाओ
मेहरबानी करें
मुझ तक पहुंचाएं मेरी पहचान।

मैं बेबस हूँ
घायल हूँ
दिल्ली मेरा विश्वास नहीं करती
इस्लामाबाद सबूत मांगता है
यूएनओ मुझे देख सिर खुजलाता है।

तभी चौक का सन्नाटा टूटा
हाथ में पत्थर उठाए युवाओं की टोली
शांति को चीरते चिल्लाई
कौन पहचान की बात कर रहा है
मारो बचने न पाए
युवाओं के पीछे ख़ाकी वर्दी वाले भी लपके
तभी क्‍लाशनिकोव की गोली चली
घायल के सीने को चीरते हुए निकल गयी।

घरों में दुबकी शहर की भीड़
बाहर निकल चौराहे पर जमा हुई
युवाओं के साथ बन्दूक उठाए सिपाही भी बोला
कोई पहचानता है इसको
अगर नहीं तो इसका आई डी कार्ड देखो
कौन है यह
अरे...
इसके पास तो आईडी कार्ड है ही नहीं
पेंट छोडो कमीज़ की जेब देखो
नहीं है
पेंट की अंदर की जेब
अरे कुछ भी नहीं
तो यह बिना आई डी कार्ड के यहाँ क्या कर रहा था
इसको तो मरना ही था

बिना आई डी कार्ड के धरती के
इस टुकड़े पर कोई किसी को नहीं पहचानता
न दिल्ली
न इस्लामाबाद
न यू एन ओ
न मैं
न तुम।
***
    
मैं डरता हूं

वह
अंग्रेज़ी बोलता है
मैं नहीं डरता
अंग्रेज़ी कपड़े पहनता है
मैं नहीं डरता
अंग्रेज़ी खाता है, अंग्रेज़ी पीता है
मैं नहीं डरता

मैं डरता हूं
जब वह
हिंदी के हाथी पर
अंग्रेज़ी का 
महावत चाहता है।
***

चौराहा

ब्राह्मण प्रतिनिधि सभा की रैली
राजपूत सम्मेलन
दलित महासभा
महाजन समाज की कांफ्रेंस
मुस्लिम जमात की बैठक...
शहर का मुख्य चौराहा
इन सभी बैनरों से भरा पड़ा है।

इन्हीं बैनरों की छाँव तले
दूध-नींबू, तरबूज-चाकू
एक साथ बिक रहे हैं।
***


कुमार कृष्ण शर्मा
निवासी पुरखू (गड़ी मोड़)
पोस्ट आफिस- दोमाना
तहसील और जिला- जम्मू
जम्मू व कश्मीर 181206

मोबाइल: 0-94-191-84412 | 0-97-962-14406
ई-मेल : kumarbadyal@gmail.com | krishans@jmu.amarujala.com

जन्म पुरखु नामक गाँव में 12अगस्त 1974को हुआ। महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय अजमेर से बी.एस-सी. कृषि (आनर्स ) की पढाई पूरी की। सन 2008से ‌हिंदी में कविताएं लिखना शुरू किया। 2003से हिंदी दैनिक अमर उजाला जम्मू के साथ पत्रकार के तौर पर आज तक काम कर रहे हैं। भारत रत्न उस्‍ताद बिस्मिल्लाह ख़ान, पा‌किस्तानी ग़ज़ल गायिका फ़रीदा ख़ानम, संतूर वादक पंडित शिव कुमार शर्मा, डा. नामवर सिंह, ज्ञानपीठ प्राप्त  प्रो. रहमान राही आदि का साक्षात्कार किया। जम्मू कश्मीर के हिंदी कवियों की कविताओं पर आधारित किताब तवी जहाँ से गुजरती हैमें कविताएं शामिल। विभिन्न पत्रिकाओं में छपने के अलावा रेडियो, दूरदर्शन और जम्‍मू कश्मीर कला, संस्कृति और भाषा अकादमी की ओर से आयोजित कवि सम्मेलनों में भी शिरकत।

सुषमा नैथानी की छह कविताएं

$
0
0
सुषमा नैथानी की कविताएं लम्‍बे अंतराल के बाद अनुनाद पर आ रही हैं। वे उन कवियों में हैं, जिन्‍हें अनुनाद उपलब्धि की तरह देखता रहा है। एक वैज्ञानिक का हिन्‍दी कविता में आना मुझे अग्रज कवि लाल्‍टू की प्रिय याद दिलाता है। सुषमा कम लिखती हैं और अपने लिखे के प्रकाशन को लेकर भी ख़ासे संकोच में रहती हैं। यह संकोच उन्‍हें उस आत्‍मालोचन से मिला है, जिसकी इधर की कविता में कमी होती जा रही है।  उनका पहला संग्रह 'उड़ते हैं अबाबील'अंतिका प्रकाशन से छपा है, जिस पर मेरी समीक्षा यहांदेखी जा सकती है। 
   
1. कथा सिर्फ कहवैया की गुनने की सीमा 

लालसा के गर्भ से
पहले पहल जन्म लेगा विष ही
अमृत मंथन की संतान
अमृतघट का पता कहीं नहीं
हलाहल सबके भाग
खोजी के लिए जरूरी है कोशिश, काफी नहीं
बाहर निकलने से पहले
बाहर निकलने के बाद भी
फिर-फिर दौड़ते रहना
भीतर-भीतर
भीतर-बाहर
बाहर-भीतर
भटकन के लिए जरूरी है बाहरी भूगोल, पर्याप्त नहीं
कि पर्यटन अन्वेक्षण का पर्याय नहीं
प्रेम में आकुलाहट होगी
सदाशयता का खुलता दरवाजा
और विदा में हिलता हाथ भी
प्रेम में होना आत्महंता होना है
कि प्रायोजित समाज, साहित्य-कला
और तमाम झंझटों के बीचों-बीच
अब भी प्रायोजित किया जाना बाक़ी है -प्रेम
कि प्रेमी पिंजरे में रहते नहीं
अनहोनियों के जंगल में
वटवृक्ष की कतर-ब्यौंत होती नहीं


जीवन में उलट है पाठ्यक्रम
नहीं है सीधी नीतिकथा
धूसर स्मृति और उबड़खाबड़ जीवन के बीच
फिर एकबार
अंत के मुहाने बैठा आरम्भ
फिर एकबार
हरे की इच्छा से तर आत्मा का कैनवस
कल नया दिन होगा
नयी रोशनी होगी
कि काल की गति रुकती नहीं
कहानी कहीं ख़त्म होती नहीं
कथा कहवैया की गुनने की सीमा है
जीवन का महाआख्यान नहीं...
          ***

2. दिल्ली

भाषा ख़त्म होने को है
एक पूरी सभ्यता विदा लेने को
हास्‍य-विद्रूप सजे यथार्थ से संगत की
इस कीच
इस किचकिच में उतरने की
मेरी इच्छा नहीं
दिखे कहीं साँझी जमीन
तो कहें दोस्त!
कैफ़ियत में तकल्लुफ़ के सिरे नहीं
न तबीयत दानिशमंदी की कायल
जाने किस नक्षत्र से झरती
पलकों पर गिरती
नींद
अपना खज़ाना ख़्वाबों का    
ख़्वाबों में डोलती जिप्सी परछाईयाँ
इतनी रात गए दिल के द्वार पर दस्तक
अल्लसुबह तक छाती पर नेह की थपकियाँ
कैसी तो मुहब्बतें
किसकी मुराद
निमिष भर जादू
आने की पुख्ता वज़ह न थी
न लौट जाने की ही...
***

3. तुम रामकली, श्यामकली, परुली की बेटी

क्या पता तुम रामकली, श्यामकली
कि परुली की बेटी
तेरह या चौदह की
आयी असम से, झारखंड से
नेपाल या उत्तराखंड से
एजेंसी के मार्फ़त
बाकायदा करारनामा

अब लखनऊ, दिल्ली,
मुम्बई, कलकत्ता,
चेन्नई और बंगलूर
हर फैलते पसरते शहर के घरों के भीतर
दो सदी पुराना दक्षिण अफ्रीका
हैती, गयाना, मारिशस
फिजी, सिन्तिराम यहीं

बहुमंजिला इमारत के किसी फ्लेट के भीतर
कब उठती हो, कब सोती
क्या खाती, कहाँ सोती
कहाँ कपडे पसारती
कितने ओवरसियर घरभर
कभी आती है नींद सी नींद  
सचमुच कभी नींद आती

दिखते होंगे
हमउम्र बच्चे लिए सितार, गिटार
कम्पूटर, आइपेड पर टिपियाते
या दिखता
जूठी प्लेट में छूटा बर्गर-पित्ज़ा
सजधज के सामान
विक्टोरिया सीक्रेट के अंगवस्त्र
लगातार किटपिट चलती अजानी ज़बान के बीच
कहाँ  होती हो बेटी
किसी मंगल गृह पर
मलावी, त्रिनिदाद, गयाना में
तुम किसी  रामकली, श्यामकली, परुली की बेटी
किस जहाज़ पर सवार
इस सदी की जहाजी बेटी*

***
                 *जहाजी भाईयों की नक़ल पर 


4. गिरमिटिया

गिरमिटिया
कि तुम जहाँ हो वहीं रहो
अब, खारे पानी की मछरिया
एक सी बात अब
दोस्तों की चुप्पी
या अजनबी गुफ़्तगू
लौटगे तो आगे चलेंगी
काले  पानी की काली परछईयां
कि अब
ज़ब्त हुयी तुम्हारी ज़मीन
हुये तुम पंगत बाहर
घर से दर-ब-दर
गिरमिटिया
                 कि तुम जहाँ हो वहीं रहो ...
         ***

5. बहक
सुनहरी उकाब का पंख है
मिट्टी, बारिश, धूप के रंग है इसमें
खुशबू सुदूर की
पंख है पैना
पंख है टूटा
गीली मिट्टी में बो दूं?
कि लहलहाती  सुनहरी एक झाड़ उग आये
कि सचमुच ही उस पर बैठ कोई चिड़िया गाये...
          ***


6. पतझड़

          धूसर में झरते
          ये पतझड़ के पत्ते
          लाल-नारंगीपीले-भूरे,
          किसी बसंती इच्छा के फूल.....

          ***

रणजीत सरपाल की छह कविताएं

$
0
0
अनुनाद को कविताओं के प्रकाशन के लिए आनेवाले बिलकुल नए कवियों के मेल अकसर अपने साथ कुछ सार्थक चीज़ें लाते हैं। इस बार हमें चंडीगढ़ से रणजीत सरपाल की कविताएं मिली हैं। इनका रंग अलग है, अनगढ़पन और कच्‍चापन भी इनमें है ..लेकिन इनका बयां सही दिशा में जाता दीखता है। मेरे लिए रणजीत सरपाल का यह मेल ही उनसे प्रथम परिचय है। पंजाब विश्‍वविद्यालय के इंगलिश एंड कल्‍चरल स्‍टडीज़ विभाग के शोधकर्ता इस कवि की कविताओं का स्‍वागत है अनुनाद पर...इस उम्‍मीद के साथ कि उनके अगले क़दम अधिक सधे और विचारवान होंगे।  

1
बालकनीमें
गमलोमेंलगेपौधे
लगतेहैंकाफ्काकेकिसीउपन्यासकेकिरदार,
अस्तित्वहैभीऔरनहींभी
पत्तियोंकाज्यादाहराहोना
औरटहनियोंकागीलारहना
एकअजनबीउदासीहै ,
उलझनोंसेभरा
जैसेकिसीअदालतकीकचेहरीमेंखड़ाहो
औरयेभीपताहोकीगुनाहक्याहै,
काफ्काखुदयहाँआएतोबतायेइसको
इसकीकहानी,
हररोज़सुबहएकब्राह्मणधोताहैअपनेपाप
पौधोंमेंपानीडालकर,
येब्राह्मणकाफ्काकोनहींसमझता
हीइसेयेपताहै
येपौधोंकोसांसदेरहाहैयागुलामी
येवहीचौकीदार है
जिसका  जिक्र
काफ्कानेएकउपन्यासमेंकियाथा.
***  

2

होसकताहै 
तुझेबड़ाअजीबलगे,
मैंनेअपनेनाख़ूनबढ़ा लिएहैं 
वक्‍़तकोखुरेदनाचाहताहूँ 
तबतक 
जबतक 
येनज़रनाजाये 
तुमपहलेदिन 
कैसेदिखते  थे 
इतनाउलझगयाहूँतुझमेंऔर 
तुझसेसम्बंधितचीजोंमें 
कोईहिसाबनहींरहता 
बसइतनासायादहै 
जिसदिननमकीनचनेमिलेउसदिनसोमवारहोताहै ,
तुम्हारेजूठेचमचकापासपड़ेहोना 
तुम्हारापासबैठेहोनालगताहै 
*** 

3

तुमजूनकोदिसम्बरकहना 
मैंपतझड़कोसावन 
चलोआजमिलकर 
वक़्तकोधोखादेतेहैं 
***  

4

टीवीकेचैनलबदलतेबदलते 
कह दियाउसनेसबकुछ 
मैंनेजूतेपहने 
परन्तु वहीँ 
तसमेबाँधनेकाहक़खोदियाथा 
रास्तेभरमें 
दोबार ठंडीसाँसेंलीं 
दो-चारबार थूकाफुटपाथपे 
सीढ़ियांउतरते-उतरते 
मैंनेभीनिश्चयकरलिया 
रिक्शेवालेसेपूछाउसकीबीवीकाहाल 
लोकलअख़बारख़रीदा  
तीननिधनसूचनायें 
पढ़करमिलगयीसांत्वना 
रोज़गारवालापृष्ठखोला 
दो-चारगोलेलगाये 
कल केदिनकारोज़गारमिलगयाथा
*** 

5

दुनिया 
खुदहमेशाचीलकीआँख से
देखती आयी 
औरमुझे 
हमेशाकीड़ेकीआँखसेदेखनेको 
मजबूरकरती आयी 
पथरोंमेंबैठकर 
अबतकसाजिशें 
करती आयी 
अपनीचुप्पीसे 
लोगोसेमजदूरीकरवाईहैतुमने 
कितनी कायरहै 
कितनी डरी हुई 
आसमानकीऊँचाईयाँ  छोड़ 
मेरेबराबरआकरबातकर 
घरका इकलौताकिवाड़चूलसे 
उतरगया 
ज़रामेराहाथबँटा
फिरतेरीगलतीपे 
मैंभीतुझे  
दोचारगालियाँदेकरदेखूं 
तुझेआदमीकीतरहगुस्साआताहै 
यानहीं 
***  

6

दो-चारभाषण 
सामाजिकअसमानतापे 
देनेकेबाद 
बुद्धिजीवी 
घरकीतरफलौटाहै 
अपनीहोंडासिटीगाडीपे,
रास्तेभरबसयहीसोचताहै 
कोईभीउसकीतरहनहींसोचता ,
उसकीभड़ासनिकलतीहै 
गुब्बारेबेचनेवालेपे 
जोगुनाहकरलेताहै 
उससेपहलेसड़कपारकरनेका ,
घरआतेमालीकोबोलताहै 
वोखानेकीचीज़ेछुआ  करे ,
मालीनेउसकेसरकारीबगीचेमें 
फूलोंकेबीचछुपाकर 
एकआककापौधालगारखाहै 
जिसदिनमालिकऔकातकीबातकरताहै 
वोसबसेज्‍़यादापानी 
इसआककेपौधेकोडालताहै,
आककीजड़ोंमेंखड़ेपानीमें 
मालीकाबेटा 
उनभाषणवालेपन्नोंकीकश्तियाँबनाकेचलाताहै
*** 

रणजीतसरपालशोधकर्ता -इंग्लिशएंडकल्चरलस्टडीज 
पंजाबयूनिवर्सिटी 
चंडीगढ़

लमही वतन है: व्योमेश शुक्ल

$
0
0



प्रेमचंद की याद में व्‍योमेश शुक्‍ल का यह लेख प्रतिलिपि से साभार

लमही वतन है। दूसरी जगहें गाँव घर मुहल्ला गली शहर या जन्मस्थल होती हैं, लमही वतन हो जाती है और लेखक को अपने वतन लौटते रहना चाहिये। लेखक को दूसरे लेखकों के वतन भी लौटना चाहिए। जाँच-परख या टीका-टिप्पणी करने नहीं, रहने के लिए। जितनी देर तक वहाँ ठहरिये, रह जाइये। वतन जाकर रहने से कम कोई काम क्या करना ?

लेकिन किसी लेखक के पैदा होने या रहने लगने से कोई जगह वतन नहीं हो जाती। चतुर्दिक फैले हुए कर्म और मानवीय सम्बन्ध उसे वतन बनाते हैं। माला में मोती पिरोने, अनवरत खाँसने और किसी कम ज़रूरी काम में लगे रहने से, आधी रात में जागकर ट्यूबवेल चलाने और ग्राम प्रधान के देर रात तक सुरा और संभोग में व्यस्त रहने जैसी अनन्त वजहों से कोई जगह वतन बन जाती है। ऐसी ही वजहों से कोई गाँव लेखक का गाँव बन जाता है, कोई जगह वतन बन आती है और प्राइमरी स्कूल का एक मुदर्रिस उपन्यास-सम्राट बन जाता है।

जबकि हमारे यहाँ वजहों को भूलकर या कुछ नकली किताबी वजहें खोजकर लोगों को और चीज़ों को समझने-समझाने की कोशिश की जाती है। ये कोशिशें दूर से गुज़र जाती हैं और असर पैदा नहीं कर पातीं। कई बार ये वस्तुस्थिति को बीमार बनाने का काम करती हैं। ये नई समस्याएँ पैदा कर देती हैं। लमही उदाहरण है। यहाँ मुंशी प्रेमचन्द के अमरत्व को उनके रोज़मर्रा मरण से अलग कर दिया गया है। कुछ सरकारी और अकादमिक क़िस्म के विभाग बन गये हैं जहाँ एक विभाग में प्रेमचंद सुबह पैदा होकर शाम को मर जाते हैं और पड़ोस के विभाग में वह 1936 से आज तक एक नुमाइशी ज़िन्दगी जी रहे हैं। लमही में प्रेमचन्द के जन्म, जीवनयापन और महानता को वहाँ के लोगों के जीवन-संघर्ष से अलग किसी संसार की तरह बसाने के प्रयत्न अब तक होते आये हैं और राजनीतिक पैंतरेबाज़ी ने रचनाकार को स्थानीय आत्मसम्मान का मुद्दा नहीं बनने दिया है। यह बात हमेशा कही जानी चाहिए कि किसी स्थान के साथ लेखक के संबंधों की पद्धतियाँ तय करना सत्ताओं के बस की बात नहीं है। ये संबंध वृहत्तर जनता की कोख़ से निकलते हैं और वहीं से नियमित होते हैं। इसलिए, आदर्श स्थिति तो यही है कि कोई कमबख्त, लेखक और जनता के बीच में न आए।

अब तक की बातों से साफ़ हो गया होगा कि सत्ता के विभिन्न संस्करणों में लमही का ‘उद्धार’ कर डालने की कितनी होड़ रही है। बीते साठ सालों से लगातार चलती इस प्रतियोगिता में भाग लेने वाली चार प्रमुख टीमें इस प्रकार हैं – १. केन्द्र सरकार, २. राज्य सरकार, ३. नागरी प्रचारिणी सभा और ४. प्रगतिशील लेखक संघ। इन टीमों ने वहाँ प्रतियोगिता के सभी क़ायदों का जुलूस निकाल दिया है और श्रेय लेने की जगहें लगातार ढूँढती रही हैं। प्रेमचन्द के वंशजों ने पैतृक सम्पत्ति सरकार को दान देकर ख़ुद को दौड़ से बाहर कर लिया है। वे कभी-कभार अतिथि की तरह वहाँ पधारते हैं और उनमें से आलोक राय और सारा राय जैसी छवियाँ गाँव के धूलपसीनामग्न माहौल में ख़ासी सिनेमाई लगती हैं। नागरी प्रचारिणी सभा का संगठन जर्जर और मृतप्राय होकर किनारे लग गया है और सिर्फ़ 31 जुलाई को होने वाले वार्षिक कर्मकांड में हिस्सा लेने योग्य बचा है। उसने प्रेमचन्द के मक़ान के ठीक सामने अपने छोटे से किन्तु ऐतिहासिक महत्व के ‘कंपाउंड’ को ज़िले के प्रशासन को दान में दे दिया। यह छोटी सुंदर संपदा ‘सभा’ को अरसा पहले प्रेमचन्द के परिवार द्वारा ही दान में मिली थी। दान में मिली वस्तु को दान कर डालने की यह अद्भुत घटना, ऐसा लगता है, कि बनारस की ही किसी संस्था द्वारा अंजाम दी जा सकती थी जहाँ शायद दान के कोई पारलौकिक आशय नहीं बचे हैं। बहरहाल, इसी परिसर में पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने मुंशी प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास किया था और शिलान्यास का शिलापट्ट यहाँ से गायब है। स्थानीय मीडिया के लिए यह बात लमही के दुर्भाग्य की स्थायी ख़बर है। बनारस रहकर जवान होते हुए इस बात को प्रतिवर्ष कम से कम दो बार अखबारों में पढ़कर मनहूस हुआ जा सकता है। उसी परिसर में लगी प्रेमचन्द की पत्थर की मूर्ति की आँखें या तो टूट-फूट गई हैं या गाँव के शरारती बच्चों ने निकाल ली हैं। यह दृश्य न्यूज़ चैनल्स के काम का है। दृश्य की विकृति देखने-दिखाने वालों के लिए है। चार साल पहले 31 जुलाई के आसपास लमही में घूमते हुए इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि ‘स्टार न्यूज’ के उत्साही फोटोग्राफर दौड़-दौड़कर गाँव के भीतर से कपड़े धोते बच्चों को मूर्त्ति के करीब ला रहे हैं और उनसे वहीं बैठाकर कपड़ा धुलवा रहे हैं।.कमाल का दृश्य था। बग़ैर साफ़ पानी के, सिर्फ़ साबुन के झाग से कपड़ा धुल रहा था क्योंकि बच्चे पानी की बाल्टी लेकर नहीं आए थे। वाशिंग पाउडर निर्माता कंपनियों को तत्काल स्टार न्यूज से सम्पर्क करना चाहिए।

फ़िलहाल सरकार की सरपरस्ती में यह छोटा-सा परिसर पहले से अच्छी हालत में है। दीवारों से लगी व्यवस्थित हरियाली और प्रेमचन्द की कहानियों, जीवन-प्रसंगों और दूसरे रचनाकारों के प्रसिद्ध वाक्यों पर आधारित पोस्टर्स हमें भटका देते हैं। हमारा ध्यान बदनसीबी से हट जाता है। इस परिसर का रखरखाव निहायत स्वयंभू तरीके से प्रेमचंद-साहित्य के एक स्थानीय मुरीद  ‘दूबे जी’ कर रहे हैं। वे पड़ोस के गाँव से साइकिल चलाकर रोज़ सुबह-शाम लमही आते हैं, पेड़-पौधों की सेवा करते हैं, प्रतिमा और चबूतरे को पानी से धोते हैं। परिसर में स्थित दो कमरों और लम्बे बरामदे को उन्होंने प्रेमचन्द की किताबों, प्रेमचन्द के बारे में लिखी गई किताबों, डाक टिकटों और प्रेमचंद के कथासाहित्य की नुमाइंदगी करने वाली अमर वस्तुओं – चिमटा, चरखा, हुक्का, गिल्ली-डंडा आदि से सजा दिया है। उन्होंने बताया कि ये पुस्तकें आस-पास के गाँवों के बच्चों और अन्य लोगों को पढ़ने के लिए दी जाती हैं । इन्हीं में से एक कमरे में उन्होंने अपना एक दफ्तर जमा लिया है और वहाँ कुर्सी-मेज पर बैठकर वह कुछ और आत्मविश्वास के साथ प्रेमचंद के बारे में पिटी-पिटायी बातें करते हैं, हालांकि उनकी इस निःस्वार्थ और गैरकानूनी कोशिश में सेवा और कर्त्तव्य के असली तत्वों की झलक है। उनसे मिलकर ऐसा लगता है कि एक दिन नागरिक किसी न किसी तरीके से सरकार को पीछे करके सुधार के काम अपने हाथ में ले लेगा – अपनी सारी सीमाओं और सरकार की सारी शक्तियों के बावजूद। ऐसे व्यक्ति लमही, गढ़ाकोला और अगोना (बस्ती) जैसी जगहों में पहली-पहली बार दिखना शुरू हुए हैं। यह सुखद अभिनव विकास है। तंग आकर जनता कुछ ऐसे ही हिस्सेदारी करने लगती है।

प्रेमचन्द के पुश्तैनी मकान को राज्य सरकार ने पर्याप्त पैसा खर्च करके नया बना दिया है; उसके मूल रूप को यथावत रखने की विफल और सतही कोशिश भी इस निर्णय में हुई है। लेकिन इतना तय है कि दुर्दशा पर सालाना आँसू बहाने वाले लोग अचानक बेरोजगार हो गये हैं, कि अब किस बात पर अफसोस किया जाय। बड़े मकान की सुरक्षा और रखरखाव का स्थाई इन्तजाम नहीं है और स्वयंसेवी ग्रामवासी सोत्साह ‘गाइड’ की भूमिका निभाने लगते हैं। खिड़कियों से धूल और उजाला लगातार भीतर आता रहता है। दरवाजे भी हमेशा हर किसी के लिए खुले हैं। मधुमक्खी के बड़े-बड़े छत्ते हैं और सफेद दीवारों पर आशिकों और दिलजलों ने अपने नाम और मोबाइल नम्बर खून के रंग में लिख डाले हैं। पूरे मकान में बिजली की वायरिंग की गई है लेकिन बल्ब और पंखों वगैरह का कहीं पता नहीं है।

गाँव में – हालाँकि लमही को गाँव मानना मुश्किल है; वह बनारस का एक बिगड़ा हुआ मुहल्ला .ज्यादा लगता है – मुख्य रूप से तीन जातियाँ हैं – गोड़, कुनबी और कायस्थ। प्रायः सभी कायस्थ खुद को प्रेमचन्द का दूर या नजदीक का रिश्तेदार बताते हैं। समृद्धि और भोग के मामलों में पटेल (कुनबी) समुदाय के लोगों ने सबको पीछे छोड़ दिया है। वे दरअसल प्रदेश की सबसे ताकतवर जातियों में से एक हैं। प्रेमचन्द के मकान के ठीक बाहर एक शिव मंदिर है। उसके निर्माण की दास्तान तथाकथित रूप से 150 साल और वास्तव में 5 साल में फैली हुई है। लगभग 5 साल पहले 31 जुलाई के आसपास वहाँ एक शिवलिंग खुले में रखा हुआ था। एक साल बाद वहाँ पहुँचने पर इन पंक्तियों के लेखक ने देखा कि वहां दरो-दीवार का इंतजाम हो गया था। दीवार पर मोटे-मोटे हर्फों में लिखा हुआ था  – ‘ 150 साल पुराना मंदिर – प्रेमचंदेश्वर महादेव।’ एक शराबी ने झूमते हुए बताया कि यह महान मंदिर मुंशी प्रेमचन्द द्वारा स्थापित है। हमने शराबी से नाम पूछा तो उसने कहा कि ‘प्रेमचंद’। हालाँकि इस बीच वहाँ जाने पर देखा गया है कि ‘प्रेमचंदेश्वर महादेव’ के ऊपर पुताई करा दी गयी है और लिख दिया गया है – ‘बाबा भोलेनाथ मंदिर, लमही’,  और कम से कम दर्जन भर शिवलिंग और स्थापित कर दिये गये हैं।

प्रेमचंद और शिवरानी देवी के प्रकाशन-समूहों में काम कर चुके कुल दो बुजुर्ग अभी जीवित हैं। दोनों सज्जन मृत्युशय्या पर हैं। पत्रिका आदि के लोकार्पण के लिए ये दो लोग उपयुक्त सर्वहारा मुख्य अतिथि और अध्यक्ष रहे हैं। हालाँकि दोनों को काफी ऊँचा सुनाई देता है और याद रखने लायक सभी बाते ये बहुत पहले भूल चुके हैं। उनके चेहरों और जीर्ण जीवन को कोशिश करके बिकाऊ बनाया गया है. लेकिन खरीदने वाली ताक़तें आशंकाओं से ज़्यादा चंचल और कंजूस साबित हुई हैं.

लेकिन अंदरूनी तब्दीलियाँ बेसंभाल ढंग से घटित हो रही हैं. समझदार लोग अंदाज़ा नहीं लगा पा रहे हैं या उलझना नहीं चाहते, इसलिए के सूत्र कम से कम उपलब्ध हैं. दरअसल नेतृत्व बदल गया है. इसे ३१ जुलाई को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है, लेकिन शायद उस दिन लोग उत्सव में गाफ़िल रहते होंगे. आयोजन की सूची बड़े ज़ोरदार ढंग से घोर साहित्येतर लोगों के हाथ में जा रही हैं, बल्कि चली गई हैं, ये लोग राजनीति या समाज के दूसरे मंचों के उजले लोग नहीं, दिलजले हैं – चिढ़े हुए, शोर्ट टेम्पर्ड और अत्यन्त निराशावादी. लेकिन यह तय है कि ये अपना, प्रेमचंद और लमही का सबसे बड़ा दुश्मन वहाँ आकर भाषण देने वालों को मानते हैं. बीती ३१ जुलाई को इन्होने पर्याप्त सांस्कृतिक उपद्रव किया. वहाँ इस बार प्रगतिशील परंपरा के घुटे हुए भाषणबाज़  वहाँ किनारे कर दिए गए थे और उत्तर भारत के बड़े बिरहा गायक मंच की शोभा बढ़ा रहे थे. दसियों हज़ार लोगों की भीड़ के सामने शहरी साहित्यकारों की हवा गुम होने को थी. बग़ल के एक विद्यालय में भंडारा चल रहा था, यहाँ अज्ञात लोग इंतज़ाम में लगे हुए थे और लेखकनुमा लोगों को आदर सहित बुलाकर बाटी-चोखा खिला रहे थे. मेरे ख़याल से यह निरादर की हद है और अकर्मण्यता का सच्चा पारिश्रमिक. अब लेखक मेहमान हैं या दामाद हैं व्यापक समाज के.

१०

बनारस की ख़ास अपनी दिक्क़तें अलग भूमिकाएं निभाती रहती हैं. विराट अतीत प्रायः विपत्ति है. अकेले प्रेमचंद ही शोभा नहीं हैं, प्रसाद हैं, भारतेंदु हैं, और पीछे जाइए तो कबीर, तुलसी, रैदास, रामानंद. नागरी प्रचारिणी, शुक्ल और द्विवेदी; हिंदी विभागों की अपनी ऐतिहासिकता को छोड़कर भागना आसान नहीं है. आधुनिक काल के अपने संकट हैं. सबके प्रति आभारी होना, या दिखना हिंदी वाले का कर्तव्य है. धूमिल , त्रिलोचन, गिन्सबर्ग, शिवप्रसाद सिंह – सबके अपने-अपने प्रकोष्ठ हैं. पार पाना आसान नहीं, गंगा एक आग का दरिया है और उसमें सिर्फ़ डूबके नहीं, मर के जाना है, तभी मुक्ति है. इसलिए अभिनवता के मोर्चे कभी खुल ही नहीं पाते और रचनाकार स्वप्न देखता रह जाता है.
मसलन कवि अपनी कविता में लिखता है:
छोटे से आँगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है बरगद छतनार
मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूं? (केदारनाथ सिंह)

११

कभी-कभी लगता है, हम काम के भीतर से राह निकलना भूल गए हैं. हम विचारमग्न या चिंतित होना चाहते लोग हो गए और हमें पता ही नहीं चला. यह हार थी. कुछ संकल्प होते ही ऐसे हैं कि उन्हें बैठकर दिमागी ताक़त से साधा नहीं जा सकता. लेकिन कौन याद दिलाये किसे? ऐसे मुद्दों पर हमारा शरीर सोचता है, वह आवाहन करता है दिमाग़ का, तब तानाशाही चलना बंद होती है, लेकिन ऐसा कभी-कभी होता है.

१२

प्रेमचंद की कहानी सिर्फ़ गाँव की कहानी नहीं है, वह शहर में भी फ़ैली हुई है, उनसे जुडी हुई चीज़ों और जगहों को सँभालने और पहचानने का काम शर्म और आलस्य से भर गया है. उनकी ग़रीबी को मिथक के वज़न पर प्रचारित किया गया, जबकि यह अकाट्य है कि एकाध मौक़ों को छोड़कर प्रेमचंद ज़िन्दगी में कभी विपन्न नहीं रहे. पता नहीं इस झूठ से किसी को क्या फ़ायदा हुआ होगा, लेकिन यह चेतना के बालीवुड़ीकरण का प्राचीन प्रमाण है. ऐसे लोग अभी जीवित और सक्रिय हैं मसलन जिनके मक़ान में रहकर प्रेमचंद ने निर्मला की रचना की थी, उनका वह कमरा अभी भी वैसा ही है. उन्होंने अपने पिता के हवाले से लगभग शर्माते हुए बताया कि मुंशी जी समय से किराया नहीं देते थे और इस मुद्दे पर झक-झक होती रहती थी. बनारस में जिस जगह उनका निधन हुआ वहाँ एक शिलापट्ट तक नहीं है।

इस बस्ती का नाम मुआनजोदड़ो नहीं था -अशोक कुमार पांडेय की नई कविता

$
0
0

साथी कवि अशोक कुमार पांडेय ने अपने पहले संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' के बाद कहन का रूप कुछ बदला है। उसकी कविता में वैचारिक बहस की दिशा और स्‍पष्‍ट हुई है साथ ही उसके अनुभव संसार में मनुष्‍य-जीवन और उसकी बेहतरी के संघर्षों के कठिन-कठोर दृश्‍य अधिक ठोस उपस्थिति के साथ सम्‍भव हो रहे हैं। उसकी भाषा में कड़वाहट बढ़ी है जो दरअसल वैचारिक अनुभवों के गझिन और प्रतिरोध के स्‍वर के सान्‍द्र होते जाने का परिचायक है। वह बेहद जुझारू कवि साबित हुआ है इधर की हिन्‍दी कविता में। इस बीच वह लगातार अपने आप से जूझा है और आजू-बाजू सड़ रहे अपने अवसरवादी मध्‍य-उच्‍चमध्‍यवर्गीय लालची संसार से भी ... पूंजीवादी-सामन्‍ती अनाचारी शक्तियों से हो रही अधिक बड़ी लड़ाई में उसने निजी और सामाजिक आत्‍मालोचन की ये दो अनिवार्य दिशाएं अब अपने लिए बख़ूबी तय कर ली हैं। यहां प्रस्‍तुत अशोक की नई कविता इन्‍हीं कुछ ज़रूरी मोर्चों पर सम्‍भव हुई है और मैं इसे बहुत यक़ीन से देख रहा हूं।
*** 

वहां अमराइयों की छाया में बैठी एक चिड़चिड़ी कुतिया थी
अमिया चूसती एक लड़की फ्राक के फटे हुए झालर से नाक पोछती
उधड़ी बधिया वाली खटिया पर ऊँघता बूढ़ा न मालिक लगता था न रखवाला
कुंएं में झाँकती औरत पता नहीं पानी के बारे में सोच रही थी या आत्महत्या के

अधेड़ डाकिया था खिचड़ी बालों और घिसी वर्दी से भी अधिक घिसी साइकल पर सवार
स्कूल के चबूतरे पर बैठी चिट्ठियाँ बांचती मास्टरनी लौटती बस के इंतज़ार में
चिट्ठियों में बम्बई-कलकत्ता-ग्वालियर-भोपाल की बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध भरी थी
मनीआर्डर के नोटों पर पसीने से अधिक टीबी के उगले खून की बास
बादलों से खाली आसमान और चूल्हों से जूझती आग़

दोपहर का कोई वक़्त था जून का महीना प्यास से बेचैन गले और पानी मांगने की हिम्मत जुटाने में सूखते ओठ

न नौकर था उस वक़्त मैं न मालिक न बाहरी न गाँव का
सवाल पूछते शर्म से थरथराती जबान दर्ज करती कलम की तरह
कितनी ज़मीन थी क्या-क्या बोया उसमें काटा क्या-क्या क्या कीमत घर की कितने जेवर जानवर कितने?
सवाल थे सरकार के और जवाब बिखरे हुए पूरे गाँव में सन्नाटे की तरह
उम्मीद मेरे आश्वासनों से निकल थककर बैठ जाती प्यास से बेहाल उनके बिवाइयों भरे पैरों के पास
शब्द वहां बौने हो जाते हैं जहाँ छायाएं पसरने लगती हैं मृत्यु की.

दीवारों पर चमत्कारी महात्माओं के पोस्टर थे जो वही सबसे चमकदार उस इंसानी बस्ती में
चमकते दांतों वाला एक विज्ञापन अश्लील उस मरती हुई सभ्यता के बीच
फीके पड चुके चुनावी पोस्टर उनमें लिखे सपनीले शब्दों जैसे ही
मुझे अचानक लगा कि कितने पोस्टर होने चाहिए थे यहाँ गुमशुदा लोगों के
जहाँ इबारतें लिखीं सरकारी योजनाओं की वहां लिखे होने चाहिए थे उन लड़कों के नाम
जो बारह साल बाद अब बूढ़े हो चुके होंगे दिल्ली की किसी गली में

उम्मीद का एक गीत, सपनों का एक पता तो होना ही था वहाँ
जहाँ कुछ नहीं बचा सूखी धरती, खाली चूल्हों, मुन्तजिर औरतों, उदास बच्चों और मृत्यु से हारे बूढों के अलावा 
एक पोस्टर तुम्हारा भी तो होना था यहाँ कामरेड!
***

अनुभव की प्रयोगशाला में आवाजाही का कवि : पवन करण -महेश कटारे

$
0
0
फेसबुक पर आज संयोगवश अग्रज कवि पवन करण की दीवाल पर प्रख्‍यात कथाकार महेश कटारे का यह चकित कर देने वाला समीक्षा लेख मिला। कटारे जी ने किस तल्‍लीनता और प्रवाह के साथ पवन करण की कविता पर लिखा, यह अनुभव करने वाली चीज़ है। इसे यहां साझा करते हुए बहुत प्रसन्‍नता हो रही है। 
***
सो उनके कहने की कड़ी पूछ परख लाजिमी है।


कुछ दूर से ही सही, मैं पवन करण की रचना यात्रा का साक्षी रहा हूँ। निम्न मध्यवर्गीय परिवार और सचमुच ही पिछड़ी जाति में जन्मे इस कवि को न वंश परंपरा के साहित्य संस्कार मिले, न वह गुरू परंपरा ही नसीब हुर्इ जिसका उल्लेख हो सके । इसलिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता का पाठ जीवन की पाठशाला से सीखा। 

अपने पहले काव्य संग्रह 'इस तरह मैं' से ही इन्हें एक संभावनाशील कवि के तौर पर पहचाना जाने लगा था क्योंकि वहाँ कुम्हार के आँवा से निकले घड़े की तरह आँच सोखकर, भीतर तलहटी में स्मृतियों की राख चिपकाए, अनपढ़ मुँह के बाहर आती बोली के झिझकते शब्दों में, अभाव का उत्सव खेलते जीवन के दृश्य का दिखार्इ दिये थे। उन दृश्यों में कुछ कविताओं के सहारे झाकते हुए पवन करण के रचना संसार को टोहना शायद अधिक उपयुक्त होगा। जैसे एक कविता है सांझी सांझी कच्चे घरों की दीवार पर गोबर से बनार्इ जाती है और गाँव की लड़कियाँ इसे कुंआर के महीने में चढती शरदऋतु के बीच खेलती हैं। 'साझी' लोक जीवन के सृजन उल्लास की कलात्मक अभिव्यकित ही नहीं, सामूहिक साझेदारी का प्रशिक्षण भी है। उसका एक अंश है - 

देखें कि इन्होंने जो गोबर से। साँझी की आँखें बनार्इ हैं।
उन आँखों में कितने सपने भरे हैं।
कितने गुलाबी हैं। गोबर से बनी साँझी के होंठ।
गोबर से बनी बिंदिया कैसी चमक रही है । 
कितनी खुशबूदार है। गोबर के फूलों की माला ।
कितना लकदक है गोबर का पेड़ ।
गोबर की चिडि़या भर रही है उडान कितनी ऊँची ।
कि कितने मीठे हैं। साँझी की देह पर जड़े 
मिटटी के बताशे।

लगता है जैसे लडकियों के हाथों में प्रकृति की प्राणवत्ता आ बैठी हो - रूप, रस, गंध, स्पर्श के सपनों को आकार देने। इसी क्रम में कुछ और कविताओं के अंश है जो कवि के प्रस्थान और अस्थान के अनुमान में सहायक है। चूल्हा कविता से पंक्तियां है- 

इसकी आग में मैं अपना इतिहास बाचता हू ।
लोग इसे सिर्फ चूल्हा समझते हैं । 
मेरी नजरों में इसकी तौल पुरखे के बराबर है।
इसकी राख में मुझे अपनी भूख दबी मिलती है।

इस तरह मैं एक प्रकार से वह पालना है जिसमें कवि पवन करण के पाँव दिख जाते हैं। गोकि अब पाँवों का उतना महत्व नहीं रहा। तकनालोजी ओर मैनेजमेन्ट के प्रशिक्षण ने पाँव तो क्या, बहुत जगहों पर आदमी को ही हाशिये पर सरका दिया है। पर मैं एक कविता की कुछ पंकितयाँ भी रखना चाहता हूँ – 

उस अकेली वीरान औरत के पास जिसे हम बूढ़ी माँ कहकर बुलाते हैं । 
एक एलबम है। (जिसे) रखती है वह संदूक में सँभाल कर।
मगर जब भी एलबम खुलती है
खुलती है वह निर्जन औरत। खुलता है उसका भयावह सूनापन।
उस औरत का दिल सीने में नहीं संदूक में बंद एलबम में धड़कता है। 
('एलबम कविता से )

इस आरंभिक संग्रह की 'पिता कविता से बस कुछ पंकितयाँ और ......................

माँ की उदासी पिता का पतझड़ हँसी ................. वसंत।
पिता भले हीन कहते हों। 
साग रोटी में अब वो स्वाद। नहीं आता उन्हें।
जब माँ थी। तब, पिता बहार की तरह थे। 

ऐसी ही अनेक कविताएँ पहले संग्रह से पाठकों तक पहुँची और इस बात की गवाह बनीं कि सामाजिक और सिथतिगत दवाबों के बीच छटपटाती अभिव्यकित जब विफलता के मौन की उँगली पकड़ती है तब उसे आश्‍वस्त करने का माध्यम बनती है कविता। 

इनका दूसरा काव्य संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर बहुत चर्चित हुआ। इसकी एक विशेषता तो यह थी कि यहाँ सदाशयी संकोच व औपचारिकता से आगे बढ़कर अपने भीतर को खखोलते, खँगारते हुए बहन, बेटी, पत्नी, माँ और सहकर्मी जैसे विविध स्त्री रूपों को परंपरा की सीप में बंद समाज से अलग हटकर स्त्री विमर्श के नये, बेबाक कोण से समझने की कोशिश की गर्इ। कुछ इस तरह –

वह जो मेरे भीतर बैठी हैं, मुँह सिए चुपचाप। किसी दृष्य के लिए मानते हुए
जिम्मेदार मुझेहोते हुए देखना चाहती है मेरे साथ संगसार।
किसी घटना के लिए थूकना चाहती है मेरे मुँह पर। 
किसी अन्याय के लिए चढ़ा देना चाहती है मुझे वह फाँसी।

अर्थात यह कुछ कहने से पहले कुछ कर डालने वाली चाह की स्त्री है। यह स्त्री घर की दहलीज लाँघकर कालेज होती हुर्इ किसी आफिस की कुर्सी तक भले पहुँच गर्इ हो किन्तु सूरज की डूबती किरणों से पहले उसे देहरी के भीतर पहुँच जाना होता है। घर से मिली छूट के साथ कोर्इ भय भी लगातार उसके पीछे-पीछे चलता रहता है। इसलिए कि तरुणार्इ की सीढ़ी पर पहला पाँव रखते ही लड़की स्त्री दिखने लगती है। एक खूबसूरत बेटी का पिता कविता में अपेक्षाकृत आधुनिकता का हामी पिता भी अपने भय से मुक्त नहीं हो पाता-

दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह मेरा भय भी यही है कि
मैं एक खूबसूरत बेटी का पिता हूँ। और ..............
मेरी बेटी की खूबसूरत चुभती हुर्इ है।

आशय यही कि पवित्र वर्जनाओं की मानसिक सुरक्षा में जीते हुए, उन्हें फलांगने की कामना रखती लड़की या स्त्री को अभी भी किसी उदार आर्शीवाद की अपेक्षा है। मध्य-वर्गीय भद्रलोक की वर्जनाओं से भिड़ंत की धमक वाली ये कविताएँ पाठक के संवेदनतंत्र में कुछ अलग ही प्रकार से हलचल पैदा करती हैं। क्योंकि भारतीय समाज अभी दैहिक स्वाद के लिए जिज्ञासु बेटी, उस स्वाद की स्मृतियों के पृष्ठ उलटती पलटती अधेड़ विधवा, प्यार करती हुर्इ माँ को अपने संस्कारों के बीच जगह नहीं दे पाया है। प्यार करती हुर्इ माँ,बहन का प्रेमी जैसी कविताएँ वर्जनाओं को लाँघकर अपनी देह के स्वीकार की सामाजिक रहनुमार्इ का हिस्सा बन जाती हैं। कवि जरूरत के ऐसे सुख का अधिकार माँ, बेटी, बहन को ही नहीं पत्नी को भी देने का पक्षधर है। 

इस तरह 'स्त्री मेरे भीतरकी कविताएं भद्रलोक के काव्य वितान में छेद करते हुए प्रेम और देह के बीच खड़ी की गर्इ झीनी, रोमांटिक चादर को किनारे सरकाती हैं। पवन करण के कहने की कला भाषा के सहज संबोधन में निहित है जिसके कारण पाठक चालाक शब्दों और उनकी चमक में चौंधियाने से बचता है जो भाषा हनन में बड़ार्इ मानकर कविता के परदेशी शिल्प सजाते हैं। विश्वसनीयता की आश्वसित ही 'प्यार में डूबी माँ कविता की ये पंक्तियाँ लिखवाती है - 

इन दिनों उसे देखकर लगता ही नहीं। कि यह औरत तुम्हारी विधवा है ।
इन दिनों मे उसे प्रेम करते ही नहीं। 
अपने प्रेम को छिपाते और बचाते भी देख रही हूँ।

यह छिपाना और बचाना एक स्त्री का अपनी पहले की उम्र में लौटकर नया हो जाना भी है।

'अस्पताल के बाहर टेलीफोनपवन करण का तीसरा काव्य सग्रंह है। यहाँ पहुँचते हुए रचनाकार की नाप, परख भी होने लगती है कि कवि आगे बढ़ा है या वस्तु और प्रविधि मे एक जगह खड़े होकर कदमताल कर रहा है? संग्रह की शीर्षक कविता को ही लें तो हम पाते हैं कि उसमें एक कथा है - गाँव के आदमी का बेटा अस्पताल मर गया है। इस मरने की अनेक अंर्तकथाएं संभव हैं जैसे दवा के अभाव में मरा, डाक्टरों की लापरवाही से मरा, अपनी हताशा में आत्मवध चुना या और भी कुछ .............। पर एक बात उभरकर आती है कि अस्पताल की व्यवस्था ठीक नहीं हैं। इसमें बदलाव होना चाहिए। बीमारी का सही निदान हो। लोग जीवन की खुशी के साथ घर लौटें।
 
गो कि यह टेलीफोन एक सूचना का सार्वजनिक माध्यम है किन्तु इसका लाभ सीमित लोग ही उठाते हैं। दायरे से दूर का आदमी इस माध्यम से उम्मीद भले ही पाल ले पर वह पूरी नहीं होगी। इस प्रकार यह कविता एक मार्मिक प्रसंग के जरिये विकास की विडंबना का चेहरा बना देती है। 'पिता की आँख में परार्इ औरत 'कभी रहा है प्रेम तो अब भी होगा या मुझ नातवां के बारे में पाँच प्रेम कविताएँ भी हमें पहले से अलग नजरिये के साथ मिलती हैं। बाजार नाम की कविता में वह 
कहते हैं - 

वह प्रभावशाली ढंग से बजाता है हमारे दरवाजे की घंटी
हम उसकी गोरी चमड़ी के प्रकाश में
इस तरह डूब जाते हैं कि उससे पूछ ही नहीं पाते वजह
और चला आता है घर के भीतर

इस तरह अनायास और अदत्त अधिकार के बावजूद सिर्फ अपने आने की सूचना का संकेत भर देकर बाजार हमारे घर में बैठ घर की आवश्यकताएँ तय करने लगता है हमारा रहन सहन, हमारी जीवन पद्धति को निर्वासित करते हुए आलस, अनुत्पादकता और चौंध मारती लालसा को स्थापित कर देता है। बाजार के इस बारीक यथार्थ को पवन करण ने बहुत सहजता से व्यक्त कर दिया है। एक खूब दिलचस्प कविता है - 'लात-मंत्रीमुलाहिजा कीजिये - 

मुख्यमंत्री ने अपने पैरों में उनसे कर्इ दिनों तक
नाक रगड़वा लेने के बाद उन्हें मंत्री पद सौंपा है।
मंत्री बनने के बाद आज वे पहली दफा
प्रदेश की राजधानी से अपने शहर में पधार रहे हैं। 
अखबार भरे पड़े हैं उनके स्वागत की अपीलों से। 

यह आज का राजनीतिक यथार्थ है, सामाजिक यथार्थ है और मुक्तिबोध के अनुसार एक नीच ट्रेजेडी है, लोकतंत्र की। निर्मल वर्मा जिस यथार्थ को कहानी में 'झाड़ी में छिपे पक्षीकी तरह बताते हैं उस यथार्थ को पवन करण बहुत सरलता से पकड़कर झाड़ी के ऊपर बिठा देते हैं कि यह है, देखो। देश मे सामाजिक और राजनीतिक उद्वेलन के दो बड़े कारक रहे हैं- एक है मण्डल आयोग दूसरा छह दिसम्बर का बाबरी मस्जिद काण्ड। मण्डल आयोग के जातिवादी फलितार्थो पर तो इस कवि ने मुखरता नहीं दिखार्इ है पर बावरी काण्ड के बाद उठी सांप्रदायिक लपटों से आहत तन मन की टोह शिद्दत से की है। दरअसल भारतीय वर्णवाद ने मुसिलम समाज को धीरे-धीरे एक वर्ण के रूप में स्वीकार कर लिया था। जैसे ब्राम्हणों में कर्इ जाति के ब्राम्हण हैं और क्षत्रियों में कर्इ किस्म के क्षत्रिय उसी प्रकार वैश्यों में अनेक प्रकार तथा शूद्रों की विभिन्न जातियाँ हैं। हैं सभी हिन्दू या सनातनी। उसी प्रकार एक वर्ण मुस्लिम मान लिया गया पर था वह अपने ही भारतीय। राजनीतिक लोलुपता ने अलग पहचान की बात उठाकर इसे अलगाना शुरू किया और बात छह दिसंबर तक पहुँच गर्इ। खैर पवन करण कि एक कविता है -'पहलवानउसकी कुछ पंक्तियाँ हैं - 

अपनी सैलून में भी, उन्होंने कुछ पहलवानों की
तस्वीरें लगा रखी हैं जिनमें एक तस्वीर
मशहूर पहलवान गामा की भी है। 

गामा को हमारे यहाँ विश्वविजयी पहलवान कहा जाता था। कोर्इ न जानता था, न कहता था कि उनका जन्म दतिया के किसी मुस्लिम परिवार में हुआ था। सुना है कि उनके मुसलमान होने का पता हजारों गाँवों को तब लगा जब उनके पाकिस्तान जाने बाबत सुना गया। हालाँकि उनसे गण्डा बँधवाने वाले सैकड़ों हिन्दुओं ने उन्हे नमाज पढ़ते देखा था पर वह तो र्इश आराधना है। कोर्इ किसी ढंग से करता है कोर्इ किसी ढंग से। राजनीति ने इस सामाजिक समरसता में पलीता लगा दिया। हिन्दू, मुसलमान लड़के आदि कविताएँ सहज मानवीय स्तर पर अपनी संवेदना उदघाटित करती हैं। 'मुसलमान लड़केकविता में वह कहते हैं - 

डरता हूँ, ऐसा न हो, अपना दुख कहते-कहते। 
अपने लोगों के फंदों में उसकी तरह न उलझ जाएँ वे। 
जैसे मुझे हिन्दू को अपने जाल में फांसने। 
नाना प्रकार के ताने बुन रहे है मेरे लोग।

कवि का डर कतर्इ बाजिब है। विगत बीस वर्ष में चेहरों और वेशभूषा से मुसलमान दिखने का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, वह शुभ तो कतर्इ नहीं हैं। 

मुझ नातवां के बारे में: पाँच प्रेम कविताएँ
नातवां से आशय अप्रबल, सामर्थ्‍यहीन..................... 

ये कविताएँ 'स्त्री मेरे भीतर- का अगला चरण हैं। पाँच कविताएं आपस के पाँच प्रश्‍नों का आधार लेकर बुनी गर्इ हैं जिसमें प्रेम और प्रेमियों पर सामाजिक सोच का लेखा जोखा है और प्रेम जैसे पुरातन पद मे नये समसामयिक आयाम जोड़ती हैं। 

पवन करण का पहला कविता संग्रह ' इस तरह मैंवर्ष 2000 में आया था और ताजा संग्रह 'कहना नहीं आता(2012) है। वहाँ से यहाँ तक की इस काव्य यात्रा में स्त्री तत्व एक केन्द्रीय भाव की भाँति संग चलता रहा है गोकि उनमें साथ ही साथ और भी विषय है जैसे बाजार, सांप्रदायिकता, दोस्त, पिता, कविता। पवन करण की कविता मध्यवर्गीय नैतिकता का ध्वंस करती है। उन्‍होंने अपनी कहन के शब्द, मुहावरे, औजार सड़क और गलियों से उठाए हैं अत: भाषा में भद्रकाव्य के घूँघट न होने से वह नये अनुभव का आस्वाद देती है। कविताएँ कहीं भी कवि के 'मैं को अस्वीकार नहीं करती अत: रचनात्मक संघर्ष द्विस्तरीय हो जाता है-व्यकितगत जो आंतरिक है और बाह्रा जो सामाजिक है। 

'कहना नहीं आतामें तुलसीदास की 'कविता विवेक एक नहिं मोरेवाली भक्तिकालीन विनम्रता नहीं अपितु यह भाव निहित है कि क्योंकि मैं 'ऐसा हूँ इसलिऐ मुझे कहना नहीं आता -

जिनके पास कहने को है
जो कहना चाहते हैं
जिन्हें कहना नहीं आता
मैं उनमें से एक हूँ।

इस प्रकार उनकी कविताएँ लटपट भाषा वाले वृहत्तर समाज की अगुआर्इ में खड़ी हो जाती हैं। हाँ इतना अवश्‍य है कि चार संग्रहों के बारह वर्षों में स्त्री मुग्धा से प्रौढा हो लेती है और भाषा भी। ...
सो उनके कहने की कड़ी पूछ परख लाजिमी है। 
***
(महेश कटारे)
निराला नगर, सिंहपुर रोड,
मुरार, ग्वालियर - 474006
(0प्र0)

नित्‍यानन्‍द गायेन की पांच नई कविताएं

$
0
0
कविता का नियमित पाठक और कार्यकर्ता होने के नाते मैं कहना चाहता हूं कि युवा कवि नित्‍यानन्‍द गायेन की कविताओं ने पिछले कुछ समय से मुझे निरन्‍तर प्रभावित किया है। जाहिर है कि मैं अकेला नहीं हूं, हिन्‍दी कविता के इलाक़े में उनकी बहुत स्‍पष्‍ट पहचान बन चुकी है। वे ज़मीनी हक़ीक़तों को ज़मीनी ज़बान में बयां करने वाले कवि हैं....बहुत सादा लेकिन पारदर्शी और उतने ही मर्मस्‍पर्शी अभिप्रायों से घिरी उनकी कविताएं हिन्‍दी में नई-नई और अलग-सी हैं। उनकी कविताओं का अनुनाद को कब से इंतज़ार था। कवि को यहां अपनी महत्‍वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए शुक्रिया।    
*** 

गांवों का देश भारत

नर्मदा से होकर
कोसी के किनारे से लेकर
हुगली नदी के तट तक
रेतीले धूल से पंकिल किनारे तक
भारत को देखा
गेंहुआ रंग , पसीने में भीगा हुआ तन
धूल से सना हुआ चेहरे
घुटनों तक गीली मिटटी का लेप
काले -पीले कुछ कत्थई दांत
पेड़ पर बैठे नीलकंठ
इनमें देखा मैंने साहित्य और किताबों से गायब होते
गांवों का देश भारत
दिल्ली से कहाँ दीखती है ये तस्वीर ...?
फिर भी तमाम राजधानी निवासी लेखक
आंक रहे हैं ग्रामीण भारत की तस्वीर
योजना आयोग की तरह ....

*मध्य प्रदेश से होकर बिहार,बंगाल की यात्रा के बाद लिखी गई एक कविता

***

ज़मीर से हारे हुए लोग 

उन्होंने खूब लिखा सत्य के पक्ष में 
किन्तु यह सत्य 
औरों का था 
उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया 
कि नही हटेंगे सत्य के मार्ग से 

फिर एक वक्त आया 
उन्हें परखने का 
जैसा हम सबके जीवन में आता है 
कभी न कभी 
अपने स्वार्थों के खातिर वे खामोश रहें 
सत्य ने उन्हें पुकारा 
कि ...फिर दोहराव 
अपना पक्ष 
किन्तु  उन्हें डर था, कि 
सच बोलने पर बिखर जायेंगे रिश्ते 
और पूरे नही होंगे कुछ सपने 

किन्तु सत्य ने हार नही माना 
सदा की तरह अडिग रहा 
पर ...
इसी तरह सत्य ने भी देख लिया उनका चेहरा 
और 
एक नाम दिया उन्हें 
-
ज़मीर से हारे हुए लोग  ||
***

टूटी नही है प्रतिबद्धता

समय के कालचक्र में रहकर भी 
टूटी नही है कवि की प्रतिबद्धता
उम्र कुछ बढ़ी जरूर है 
पर हौसला बुलंद है 
बूढ़े बरगद की तरह 

नई कोपलें फूटने लगी है फिर से 
उम्मीदे जगाने के लिए 
उन टूट चुके लोगों में ...
कमजोर पड़ती क्रांति
फिर बुलंद होती है

कवि भूल नही पाता
अपना कर्म
कूद पड़ता है फिर से
संघर्ष  की रणभूमि पर
योद्धा बनकर 
तिमिर में भी लड़ता एक दीया 
तूफान को ललकारता 
लहरों से कहता -
आओ छुओ मुझे 
या बहाकर ले जाओ 
हम भी तो देखें 
हिम्मत तुम्हारी ....
*** 

होली और तुम्हारी याद

वे सारे रंग
जो साँझ के वक्त फैले हुए थे
क्षितिज पर
मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में
तुम्हारे लिए

वर्षों से किताब के बीच में रखी हुई
गुलाब पंखुड़ी को भी निकाल लिया है
तुम्हारे कोमल गालों के गुलाल के लिए

तुम्हारे जाने के बाद से
मैंने किसी रंग को
अंग नही लगाया है
आज भी  मुझ पर चड़ा हुआ है
तुम्हारा ही रंग
चाहो तो देख लो आकर एकबार
दरअसल ये रंग ही
अब मेरी पहचान बन चुकी है

तुम भी  कहो  कुछ
अपने रंग के बारे में ....
***

आपके ये बंदर बड़े पाजी निकले 

गरीबी, भुखमरी
आत्महत्या, शोषण
के बीच
हमने की न्याय की अपील
उन्होंने दोनों हाथों से ढक लिया
अपने कानो को

जीर्ण–जीर्ण होते तन
भूख से बिलकते बच्चों की तस्वीरें
देखकर
दोनों हाथों से ढक लिया
उन्होंने अपनी आँखों को
हमने याद दिलाया, कि
देश की आज़ादी में
हमारे पूर्वजों ने दी थी कुर्बानी
उन्होंने होठों पर उंगली रखकर
खामोश रहने का इशारा किया

आ रहा है  आज मुझे
क्रोध
‘बापू’ के ‘तीन बंदरों’ पर
आपके बंदर बड़े पाजी निकले  ||
****

नित्यानंद गायेन
4-38/2/B, R.P.Dubey Colony,
Serilingampalli, Hyderabad -500019.


Mob-09642249030

निदा नवाज़ की कविताएं

$
0
0
निदा नवाज़ की कुछ कविताएं मुझे जम्‍मू-कश्‍मीर के कवियों के अनुनाद के प्रकाशन के सिलसिले में मिलीं, जो कमल जीत चौधरी की कविताओं से अनुनाद पर अनायास ही शुरू हुआ है। मैंने उनमें कुछ को प्रकाशन के लिए चुना है। मैंने पाया कि निदा का स्‍वर अकसर ही बहुत वाचाल हो जाता है पर जम्‍मू-कश्‍मीर के हालात देखते हुए ऐसा होना सहज लगता है। वे एक मुखर प्रतिरोध का कथ्‍य सम्‍भव करते हैं पर शिल्‍प का सधाव और सम्‍भाल उनके पास कम है - सम्‍भवत: यह यथार्थ को व्‍यक्‍त करने की विवशता है। कविता एक सामाजिक कला है और इस कला के भीतर अपने जनों के पक्ष में बोलते हुए कुछ परिष्‍कार अभी निदा जी को करना होगा, यह मुझे इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा। उनके खाते में साहित्यिक उपलब्धियां बहुत हैं, जो निश्चित रूप से एक स्‍वागतयोग्‍य बात है। अनुनाद भी निदा की कविताओं का स्‍वागत करते हुए पाठकों को प्रतिक्रिया के लिए आमंत्रित करता है। 
***
यथार्थ की धरा पर...
(एक बिहारी मज़दूरन को देख कर)

उसका चेहरा नहीं था कोमल फूल
बल्कि था आग की भट्टी में
तप रहा लाल लोहा 
जिस पर था लिखा
एक अनाम दहकता विद्रोह .

उसके चेहरे पर रिस आयी
पसीने की बूंदें 
न थी किसी फूल की पत्ती पर
चमकती हुई ओस  
बल्कि थीं श्रम की आंच से
उभल आयी सीसे की लहरें   
उसकी आँखें नहीं थीं स्वप्निल
बल्कि थीं
एक तख्ती की तरह सपाट
जिन पर जीवन की इबारतें
अनिश्चितता की भाषा में नहीं
स्पष्ट तौर पर लिखी हुई थीं .

उसके बाल नहीं थे मुलायम
बल्कि थे उलझे हुए
उसके ही जीवन की तरह
जिन से नही बुना जा सकता था
कोई काल्पनिक स्वप्न
लेकिन उन में मौजूद थे
सभी खुश-रंग धागे
यथार्थ बुनने के लिए .

उसके मैले कुचेले ब्लाउज़ में से
नहीं झाँकतीं थीं
संगमरमर की दो मेहराबें
और न ही दो पक्के हुए अनार 
बल्कि थी वह
एक सागर-ए-दिल के क्षितिज पर बैठी 
सहमी ,बेघर हुई ,बारिश से भीगी 
अधेड़ उमर की एक कबूतर जोड़ी
जिसने अपने सिर
अपने मट-मैले पंखों में
छुपा लिए थे .

उसके हाथ नहीं थे दूधिया
बल्कि थे मकानिकी
सीमेंट और रोड़ी को मिलाने वाले
जीवन को एक आधार बख्शने वाले .
और उसके पाँव में
नहीं थी कोई पायल
बल्कि थे ज़ंग लगे लोहे के
दो गोल टुकड़े
जैसे कोई अफ़्रीकी ग़ुलाम
जंजीरें तोड़ कर भाग गया था
मगर वह भाग नहीं रही थी
बल्कि वह यथार्थ की धरा पर
जीवन-साम्राज्य के समक्ष खड़ी थी
जीवन की ज्वालामुखी-आँखों में 
अपनी लाल आँखें डाल कर .
*** 

वह मिलती है

वह मिलती है 
अल्ट्रा सोनोग्रफिक स्क्रीन पर
माँ के गर्भ में दुबकी
अंजाने डर से सहमी
एक डाक्टर को हत्यारे के रूप में
देखती हुई

वह मिलती है
स्कूल के आंगन में
मासूम सी मुस्कान
और तितली सी पहचान लिए
भविष्य के छोर की ओर दोड़ती
सामने वाली खाई से बेपरवाह
छोटी-छोटी गोल-गोल
आँखों में
ढेर सारे सपनों को
संजोती हुई

वह मिलती है
चहरे पर इन्द्रधनुषी रंग बिखेरती
दांतों तले ऊँगली दबाती
पूरे ब्रम्हाण्ड को निहारती
अपनी आँखों से
प्यार छलकाती
होंठों के नमक को
पूरे सागर में बांटती हुई

वह मिलती है
डल के बीचों-बीच
कहकहों की कश्ती पर
अपने पानी में लहरें तराशती
कमल तोड़ता
अपने ही आप से बातें करती
मुस्कुराती
झरनों के जल तरंग के बीच
भीगती हुई

वह मिलती है
अपने ही खेत की मेंड़ पर बैठी
धान की पकी बालियों को
अपने कोमल हाथों से सहलाती
दरांती की धार को महसूस करती
भीतर ही भीतर शर्माती
नजरें झुकाती
यौवन के सारे रंगों में
नहाती हुई

वह मिलती है
क्रैकडाऊन की गई
बस्ती के बीचों-बीच
लोगों के हजूम में
कोतवाल की वासना भरी नज़रों से
अपने आपको बचाती
अपने चेहरे पर उमड आई
प्रवासी भावना को छुपाती हुई

वह मिलई है
अँधेरे रसोई घर के
कड़वे कसैले धुएं को झेलती
मन की भीतरी जेब में
माचिस और मिट्टी के तेल की
सुखद कल्पना संभालती
चूल्हे में तिल-तिल
जलती हुई

वह मिलती है
पत्तझड़ के मौसम में
अपने बूढ़े चिनार की
मटमैली छाँव में
झुर्रियों की गहराई मापती
दु:खों को गिनती
आईने को तोड़ती हुई

वह मिलती है
जीवन-मरुस्थल में टहलती
रेत की सीढ़ियां चढती
कैक्‍टस के ज़िद्दी काँटों से
दामन छुड़ाती
यादों की सीपियाँ समेटती
इच्छाओं के घरोंदे बनाकर
उनको ढहते देखती
रोती बिलखती
अपने ही सूखे आंसुओं में
डूब के मरती हुई

वह मिलती है
उम्र के सभी पडावों पर
संसार की सारी सड़कों पर
अपने पदचिन्ह छोड़ती
रूप बदलती
जीवन को एक
सुन्दर और गहरा अर्थ देती हुई .
*** 

अमावस

सिरहाने रखे सपने
सांप बन जाते हैं
जब बारूदी धुएँ में
पूर्णिमा
अमावस बन जाती है
बचो के पालने
प्रश्न बन जाते हैं
जब गोलियों की गूंज
लोरी बन जाती हैं
***

हमारी अम्मा की ओढ़नी

वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
और घुस आते हैं हमारे घरों में
वे दाढ़ी से घसीटते हैं
हमारे अब्बू को
छिन जाती है
हमारी अम्मा की ओढ़नी
या हम एक दूसरे के सामने
नंगे किए जाते हैं
सिसकती है शर्म
बिखर जाते हैं रिश्ते
वे नकाबपोश होते हैं
लेकिन
हम खोज ही लेते हैं उनके चेहरे
अतीत की पुस्तक के एक एक पन्ने से
बचपन बिताए आंगन से
दफ़्तर में रखी सामने वाली कुर्सी से
एक साथ झुलाये हुए झूले से
स्कूल की कक्षा में बेठे लडकों से
हमारे बचपन के आंगन पर
रेंगते हैं सांप
यमराज दिखाई देता है
हमारी सामने वाली कुर्सी पर
जल जाती है
हमारे बचपन के झूले की रस्सी
हम उस काली नकाब के पीछे छिपे
कभी उस लड़के का चहरा भी देखते हैं
जिसको हमने पढ़ाया होता है
पहली कक्षा में
वे जब आते हैं रात-समय
ले जाते हैं जिसको वे चाहें घर-परिवार से
और कुछ दिनों के बाद
मिलती है उसकी लाश
किसी सेब के पेड़ से लटकी
या किसी चौराहे पर लिथड़ी
मारने से पहले वे
लिख देते हैं अपना नाम
उसकी पीठ पर
आतंक की भाषा में
दहकती सलाखों से
आग के अक्षरों में
वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
रोंदते हैं पाव तले
हमारी संस्कृति को
हमारे रिश्तों को
हमारी शर्म को . 
***  

बर्फ़ और आग

बर्फ़ के घरों में रहते थे
वे लोग
ठंडक बसती थी
उनकी सभ्यता में
बर्फ़ के सपने उगते थे
उनकी आँखों में
और आज पहली बार
वे घर लाए थे आग
इतिहास में केवल
इतना ही लिखा है
*** 

निदा नवाज़
जन्म :- ३ फरवरी १९६३
शिक्षा :- एम.ए.मनोविज्ञान ,हिंदी ,उर्दू ,बी.एड
प्रकाशन :- अक्षर अक्षर रक्त भरा (कविता संग्रह जम्मू व् कश्मीर राज्य में विकसित आतंकवाद के विरुद्ध किसी भी भाषा में लिखी गई पहली पुस्तक ), दैनिक मांउटेन विव (संपादन), साहित्य अकादेमी के लिए कश्मीरी कविताओं का हिंदी अनुवाद .
पुरस्कार :- केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ,भारत सरकार द्वारा हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार ,हिंदी साहत्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य प्रभाकर ,मैथलीशरण गुप्त सम्मान ,शिक्षा मंत्रालय जे.के.सरकार की ओर से राज्य पुरस्कार .
संपर्क :- निदा नवाज़ ,निकट नुरानी नर्सिंग कालेज ,एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा -१९२३०१
फोन :- 09797831595

ये अफ़साना सुनाना चाहते हैं हम उन्हें भी - अशोक कुमार पांडे का एक जनगीत

$
0
0
अशोक कुमार पांडेय की कविताएं सब जगह पढ़ी गई हैं। इस बार अनुनाद उनका जनगीत लेकर आ रहा है, जिसके बारे में कवि ने कहा है कि इसे फेसबुक पर लगाया जा चुका है। किसी भी जनान्‍दोलन में गाए जा रहे गीतों की भूमिका बहुत अहम होती है। आंदोलन के सरोकार जब एक आत्‍मीय छंद और प्रिय लय में बंधकर जनता के बीच पहुंचते हैं तो उनके प्रति समझ का दायरा फैलता है। जो लम्‍बे-लम्‍बे भाषणों से नहीं होता, एक गीत कर दिखाता है। ऐसे गीत रचे जल्‍दी में जाते हैं पर उनमें से कुछ हमारे जीवन का स्‍थायी हो जाते हैं। वे आन्‍दोलन के साथ समाप्‍त नहीं होते, जब जब आन्‍दोलनों की वापसी होती है, उन्‍हें खोजा जाता है। इनका अपना एक साहित्यिक महत्‍व होता है, जिसे सामाजिक-राजनीतिक पसमंज़र में देखना-परखना होता है और अपने लिए तो यही कसौटी कविता की भी है। बहरहाल, महिला सरोकारों से जुड़े अशोक के इस प्रभावशाली गीत का अनुनाद पर स्‍वागत है.... इसका महत्‍व और भविष्‍य भी उसी आन्‍दोलन से साबित होगा, जिसके लिए यह लिखा गया। युवा कवियों में छंद साधने की घटती इच्‍छा के विलोम में के रूप में इस गीत को पढ़ना मेरे लिए सुखद अनुभव है, अशोक से अनुरोध है कि जल्‍द इसके गाए जाने की रिकार्डिंग भी उपलब्‍ध कराए। अशोक के दो जनगीत इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं। 
*** 


ये अफ़साना सुनाना चाहते हैं हम उन्हें भी जो
हमारे आंसुओं की नींव पर एवाँ बनाते हैं
हमें देवी बताते हैं,  हमारे गीत गाते हैं  
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

कोई घूँघट पे लिखता है, कोई पर्दा सुझाता है
करो तुम शर्म सह लो कष्ट सब चुपचाप मत बोलो
तुम्हारा स्वर्ग है यह ही, तुम्हारी है यही दुनिया
घरों की चार दीवारों में सारे ज़ुल्म तुम सह लो 

जो अपने जितने हैं उतना ही हमको वे सताते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

पढो मिहनत से और साथ में सब काम घर का हो
ये पढ़ना भी हो यों कि कभी दुल्हन तुम बेहतर हो 
अगर दफ्तर भी जाओ लौटकर घर काम सारा हो
जो पैसे तुम कमाओ हक पति का ही बस उस पर हो  
         
पुराने ही नहीं नियम नए यों वे बनाते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

घरों में आग चूल्हे की तो बाहर वहशियों की भूख
किया गर प्रेम तो धोखा या फिर मार अपनों की
सगा भाई पिता अपने  लिए हथियार आते हैं
ये कैसी आन जिसकी सान पर हम मारे जाते हैं?

कभी सोने कभी लोहे की वो जंजीर लाते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

हमारी देह पर ही युद्ध दंगे और सब बलवे
हमारी देह को ही बेचकर महफ़िल सजे सारी
हमीं बैठाए जाएँ हँसते हुए सारे बाज़ारों में
ये हंसना भी तो रोने की तरह है एक लाचारी

कभी रोना कभी हँसना कभी चुप्पी सिखाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

लबों में जो हुई हरक़त  धरम की नींव डोले है
सभी को क्यों खले है आज जो औरत भी बोले है
हमारी अपनी आज़ादी हमी से आयेगी सुन लो
कई सदियों की चुप्पी तोड़कर जो आज बोले हैं 

तो फिर वो याद संस्कृति की धरम की दिलाते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

कई सदियों की ये जुल्मत न अब बर्दाश्त होती है
हदों को तोड़कर निकली हैं राह अपनी बनाने हम
बहुत माँगा, बहुत रोया बहुत फरियाद कर ली है
लड़ेंगे अब तो अपनी ज़िन्दगी अपनी बनाने हम

रहो तुम देखते कैसे नसीब अपना बनाते हैं
तुम्हारी क़ैद की दीवार हम कैसे गिराते हैं
**** 

प्रांजल धर की कविताएं : सन्‍दर्भ भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार

$
0
0
प्रांजल धर को इस वर्ष भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार प्रदान किए जाने की सुखद घोषणा हैं। हिन्‍दी कविता में अकसर युवा कविता के पुरस्‍कार कवियों की पहली पहचान बनाते हैं पर प्रांजल को दिया गया पुरस्‍कार कविता के इलाक़े में उनकी पहले से बनी पुख्‍़ता पहचान की पुष्टि करता है, उसका स्‍वीकार करता है। सभी जानते हैं कि प्रांजल अपनी कविता की ख़ास संरचनाओं और भाषिक प्रभावों में विकास और विस्‍तार के कई मोड़ घूम चुका नौउम्र लेकिन अनुभवसम्‍पन्‍न कवि है। मैं अपने इस हमसफ़र को बधाई देता हूं। आगे प्रस्‍तुत है निर्णायक श्री पुरुषोत्‍तम अग्रवाल द्वारा की गई अनुशंसा और प्रांजल की कुछ कविताएं।
*** 
भयानक ख़बर की कविता

युवा कवि प्रांजल धर ने पिछले कई सालों से अपनी सतत और सार्थक सक्रियता से ध्यान आकृष्ट किया है। जनसत्तामें 26 अगस्त, 2012 को प्रकाशित उनकी कविता कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहींसचमुच भयानक ख़बर की कविता है। यह कविता अपने नियंत्रित विन्यास में उस बेबसी को रेखांकित करती है, जो हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन को ही नहीं, हमारी भाषा और चेतना को भी आच्छादित करती जा रही है। लोकतंत्र एक औपचारिक ढाँचे मात्र में बदलता जा रहा है। स्वतंत्रता और न्याय जैसे मूल्यवान शब्दों का अर्थ ही उलटता दिख रहा है। नैतिक बोध खोज की जगह सुविधाजीविता ने ले ली है। इस सर्वव्यापक नैतिक क्षरण को प्रांजल धर बहुत गहरे विडम्बना-बोध के साथ इस सधे हुए विन्यास वाली कविता में मार्मिक ढंग से ले आते हैं। निश्चयात्मक नैतिक दर्शन से वंचित इस समय का बखान करती इस कविता में अनुमानशब्द ज्ञानमीमांसा के अनुमान का नहीं, सट्टेबाजी के स्पेकुलेशनका वाचक बन जाता है, और आत्महत्या का पापबुनकरों तथा किसानों की विवशता का।

जिस समय में कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं रहा, उस समय के स्वभाव को इतने कलात्मक ढंग से उजागर करने वाली यह कविता निश्चय ही 2012 के भारत भूषण अग्रवाल सम्मान के योग्य है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल



कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं
(पुरस्‍कृत कविता) 

इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमन्त्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद।

मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतन्त्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुज़रकर स्वतन्त्रता की देवी
आज माफ़ियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह...

बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
- क्रिकेट की मैच-फ़िक्सिंग हो या शेयर बाज़ार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, सम्भव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है...

सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रान्ति और भ्रम के बीच सन्देह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब !
***

रेंगती हैं स्मृतियाँ अपने इलाके में

जीवन कबाड़खाना है कुछ घटिया स्मृतियों का,
वक्त के साथ कबाड़ का वज़न बढ़ता ही जाता है
चढ़ता ही जाता है एक ढेर पर दूसरा ढेर
हर सुबह अहसास होता कि
मन एक नए जानवर में तब्दील हो चुका है
बन्द है जो पिंजरे में।
चाहे जितनी तेजी से पत्थर फेंकता हूँ
समुद्र नहीं पार कर पाता,
गुम भी हो जाता उल्टे
सागर की भीषण गहराइयों में,
कमाये हुए पत्थर घटते जा रहे हैं
एक-एक करके
हर पत्थर अपनी स्मृति जबरदस्ती भेंट कर जाता है
हाथों को।
जाने कब ये स्मृतियाँ हाथों से रेंगकर
सीने पर दस्तक देती हैं,
देती रहती हैं
और तोड़ देतीं दरवाज़ा अन्ततः।

यह क्या !
अनधिकृत प्रवेश !!
बन्द सीप की तरह घोर अन्तर्मुखी कोई होता भी नहीं
कि इस प्रवेश को रोक सके,
कामयाब हो जाए बाड़ा लगाने में।
और फिर स्मृतियों की लम्बाई द्रौपदी के चीर-सी,
सारा ज्ञान और अनुभव कबाड़खाने के सामने
याचना की मुद्रा अपनाता है
कि छोड़ दो मुझे, छोड़ दो मुझे...
मस्तिष्क की सीमा यहीं ख़त्म हो जाती,
आगे का इलाका तो हृदय का है।
***


आओ उनका दुःख अपने कन्धों पर उठाएँ

जिनका शीतल क्षोभ ही जिनका पारिध्वजिक है,
पराजित मुखमुद्रा मुख़बिर है
जिनकी, अपने ही घनीभूत विश्रंभ की।
जिनकी विनोदप्रियता रौंदी गयी है बारम्बार,
जिनकी भावना के वर्तुल में आकर
हँसी और आक्रोश पर्याय हो जाते हैं
सिद्धान्त दूसरा नाम बन जाता है लन्तरानी का।
महज़ एक धुँधला भ्रम जिनकी सकल पूँजी है।
जो फ़र्क नहीं कर सकते कातिल और मुंसिफ़ में
आँचल, अदालत और आँगन में,
जो आईनासाज़ हैं लेकिन बदशक्ल भी
जो चरवाहे भी हैं, घास भी और भेड़ भी।
और भेड़चाल जिनकी अधिकतम गति-सीमा है।
जो यियप्सु हैं लेकिन जिनका संसर्ग-सुख भी विषमभोग ही है।
जिनका कोई परिचय ही नहीं,
जो इतने जर्जर हैं कि बनामशब्द ही बेमानी है,
... आओ उनका दुःख अपने कन्धों पर उठाएँ!
भारावतारण करें उनके शाश्वत कर्ज़ का!!
*** 

मन का रथ और दवाइयों की शीशियाँ

बहुत दूर चले जाते मन के रथ में जुते हुए घोड़े कभी-कभी
और कभी-कभी घोड़ों की नाल से आवाज़ें आतीं कुछ इस तरह
मानो दवाई की शीशी चौराहे पर गिरकर छन्न से टूटी हो।

दवाई उन लोगों की आखिरी आशा है
जिन्होंने अपने जीवन का कोई लम्बा-चौड़ा बीमा नहीं कराया कभी
और जिनका जीना इस दुनियाँ में इसलिए ज़रूरी है ताकि
वह सारा दुःख सौंपा जा सके उन्हें
जो कुछ लोगों द्वारा भोगे गए ठसाठस सुख के
बीहड़ असन्तुलन के कारण पैदा होता समाज में, निरन्तर।

मन के इस रथ पर सवारी करते गांधी, कभी मार्क्स, कभी यीशु
पहाड़ों, नदियों और कन्दराओं से होते हुए यह रथ कई बार
मानवता का जघन्य उल्लंघन देखकर भूकम्पी हिचकोले खाने लगता
हिल जाते तमाम समाजशास्त्रीय सिद्धान्त, हिल जातीं चूलें भी...

बहुत दूर की बातें करने का क्या फ़ायदा !
फ़ायदा-नुकसान तो मन वैसे भी कहाँ देख पाता किसी का
मुनाफ़े का गुणा-गणित ही ऐसी चीज़ है जिसका
दवाइयों या उनकी शीशियों से कोई भी ताल्लुक नहीं।
फिर क्यों गूँजतीं ध्वनियाँ शीशियों के फूटने की, छन्न-छन्न;
क्यों आतीं आवाज़ें घोड़ों की नाल से टप-टप !टप-टप-टप-टप !!
*** 


अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का

अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का।
अपने ही देश में पराए हैं
वंचनाबोध से ग्रस्त नवयुवक कुछ,
जला दी गयीं हैं कुछ प्रेमिकाएँ बगल वाले गाँव में
अपने ही घरों में;
सह नहीं पाती कोई कार्यकारिणी
पूर्वोत्तर के पहाड़ी अक्षांशों में
दूर तक पसरे विध्वंसक सन्नाटे को,
चुप्पियों का कब्रिस्तान ही संविधान है जहाँ का।

अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का।
सभी लोगों ने अपने संगमरमर से लैस
घरों के आगे दो मीटर तक अवैध कब्जा
जमाया हुआ है,
कारें खड़ी करने और गमले रखने के लिए
चर्चित महानगरों में।
तलाशती है विकल्प अपने,
एक छोटी-सी कुपोषित बच्ची,
गुलाब के काँटों से खेलती है।
ऊपर उड़ रहे वायुयानों की पंक्ति
और उनकी देर तक कानों में गूँजती ध्वनियाँ
प्रतीक हैं बाढ़ग्रस्त अंचल के ऐतिहासिक दौरे की।
अध्यारोहण है यह...
*** 

फौलादी चादर
(पहाड़पुरुष दशरथ माँझी के लिए, जिनकी मृत्यु से एक दिन पहले एम्स में घण्टों उनका हाथ थामे रखा था)

उन हाथों की सच्चाई भरी कर्मठ छुअन को
कहाँ रख पाएगी लेखनी;
भिखारन नज़र आती हैं सारी सत्ताएँ शब्द की।
खड़ी बोली, भोजपुरी, मगही, मैथिली और डोगरी –
सब निरुत्तर !
उनके दशकों लम्बे पर्वतीय और फौलादी सवालों को सुनकर।
हाथ थामा था फुरसत से एम्स के प्राईवेट वार्ड में उनका।
नहीं रहे वे
एंकर स्टोरी थी कुछ अख़बारों की अगली सुबह।
बयाँ न कर पायी वैश्विक अँग्रेजी भी टीस को उनकी
जो सालों साल काटती रही उन्हें,
और वे पहाड़ों को।
बन गया रास्ता, लेकिन खो गयी ज्वाला
छटपटाहट भरी क्रान्ति की,
उस मोटे देहातीचादर में;
अन्तिम बार भी जिसे ओढ़े बिना नहीं रह सके थे वे।
***
कवि-परिचय 

जन्म – मई 1982 ई. में, उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में।
शिक्षा– जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान, जे.एन.यू. कैम्पस से पत्रकारिता में डिप्लोमा।
कार्य – देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी जयपुर से कुछ कविताएँ प्रसारित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। सक्रिय मीडिया विश्लेषक। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। 'नया ज्ञानोदय', 'जनसंदेश टाइम्स'और द सी एक्सप्रेससमेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार। पुस्तक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए देश के अनेक भागों में कार्य। जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों से जुड़े कार्यों में सक्रिय सहभागिता। 1857 की 150वीं बरसी पर वर्ष 2007 में आदिवासी और जनक्रान्तिनामक विशेष शोधपरक लेख प्रकाशन विभाग द्वारा अपनी बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक में चयनित व प्रकाशित। बीबीसी और वेबदुनिया समेत अनेक वेबसाइटों पर लेखों व कविताओं का चयन व प्रकाशन। अवधी व अंग्रेजी भाषा में भी लेखन।
पुरस्कार व सम्मान - वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार। वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान। पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। 2012 में गया, बिहार में आयोजित मगध पुस्तक मेले में पुस्तक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकरस्मृति न्यास की तरफ से सर्वश्रेष्ठ विशेष सम्मान। फरवरी 2013 में गया, बिहार में बज़्म-ए-कलमकारकी तरफ से विशेष लेखक सम्मान। वर्ष 2013 में इन्दौर में सम्पन्न सार्क के अन्तरराष्ट्रीय भाषायी पत्रकारिता महोत्सव में विशिष्ट अतिथि के दर्ज़े से सम्मानित। वर्ष 2013 में पंचकूला में हरियाणा साहित्य अकादेमी की मासिक गोष्ठी में मुख्य कवि के रूप में सम्मानित। हाल ही में कविता का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार।
पुस्तकें समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अख़बार(वाणी प्रकाशन से)। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर 'महत्व : रामधारी सिंह दिनकर : समर शेष है'(आलोचना एवं संस्मरण) पुस्तक का संपादन। अनभैपत्रिका के चर्चित पुस्तक संस्कृति विशेषांक का सम्पादन।

सम्पर्क :
2710, भूतल, डॉ. मुखर्जी नगर, दिल्ली – 110009
मोबाइल- 09990665881
ईमेल- pranjaldhar@gmail.com

***
पोस्‍ट में प्रयुक्‍त विख्‍यात चित्रकार सल्‍वादोर डाली के चित्र गूगल इमेज से साभार

अमित श्रीवास्‍तव के कविता संग्रह पर युवा कवि महेश पुनेठा की टिप्‍पणी

$
0
0
भीतर-बाहर की आवाजाही



पिछले दिनों युवा कवि अमित श्रीवास्तव का पहला कविता संग्रह'बाहर मैं ...मैं अन्दर ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह में दो खण्डों में कवितायेँ संकलित हैं . पहला खंड 'मैं अन्दर ' नाम से है. 'बाहर 'की कवितायेँ तो समझ में आ जाती हैं लेकिन 'भीतर ' की कविताओं को समझने के लिए पाठक को जूझना पड़ता है . ये आसानी से समझ में आने वाली कवितायेँ नहीं हैं. शायद इसका कारण मानव मन की जटिलता हो . किसी भी व्यक्ति के मन को समझना जितना कठिन है उससे अधिक कठिन उससे जुडी अभिव्यक्ति को .मन की दुनिया बहुत बड़ी और पेचीदी होती है .मेरा मानना है जीतनी बड़ी दुनिया बाहर है उससे बड़ी हमारे भीतर है . इसलिए ये कवितायेँ पाठक से धैर्य की मांग करती हैं .इनके भीतर धीरे-धीरे ही प्रवेश किया जाना चाहिए. इन कविताओं में लगता है कि कवि खुद से लगातार वाद-प्रतिवाद कर रहा है . अपने से लड़ रहा है. इस प्रक्रिया में खुद को पहचानने की कोशिश कर रहा है .कवि की खुद से गुत्थम -गुत्था चल रही है .ब्लर्ब लिखते हुए युवा कवि शिरीष मौर्य ने सही पकड़ा है कि इस अन्दर में छटपटहट बहार के दबाबों की भी है .इस अन्दर में वह खुद अपना ईश्वर भी है . ये कवितायेँ बताती हैं कि कवि का मैं वेदना और संवेदना का मेल है .वह कहीं दूर से निर्देशित नहीं हैउसे 'करारी चोट और ठंडी औपचारिकता सहन नहीं है. 

कवि का यह कहना -'कि मैं भी कभी /ईश्वर रहा हूँगा ' उनके साहस और आत्मविश्वास को बताता है . यह अच्छी बात है कि कवि ने खुद को मजबूती से बाँधा है और खुद को छुपाने की कोशिश नहीं की है . जबकि इस बाजार युग में सभी का सत्य को छुपाने में अधिक जोर है. कितना प्रीतिकर है कि कवि ऊँचाइयों को पाने के लिए भागता नहीं . 'त्रिशंकु' का कवि का आदर्श होना, हमारे चारों ओर की परिस्थितियों का हमारी संवेदना पर बढ़ते दबाब को बताता है ,यह समय -सत्य है जिसे कवि किसी बनावटीपन से ढकना नहीं चाहता . इन कविताओं को पढ़ते हुए मनुष्य के भीतर के बारे में बहुत कुछ नया पता चलता है और बहुत कुछ ऐसा जो हम सबके मन में कभी ना कभी पैदा होता है .

जहाँ' मैं अन्दर' में भीतर की हलचल है वहीँ 'बाहर मैं ' में बाहर की चहल-पहल .अपने आसपास की हर घटना को पैनी नजर से देखा गया है . छोटी कविताओं की अपेक्षा लम्बी कवितायेँ अधिक प्रभावशाली हैं . उनमें जीवन पूरी ठाट के साथ आता है . देश की आज की हालातों पर कविता सटीक और मारक टिप्पणी करती है -एक देश है/ जो निरुद्देश्य है /जो अपने नागरिकों के सामने /निरुपाय/ नंगा खड़ा है नयी सदी के पहले दशक में. इस हालत के लिए कवि का डाक्टर , वकील, पत्रकार, लेखक ,नेता ,शिक्षक . इंजिनियर ,योगी उद्योगपति सहित सभी वर्गों को जिम्मेदार मानना सही है .

प्रस्तुत संग्रह में 'डल' बहुत मार्मिक कविता है जो दहशतगर्दी के चलते कश्मीर के आम आदमी के हालत को पूरी संवेदनशीलता के साथ बयां करती है . डल झील जो अपनी सुन्दरता के लिए विश्व प्रसिद्द है, पर्यटकों के नहीं आने से बेचैन,झल्लाई हुयी है जो काटखाने के लिए आ रही है . आम आदमी की पीड़ा को समझने वाला कवि ही प्रकृति के भावों को इस तरह से समझ सकता है . यह बैचनी और झल्लाहट दरअसल उन लोगों की है जो अपनी आजीविका से महरूम हो गए हैं .एक कवि मन ही इस तरह से देख सकता है दूसरा तो वहां के प्राकृतिक सुन्दरता में खो कर रह जाता . यह कविता कश्मीर के करुण हालत को काव्यात्मक रूप में पाठक तक पहुंचाने में सफल रहती है .इस कविता की ये पंक्तियाँ .....'जावेद को किसी का इन्तजार नहीं अब/जावेद का कोई इंतजार नहीं करता घर पर' , पाठक के सीधे मर्म में जाकर लगती हैं जिसमे पाठक देर तक कसमसाता रहता है . 'मैं बहुत उदास हूँ ' कविता कवि की प्रतिबद्धता और सरोकारों को बताती है . अमित ने इस कविता में उदासी के जो -जो कारण बताये हैं उन कारणों से एक संवेदनशील व्यक्ति ही उदास हो सकता है . पर इस कविता की खासियत है कि यह उदास नहीं करती है बल्कि उदासी से लड़ने की ताकत देती है . आश्वस्त करती है कि और भी हैं ज़माने में जिनको ज़माने की चिंता है .

'कहानी नहीं नियति है ' संग्रह की एक और मार्मिक कविता है जिसमें आजादी के साठ बरस बाद भी करोड़ों भारतवासी इस स्थिति में नहीं पहुँच पाए हैं कि अपने नन्हे-मुन्नों की छोटी -छोटी चाहतों को भी पूरा कर पायें. इस कविता में एक गरीब महिला की मनस्थिति को दिखाया गया है जो अपने जिद करते बच्चे के लिए न उसके पसंद का खिलौना खरीद पाती है और न दो केले . 

इनके अलावा प्रस्तुत संग्रह में 'विदेश नीति ' , 'मुल्तवी ' , 'महाकुम्भ' ,'कालाढूंगी ' जैसी कवितायेँ हैं जो भीतर तक हिलाती हैं और अपने साथ ले चलती हैं . इन कविताओं में एक अच्छी बात है कि ये पुलिस वालों के प्रति
थोडा ठहरकर सोचने को प्रेरित करती हैं . वे भी आदमी हैं उनके भीतर भी इन्सान का दिल धड़कता है . इस दृष्टि से सोचना भी जरूरी है क्यूंकि पुलिस की आम आदमी के सामने जो छवि बन चुकी है दरअसल उसके लिए उनकी कार्य परिस्थितियां और उन पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाब अधिक जिम्मेदार हैं .

कुल मिलकर कवितायेँ अपने नयेपन से ध्यान आकर्षित करती हैं .कथ्य और शिल्प के स्तर पर ये कवितायेँ परंपरागत अनुशासन को तोडती हैं . इन कविताओं में ऊपर से जो दिखता है उससे ज्यादा उभर आता है जो भीतर दबा है . कवि की यह भीतर- बाहर की आवाजाही उनकी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है. उनके इस पहले संग्रह का स्वागत होना चाहिए.
***

कविता जो साथ रहती है : 5/ असद ज़ैदी की कविता पर गिरिराज किराड़ू

$
0
0



अनुनाद पर सुप्रसिद्ध कवि गिरिराज किराड़ू के महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भ 'कविता जो साथ रहती है' के तहत इस बार प्रस्‍तुत है असद ज़ैदी की कविता 'आम चुनाव' पर एक लम्‍बी विचारोत्‍तेजक टीप। कहना ही होगा कि यह टीप 'साहित्‍य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है' की परम्‍परा में सम्‍भव होती है। नाम अगोरने वाले हिन्‍दी में बहुत हैं, कर दिखाने वाले कम - गिरि उन्‍हीं करने वालों में से है। असद ज़ैदी भी बहुत कम समझे गए कवियों में हैं, जो उनकी दुरूहता नहीं, हिन्‍दी के समझदारों की नासमझी का फल है। गिरिराज भी बतौर कवि ऐसा ही है, जिसे ठीक से समझा नहीं गया। उसकी राजनीति को कभी परखा नहीं गया। मगर इक उम्‍मीद-सी है कि हालात बदलेंगे और वक्‍़त रहते बदलेंगे। हमारे आसन्‍न राजनीतिक अंधकार पर प्रकाश डालती इस लम्‍बी टिप्‍पणी को प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है। लोकसभा आम चुनाव की पूर्वबेला पर न असद ज़ैदी की इस कविता से मुंह चुराना आसान होगा और न ही गिरिराज किराड़ू के इस आकलन से।  

   फूल का निशान और स्त्रियाँ: गिरिराज किराडू    

आम चुनाव - असद ज़ैदी

आम चुनाव में मतदान के रोज़
अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े मोहन भाई
किसी और युग में भटकने लगे...

वहीदा रहमानी
कुसुमलता माथुर
एक वी गौरी देवी
सुमित्रा भट्ट
इनमें चुनाव का सवाल ही क्या
दिल तो इन सबसे लगाया ही था

एक तपस्वी की तरह
कोई इस इतिहास को तो बदल नहीं सकता
गर इनमें किसी से रू-ब-रू कुछ कह न सके
तो अपने ही स्वभाव का दोष था
और इस बात का अफ़सोस भी क्या करना
एक भी औरत अब इस शहर में नहीं
कहाँ हैं वे सब, जानने की कोशिश ही न की

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहाँ भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल के भी न लगा देना
उस फूल पर निशान.

(सामान की तलाश, पृष्ठ ३७-३८, परिकल्पना प्रकाशन २००८)



 
इधर कुछ महीनों से पहली बार एक राजनेता मेरे सपनों में आने लगा है.

मेरी नींदों में वे लोग कभी शामिल नहीं रहे हैं जिनसे मैंने टूटकर प्यार किया. वे मेरी जाग में इतना मेरे पास रहते हैं कि नींद को बख्श देते हैं मानो. उनका दिया सुख दुःख सब जाग का हिस्सा है. लेकिन जिनसे मैंने नफ़रत की, जिनसे डर लगा वे अक्सर सपनों में दाखिल हुए.

इस राजनेता से एकदम सच्ची नफ़रत है, ख़ालिस. जीरो टॉलरेन्स.

 
जो 'ह्यूमेनिटेरियन क्लिनिक' डेस्डेमोना जैसे फूल की हत्या करने वाले ऑथेलो, अपने गर्व और कायरता में शकुंतला जैसी निर्भीक आत्मसम्मानी को अपमानित करने वाले दुष्यंत और यहाँ तक कि बोर्हेस को पढ़ने के बाद यीशू की मुख़बिरी करने वाले जूडास के लिए मन में खुल जाता है वह इस राजनेता - नरेन्द्र मोदी - और उसके जैसे लोगों के लिए हमेशा बंद ही रहता है. 

क्लासिकल त्रासदी कैसे अपनी करुणा से नायक के अपराध के प्रति हमारे रेस्पोंस को मैनीपुलेट करती हैं यह इसी स्तंभ में पहले कहा गया है. मिलान कुंदेरा ने जो क्लासिकल त्रासदी से सीख लेते हुए कहा था कि साहित्यिक कृति की नैतिकता 'नैतिक निर्णय को स्थगित' करने में है, उस कथन का असर हमारे आस-पास के साहित्यिक पर्यावरण में बहुत दिखाई देता है लेकिन अक्सर उसे गलत भी समझा गया है. नैतिक निर्णय 'स्थगित' करने की बात है, नैतिक निर्णय कभी न लेने की बात नहीं है. खुद कुंदेरा का लेखन ऐसे निर्णय लेता है. चेकोस्लोवाकिया के रूसी अधिग्रहण की सबसे मुखर और मारक आलोचना हमें उनके फिक्शन में ही मिलती है.
असहिष्णुता कैसे मानवीय हो सकती है यह हमें मोदी जैसे लोगों ने ही समझाया है. हिटलर ने इवा ब्राउन के साथ आखिर में क्या किया इस नैरेटिव को इस बात के उदहारण के तौर पर प्रस्तुत किया जाए कि सबसे नृशंस हत्यारे भी 'मानवीय' होते हैं तो इस फ़रेब के आरपार देखने की समझ साहित्य से उतनी नहीं,  जितनी आस-पास के रोज़मर्रा से बनी है.

तो दोस्तो, दुनिया की सबसे कुशल छवि प्रबंधन एजेंसियों के बावजूद, उसके 'विकास' की मानवीयता के फ़रेबी नैरेटिव के बावजूद वह लगातार अपने सरूप में, हाथ में खंज़र लिए सपनों में आता है.

 
स्वप्न और यथार्थ का फ्यूज़न आधुनिक साहित्य की एक करिश्माई उपलब्धि थी जो सबसे पहले काफ़्का के यहाँ मुमकिन हुई. उसी तरह निजी भी राजनीतिक होता है यह हमारी सबसे महत्वपूर्ण समकालीन अंतर्दृष्टियों में से है लेकिन यह कैसे होता है, कैसे निजी में राजनैतिक और राजनैतिक में निजी की इबारत छुपी होती है इसका जैसा साफ़ सहज बेहद कलात्मक  निरूपण असद ज़ैदी की कविता 'आम चुनाव' में है उसके कारण यह कविता पिछले तीन चार बरसों से साथ रहती है.

कविता में मोहन भाई मतदान करने के लिए कतार में लगे हुए अपने जीवन के 'किसी और युग' के इकतरफा प्रेमों को याद करने लगते हैं, उन स्त्रियों के नामों को गौर से देखें तो उनमें ऐसी बहुलता है (मुस्लिम, हिन्दू, दक्षिण भारतीय आदि) कि लगता है मोहन भाई ने चुपचाप इस वतन से, इसकी बहुलता से, प्रेम किया है.

अब उन 'भली' 'सुखी' औरतों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं, बस भरोसा है कि जैसे होती हैं हिन्दुस्तानी औरतें वैसे भली और सुखी होंगीं गो पक्का नहीं कि आज आम चुनाव में मतदान के दिन वे भी उनकी तरह मतदान करने के लिए कतार में हैं कि नहीं पर अगर वे 'निकल ही पड़ी हों वोट डालने के लिए' तो मोहन भाई, जो उनसे 'अपने ही स्वभाव के दोष' के चलते 'रू-ब- रू' कभी कुछ नहीं कह पाये, आज कहेंगे कि,

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहाँ भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल भी न लगा देना
उस फूल पर निशान.

यह निजी में मौन रहने वाले की मुखर राजनीति है. वह खुद इस कतार में है कि फूल के खिलाफ़ कम से कम एक वोट सुनिश्चित कर सके. अपनी कामना में वह ऐसे चार और वोटर पक्के करना चाहता है. और अगर वहीदा रहमानी, कुसुमलता माथुर, वी गौरी देवी, सुमित्रा भट्ट मिलकर वतन हैं तो मोहन भाई यह पक्का करना चाहते हैं यह वतन फूल के खिलाफ़ वोट दे दे. और अगर वे 'आधी दुनिया' हैं तो आधी दुनिया फूल के खिलाफ़ वोट दे दे.

 
वोट परदे की ओट.

शादी के बाद अपनी मृत्यु तक घूंघट करने वाली मेरी नानी शायद इस वाक्य में 'पर्दे की ओट' की त्रासद विडम्बना को पार करके यह वाक्य बोलती थी, विजय और गर्व से. कलकते में रहने वाले कई मारवाड़ियों की तरह उनके पिता और पति दोनों कांग्रेस समर्थक थे. नानी जो बाकी जीवन में उनका बहुत प्रतिवाद नहीं कर पायी, एक नागरिक के दुर्लभ पवित्र एकांत में अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देती रही.

बंगाल के कम्यूनिस्ट नहीं जानते होंगे कि उनकी सत्ता बनने में बिलासपुर में जन्मी, लेकिन मूलतः राजस्थान की और कलकत्ते की एक छोटी-सी खोली में अपनी ज़्यादातर विवाहित जिंदगी बिता देने वाली स्त्री के एक नागरिक के रूप में किये गए 'चुनाव' का (जो उनकी ज़िंदगी का एकमात्र चुनाव था बाकी तो सब कुछ उनके जीवन में बिना उनके चुने ही हुआ) क्या योगदान था.

पितृसत्तात्मक हिन्दुस्तानी परिवारों में स्त्रियों का वोट ऐसा लगता है परिवार का मुखिया तय करता है लेकिन नानी और बाद में उनकी तर्ज पर उनकी दोनों बेटियों ने और मुझे यकीन है उनकी तरह बेशुमार स्त्रियों ने पितृसत्ता के खिलाफ़ 'परदे की ओट' यह जो गुप्त लोकतान्त्रिक कारवाई की है उसका लेखा होना बाकी है. 

अनुमान किया जा सकता है कि मोहन भाई विवाहित हैं और हमें अब यह दुआ करनी चाहिए कि उनकी विवाहिता और ये 'प्रेमिकाएं' अपने प्रतिशोध में फूल पर मुहर न लगा बैठें! यह इस कविता में निजी और सामाजिक/राजनितिक का एक और अस्तर है.

 
कविता की एक उस्तादाना शरारत यह है कि स्त्रियों को फूल बड़े पसंद होते हैं - कहीं इतनी सी बात पे कोई फूल को वोट न दे दे!

वैसे कुछ अध्ययन यह कह चुके हैं कि जहाँ भी स्त्रियों ने अधिक मतदान किया है, दक्षिणपंथी पार्टियों को फायदा हुआ है.

 
यह संभव है कि इस कविता, और इस निबंध को भी, स्त्रियों के राजनैतिक विवेक के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित मान लिया जाय लेकिन यह उन दुखद तथ्यों से आँख मूंदकर ही संभव है जो इस देश में स्त्रियों की शिक्षा, उनके जीवन में पारिवारिक और सामाजिक के शिकंजे और राजनीतिक सक्रियता के लिए अनुपलब्ध स्पेस के साथ साथ उनकी ऐसी सक्रियता के दमन के बारे में मौजूद हैं.

एक और सवाल यह भी है  कि मोहन भाई के पास क्या विकल्प है? वे किसे वोट देंगे? अगर उनकी चारों भली, सुखी औरतें उनसे सलाह मांगें तो वे क्या सुझाएंगे?

यह प्रश्न इस कविता में नहीं है पर क्या नब्बे के बाद के भारत में मोहन भाई के पास कोई विकल्प है? यह जानकारी भी इस कविता में नहीं है कि मोहन भाई की जाति क्या है?

अगर मोहन भाई का सरनेम होता इस कविता में हम क्या उनके विकल्पों का अनुमान कर पाते?

 
असद ज़ैदी की इस कविता के बारे में लिखते हुए वह याद आ रहा है जो कुछ समय पहले उनके लेखन के बारे में लिखा था: "प्रतीकात्मक और सजावटी नहीं, सचमुच का, नाम ले कर, अपना नुक्सान करने वाला प्रतिरोध करना उसकी सहजताओं में शामिल है."

जिस माहौल में साम्प्रदायिकता विरोध को भी करियरिज्म और अवसरवाद की भेंट चढ़ाया जा जा रहा है, उसमें फूल के निशान से लेकर साहित्य अकादेमी के रुझान का उनका प्रतिरोध स्पष्ट और प्रभावी भी रहा है, प्रेरक भी. 

 
हिंदी के वरिष्ठ लेखक यूं कभी किसी नवागंतुक को मुक्तिबोध नागार्जुन शमशेर बताते रहते हैं लेकिन कुल मिलाकर युवा कविता के बारे में एक सत्ता की तरह, एस्टेब्लिशमेंट के मुहाविरे में ही बात करते हैं. अस्सी के दशक के बाद की कविता के बारे में उनके अर्द्धसामंती वक्तव्य सुनकर अब ऊब होती है. 

पर यह सवाल क्यूँ नहीं उठाया जाय कि कितने वरिष्ठ कवि ऐसे हैं जिनकी कविता, इस निबंध में चर्चित कवि की कविता की तरह, लगातार अपने को जीवंत, सार्थक और समकालीन बनाये हुए हैं? या अब बहुतों से 'बूढ़ा गिद्ध क्यूँ पंख फैलाए' पूछने का समय आ गया है? 

 
यह कविता आजकल और शिद्दत से साथ आती है, अपने इन दुस्स्वप्नों और दुस्स्वप्नों के 'नायक' की वजह से. देश में आम चुनाव होने हैं और ऐसा लगता जिन जिन से कह सकते हो कह दो कि अगर निकल ही पड़े हो वोट डालने तो 'कहीं भूल के भी न लगा देना उस फूल पर निशान.'


(मोदी-दुस्स्वप्नों से इसी तरह परेशां शिव कुमार गांधी और अशोक कुमार पांडे के लिए)

 ***
हुसैन की चित्रकृतियां गूगल से साभार
Viewing all 437 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>