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तुषारधवल की लम्‍बी कविता 'काला राक्षस' : एक बार फिर

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आज साथी कवि तुषारधवल का जन्‍मदिन है और अनुनाद इस मौके पर उनकी चर्चित कविता काला राक्षस का पुनर्प्रकाशन कर रहा है। यह कविता इससे पहले सबद और अनुनाद पर ही छप चुकी है। तुषारधवल अपनी शुरूआत से ही जटिल वैचारिक किंतु नितान्‍त सामाजिक उलझनों के कवि रहे हैं और उनमें यही बात कहन की भिन्‍न दिशाओं के साथ अब भी मौजूद है। काला राक्षस पर हमारे अग्रज कवि वीरेन डंगवाल ने एक महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी की है, जिसे यहां लगाया जा रहा है। यह पोस्‍ट तुषार को जन्‍मदिन की मुबारकबाद देने के साथ-साथ उनकी कविता पर बातचीत की शुरूआत के लिए भी है।
*** 
   यह युवा कविता का मूल ऐजेंडे की तरफ़ लौटना है    

"तुषार धवल की कविता 'काला राक्षस ' को पढ़ते हुए मुझे कई बार मुक्तिबोध-- खासकर उनकी 'अँधेरे में' की याद आई -- और कभी बंगला के समादृत समकालीन कवि नवारूढ़ भट्टाचार्य की प्रख्यात कविता 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश ' की. वैसी ही साफ़, वर्त्तमान से भविष्य तक को बेधने वाली दृष्टि, विवेक संपन्न चेतना, हर मोड़ पर मनुष्यता के शत्रुओं की पहचान, फुफकारता हुआ प्रतिरोध और आवेग त्वरित संवेदन सघन भाषा.मौजूदा तथाकथित वैश्वीकृत सभ्यता की समीक्षा करती हुई इस कविता में उत्कट बेचैनी, एक उद्विग्नता है जो सन्निपात के खतरनाक सीमांतों तक जा पहुँचती है. अलबत्ता लौट भी आती है उस तर्कशीलता के सहारे, जिसका दामन कवि ने एक पल को भी नहीं छोडा है. आवेग और संयम के इन आवर्तनों ने 'काला राक्षस' को एक ज़बरदस्त गत्यात्मकता दे दी है.'काला राक्षस' यह भी इशारा करती है कि युवतर हिंदी कविता का एक बड़ा और समर्थ तबका फिर अपने मूल एजेंडे की तरफ लौटने को प्रयत्नशील है. ठीक भी है. अपने ज़माने में मानवता की पुकारों को कलाएँ क्यों कर और कब तक अनसुनी कर सकती हैं ?"

-वीरेन डंगवाल

तुषार का कविता संग्रह/राजकमल प्रकाशन


(१)

समुद्र एक
शून्य अंधकार सा पसरा है।
काले राक्षस के खुले जबड़ों से
झाग उगल-उचक आती है
दबे पाँव घेरता है काल
इस रात में काली पॉलीथिन में बंद आकाश

संशय की स्थितियों में सब हैं
वह चाँद भी
जो जा घुसा है काले राक्षस के मुंह में

काले राक्षस का
काला सम्मोहन
नीम बेहोशी में चल रहे हैं करोड़ों लोग
सम्मोहित मूर्छा में
एक जुलूस चला जा रहा है
किसी शून्य में

कहाँ है आदमी ?

असमय ही जिन्हें मार दिया गया
सड़कों पर
खेतों में
जगमगाती रोशनी के अंधेरों में
हवा में गोलबंद हो
हमारी ओर देखते हैं गर्दन घुमा कर
चिताओं ने समवेत स्वर में क्या कहा था ?

पीडाएं अपना लोक खुद रचती हैं
आस्थाएँ अपने हन्ता खुद चुनती हैं
अँधेरा अँधेरे को आकार देता है

घर्र घर्र घूमता है पहिया

(२)

काला राक्षस

वह खड़ा है जमीन से आकाश के उस पार तक
उसकी देह हवा में घुलती हुई
फेफड़ों में धंसती धूसर उसकी जीभ
नचाता है अंगुलियाँ आकाश की सुराख़ में

वह संसद में है मल्टीप्लेक्स मॉल में है
बोकारो मुंगेर में है
मेरे टीवी अखबार वोटिंग मशीन में है
वह मेरी भाषा
तुम्हारी आंखों में है
हमारे सहवास में घुलता काला सम्मोहन

काला सम्मोहन काला जादू
केमिकल धुआं उगलता नदी पीता जंगल उजाड़ता
वह खड़ा है जमीन से आकाश उस पार तक अंगुलियाँ नचाता
उसकी काली अंगुली से सबकी डोर बंधी है
देश सरकार विश्व संगठन
सत्ताओं को नचाता
उसका अट्टहास।

काली पालीथिन में बंद आकाश।

(३)

अट्टहास
फ़िर सन्नाटा।

सम्मोहित मूर्छा में
एक जुलूस चला जा रहा है
किसी शून्य में --
काल में
वह
हमारे मन की खोह में छुप कर बैठा है
जाने कब से

हमारे तलों से रोम छिद्रों से
हमरे डीएनए से उगता है
काला राक्षस
हुंकारता हुआ
नाजी सोवियत व्हाइट हाउस माइक्रोसॉफ्ट पेप्सी दलाल स्ट्रीट
सियाचीन जनपथ आईएसआई ओजोन एसपीएम एसिड रेन
स्किटज़ोफ्रेनिया सुइसाइड रेप क्राइम सनसनी न्यूज़ चैनल

बम विस्फोट !!!

तमाशा तमाशबीन ध्वंस
मानव मानव मानव
गोश्त गोश्त गोश्त

घर्र घर्र घूमता है पहिया

(४)

घर्र घर्र घूमता है पहिया

गुबार
उठ रही है अंधकार में
पीली-आसमानी
उठ रही है पीड़ा-आस्था भी
गड्डमड्ड आवाजों के बुलबुलों में
फटता फूटता फोड़ा
काल की देह पर
अँधेरा है
और काले सम्मोहन में मूर्छित विश्व

फिर एक फूँक में
सब व्यापार ...
देह जीवन प्यार
आक्रामक हिंसक
जंगलों में चौपालों में
शहर में बाज़ारों में
मेरी सांसों में
लिप्सित भोग का
काला राक्षस

(५)

एक छाया सा चलता है मेरे साथ
धीरे धीरे और सघन फिर वाचाल
बुदबुदाता है कान में
हड़प कर मेरी देह
जीवित सच सा
प्रति सृष्टि कर मुझे
निकल जाता है
अब मैं अपनी छाया हूँ। वह नहीं जो था।
पुकारता भटकता हूँ
मुझे कोई नहीं पहचानता
मैं किसी को नज़र नहीं आता

उसके हाथों में जादू है
जिसे भी छूता है बदल देता है
बना रहा है प्रति मानव
सबके साथ छाया सा चला है वह

अब कोई किसी को नहीं पहचानता
अब कोई किसी को नज़र नहीं आता

प्रति मानव !
कोई किसी को नज़र नहीं आता

(६)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
इच्छाएं अनंत असंतोष हिंसक

कहाँ है आदमी ?

उत्तेजित शोर यह
छूट छिटक कर उड़ी इच्छाओं का
गाता है
हारी हुई नस्लों के पराभूत विजय गीत
खारिज है कवि की आवाज़
यातना की आदमखोर रातों में
एक गीत की उम्मीद लिए फिर भी खड़ा हूँ
ढेव गिनता
पूरब को ताकता

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
खोल दिया सदियों से जकड़े
मेरे पशु को उन्मुक्त भोग की लम्बी रातों की हिंसा में

(७)

बिकता है बिकता है बिकता है
ले लो ले लो ले लो
सस्ता सुंदर और टिकाऊ ईश्वर
जीन डीएनए डिज़ाइनर कलेक्शन से पीढियां ले लो
ले लो ले लो ले लो
बीपीओ में भुस्स रातें
स्कर्ट्स पैंटीज़ कॉन्डोम सब नया है
नशे पर नशा फ्री
सोचना मना है क्योंकि
हमने सब सोच डाला है
ले लो ले लो ले लो
स्मृतियाँ लोक कथाएँ पुराना माल
बदलो नए हैपनिंग इवेंट्स से
तुम्हारी कथाओं को री-सायकल करके लाएंगे
नए हीरो आल्हा-ऊदल नए माइक्रोचिप से भरेंगे
मेड टू आर्डर नया इंसान
ले लो ले लो ले लो
मेरे अदंर बाहर बेचता खरीदता उजाड़ता है
काला राक्षस
प्यास
और प्यास

(८)

इस धमन भट्ठी में
एक सन्नाटे से दूसरे में दाखिल होता हुआ
बुझाता हूँ
देह
अजनबी रातों में परदे का चलन
नोंचता हूँ
गंध के बदन को

यातना की आदमखोर रातों में
लिपटता हूँ तुम्हारी देह से
नाखून से गडा कर तुम्हारे
मांस पर
लिखता हूँ
प्यास
और प्यास...

एड़ियों के बोझ सर पर
और मन दस फाड़
खून पसीना मॉल वीर्य सन रहे हैं
मिट्टी से उग रहे ताबूत

ठौर नहीं छांह नहीं
बस मांगता हूँ
प्यास
और प्यास...

(९)

प्यास
यह अंतहीन सड़कों का अंतर्जाल
खुले पशु के नथुने फड़कते हैं
यह वो जंगल नहीं जिसे हमारे पूर्वज जानते थे
अराजक भोग का दर्शनशास्त्र
और जनश्रुतियों में सब कुछ
एक पर एक फ्री

हँसता है प्यारा गड़रिया
नए पशुओं को हांकता हुआ

(१०)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
निर्बंध पशु मैं भोग का
नाखून से गडा कर तुम्हारी देह पर
लिखता हूँ
प्यास
और प्यास...

भोग का अतृप्त पशु
हिंसक ही होगा
बुद्धि के छल से ओढ़ लेगा विचार
बकेगा आस्था
और अपने तेज पंजे धंसा इस
दिमाग की गुद्दियों में --
रक्त पीता नई आज़ादी का दर्शन !

लूट का षड़यंत्र
महीन हिंसा का
दुकानों की पर्चियों में, शिशुओं के खिलौनों में
धर्म और युद्ध की परिभाषा में भात-दाल प्रेम में
हवा में हर तरफ
तेल के कुएं से निकल कर नदी की तरफ बढ़ता हुआ
हवस का अश्वमेध
नर बलि से सिद्ध होता हुआ।

बम विस्फोट !!!

(११)

सबके बिस्तर बंधे हुए
सभी पेड़ जड़ से उखडे हुए
सड़क किनारे कहीं जाने को खड़े हैं
यह इंतज़ार ख़त्म नहीं होता
भीड़ यह इतनी बिखरी हुई कभी नहीं थी

काला सम्मोहन काला जादू
सत्ताओं को नचाता
उसका अट्टहास।
काली पॉलीथिन में बंद आकाश।

(१२)

वो जो नया ईश्वर है वह इतना निर्मम क्यों है ?
उसकी गीतों में हवास क्यों है ?
किस तेजाब से बना है उसका सिक्का ?

उसके हैं बम के कारखाने ढेर सारे
जिसे वह बच्चों की देह में लगाता है
वह जिन्नातों का मालिक है
वह हँसते चेहरों का नाश्ता करता है

हँसता है काला राक्षस मेरे ईश्वर पर
कल जिसे बनाया था
आज फिर बदल गया
उसकी शव यात्रा में लोग नहीं
सिर्फ़ झंडे निकलते हैं

(1३)

सत्ताएं रंगरेज़
वाद सिद्धांत पूँजी आतंक
सारे सियार नीले

उस किनारे अब उपेक्षित देखता है मोहनदास
और लौटने को है
उसके लौटते निशानों पर कुछ दूब सी उग आती है।

(१४)

पीड़ाओं का भूगोल अलग है
लोक अलग
जहाँ पिघल कर फिर मानव ही उगता है
लिए अपनी आस्था।

काला सम्मोहन --

चेर्नोबिल। भोपाल।
कालाहांडी। सोमालिया। विधर्व।
इराक। हिरोशिमा। गुजरात।
नर्मदा। टिहरी।
कितने खेत-किसान
अब पीड़ाओं के मानचित्र पर ये ग़लत पते हैं

पीड़ाओं का रंग भगवा
पीड़ाओं का रंग हरा
अपने अपने झंडे अपनी अपनी पीड़ा।

(१५)

कहाँ है आदमी ?

यह नरमुंडों का देश है
डार्विन की अगली सीढ़ी --
प्रति मानव
सबके चेहरे सपाट
चिंतन की क्षमताएं क्षीण
आखें सम्मोहित मूर्छा में तनी हुई
दौड़ते दौड़ते पैरों में खुर निकल आया है
कहाँ है आदमी ?
प्रति मानव !

(१६)

मैं स्तंभ स्तंभ गिरता हूँ
मैं खंड खंड उठता हूँ

ये दीवारें अदृश्य कारावासों की
आज़ादी ! आज़ादी !! आज़ादी !!!

बम विस्फोट !!!

कहाँ है आदमी ?
प्रति मानव सब चले जा रहे किसी इशारे पर
सम्मोहित मूर्छा में

मैं पहचानता हूँ इन चेहरों को
मुझे याद है इनकी भाषा
मुझे याद है इनकी हँसी इनके माटी सने सपने

कहाँ है आदमी ?

सुनहरे बाइस्कोप में
सेंसेक्स की आत्मरति
सम्भोग के आंकड़े
आंकड़ों का सम्भोग
आंकडों की पीढ़ियों में
कहाँ है आदमी ?

सन्नाटे ध्वनियों के
ध्वनियाँ सन्नाटों की
गूंजती है खुले जबड़ों में

यह सन्नाटा हमारी अपनी ध्वनियों के नहीं होने का
बहरे इस समय में

बहरे इस समय में
मैं ध्वनियों के बीज रोप आया हूँ।

(१७)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
उगती है पीड़ा
उगती है आस्था भी
जुड़वां बहनों सी
तुम्हारे चाहे बगैर भी

घर्र घर्र घूमता है पहिया

कितना भी कुछ कर लो
आकांक्षाओं में बचा हुआ रह ही जाता है
आदमी।
उसी की आँखों में मैंने देखा है सपना।
तुम्हारी प्रति सृष्टि को रोक रही आस्था
साँसों की
हमने भी जीवन के बेताल पाल रखे हैं

काले राक्षस

सब बदला ज़रूर है
तुम्हारे नक्शे से लेकिन हम फितरतन भटक ही जाते हैं
तुम्हारी सोच में हमने मिला दिया
अपना अपना डार्विन
हमने थोड़ा सुकरात थोड़ा बुद्ध थोड़ा मार्क्स फ्रायड न्यूटन आइन्स्टीन
और ढेर सारा मोहनदास बचा रखा था
तुम्हारी आँखों से चूक गया सब
जीवन का नया दर्शनशास्त्र
तुम नहीं
मेरी पीढियां तय करेंगी
अपनी नज़र से

यह द्वंद्व ध्वंस और सृजन का।

(१८)

काले राक्षस

देखो तुम्हारे मुंह पर जो मक्खियों से भिनभिनाते हैं
हमारे सपने हैं
वो जो पिटा हुआ आदमी अभी गिरा पड़ा है
वही खडा होकर पुकारेगा बिखरी हुई भीड़ को
आस्था के जंगल उजड़ते नहीं हैं

काले राक्षस

देखो तुमने बम फोड़ा और
लाश तौलने बैठ गए तुम
कबाड़ी !
जहाँ जहाँ तुम मारते हो हमें
हम वहीं वहीं फिर उग आते हैं

देखो
मौत का तांडव कैसे थम जाता है
जब छटपटाए हाथों को
हाथ पुकार लेते हैं

तुम्हारे बावजूद
कहीं न कहीं है एक आदमी
जो ढूंढ ही लेता है आदमी !

काले राक्षस !
घर्र घर्र घूमता है पहिया
****



हरीशचन्‍द्र पांडे के नए कविता संग्रह 'असहमति' पर युवा कवि-समीक्षक महेश पुनेठा

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    बेहद सतर्क एवं चौकन्‍नी दृष्टि  की कविताएं    
                              

वरिष्ठ कवि हरीश चंद्र पाण्डेय हिंदी के बेहद सतर्क एवं चौकन्‍नी दृष्टि वाले  कवि हैं। उनके यहाँ विषयवस्तु-शीर्षक-बिंब-रूपक-प्रतीक का दोहराव नहीं के बराबर मिलता है। आप उनके पहले कविता संग्रह कुछ भी मिथ्या नहीं हैसे लेकर सद्य प्रकाशित चौथे कविता संग्रह असहमतितक की सारी कविताएं पढ़ जाइए, आपको मुश्किल से ही कोई शीर्षक या कविता की पंक्ति दुबारा पढ़ने को मिलेगी और न ही किसी अन्य कवि की कविताओं से मेल खाती हुई। उनकी कुछ कविताएं तो ऐसे अछूते विषयों पर रची गई हैं जो पहली बार किसी कविता की अंतर्वस्तु बनी हैं। वे दोहराव से बचने की सचेत कोशिश करते हैं और पूरी सतर्कता बरतते हैं। इसके चलते ही उनकी कविताओं में हमें  भाव-विचार या अंतर्वस्तु की विविधता एवं जीवन की व्यापकता दिखाई देती है। इसके पीछे कहीं न कहीं उनका यह विश्वास भी काम करता होगा कि आंखें –

ऊब जाती हैं एकरस दृश्य से
कितना ही सुंदर हो दृश्य
हर हमेशा चाहती हैंदृश्यांतर।

उनका मानना है कि-

कितने टोटे में है वह आँख
जो केवल एक-से ही दृश्य देखना चाहती हैं
दृश्यों से लबालब इस दुनिया में।

उनकी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता में जीवन के विविध रूप-रंग-गंध-स्वाद-स्पर्श वाले दृश्य स्थान पाएं। अब यह देखने वाले की बैठने की स्थिति पर निर्भर करता है कि कौनसा दृश्य किसको किस तरह दिखाई देता है। क्योंकि एक ही दृश्य को गाड़ी की इंजन की ओर मुँह करके बैठे आदमी को आता हुआ और पीछे के डिब्बों की ओर मुँह करके बैठे को छूटता दिखता है। उनकी कविताएं संभावनाओं की तरह पाठक को कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती हैं-

ठीक जहाँ से चटकती हैं कली
ठीक जहाँ फूटते हैं पुंकेसर
ठीक जहाँ टिकते हैं फूल बौर और फल।

जहाँ चिटियाँ लंबी कूच पर निकली हैं और उनको देख अलग-अलग वय व लिंग के लोग अलग-अलग तरह से उन्हें देखते हैं। जहाँ पत्नी द्वारा पति को पीटे जाने की खबर है। जहाँ ऊँचे स्थापत्य के शिखर पर दूसरा कोट करते हुए पुताईवालासोचता है अपनी कूची से सबसे मजबूत ,समतल-चैरस और सब इमारतों में यकसा पाए जाने वाली नींव को छूने के बारे में। दरअसल उनकी कविताओं का प्रयोजन-न होने को अपनी आँखों से देखना है/और होने को तो चखना ही है।

 पाण्डेय जी अपनी असहमतिको कभी छुपाते नहीं और पूर्ण सहमति जैसी किसी स्थिति को अपवाद मानते हैं। वे असहमति के आदर को एक जरूरी मूल्य का दर्जा देते हैं। कवि का यह कहना सही है कि बामियान में बुद्ध की प्रतिमा और अयोध्या में मस्जिद को सदियों तक बचाये रखा जा सका तो उसके पीछे असहमति का आदरही तो था। ऐसा एक सच्चा लोकतांत्रिक कवि ही कह सकता है जिसकी लोकतंत्र में गहरी आस्था हो। अन्यथा एक ऐसे समय में जबकि असहमति को शत्रुता के रूप में लिया जा रहा हो उसकी वकालत करना कम साहस का काम नहीं। उनकी कविताएं प्यासजैसी सामान्य संज्ञा की लय और आवाज को भी ऐसी उदात्तता प्रदान कर देती हैं कि मन उस प्यास के प्रति नतमस्तक हो जाता है। उनकी प्यासकविता पढ़कर किसी की भी इच्छा हो जाए पानी पीने की-

धार घटक-घटक कर चली जा रही थी
कंठ के नीचे
सूखी गढ़ई में
गले की घटिका घटक-घटक के साथ
खिसक रही थी नीचे-ऊपर
एक आवाज थी और एक लय
और बनती-मिटती लहरें थीं त्वचा की।

कितनी कविताएं हैं आज ऐसी जो संज्ञा को क्रिया में बदलने की ताकत रखती हैं। उनके भारतीय ज्ञानपीठ  से पिछले दिनों प्रकाशित काव्य संग्रह की यह पहली कविता ही इतनी प्यास जगा देती है कि पाठक घट-घट सारी कविताएं पढ़ जाता है और उसकी प्यास बढ़ती ही जाती है।

इन कविताओं में विसंगति-बिडंबना का चित्रण मात्र ही नहीं बल्कि उनके कारणों की गहरी पड़ताल है। कवि वारको ही नहीं उसकी धारको भी देखता है। उनकी कविता की-उंगुली वार करने वाले पर ही नहीं/धार बेचने वाले पर भी उठती है। तभी तो वे किसानों की आत्महत्या को आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या मानते हैं जिसके लिए यह व्यवस्था जिम्मेदार है। उनकी किसान और आत्महत्याकविता की यह पंक्ति सीधे मर्म पर चोट करती है-क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती’? जिन  किसानों के लिए जीवन उसी तरह काम्य रहा है जिस तरह मुमुक्ष के लिए मोक्ष तथा जिन्होंने हलों की फालों से संस्कृति की लकीरें खींची, आखिर वे आत्महत्या क्यों करते हैं?

जो पितरों के ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
जो आरुणि की तरह शरीर को ही मेड़ बना लेते थे
मिट्टी में जीवनद्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए।

ऐसा क्यों हुआ? इस पर यह कविता पाठक का ध्यान खींचती है। साथ ही उस बिडंबना पर भी कि इसके बावजूद हत्यारे को सीधे-सीधे पहचानना कठिन है। लेकिन अच्छी बात यह है कि कवि उसे अच्छी तरह पहचानता है और दुनिया को उसकी पहचान बताता है। यह उनकी कविता की ताकत है। 

उनकी कविताएं कभी साथ-साथ चलतीं बातें करती हुई दुःखों को बाँटकर निर्भार करती हैं। कभी मूक संवाद करती हैं। कभी ट्रेन में चढ़ आए लोफर किस्म के लड़के से मिलाती हैं जो किसी के लिए बहुत प्यारा और जरूरी है तो कभी मई-जून की दोपहर में दरवाजे-दरवाजे जाकर अपना माल खरीदने के लिए कनविंश करते लड़के-लड़कियों की कठिनाइयों से। कभी परिचित कराते हैं अपने हाथों का जोर और पैरों की टेक परखते हुए बाबूजी से जिन्हें अपना लाइफ सर्टिफिकेटबनवाना है।उनकी नजर एक ओर सड़क किनारे गोबर के लिए खाली तसला लिए खड़ी उस महिला पर है जो भैंसों का उधर से गुजरने का इंतजार करती है और दूसरी ओर राजधानी में खुलने वाले टेंडर पर। यहाँ एक ओर वह दुनिया है जहाँ इस बात का इंतजार है कि टेंडर किसका खुलता है और दूसरी ओर होड़ कि भैंस का गोबर कोई दूसरा आकर न हथिया ले। इस तरह उनकी कविताओं में दो वर्गों में बँटी दुनिया के साफ-साफ दर्शन होते हैं।यहाँ वह जीवन और समाज बिखरा पड़ा है जिसे हम रोज-ब-रोज अपने आसपास देखते-झेलते-ठेलते हैं और जिससे मिलते-टकराते हुए आगे बढ़ते हैं। हमारा चाहा-अनचाहा,खुरदुरा,कठोर और उपेक्षित जीवन ,जिसकी खुबसूरती में हम कभी रीझते हैं और विकृति में खीजते हैं, जो हमें मथता भी है और सचेत भी करता है। इन कविताओं में खुरदरे जमीन के अस्तर की गर्माहटका अहसास होता है। नए दाँत निकलते बच्चे की बेचैनी , ठेला ठेलते हुए लड़के की मंद-मंद मुस्कान,लाशघर में लाशों को पहचानती हुई क्षत-विक्षत आँखें, रस्सी खींचनेवालों की हथेलियों की रगड़न-छाले-जलन भी उनकी कविताआंे में व्यक्त हुई है। कवि अपनी कविता में गुल्लकजैसी उन चीजों का हिसाब भी रखता है जो बनते-बनते भी फूटती रहती हैं। इसके माध्यम से संदेश देते हैं-जहाँ बचपन के पास/छोटी-छोटी बचतों के गुल्लक-संस्कार नहीं होंगे/वहाँ की अर्थव्यवस्था चाहे जितनी वयस्क हो/कभी भरभराकर गिर सकती है।उनकी एक बड़ी खासियत है कि वे जीवन के मामूली से मामूली  प्रसंगों को भी अपनी कविताओं की परिधि में ले आते हैं और सहजता से अपने जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त कर देते हैं।

समीक्ष्य संग्रह की कविताएं सत्ता के चरित्र और जनता के साथ संबंधों की भी पड़ताल करती हैं। वे थर्मसके रूपक के माध्यम से इस संबंध को बहुत सटीक तरह से व्यक्त करते हैं-

सभी कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ भी पता नहीं है ...भीतर की दीवारों को
भीतर काँच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे ले रहा है
एक दिव्यलोक जहाँ
ऊष्मा बाँट ली जाती है भीतर-ही-भीतर
बाहर का हाहाकार  नहीं पहुँच पाता भीतर
भीतर का सुकून   बाहर नहीं झाँकता।

यही तो हो रहा है आज लोकतंत्र में ,किसको फुरसत है जनता के हाहाकार को सुनने की ? एक दिव्यलोक में खोए हैं सुनने वाले। बहुत बड़ा वैकुअम बन गया है जनता और सरकार के बीच। कहीं कोई संवाद नहीं है। प्रजातंत्रएक मिथक की तरह टूटा है।

मनुष्यता में लगातार आ रही गिरावट के बावजूद कवि का मनुष्य और मनुष्यता पर गहरा विश्वास है। उनका मानना है कि मनुष्येतर के बारे में हमने जो भी जाना एक मनुष्य होने पर हीजाना। सारा सबकुछ सोचा हमने मनुष्य होकर ही समग्रता में।’ ..’अणु के यथार्थ को पहचाना तो विराट की फंतासी भी कीमनुष्य होने पर ही। गर ऐसा नहीं होता तो आज हमारे पास कोई धरोहर नहीं होती। न व्याकरण रचते ,न विचार-मंथन करते और न आविष्कार। पश्चाताप व अपराधबोध जैसे भाव हमारे मन में एक मनुष्य होने के चलते ही पैदा हुए। वे प्रश्न खड़ा करते हैं-

मनुष्य ही सच नहीं अगर
तो वह सच कैसे है
जो सोचता है    यह मनुष्य ,मनुष्येत्तर।

प्रस्तुत संग्रह में दाहकर्म कराने  वाली पर लिखी गई कविता महराजिन बुआएक अद्भुद कविता है जो इस विषय पर मेरे संज्ञान में हिंदी की पहली कविता है। एक ऐसे समाज में जहाँ महिलाएं  शव यात्रा में शामिल तक नहीं होती हैं वहाँ महाराजिन बुआ मरघट की स्वामिनी बनकर घाट पर सारे शवों की आमद स्वीकार कर रही है-चिताओं के बीच ऐसे टहल रही है/जैसे खिले पलाश वन में विचर रही हो। वह भी कभी एक साधारण औरत थी जिसके आँचल में दूध और आँखों में पानी था। विधवा हो गई। पर उसने मथुरा या वृंदावन का रास्ता न पकड़कर श्मशान का रास्ता पकड़ लिया और वहाँ चिताओं को मुखाग्नि दिलवाने और कपाल क्रिया करवाने में लग गयी-

पंडों के शहर में
मर्दों के पेशे को
मर्दों से छीनकर
जबड़े में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह...
ठसकवालों से ठसक से वसूल रही है दाहकर्म का मेहनताना
रिक्शा-ट्राली में लाए शवों के लिए तारनहार हो रही है।

आगे की पंक्तियों में उसका कैसा विराट व्यक्तित्व उभर आता है-

घाट के ढलान पर
उम्र की ढलान लिए
दिन भर सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है
मनु की प्रपौत्री वह
असूर्यंपश्या
तीर्थराज प्रयाग को जोड़नेवाले
एक दीर्घ पुल
और परम्परा के तले......।

यह कविता पूरे पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने वाली कविता है। एक ओर वह विधवाएं हैं जो सारी परम्पराओं का निर्वहन करती हुई निरीह-अबला बनी पूरा जीवन किसी अभिशाप की तरह काटती है और दूसरी ओर महराजिन बुआ है जो परम्पराओं को चुनौती देती हुई सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है। कितना विराट चरित्र है एक स्त्री का जो पाठक के भीतर एक रोमांच पैदा कर देता है। इसके सामने सारी पुरुषसत्ता और धर्मसत्ता बौनी प्रतीत होती है। इसके अलावा चिटियाँ-2’,’पनचक्की’, ’रतजगाजैसी कविताएं हैं जो स्त्री जीवन के यथार्थ को कहती हैं। पनचक्कीके रूपक के माध्यम से एक गृहस्थिन के योगदान को रेखांकित करते हैं-जिसका जितना देय/ सब चुकता करती है पनचक्की/एक गृहस्थिन की तरह। रतजगाअपने आप में एक अलग मूड की कविता है जो पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था का स्वाँग रचती है। इसमें कुमाउँ अंचल में लड़के की शादी पर बारात जाने वाली रात रतेलीके अवसर पर औरतों द्वारा होने वाले नाच-गाने और स्वाँग के बहाने सदियों से औरतों के प्रति होने वाली प्रताड़नाओं,वर्जनाओं ,फटकारों का चिट्ठा खोला गया है-

प्रताड़नाएँ ,जिन्होंने उनका जीना हलकान कर रखा था
अभी प्रहसनों में ढल रही हैं
डंडे कोमल-कोमल प्रतीकों में बदल रहे हैं
वर्जनाएं अधिकारों में ढल रही हैं.......
जो आदमियों द्वारा केवल आदमियों के लिए सुरक्षित हैं
उस लोक में विचर रही हैं
पिंजरे से निकल कर कितना ऊँचा उड़ा जा सकता है
परों को फैलाकर देख रही हैं।

कवि ने बहुत खूबसूरत तरीके से इस बात को व्यक्त किया है कि शादी के समय झंझावातों में भी साथ रहने के मंत्र और सात जन्मों के साथ रहने की आकांक्षा रखने वाली औरतें एक ही जन्म में साथ चलते-चलते थक जाती हैं। इस पर सोचा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों है?

प्रकृति का बेलाग सौंदर्य भी इन कविताओं में अपनी छटा बिखेरता है-अभी-अभी नहाये बच्चे-सा/चमक उठे हैं-पहाड़। उनकी कविता में आया गाँव के सीमांत पर खड़ा टुन का पेड़ जो अब नहीं रहा कितना अद्भुत है। यह मात्र एक पेड़ नहीं बल्कि पूरा गाँव और गाँव की संस्कृति का पाठ है। साक्षी है एक कालखंड का,एक नदी,पहाड़,पक्षी,वसंत,पतझड़ों का। कवि उसको कुछ इस तरह याद करता है-

हमारे बचपन में जवान थे तुम
अखाड़े में कूदने को तैयार-से
तुम्हारी भुजाओं की ऐंठी मछलियों पर
जब सूर्य की पहली किरन पड़ती थी
मालिश किए पहलवान की तरह दमकते थे तुम
क्षितिज तुम्हारी शाखों की गझिन हरियाली में विलीन हो जाते थे
चाँदनी एक पत्ते से फिसल कर दूसरे में अटक जाती
और बरसात तरस कर रह जाती
तुम्हारे नीचे खड़े आदमी को भिगोने को।

यही पेड़ था जहाँ पर घास से लदी युवतियाँ बोझ बिसाने बैठती थी। गाँव की सयानी औरतें नववधुओं के मुखड़े का दर्शन करतीं थी। लड़कों ने गोद रखे थे अपने नाबालिग सपनों के नाम। बूढ़े उसकी जड़ों में बैठकर गढ़ते थे किस्से-कहानियाँ। कवि इस पेड़ के बहाने पहाड़ के खाली होते गाँवों की स्थिति को अभिव्यक्त करता है-

वैसे भी यह केवल औरतों का गाँव होता जा रहा है
जिनके मर्द बाहर हैं रोजी के लिए
जो एक ओर देख रही हैं छोटे-छोटे बच्चों को
और दूसरी ओर बुढ़ाते सास-ससुर को।

अच्छी बात यह है कि वहीं पर एक नए पेड़ को उगते हुए देख रहा है। कवि केवल बसंत में खिलने वाले फूलों का ही जिक्र नहीं करते बल्कि एक ऐसे मौसम में जब आग लगी है चारों ओर उस मौसम में खिलने वाले फूलों का भी जिक्र करते हैं-

ये टेसू  ये गुलमोहर  ये अमलतास
और उधर कछारों में हँसने लगे हैं
पीले-पीले फूल तरबूज के
उन फूलों के पीछ पीछे चले आ रहे हैं फलों के काफिले
बाहर सूर्य का ताप जितना अझेल हुए जा रहा है
भीतर ये उतने ही रसीले,मीठे और लाल हुए जा रहे हैं।

भय के प्रकाश मेंकविता में उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग के दृश्य का जीवंत चित्रण किया गया है-

आग की बारिश
आग की फिसलन
आग का मलबा है....
सहस्रों पाँव निकल आए हैं आग के
दशासन-सी दिख रही है आग
अग्निपक्षी-सी उड़ रही है।

इस आग के पीछे के कारणों को अपनी कविता में बताते हैं-

ये आग ठेकेदार की कारस्तानी
जिसे नहीं मिला जंगल का ठेका
या फिर किसी पर्यटक की हरकत है
या फिर कोई लड़का फेंकी गयी बोतल की पेंदी को
सूरज की सीध में रख
बीड़ी सुलगा रहा था....
मुमकिन है कोई टहनी रगड़ खा गयी थी
अपने ही पेड़ की     दूसरी टहनी।

इस संग्रह में किशोर अपराधियों पर अपने तरह की अकेली कविता है उनका भविष्य। इस कविता में किशोर मन की उथलपुथल तो है ही साथ ही अपराध के कारणों की ओर संकेत भी। जिसको अपराध कहा जाता है वह दरअसल अपराध नहीं इस उम्र की सौंदर्य के प्रति एक सहज जिज्ञासा है।  जिस किशोर को एक अंगुठी की चोरी के अपराध में पकड़ा गया था दरअसल उसकी चोरी का कारण अंगुठी का वह रूप था जिसे देख कर वह मोहित हो गया और उसने वह अंगुठी अपनी अंगुली में डाल ली फिर पहुंच गया किशोर अपराध गृह में जहाँ-

उन्हें उनका भविष्य समझाने
कुछ विशिष्ट अतिथि पहुँच रहे हैं सफेदी से तर-ब-तर
उँगलियों में झिलमिल अगूँठियाँ पहने
कुछ बड़े अपराध
उन हाथों से मुक्त होना चाह रहे हैं।

इस कविता में भी कवि बहुत खूबसूरती के साथ अपराध के कारणों की ओर बिन कहे संकेत कर देते हैं। यह कविता जहाँ समाप्त होती है वहाँ से एक दूसरी कविता पाठक के मन में चलती है।

पांडेय जी की कविताओं का शिल्प स्वेटर की बुनाई की तरह है जिसके लिए अतिरिक्त कहीं से कुछ लाना नहीं होता है बल्कि फंदों को कुछ उल्टा-सीधा करके सुंदर बिनाई उभर आती है। उनके शिल्प में बातचीत की आत्मीयता फूटती है। भाषा व शिल्प की दृष्टि से भी वे एक लीक पर नहीं चलते नई राह बनाते हैं। कविता में काव्यात्मकता का निर्वहन करते हुए भी सहजता कैसे संभव है यह उनकी कविताओं से सीखा जा सकता है। इस रूप में वे नागार्जुन,त्रिलोचन और केदार की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। इन कविताओं में जीवन की गझिन समझ और काव्यतत्व दोनों का संतुलन मिलता है। जितनी विविधता है उतनी ही व्यापकता भी है। जीवन की बारीक वास्तविकताओं और मानवीय संवेदना के सघन तंतुओं की बुनावट है। जीवन का उल्लास और विश्वास इन कविताओं में गुंथा है। इस बात से सहमत होना कठिन है कि उनकी कविताएं चुप्पी की कविताएं हैं। उनकी कविताओं का स्वर शांत,संयत और नियंत्रित जरूर है पर उसे चुप्पी नहीं कहा जा सकता है। उनकी कविताओं में भरपूर प्रतिरोध है पर वह नारेबाजी के तर्ज में न होकर काव्यात्मक रूप में है। यह उनके कवि की पहचान है।
असहमति (कविता संग्रह) : हरीश चंद्र पाण्डेय
प्रकाशकःभारतीय ज्ञानपीठ 18,इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली-110003

महेश पुनेठा 

संपर्क- रा00का0 देवथल जिला-पिथौरागढ़ 262542 मो09411707470

कुछ समय अनुनाद पर गतिविधियां शिथिल रहें शायद

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    प्रिय पाठको एवं मित्रो   


कुछ निजी व्‍यवस्‍तताएं, अस्‍वस्‍थता, थकान आदि कई कारणों से अनुनाद पर लगातार उस तरह काम करना सम्‍भव नहीं हो पा रहा है। मैं अब तक खींच रहा था पर लगने लगा है कि कुछ समय का विराम नई ऊर्जा और स्‍फूर्ति देगा। बहुत थकान और असमर्थता हो तो शक्ति-संचय के लिए रुक जाने में हर्ज नहीं। मुझे कई रचनाकारों की कविताओं के मेल मिल रहे हैं, सभी को अलग-अलग सूचित करना लम्‍बा काम है, अत: मैं यहां सूचित कर रहा हूं कि इन कविताओं पर अभी विचार करना सम्‍भव नही है। अभी और कविताएं न भेजें। एक  नई पारी के साथ मिलेंगे कुछ समय बाद, तब फिर कविताएं आमंत्रित की जाएंगी। आप सभी के सहयोग और प्‍यार के लिए हम आभारी हैं। 

         शिरीष कुमार मौर्य        

                                                 

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला की दो कविताएं

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अँधेरे के वे लोग   

अँधेरे में छिपे वे लोग कभी दिखते नहीं
दिन के उजालों में भी
अदृश्य वे

सड़क चलते आवारा कुत्ते

डरते है लोग उनसे
दूर से ही दिख जाते है
एक बिस्किट गिरा देते है या
थोड़ा संभल कर निकल जाते है ...

वही एक प्राचीर को गढ़ते
एक भव्य महल को रचते
बहुमंजिली इमारतों को रंगते
अकसर
नज़र नहीं आते ...

उनकी देह की सुरंग में कितना अँधेरा है
एक नदी बहती है जहां
पसीने की
उसी में कहीं
वो डूब जाते हैं
अपनी मुकम्मल पहचान के लिए नहीं
अपने निर्वाण के लिए
मिट्टी की ख़ुश्‍बू के साथ ....

और रात को
जगमगाती रौशनी में
स्‍वर्णाभाओं से सज्जित
लोग सम्मान पाते है वहाँ
उन्‍हीं इमारतों में ....
***


वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है   

वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है ...
घंटों वह अपनी एक खास भाषा मे हँसती है
जिसका उसे अभी अधूरा ज्ञान भी नहीं
उसके ठहाके से ऐसे कौन से फूल झड़ते है
जो किसी खास जंगल की पहचान है .... ...

जबकि उसकी रूह प्यासी है
और वह रख लेती है निर्जल व्रत 
सुना है कि उसके हाथों के पकवान
से महका करता था पूरा गाँव भर 
और घर के लोग पूरी तरह जीमते नहीं थे 
जब तक कि वे पकवान मे डुबो डुबो कर
बर्तन के पेंदे और 
अपनी उँगलियों को चाट नहीं लेते अच्छी तरह

खिलती हुई कली सी थी बेहद नाजुक
गाँव की एक सुन्दर बेटी 
घर के अंदर महफूज़ रहना भाता था उसे
पर वह चराती थी बछिया
ले जाती थी गाय और जोड़ी के बैल
सबसे हरे घास के पास
बीच जंगल में ...
एक रोज
दरांती के वार से भगाया था बाघ
छीन कर उसके मुंह का निवाला
उसने नन्ही बछिया को बचाया था
तब से वह खुद के लिए नहीं
बाघ से गाँव के जानवर बच्चों को बचाने
की बात सोचती थी
टोली मे सबसे आगे जाती थी जंगल
दरांती को घुमाते हुए ...............

उसे भी अंधेरों से लगता था बहुत डर
जैसे डरती थी उसकी दूसरी सहेलियां
पर दूर जंगलों से लकडिया लाते
जब कभी अँधेरा हुआ
खौफ से जंगल मे
लडकियां में होती बहस
उस नहर के किनारे 
रहता है भूत ..... 
कौन आगे कौन पीछे चले 
सुलझता नहीं था मामला
बैठ जाती थी लडकियां 
एक घेरे में
और कोई होता नहीं था टस से मस
भागती थी वह अकेले तब 
उस रात के घोर अँधेरे में
पहाड़ के जंगलों की ढलान मे 
जहां रहते थे बाघ और रीछ
और गदेरे के भूत .. ..
फिर हाथ मे मशाल ले 
गाँव वालों के साथ आती थी  
पहाड़ मे ऊपर 
जंगल मे वापस .............

वह रखती थी सबका ख्याल घर मे
सुबह उनके लिए होती थी
उन्ही के लिए शाम करती थी
बुहारती थी घर
पकाती थी भोजन और प्यार का लगाती परोसा.
सुना कि उधर चटक गयी थी हिमनद
और पैरों के नीचे से पहाड़
बह गया था
बर्तन, मकान, गाय बाछी
खेत खलिहान
सब कुछ तो बह गया था ...............

कलेजे के टुकड़े टुकड़े चीर कर
निकला था वो सैलाब 
अपनों की आखिरी चीख
कैसे भूलती वह ...........
वह दहाड़ मार कर रोना चाहती है और
वह कतई हँसना नहीं चाहती है मगर
देखा है उसे
आंसू को दबा कर
लोगों ने
हँसते हुए
और झोपड़ी को फिर से
बुनते हुए .................

जानती है वह
बचा कुछ भी नहीं 
सब कुछ खतम हो गया है ...
मानती है फिर भी
किसी मलबे के नीचे
कही कोई सांस बची हो ....
नदी के आखिरी छोर से
पुनर्जीवित हो 
कोई उठ कर,
उस पहाड़ की ओर चला आये ....
इस मिथ्या उम्मीद पर
भले ही वह झूटे मुस्कुराती हो
पर एक आस का दीपक जलाती है
पहाड़ मे फिर से खुशहाली के लिए
***
संक्षिप्त परिचय 
डॉक्टर (स्त्री रोग विशेषज्ञ ),समाजसेवी और लेखिका। पिता के साथ देहरादून, जगदलपुर (अब छत्तीसगढ़ ), गोपेश्वर (उत्तराखंड) कानपुर, लखनऊ, कलकत्ता अध्यन के लिए रहीं,अतः मध्यप्रदेश में बस्तर जिले में आदिवासियों के जीवन को भी बहुत नजदीक से देखा-परखा-समझा। तीन साल संगीत-साधना भी की। नृत्य से भी लगाव रहा। स्त्रीरोग विशेषज्ञ होने की वजह से महिलाओं की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक पीड़ाओं को नज़दीक से देखा और दिल से महसूस किया। अपने पति के साथ मिल कर हर महीने में एक या दो बार सुदूर सीमांती पहाड़ी गाँवों में व देहरादून के बाहरी हिस्सों में ज़रूरतमंदों को नि:शुल्क चिकित्सकीय सेवा उपलब्ध कराती रही हैं। उत्तराखंड में सामाजिक संस्था धादसे जुड़ कर सामाजिक विषयों पर कार्य भी करती हैं। सामूहिक संकलन खामोश ख़ामोशी और हमऔर त्रिसुगंधी में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं।


के पी सिंह के कम्‍प्‍यूटर कविता पोस्‍टर

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के पी सिंह नामक एक सज्‍जन ने  मुझे आठ कविता पोस्‍टर अपनी इस टिप्‍पणी के साथ भेजे हैं - ''इस तरह फोटोशाप वाले पोस्‍टर हाथ के बने पोस्‍टरों के सामने दरअसल कोई स्‍थान नहीं रखते, वे आन्‍दोलन की तरह होते थे। पर शायद इस तरह के पोस्‍टर कम्‍प्‍यूटर के वालपेपर की तरह ही काम आ जाएं। मैंने खुद फेसबुक से ऐसे कई पोस्‍टर लेकर वालपेपर बना रखे हैं। उन्‍हीं से ऐसा जुगाड़ करने की प्रेरणा मिली। इन्‍हें भी अपने लैपटाप पर वालपेपर की तरह प्रयोग करने के लिए ही बना रहा हूं।''मुझे ये पोस्‍टर बहुत सरल भाषा में कहूं तो सुन्‍दर लगे। इनमें रघुवीर सहाय की दो, वीरेन डंगवाल की एक, गिरिराज किराड़ू की एक, बल्‍ली सिंह चीमा की एक और मेरी तीन छपी-अनछपी कविताएं हैं। अशोक और केशव भाई के हवाले से सुना है कि के पी सिंह आजकल ही फेसबुक पर प्रकट हुए हैं और काफी हलचल मचाए हुए हैं। ख़ैर अब वो मेरी गली नहीं रही। इन पोस्‍टर्स को मूल बड़े आकार में देखने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए। 

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के पी सिंह से krishnapratapsingh2013@yahoo.com पर सम्‍पर्क किया जा सकता है, इसी मेल आई डी ये पोस्‍टर्स मुझे मिले हैं। इस मेल में यह भी लिखा है कि जल्‍द और कई सारे पोस्‍टर्स मुझे भेजेंग।

के पी सिंह के कम्‍प्‍यूटर कविता पोस्‍टर - वीरेन डंगवाल की कविताएं और एक शुभकामना

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मैंने दो पोस्‍ट पहले थकान और कुछ निजी वजहों से अनुनाद पर गतिविधियों के शिथिल रहने की बात कही थी, मेरा हाल वैसा ही है पर के पी सिंह लगातार कम्‍प्‍यूटर कविता पोस्‍टर बना रहे हैं और अपने तकनीकी स्‍वरूप के बावजूद ये सुन्‍दर हैं, इन्‍हें देखने का मन करता है। सो एक तरह से इधर मुझे कोई मेहनत नहीं करनी है, बस के पी की भेजी तस्‍वीरें चिपका देनी हैं। इस बार प्रस्‍तुत हैं वीरेन डंगवाल की चार कविताएं। 

कृपया इमेज पर क्लिक करें
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कविता जो साथ रहती है-6 / महेश वर्मा की एक कविता : गिरिराज किराड़ू

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गिरिाराज किराड़ू ने इस बार न सिर्फ़ अपने बल्कि मेरी समझ के भी बहुत क़रीब के कवि महेश वर्मा पर लिखा है। यह कविता मेरे भी साथ रहती है। मैं इसका लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ पाठ नहीं कर पाता जैसा गिरिराज ने किया है क्‍योंकि मुझे भी अहसास है कि मैं ख़ुद गर्वीली मुद्राओं के भीतर वधस्‍थल की ओर ले जाया जाता हुआ एक निरूपाय पशु ही हूं ..... बहरहाल, यह मेरे कहने का स्‍थान नहीं है। इस स्‍तम्‍भ के रूप में हमारे वक्‍़त की कविता पर गिरिराज के कथन संजोने की चीज़ हैं। ये सिलसिला अभी लम्‍बा जाएगा।   


रोने की सामाजिक और निजी भाषा


और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया

दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने

कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ

मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार - तुम्हें मालूम है ना ?

किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?

पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा

(सामाजिक भाषा में रोना: महेश वर्मा )

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पहला वाक्य 'सामाजिक' (होने में) विफलता का, एक 'निजी' विफलता का वाक्य है:
और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
यह 'मेरी' भाषा है, 'निजी' भाषा है, यह 'निजी भाषा' की भी विफलता का वाक्य है.
दूसरा वाक्य 'सामाजिक' होने की एक कोशिश है:
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
शोकगीत अगर खुद के नाम हो और विदा भी खुद ही से विदा हो तो भी शोकगीत और विदा दोनों अन्य की पूर्वापेक्षा के बिना संभव नहीं. यह जो अपने से इतर सब कुछ है यह उससे विदा भी होगी ही और उसे भी यह शोकगीत सुनाई देगा ही.
और तीसरा वाक्य दूसरी बार विफलता का वाक्य है:
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया
एक शोकगीत रस्सियों के पुल में कैसे बदल गया जिसकी रूपकात्मकता और उसके इंगित जिनको पढ़ना कविता पढ़ने के लिए अनिवार्य है, का एक अर्थ, सीधा अर्थ यह है कि शोकगीत लिखने का उपक्रम भी विफल रहा.
पाठीय (शोकगीत) के पार्थिव (रस्सियों के पुल) में बदल जाने में पुल के रस्सियों का होना क्या यह कहता है कि शोकगीत को किसी और वस्तु या किसी और पुल जैसा होना चाहिए था?
तीन पंक्तियों के इस पद (स्टैंजा) का अगले स्टैंजा से क्या सम्बन्ध है?
दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने
दूसरा पद पहले पद में हुए कर्म (विफलता) का कारण नहीं व्यक्त करता. वह पहले पद में जो व्यक्ति/मनुष्य है उसके होने का एक और विवरण है. जो व्यक्ति/मनुष्य अपनी भाषा से किसी को बहला नहीं  पाया, जो शोकगीत नहीं लिख सका, जिसका शोकगीत रस्सियों के पुल में बदल गया, वही व्यक्ति/मनुष्य दिशाज्ञान से वंचित है. उसी तरह उसके होने का एक और विवरण यह है कि उसे पता है:
कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ
अब कविता में कोई ठोस अन्य/अनन्य है जिससे वह संबोधित है, 'तुम्हें' कहकर. उसे पता है रूठकर जाने की उसकी मुद्रा असफल भले हो अंत में, शुरू गर्वीली होने से करती है. और तब वह अपने बारे में बयान करता है. 'भीतर' वह 'एक निरुपाय पशु' है, 'वधस्थल को ले जाया जाता हुआ'. यह उसकी वधस्थल को ले जाये जा रहे पशु जैसी निरुपायता है कि उसे दिशाज्ञान नहीं है, कि वह किसी को अपनी भाषा से बहला नहीं पाता, शोकगीत नहीं लिख पाता और यह उसका दयनीय ईगो मैकेनिज्म है कि वह अपनी समस्त पराजय और विकल्पहीनता को रूठकर जाने - पलायन करने - की 'गर्वीली मुद्रा' के अभिनय से ढक लेना चाहता है. लेकिन उसका यह ईगो मैकेनिज्म उस ठोस अन्य के सामने व्यर्थ है क्यूंकि उसे 'तो मालूम है' उसके 'सारे जतन'.
उस मालूम है इस व्यक्ति/मनुष्य के निजी की क्षुद्रता, उसका ना-कुछ होना:
मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार - तुम्हें मालूम है ना ?
यह प्रश्नवाचक सच्चा और अडिग नहीं है, जिसे सारे जतन मालूम हों उसे यह भी मालूम होगा ही कि ' मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है' इस व्यक्ति/मनुष्य के ' आकाश का विस्तार'. क्या यह इस अस्तित्व की, उसके निजी की वह क्षुद्रता है जिसकी कल्पना सृष्टि के, सामाजिक के विराट के सम्मुख हम करते हैं और क्या इसी की वजह से यह लगातार हर कर्म में विफल है?
किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?
यह उसके निजी की, निजी दुःख की क्षुद्रता है जो 'फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी' के सम्मुख ना-कुछ है. लेकिन यह पृथ्वी नहीं है जो यूं भी केवल फूलों से भरी नहीं हो सकती बल्कि 'तुम्हारी पृथ्वी' है.
उस ठोस अन्य का 'तुम' का निजी क्षुद्र नहीं यानी इस आख्याता व्यक्ति/मनुष्य की क्षुद्रता सार्वभौम नहीं. उसके बरक्स कोई है जिसकी एक पृथ्वी है समूची, सुखी - 'फूलों से भरी'.
एक तरफ क्षुद्रता और दुःख है दूसरी तरफ विराट और सुख है. इन दो विलोमों में फिर भी यह सम्बन्ध है कि जिसका निजी विराट और सुखी है उसको सारे जतन पता हैं उसके जिसका निजी क्षुद्र और दुखी है.
क्या दोनों के मध्य अंतरंग वैपरीत्य का जो सम्बन्ध है, वह प्रेम है? दो असमान अस्तित्वों के बीच प्रेम. या विराट/सुख क्षुद्र का आल्टर ईगो है? क्या वे दोनों मिलकर सम्पूर्ण मानवीय अस्तित्व बनाते हैं, क्षुद्र और विराट मिलकर, सुख और दुख मिल कर? लेकिन अपने इस ठोस अन्य की बात, अपने इस आल्टर ईगो की बात वह तभी कह पायेगा जब वह सीख लेगा एक 'सामाजिक भाषा में रोना'.  कविता 'सामाजिक' (होने में) की एक 'निजी' विफलता से शुरू होती है और 'सामाजिक' भाषा में रोना सीखने की कामना से समाप्त.
पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा
'रोना' क्या इसलिए कि वह उसके आत्म के सर्वाधिक अंतरंग क्रिया है, या इसलिए भी कि आल्टर ईगो के सुख का बयान करने के लिए अपने आप को अपने होने की पारिभाषिक क्रिया - रोने से - उत्तीर्ण किये बिना उसकी बात नहीं लिखी जा सकेगी.
अनन्य भी अन्य है.

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बीच में भूमिका

निजी और सामाजिक के बारे में जितना आसान यह कहना है कि वे मूलतः एक ही आत्म के आकार हैं, कि दोनों की कोई निरपेक्ष सत्ता नहीं; उतना ही मुश्किल है इसे जीवन में कर पाना या देखने की ऐसी विधि ढूंढ पाना जिसमें आत्म की उस एकता को उपलब्ध किया जा सके. निजी भी राजनैतिक अर्थात सामाजिक भी होता है और राजनैतिक/सामाजिक भी निजी होता है, कि मूलतः यह द्वैत व्यर्थ है यह कह पाना जितना आसान है इसमें इंगित अद्वैत को स्थापित करना उतना ही मुश्किल.
किन्तु यह ज़रूर है कि यह सामाजिक है जो निजता और सामाजिकता के भेद को अनिवार्य बनाता है बल्कि वही है जो निजता का परिसीमन भी करता है. आप सार्वजनिक स्पेस में क्या नहीं कर सकते यह निषेध सामाजिकता द्वारा परिभाषित होता है. यह परिसीमन और निषेध, यह द्वैत भाषा में भी होता है. भाषा भी निजी और सामाजिक भाषा होती है.
अक्सर हम यह मानते हैं निजी भाषा 'प्रकृत' होती है, 'मूल' होती है. सामाजिक भाषा निषेधों की छाया में, उनके आदेश और भय की छाया में रहती है, वह 'साभ्यतिक' होती है, 'अभिनय' होती है.
वह अन्य/अन्यों के होने से प्रतिकृत होती हुई संहिता (contract), बल्कि खुद अपने होने में विधि (law) होती है. भाषा की इस सामाजिक संहिता में प्रवेश में निजी का, मूल का दमन अपरिहार्य है वैसे ही जैसे साभ्यतिक में मूल का, इंस्टिक्ट का दमन अनिवार्य है.
सामाजिकता और समाज इस दमन पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, भाषा भी. लेकिन जैसे 'सभ्यता'में आदिम रहता है, सामाजिक भाषा में निजी रहता है, दमित लेकिन दमित होने में अनेकशः अभिव्यक्त.
यह दमन किन्तु अस्तित्व की (नैतिक) शर्त है इस अर्थ में कि यह न्याय की शर्त है. मूल की और लौटना संहिता और विधि से पहले के आदिम में, न्याय की असंभावना के क्षेत्र में लौटना है.  इस दमन के मुआवजे के तौर पर हमने 'सभ्यता'पायी है, न्याय और उससे भी अधिक न्याय की एक वास्तविक, तथ्यात्मक, सम्भावना पायी है. किन्तु न्याय का यह प्रश्न सबसे विकट तब है जब वह 'साभ्यतिक और 'आदिवास' के बीच है (यह निबंध 'आदिवास' को सभ्यता ही मानता है, कमतर बिल्कुल नहीं, लेकिन लगातार एक स्वीकृत बाइनरी ('मूल/आदिम' तथा 'साभ्यतिक की) में बात कर रहा है इरादतन, क्यूंकि वह एक 'तथ्य' है).
मूल के साथ, आदिवासी के साथ न्याय यह नहीं है कि 'सभ्यता'उसमें अपने परास्त आत्म की झलक देखें और अपने उस 'सभ्यता'पूर्व आत्म को 'सभ्यता'की अनहुई वैकल्पिकताओं को एक नुमाइश, एक संग्रहालय में बदल दे. उसके साथ न्याय यह है कि वह अपने ढंग से फिर से 'सभ्यता'की इस यात्रा पर निकले या इस वर्तमान 'सभ्यता'के विधि निषेधों से अपने ढंग से नेगोशिएट करे. अतीत का टूरिज्म, उसे एक एन्थ्रोपोलॉजिकल सब्जेक्ट में बदलना आपके लिए आपके काम का है उसके लिए नहीं उसके काम का नहीं.   

3

रघुवीर सहाय की कविता में सामाजिक का अर्थ 'नागरिक' है. उनकी कविता में निजी ढूंढ पाना मुश्किल है - यह 'नागरिक' के निजी हो जाने की कविता है. 'नागरिक' के निजी हो जाने की प्रक्रिया आत्म-दमनकारी या आत्म-रूपांतरकारी प्रक्रिया है. रघुवीर सहाय उस भाषा से जिसके 'दो अर्थ हों' भय महसूस करते हैं - यह दो अर्थ वाली 'रूपकात्मक' भाषा न्याय को असंभव कर देती है. न्याय के लिए अंततः एकार्थ अनिवार्य है. न्याय रोशोमन नहीं है. रघुवीर भाषा की अलंकारिकता के, उसके और कवि-आत्म के, न्याय की खातिर दमन के, भाषा की चरम सामाजिकता/नागरिकता के लगभग इकलौते कवि हैं. मुक्तिबोध में अलगाव है, उनका लेखन 'विपात्र-कथा' है, उसमें आत्मविस्तार की अपार बेचैनी और छटपटाहट है, रघुवीर जैसा कठोर आत्म-दमन नहीं. आलोकधन्वा में निजी आत्म की उड़ान है, विद्रोही, काव्यात्मक उड़ान.
रघुवीर नागरिक प्रतिरोध के कवि हैं, आलोक विद्रोह के और मुक्तिबोध आत्म-संघर्ष के. रघुवीर के लेखन में आत्म-दमन की पृष्ठभूमि - आत्मसंघर्ष का मुक्तिबोधीय फैंटेसी पटल - अदृश्य है और रूमान की वह ठोस ऐन्द्रिकता भी जो आलोक में है. अगर एक पारिवारिक रूपक में कहें तो रघुवीर की कविता सख्त पिता की कविता है, मुक्तिबोध की घर में संस्थापित-किन्तु-विस्थापित पुत्र की और आलोक की घर से भाग गये आवारा विद्रोही की. 
जैसे एक मुक्तिबोधीय नैतिकता है भाषा को आत्म-संघर्षी बनाने की वैसे ही एक रघुवीर-नैतिकता भी है, भाषा को निरंतर न्याय-संभव बनाने की, अधिकतम संभव सामाजिक/नागरिक बनाने की. मुक्तिबोध में सभ्यता समीक्षा है तो रघुवीर में लोकतंत्र समीक्षा.
महेश वर्मा की यह कविता, तब जब कि आत्म-तुष्ट निजता और आत्म-तुष्ट सामाजिकता के बाहुल्य में संकोच की कविता है, वह सामाजिक भाषा में प्रशिक्षित न होने को बिना अपराधबोध के स्वीकार करती है.
यह संकोच और स्वीकार उसकी नैतिकता है. और यही वह चीज़ है जिसके कारण हमेशा साथ रहती है यह कविता. विनम्रता और संकोच से कायल करती हुई, मेरे जैसे दिशाज्ञान से वंचित जैसे-तैसे कवि को बिना डराये कुछ सिखाती हुई.
अन्य भी अनन्य है.

4

महेश वर्मा की कविता मेरे लिए 'निजी' रूप से कविता की उम्मीद की कविता है. उससे आलोक पुतुल के 'रविवार.कॉम' पर परिचय हुआ था और तब से वह उम्मीद बढ़ती ही रही है. उनकी कविता को मैंने 'हिंदी कविता का छत्तीसगढ़'कहा है - 'अपने बारे में दूसरों की अटकलों से बेपरवाह:  जीवन और कला की अपने ढंग से बहती एक नदी, अपने ढंग से होता हुआ एक आदिवास.'  बाद में इसी कॉलम में यह कहा गया है कि महेश वर्मा, प्रभात और कुछ हद तक मनोज कुमार झा की कविता 'हिंदी कविता का छत्तीसगढ़'है. महेश छत्तीसगढ़ में रहते हैं लेकिन ऐसा कहने में इस बात का बहुत योगदान नहीं है. इन तीनों (त्रयी प्रस्तावित करने में कुशल हिंदी के बुजुर्ग इसे २००० के बाद की कविता के लिए एक त्रयी का प्रस्ताव मान लें यद्यपि वे खुद तो ऐसा कभी करेंगे नहीं, वे तो यह मान ही चुके  हैं कि उनके बाद न कविता है, न प्रतिबद्धता न कला है तो सिर्फ़ 'मीडियाक्रिटी', 'मूर्खता' और 'पतन'. वैसे खुशी की बात है कि इस त्रयी को त्रयी के रूप में थोड़ी बहुत मान्यता मिलने के संकेत भी दिखे हैं). इस त्रयी की कविता इस अर्थ में छत्तीसगढ़ है कि इसमें मूल/आदिवास और साभ्यतिक के बीच निरंतर तनाव है. इसके पास पाठीय सार्वभौमिकता (textual universality) नहीं है, उससे एक तनाव है, कहीं कहीं उसका आकर्षण भी है. इनमें से कोई भी रघुवीर-नैतिकता या मुक्तिबोध-नैतिकता या आलोकधन्वा-समाधान की ओर अग्रसर नहीं है, उससे सीधे संवाद में भी नहीं है. इनमें पूर्व-आधुनिक समाजों की आवाज़ें हैं, उनका गौरवगान नहीं है, संग्रहालयीकरण नहीं है, किन्तु उनके आधुनिकीकरण की जटिलताओं की रंगतें हैं. इनके पास निश्चिन्त, आत्म-विश्वस्त आधुनिकता नहीं है, बल्कि आधुनिकता के नए या दमित विकल्पों की खोज की संभावनाएं हैं बिना गौरवगान या संग्रहालयीकरण के.
हो सकता है अंततः इनके यहाँ भी आत्म का सभ्यताकरण उसी तरह हो जैसे अन्यथा हुआ है. लेकिन अभी, बिल्कुल अभी विकल्पहीन नहीं है इनका संसार. 

गिरिराज किराड़ू की नई कविताएं

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ये गिरिराज किराड़ू के साथ-साथ मीर के अब्‍बूकी भी कविताएं हैं,  यानी  आदमी हो रहे दरख्‍़त की। इन्‍होंने गिरिराज किराड़ू की कविता होने में और भी बहुत कुछ जोड़ दिया है। कई नए प्रसंग हैं। कुछ नाटकीयता है। इन कविताओं में आए पद अर्थ से अधिक अभिप्राय को व्‍यक्‍त करते हैं,जिन पर कवि का पूरा अधिकार है – जैसे कि मीर के अब्‍बूकहना....कुछ और नहीं...अब्‍बू। गिरि पहली कविता में एक आरण्‍यक छंद के आकार नहीं लेने का उल्‍लेख करता है पर उसकी अगली ही कविता में हत्‍यारी ताक़तों की चपेट में आए नागरजीवन का एक  लोकछंद आकार लेता है और अपने समय के भीषणतम अंधेरे से उठ कर रामदासके समय के अंधेरे में गड्डमड्ड होने लगता – यानी एक आसन्‍न आपातकाल, विगत के आपातकाल की स्‍मृतियों में घुलने लगता है। जब कुछ दूसरे युवा कवि ख़ुद के किसी विरासत में न होने को भरपूर सेलिब्रेट कर चुके होते हैं, गिरिराज अचानक एक वारिस की तरह सामने आता है – यह समाज  और उसके पक्ष में एक विरल राजनैतिक समझ की विरासत है, जिसे कृतघ्‍न कवि मौलिकता के मूर्ख गर्व में छोड़ते जाते हैं – वे मनुष्‍यता के पक्ष में डेढ़ सदी से भी ज्‍़यादा समय से धड़क रहे एक जीवित विचार का तिरस्‍कार कर स्‍वयं दार्शनिक होना चाहते रहे हैं और जैसा कि दिख ही रहा है अंतत: कविता के मूर्ख विचारद्रोही शिल्‍पी भर बनकर रह  गए हैं।

गिरिराज की इन कविताओं में जीवन,समाज और राजनीति के विकट आख्‍यान हैं, जिन्‍हें उसने ख़ूब नरेट किया है। पाठक महसूस करेंगे कि कविता के उपकरण के रूप में यह नरेशन गद्य के नरेशन से अलग है। मैं विस्‍तार में जाने लगा हूं इसलिए यहीं थमकर इतना भर और कहता हूं कि पाठको सितम्‍बर 2013 में लिखी और छप रही इन कविताओं का महत्‍व कई तरह से है , इसे 2014 की पूर्वबेला के बयान की तरह भी देखें और सोचें कि दुखी और अद्वितीय होने का अभिनय चेहरे से गिरा कर फिर से कहो अपना प्रस्ताव जैसी पंक्ति का अभिप्राय क्‍या है।

ऐसा संयोग रोज़-रोज़ नहीं होता गिरि के अद्भुत गद्य के तुरत बाद उसकी कविताएं भी यहां छाप पाएं। तो इस संयोग के लिए और इन कविताओं के लिए गिरि को गले लगाकर एक बार भरपूर शुक्रिया भी कहना चाहता हूं।        
***
Mulberry Tree by Vincent Van Gogh

मीर के अब्बू  

हमने इसे बच्चों के लिए छोड़ दिया कि ये उनका इलाका है वे जो चाहे करें अब घर का यह छोटा-सा बगीचा एक छोटे-से आदिम जंगल में बदल चुका है अब यह एक अनोखा बगीचा है किसी और का बगीचा है हमारे जैसा यह नियम की नहीं कल्पना की जीत है कहता है एक पिता जिसे मालूम है यह झूठ है बगीचे और बच्चों के जंगली हो जाने का कसूर जिसका अपना है - यह मैं सुबह क्लास में पढ़ा के आया था

इस बात की बहुत खबर नहीं थी घर में क्या क्या जंगल हो चुका है खुद मेरे भीतर कितना बड़ा एक जंगल फैल आया है रोज जैसी एक कठिन शाम भूखी नशे में अपने को बिता देने के बहाने खोजती और कल्पना की जीत कि एक अरण्य है मेरे भीतर एक आरण्यक छंद जो कभी आकार नहीं लेता

अब यह अभिनय क्यों 

कल्पना की बेरहम जीत के फरेब में मुश्किल है मानना कि जीवन का आज्ञाकारी होना कोई अपराध नहीं हमसे नहीं होगी नई शुरुआत की शुरुआत यह लिखा हुआ भी अभी लिखते लिखते मिटता जा रहा है

बस सुबह का कोई अंदाज़ा नहीं वह कैसे होगी, कभी कभी वह सचमुच भी होती है
यह मैं परसों कहूँगा कि
- कल सुबह देखा अपने घर का दरख़्त इस बारिश में वह कैसे जंगल हुआ मुझे पता नहीं चला
उसके सफ़ेद फूल जितने सुन्दर शाखाओं पर हैं उतने ही नीचे ज़मीन पर गिरे हुए भी -
याद आया एक कैमरा भी है घर में उधार का
जो इतने दिन आँखों से नहीं दिखा शायद इससे दिख जाए
कैमरे को फ़र्क नहीं पड़ता वह किसकी तस्वीर खींच रहा है
एक दरख़्त हो रहे आदमी की या आदमी हो रहे एक दरख़्त की
ठीक से मुस्कुराना मेरे दरख़्त
मेरे मरने के बाद घर छोड़ मत देना
मेरे बेटे को मेरे जैसा मत होने देना - मुझे तुम्हारा नाम तक नहीं मालूम
अब से मैं तुम्हें मीर के अब्बू कहा करूँगा
*** 

तय था मैं मारा जाऊँगा

मेरा नाम बिलकिस याकूब रसूल
मेरा नाम श्रीमान सत्येन्द्र दुबे
मुझे कहते हैं अन्ना मंजूनाथ
माझा नाव आहे नवलीन कुमार
और रामदास है मेरा नाम उनको भी था ये पता
नहीं पूछा उनने मेरा नाम बोले बार बार वो रामदास रामदास रामदास
सीने पे हुए तीन वार मारा मुझको बीच बजार
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ थे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं

मेरा नाम बिलकिस याकूब रसूल
मेरा नाम श्रीमान सत्येन्द्र दुबे
मुझे कहते हैं अन्ना मंजूनाथ
माझा नाव आहे नवलीन कुमार
लोग कहते रामदास मुझे
और मेरा नाम मकबूल फ़िदा उनको भी था ये पता
नहीं पूछा उनने मेरा नाम
मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
तय था मैं मारा जाऊँगा तय था मैं मारा जाऊंगा
तय था मैं मारा जाऊंगा  तय था मैं मारा जाऊंगा
तय था मैं मारा जाऊंगा  तय था मैं मारा जाऊंगा
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ थे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं

(साहिर और रब्बी के लिए जिसके साहिर के समकालीन वर्जन में दो पद जोड़ती है यह कविता. रब्‍बी के गाने का लिंक यह है - http://www.youtube.com/watch?v=h0EdbEsE0pw  और सभी जानते हैं कि 'रामदास'रघुवीर सहाय की कविता है )
*** 

अंत का आविष्कार: सन २०३० ईस्वी

1
ज़िस्म अब रेल से जुदा हो रहा है छत्तीस घंटे जो रेल ज़िस्म से एक रही जिसमें जन्मा यह जानलेवा बिछोह
खुद अब बिछड़ गयी है
अब एक नया शहर है ये
नया बिछोह
रेल से भी उन सब घूमते वाहनों और होटलों से भी जिनमें बसी गृहस्थी कुछ घंटों के लिए
कल वहाँ पहाड़ के आश्वासन में आज दरिया के पार हाइवे की बेचैनी में
प्रेम जैसे मामूली कामों के लिए वक्त का तोड़ा तो हमेशा रहना ही था

2
रेल अब धुल रही होगी
बारिश भी है पर बारिश में उसे नहीं देख पाऊंगा मैं जैसे नहीं देख पाउँगा वह चेहरा
जो प्रेम में सब कुछ को नहीं खुद प्रेम को गँवा चुके एक मनुष्य के चेहरे जैसा लग रहा होगा
अभी उम्मीद के एक गुरिल्ला हमले में ढलती शाम लगता है
जिससे मेरी पुरानी सब पहचान मिट गयी उस एक यात्रा के बाद
इस नये शहर में कुछ भी कर सकता हूँ
बेहूदे कवियों का एक विराट विश्व कविता समारोह
बस दो मिनट के नोटिस पर चुटकियों में करा सकता हूँ
अपने को देख लूं एक लम्हा ठीक से तो माँ पर कविता लिख सकता हूँ
चन्द्रमा को चंद्रकांत की तरह गिटार के माफ़िक बजा सकता हूँ
पृथ्वी पर हवा की तरह व्याप्त अन्याय को अपने दिल में दफ्न कर सकता हूँ उस पर एक फूल रोप सकता हूँ
कुछ भी कर सकता हूँ
यानी अभी इसी समय मर सकता हूँ
जिस रेल से बिछड़ गया उसके आगे सो सकता हूँ

3
तुमसे कैसे कहूँ कोई अंतिम वाक्य
कैसे दूं तुम्हें कोई सीख
एक जैसा जोर नहीं लग सका इस प्रेम में
कैसे कहूँ प्रेम सहवास और साहचर्य सब में
कुछ ऐसी कालिख रह जाती है
कुछ ऐसी दुष्टता और हिंसा जिसे हम नहीं सह पाते

कुछ सही है कोशिश की है सहने की
सब कुछ की कोमलता अपने हाथों नष्ट की है
हिंसा बेरहमी और उन्माद में
उसके बाद अब
लेकिन
केवल प्रेम है
अपने से ज़ख़्मी
अपने से रौशन

4
मत कहना कि मैं अब कभी न आऊँ

सुबह सात बजे ट्रेन में

दुखी और अद्वितीय होने का अभिनय चेहरे से गिरा कर फिर से कहो अपना प्रस्ताव
अगर यह कहना चाहता हो प्रेम करते हो मुझसे तो यह मत कहो कि जीवन तो मेरा पूरा हो चुका क्या तुम
मेरे साथ मर सकोगी कि तुम एक मृत्युसंगिनी की खोज में इस ट्रेन में बैठे हो मेरे पास
मेरे चेहरे पर मेरे कदमों की छाप है उसे अपने पर छप जाने दो
इस ट्रेन को गंतव्य पहुँच कर फिर शाम को लौट आने दो
अगर भूख लगी है तो पोहा खाओ और इस वाक्य में अलंकार के अभाव पर रीझ जाओ

अपने से पूछो क्या फिर शाम को इसी सीट पर बैठे मिलोगे मेरी बगल में
अपने सब अपमान याद करो और वे गवाहियाँ जो तुमने नहीं दी
याद करो उन सब को जो तुम्हारे सामने मारे गए

मुझे जल्दी नहीं अकेले रहने में मैं पारंगत हूँ अकेले छोड़ने में नहीं
तब तक तो तुम्हारे जीवन में अब हूँ ही जब तक तुम यह सब नहीं कर लेते
तब तक मैं वही करूंगी जो तुम
तुम्हें क्या लगता है दो मिनट के नोटिस पे संसार को छोड़ देने जितने बेज़ार तुम अकेले हो
अगर तुम ट्रेन से छलांग लगाओगे तो मुझे भी अपने पीछे पाओगे

देखा श्रीमान मृत्युसंगिनी पाने के लिए
दुखी और अद्वितीय होने के अभिनय की नहीं
दो मिनट के नोटिस और
ब्रह्ममुहूर्त में आधे घंटे की तपस्वी मेहनत से बनाया यह पोहा मेरे साथ खाने भर की दरकार है
*** 

अमित श्रीवास्‍तव की नई कविता

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ये ऐसे समय की कविता है जब मारे दिए जाने के लिए जन्‍म लेना भर काफ़ी होता है। समकाल की कड़ी पड़ताल अमित की इस कविता में है। यह अनुभव के सभी सरकारी-गैरसरकारी, सामाजिक, राजनैतिक और निजी स्‍त्रोतों के मिलने से बना एक शानदार काव्‍यात्‍मक बयान बन गयी है। हालांकि कविता में बयान बहुत नहीं होता। यह कविता भी बयान के परे एक शिल्‍प संभव करती है जो अब अनगढ़ कतई नहीं कहा जाएगा, उसे हम खुरदुरा कह सकते हैं। इस कविता में कथ्‍य और शिल्‍प के बीच हमारी पढ़त कई तरह के घर्षण सहती है, कहने ज़रूरत नहीं कि घर्षण से चिंगारियां निकलती हैं- यह इस कविता का अपना एक आक्रोश भरा डिक्‍शन है। इस आक्रोश को मैं धूमिल, कुमार विकल, चंद्रकांत देवताले आदि की परम्‍परा में देखता हूं, जो एक कठिन परम्‍परा है। अमित ने इस कविता में उसका वरण करने की कोशिश की है - इसके लिए मैं उनका स्‍वागत करते हुए इसे अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख रहा हूं। 
***  
  क्या आप जानते हैं  

क्‍या आप जानते हैं
कि सरकार में सर और कार
अलग अलग हिज्जे भी हो सकते हैं
भले किसी विदेशी भाषा के मायने
दो हिज्जों को कुछ नमकीन शक्ल दे सकने में समर्थ हों
पुर्जों की मिली जुली- साझी कारीगरी
बेहियाई की सीमा तक असमर्थ है
इनके पहले और आख़िरी उद्देश्य की पूर्ती में

कि देश के उत्तर में हिमालय नहीं
किसी शर्म का लोथड़ा पडा है
जो मुंह छिपाने की भरपूर कोशिशों में
शरीर को ही नंगा करता जा रहा है

कि यहाँ क़ानून अंधा नहीं होता
बस दिखता है
उसे सब दिखता है
पर सबूत नहीं दे सकता
कोइ गवाही नहीं उसके देखने की

कि जंगल में चली एक गोली
दो निशानों पर लगती है बहुधा
एक तरफ एक पीढी ख़ाक होती है
दूसरी ओर दो पेड़ गिरते हैं

कि आई पी एल में ओवर सात गेंदों का था
सातवीं गेंद हर ओवर के शुरुआत में फेंकी जाती थी
जो गोद में आ गिरती थी बिना बल्ला घुमाए
और कहीं शेयर सूचकांग ऊपर चढ़ जाता था

कि आदमी एक्सीडेंट में नहीं मरा कभी
किसी बीमारी से भी नहीं
वो मरा था क्योंकि जन्मा था
यहाँ

कि गरीबी, ह्त्या और बलात्कार
कविता नहीं हैं 
विचार नहीं
शब्द नहीं हैं सिर्फ
शब्दकोश से निकल कर
बाहर आ गए हैं इस्तेमाल को

कि रस्ते भर धूल है
उम्र भर उबकाई
शक्ल भर लिजलिजाहट
और उगला हुआ सा प्रश्न
कि ये वही मंजिल है क्या 
जिसकी तरफ़ चल पड़े थे हम

कि जिसकी बातों में चिकनाई है
सफे़दी झक्‍क चेहरे पर
उस की जेब में चाभी है
हाथ में छुरा

कि ये कविता नहीं
एकालाप नहीं
बकवास नहीं सरफिरे का

ना कलमबद्ध बयान
आई पी सी के छठवें अध्याय से घोषित
किसी राजद्रोही का
जो संविधान की प्रस्तावना पढ़ना जानता था  

किसी ईको सेंसिटिव जोन बिल का संलग्नक नहीं
जिसमे हैसियत है हर हर्फ़ पर
किसी की एक सौ तिरालिस रुकती है
और कोई टुकडा डीनोटीफाई हो जाता है ज़मीन का

ना गेरुई दाढी का एलान है
गर्जना भरपूर कि अब चौराहों पर जलेंगे क़त्ल के अलाव
एक चिपचिपी मर्दानगी नहीं ये
जिसे फाड़कर फेंक देना लाजिमी हो

ये तो महज डायरी के पिछले पन्नों पर

छितरी हुई लाश है....आस की !!   
***

अशोक कुमार पांडेय की नई कविता - न्‍याय

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अशोक इस बार न्‍याय की दस कविताओं के साथ उपस्थित है। गो उसकी हर कविता मनुष्‍यता के पक्ष में न्‍याय की अछोर-अटूट पुकार है लेकिन यह कविता न्‍याय की विडम्‍बनाओं का प्रतिलेख है। यह एक सरल समीकरण है कि न्‍याय होता तो उस पर कविता लिखने की नौबत ही नहीं आती। यानी कुछ नहीं है, इसलिए कुछ है। जिसे न्‍याय करना है उसे भी कहीं से पगार लेनी होती है कहकर अशोक एक क़दम में कचहरियों का त्रिलोक नाप आता है। इस कविता का खौलता-सा आक्रोश बेहद सधा हुआ है। युवा कवियों की अवांगर्दी को राजनैतिक और काव्‍यगत विशिष्‍टता मान लिए जाने के ज़माने में अशोक की वैचारिक प्रतिबद्धता उसे एक जटिल अनुशासन में बांधती है। वह कवियों के महान माने गए प्रोफ़ेटिक विज़न के आगे चुपके से यह एक मुश्किल रख देता है तो निकलने की राह नहीं मिलती - दिक्कत सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त। 

यही अशोक के कविकर्म का भी सच है कि भविष्‍य की कविता के रास्‍ते में वह अपनी कविता का वर्तमान रख देता है कमबख्‍़त।

***

न्याय

तुम जिनके दरवाजों पर खड़े हो न्याय की प्रतीक्षा में
उनकी दराजों में पियरा रहे हैं फ़ैसलों के पन्ने तुम्हारी प्रतीक्षा में 

(एक)

इंसाफ़ की एक रेखा खींची गयी थी जिसके बीचोबीच एक बूढ़ा भूखे रहने की ज़िद के साथ पड़ा हुआ था . वह चाहता था उसकी गर्दन से गुज़रे वह रेखा लेकिन इंसाफ़ का तकाजा था कि ठीक उसके दिल से गुज़री वह आरपार और लहू की एक बूँद नहीं बही.

लहू की एक बूँद नहीं बही !
और चिनाब से गँगा तक लाल हो गया पानी
इंसाफ़ बचा रहा और इंसान मरते रहे

हम एक फ़ैसले की पैदाइश हैं
और हमें उस पर सवाल उठाने की कोई इजाज़त भी नहीं.

(दो)

जो कुछ कहना है कटघरे में खड़े होकर कहना है
जो कटघरे के बाहर हैं सिर्फ सुनने का हक है उन्हें

यहाँ से बोलना गुनाह और कान पर हाथ रख लेना बेअदबी है.

(तीन)

जिसके हाथों में न्याय का क़लम है 
उसे भी कहीं से लेनी होती है पगार 
वह सबसे अधिक आज़ाद लगता हुआ 
सबसे अधिक ग़ुलाम हो सकता है साथी 

उस किताब से एक कदम आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं उसे
जिसे गुस्से में जला आये हो तुम अपने घर के पिछवाड़े 

उस पर सिर्फ नाराज़ न हो तरस खाओ...

(चार)

पुरखों ने कहा

तुम लोग साठ साल पहले जन्मी किताब पर इतना इतरा रहे हो?
मेरे पास छ हज़ार साल पुरानी किताब है जो छ करोड़ साल पुरानी भी हो सकती है.

फिर कोई पन्ना नहीं उलटा
और उस तलवारनुमा किताब ने उस जोड़े की गर्दन उड़ा दी.

उस किताब में इज्जत का पर्यायवाची ह्त्या था
और न्याय का भी!

(पाँच)

पुरखों के हाथ तक महदूद नहीं थी वह किताब

न्यायधीश ने कहा
ऊंची जाति के लोग बलात्कार नहीं करते
वंश सुधार के लिए तो न्याय सम्मत है नियोग
यह जो अफसर बन के घूम रहे हैं लौंडे तुम्हारे
बडजतियों  की ही तो देन हैं

होठों की कोरों से मुस्कराया वह
और न्याय की देवी की देह से उतरकर वस्त्र
भंवरी देवी के पैरों की बेडी बन गए.

(छः)

क़ानून सिर्फ इंसानों के लिए है
इंसानों की हैवानी भीड़ का केस लिए यह क्यों आ गए तुम न्यायालय में?

एक आदमी की हत्या का फ़ैसला अभी अभी छः सौ पन्नों में टाइप हुआ है
एक हज़ार लोगों की हत्या का मामला पांच साल बाद तय कर लेना चुनाव में.

(सात)

यह न्याय है कि यहाँ के फ़ैसले अहले हवस करेंगे
मुद्दई लाख सर पटके तो क्या होता है?

अपराध का नाम इरोम शर्मिला है यहाँ
न्याय का नाम आफ्सपा!

(आठ)

उनका होना न होना क्या मानी रखता था ?

वैसे इनमें से किसी ने नहीं की उनकी हत्या
शक़ तो यह कि वे थे भी कभी या नहीं
थे तो अपराधी थे और सिर्फ पुलिस के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता अपराधियों को

लक्ष्मणपुर बाथे न पहला है न आख़िरी
न्याय के तराजू की कील
न जाने कितनी सलीबों पर ठुकी है.

(नौ)

इस दरवाज़े से कोई नहीं लौटा ख़ाली हाथ
वे भी नहीं जिनके कन्धों पर फिर सर नहीं रहा

(दस)

इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया
भविष्य न्याय करेगा एक दिन

दिक्कत सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त
***

वंदना शुक्‍ल की नई कविताएं

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स्‍मृतियां

यादें
जीवन के नन्हें शिशु हैं
उम्र के साथ बढती जाती है
उनमें नमी
जैसे दरख्त की सबसे ऊंची पत्ती में
आसमान भरता जाता है
जैसे खीसे में चिल्लर का भार
या आँखों में पानी की तहें
या बादलों में हरापन ...
यादों में घर होते हैं और
कई बार कई कई घरों में रहते हैं हम
एक साथ
घर बदलने का मतलब
सारी दुनियां का बदल जाना है
कुछ यादों से वक़्त खरोंच लेता है उनके रंग 
अपने पैने नाखूनों से
कई यादों को पहचान पाते हैं हम
उनकी हंसी या गीलेपन से
कई चेहरे ऐसे भी होते हैं जो
छिपा जाते हैं
अपना रोना हमारी स्म्रतियों में  
***

क्यूँ नहीं ...!

क्यूँ नहीं होता कोई ऐसा ज़िंदगी में
जो कहीं नहीं होता पर
होता है हमारी यादों में सबसे ज्यादा  
भटकता रहता है गलियारों में आत्मा की
और हम ये दावा भी नहीं कर पाते
कि देखो
प्यार का चेहरा ऐसा होता है !
***

विवशता

संबंधों की भीड़ में 
एक अकेली स्मृति
किसी घनेरे दरख्‍़त की
सबसे ऊँची शाख पर अटकी
वो क्षत-विक्षत पतंग
अपने ही वजूद का ढाल बनी
जिद्द का हौसला लिए
जूझ रही है    
तूफानी हवाओं से
बरसाती थपेड़ों से
बदरंग से लेकर
चिंदी चिंदी होने तक ...
अपने अपनों से बहुत दूर तक
उखड़ी सांस को बचाए  
हालांकि
तुम असफल कलाकार निकले
लेकिन
‘’जीवन बचे रहने की कला है’’
सच कहा था तुमने नवीन सागर !
***

कुछ तो है

कुछ तो है जो डूब रहा है
आत्मा की नदी में
एक विचित्र-सी ध्वनि जिसकी सूरत
नदी से नहीं मिलती  
कुछ अजन्मे बच्चों की फुसफुसाहट
फैल रही है पृथ्वी पर
बात कर रहे हैं उन ख़ाली जगहों की
जहाँ वो खेलेंगे ...दौड़ेंगे
उन्होंने अभी बीहड़ का अर्थ नहीं जाना है  
***

भोपाल

कमला पार्क के आगे
सदर मंजिल के क़रीब से गुज़रता वो रस्ता
जो ले जाता था खिरनी वाले मैदान में
अब उसे इकबाल मैदान कहते हैं
यहाँ जाएँ तो जनाब ज़रूर देखिये वो  
लोहे का खम्भा
ये कोई बिजली का खम्भा नहीं है ना ही
बादशाहों का मन बहलाने वाला मलखंभ
कभी उठाते थे जो गर्दन
मुहं से वाह निकलना तय था  
खम्भे के ऊपर बैठा है
अल्लामा इकबाल का ‘शाहीन’
लोहे की मज़बूत तीलियों से बुना
स्वामीनाथन के पसीने की चमक
गाहे ब गाहे
अब भी लौक जाती है उसके हौसलों पर
धूप बारिश जाड़े में चमकता भीगता बैठा है वो
अपने पंख सिकोड़े
यूनियन कार्बाइड की गैस से लेकर
सूखी हुई झीलों से आती गर्म हवा तक
झेली है उसने
‘केसिट किंग’ के हत्यारों को देखा है
पनाह देते शहर को तो
मसूद की हत्या का भी
गवाह बना है वो
सुने हैं किस्से या देखा है 
शानी,दुष्यंत ,शरद जोशी ,कारंत,इकबाल मजीद, नवीन सागर,विनय दुबे जैसे
समर्पित भोपालियों को 
उनके खामोशी से चले जाने तक  
पर उसकी जिद्द तो देखो
बचा हुआ है वो अब तक !
बैठा है अब भी खम्भे पर पंखों को झटकारता
जितने बार फड़फडाता है अपने पंख
कुछ तीलियाँ बिखर जाती हैं ज़मीन पर
लोहे की हैं तो क्या हुआ ?
ध्यान से देखो तो लगता है अब
वो खम्भे पर कम हवा में ज्यादा है
कितना बदल गया है समय... वो सोचता है
और गिद्धों की प्रजातियाँ भी तो
कितनी नई नई उग आई हैं इस पुराने देश में?
***

एक ही रास्ता

ये मुल्क है मेरा
यहाँ मत्स्य कन्याएं हैं
बोतल में बंद जिन्न हैं
परियां हैं
समुद्र को पी जाने वाले ऋषि मुनि हैं
मार्टिन लूथर के वंशज हैं
जो कहते हैं औरतें चुड़ैल होती हैं
डेविल्स के साथ रहती हैं
इनके बच्चों का मार दिया जाना
ज़रूरी है और
बच्चे/बच्चियां मार दिए जाते हैं |
आबादी की हरियाली में
आकाश से बर्बादी की घोर बारिश झर रही है
और उधर धूप में पेड़ों से
सूखे हुए सन्नाटे...
विकास के जंगल में सभ्यता
धू धू कर जल रही है
मैं इतिहास की पीठ के पीछे छिप गई हूँ |
***

चौराहे –एक

चौराहों पर
महापुरुषों की मूर्तियाँ
चौराहों को सजाने के लिए नहीं होती
बच्चों को हिस्ट्री का पाठ पढ़ाने के लिए भी नहीं
जैसे नहीं होते शहीदों के स्मारक
खेतों /किसी छोटे कसबे के बाज़ार या
किसी घर के कच्चे आंगन में उनकी शहादत को
नमन करने के लिए  
बल्कि होते हैं ये उनके ज़ज्बे
और उनकी देशभक्ति की आत्मा को
उनका हश्र बताने के लिए
*** 

चौराहे-दो

चौराहे तो होंगे आपके शहर में भी
और उनके बीचों बीच होगी  
किसी महापुरुष के
मज़बूत हाथों में देश का संविधान थामे खडी कोई मूर्ति
या घोड़े पर सवार किसी
जांबाज़ राजा की मूर्ति ,हाथ में शमशीर लहराती हुई
मूर्ति का मज़बूत और आदमक़द होना
दरअसल उसके न होनेको बचा पाने की गारंटी नहीं होता 
चौराहों के आसपास से गुजरने वाले
जानते हैं ये सच
ये युग पुरुष
जब अपने इसी घोड़े पर सवार धूल चटाते होंगे
अपने दुश्मनों को
या
जब दहाड़ते होंगे ,तब होंगे संसद से सडक तक
पर अब तो  
वो बेबस है इन मूर्तियों में इतने कि
चीख़ तो क्या अपनी जगह से हिल भी नहीं सकते
चाहो तो देख लो उस गुलम्बर के आसपास
दिन दहाड़े हत्या करके किसी की
***

पीड़ा

देश के लिए /समाज के लिए यहाँ तक कि
इंसानियत के लिए
कितनी खर्च होती है बारूद /उम्मीद’और ऊर्जा
चीथड़े कर दी जाती है औरत की
इज्ज़त सरे बाज़ार ..
क्रोध में भिंच जाती हैं मुट्ठियाँ
आग में झोंक दिए जाते हैं वाहन ,घर और सपने
खून और पानी का रंग हो जाता है एक
लोग कहते हैं कि इन हालातों में तुम्हारी खामोशी
अखरती  है
मन में शक पैदा करने की हद तक ...
कैसे बताऊँ तुम्हे दोस्तों
कि मैं नहीं जाया कर सकती अपने शब्द
धुंए में तब्दील होने देने के लिए
ना ही गिरना चाहती हूँ अपनी ही नज़रों से
क्यूँ कि
नहीं नष्ट करना चाहती अपनी ऊर्जा
उन शक्तियों के लिए
जिन्हें लिए बैठा है इतिहास अपनी गोद में
एक लापता हो चुकी सदी से
कैसे बताऊँ तुम्हे मैं कि
नहीं सह सकती अपने शब्दों का अपमान मैं
जिन निहत्थे शब्दों का वापस लौट आना
लगभग तय है
तुम्हारी नाकाम कोशिशों की तरह
दोस्तों लौटने के लिए सिर्फ घर होता है
उम्मीदें नहीं ...
***

सच
तकलीफदेह नहीं होता /आशाओं का असफल हो जाना
चिंतनीय यह भी नहीं होता कि चंद मुट्ठी भर लोग
राज़ कर रहे हैं एक बड़ी आबादी पर
खतरनाक होता है आदमी की
स्वाभाविक/निश्छल हंसी का उससे
छीन लिया जाना |
***

युक्ति

मैंने छोड़ दिया है खुला भूख को
पशुओं द्वारा चर चुके खेत में
और बाँध दिया है अपनी आजादी को
अभिव्यक्ति के मज़बूत खूंटे से
छिपा दी हैं अपनी इच्छाएं और सपने
विवशताओं के सूखे जंगल में 
चंद कहानियों और बुजुर्गों की बुझ चुकी आँखों में से
बचाई हुई कुछ आंच से सुलगा रखी हैं अपनी साँसें
उम्मीद का अपना कोई
ईमान धर्म कहाँ होता है ?
***

पहचान

उसका नाम गीता है
भूल जाती है वो अक्सर अपना नाम
हो जाती है वो बहन जी सुबह बेटे को
स्कूल के रिक्शे में बैठाते रिक्शेवाले से
संभलकर रिक्शा चलाने का अनुरोध करती हुई
कभी सब्जे वाले से दो रुपये के लिए झगडती औरत
घर में झाडू पोंछा और भोजन बनाती हुई गृहणी
पति के पसंद का लहसुन का तडका दाल में लगाती पत्नी 
किसी पार्टी के चुनाव प्रचार में कई सपने आँखों में पाले हो जाती है जनता
और कभी मुन्नू की फीस के लिए
 दाल के डब्बे में बचाए गए पैसों में
कमी ढूंढती माँ
रात में पति से ‘’थकान ‘’ के लिए फटकार खाती निरीह -अबला
और फिर निढाल हो पति की बगल में लेटी
छत को ताकती हो जाती है एक चिंता
मुन्नू के सुबह के नाश्ते की और
घासलेट की लम्बी लाइन को अपनी आँखों में मूँद
पूरे दिन को अपनी रात पर ओढ़
सो जाती है वो
सपने में पूछती है खुद से
 क्या उसका नाम गीता
सुनकर चौंक जाने और बतौर सबूत के लिए ही
रखा गया था?
***

राजेन्द्र यादव के लिए

जातक कथाओं की तरह थी उस दरख्त की तमाम कहानियाँ 
उस बीहड़ जंगल का सबसे बूढा किस्सागो था वो
अनगिनत कहानियाँ फूटती थीं उसकी शाखाओं से
असंख्य कहानियाँ वो बनाता था अपने बीजों में
अभी कल तक वो पेड़ अपनी उम्र से ज्यादा घना हो रहा था
जबकि उसे ‘’पीडीगत लिहाज ‘’में हो जाना चाहिए था
सूखकर ठूंठ ,उसकी आँखों को उतार देना चाहिए था
रंगीन चश्मे और बेदखल कर देना था खुशबुओं को
अपने बुज़ुर्गियाना लिहाज़ से  ,
छोड़ देना था अपना तख्‍़तोताज़ जंगल के राजा का
पर 
फैल रही थीं उसकी शाखाएं दिशाओं के बाहर
अधीनस्थ झाड झंकाड और खरपतवारों को 
सैंकड़ों ख़ामियां नज़र आ रही थीं उसमे
चीख़ चीख़ कर बगावत को उछाल रहे थे वो उसकी जानिब 
पर मौसम अब भी उसी के आसपास मंडराते थे
धूप बारिश,वसंत जाड़े की ठिठुरन
वो जूझता रहा उनसे प्यार और तकलीफ से
उसकी एक शाखा पर लगा घोसला तो
कब का उजाड़ हो चुका था जिसे
कहा जाता था कि बचा कर नहीं रख पाया वो बूढा दरख्त ,पर
पूरे जंगल की तमाम चिड़ियाँ बाज कौए आ आकर बैठते थे 
उसकी शाखाओं पर और पाते आश्रय
शाम को उसकी सल्तनत में मच जाता शोर
चीखते कोसते चुहलबाजिया करते पक्षी
अपनी नुकीली चोंच और तीखे पंजों को
गड़ाते उसकी संतप्त आत्मा पर
उसी की डाल पर बैठे हुए |
वो अपनी तमाम बुजुर्गियत ,पीडाएं ,दुःख समेटे
चुपचाप सुनता रहता उनका रोष  
एक दिन जब उसे छोड़कर तनहा
एक एक कर सारे पक्षी उड़ गए बगलगीर दरख्त पर 
सो गए जाकर
वो बूढा पेड़ अपनी आत्मा पर सैंकड़ों तोहमतें
अपमान और पीडाएं लपेटकर
छोड़ कर अपनी जड़ें गिर गया ज़मीन पर
और अपने पीछे हज़ारों 
चीखें चिल्लाहटें शोर और प्रेम की कहानिया
छोड़ता गया ,कहानी की शक्ल में
....अब उसके ज़मींदोज़ जिस्म की शाखाओं पर
बैठे वही पक्षी जो उसे चले गए थे छोड़कर
बहा रहे हैं जार जार आंसू
पढ़ रहे हैं कसीदे ...
जिसकी कभी दरकार नहीं रही उस बूढ़े पेड़ को
अपनी सदाशयता की तरह 
***

मृत्‍युंजय की नई कविता

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मृत्‍युंजय की छवि के पी की नज़र में
 
अबकी कहाँ जाओगे भाई !

इनके घर में गिरवी रक्खा, उनके बंद तिजोरी
इनने पुश्तैनी झपटा है, उनने चोरी-चोरी
 ऊ जनता की बीच-बजारे छीने लोटा-झोरी
माज़ी को ये देंय दरेरा, करते सीनाजोरी

देशभक्ति का चोखा धंधा, गर्दन टोह रहे दंगाई !
​​अबकी कहाँ जाओगे भाई !

इनने लूटा संसद-फंसद, उनने सभा-विधान
माटी पानी जंगल धरती चारा कोल खदान
​​
संबिधान की ऐसी तैसी
बड़े बड़े बिदवान
अभी लूट को माल बहुत है, मत चूको चौहान

देश बड़ा है कर छोटे हैं, अमरीका की चरण पुजाई !
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !​

इनने सौ-सौ महल बनाये, लूट लिए बेगार
लोकतन्त्र के खंभे तोड़े, उनने लीजे चार
भ्रष्टाचार भूख भय भीषण चहुंदिस अत्याचार
नंगे पाँव आबले जख्मी बिछे हुए हैं खार

भरी अदालत शातिर बैठे, नाचत नट मर्कट की नाईं!
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !​

मुसलमान का ये सिक्खों का वे लें शीश उतार
टाडा पोटा अफ़्सा लादें मधुर मधू व्यापार
इनने दंगे करवाए हैं, उनने नरसंहार
उनने झपटे चैनल सारे, इनके हैं अखबार

पीले पत्रकार पितखबरी, बिष्ठा-निष्ठा है उतराई !

महजिद ध्वंस करे ये वे ताला खोलवाये जात
नगर मुजफ्फर है इनका और उनका है गुजरात
सौ चौवालिस खंभों नीचे न्याय देवि का घात
संझा इनकी बंदी उनका कैदी है परभात

चाहे जितना चिल्लाओगे, लूटेगा ही हातिमताई !
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !​

इनके घर में कोर्ट कचहरी, उनके घर में फौज
इनके घर में दावत होती, है उनके घर मौज
जनता को ये नहींथमाये वे पकड़ाते नौज
बोरेंगे दोनों मिलकरके खोद चुके हैं हौज

चौपट राजा वेटिंग अंधा, निरपराध फांसी चढ़वाई !
​अबकी कहाँ जाओगे भाई !
***

अनवर सुहैल की कविताएं।

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अनवर सुहैल का नाम अरसे से हिन्‍दी की दुनिया में ख़ूब जाना-पहचाना नाम है। लघुपत्रिका प्रकाशन और कविता-कहानी लेखन तक उनकी सक्रियता की कई दिशाएं रही हैं। अनुनाद पर अनवर जी की कविताएं पहली बार आ रही हैं, उनका स्‍वागत है।


1-
बताया जा रहा हमें 
समझाया जा रहा हमें
कि हम हैं कितने महत्वपूर्ण

लोकतंत्र के इस महा-पर्व में 
कितनी महती भूमिका है हमारी 

ई वी एम  के पटल पर
हमारी एक ऊँगली के
ज़रा से दबाव से
बदल सकती है उनकी किस्मत

कि हमें ही लिखनी है
             किस्मत उनकी 
इसका मतलब
       हम भगवान हो गए.....

वे बड़ी उम्मीदें लेकर
आते हमारे दरवाज़े
उनके चेहरे पर
तैरती रहती है एक याचक सी
क्षुद्र दीनता...  
वो झिझकते हैं 
सकुचाते हैं 
गिड़गिडाते हैं 
रिरियाते हैं 

एकदम मासूम और मजबूर दिखने का
सफल अभिनय करते हैं

हम उनके फरेब को समझते हैं
और एक दिन उनकी झोली में
डाल आते हैं...
एक अदद वोट.....

फिर उसके बाद वे कृतघ्न भक्त 
अपने भाग्य-निर्माताओं को
अपने भगवानों को
                   भूल जाते हैं....

2-
उनकी न सुनो तो
पिनक जाते हैं वो

उनको न पढो तो
रहता है खतरा
अनपढ़-गंवार कहलाने का

नज़र-अंदाज़ करो
तो चिढ जाते हैं वो

बार-बार तोड़ते हैं नाते
बार-बार जोड़ते हैं रिश्ते

और उनकी इस अदा से
झुंझला गए जब लोग
तो एक दिन
वो छितरा कर
पड़ गए अलग-थलग
रहने को अभिशप्त
उनकी अपनी चिडचिड़ी दुनिया में...

3-
उन अधखुली
ख़्वाबीदा आँखों ने
बेशुमार सपने बुने

सूखी भुरभरी रेत के
घरौंदे बनाए

चांदनी के रेशों से
परदे टाँगे

सूरज की सेंक से
पकाई रोटियाँ

आँखें खोल उसने
कभी देखना न चाहा
उसकी लोलुपता
उसकी ऐठन
उसकी भूख

शायद
वो चाहती नही थी
ख़्वाब में मिलावट
उसे तसल्ली है
कि उसने ख़्वाब तो पूरी
इमानदारी से देखा

बेशक
वो ख़्वाब में डूबने के दिन थे
उसे ख़ुशी है
कि उन ख़्वाबों के सहारे
काट लेगी वो
ज़िन्दगी के चार दिन.....

4-
वो मुझे याद करता है
वो मेरी सलामती की
दिन-रात दुआएं करता है
बिना कुछ पाने की लालसा पाले
वो सिर्फ़ सिर्फ़ देना ही जानता है
उसे खोने में सुकून मिलता है
और हद ये कि वो कोई फ़रिश्ता नही
बल्कि एक इंसान है
हसरतों, चाहतों, उम्मीदों से भरपूर...

उसे मालूम है मैंने
बसा ली है एक अलग दुनिया
उसके बगैर जीने की मैंने
सीख ली है कला...

वो मुझमें घुला-मिला है इतना
कि उसका उजला रंग और मेरा
धुंधला मटियाला स्वरुप एकरस है

मैं उसे भूलना चाहता हूँ
जबकि उसकी यादें मेरी ताकत हैं
ये एक कड़वी हकीक़त है
यदि वो न होता तो
मेरी आंखें तरस जातीं
खुशनुमा ख़्वाब देखने के लिए

और ख़्वाब के बिना कैसा जीवन...
इंसान और मशीन में यही तो फर्क है......

5-
जिनके पास पद-प्रतिष्ठा
धन-दौलत, रुआब-रुतबा
है कलम-कलाम का हुनर
अदब-आदाब उनके चूमे कदम
और उन्हें मिलती ढेरों शोहरत...

लिखना-पढना कबीराई करना
फ़कीरी के लक्षण हुआ करते थे
शबो-रोज़ की उलझनों से निपटना
बेजुबानों की जुबान बनना
धन्यवाद-हीन जाने कितने ही ऐसे
जाने-अनजाने काम कर जाना

तभी कोई खुद को कहला सकता था
कि जिम्मेदारियों के बोझ से दबा
वह एक लेखक है हिंदी का
कि देश-काल की सीमाओं से परे
वह एक विश्व-नागरिक है
लिंग-नस्ल भेद वो मानता नही है
जात-पात-धर्म वो जानता नही ही

बिना किसी लालच के
नोन-तेल-कपडे का जुगाड़ करते-करते
असुविधाओं को झेलकर हंसते-हंसते
लिख रहा लगातार पन्ने-दर-पन्ने
प्रकाशक के पास अपने स्टार लेखक हैं
सम्पादक के पास पूर्व स्वीकृत रचनाये अटी पड़ी हैं

लिख-लिख के पन्ने सहेजे-सहेजे
वो लिखे जा रहा है..
लिखता चला जा रहां है...
*** 

आप हमेशा याद आएंगे।

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आप हमेशा याद आएंगे। जानता हूं इधर इक आप में ही था वो बाबा का बताया 'क्षार-अम्‍ल दाहक विगलनकारी'। मेरा सलाम।

केपी का बनाया वालपेपर
ओमप्रकाश वाल्‍मीकि के निधन पर असद ज़ैदी की महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी, असद जी की फेसबुक दीवार से साभार।

ओमप्रकाश वाल्मीकि से मेरी कभी मुलाक़ात न हो पाई, लेकिन उनसे वास्ता रहा। उनके चले जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।

पिछले बीसेक साल में ऐसा मौक़ा कई बार आया — गिनूँ तो शायद पंद्रह बीस दफ़े — जब मुझे मित्रों के इस सवाल का जवाब देना पड़ा कि आख़िर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन में ऐसा क्या है कि जिसे महत्वपूर्ण या ज़रूरी कहा जाए? मैंने कभी सकारात्मक तरीक़े से तो कभी रक्षात्मक होकर उनकी कृतियों के (ख़ासकर ‘जूठन’ के) हवाले से, प्रायः धैर्य के साथ अपनी बात रखने की कोशिश की होगी, पर मुझे याद नहीं आता कि भूले से भी एक बार बहस किसी तसल्लीबख़्श जगह पर जाकर ठहरी हो। दरअसल हिन्दी के बौद्धिक विमर्श में लोग अपनी भीतरी सामाजिक चिन्ताओं को साहित्यिक मानदंडों की चिन्ता में बदल देते हैं — दर्द कहीं होता है, दवा किसी और चीज़ की माँगते हैं। 

अक्सर ऐसे सवाल के पीछे एक और बड़ा ‘सवर्ण’ सवाल हुआ करता है जो लोग पहले कई तरह से पूछा करते थे, अब नहीं पूछते : क्या साहित्य में दलित लेखन जैसी श्रेणी संभव है? क्या दलित अनुभव ऐसा रहस्य है जिसे सिर्फ़ दलित ही समझ सकते हैं? हिन्दी के कैनन में दलित लेखन ने क्या जोड़ा है? क्या यह उल्टा जातिवाद नहीं है? इत्यादि। ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवन और कृतित्व में इन सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे। वाल्मीकि जी दलित अभिव्यक्ति को साहित्य-विमर्श के केन्द्र में लाने वाली हस्ती थे। आज हिन्दी दलित लेखन के रास्ते में पहले से कम काँटे हैं तो उन काँटों को हटाने में वाल्मीकि जी की भूमिका शायद सबसे ज़्यादा है।
***

आशीष नैथानी की तीन कविताएं

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यहां आशीष नैथानी की तीन कविताएं दी जा रही हैं। वे हैदराबाद में साफ़्टवेयर इंजीनियर हैं और हिंदी से बाहर के अनुशासन से कविता में आने वाले इन कवियों को मैं हमेशा उत्‍सुकता और उम्‍मीद से देखता हूं। दिखता है आशीष में सहज ही चले आ रहे साधारण-से रूपकों को अचानक लक्ष्‍य तक पहुंचाने देने की ख़ासी सम्‍भावना है। आशीष नैथानी का एक संग्रह भी प्रकाशित है, हैदराबाद में जिसके लोकार्पण की कुछ रपट नेट पर मुझे दिखी हैं। मनुष्‍यता के पक्ष में एक सही राजनीतिक विचारके साथ वे अपनी रचना-यात्रा आगे बढ़ाएं - इस उम्‍मीद और शुभकामना के साथ अनुनाद पर कवि का स्‍वागत है।
*** 

शिलान्यास

फिर एक नेताजी कर गए शिलान्यास;
करोड़ों की डील,
लाखों का विमोचन,
अब कोई सड़क बनेगी 
या कोई पुल
या बिछेगी रेल की पटरी 
कागजों पर |

फिर कागज़ दफ़्न हो जायेंगे फाइलों में,
फाइलें अलमारियों में,
अलमारियाँ दीवारों में |

गाँव के बच्चे पैदल ही जायेंगे स्कूल,
महिलाएँ काटेंगी घास उम्रभर
और पुरुष पत्थर तोड़ेंगे,
बूढ़े बीमारी से दम |

और वो कागज़
जो अलमारियों में सुरक्षित हैं,
जिन पर बनी हैं सड़कें,
दीमक सफ़र करेंगी उन पर
इधर से उधर 
नई काली डामर युक्त सड़कों का 
जायका लेते हुए |
***

मँहगाई

मँहगाई का अहसास 
उस दिन से हुआ
जब माचिस की डिबिया पर
'सील'लगनी बंद हो गई
और कम हो गई
तीलियों की सँख्या भी |

ये ईमानदारी से विमुखता का 
एक सोपान भर था |

फिर ये दुर्घटना 
हर व्यवसाय,
हर उत्पाद और
हर व्यवस्था में हुई |

और जारी है...
***
फीकापन

एक लम्बी रात
जो गुजरती है तुम्हारे ख्वाब में,
तुम्हें निहारते हुए
बतियाते हुए
किस्से सुनते-सुनाते हुए ।

और जब ये रात ख़त्म होती है,
सूरज की किरणें
मेरे कमरे में बने रोशनदानों से
झाँकने लगती हैं,
मेरी नींद टूट जाती है तब ।

तुम्हारे ख्वाब के बाद
नींद का इस तरह टूट जाना,
महसूस होता है गोया
कि जायकेदार खीर खाने के बाद
कर दिया हो कुल्ला,
और मुँह में शेष रह गया हो
महज फीकापन ।
*** 
------------------------------------------------------------------------------------ 
इस स्‍तभ के लिए एक अनुरोध
 
(अनुनाद पर प्रकाशन के लिए बिलकुल नए कवियों की कविताएं मुझे मिलती हैं। यदि उनमें कुछ सम्‍भावना है तो मेरा दायित्‍व बन जाता है,उन्‍हें साझा करने का। फेसबुक ने कई नई सम्‍भावनाओं को अनुनाद तक पहुंचने ही राह दी है। अब इन नए कवियों की कविताएं नया  लेबल के तहत अनुनाद पर दिखेंगी।  मैं प्रकाशित किए जा रहे कवि की इतनी छानबीन करना ज़रूरी समझता हूं कि कहीं वो राजनीतिक रूप से फासिस्‍ट ताक़तों के पक्ष में तो नहीं। बाक़ी मैं इस उम्‍मीद पर छोड़ता हूं कि आगे की उम्रों की कविता और विचार दोनों सही दिशा में विकास करेंगे। अनुनाद के पाठकों से भी निवेदन है कि यदि फेसबुक या किसी और स्‍त्रोत से आपको पता लगे कि अनुनाद पर प्रकाशित कोई लेखक समाजविरोधी तथा किसी साम्‍प्रदायिक विचारधारा का है तो मुझे सूचित करने की कृपा करें।)
*** 

अनुज कुमार की कविताएं

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कैसा प्रेम
स्त्री ने पूछा,
कैसा प्रेम?
पुरुष ने कहा,
किसान सा!
शिकारी सा नहीं,
बेरहमी से जो ख़त्म करते हैं,
अपनी चाहत को.

किसान,
सहलाता है मिटटी को,
हाथो-पांवों से धीरे-धीरे...
 

मेहनत में चोरी नहीं,
आँखों में फल की मीठी प्यास,
असीम धीरज, सुखद आस,
*** 





तृप्त हैं !!!

कभी-कभी,
लगता हैं यूँ,
पेड़ पर बैठी बुलबुल..
गर्दन हिलाती इधर-उधर , ऊपर-नीचे...
मानों कोई बच्चा तारें हिला रहा हो.
कोयल बोली जा रही है जैसे...
चला दी हो किसी ने टेप.
यूँ ही,
हथौड़ा मारता लोहार,
पानी निकालता किसान,
वर्क बनाता आदमी,
ट्रेन से निकलती भीड़,
मेरा-तुम्हारा प्रेम,
ऐसे हैं, जैसे..
सब के धागे, सबकी नियति,
धर दिए गए हैं,
किसी न किसी के हाथ में,
और हम,
अपने एकरस जीवन के,
अबाध गति की जड़ता से तृप्त हैं.
***


आप चाहें, तो सराय कह सकते हैं.

रिश्तों में यह फटन,
मलहम की तलाश में गुज़ारते ज़िन्दगी,
दरारें भरने को...
वक्त का चूना हर बार कम पड़ जाता.
रिश्तों में नौकरी करते-करते...
बना चुके हैं 4 /4 के केबिन.

तुम्हारा तुम होना,
और मेरा मैं...
सुखद अनुभूति है,
पर जिस्मों की जुम्बिश के परे
हमारी पहचान
एक जोड़े मैं बैठ नहीं पाती
अब ताले खोलने-बंद करने को मैं
रिश्ता कहता हूँ,
आप चाहें,
तो सराय कह सकते हैं.
***


मोनालिसा
मोनालिसा,
सदियों से देखती आ रही है,
अपने चाहने वालों को,
सबने तारीफ ही की,
कर रहे हैं, करेंगे.

उसकी आँखें बोलती होंगी हर बार
सुनो जी, क्या देखते हो यूं मुंह बाए,
कुछ नया कहो, कुछ अलग बताओ
मैं थक गई मुस्कराकर, यूं झूठी-मूठी

उसकी आँखे खोजती होंगी
आँखों का जोड़ा
जो अपने शब्दों से
उसकी पुतलियों में नरमी भर सके
आत्मा तर कर सके

मोनालिसा !!
तुम नादान तो नहीं !!
यह क्या बचकानी हरकत तुम बार-बार करती हो !!
तुम्हारा तुम होना ही तुम्हारी नियति है
तुम शकुंतला हो, मृगनयनी हो, चित्रलेखा हो
तुम पारो हो मोनालिसा, पारो !!!
एक भव्य, आलीशान शोपीस !!!

जब-जब बनाई जाएँगी मोनालिसा,
तब-तब चाहने वालों की कतार लगती रहेगी.
***
नुस्‍खा तैयार किया है
बस में, मेट्रो में, ऑटो में
दीख जाएगा, कोई न कोई,
हीनता का मारा,
अपनी कमियों को छुपाने में
कामयाब.

महंगे से महंगे कपडे, अत्तर, जूते
और क्या-क्या...
जिसके पास नहीं,
वह मुंह बाये खड़ा,
जिसके पास है,
वह उससे महंगे को देखता.

होंठो पर जमी चमक,
दिली मुस्कान की गारंटी नहीं,
न ही मेक-अप घटा सकते है
झुर्रियों से झांकते तनाव

घास न उधर हरी है, न इधर,
चमक के पीछे,
अथक संघर्ष, घिनौने शोषण की कहानिया हैं

पर, मैं-तुम नशा किये हुए हैं...
हीनता, एक सनकी खुशी का नाम है
मेरा-तुम्हारा हीन होना एक जाल है
जाल, जिससे निकलना गंवारा नहीं.
बचने का चिराग हो, तब भी, ख्वाहिश नहीं.

मैं-तुम इस जाल को कुतर नहीं सकते,
इसे तो कुतर सकता है एक रद्दी वाला
चायवाला या रिक्शेवाला
हीराबाई या हिरामन,
कोई तन्नी गुरु या अस्सी का कोई टंच फटीचर,
या ऐसे बहुत, जिन्होंने,
खुश रहने का नुस्खा खुद तैयार किया है.
***
आस

गिलहरी फुदकती रही दिन भर,
सूर्य की गरमी को पीते रही दिन भर.  
रात कहीं ठिठुर गुजारी होगी अक्तूबर की.

अभी यहाँ, अभी वहाँ,
अभी ऊपर, अभी नीचे,
अपनी मद्धम आवाज़ से भरती रही नीरवता,
पुतली में धरे आस से भरती रही संसार,
वह जब तक रही सामने,
खिलता रहा मन,
उगते रहे वृक्ष.
भरता रहा मन.
लहलहाता रहा मन. 
*** 

अविनाश मिश्र की कविताएं

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अविनाश मिश्र अब युवा हिंदी कविता का ख़ूब परिचित नाम हैं। कविता में उनका स्‍वर अपनी उम्र से बहुत आगे का स्‍वर है। अनुभव-संसार की गुंजाइशों में विस्‍तार तलाशने की कला उन्‍हें बख़ूबी आती है। कविता में उनकी भाषा ख़ासी सुथरी और सुलझी हुई भाषा है, जिसमें समकालीन जीवन की कई-कई उलझनें एक गाढ़े रंगों वाली तस्‍वीर बनाती हैं। यदि यह अविनाश की कविता का आत्‍मस्‍वीकार है तो इससे शानदार और ईमानदार आत्‍मस्‍वीकार किसी भी कवि के लिए एक उपलब्धि है - 

इस प्रवाहमय भाषाका अनुवाद मेरी भाषा नहीं
बस मेरी लड़खड़ाहटें ही कर पाती हैं.

अविनाश की कविताएं पहली बार अनुनाद पर हैं - मैं उनका आत्‍मीय स्‍वागत करता हूं। उनकी कविताएं आगे भी हमें मिलेंगी, इसका भी भरपूर विश्‍वास है। ये सभी कविताएं पब्लिक एजेंडा और शुक्रवार में पूर्वप्रकाशित हैं।
***

इंटरप्रेटर



वे लड़खड़ाते हैं जब वक्ता प्रवाह में होते हैं

मैं प्रवाह में नहीं हूं उनमें से एक हूं लड़खड़ाते हुए



मेरे कार्य को कतई सरल करती हुईं

वे स्थितियां बड़ी आकर्षक होती हैं

जहां वे शब्दहीनहोते हैं

मैं बस यहीं,बस यहीं बस जाना चाहता हूं



वे चाहते हैं कि मैं हंसी, खुशी और खीझ को भी इंटरप्रेट करूं

यह कार्य बहुत जटिल हैवे लगभग विलाप करते हैं

और मुझे आंखों में आंसू लाने पड़ते हैं

सब शब्दएक भाषा में नहीं होते

वे यह क्यों नहीं समझते



जैसाकि शास्त्रों में वर्णित है-

सृष्टि के आरंभ में केवल शब्दथा

एक अक्षुण्ण पवित्रता के साथ

वह ‘ईश्वरीय अनुकंपा’ से उत्पन्न हुआ था

यह बीस अरब वर्ष या उससे भी कहीं अधिक प्राचीन तथ्य है

लेकिन वह कोई एक शब्दथा या कोई शब्द समुच्चय

यह अब तक संशय का विषय है



शब्दसंवाद का आवश्यक तत्व

और संवादअब भी एकमात्र विकल्प

युद्धऔर हत्याबहुत बाद के शब्द हैं

बर्बरों के शब्दकोश में सर्वप्रथम होते हुए भी



लेकिन यहां तक आते-आते

शब्दएक प्रश्नचिन्ह, एक अपर्याप्त व सामर्थ्यवंचित सत्ता

और एक चुपएक शब्द समुच्चयसे कहीं अधिक अर्थवान्

इस पथभ्रष्ट परिदृश्य में



यहां आकर उस विनम्रताका भी उल्लेख आवश्यक है

जो प्रायः निःशब्द होती है

और धीरे-धीरे भाषा में विस्तार पाती है



भाषाकी परिभाषा क्या है मैं क्या जानूं

मैं बस भाषाएं जानता हूं

लेकिन भाषासब कुछ नहीं है

वे यह क्यों नहीं समझते



यू.एन.से यू.एस.से यू.के.तक

सार्क सम्मेलनोंऔर ग्रुप-8’ की बैठकों

और तमाम राजनयिक और सामयिक विमर्शों में

वही संसार और बाजार को अस्थिरता से बचाने की कवायदें

और रोज-ब-रोज प्रकट होते हुए नए-नए संकट



मैं वक्ता को ठीक-ठीक व्यक्त कर पा रहा हूं या नहीं

यह मैं स्वयं भी नहीं जानता



इस प्रवाहमय भाषाका अनुवाद मेरी भाषा नहीं

बस मेरी लड़खड़ाहटें ही कर पाती हैं...

***

यहां सुधार की जरूरत है



यह वह जगह है जहां वे भूल-सुधारप्रकाशित करते हैं... कभी-कभी वे भूल-सुधारमें भी विराट गलतियां करते हैं... यह करना महज कोई भूल नहीं एक भाषा का विभ्राट है जो मटमैले और लगभग अपठनीय पृष्ठों पर बार-बार उजागर होता है वर्तनी की असंख्य अशुद्धियों के साथ...



यहां भूल-सुधारनहीं आत्मस्वीकृतियांछापी जानी चाहिए...

***



घरे बाइरे



दारूण हैं सब सत्य हमारे, दारूण मन की पीर

दारूण हैं सब दर्प हमारे, दारूण है तकदीर



दारूण सब संघर्ष हमारे, दारूण सब आदर्श

दारूण हैं सब द्वंद्व हमारे, दारूण नियम लकीर



दारूण हैं सब वर्ष हमारे, दारूण हैं सब क्षण

दारूण हैं सब पंथ हमारे, दारूण भई कुटीर



दारूण हैं सब सबद हमारे, दारूण हैं सब साखी

दारूण हैं सब बीज हमारे, दारूण संत कबीर



दारूण हैं सब प्यार हमारे, दारूण हैं सब पार

दारूण हैं सब गीत हमारे, दारूण नदिया नीर



कि कहिए कहां जाएं अब राम...?

जीवन पग-पग पर इल्जाम...

***

मैं बाहर से बंद था क्या ?



माथा मेरा गर्म था

लेकिन किसी ने छुआ नहीं

मैं खाना खाकर नहीं आया था

लेकिन ‘खाओगे?’ किसी ने पूछा नहीं

चाय ज्यादा नहीं दो या तीन कप दिन भर में

कोई साथ में पीए तो बहुत बेहतर

उसे अकेले खौलाने का साहस नहीं रहा

लेकिन सब शराब पीना चाहते थे

किसी ने नहीं कहा कि कभी घर चाय पर आइए



मैं बहुत दिनों से सीने में उठते दर्द को दबाए हुए हूं

लेकिन वे चाहते हैं कि मैं उनके साथ जोर-जोर से हंसूं...

***



आगे जीवन है  



बहुत सारी आत्मस्वीकृतियां हैं

बहुत सारी पीड़ाएं और सांत्वनाएं

बहुत कम समय और बहुत सारी शुभकामनाएं

हालांकि सब परिचित पीछे छूट चुके हैं...



अब बस एक बहुत छोटा-सा कमरा है 

जहां एक सीलिंग फैन अपनी अधिकतम रफ्तार में घूमता रहता है 

और जहां जब मैं हर सुबह टूटते हुए बदन के साथ उठता हूं

तब भविष्य वहां पहले से ही मौजूद होता है

यह समझाते हुए कि

मुझे अवसाद और नाउम्मीदियों से बचना है 

थकान और नैराश्य से भी

ईर्ष्या और अधैर्य से भी

मुझे अभिनय नहीं सच के साथ जीना है

हालांकि यह दिन-ब-दिन मुश्किल होता जाएगा

भरमाएगा आस-पास और पड़ोस और नगर

लेकिन घृणा नहीं सब कुछ में यकीन बचाए रखना है मुझे

स्थितियां अब भी संभावनाओं से खाली नहीं

बच्चे अब भी हंस रहे हैं

उनकी हथेलियां अब भी मुलायम और सफेद हैं

और अब भी सख्त होते समय पर उनकी पकड़ मजबूत है...    

***




मुफलिसी में मुगालते



एक नितांत महानगरीय जीवन था

और एक खोने-पाने-बचाने का रूढ़ क्रम

एक अस्तित्व था और एक प्रक्रिया

कई आदर्श और उदाहरण थे

संबल और प्रेरणास्रोत बनने के लिए

लोग थे जाने कहां-कहां से आकर अपना विरोध दर्ज कराते हुए

उपेक्षाएं थीं आत्महीनताएं थीं और मैं था

भारतीय राजधानी के कोने लाल करता हुआ

इसकी दीवारों को नम करता हुआ

यातायात संबंधी नियमों को ध्वस्त करता हुआ

बेवजह लड़ता-झगड़ता और बहस करता हुआ

एक अव्यवहारिक और अवांछित व्यक्तित्व...



समाज बदलने के ठेके नहीं उठाए मैंने

और यकीन जानिए यह सब लिखते हुए मेरी आंखों में आंसू हैं...

***



संपर्क

अविनाश मिश्र

‘पाखी’

बी-107, सेक्टर-63, नोएडा, उत्तर प्रदेश

मो. 09818791434  




अनुभव की प्रयोगशाला में आवाजाही का कवि : पवन करण -महेश कटारे

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फेसबुक पर आज संयोगवश अग्रज कवि पवन करण की दीवाल पर प्रख्‍यात कथाकार महेश कटारे का यह चकित कर देने वाला समीक्षा लेख मिला। कटारे जी ने किस तल्‍लीनता और प्रवाह के साथ पवन करण की कविता पर लिखा, यह अनुभव करने वाली चीज़ है। इसे यहां साझा करते हुए बहुत प्रसन्‍नता हो रही है। 
***
सो उनके कहने की कड़ी पूछ परख लाजिमी है।


कुछ दूर से ही सही, मैं पवन करण की रचना यात्रा का साक्षी रहा हूँ। निम्न मध्यवर्गीय परिवार और सचमुच ही पिछड़ी जाति में जन्मे इस कवि को न वंश परंपरा के साहित्य संस्कार मिले, न वह गुरू परंपरा ही नसीब हुर्इ जिसका उल्लेख हो सके । इसलिए यही कहा जा सकता है कि उन्होंने कविता का पाठ जीवन की पाठशाला से सीखा। 

अपने पहले काव्य संग्रह 'इस तरह मैं'से ही इन्हें एक संभावनाशील कवि के तौर पर पहचाना जाने लगा था क्योंकि वहाँ कुम्हार के आँवा से निकले घड़े की तरह आँच सोखकर, भीतर तलहटी में स्मृतियों की राख चिपकाए, अनपढ़ मुँह के बाहर आती बोली के झिझकते शब्दों में, अभाव का उत्सव खेलते जीवन के दृश्य का दिखार्इ दिये थे। उन दृश्यों में कुछ कविताओं के सहारे झाकते हुए पवन करण के रचना संसार को टोहना शायद अधिक उपयुक्त होगा। जैसे एक कविता है सांझी सांझी कच्चे घरों की दीवार पर गोबर से बनार्इ जाती है और गाँव की लड़कियाँ इसे कुंआर के महीने में चढती शरदऋतु के बीच खेलती हैं। 'साझी'लोक जीवन के सृजन उल्लास की कलात्मक अभिव्यकित ही नहीं, सामूहिक साझेदारी का प्रशिक्षण भी है। उसका एक अंश है - 

देखें कि इन्होंने जो गोबर से। साँझी की आँखें बनार्इ हैं।
उन आँखों में कितने सपने भरे हैं।
कितने गुलाबी हैं। गोबर से बनी साँझी के होंठ।
गोबर से बनी बिंदिया कैसी चमक रही है । 
कितनी खुशबूदार है। गोबर के फूलों की माला ।
कितना लकदक है गोबर का पेड़ ।
गोबर की चिडि़या भर रही है उडान कितनी ऊँची ।
कि कितने मीठे हैं। साँझी की देह पर जड़े 
मिटटी के बताशे।

लगता है जैसे लडकियों के हाथों में प्रकृति की प्राणवत्ता आ बैठी हो - रूप, रस, गंध, स्पर्श के सपनों को आकार देने। इसी क्रम में कुछ और कविताओं के अंश है जो कवि के प्रस्थान और अस्थान के अनुमान में सहायक है। चूल्हा कविता से पंक्तियां है- 

इसकी आग में मैं अपना इतिहास बाचता हू ।
लोग इसे सिर्फ चूल्हा समझते हैं । 
मेरी नजरों में इसकी तौल पुरखे के बराबर है।
इसकी राख में मुझे अपनी भूख दबी मिलती है।

इस तरह मैं एक प्रकार से वह पालना है जिसमें कवि पवन करण के पाँव दिख जाते हैं। गोकि अब पाँवों का उतना महत्व नहीं रहा। तकनालोजी ओर मैनेजमेन्ट के प्रशिक्षण ने पाँव तो क्या, बहुत जगहों पर आदमी को ही हाशिये पर सरका दिया है। पर मैं एक कविता की कुछ पंकितयाँ भी रखना चाहता हूँ – 

उस अकेली वीरान औरत के पास जिसे हम बूढ़ी माँ कहकर बुलाते हैं । 
एक एलबम है। (जिसे) रखती है वह संदूक में सँभाल कर।
मगर जब भी एलबम खुलती है
खुलती है वह निर्जन औरत। खुलता है उसका भयावह सूनापन।
उस औरत का दिल सीने में नहीं संदूक में बंद एलबम में धड़कता है। 
('एलबम कविता से )

इस आरंभिक संग्रह की 'पिता कविता से बस कुछ पंकितयाँ और ......................

माँ की उदासी पिता का पतझड़ हँसी ................. वसंत।
पिता भले हीन कहते हों। 
साग रोटी में अब वो स्वाद। नहीं आता उन्हें।
जब माँ थी। तब, पिता बहार की तरह थे। 

ऐसी ही अनेक कविताएँ पहले संग्रह से पाठकों तक पहुँची और इस बात की गवाह बनीं कि सामाजिक और सिथतिगत दवाबों के बीच छटपटाती अभिव्यकित जब विफलता के मौन की उँगली पकड़ती है तब उसे आश्‍वस्त करने का माध्यम बनती है कविता। 

इनका दूसरा काव्य संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर बहुत चर्चित हुआ। इसकी एक विशेषता तो यह थी कि यहाँ सदाशयी संकोच व औपचारिकता से आगे बढ़कर अपने भीतर को खखोलते, खँगारते हुए बहन, बेटी, पत्नी, माँ और सहकर्मी जैसे विविध स्त्री रूपों को परंपरा की सीप में बंद समाज से अलग हटकर स्त्री विमर्श के नये, बेबाक कोण से समझने की कोशिश की गर्इ। कुछ इस तरह –

वह जो मेरे भीतर बैठी हैं, मुँह सिए चुपचाप। किसी दृष्य के लिए मानते हुए
जिम्मेदार मुझेहोते हुए देखना चाहती है मेरे साथ संगसार।
किसी घटना के लिए थूकना चाहती है मेरे मुँह पर। 
किसी अन्याय के लिए चढ़ा देना चाहती है मुझे वह फाँसी।

अर्थात यह कुछ कहने से पहले कुछ कर डालने वाली चाह की स्त्री है। यह स्त्री घर की दहलीज लाँघकर कालेज होती हुर्इ किसी आफिस की कुर्सी तक भले पहुँच गर्इ हो किन्तु सूरज की डूबती किरणों से पहले उसे देहरी के भीतर पहुँच जाना होता है। घर से मिली छूट के साथ कोर्इ भय भी लगातार उसके पीछे-पीछे चलता रहता है। इसलिए कि तरुणार्इ की सीढ़ी पर पहला पाँव रखते ही लड़की स्त्री दिखने लगती है। एक खूबसूरत बेटी का पिता कविता में अपेक्षाकृत आधुनिकता का हामी पिता भी अपने भय से मुक्त नहीं हो पाता-

दरअसल उन तमाम पिताओं की तरह मेरा भय भी यही है कि
मैं एक खूबसूरत बेटी का पिता हूँ। और ..............
मेरी बेटी की खूबसूरत चुभती हुर्इ है।

आशय यही कि पवित्र वर्जनाओं की मानसिक सुरक्षा में जीते हुए, उन्हें फलांगने की कामना रखती लड़की या स्त्री को अभी भी किसी उदार आर्शीवाद की अपेक्षा है। मध्य-वर्गीय भद्रलोक की वर्जनाओं से भिड़ंत की धमक वाली ये कविताएँ पाठक के संवेदनतंत्र में कुछ अलग ही प्रकार से हलचल पैदा करती हैं। क्योंकि भारतीय समाज अभी दैहिक स्वाद के लिए जिज्ञासु बेटी, उस स्वाद की स्मृतियों के पृष्ठ उलटती पलटती अधेड़ विधवा, प्यार करती हुर्इ माँ को अपने संस्कारों के बीच जगह नहीं दे पाया है। प्यार करती हुर्इ माँ,बहन का प्रेमी जैसी कविताएँ वर्जनाओं को लाँघकर अपनी देह के स्वीकार की सामाजिक रहनुमार्इ का हिस्सा बन जाती हैं। कवि जरूरत के ऐसे सुख का अधिकार माँ, बेटी, बहन को ही नहीं पत्नी को भी देने का पक्षधर है। 

इस तरह 'स्त्री मेरे भीतरकी कविताएं भद्रलोक के काव्य वितान में छेद करते हुए प्रेम और देह के बीच खड़ी की गर्इ झीनी, रोमांटिक चादर को किनारे सरकाती हैं। पवन करण के कहने की कला भाषा के सहज संबोधन में निहित है जिसके कारण पाठक चालाक शब्दों और उनकी चमक में चौंधियाने से बचता है जो भाषा हनन में बड़ार्इ मानकर कविता के परदेशी शिल्प सजाते हैं। विश्वसनीयता की आश्वसित ही 'प्यार में डूबी माँ कविता की ये पंक्तियाँ लिखवाती है - 

इन दिनों उसे देखकर लगता ही नहीं। कि यह औरत तुम्हारी विधवा है ।
इन दिनों मे उसे प्रेम करते ही नहीं। 
अपने प्रेम को छिपाते और बचाते भी देख रही हूँ।

यह छिपाना और बचाना एक स्त्री का अपनी पहले की उम्र में लौटकर नया हो जाना भी है।

'अस्पताल के बाहर टेलीफोनपवन करण का तीसरा काव्य सग्रंह है। यहाँ पहुँचते हुए रचनाकार की नाप, परख भी होने लगती है कि कवि आगे बढ़ा है या वस्तु और प्रविधि मे एक जगह खड़े होकर कदमताल कर रहा है? संग्रह की शीर्षक कविता को ही लें तो हम पाते हैं कि उसमें एक कथा है - गाँव के आदमी का बेटा अस्पताल मर गया है। इस मरने की अनेक अंर्तकथाएं संभव हैं जैसे दवा के अभाव में मरा, डाक्टरों की लापरवाही से मरा, अपनी हताशा में आत्मवध चुना या और भी कुछ .............। पर एक बात उभरकर आती है कि अस्पताल की व्यवस्था ठीक नहीं हैं। इसमें बदलाव होना चाहिए। बीमारी का सही निदान हो। लोग जीवन की खुशी के साथ घर लौटें।
 
गो कि यह टेलीफोन एक सूचना का सार्वजनिक माध्यम है किन्तु इसका लाभ सीमित लोग ही उठाते हैं। दायरे से दूर का आदमी इस माध्यम से उम्मीद भले ही पाल ले पर वह पूरी नहीं होगी। इस प्रकार यह कविता एक मार्मिक प्रसंग के जरिये विकास की विडंबना का चेहरा बना देती है। 'पिता की आँख में परार्इ औरत 'कभी रहा है प्रेम तो अब भी होगा या मुझ नातवां के बारे में पाँच प्रेम कविताएँ भी हमें पहले से अलग नजरिये के साथ मिलती हैं। बाजार नाम की कविता में वह 
कहते हैं - 

वह प्रभावशाली ढंग से बजाता है हमारे दरवाजे की घंटी
हम उसकी गोरी चमड़ी के प्रकाश में
इस तरह डूब जाते हैं कि उससे पूछ ही नहीं पाते वजह
और चला आता है घर के भीतर

इस तरह अनायास और अदत्त अधिकार के बावजूद सिर्फ अपने आने की सूचना का संकेत भर देकर बाजार हमारे घर में बैठ घर की आवश्यकताएँ तय करने लगता है हमारा रहन सहन, हमारी जीवन पद्धति को निर्वासित करते हुए आलस, अनुत्पादकता और चौंध मारती लालसा को स्थापित कर देता है। बाजार के इस बारीक यथार्थ को पवन करण ने बहुत सहजता से व्यक्त कर दिया है। एक खूब दिलचस्प कविता है - 'लात-मंत्रीमुलाहिजा कीजिये - 

मुख्यमंत्री ने अपने पैरों में उनसे कर्इ दिनों तक
नाक रगड़वा लेने के बाद उन्हें मंत्री पद सौंपा है।
मंत्री बनने के बाद आज वे पहली दफा
प्रदेश की राजधानी से अपने शहर में पधार रहे हैं। 
अखबार भरे पड़े हैं उनके स्वागत की अपीलों से। 

यह आज का राजनीतिक यथार्थ है, सामाजिक यथार्थ है और मुक्तिबोध के अनुसार एक नीच ट्रेजेडी है, लोकतंत्र की। निर्मल वर्मा जिस यथार्थ को कहानी में 'झाड़ी में छिपे पक्षीकी तरह बताते हैं उस यथार्थ को पवन करण बहुत सरलता से पकड़कर झाड़ी के ऊपर बिठा देते हैं कि यह है, देखो। देश मे सामाजिक और राजनीतिक उद्वेलन के दो बड़े कारक रहे हैं- एक है मण्डल आयोग दूसरा छह दिसम्बर का बाबरी मस्जिद काण्ड। मण्डल आयोग के जातिवादी फलितार्थो पर तो इस कवि ने मुखरता नहीं दिखार्इ है पर बावरी काण्ड के बाद उठी सांप्रदायिक लपटों से आहत तन मन की टोह शिद्दत से की है। दरअसल भारतीय वर्णवाद ने मुसिलम समाज को धीरे-धीरे एक वर्ण के रूप में स्वीकार कर लिया था। जैसे ब्राम्हणों में कर्इ जाति के ब्राम्हण हैं और क्षत्रियों में कर्इ किस्म के क्षत्रिय उसी प्रकार वैश्यों में अनेक प्रकार तथा शूद्रों की विभिन्न जातियाँ हैं। हैं सभी हिन्दू या सनातनी। उसी प्रकार एक वर्ण मुस्लिम मान लिया गया पर था वह अपने ही भारतीय। राजनीतिक लोलुपता ने अलग पहचान की बात उठाकर इसे अलगाना शुरू किया और बात छह दिसंबर तक पहुँच गर्इ। खैर पवन करण कि एक कविता है -'पहलवानउसकी कुछ पंक्तियाँ हैं - 

अपनी सैलून में भी, उन्होंने कुछ पहलवानों की
तस्वीरें लगा रखी हैं जिनमें एक तस्वीर
मशहूर पहलवान गामा की भी है। 

गामा को हमारे यहाँ विश्वविजयी पहलवान कहा जाता था। कोर्इ न जानता था, न कहता था कि उनका जन्म दतिया के किसी मुस्लिम परिवार में हुआ था। सुना है कि उनके मुसलमान होने का पता हजारों गाँवों को तब लगा जब उनके पाकिस्तान जाने बाबत सुना गया। हालाँकि उनसे गण्डा बँधवाने वाले सैकड़ों हिन्दुओं ने उन्हे नमाज पढ़ते देखा था पर वह तो र्इश आराधना है। कोर्इ किसी ढंग से करता है कोर्इ किसी ढंग से। राजनीति ने इस सामाजिक समरसता में पलीता लगा दिया। हिन्दू, मुसलमान लड़के आदि कविताएँ सहज मानवीय स्तर पर अपनी संवेदना उदघाटित करती हैं। 'मुसलमान लड़केकविता में वह कहते हैं - 

डरता हूँ, ऐसा न हो, अपना दुख कहते-कहते। 
अपने लोगों के फंदों में उसकी तरह न उलझ जाएँ वे। 
जैसे मुझे हिन्दू को अपने जाल में फांसने। 
नाना प्रकार के ताने बुन रहे है मेरे लोग।

कवि का डर कतर्इ बाजिब है। विगत बीस वर्ष में चेहरों और वेशभूषा से मुसलमान दिखने का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, वह शुभ तो कतर्इ नहीं हैं। 

मुझ नातवां के बारे में: पाँच प्रेम कविताएँ
नातवां से आशय अप्रबल, सामर्थ्‍यहीन..................... 

ये कविताएँ 'स्त्री मेरे भीतर- का अगला चरण हैं। पाँच कविताएं आपस के पाँच प्रश्‍नों का आधार लेकर बुनी गर्इ हैं जिसमें प्रेम और प्रेमियों पर सामाजिक सोच का लेखा जोखा है और प्रेम जैसे पुरातन पद मे नये समसामयिक आयाम जोड़ती हैं। 

पवन करण का पहला कविता संग्रह 'इस तरह मैंवर्ष 2000 में आया था और ताजा संग्रह 'कहना नहीं आता(2012) है। वहाँ से यहाँ तक की इस काव्य यात्रा में स्त्री तत्व एक केन्द्रीय भाव की भाँति संग चलता रहा है गोकि उनमें साथ ही साथ और भी विषय है जैसे बाजार, सांप्रदायिकता, दोस्त, पिता, कविता। पवन करण की कविता मध्यवर्गीय नैतिकता का ध्वंस करती है। उन्‍होंने अपनी कहन के शब्द, मुहावरे, औजार सड़क और गलियों से उठाए हैं अत: भाषा में भद्रकाव्य के घूँघट न होने से वह नये अनुभव का आस्वाद देती है। कविताएँ कहीं भी कवि के 'मैं को अस्वीकार नहीं करती अत: रचनात्मक संघर्ष द्विस्तरीय हो जाता है-व्यकितगत जो आंतरिक है और बाह्रा जो सामाजिक है। 

'कहना नहीं आतामें तुलसीदास की 'कविता विवेक एक नहिं मोरेवाली भक्तिकालीन विनम्रता नहीं अपितु यह भाव निहित है कि क्योंकि मैं 'ऐसा हूँ इसलिऐ मुझे कहना नहीं आता -

जिनके पास कहने को है
जो कहना चाहते हैं
जिन्हें कहना नहीं आता
मैं उनमें से एक हूँ।

इस प्रकार उनकी कविताएँ लटपट भाषा वाले वृहत्तर समाज की अगुआर्इ में खड़ी हो जाती हैं। हाँ इतना अवश्‍य है कि चार संग्रहों के बारह वर्षों में स्त्री मुग्धा से प्रौढा हो लेती है और भाषा भी। ...
सो उनके कहने की कड़ी पूछ परख लाजिमी है। 
***
(महेश कटारे)
निराला नगर, सिंहपुर रोड,
मुरार, ग्वालियर - 474006
(0प्र0)

नित्‍यानन्‍द गायेन की पांच नई कविताएं

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कविता का नियमित पाठक और कार्यकर्ता होने के नाते मैं कहना चाहता हूं कि युवा कवि नित्‍यानन्‍द गायेन की कविताओं ने पिछले कुछ समय से मुझे निरन्‍तर प्रभावित किया है। जाहिर है कि मैं अकेला नहीं हूं, हिन्‍दी कविता के इलाक़े में उनकी बहुत स्‍पष्‍ट पहचान बन चुकी है। वे ज़मीनी हक़ीक़तों को ज़मीनी ज़बान में बयां करने वाले कवि हैं....बहुत सादा लेकिन पारदर्शी और उतने ही मर्मस्‍पर्शी अभिप्रायों से घिरी उनकी कविताएं हिन्‍दी में नई-नई और अलग-सी हैं। उनकी कविताओं का अनुनाद को कब से इंतज़ार था। कवि को यहां अपनी महत्‍वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ कराने के लिए शुक्रिया।    
*** 

गांवों का देश भारत

नर्मदा से होकर
कोसी के किनारे से लेकर
हुगली नदी के तट तक
रेतीले धूल से पंकिल किनारे तक
भारत को देखा
गेंहुआ रंग , पसीने में भीगा हुआ तन
धूल से सना हुआ चेहरे
घुटनों तक गीली मिटटी का लेप
काले -पीले कुछ कत्थई दांत
पेड़ पर बैठे नीलकंठ
इनमें देखा मैंने साहित्य और किताबों से गायब होते
गांवों का देश भारत
दिल्ली से कहाँ दीखती है ये तस्वीर ...?
फिर भी तमाम राजधानी निवासी लेखक
आंक रहे हैं ग्रामीण भारत की तस्वीर
योजना आयोग की तरह ....

*मध्य प्रदेश से होकर बिहार,बंगाल की यात्रा के बाद लिखी गई एक कविता

***

ज़मीर से हारे हुए लोग 

उन्होंने खूब लिखा सत्य के पक्ष में 
किन्तु यह सत्य 
औरों का था 
उन्होंने सार्वजनिक बयान दिया 
कि नही हटेंगे सत्य के मार्ग से 

फिर एक वक्त आया 
उन्हें परखने का 
जैसा हम सबके जीवन में आता है 
कभी न कभी 
अपने स्वार्थों के खातिर वे खामोश रहें 
सत्य ने उन्हें पुकारा 
कि ...फिर दोहराव 
अपना पक्ष 
किन्तु  उन्हें डर था, कि 
सच बोलने पर बिखर जायेंगे रिश्ते 
और पूरे नही होंगे कुछ सपने 

किन्तु सत्य ने हार नही माना 
सदा की तरह अडिग रहा 
पर ...
इसी तरह सत्य ने भी देख लिया उनका चेहरा 
और 
एक नाम दिया उन्हें 
-
ज़मीर से हारे हुए लोग  ||
***

टूटी नही है प्रतिबद्धता

समय के कालचक्र में रहकर भी 
टूटी नही है कवि की प्रतिबद्धता
उम्र कुछ बढ़ी जरूर है 
पर हौसला बुलंद है 
बूढ़े बरगद की तरह 

नई कोपलें फूटने लगी है फिर से 
उम्मीदे जगाने के लिए 
उन टूट चुके लोगों में ...
कमजोर पड़ती क्रांति
फिर बुलंद होती है

कवि भूल नही पाता
अपना कर्म
कूद पड़ता है फिर से
संघर्ष  की रणभूमि पर
योद्धा बनकर 
तिमिर में भी लड़ता एक दीया 
तूफान को ललकारता 
लहरों से कहता -
आओ छुओ मुझे 
या बहाकर ले जाओ 
हम भी तो देखें 
हिम्मत तुम्हारी ....
*** 

होली और तुम्हारी याद

वे सारे रंग
जो साँझ के वक्त फैले हुए थे
क्षितिज पर
मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में
तुम्हारे लिए

वर्षों से किताब के बीच में रखी हुई
गुलाब पंखुड़ी को भी निकाल लिया है
तुम्हारे कोमल गालों के गुलाल के लिए

तुम्हारे जाने के बाद से
मैंने किसी रंग को
अंग नही लगाया है
आज भी  मुझ पर चड़ा हुआ है
तुम्हारा ही रंग
चाहो तो देख लो आकर एकबार
दरअसल ये रंग ही
अब मेरी पहचान बन चुकी है

तुम भी  कहो  कुछ
अपने रंग के बारे में ....
***

आपके ये बंदर बड़े पाजी निकले 

गरीबी, भुखमरी
आत्महत्या, शोषण
के बीच
हमने की न्याय की अपील
उन्होंने दोनों हाथों से ढक लिया
अपने कानो को

जीर्ण–जीर्ण होते तन
भूख से बिलकते बच्चों की तस्वीरें
देखकर
दोनों हाथों से ढक लिया
उन्होंने अपनी आँखों को
हमने याद दिलाया, कि
देश की आज़ादी में
हमारे पूर्वजों ने दी थी कुर्बानी
उन्होंने होठों पर उंगली रखकर
खामोश रहने का इशारा किया

आ रहा है  आज मुझे
क्रोध
‘बापू’ के ‘तीन बंदरों’ पर
आपके बंदर बड़े पाजी निकले  ||
****

नित्यानंद गायेन
4-38/2/B, R.P.Dubey Colony,
Serilingampalli, Hyderabad -500019.


Mob-09642249030

निदा नवाज़ की कविताएं

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निदा नवाज़ की कुछ कविताएं मुझे जम्‍मू-कश्‍मीर के कवियों के अनुनाद के प्रकाशन के सिलसिले में मिलीं, जो कमल जीत चौधरी की कविताओं से अनुनाद पर अनायास ही शुरू हुआ है। मैंने उनमें कुछ को प्रकाशन के लिए चुना है। मैंने पाया कि निदा का स्‍वर अकसर ही बहुत वाचाल हो जाता है पर जम्‍मू-कश्‍मीर के हालात देखते हुए ऐसा होना सहज लगता है। वे एक मुखर प्रतिरोध का कथ्‍य सम्‍भव करते हैं पर शिल्‍प का सधाव और सम्‍भाल उनके पास कम है - सम्‍भवत: यह यथार्थ को व्‍यक्‍त करने की विवशता है। कविता एक सामाजिक कला है और इस कला के भीतर अपने जनों के पक्ष में बोलते हुए कुछ परिष्‍कार अभी निदा जी को करना होगा, यह मुझे इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा। उनके खाते में साहित्यिक उपलब्धियां बहुत हैं, जो निश्चित रूप से एक स्‍वागतयोग्‍य बात है। अनुनाद भी निदा की कविताओं का स्‍वागत करते हुए पाठकों को प्रतिक्रिया के लिए आमंत्रित करता है। 
***
यथार्थ की धरा पर...
(एक बिहारी मज़दूरन को देख कर)

उसका चेहरा नहीं था कोमल फूल
बल्कि था आग की भट्टी में
तप रहा लाल लोहा 
जिस पर था लिखा
एक अनाम दहकता विद्रोह .

उसके चेहरे पर रिस आयी
पसीने की बूंदें 
न थी किसी फूल की पत्ती पर
चमकती हुई ओस  
बल्कि थीं श्रम की आंच से
उभल आयी सीसे की लहरें   
उसकी आँखें नहीं थीं स्वप्निल
बल्कि थीं
एक तख्ती की तरह सपाट
जिन पर जीवन की इबारतें
अनिश्चितता की भाषा में नहीं
स्पष्ट तौर पर लिखी हुई थीं .

उसके बाल नहीं थे मुलायम
बल्कि थे उलझे हुए
उसके ही जीवन की तरह
जिन से नही बुना जा सकता था
कोई काल्पनिक स्वप्न
लेकिन उन में मौजूद थे
सभी खुश-रंग धागे
यथार्थ बुनने के लिए .

उसके मैले कुचेले ब्लाउज़ में से
नहीं झाँकतीं थीं
संगमरमर की दो मेहराबें
और न ही दो पक्के हुए अनार 
बल्कि थी वह
एक सागर-ए-दिल के क्षितिज पर बैठी 
सहमी ,बेघर हुई ,बारिश से भीगी 
अधेड़ उमर की एक कबूतर जोड़ी
जिसने अपने सिर
अपने मट-मैले पंखों में
छुपा लिए थे .

उसके हाथ नहीं थे दूधिया
बल्कि थे मकानिकी
सीमेंट और रोड़ी को मिलाने वाले
जीवन को एक आधार बख्शने वाले .
और उसके पाँव में
नहीं थी कोई पायल
बल्कि थे ज़ंग लगे लोहे के
दो गोल टुकड़े
जैसे कोई अफ़्रीकी ग़ुलाम
जंजीरें तोड़ कर भाग गया था
मगर वह भाग नहीं रही थी
बल्कि वह यथार्थ की धरा पर
जीवन-साम्राज्य के समक्ष खड़ी थी
जीवन की ज्वालामुखी-आँखों में 
अपनी लाल आँखें डाल कर .
*** 

वह मिलती है

वह मिलती है 
अल्ट्रा सोनोग्रफिक स्क्रीन पर
माँ के गर्भ में दुबकी
अंजाने डर से सहमी
एक डाक्टर को हत्यारे के रूप में
देखती हुई

वह मिलती है
स्कूल के आंगन में
मासूम सी मुस्कान
और तितली सी पहचान लिए
भविष्य के छोर की ओर दोड़ती
सामने वाली खाई से बेपरवाह
छोटी-छोटी गोल-गोल
आँखों में
ढेर सारे सपनों को
संजोती हुई

वह मिलती है
चहरे पर इन्द्रधनुषी रंग बिखेरती
दांतों तले ऊँगली दबाती
पूरे ब्रम्हाण्ड को निहारती
अपनी आँखों से
प्यार छलकाती
होंठों के नमक को
पूरे सागर में बांटती हुई

वह मिलती है
डल के बीचों-बीच
कहकहों की कश्ती पर
अपने पानी में लहरें तराशती
कमल तोड़ता
अपने ही आप से बातें करती
मुस्कुराती
झरनों के जल तरंग के बीच
भीगती हुई

वह मिलती है
अपने ही खेत की मेंड़ पर बैठी
धान की पकी बालियों को
अपने कोमल हाथों से सहलाती
दरांती की धार को महसूस करती
भीतर ही भीतर शर्माती
नजरें झुकाती
यौवन के सारे रंगों में
नहाती हुई

वह मिलती है
क्रैकडाऊन की गई
बस्ती के बीचों-बीच
लोगों के हजूम में
कोतवाल की वासना भरी नज़रों से
अपने आपको बचाती
अपने चेहरे पर उमड आई
प्रवासी भावना को छुपाती हुई

वह मिलई है
अँधेरे रसोई घर के
कड़वे कसैले धुएं को झेलती
मन की भीतरी जेब में
माचिस और मिट्टी के तेल की
सुखद कल्पना संभालती
चूल्हे में तिल-तिल
जलती हुई

वह मिलती है
पत्तझड़ के मौसम में
अपने बूढ़े चिनार की
मटमैली छाँव में
झुर्रियों की गहराई मापती
दु:खों को गिनती
आईने को तोड़ती हुई

वह मिलती है
जीवन-मरुस्थल में टहलती
रेत की सीढ़ियां चढती
कैक्‍टस के ज़िद्दी काँटों से
दामन छुड़ाती
यादों की सीपियाँ समेटती
इच्छाओं के घरोंदे बनाकर
उनको ढहते देखती
रोती बिलखती
अपने ही सूखे आंसुओं में
डूब के मरती हुई

वह मिलती है
उम्र के सभी पडावों पर
संसार की सारी सड़कों पर
अपने पदचिन्ह छोड़ती
रूप बदलती
जीवन को एक
सुन्दर और गहरा अर्थ देती हुई .
*** 

अमावस

सिरहाने रखे सपने
सांप बन जाते हैं
जब बारूदी धुएँ में
पूर्णिमा
अमावस बन जाती है
बचो के पालने
प्रश्न बन जाते हैं
जब गोलियों की गूंज
लोरी बन जाती हैं
***

हमारी अम्मा की ओढ़नी

वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
और घुस आते हैं हमारे घरों में
वे दाढ़ी से घसीटते हैं
हमारे अब्बू को
छिन जाती है
हमारी अम्मा की ओढ़नी
या हम एक दूसरे के सामने
नंगे किए जाते हैं
सिसकती है शर्म
बिखर जाते हैं रिश्ते
वे नकाबपोश होते हैं
लेकिन
हम खोज ही लेते हैं उनके चेहरे
अतीत की पुस्तक के एक एक पन्ने से
बचपन बिताए आंगन से
दफ़्तर में रखी सामने वाली कुर्सी से
एक साथ झुलाये हुए झूले से
स्कूल की कक्षा में बेठे लडकों से
हमारे बचपन के आंगन पर
रेंगते हैं सांप
यमराज दिखाई देता है
हमारी सामने वाली कुर्सी पर
जल जाती है
हमारे बचपन के झूले की रस्सी
हम उस काली नकाब के पीछे छिपे
कभी उस लड़के का चहरा भी देखते हैं
जिसको हमने पढ़ाया होता है
पहली कक्षा में
वे जब आते हैं रात-समय
ले जाते हैं जिसको वे चाहें घर-परिवार से
और कुछ दिनों के बाद
मिलती है उसकी लाश
किसी सेब के पेड़ से लटकी
या किसी चौराहे पर लिथड़ी
मारने से पहले वे
लिख देते हैं अपना नाम
उसकी पीठ पर
आतंक की भाषा में
दहकती सलाखों से
आग के अक्षरों में
वे जब आते हैं रात-समय
दस्तक नहीं देते हैं
तोड़ते हैं दरवाजे़
रोंदते हैं पाव तले
हमारी संस्कृति को
हमारे रिश्तों को
हमारी शर्म को . 
***  

बर्फ़ और आग

बर्फ़ के घरों में रहते थे
वे लोग
ठंडक बसती थी
उनकी सभ्यता में
बर्फ़ के सपने उगते थे
उनकी आँखों में
और आज पहली बार
वे घर लाए थे आग
इतिहास में केवल
इतना ही लिखा है
*** 

निदा नवाज़
जन्म :- ३ फरवरी १९६३
शिक्षा :- एम.ए.मनोविज्ञान ,हिंदी ,उर्दू ,बी.एड
प्रकाशन :- अक्षर अक्षर रक्त भरा (कविता संग्रह जम्मू व् कश्मीर राज्य में विकसित आतंकवाद के विरुद्ध किसी भी भाषा में लिखी गई पहली पुस्तक ), दैनिक मांउटेन विव (संपादन), साहित्य अकादेमी के लिए कश्मीरी कविताओं का हिंदी अनुवाद .
पुरस्कार :- केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ,भारत सरकार द्वारा हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार ,हिंदी साहत्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य प्रभाकर ,मैथलीशरण गुप्त सम्मान ,शिक्षा मंत्रालय जे.के.सरकार की ओर से राज्य पुरस्कार .
संपर्क :- निदा नवाज़ ,निकट नुरानी नर्सिंग कालेज ,एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा -१९२३०१
फोन :- 09797831595
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