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ये अफ़साना सुनाना चाहते हैं हम उन्हें भी - अशोक कुमार पांडे का एक जनगीत

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अशोक कुमार पांडेय की कविताएं सब जगह पढ़ी गई हैं। इस बार अनुनाद उनका जनगीत लेकर आ रहा है, जिसके बारे में कवि ने कहा है कि इसे फेसबुक पर लगाया जा चुका है। किसी भी जनान्‍दोलन में गाए जा रहे गीतों की भूमिका बहुत अहम होती है। आंदोलन के सरोकार जब एक आत्‍मीय छंद और प्रिय लय में बंधकर जनता के बीच पहुंचते हैं तो उनके प्रति समझ का दायरा फैलता है। जो लम्‍बे-लम्‍बे भाषणों से नहीं होता, एक गीत कर दिखाता है। ऐसे गीत रचे जल्‍दी में जाते हैं पर उनमें से कुछ हमारे जीवन का स्‍थायी हो जाते हैं। वे आन्‍दोलन के साथ समाप्‍त नहीं होते, जब जब आन्‍दोलनों की वापसी होती है, उन्‍हें खोजा जाता है। इनका अपना एक साहित्यिक महत्‍व होता है, जिसे सामाजिक-राजनीतिक पसमंज़र में देखना-परखना होता है और अपने लिए तो यही कसौटी कविता की भी है। बहरहाल, महिला सरोकारों से जुड़े अशोक के इस प्रभावशाली गीत का अनुनाद पर स्‍वागत है.... इसका महत्‍व और भविष्‍य भी उसी आन्‍दोलन से साबित होगा, जिसके लिए यह लिखा गया। युवा कवियों में छंद साधने की घटती इच्‍छा के विलोम में के रूप में इस गीत को पढ़ना मेरे लिए सुखद अनुभव है, अशोक से अनुरोध है कि जल्‍द इसके गाए जाने की रिकार्डिंग भी उपलब्‍ध कराए। अशोक के दो जनगीत इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं। 
*** 


ये अफ़साना सुनाना चाहते हैं हम उन्हें भी जो
हमारे आंसुओं की नींव पर एवाँ बनाते हैं
हमें देवी बताते हैं,  हमारे गीत गाते हैं  
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

कोई घूँघट पे लिखता है, कोई पर्दा सुझाता है
करो तुम शर्म सह लो कष्ट सब चुपचाप मत बोलो
तुम्हारा स्वर्ग है यह ही, तुम्हारी है यही दुनिया
घरों की चार दीवारों में सारे ज़ुल्म तुम सह लो 

जो अपने जितने हैं उतना ही हमको वे सताते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

पढो मिहनत से और साथ में सब काम घर का हो
ये पढ़ना भी हो यों कि कभी दुल्हन तुम बेहतर हो 
अगर दफ्तर भी जाओ लौटकर घर काम सारा हो
जो पैसे तुम कमाओ हक पति का ही बस उस पर हो  
         
पुराने ही नहीं नियम नए यों वे बनाते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

घरों में आग चूल्हे की तो बाहर वहशियों की भूख
किया गर प्रेम तो धोखा या फिर मार अपनों की
सगा भाई पिता अपने  लिए हथियार आते हैं
ये कैसी आन जिसकी सान पर हम मारे जाते हैं?

कभी सोने कभी लोहे की वो जंजीर लाते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

हमारी देह पर ही युद्ध दंगे और सब बलवे
हमारी देह को ही बेचकर महफ़िल सजे सारी
हमीं बैठाए जाएँ हँसते हुए सारे बाज़ारों में
ये हंसना भी तो रोने की तरह है एक लाचारी

कभी रोना कभी हँसना कभी चुप्पी सिखाते हैं
कुछ इस तर्ह हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

लबों में जो हुई हरक़त  धरम की नींव डोले है
सभी को क्यों खले है आज जो औरत भी बोले है
हमारी अपनी आज़ादी हमी से आयेगी सुन लो
कई सदियों की चुप्पी तोड़कर जो आज बोले हैं 

तो फिर वो याद संस्कृति की धरम की दिलाते हैं
कुछ इस तर्ह  हमारी क़ैद की दीवार उठाते हैं

कई सदियों की ये जुल्मत न अब बर्दाश्त होती है
हदों को तोड़कर निकली हैं राह अपनी बनाने हम
बहुत माँगा, बहुत रोया बहुत फरियाद कर ली है
लड़ेंगे अब तो अपनी ज़िन्दगी अपनी बनाने हम

रहो तुम देखते कैसे नसीब अपना बनाते हैं
तुम्हारी क़ैद की दीवार हम कैसे गिराते हैं
**** 

प्रांजल धर की कविताएं : सन्‍दर्भ भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार

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प्रांजल धर को इस वर्ष भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार प्रदान किए जाने की सुखद घोषणा हैं। हिन्‍दी कविता में अकसर युवा कविता के पुरस्‍कार कवियों की पहली पहचान बनाते हैं पर प्रांजल को दिया गया पुरस्‍कार कविता के इलाक़े में उनकी पहले से बनी पुख्‍़ता पहचान की पुष्टि करता है, उसका स्‍वीकार करता है। सभी जानते हैं कि प्रांजल अपनी कविता की ख़ास संरचनाओं और भाषिक प्रभावों में विकास और विस्‍तार के कई मोड़ घूम चुका नौउम्र लेकिन अनुभवसम्‍पन्‍न कवि है। मैं अपने इस हमसफ़र को बधाई देता हूं। आगे प्रस्‍तुत है निर्णायक श्री पुरुषोत्‍तम अग्रवाल द्वारा की गई अनुशंसा और प्रांजल की कुछ कविताएं।
*** 
भयानक ख़बर की कविता

युवा कवि प्रांजल धर ने पिछले कई सालों से अपनी सतत और सार्थक सक्रियता से ध्यान आकृष्ट किया है। जनसत्तामें 26 अगस्त, 2012 को प्रकाशित उनकी कविता कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहींसचमुच भयानक ख़बर की कविता है। यह कविता अपने नियंत्रित विन्यास में उस बेबसी को रेखांकित करती है, जो हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन को ही नहीं, हमारी भाषा और चेतना को भी आच्छादित करती जा रही है। लोकतंत्र एक औपचारिक ढाँचे मात्र में बदलता जा रहा है। स्वतंत्रता और न्याय जैसे मूल्यवान शब्दों का अर्थ ही उलटता दिख रहा है। नैतिक बोध खोज की जगह सुविधाजीविता ने ले ली है। इस सर्वव्यापक नैतिक क्षरण को प्रांजल धर बहुत गहरे विडम्बना-बोध के साथ इस सधे हुए विन्यास वाली कविता में मार्मिक ढंग से ले आते हैं। निश्चयात्मक नैतिक दर्शन से वंचित इस समय का बखान करती इस कविता में अनुमानशब्द ज्ञानमीमांसा के अनुमान का नहीं, सट्टेबाजी के स्पेकुलेशनका वाचक बन जाता है, और आत्महत्या का पापबुनकरों तथा किसानों की विवशता का।

जिस समय में कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं रहा, उस समय के स्वभाव को इतने कलात्मक ढंग से उजागर करने वाली यह कविता निश्चय ही 2012 के भारत भूषण अग्रवाल सम्मान के योग्य है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल



कुछ भी कहना ख़तरे से खाली नहीं
(पुरस्‍कृत कविता) 

इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब
इसलिए उतना ही देखो, जितना दिखाई दे पहली बार में,
हर दूसरी कोशिश आत्महत्या का सुनहरा आमन्त्रण है
और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर या विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद।

मतदान के अधिकार और राजनीतिक लोकतन्त्र के सँकरे
तंग गलियारों से गुज़रकर स्वतन्त्रता की देवी
आज माफ़ियाओं के सिरहाने बैठ गयी है स्थिरचित्त,
न्याय की देवी तो बहुत पहले से विवश है
आँखों पर गहरे एक रंग की पट्टी को बाँधकर बुरी तरह...

बहरहाल दुनिया के बड़े काम आज अनुमानों पर चलते हैं,
- क्रिकेट की मैच-फ़िक्सिंग हो या शेयर बाज़ार के सटोरिये
अनुमान निश्चयात्मकता के ठोस दर्शन से हीन होता है
इसीलिए आपने जो सुना, सम्भव है वह बोला ही न गया हो
और आप जो बोलते हैं, उसके सुने जाने की उम्मीद बहुत कम है...

सुरक्षित संवाद वही हैं जो द्वि-अर्थी हों ताकि
बाद में आपसे कहा जा सके कि मेरा तो मतलब यह था ही नहीं
भ्रान्ति और भ्रम के बीच सन्देह की सँकरी लकीरें रेंगती हैं
इसीलिए
सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ भी कहना
ख़तरे से खाली नहीं रहा अब !
***

रेंगती हैं स्मृतियाँ अपने इलाके में

जीवन कबाड़खाना है कुछ घटिया स्मृतियों का,
वक्त के साथ कबाड़ का वज़न बढ़ता ही जाता है
चढ़ता ही जाता है एक ढेर पर दूसरा ढेर
हर सुबह अहसास होता कि
मन एक नए जानवर में तब्दील हो चुका है
बन्द है जो पिंजरे में।
चाहे जितनी तेजी से पत्थर फेंकता हूँ
समुद्र नहीं पार कर पाता,
गुम भी हो जाता उल्टे
सागर की भीषण गहराइयों में,
कमाये हुए पत्थर घटते जा रहे हैं
एक-एक करके
हर पत्थर अपनी स्मृति जबरदस्ती भेंट कर जाता है
हाथों को।
जाने कब ये स्मृतियाँ हाथों से रेंगकर
सीने पर दस्तक देती हैं,
देती रहती हैं
और तोड़ देतीं दरवाज़ा अन्ततः।

यह क्या !
अनधिकृत प्रवेश !!
बन्द सीप की तरह घोर अन्तर्मुखी कोई होता भी नहीं
कि इस प्रवेश को रोक सके,
कामयाब हो जाए बाड़ा लगाने में।
और फिर स्मृतियों की लम्बाई द्रौपदी के चीर-सी,
सारा ज्ञान और अनुभव कबाड़खाने के सामने
याचना की मुद्रा अपनाता है
कि छोड़ दो मुझे, छोड़ दो मुझे...
मस्तिष्क की सीमा यहीं ख़त्म हो जाती,
आगे का इलाका तो हृदय का है।
***


आओ उनका दुःख अपने कन्धों पर उठाएँ

जिनका शीतल क्षोभ ही जिनका पारिध्वजिक है,
पराजित मुखमुद्रा मुख़बिर है
जिनकी, अपने ही घनीभूत विश्रंभ की।
जिनकी विनोदप्रियता रौंदी गयी है बारम्बार,
जिनकी भावना के वर्तुल में आकर
हँसी और आक्रोश पर्याय हो जाते हैं
सिद्धान्त दूसरा नाम बन जाता है लन्तरानी का।
महज़ एक धुँधला भ्रम जिनकी सकल पूँजी है।
जो फ़र्क नहीं कर सकते कातिल और मुंसिफ़ में
आँचल, अदालत और आँगन में,
जो आईनासाज़ हैं लेकिन बदशक्ल भी
जो चरवाहे भी हैं, घास भी और भेड़ भी।
और भेड़चाल जिनकी अधिकतम गति-सीमा है।
जो यियप्सु हैं लेकिन जिनका संसर्ग-सुख भी विषमभोग ही है।
जिनका कोई परिचय ही नहीं,
जो इतने जर्जर हैं कि बनामशब्द ही बेमानी है,
... आओ उनका दुःख अपने कन्धों पर उठाएँ!
भारावतारण करें उनके शाश्वत कर्ज़ का!!
*** 

मन का रथ और दवाइयों की शीशियाँ

बहुत दूर चले जाते मन के रथ में जुते हुए घोड़े कभी-कभी
और कभी-कभी घोड़ों की नाल से आवाज़ें आतीं कुछ इस तरह
मानो दवाई की शीशी चौराहे पर गिरकर छन्न से टूटी हो।

दवाई उन लोगों की आखिरी आशा है
जिन्होंने अपने जीवन का कोई लम्बा-चौड़ा बीमा नहीं कराया कभी
और जिनका जीना इस दुनियाँ में इसलिए ज़रूरी है ताकि
वह सारा दुःख सौंपा जा सके उन्हें
जो कुछ लोगों द्वारा भोगे गए ठसाठस सुख के
बीहड़ असन्तुलन के कारण पैदा होता समाज में, निरन्तर।

मन के इस रथ पर सवारी करते गांधी, कभी मार्क्स, कभी यीशु
पहाड़ों, नदियों और कन्दराओं से होते हुए यह रथ कई बार
मानवता का जघन्य उल्लंघन देखकर भूकम्पी हिचकोले खाने लगता
हिल जाते तमाम समाजशास्त्रीय सिद्धान्त, हिल जातीं चूलें भी...

बहुत दूर की बातें करने का क्या फ़ायदा !
फ़ायदा-नुकसान तो मन वैसे भी कहाँ देख पाता किसी का
मुनाफ़े का गुणा-गणित ही ऐसी चीज़ है जिसका
दवाइयों या उनकी शीशियों से कोई भी ताल्लुक नहीं।
फिर क्यों गूँजतीं ध्वनियाँ शीशियों के फूटने की, छन्न-छन्न;
क्यों आतीं आवाज़ें घोड़ों की नाल से टप-टप !टप-टप-टप-टप !!
*** 


अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का

अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का।
अपने ही देश में पराए हैं
वंचनाबोध से ग्रस्त नवयुवक कुछ,
जला दी गयीं हैं कुछ प्रेमिकाएँ बगल वाले गाँव में
अपने ही घरों में;
सह नहीं पाती कोई कार्यकारिणी
पूर्वोत्तर के पहाड़ी अक्षांशों में
दूर तक पसरे विध्वंसक सन्नाटे को,
चुप्पियों का कब्रिस्तान ही संविधान है जहाँ का।

अध्यारोहण है यह बौद्धिकों की स्वार्थ पताकाओं का।
सभी लोगों ने अपने संगमरमर से लैस
घरों के आगे दो मीटर तक अवैध कब्जा
जमाया हुआ है,
कारें खड़ी करने और गमले रखने के लिए
चर्चित महानगरों में।
तलाशती है विकल्प अपने,
एक छोटी-सी कुपोषित बच्ची,
गुलाब के काँटों से खेलती है।
ऊपर उड़ रहे वायुयानों की पंक्ति
और उनकी देर तक कानों में गूँजती ध्वनियाँ
प्रतीक हैं बाढ़ग्रस्त अंचल के ऐतिहासिक दौरे की।
अध्यारोहण है यह...
*** 

फौलादी चादर
(पहाड़पुरुष दशरथ माँझी के लिए, जिनकी मृत्यु से एक दिन पहले एम्स में घण्टों उनका हाथ थामे रखा था)

उन हाथों की सच्चाई भरी कर्मठ छुअन को
कहाँ रख पाएगी लेखनी;
भिखारन नज़र आती हैं सारी सत्ताएँ शब्द की।
खड़ी बोली, भोजपुरी, मगही, मैथिली और डोगरी –
सब निरुत्तर !
उनके दशकों लम्बे पर्वतीय और फौलादी सवालों को सुनकर।
हाथ थामा था फुरसत से एम्स के प्राईवेट वार्ड में उनका।
नहीं रहे वे
एंकर स्टोरी थी कुछ अख़बारों की अगली सुबह।
बयाँ न कर पायी वैश्विक अँग्रेजी भी टीस को उनकी
जो सालों साल काटती रही उन्हें,
और वे पहाड़ों को।
बन गया रास्ता, लेकिन खो गयी ज्वाला
छटपटाहट भरी क्रान्ति की,
उस मोटे देहातीचादर में;
अन्तिम बार भी जिसे ओढ़े बिना नहीं रह सके थे वे।
***
कवि-परिचय 

जन्म – मई 1982 ई. में, उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में।
शिक्षा– जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान, जे.एन.यू. कैम्पस से पत्रकारिता में डिप्लोमा।
कार्य – देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी जयपुर से कुछ कविताएँ प्रसारित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। सक्रिय मीडिया विश्लेषक। अनेक विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय महत्व के संस्थानों में व्याख्यान। 'नया ज्ञानोदय', 'जनसंदेश टाइम्स'और द सी एक्सप्रेससमेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार। पुस्तक संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए देश के अनेक भागों में कार्य। जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों से जुड़े कार्यों में सक्रिय सहभागिता। 1857 की 150वीं बरसी पर वर्ष 2007 में आदिवासी और जनक्रान्तिनामक विशेष शोधपरक लेख प्रकाशन विभाग द्वारा अपनी बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक में चयनित व प्रकाशित। बीबीसी और वेबदुनिया समेत अनेक वेबसाइटों पर लेखों व कविताओं का चयन व प्रकाशन। अवधी व अंग्रेजी भाषा में भी लेखन।
पुरस्कार व सम्मान - वर्ष 2006 में राजस्थान पत्रिका पुरस्कार। वर्ष 2010 में अवध भारती सम्मान। पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। 2012 में गया, बिहार में आयोजित मगध पुस्तक मेले में पुस्तक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकरस्मृति न्यास की तरफ से सर्वश्रेष्ठ विशेष सम्मान। फरवरी 2013 में गया, बिहार में बज़्म-ए-कलमकारकी तरफ से विशेष लेखक सम्मान। वर्ष 2013 में इन्दौर में सम्पन्न सार्क के अन्तरराष्ट्रीय भाषायी पत्रकारिता महोत्सव में विशिष्ट अतिथि के दर्ज़े से सम्मानित। वर्ष 2013 में पंचकूला में हरियाणा साहित्य अकादेमी की मासिक गोष्ठी में मुख्य कवि के रूप में सम्मानित। हाल ही में कविता का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार।
पुस्तकें समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अख़बार(वाणी प्रकाशन से)। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर 'महत्व : रामधारी सिंह दिनकर : समर शेष है'(आलोचना एवं संस्मरण) पुस्तक का संपादन। अनभैपत्रिका के चर्चित पुस्तक संस्कृति विशेषांक का सम्पादन।

सम्पर्क :
2710, भूतल, डॉ. मुखर्जी नगर, दिल्ली – 110009
मोबाइल- 09990665881
ईमेल- pranjaldhar@gmail.com

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पोस्‍ट में प्रयुक्‍त विख्‍यात चित्रकार सल्‍वादोर डाली के चित्र गूगल इमेज से साभार

अमित श्रीवास्‍तव के कविता संग्रह पर युवा कवि महेश पुनेठा की टिप्‍पणी

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भीतर-बाहर की आवाजाही



पिछले दिनों युवा कवि अमित श्रीवास्तव का पहला कविता संग्रह'बाहर मैं ...मैं अन्दर 'शीर्षक से प्रकाशित हुआ है . इस संग्रह में दो खण्डों में कवितायेँ संकलित हैं . पहला खंड 'मैं अन्दर 'नाम से है. 'बाहर 'की कवितायेँ तो समझ में आ जाती हैं लेकिन 'भीतर 'की कविताओं को समझने के लिए पाठक को जूझना पड़ता है . ये आसानी से समझ में आने वाली कवितायेँ नहीं हैं. शायद इसका कारण मानव मन की जटिलता हो . किसी भी व्यक्ति के मन को समझना जितना कठिन है उससे अधिक कठिन उससे जुडी अभिव्यक्ति को .मन की दुनिया बहुत बड़ी और पेचीदी होती है .मेरा मानना है जीतनी बड़ी दुनिया बाहर है उससे बड़ी हमारे भीतर है . इसलिए ये कवितायेँ पाठक से धैर्य की मांग करती हैं .इनके भीतर धीरे-धीरे ही प्रवेश किया जाना चाहिए. इन कविताओं में लगता है कि कवि खुद से लगातार वाद-प्रतिवाद कर रहा है . अपने से लड़ रहा है. इस प्रक्रिया में खुद को पहचानने की कोशिश कर रहा है .कवि की खुद से गुत्थम -गुत्था चल रही है .ब्लर्ब लिखते हुए युवा कवि शिरीष मौर्य ने सही पकड़ा है कि इस अन्दर में छटपटहट बहार के दबाबों की भी है .इस अन्दर में वह खुद अपना ईश्वर भी है . ये कवितायेँ बताती हैं कि कवि का मैं वेदना और संवेदना का मेल है .वह कहीं दूर से निर्देशित नहीं हैउसे 'करारी चोट और ठंडी औपचारिकता सहन नहीं है. 

कवि का यह कहना -'कि मैं भी कभी /ईश्वर रहा हूँगा 'उनके साहस और आत्मविश्वास को बताता है . यह अच्छी बात है कि कवि ने खुद को मजबूती से बाँधा है और खुद को छुपाने की कोशिश नहीं की है . जबकि इस बाजार युग में सभी का सत्य को छुपाने में अधिक जोर है. कितना प्रीतिकर है कि कवि ऊँचाइयों को पाने के लिए भागता नहीं . 'त्रिशंकु'का कवि का आदर्श होना, हमारे चारों ओर की परिस्थितियों का हमारी संवेदना पर बढ़ते दबाब को बताता है ,यह समय -सत्य है जिसे कवि किसी बनावटीपन से ढकना नहीं चाहता . इन कविताओं को पढ़ते हुए मनुष्य के भीतर के बारे में बहुत कुछ नया पता चलता है और बहुत कुछ ऐसा जो हम सबके मन में कभी ना कभी पैदा होता है .

जहाँ'मैं अन्दर'में भीतर की हलचल है वहीँ 'बाहर मैं 'में बाहर की चहल-पहल .अपने आसपास की हर घटना को पैनी नजर से देखा गया है . छोटी कविताओं की अपेक्षा लम्बी कवितायेँ अधिक प्रभावशाली हैं . उनमें जीवन पूरी ठाट के साथ आता है . देश की आज की हालातों पर कविता सटीक और मारक टिप्पणी करती है -एक देश है/ जो निरुद्देश्य है /जो अपने नागरिकों के सामने /निरुपाय/ नंगा खड़ा है नयी सदी के पहले दशक में. इस हालत के लिए कवि का डाक्टर , वकील, पत्रकार, लेखक ,नेता ,शिक्षक . इंजिनियर ,योगी उद्योगपति सहित सभी वर्गों को जिम्मेदार मानना सही है .

प्रस्तुत संग्रह में 'डल'बहुत मार्मिक कविता है जो दहशतगर्दी के चलते कश्मीर के आम आदमी के हालत को पूरी संवेदनशीलता के साथ बयां करती है . डल झील जो अपनी सुन्दरता के लिए विश्व प्रसिद्द है, पर्यटकों के नहीं आने से बेचैन,झल्लाई हुयी है जो काटखाने के लिए आ रही है . आम आदमी की पीड़ा को समझने वाला कवि ही प्रकृति के भावों को इस तरह से समझ सकता है . यह बैचनी और झल्लाहट दरअसल उन लोगों की है जो अपनी आजीविका से महरूम हो गए हैं .एक कवि मन ही इस तरह से देख सकता है दूसरा तो वहां के प्राकृतिक सुन्दरता में खो कर रह जाता . यह कविता कश्मीर के करुण हालत को काव्यात्मक रूप में पाठक तक पहुंचाने में सफल रहती है .इस कविता की ये पंक्तियाँ .....'जावेद को किसी का इन्तजार नहीं अब/जावेद का कोई इंतजार नहीं करता घर पर' , पाठक के सीधे मर्म में जाकर लगती हैं जिसमे पाठक देर तक कसमसाता रहता है . 'मैं बहुत उदास हूँ 'कविता कवि की प्रतिबद्धता और सरोकारों को बताती है . अमित ने इस कविता में उदासी के जो -जो कारण बताये हैं उन कारणों से एक संवेदनशील व्यक्ति ही उदास हो सकता है . पर इस कविता की खासियत है कि यह उदास नहीं करती है बल्कि उदासी से लड़ने की ताकत देती है . आश्वस्त करती है कि और भी हैं ज़माने में जिनको ज़माने की चिंता है .

'कहानी नहीं नियति है 'संग्रह की एक और मार्मिक कविता है जिसमें आजादी के साठ बरस बाद भी करोड़ों भारतवासी इस स्थिति में नहीं पहुँच पाए हैं कि अपने नन्हे-मुन्नों की छोटी -छोटी चाहतों को भी पूरा कर पायें. इस कविता में एक गरीब महिला की मनस्थिति को दिखाया गया है जो अपने जिद करते बच्चे के लिए न उसके पसंद का खिलौना खरीद पाती है और न दो केले . 

इनके अलावा प्रस्तुत संग्रह में 'विदेश नीति ' , 'मुल्तवी ' , 'महाकुम्भ' ,'कालाढूंगी ' जैसी कवितायेँ हैं जो भीतर तक हिलाती हैं और अपने साथ ले चलती हैं . इन कविताओं में एक अच्छी बात है कि ये पुलिस वालों के प्रति
थोडा ठहरकर सोचने को प्रेरित करती हैं . वे भी आदमी हैं उनके भीतर भी इन्सान का दिल धड़कता है . इस दृष्टि से सोचना भी जरूरी है क्यूंकि पुलिस की आम आदमी के सामने जो छवि बन चुकी है दरअसल उसके लिए उनकी कार्य परिस्थितियां और उन पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाब अधिक जिम्मेदार हैं .

कुल मिलकर कवितायेँ अपने नयेपन से ध्यान आकर्षित करती हैं .कथ्य और शिल्प के स्तर पर ये कवितायेँ परंपरागत अनुशासन को तोडती हैं . इन कविताओं में ऊपर से जो दिखता है उससे ज्यादा उभर आता है जो भीतर दबा है . कवि की यह भीतर- बाहर की आवाजाही उनकी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है. उनके इस पहले संग्रह का स्वागत होना चाहिए.
***

कविता जो साथ रहती है : 5/ असद ज़ैदी की कविता पर गिरिराज किराड़ू

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अनुनाद पर सुप्रसिद्ध कवि गिरिराज किराड़ू के महत्‍वपूर्ण स्‍तम्‍भ 'कविता जो साथ रहती है'के तहत इस बार प्रस्‍तुत है असद ज़ैदी की कविता 'आम चुनाव'पर एक लम्‍बी विचारोत्‍तेजक टीप। कहना ही होगा कि यह टीप 'साहित्‍य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है'की परम्‍परा में सम्‍भव होती है। नाम अगोरने वाले हिन्‍दी में बहुत हैं, कर दिखाने वाले कम - गिरि उन्‍हीं करने वालों में से है। असद ज़ैदी भी बहुत कम समझे गए कवियों में हैं, जो उनकी दुरूहता नहीं, हिन्‍दी के समझदारों की नासमझी का फल है। गिरिराज भी बतौर कवि ऐसा ही है, जिसे ठीक से समझा नहीं गया। उसकी राजनीति को कभी परखा नहीं गया। मगर इक उम्‍मीद-सी है कि हालात बदलेंगे और वक्‍़त रहते बदलेंगे। हमारे आसन्‍न राजनीतिक अंधकार पर प्रकाश डालती इस लम्‍बी टिप्‍पणी को प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है। लोकसभा आम चुनाव की पूर्वबेला पर न असद ज़ैदी की इस कविता से मुंह चुराना आसान होगा और न ही गिरिराज किराड़ू के इस आकलन से।  

   फूल का निशान और स्त्रियाँ: गिरिराज किराडू    

आम चुनाव - असद ज़ैदी

आम चुनाव में मतदान के रोज़
अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े मोहन भाई
किसी और युग में भटकने लगे...

वहीदा रहमानी
कुसुमलता माथुर
एक वी गौरी देवी
सुमित्रा भट्ट
इनमें चुनाव का सवाल ही क्या
दिल तो इन सबसे लगाया ही था

एक तपस्वी की तरह
कोई इस इतिहास को तो बदल नहीं सकता
गर इनमें किसी से रू-ब-रू कुछ कह न सके
तो अपने ही स्वभाव का दोष था
और इस बात का अफ़सोस भी क्या करना
एक भी औरत अब इस शहर में नहीं
कहाँ हैं वे सब, जानने की कोशिश ही न की

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहाँ भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल के भी न लगा देना
उस फूल पर निशान.

(सामान की तलाश, पृष्ठ ३७-३८, परिकल्पना प्रकाशन २००८)



 
इधर कुछ महीनों से पहली बार एक राजनेता मेरे सपनों में आने लगा है.

मेरी नींदों में वे लोग कभी शामिल नहीं रहे हैं जिनसे मैंने टूटकर प्यार किया. वे मेरी जाग में इतना मेरे पास रहते हैं कि नींद को बख्श देते हैं मानो. उनका दिया सुख दुःख सब जाग का हिस्सा है. लेकिन जिनसे मैंने नफ़रत की, जिनसे डर लगा वे अक्सर सपनों में दाखिल हुए.

इस राजनेता से एकदम सच्ची नफ़रत है, ख़ालिस. जीरो टॉलरेन्स.

 
जो 'ह्यूमेनिटेरियन क्लिनिक'डेस्डेमोना जैसे फूल की हत्या करने वाले ऑथेलो, अपने गर्व और कायरता में शकुंतला जैसी निर्भीक आत्मसम्मानी को अपमानित करने वाले दुष्यंत और यहाँ तक कि बोर्हेस को पढ़ने के बाद यीशू की मुख़बिरी करने वाले जूडास के लिए मन में खुल जाता है वह इस राजनेता - नरेन्द्र मोदी - और उसके जैसे लोगों के लिए हमेशा बंद ही रहता है. 

क्लासिकल त्रासदी कैसे अपनी करुणा से नायक के अपराध के प्रति हमारे रेस्पोंस को मैनीपुलेट करती हैं यह इसी स्तंभ में पहले कहा गया है. मिलान कुंदेरा ने जो क्लासिकल त्रासदी से सीख लेते हुए कहा था कि साहित्यिक कृति की नैतिकता 'नैतिक निर्णय को स्थगित'करने में है, उस कथन का असर हमारे आस-पास के साहित्यिक पर्यावरण में बहुत दिखाई देता है लेकिन अक्सर उसे गलत भी समझा गया है. नैतिक निर्णय 'स्थगित'करने की बात है, नैतिक निर्णय कभी न लेने की बात नहीं है. खुद कुंदेरा का लेखन ऐसे निर्णय लेता है. चेकोस्लोवाकिया के रूसी अधिग्रहण की सबसे मुखर और मारक आलोचना हमें उनके फिक्शन में ही मिलती है.
असहिष्णुता कैसे मानवीय हो सकती है यह हमें मोदी जैसे लोगों ने ही समझाया है. हिटलर ने इवा ब्राउन के साथ आखिर में क्या किया इस नैरेटिव को इस बात के उदहारण के तौर पर प्रस्तुत किया जाए कि सबसे नृशंस हत्यारे भी 'मानवीय'होते हैं तो इस फ़रेब के आरपार देखने की समझ साहित्य से उतनी नहीं,  जितनी आस-पास के रोज़मर्रा से बनी है.

तो दोस्तो, दुनिया की सबसे कुशल छवि प्रबंधन एजेंसियों के बावजूद, उसके 'विकास'की मानवीयता के फ़रेबी नैरेटिव के बावजूद वह लगातार अपने सरूप में, हाथ में खंज़र लिए सपनों में आता है.

 
स्वप्न और यथार्थ का फ्यूज़न आधुनिक साहित्य की एक करिश्माई उपलब्धि थी जो सबसे पहले काफ़्का के यहाँ मुमकिन हुई. उसी तरह निजी भी राजनीतिक होता है यह हमारी सबसे महत्वपूर्ण समकालीन अंतर्दृष्टियों में से है लेकिन यह कैसे होता है, कैसे निजी में राजनैतिक और राजनैतिक में निजी की इबारत छुपी होती है इसका जैसा साफ़ सहज बेहद कलात्मक  निरूपण असद ज़ैदी की कविता 'आम चुनाव'में है उसके कारण यह कविता पिछले तीन चार बरसों से साथ रहती है.

कविता में मोहन भाई मतदान करने के लिए कतार में लगे हुए अपने जीवन के 'किसी और युग'के इकतरफा प्रेमों को याद करने लगते हैं, उन स्त्रियों के नामों को गौर से देखें तो उनमें ऐसी बहुलता है (मुस्लिम, हिन्दू, दक्षिण भारतीय आदि) कि लगता है मोहन भाई ने चुपचाप इस वतन से, इसकी बहुलता से, प्रेम किया है.

अब उन 'भली''सुखी'औरतों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं, बस भरोसा है कि जैसे होती हैं हिन्दुस्तानी औरतें वैसे भली और सुखी होंगीं गो पक्का नहीं कि आज आम चुनाव में मतदान के दिन वे भी उनकी तरह मतदान करने के लिए कतार में हैं कि नहीं पर अगर वे 'निकल ही पड़ी हों वोट डालने के लिए'तो मोहन भाई, जो उनसे 'अपने ही स्वभाव के दोष'के चलते 'रू-ब- रू'कभी कुछ नहीं कह पाये, आज कहेंगे कि,

ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहाँ भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल भी न लगा देना
उस फूल पर निशान.

यह निजी में मौन रहने वाले की मुखर राजनीति है. वह खुद इस कतार में है कि फूल के खिलाफ़ कम से कम एक वोट सुनिश्चित कर सके. अपनी कामना में वह ऐसे चार और वोटर पक्के करना चाहता है. और अगर वहीदा रहमानी, कुसुमलता माथुर, वी गौरी देवी, सुमित्रा भट्ट मिलकर वतन हैं तो मोहन भाई यह पक्का करना चाहते हैं यह वतन फूल के खिलाफ़ वोट दे दे. और अगर वे 'आधी दुनिया'हैं तो आधी दुनिया फूल के खिलाफ़ वोट दे दे.

 
वोट परदे की ओट.

शादी के बाद अपनी मृत्यु तक घूंघट करने वाली मेरी नानी शायद इस वाक्य में 'पर्दे की ओट'की त्रासद विडम्बना को पार करके यह वाक्य बोलती थी, विजय और गर्व से. कलकते में रहने वाले कई मारवाड़ियों की तरह उनके पिता और पति दोनों कांग्रेस समर्थक थे. नानी जो बाकी जीवन में उनका बहुत प्रतिवाद नहीं कर पायी, एक नागरिक के दुर्लभ पवित्र एकांत में अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देती रही.

बंगाल के कम्यूनिस्ट नहीं जानते होंगे कि उनकी सत्ता बनने में बिलासपुर में जन्मी, लेकिन मूलतः राजस्थान की और कलकत्ते की एक छोटी-सी खोली में अपनी ज़्यादातर विवाहित जिंदगी बिता देने वाली स्त्री के एक नागरिक के रूप में किये गए 'चुनाव'का (जो उनकी ज़िंदगी का एकमात्र चुनाव था बाकी तो सब कुछ उनके जीवन में बिना उनके चुने ही हुआ) क्या योगदान था.

पितृसत्तात्मक हिन्दुस्तानी परिवारों में स्त्रियों का वोट ऐसा लगता है परिवार का मुखिया तय करता है लेकिन नानी और बाद में उनकी तर्ज पर उनकी दोनों बेटियों ने और मुझे यकीन है उनकी तरह बेशुमार स्त्रियों ने पितृसत्ता के खिलाफ़ 'परदे की ओट'यह जो गुप्त लोकतान्त्रिक कारवाई की है उसका लेखा होना बाकी है. 

अनुमान किया जा सकता है कि मोहन भाई विवाहित हैं और हमें अब यह दुआ करनी चाहिए कि उनकी विवाहिता और ये 'प्रेमिकाएं'अपने प्रतिशोध में फूल पर मुहर न लगा बैठें! यह इस कविता में निजी और सामाजिक/राजनितिक का एक और अस्तर है.

 
कविता की एक उस्तादाना शरारत यह है कि स्त्रियों को फूल बड़े पसंद होते हैं - कहीं इतनी सी बात पे कोई फूल को वोट न दे दे!

वैसे कुछ अध्ययन यह कह चुके हैं कि जहाँ भी स्त्रियों ने अधिक मतदान किया है, दक्षिणपंथी पार्टियों को फायदा हुआ है.

 
यह संभव है कि इस कविता, और इस निबंध को भी, स्त्रियों के राजनैतिक विवेक के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रसित मान लिया जाय लेकिन यह उन दुखद तथ्यों से आँख मूंदकर ही संभव है जो इस देश में स्त्रियों की शिक्षा, उनके जीवन में पारिवारिक और सामाजिक के शिकंजे और राजनीतिक सक्रियता के लिए अनुपलब्ध स्पेस के साथ साथ उनकी ऐसी सक्रियता के दमन के बारे में मौजूद हैं.

एक और सवाल यह भी है  कि मोहन भाई के पास क्या विकल्प है? वे किसे वोट देंगे? अगर उनकी चारों भली, सुखी औरतें उनसे सलाह मांगें तो वे क्या सुझाएंगे?

यह प्रश्न इस कविता में नहीं है पर क्या नब्बे के बाद के भारत में मोहन भाई के पास कोई विकल्प है? यह जानकारी भी इस कविता में नहीं है कि मोहन भाई की जाति क्या है?

अगर मोहन भाई का सरनेम होता इस कविता में हम क्या उनके विकल्पों का अनुमान कर पाते?

 
असद ज़ैदी की इस कविता के बारे में लिखते हुए वह याद आ रहा है जो कुछ समय पहले उनके लेखन के बारे में लिखा था: "प्रतीकात्मक और सजावटी नहीं, सचमुच का, नाम ले कर, अपना नुक्सान करने वाला प्रतिरोध करना उसकी सहजताओं में शामिल है."

जिस माहौल में साम्प्रदायिकता विरोध को भी करियरिज्म और अवसरवाद की भेंट चढ़ाया जा जा रहा है, उसमें फूल के निशान से लेकर साहित्य अकादेमी के रुझान का उनका प्रतिरोध स्पष्ट और प्रभावी भी रहा है, प्रेरक भी. 

 
हिंदी के वरिष्ठ लेखक यूं कभी किसी नवागंतुक को मुक्तिबोध नागार्जुन शमशेर बताते रहते हैं लेकिन कुल मिलाकर युवा कविता के बारे में एक सत्ता की तरह, एस्टेब्लिशमेंट के मुहाविरे में ही बात करते हैं. अस्सी के दशक के बाद की कविता के बारे में उनके अर्द्धसामंती वक्तव्य सुनकर अब ऊब होती है. 

पर यह सवाल क्यूँ नहीं उठाया जाय कि कितने वरिष्ठ कवि ऐसे हैं जिनकी कविता, इस निबंध में चर्चित कवि की कविता की तरह, लगातार अपने को जीवंत, सार्थक और समकालीन बनाये हुए हैं? या अब बहुतों से 'बूढ़ा गिद्ध क्यूँ पंख फैलाए'पूछने का समय आ गया है? 

 
यह कविता आजकल और शिद्दत से साथ आती है, अपने इन दुस्स्वप्नों और दुस्स्वप्नों के 'नायक'की वजह से. देश में आम चुनाव होने हैं और ऐसा लगता जिन जिन से कह सकते हो कह दो कि अगर निकल ही पड़े हो वोट डालने तो 'कहीं भूल के भी न लगा देना उस फूल पर निशान.'


(मोदी-दुस्स्वप्नों से इसी तरह परेशां शिव कुमार गांधी और अशोक कुमार पांडे के लिए)

 ***
हुसैन की चित्रकृतियां गूगल से साभार

तुषारधवल की लम्‍बी कविता 'काला राक्षस' : एक बार फिर

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आज साथी कवि तुषारधवल का जन्‍मदिन है और अनुनाद इस मौके पर उनकी चर्चित कविता काला राक्षस का पुनर्प्रकाशन कर रहा है। यह कविता इससे पहले सबद और अनुनाद पर ही छप चुकी है। तुषारधवल अपनी शुरूआत से ही जटिल वैचारिक किंतु नितान्‍त सामाजिक उलझनों के कवि रहे हैं और उनमें यही बात कहन की भिन्‍न दिशाओं के साथ अब भी मौजूद है। काला राक्षस पर हमारे अग्रज कवि वीरेन डंगवाल ने एक महत्‍वपूर्ण टिप्‍पणी की है, जिसे यहां लगाया जा रहा है। यह पोस्‍ट तुषार को जन्‍मदिन की मुबारकबाद देने के साथ-साथ उनकी कविता पर बातचीत की शुरूआत के लिए भी है।
*** 
   यह युवा कविता का मूल ऐजेंडे की तरफ़ लौटना है    

"तुषार धवल की कविता 'काला राक्षस 'को पढ़ते हुए मुझे कई बार मुक्तिबोध-- खासकर उनकी 'अँधेरे में'की याद आई -- और कभी बंगला के समादृत समकालीन कवि नवारूढ़ भट्टाचार्य की प्रख्यात कविता 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश 'की. वैसी ही साफ़, वर्त्तमान से भविष्य तक को बेधने वाली दृष्टि, विवेक संपन्न चेतना, हर मोड़ पर मनुष्यता के शत्रुओं की पहचान, फुफकारता हुआ प्रतिरोध और आवेग त्वरित संवेदन सघन भाषा.मौजूदा तथाकथित वैश्वीकृत सभ्यता की समीक्षा करती हुई इस कविता में उत्कट बेचैनी, एक उद्विग्नता है जो सन्निपात के खतरनाक सीमांतों तक जा पहुँचती है. अलबत्ता लौट भी आती है उस तर्कशीलता के सहारे, जिसका दामन कवि ने एक पल को भी नहीं छोडा है. आवेग और संयम के इन आवर्तनों ने 'काला राक्षस'को एक ज़बरदस्त गत्यात्मकता दे दी है.'काला राक्षस'यह भी इशारा करती है कि युवतर हिंदी कविता का एक बड़ा और समर्थ तबका फिर अपने मूल एजेंडे की तरफ लौटने को प्रयत्नशील है. ठीक भी है. अपने ज़माने में मानवता की पुकारों को कलाएँ क्यों कर और कब तक अनसुनी कर सकती हैं ?"

-वीरेन डंगवाल

तुषार का कविता संग्रह/राजकमल प्रकाशन


(१)

समुद्र एक
शून्य अंधकार सा पसरा है।
काले राक्षस के खुले जबड़ों से
झाग उगल-उचक आती है
दबे पाँव घेरता है काल
इस रात में काली पॉलीथिन में बंद आकाश

संशय की स्थितियों में सब हैं
वह चाँद भी
जो जा घुसा है काले राक्षस के मुंह में

काले राक्षस का
काला सम्मोहन
नीम बेहोशी में चल रहे हैं करोड़ों लोग
सम्मोहित मूर्छा में
एक जुलूस चला जा रहा है
किसी शून्य में

कहाँ है आदमी ?

असमय ही जिन्हें मार दिया गया
सड़कों पर
खेतों में
जगमगाती रोशनी के अंधेरों में
हवा में गोलबंद हो
हमारी ओर देखते हैं गर्दन घुमा कर
चिताओं ने समवेत स्वर में क्या कहा था ?

पीडाएं अपना लोक खुद रचती हैं
आस्थाएँ अपने हन्ता खुद चुनती हैं
अँधेरा अँधेरे को आकार देता है

घर्र घर्र घूमता है पहिया

(२)

काला राक्षस

वह खड़ा है जमीन से आकाश के उस पार तक
उसकी देह हवा में घुलती हुई
फेफड़ों में धंसती धूसर उसकी जीभ
नचाता है अंगुलियाँ आकाश की सुराख़ में

वह संसद में है मल्टीप्लेक्स मॉल में है
बोकारो मुंगेर में है
मेरे टीवी अखबार वोटिंग मशीन में है
वह मेरी भाषा
तुम्हारी आंखों में है
हमारे सहवास में घुलता काला सम्मोहन

काला सम्मोहन काला जादू
केमिकल धुआं उगलता नदी पीता जंगल उजाड़ता
वह खड़ा है जमीन से आकाश उस पार तक अंगुलियाँ नचाता
उसकी काली अंगुली से सबकी डोर बंधी है
देश सरकार विश्व संगठन
सत्ताओं को नचाता
उसका अट्टहास।

काली पालीथिन में बंद आकाश।

(३)

अट्टहास
फ़िर सन्नाटा।

सम्मोहित मूर्छा में
एक जुलूस चला जा रहा है
किसी शून्य में --
काल में
वह
हमारे मन की खोह में छुप कर बैठा है
जाने कब से

हमारे तलों से रोम छिद्रों से
हमरे डीएनए से उगता है
काला राक्षस
हुंकारता हुआ
नाजी सोवियत व्हाइट हाउस माइक्रोसॉफ्ट पेप्सी दलाल स्ट्रीट
सियाचीन जनपथ आईएसआई ओजोन एसपीएम एसिड रेन
स्किटज़ोफ्रेनिया सुइसाइड रेप क्राइम सनसनी न्यूज़ चैनल

बम विस्फोट !!!

तमाशा तमाशबीन ध्वंस
मानव मानव मानव
गोश्त गोश्त गोश्त

घर्र घर्र घूमता है पहिया

(४)

घर्र घर्र घूमता है पहिया

गुबार
उठ रही है अंधकार में
पीली-आसमानी
उठ रही है पीड़ा-आस्था भी
गड्डमड्ड आवाजों के बुलबुलों में
फटता फूटता फोड़ा
काल की देह पर
अँधेरा है
और काले सम्मोहन में मूर्छित विश्व

फिर एक फूँक में
सब व्यापार ...
देह जीवन प्यार
आक्रामक हिंसक
जंगलों में चौपालों में
शहर में बाज़ारों में
मेरी सांसों में
लिप्सित भोग का
काला राक्षस

(५)

एक छाया सा चलता है मेरे साथ
धीरे धीरे और सघन फिर वाचाल
बुदबुदाता है कान में
हड़प कर मेरी देह
जीवित सच सा
प्रति सृष्टि कर मुझे
निकल जाता है
अब मैं अपनी छाया हूँ। वह नहीं जो था।
पुकारता भटकता हूँ
मुझे कोई नहीं पहचानता
मैं किसी को नज़र नहीं आता

उसके हाथों में जादू है
जिसे भी छूता है बदल देता है
बना रहा है प्रति मानव
सबके साथ छाया सा चला है वह

अब कोई किसी को नहीं पहचानता
अब कोई किसी को नज़र नहीं आता

प्रति मानव !
कोई किसी को नज़र नहीं आता

(६)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
इच्छाएं अनंत असंतोष हिंसक

कहाँ है आदमी ?

उत्तेजित शोर यह
छूट छिटक कर उड़ी इच्छाओं का
गाता है
हारी हुई नस्लों के पराभूत विजय गीत
खारिज है कवि की आवाज़
यातना की आदमखोर रातों में
एक गीत की उम्मीद लिए फिर भी खड़ा हूँ
ढेव गिनता
पूरब को ताकता

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
खोल दिया सदियों से जकड़े
मेरे पशु को उन्मुक्त भोग की लम्बी रातों की हिंसा में

(७)

बिकता है बिकता है बिकता है
ले लो ले लो ले लो
सस्ता सुंदर और टिकाऊ ईश्वर
जीन डीएनए डिज़ाइनर कलेक्शन से पीढियां ले लो
ले लो ले लो ले लो
बीपीओ में भुस्स रातें
स्कर्ट्स पैंटीज़ कॉन्डोम सब नया है
नशे पर नशा फ्री
सोचना मना है क्योंकि
हमने सब सोच डाला है
ले लो ले लो ले लो
स्मृतियाँ लोक कथाएँ पुराना माल
बदलो नए हैपनिंग इवेंट्स से
तुम्हारी कथाओं को री-सायकल करके लाएंगे
नए हीरो आल्हा-ऊदल नए माइक्रोचिप से भरेंगे
मेड टू आर्डर नया इंसान
ले लो ले लो ले लो
मेरे अदंर बाहर बेचता खरीदता उजाड़ता है
काला राक्षस
प्यास
और प्यास

(८)

इस धमन भट्ठी में
एक सन्नाटे से दूसरे में दाखिल होता हुआ
बुझाता हूँ
देह
अजनबी रातों में परदे का चलन
नोंचता हूँ
गंध के बदन को

यातना की आदमखोर रातों में
लिपटता हूँ तुम्हारी देह से
नाखून से गडा कर तुम्हारे
मांस पर
लिखता हूँ
प्यास
और प्यास...

एड़ियों के बोझ सर पर
और मन दस फाड़
खून पसीना मॉल वीर्य सन रहे हैं
मिट्टी से उग रहे ताबूत

ठौर नहीं छांह नहीं
बस मांगता हूँ
प्यास
और प्यास...

(९)

प्यास
यह अंतहीन सड़कों का अंतर्जाल
खुले पशु के नथुने फड़कते हैं
यह वो जंगल नहीं जिसे हमारे पूर्वज जानते थे
अराजक भोग का दर्शनशास्त्र
और जनश्रुतियों में सब कुछ
एक पर एक फ्री

हँसता है प्यारा गड़रिया
नए पशुओं को हांकता हुआ

(१०)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
निर्बंध पशु मैं भोग का
नाखून से गडा कर तुम्हारी देह पर
लिखता हूँ
प्यास
और प्यास...

भोग का अतृप्त पशु
हिंसक ही होगा
बुद्धि के छल से ओढ़ लेगा विचार
बकेगा आस्था
और अपने तेज पंजे धंसा इस
दिमाग की गुद्दियों में --
रक्त पीता नई आज़ादी का दर्शन !

लूट का षड़यंत्र
महीन हिंसा का
दुकानों की पर्चियों में, शिशुओं के खिलौनों में
धर्म और युद्ध की परिभाषा में भात-दाल प्रेम में
हवा में हर तरफ
तेल के कुएं से निकल कर नदी की तरफ बढ़ता हुआ
हवस का अश्वमेध
नर बलि से सिद्ध होता हुआ।

बम विस्फोट !!!

(११)

सबके बिस्तर बंधे हुए
सभी पेड़ जड़ से उखडे हुए
सड़क किनारे कहीं जाने को खड़े हैं
यह इंतज़ार ख़त्म नहीं होता
भीड़ यह इतनी बिखरी हुई कभी नहीं थी

काला सम्मोहन काला जादू
सत्ताओं को नचाता
उसका अट्टहास।
काली पॉलीथिन में बंद आकाश।

(१२)

वो जो नया ईश्वर है वह इतना निर्मम क्यों है ?
उसकी गीतों में हवास क्यों है ?
किस तेजाब से बना है उसका सिक्का ?

उसके हैं बम के कारखाने ढेर सारे
जिसे वह बच्चों की देह में लगाता है
वह जिन्नातों का मालिक है
वह हँसते चेहरों का नाश्ता करता है

हँसता है काला राक्षस मेरे ईश्वर पर
कल जिसे बनाया था
आज फिर बदल गया
उसकी शव यात्रा में लोग नहीं
सिर्फ़ झंडे निकलते हैं

(1३)

सत्ताएं रंगरेज़
वाद सिद्धांत पूँजी आतंक
सारे सियार नीले

उस किनारे अब उपेक्षित देखता है मोहनदास
और लौटने को है
उसके लौटते निशानों पर कुछ दूब सी उग आती है।

(१४)

पीड़ाओं का भूगोल अलग है
लोक अलग
जहाँ पिघल कर फिर मानव ही उगता है
लिए अपनी आस्था।

काला सम्मोहन --

चेर्नोबिल। भोपाल।
कालाहांडी। सोमालिया। विधर्व।
इराक। हिरोशिमा। गुजरात।
नर्मदा। टिहरी।
कितने खेत-किसान
अब पीड़ाओं के मानचित्र पर ये ग़लत पते हैं

पीड़ाओं का रंग भगवा
पीड़ाओं का रंग हरा
अपने अपने झंडे अपनी अपनी पीड़ा।

(१५)

कहाँ है आदमी ?

यह नरमुंडों का देश है
डार्विन की अगली सीढ़ी --
प्रति मानव
सबके चेहरे सपाट
चिंतन की क्षमताएं क्षीण
आखें सम्मोहित मूर्छा में तनी हुई
दौड़ते दौड़ते पैरों में खुर निकल आया है
कहाँ है आदमी ?
प्रति मानव !

(१६)

मैं स्तंभ स्तंभ गिरता हूँ
मैं खंड खंड उठता हूँ

ये दीवारें अदृश्य कारावासों की
आज़ादी ! आज़ादी !! आज़ादी !!!

बम विस्फोट !!!

कहाँ है आदमी ?
प्रति मानव सब चले जा रहे किसी इशारे पर
सम्मोहित मूर्छा में

मैं पहचानता हूँ इन चेहरों को
मुझे याद है इनकी भाषा
मुझे याद है इनकी हँसी इनके माटी सने सपने

कहाँ है आदमी ?

सुनहरे बाइस्कोप में
सेंसेक्स की आत्मरति
सम्भोग के आंकड़े
आंकड़ों का सम्भोग
आंकडों की पीढ़ियों में
कहाँ है आदमी ?

सन्नाटे ध्वनियों के
ध्वनियाँ सन्नाटों की
गूंजती है खुले जबड़ों में

यह सन्नाटा हमारी अपनी ध्वनियों के नहीं होने का
बहरे इस समय में

बहरे इस समय में
मैं ध्वनियों के बीज रोप आया हूँ।

(१७)

तुमने काली अँगुलियों से गिरह खोल दी
काली रातों में
उगती है पीड़ा
उगती है आस्था भी
जुड़वां बहनों सी
तुम्हारे चाहे बगैर भी

घर्र घर्र घूमता है पहिया

कितना भी कुछ कर लो
आकांक्षाओं में बचा हुआ रह ही जाता है
आदमी।
उसी की आँखों में मैंने देखा है सपना।
तुम्हारी प्रति सृष्टि को रोक रही आस्था
साँसों की
हमने भी जीवन के बेताल पाल रखे हैं

काले राक्षस

सब बदला ज़रूर है
तुम्हारे नक्शे से लेकिन हम फितरतन भटक ही जाते हैं
तुम्हारी सोच में हमने मिला दिया
अपना अपना डार्विन
हमने थोड़ा सुकरात थोड़ा बुद्ध थोड़ा मार्क्स फ्रायड न्यूटन आइन्स्टीन
और ढेर सारा मोहनदास बचा रखा था
तुम्हारी आँखों से चूक गया सब
जीवन का नया दर्शनशास्त्र
तुम नहीं
मेरी पीढियां तय करेंगी
अपनी नज़र से

यह द्वंद्व ध्वंस और सृजन का।

(१८)

काले राक्षस

देखो तुम्हारे मुंह पर जो मक्खियों से भिनभिनाते हैं
हमारे सपने हैं
वो जो पिटा हुआ आदमी अभी गिरा पड़ा है
वही खडा होकर पुकारेगा बिखरी हुई भीड़ को
आस्था के जंगल उजड़ते नहीं हैं

काले राक्षस

देखो तुमने बम फोड़ा और
लाश तौलने बैठ गए तुम
कबाड़ी !
जहाँ जहाँ तुम मारते हो हमें
हम वहीं वहीं फिर उग आते हैं

देखो
मौत का तांडव कैसे थम जाता है
जब छटपटाए हाथों को
हाथ पुकार लेते हैं

तुम्हारे बावजूद
कहीं न कहीं है एक आदमी
जो ढूंढ ही लेता है आदमी !

काले राक्षस !
घर्र घर्र घूमता है पहिया
****


हरीशचन्‍द्र पांडे के नए कविता संग्रह 'असहमति'पर युवा कवि-समीक्षक महेश पुनेठा

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    बेहद सतर्क एवं चौकन्‍नी दृष्टि  की कविताएं    
                              

वरिष्ठ कवि हरीश चंद्र पाण्डेय हिंदी के बेहद सतर्क एवं चौकन्‍नी दृष्टि वाले  कवि हैं। उनके यहाँ विषयवस्तु-शीर्षक-बिंब-रूपक-प्रतीक का दोहराव नहीं के बराबर मिलता है। आप उनके पहले कविता संग्रह कुछ भी मिथ्या नहीं हैसे लेकर सद्य प्रकाशित चौथे कविता संग्रह असहमतितक की सारी कविताएं पढ़ जाइए, आपको मुश्किल से ही कोई शीर्षक या कविता की पंक्ति दुबारा पढ़ने को मिलेगी और न ही किसी अन्य कवि की कविताओं से मेल खाती हुई। उनकी कुछ कविताएं तो ऐसे अछूते विषयों पर रची गई हैं जो पहली बार किसी कविता की अंतर्वस्तु बनी हैं। वे दोहराव से बचने की सचेत कोशिश करते हैं और पूरी सतर्कता बरतते हैं। इसके चलते ही उनकी कविताओं में हमें  भाव-विचार या अंतर्वस्तु की विविधता एवं जीवन की व्यापकता दिखाई देती है। इसके पीछे कहीं न कहीं उनका यह विश्वास भी काम करता होगा कि आंखें –

ऊब जाती हैं एकरस दृश्य से
कितना ही सुंदर हो दृश्य
हर हमेशा चाहती हैंदृश्यांतर।

उनका मानना है कि-

कितने टोटे में है वह आँख
जो केवल एक-से ही दृश्य देखना चाहती हैं
दृश्यों से लबालब इस दुनिया में।

उनकी हमेशा कोशिश रहती है कि कविता में जीवन के विविध रूप-रंग-गंध-स्वाद-स्पर्श वाले दृश्य स्थान पाएं। अब यह देखने वाले की बैठने की स्थिति पर निर्भर करता है कि कौनसा दृश्य किसको किस तरह दिखाई देता है। क्योंकि एक ही दृश्य को गाड़ी की इंजन की ओर मुँह करके बैठे आदमी को आता हुआ और पीछे के डिब्बों की ओर मुँह करके बैठे को छूटता दिखता है। उनकी कविताएं संभावनाओं की तरह पाठक को कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती हैं-

ठीक जहाँ से चटकती हैं कली
ठीक जहाँ फूटते हैं पुंकेसर
ठीक जहाँ टिकते हैं फूल बौर और फल।

जहाँ चिटियाँ लंबी कूच पर निकली हैं और उनको देख अलग-अलग वय व लिंग के लोग अलग-अलग तरह से उन्हें देखते हैं। जहाँ पत्नी द्वारा पति को पीटे जाने की खबर है। जहाँ ऊँचे स्थापत्य के शिखर पर दूसरा कोट करते हुए पुताईवालासोचता है अपनी कूची से सबसे मजबूत ,समतल-चैरस और सब इमारतों में यकसा पाए जाने वाली नींव को छूने के बारे में। दरअसल उनकी कविताओं का प्रयोजन-न होने को अपनी आँखों से देखना है/और होने को तो चखना ही है।

 पाण्डेय जी अपनी असहमतिको कभी छुपाते नहीं और पूर्ण सहमति जैसी किसी स्थिति को अपवाद मानते हैं। वे असहमति के आदर को एक जरूरी मूल्य का दर्जा देते हैं। कवि का यह कहना सही है कि बामियान में बुद्ध की प्रतिमा और अयोध्या में मस्जिद को सदियों तक बचाये रखा जा सका तो उसके पीछे असहमति का आदरही तो था। ऐसा एक सच्चा लोकतांत्रिक कवि ही कह सकता है जिसकी लोकतंत्र में गहरी आस्था हो। अन्यथा एक ऐसे समय में जबकि असहमति को शत्रुता के रूप में लिया जा रहा हो उसकी वकालत करना कम साहस का काम नहीं। उनकी कविताएं प्यासजैसी सामान्य संज्ञा की लय और आवाज को भी ऐसी उदात्तता प्रदान कर देती हैं कि मन उस प्यास के प्रति नतमस्तक हो जाता है। उनकी प्यासकविता पढ़कर किसी की भी इच्छा हो जाए पानी पीने की-

धार घटक-घटक कर चली जा रही थी
कंठ के नीचे
सूखी गढ़ई में
गले की घटिका घटक-घटक के साथ
खिसक रही थी नीचे-ऊपर
एक आवाज थी और एक लय
और बनती-मिटती लहरें थीं त्वचा की।

कितनी कविताएं हैं आज ऐसी जो संज्ञा को क्रिया में बदलने की ताकत रखती हैं। उनके भारतीय ज्ञानपीठ  से पिछले दिनों प्रकाशित काव्य संग्रह की यह पहली कविता ही इतनी प्यास जगा देती है कि पाठक घट-घट सारी कविताएं पढ़ जाता है और उसकी प्यास बढ़ती ही जाती है।

इन कविताओं में विसंगति-बिडंबना का चित्रण मात्र ही नहीं बल्कि उनके कारणों की गहरी पड़ताल है। कवि वारको ही नहीं उसकी धारको भी देखता है। उनकी कविता की-उंगुली वार करने वाले पर ही नहीं/धार बेचने वाले पर भी उठती है। तभी तो वे किसानों की आत्महत्या को आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या मानते हैं जिसके लिए यह व्यवस्था जिम्मेदार है। उनकी किसान और आत्महत्याकविता की यह पंक्ति सीधे मर्म पर चोट करती है-क्या नर्क से भी बदतर हो गयी थी उनकी खेती’? जिन  किसानों के लिए जीवन उसी तरह काम्य रहा है जिस तरह मुमुक्ष के लिए मोक्ष तथा जिन्होंने हलों की फालों से संस्कृति की लकीरें खींची, आखिर वे आत्महत्या क्यों करते हैं?

जो पितरों के ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
जो आरुणि की तरह शरीर को ही मेड़ बना लेते थे
मिट्टी में जीवनद्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए।

ऐसा क्यों हुआ? इस पर यह कविता पाठक का ध्यान खींचती है। साथ ही उस बिडंबना पर भी कि इसके बावजूद हत्यारे को सीधे-सीधे पहचानना कठिन है। लेकिन अच्छी बात यह है कि कवि उसे अच्छी तरह पहचानता है और दुनिया को उसकी पहचान बताता है। यह उनकी कविता की ताकत है। 

उनकी कविताएं कभी साथ-साथ चलतीं बातें करती हुई दुःखों को बाँटकर निर्भार करती हैं। कभी मूक संवाद करती हैं। कभी ट्रेन में चढ़ आए लोफर किस्म के लड़के से मिलाती हैं जो किसी के लिए बहुत प्यारा और जरूरी है तो कभी मई-जून की दोपहर में दरवाजे-दरवाजे जाकर अपना माल खरीदने के लिए कनविंश करते लड़के-लड़कियों की कठिनाइयों से। कभी परिचित कराते हैं अपने हाथों का जोर और पैरों की टेक परखते हुए बाबूजी से जिन्हें अपना लाइफ सर्टिफिकेटबनवाना है।उनकी नजर एक ओर सड़क किनारे गोबर के लिए खाली तसला लिए खड़ी उस महिला पर है जो भैंसों का उधर से गुजरने का इंतजार करती है और दूसरी ओर राजधानी में खुलने वाले टेंडर पर। यहाँ एक ओर वह दुनिया है जहाँ इस बात का इंतजार है कि टेंडर किसका खुलता है और दूसरी ओर होड़ कि भैंस का गोबर कोई दूसरा आकर न हथिया ले। इस तरह उनकी कविताओं में दो वर्गों में बँटी दुनिया के साफ-साफ दर्शन होते हैं।यहाँ वह जीवन और समाज बिखरा पड़ा है जिसे हम रोज-ब-रोज अपने आसपास देखते-झेलते-ठेलते हैं और जिससे मिलते-टकराते हुए आगे बढ़ते हैं। हमारा चाहा-अनचाहा,खुरदुरा,कठोर और उपेक्षित जीवन ,जिसकी खुबसूरती में हम कभी रीझते हैं और विकृति में खीजते हैं, जो हमें मथता भी है और सचेत भी करता है। इन कविताओं में खुरदरे जमीन के अस्तर की गर्माहटका अहसास होता है। नए दाँत निकलते बच्चे की बेचैनी , ठेला ठेलते हुए लड़के की मंद-मंद मुस्कान,लाशघर में लाशों को पहचानती हुई क्षत-विक्षत आँखें, रस्सी खींचनेवालों की हथेलियों की रगड़न-छाले-जलन भी उनकी कविताआंे में व्यक्त हुई है। कवि अपनी कविता में गुल्लकजैसी उन चीजों का हिसाब भी रखता है जो बनते-बनते भी फूटती रहती हैं। इसके माध्यम से संदेश देते हैं-जहाँ बचपन के पास/छोटी-छोटी बचतों के गुल्लक-संस्कार नहीं होंगे/वहाँ की अर्थव्यवस्था चाहे जितनी वयस्क हो/कभी भरभराकर गिर सकती है।उनकी एक बड़ी खासियत है कि वे जीवन के मामूली से मामूली  प्रसंगों को भी अपनी कविताओं की परिधि में ले आते हैं और सहजता से अपने जीवन-दर्शन को अभिव्यक्त कर देते हैं।

समीक्ष्य संग्रह की कविताएं सत्ता के चरित्र और जनता के साथ संबंधों की भी पड़ताल करती हैं। वे थर्मसके रूपक के माध्यम से इस संबंध को बहुत सटीक तरह से व्यक्त करते हैं-

सभी कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ भी पता नहीं है ...भीतर की दीवारों को
भीतर काँच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे ले रहा है
एक दिव्यलोक जहाँ
ऊष्मा बाँट ली जाती है भीतर-ही-भीतर
बाहर का हाहाकार  नहीं पहुँच पाता भीतर
भीतर का सुकून   बाहर नहीं झाँकता।

यही तो हो रहा है आज लोकतंत्र में ,किसको फुरसत है जनता के हाहाकार को सुनने की ? एक दिव्यलोक में खोए हैं सुनने वाले। बहुत बड़ा वैकुअम बन गया है जनता और सरकार के बीच। कहीं कोई संवाद नहीं है। प्रजातंत्रएक मिथक की तरह टूटा है।

मनुष्यता में लगातार आ रही गिरावट के बावजूद कवि का मनुष्य और मनुष्यता पर गहरा विश्वास है। उनका मानना है कि मनुष्येतर के बारे में हमने जो भी जाना एक मनुष्य होने पर हीजाना। सारा सबकुछ सोचा हमने मनुष्य होकर ही समग्रता में।’ ..’अणु के यथार्थ को पहचाना तो विराट की फंतासी भी कीमनुष्य होने पर ही। गर ऐसा नहीं होता तो आज हमारे पास कोई धरोहर नहीं होती। न व्याकरण रचते ,न विचार-मंथन करते और न आविष्कार। पश्चाताप व अपराधबोध जैसे भाव हमारे मन में एक मनुष्य होने के चलते ही पैदा हुए। वे प्रश्न खड़ा करते हैं-

मनुष्य ही सच नहीं अगर
तो वह सच कैसे है
जो सोचता है    यह मनुष्य ,मनुष्येत्तर।

प्रस्तुत संग्रह में दाहकर्म कराने  वाली पर लिखी गई कविता महराजिन बुआएक अद्भुद कविता है जो इस विषय पर मेरे संज्ञान में हिंदी की पहली कविता है। एक ऐसे समाज में जहाँ महिलाएं  शव यात्रा में शामिल तक नहीं होती हैं वहाँ महाराजिन बुआ मरघट की स्वामिनी बनकर घाट पर सारे शवों की आमद स्वीकार कर रही है-चिताओं के बीच ऐसे टहल रही है/जैसे खिले पलाश वन में विचर रही हो। वह भी कभी एक साधारण औरत थी जिसके आँचल में दूध और आँखों में पानी था। विधवा हो गई। पर उसने मथुरा या वृंदावन का रास्ता न पकड़कर श्मशान का रास्ता पकड़ लिया और वहाँ चिताओं को मुखाग्नि दिलवाने और कपाल क्रिया करवाने में लग गयी-

पंडों के शहर में
मर्दों के पेशे को
मर्दों से छीनकर
जबड़े में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह...
ठसकवालों से ठसक से वसूल रही है दाहकर्म का मेहनताना
रिक्शा-ट्राली में लाए शवों के लिए तारनहार हो रही है।

आगे की पंक्तियों में उसका कैसा विराट व्यक्तित्व उभर आता है-

घाट के ढलान पर
उम्र की ढलान लिए
दिन भर सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है
मनु की प्रपौत्री वह
असूर्यंपश्या
तीर्थराज प्रयाग को जोड़नेवाले
एक दीर्घ पुल
और परम्परा के तले......।

यह कविता पूरे पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने वाली कविता है। एक ओर वह विधवाएं हैं जो सारी परम्पराओं का निर्वहन करती हुई निरीह-अबला बनी पूरा जीवन किसी अभिशाप की तरह काटती है और दूसरी ओर महराजिन बुआ है जो परम्पराओं को चुनौती देती हुई सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है। कितना विराट चरित्र है एक स्त्री का जो पाठक के भीतर एक रोमांच पैदा कर देता है। इसके सामने सारी पुरुषसत्ता और धर्मसत्ता बौनी प्रतीत होती है। इसके अलावा चिटियाँ-2’,’पनचक्की’, ’रतजगाजैसी कविताएं हैं जो स्त्री जीवन के यथार्थ को कहती हैं। पनचक्कीके रूपक के माध्यम से एक गृहस्थिन के योगदान को रेखांकित करते हैं-जिसका जितना देय/ सब चुकता करती है पनचक्की/एक गृहस्थिन की तरह। रतजगाअपने आप में एक अलग मूड की कविता है जो पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था का स्वाँग रचती है। इसमें कुमाउँ अंचल में लड़के की शादी पर बारात जाने वाली रात रतेलीके अवसर पर औरतों द्वारा होने वाले नाच-गाने और स्वाँग के बहाने सदियों से औरतों के प्रति होने वाली प्रताड़नाओं,वर्जनाओं ,फटकारों का चिट्ठा खोला गया है-

प्रताड़नाएँ ,जिन्होंने उनका जीना हलकान कर रखा था
अभी प्रहसनों में ढल रही हैं
डंडे कोमल-कोमल प्रतीकों में बदल रहे हैं
वर्जनाएं अधिकारों में ढल रही हैं.......
जो आदमियों द्वारा केवल आदमियों के लिए सुरक्षित हैं
उस लोक में विचर रही हैं
पिंजरे से निकल कर कितना ऊँचा उड़ा जा सकता है
परों को फैलाकर देख रही हैं।

कवि ने बहुत खूबसूरत तरीके से इस बात को व्यक्त किया है कि शादी के समय झंझावातों में भी साथ रहने के मंत्र और सात जन्मों के साथ रहने की आकांक्षा रखने वाली औरतें एक ही जन्म में साथ चलते-चलते थक जाती हैं। इस पर सोचा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों है?

प्रकृति का बेलाग सौंदर्य भी इन कविताओं में अपनी छटा बिखेरता है-अभी-अभी नहाये बच्चे-सा/चमक उठे हैं-पहाड़। उनकी कविता में आया गाँव के सीमांत पर खड़ा टुन का पेड़ जो अब नहीं रहा कितना अद्भुत है। यह मात्र एक पेड़ नहीं बल्कि पूरा गाँव और गाँव की संस्कृति का पाठ है। साक्षी है एक कालखंड का,एक नदी,पहाड़,पक्षी,वसंत,पतझड़ों का। कवि उसको कुछ इस तरह याद करता है-

हमारे बचपन में जवान थे तुम
अखाड़े में कूदने को तैयार-से
तुम्हारी भुजाओं की ऐंठी मछलियों पर
जब सूर्य की पहली किरन पड़ती थी
मालिश किए पहलवान की तरह दमकते थे तुम
क्षितिज तुम्हारी शाखों की गझिन हरियाली में विलीन हो जाते थे
चाँदनी एक पत्ते से फिसल कर दूसरे में अटक जाती
और बरसात तरस कर रह जाती
तुम्हारे नीचे खड़े आदमी को भिगोने को।

यही पेड़ था जहाँ पर घास से लदी युवतियाँ बोझ बिसाने बैठती थी। गाँव की सयानी औरतें नववधुओं के मुखड़े का दर्शन करतीं थी। लड़कों ने गोद रखे थे अपने नाबालिग सपनों के नाम। बूढ़े उसकी जड़ों में बैठकर गढ़ते थे किस्से-कहानियाँ। कवि इस पेड़ के बहाने पहाड़ के खाली होते गाँवों की स्थिति को अभिव्यक्त करता है-

वैसे भी यह केवल औरतों का गाँव होता जा रहा है
जिनके मर्द बाहर हैं रोजी के लिए
जो एक ओर देख रही हैं छोटे-छोटे बच्चों को
और दूसरी ओर बुढ़ाते सास-ससुर को।

अच्छी बात यह है कि वहीं पर एक नए पेड़ को उगते हुए देख रहा है। कवि केवल बसंत में खिलने वाले फूलों का ही जिक्र नहीं करते बल्कि एक ऐसे मौसम में जब आग लगी है चारों ओर उस मौसम में खिलने वाले फूलों का भी जिक्र करते हैं-

ये टेसू  ये गुलमोहर  ये अमलतास
और उधर कछारों में हँसने लगे हैं
पीले-पीले फूल तरबूज के
उन फूलों के पीछ पीछे चले आ रहे हैं फलों के काफिले
बाहर सूर्य का ताप जितना अझेल हुए जा रहा है
भीतर ये उतने ही रसीले,मीठे और लाल हुए जा रहे हैं।

भय के प्रकाश मेंकविता में उत्तराखंड के जंगलों में हर साल लगने वाली आग के दृश्य का जीवंत चित्रण किया गया है-

आग की बारिश
आग की फिसलन
आग का मलबा है....
सहस्रों पाँव निकल आए हैं आग के
दशासन-सी दिख रही है आग
अग्निपक्षी-सी उड़ रही है।

इस आग के पीछे के कारणों को अपनी कविता में बताते हैं-

ये आग ठेकेदार की कारस्तानी
जिसे नहीं मिला जंगल का ठेका
या फिर किसी पर्यटक की हरकत है
या फिर कोई लड़का फेंकी गयी बोतल की पेंदी को
सूरज की सीध में रख
बीड़ी सुलगा रहा था....
मुमकिन है कोई टहनी रगड़ खा गयी थी
अपने ही पेड़ की     दूसरी टहनी।

इस संग्रह में किशोर अपराधियों पर अपने तरह की अकेली कविता है उनका भविष्य। इस कविता में किशोर मन की उथलपुथल तो है ही साथ ही अपराध के कारणों की ओर संकेत भी। जिसको अपराध कहा जाता है वह दरअसल अपराध नहीं इस उम्र की सौंदर्य के प्रति एक सहज जिज्ञासा है।  जिस किशोर को एक अंगुठी की चोरी के अपराध में पकड़ा गया था दरअसल उसकी चोरी का कारण अंगुठी का वह रूप था जिसे देख कर वह मोहित हो गया और उसने वह अंगुठी अपनी अंगुली में डाल ली फिर पहुंच गया किशोर अपराध गृह में जहाँ-

उन्हें उनका भविष्य समझाने
कुछ विशिष्ट अतिथि पहुँच रहे हैं सफेदी से तर-ब-तर
उँगलियों में झिलमिल अगूँठियाँ पहने
कुछ बड़े अपराध
उन हाथों से मुक्त होना चाह रहे हैं।

इस कविता में भी कवि बहुत खूबसूरती के साथ अपराध के कारणों की ओर बिन कहे संकेत कर देते हैं। यह कविता जहाँ समाप्त होती है वहाँ से एक दूसरी कविता पाठक के मन में चलती है।

पांडेय जी की कविताओं का शिल्प स्वेटर की बुनाई की तरह है जिसके लिए अतिरिक्त कहीं से कुछ लाना नहीं होता है बल्कि फंदों को कुछ उल्टा-सीधा करके सुंदर बिनाई उभर आती है। उनके शिल्प में बातचीत की आत्मीयता फूटती है। भाषा व शिल्प की दृष्टि से भी वे एक लीक पर नहीं चलते नई राह बनाते हैं। कविता में काव्यात्मकता का निर्वहन करते हुए भी सहजता कैसे संभव है यह उनकी कविताओं से सीखा जा सकता है। इस रूप में वे नागार्जुन,त्रिलोचन और केदार की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। इन कविताओं में जीवन की गझिन समझ और काव्यतत्व दोनों का संतुलन मिलता है। जितनी विविधता है उतनी ही व्यापकता भी है। जीवन की बारीक वास्तविकताओं और मानवीय संवेदना के सघन तंतुओं की बुनावट है। जीवन का उल्लास और विश्वास इन कविताओं में गुंथा है। इस बात से सहमत होना कठिन है कि उनकी कविताएं चुप्पी की कविताएं हैं। उनकी कविताओं का स्वर शांत,संयत और नियंत्रित जरूर है पर उसे चुप्पी नहीं कहा जा सकता है। उनकी कविताओं में भरपूर प्रतिरोध है पर वह नारेबाजी के तर्ज में न होकर काव्यात्मक रूप में है। यह उनके कवि की पहचान है।
असहमति (कविता संग्रह) : हरीश चंद्र पाण्डेय
प्रकाशकःभारतीय ज्ञानपीठ 18,इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड नई दिल्ली-110003

महेश पुनेठा 

संपर्क- रा00का0 देवथल जिला-पिथौरागढ़ 262542 मो09411707470

कुछ समय अनुनाद पर गतिविधियां शिथिल रहें शायद

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    प्रिय पाठको एवं मित्रो   


कुछ निजी व्‍यवस्‍तताएं, अस्‍वस्‍थता, थकान आदि कई कारणों से अनुनाद पर लगातार उस तरह काम करना सम्‍भव नहीं हो पा रहा है। मैं अब तक खींच रहा था पर लगने लगा है कि कुछ समय का विराम नई ऊर्जा और स्‍फूर्ति देगा। बहुत थकान और असमर्थता हो तो शक्ति-संचय के लिए रुक जाने में हर्ज नहीं। मुझे कई रचनाकारों की कविताओं के मेल मिल रहे हैं, सभी को अलग-अलग सूचित करना लम्‍बा काम है, अत: मैं यहां सूचित कर रहा हूं कि इन कविताओं पर अभी विचार करना सम्‍भव नही है। अभी और कविताएं न भेजें। एक  नई पारी के साथ मिलेंगे कुछ समय बाद, तब फिर कविताएं आमंत्रित की जाएंगी। आप सभी के सहयोग और प्‍यार के लिए हम आभारी हैं। 

         शिरीष कुमार मौर्य        

                                                 

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला की दो कविताएं

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अँधेरे के वे लोग   

अँधेरे में छिपे वे लोग कभी दिखते नहीं
दिन के उजालों में भी
अदृश्य वे

सड़क चलते आवारा कुत्ते

डरते है लोग उनसे
दूर से ही दिख जाते है
एक बिस्किट गिरा देते है या
थोड़ा संभल कर निकल जाते है ...

वही एक प्राचीर को गढ़ते
एक भव्य महल को रचते
बहुमंजिली इमारतों को रंगते
अकसर
नज़र नहीं आते ...

उनकी देह की सुरंग में कितना अँधेरा है
एक नदी बहती है जहां
पसीने की
उसी में कहीं
वो डूब जाते हैं
अपनी मुकम्मल पहचान के लिए नहीं
अपने निर्वाण के लिए
मिट्टी की ख़ुश्‍बू के साथ ....

और रात को
जगमगाती रौशनी में
स्‍वर्णाभाओं से सज्जित
लोग सम्मान पाते है वहाँ
उन्‍हीं इमारतों में ....
***


वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है   

वह जो नहीं कर सकती वह कर जाती है ...
घंटों वह अपनी एक खास भाषा मे हँसती है
जिसका उसे अभी अधूरा ज्ञान भी नहीं
उसके ठहाके से ऐसे कौन से फूल झड़ते है
जो किसी खास जंगल की पहचान है .... ...

जबकि उसकी रूह प्यासी है
और वह रख लेती है निर्जल व्रत 
सुना है कि उसके हाथों के पकवान
से महका करता था पूरा गाँव भर 
और घर के लोग पूरी तरह जीमते नहीं थे 
जब तक कि वे पकवान मे डुबो डुबो कर
बर्तन के पेंदे और 
अपनी उँगलियों को चाट नहीं लेते अच्छी तरह

खिलती हुई कली सी थी बेहद नाजुक
गाँव की एक सुन्दर बेटी 
घर के अंदर महफूज़ रहना भाता था उसे
पर वह चराती थी बछिया
ले जाती थी गाय और जोड़ी के बैल
सबसे हरे घास के पास
बीच जंगल में ...
एक रोज
दरांती के वार से भगाया था बाघ
छीन कर उसके मुंह का निवाला
उसने नन्ही बछिया को बचाया था
तब से वह खुद के लिए नहीं
बाघ से गाँव के जानवर बच्चों को बचाने
की बात सोचती थी
टोली मे सबसे आगे जाती थी जंगल
दरांती को घुमाते हुए ...............

उसे भी अंधेरों से लगता था बहुत डर
जैसे डरती थी उसकी दूसरी सहेलियां
पर दूर जंगलों से लकडिया लाते
जब कभी अँधेरा हुआ
खौफ से जंगल मे
लडकियां में होती बहस
उस नहर के किनारे 
रहता है भूत ..... 
कौन आगे कौन पीछे चले 
सुलझता नहीं था मामला
बैठ जाती थी लडकियां 
एक घेरे में
और कोई होता नहीं था टस से मस
भागती थी वह अकेले तब 
उस रात के घोर अँधेरे में
पहाड़ के जंगलों की ढलान मे 
जहां रहते थे बाघ और रीछ
और गदेरे के भूत .. ..
फिर हाथ मे मशाल ले 
गाँव वालों के साथ आती थी  
पहाड़ मे ऊपर 
जंगल मे वापस .............

वह रखती थी सबका ख्याल घर मे
सुबह उनके लिए होती थी
उन्ही के लिए शाम करती थी
बुहारती थी घर
पकाती थी भोजन और प्यार का लगाती परोसा.
सुना कि उधर चटक गयी थी हिमनद
और पैरों के नीचे से पहाड़
बह गया था
बर्तन, मकान, गाय बाछी
खेत खलिहान
सब कुछ तो बह गया था ...............

कलेजे के टुकड़े टुकड़े चीर कर
निकला था वो सैलाब 
अपनों की आखिरी चीख
कैसे भूलती वह ...........
वह दहाड़ मार कर रोना चाहती है और
वह कतई हँसना नहीं चाहती है मगर
देखा है उसे
आंसू को दबा कर
लोगों ने
हँसते हुए
और झोपड़ी को फिर से
बुनते हुए .................

जानती है वह
बचा कुछ भी नहीं 
सब कुछ खतम हो गया है ...
मानती है फिर भी
किसी मलबे के नीचे
कही कोई सांस बची हो ....
नदी के आखिरी छोर से
पुनर्जीवित हो 
कोई उठ कर,
उस पहाड़ की ओर चला आये ....
इस मिथ्या उम्मीद पर
भले ही वह झूटे मुस्कुराती हो
पर एक आस का दीपक जलाती है
पहाड़ मे फिर से खुशहाली के लिए
***
संक्षिप्त परिचय 
डॉक्टर (स्त्री रोग विशेषज्ञ ),समाजसेवी और लेखिका। पिता के साथ देहरादून, जगदलपुर (अब छत्तीसगढ़ ), गोपेश्वर (उत्तराखंड) कानपुर, लखनऊ, कलकत्ता अध्यन के लिए रहीं,अतः मध्यप्रदेश में बस्तर जिले में आदिवासियों के जीवन को भी बहुत नजदीक से देखा-परखा-समझा। तीन साल संगीत-साधना भी की। नृत्य से भी लगाव रहा। स्त्रीरोग विशेषज्ञ होने की वजह से महिलाओं की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक पीड़ाओं को नज़दीक से देखा और दिल से महसूस किया। अपने पति के साथ मिल कर हर महीने में एक या दो बार सुदूर सीमांती पहाड़ी गाँवों में व देहरादून के बाहरी हिस्सों में ज़रूरतमंदों को नि:शुल्क चिकित्सकीय सेवा उपलब्ध कराती रही हैं। उत्तराखंड में सामाजिक संस्था धादसे जुड़ कर सामाजिक विषयों पर कार्य भी करती हैं। सामूहिक संकलन खामोश ख़ामोशी और हमऔर त्रिसुगंधी में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं।



के पी सिंह के कम्‍प्‍यूटर कविता पोस्‍टर

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के पी सिंह नामक एक सज्‍जन ने  मुझे आठ कविता पोस्‍टर अपनी इस टिप्‍पणी के साथ भेजे हैं - ''इस तरह फोटोशाप वाले पोस्‍टर हाथ के बने पोस्‍टरों के सामने दरअसल कोई स्‍थान नहीं रखते, वे आन्‍दोलन की तरह होते थे। पर शायद इस तरह के पोस्‍टर कम्‍प्‍यूटर के वालपेपर की तरह ही काम आ जाएं। मैंने खुद फेसबुक से ऐसे कई पोस्‍टर लेकर वालपेपर बना रखे हैं। उन्‍हीं से ऐसा जुगाड़ करने की प्रेरणा मिली। इन्‍हें भी अपने लैपटाप पर वालपेपर की तरह प्रयोग करने के लिए ही बना रहा हूं।''मुझे ये पोस्‍टर बहुत सरल भाषा में कहूं तो सुन्‍दर लगे। इनमें रघुवीर सहाय की दो, वीरेन डंगवाल की एक, गिरिराज किराड़ू की एक, बल्‍ली सिंह चीमा की एक और मेरी तीन छपी-अनछपी कविताएं हैं। अशोक और केशव भाई के हवाले से सुना है कि के पी सिंह आजकल ही फेसबुक पर प्रकट हुए हैं और काफी हलचल मचाए हुए हैं। ख़ैर अब वो मेरी गली नहीं रही। इन पोस्‍टर्स को मूल बड़े आकार में देखने के लिए इमेज पर क्लिक कीजिए। 

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के पी सिंह से krishnapratapsingh2013@yahoo.com पर सम्‍पर्क किया जा सकता है, इसी मेल आई डी ये पोस्‍टर्स मुझे मिले हैं। इस मेल में यह भी लिखा है कि जल्‍द और कई सारे पोस्‍टर्स मुझे भेजेंग।

के पी सिंह के कम्‍प्‍यूटर कविता पोस्‍टर - वीरेन डंगवाल की कविताएं और एक शुभकामना

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मैंने दो पोस्‍ट पहले थकान और कुछ निजी वजहों से अनुनाद पर गतिविधियों के शिथिल रहने की बात कही थी, मेरा हाल वैसा ही है पर के पी सिंह लगातार कम्‍प्‍यूटर कविता पोस्‍टर बना रहे हैं और अपने तकनीकी स्‍वरूप के बावजूद ये सुन्‍दर हैं, इन्‍हें देखने का मन करता है। सो एक तरह से इधर मुझे कोई मेहनत नहीं करनी है, बस के पी की भेजी तस्‍वीरें चिपका देनी हैं। इस बार प्रस्‍तुत हैं वीरेन डंगवाल की चार कविताएं। 

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कविता जो साथ रहती है-6 / महेश वर्मा की एक कविता : गिरिराज किराड़ू

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गिरिाराज किराड़ू ने इस बार न सिर्फ़ अपने बल्कि मेरी समझ के भी बहुत क़रीब के कवि महेश वर्मा पर लिखा है। यह कविता मेरे भी साथ रहती है। मैं इसका लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ पाठ नहीं कर पाता जैसा गिरिराज ने किया है क्‍योंकि मुझे भी अहसास है कि मैं ख़ुद गर्वीली मुद्राओं के भीतर वधस्‍थल की ओर ले जाया जाता हुआ एक निरूपाय पशु ही हूं ..... बहरहाल, यह मेरे कहने का स्‍थान नहीं है। इस स्‍तम्‍भ के रूप में हमारे वक्‍़त की कविता पर गिरिराज के कथन संजोने की चीज़ हैं। ये सिलसिला अभी लम्‍बा जाएगा।   


रोने की सामाजिक और निजी भाषा


और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया

दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने

कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ

मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार - तुम्हें मालूम है ना ?

किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?

पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा

(सामाजिक भाषा में रोना: महेश वर्मा )

1

पहला वाक्य 'सामाजिक' (होने में) विफलता का, एक 'निजी'विफलता का वाक्य है:
और जबकि किसी को बहला नहीं पाई है मेरी भाषा
यह 'मेरी'भाषा है, 'निजी'भाषा है, यह 'निजी भाषा'की भी विफलता का वाक्य है.
दूसरा वाक्य 'सामाजिक'होने की एक कोशिश है:
एक शोकगीत लिखना चाहता था विदा की भाषा में और देखो
शोकगीत अगर खुद के नाम हो और विदा भी खुद ही से विदा हो तो भी शोकगीत और विदा दोनों अन्य की पूर्वापेक्षा के बिना संभव नहीं. यह जो अपने से इतर सब कुछ है यह उससे विदा भी होगी ही और उसे भी यह शोकगीत सुनाई देगा ही.
और तीसरा वाक्य दूसरी बार विफलता का वाक्य है:
कैसे वह रस्सियों के पुल में बदल गया
एक शोकगीत रस्सियों के पुल में कैसे बदल गया जिसकी रूपकात्मकता और उसके इंगित जिनको पढ़ना कविता पढ़ने के लिए अनिवार्य है, का एक अर्थ, सीधा अर्थ यह है कि शोकगीत लिखने का उपक्रम भी विफल रहा.
पाठीय (शोकगीत) के पार्थिव (रस्सियों के पुल) में बदल जाने में पुल के रस्सियों का होना क्या यह कहता है कि शोकगीत को किसी और वस्तु या किसी और पुल जैसा होना चाहिए था?
तीन पंक्तियों के इस पद (स्टैंजा) का अगले स्टैंजा से क्या सम्बन्ध है?
दिशाज्ञान नहीं है बचपन से
सूर्य न हो आकाश में
तो रूठकर दूर जाते हुए अक्सर
घर लौट आता हूँ अपना उपहास बनाने
दूसरा पद पहले पद में हुए कर्म (विफलता) का कारण नहीं व्यक्त करता. वह पहले पद में जो व्यक्ति/मनुष्य है उसके होने का एक और विवरण है. जो व्यक्ति/मनुष्य अपनी भाषा से किसी को बहला नहीं  पाया, जो शोकगीत नहीं लिख सका, जिसका शोकगीत रस्सियों के पुल में बदल गया, वही व्यक्ति/मनुष्य दिशाज्ञान से वंचित है. उसी तरह उसके होने का एक और विवरण यह है कि उसे पता है:
कहाँ जाऊँगा तुम्हें तो मालूम हैं मेरे सारे जतन
इस गर्वीली मुद्रा के भीतर एक निरुपाय पशु हूँ
वधस्थल को ले जाया जाता हुआ
अब कविता में कोई ठोस अन्य/अनन्य है जिससे वह संबोधित है, 'तुम्हें'कहकर. उसे पता है रूठकर जाने की उसकी मुद्रा असफल भले हो अंत में, शुरू गर्वीली होने से करती है. और तब वह अपने बारे में बयान करता है. 'भीतर'वह 'एक निरुपाय पशु'है, 'वधस्थल को ले जाया जाता हुआ'. यह उसकी वधस्थल को ले जाये जा रहे पशु जैसी निरुपायता है कि उसे दिशाज्ञान नहीं है, कि वह किसी को अपनी भाषा से बहला नहीं पाता, शोकगीत नहीं लिख पाता और यह उसका दयनीय ईगो मैकेनिज्म है कि वह अपनी समस्त पराजय और विकल्पहीनता को रूठकर जाने - पलायन करने - की 'गर्वीली मुद्रा'के अभिनय से ढक लेना चाहता है. लेकिन उसका यह ईगो मैकेनिज्म उस ठोस अन्य के सामने व्यर्थ है क्यूंकि उसे 'तो मालूम है'उसके 'सारे जतन'.
उस मालूम है इस व्यक्ति/मनुष्य के निजी की क्षुद्रता, उसका ना-कुछ होना:
मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है मेरे
आकाश का विस्तार - तुम्हें मालूम है ना ?
यह प्रश्नवाचक सच्चा और अडिग नहीं है, जिसे सारे जतन मालूम हों उसे यह भी मालूम होगा ही कि 'मुट्ठी भर धूल से अधिक नहीं है'इस व्यक्ति/मनुष्य के 'आकाश का विस्तार'. क्या यह इस अस्तित्व की, उसके निजी की वह क्षुद्रता है जिसकी कल्पना सृष्टि के, सामाजिक के विराट के सम्मुख हम करते हैं और क्या इसी की वजह से यह लगातार हर कर्म में विफल है?
किसे मै चाँद कहता हूँ और किसको बारिश
फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी के सामने क्या है मेरा छोटा सा दुःख ?
यह उसके निजी की, निजी दुःख की क्षुद्रता है जो 'फूलों से भरी तुम्हारी पृथ्वी'के सम्मुख ना-कुछ है. लेकिन यह पृथ्वी नहीं है जो यूं भी केवल फूलों से भरी नहीं हो सकती बल्कि 'तुम्हारी पृथ्वी'है.
उस ठोस अन्य का 'तुम'का निजी क्षुद्र नहीं यानी इस आख्याता व्यक्ति/मनुष्य की क्षुद्रता सार्वभौम नहीं. उसके बरक्स कोई है जिसकी एक पृथ्वी है समूची, सुखी - 'फूलों से भरी'.
एक तरफ क्षुद्रता और दुःख है दूसरी तरफ विराट और सुख है. इन दो विलोमों में फिर भी यह सम्बन्ध है कि जिसका निजी विराट और सुखी है उसको सारे जतन पता हैं उसके जिसका निजी क्षुद्र और दुखी है.
क्या दोनों के मध्य अंतरंग वैपरीत्य का जो सम्बन्ध है, वह प्रेम है? दो असमान अस्तित्वों के बीच प्रेम. या विराट/सुख क्षुद्र का आल्टर ईगो है? क्या वे दोनों मिलकर सम्पूर्ण मानवीय अस्तित्व बनाते हैं, क्षुद्र और विराट मिलकर, सुख और दुख मिल कर? लेकिन अपने इस ठोस अन्य की बात, अपने इस आल्टर ईगो की बात वह तभी कह पायेगा जब वह सीख लेगा एक 'सामाजिक भाषा में रोना'.  कविता 'सामाजिक' (होने में) की एक 'निजी'विफलता से शुरू होती है और 'सामाजिक'भाषा में रोना सीखने की कामना से समाप्त.
पहले सीख लूं एक सामाजिक भाषा में रोना
फिर तुम्हारी बात लिखूंगा
'रोना'क्या इसलिए कि वह उसके आत्म के सर्वाधिक अंतरंग क्रिया है, या इसलिए भी कि आल्टर ईगो के सुख का बयान करने के लिए अपने आप को अपने होने की पारिभाषिक क्रिया - रोने से - उत्तीर्ण किये बिना उसकी बात नहीं लिखी जा सकेगी.
अनन्य भी अन्य है.

2
बीच में भूमिका

निजी और सामाजिक के बारे में जितना आसान यह कहना है कि वे मूलतः एक ही आत्म के आकार हैं, कि दोनों की कोई निरपेक्ष सत्ता नहीं; उतना ही मुश्किल है इसे जीवन में कर पाना या देखने की ऐसी विधि ढूंढ पाना जिसमें आत्म की उस एकता को उपलब्ध किया जा सके. निजी भी राजनैतिक अर्थात सामाजिक भी होता है और राजनैतिक/सामाजिक भी निजी होता है, कि मूलतः यह द्वैत व्यर्थ है यह कह पाना जितना आसान है इसमें इंगित अद्वैत को स्थापित करना उतना ही मुश्किल.
किन्तु यह ज़रूर है कि यह सामाजिक है जो निजता और सामाजिकता के भेद को अनिवार्य बनाता है बल्कि वही है जो निजता का परिसीमन भी करता है. आप सार्वजनिक स्पेस में क्या नहीं कर सकते यह निषेध सामाजिकता द्वारा परिभाषित होता है. यह परिसीमन और निषेध, यह द्वैत भाषा में भी होता है. भाषा भी निजी और सामाजिक भाषा होती है.
अक्सर हम यह मानते हैं निजी भाषा 'प्रकृत'होती है, 'मूल'होती है. सामाजिक भाषा निषेधों की छाया में, उनके आदेश और भय की छाया में रहती है, वह 'साभ्यतिक'होती है, 'अभिनय'होती है.
वह अन्य/अन्यों के होने से प्रतिकृत होती हुई संहिता (contract), बल्कि खुद अपने होने में विधि (law) होती है. भाषा की इस सामाजिक संहिता में प्रवेश में निजी का, मूल का दमन अपरिहार्य है वैसे ही जैसे साभ्यतिक में मूल का, इंस्टिक्ट का दमन अनिवार्य है.
सामाजिकता और समाज इस दमन पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, भाषा भी. लेकिन जैसे 'सभ्यता'में आदिम रहता है, सामाजिक भाषा में निजी रहता है, दमित लेकिन दमित होने में अनेकशः अभिव्यक्त.
यह दमन किन्तु अस्तित्व की (नैतिक) शर्त है इस अर्थ में कि यह न्याय की शर्त है. मूल की और लौटना संहिता और विधि से पहले के आदिम में, न्याय की असंभावना के क्षेत्र में लौटना है.  इस दमन के मुआवजे के तौर पर हमने 'सभ्यता'पायी है, न्याय और उससे भी अधिक न्याय की एक वास्तविक, तथ्यात्मक, सम्भावना पायी है. किन्तु न्याय का यह प्रश्न सबसे विकट तब है जब वह 'साभ्यतिक और 'आदिवास'के बीच है (यह निबंध 'आदिवास'को सभ्यता ही मानता है, कमतर बिल्कुल नहीं, लेकिन लगातार एक स्वीकृत बाइनरी ('मूल/आदिम'तथा 'साभ्यतिक की) में बात कर रहा है इरादतन, क्यूंकि वह एक 'तथ्य'है).
मूल के साथ, आदिवासी के साथ न्याय यह नहीं है कि 'सभ्यता'उसमें अपने परास्त आत्म की झलक देखें और अपने उस 'सभ्यता'पूर्व आत्म को 'सभ्यता'की अनहुई वैकल्पिकताओं को एक नुमाइश, एक संग्रहालय में बदल दे. उसके साथ न्याय यह है कि वह अपने ढंग से फिर से 'सभ्यता'की इस यात्रा पर निकले या इस वर्तमान 'सभ्यता'के विधि निषेधों से अपने ढंग से नेगोशिएट करे. अतीत का टूरिज्म, उसे एक एन्थ्रोपोलॉजिकल सब्जेक्ट में बदलना आपके लिए आपके काम का है उसके लिए नहीं उसके काम का नहीं.   

3

रघुवीर सहाय की कविता में सामाजिक का अर्थ 'नागरिक'है. उनकी कविता में निजी ढूंढ पाना मुश्किल है - यह 'नागरिक'के निजी हो जाने की कविता है. 'नागरिक'के निजी हो जाने की प्रक्रिया आत्म-दमनकारी या आत्म-रूपांतरकारी प्रक्रिया है. रघुवीर सहाय उस भाषा से जिसके 'दो अर्थ हों'भय महसूस करते हैं - यह दो अर्थ वाली 'रूपकात्मक'भाषा न्याय को असंभव कर देती है. न्याय के लिए अंततः एकार्थ अनिवार्य है. न्याय रोशोमन नहीं है. रघुवीर भाषा की अलंकारिकता के, उसके और कवि-आत्म के, न्याय की खातिर दमन के, भाषा की चरम सामाजिकता/नागरिकता के लगभग इकलौते कवि हैं. मुक्तिबोध में अलगाव है, उनका लेखन 'विपात्र-कथा'है, उसमें आत्मविस्तार की अपार बेचैनी और छटपटाहट है, रघुवीर जैसा कठोर आत्म-दमन नहीं. आलोकधन्वा में निजी आत्म की उड़ान है, विद्रोही, काव्यात्मक उड़ान.
रघुवीर नागरिक प्रतिरोध के कवि हैं, आलोक विद्रोह के और मुक्तिबोध आत्म-संघर्ष के. रघुवीर के लेखन में आत्म-दमन की पृष्ठभूमि - आत्मसंघर्ष का मुक्तिबोधीय फैंटेसी पटल - अदृश्य है और रूमान की वह ठोस ऐन्द्रिकता भी जो आलोक में है. अगर एक पारिवारिक रूपक में कहें तो रघुवीर की कविता सख्त पिता की कविता है, मुक्तिबोध की घर में संस्थापित-किन्तु-विस्थापित पुत्र की और आलोक की घर से भाग गये आवारा विद्रोही की. 
जैसे एक मुक्तिबोधीय नैतिकता है भाषा को आत्म-संघर्षी बनाने की वैसे ही एक रघुवीर-नैतिकता भी है, भाषा को निरंतर न्याय-संभव बनाने की, अधिकतम संभव सामाजिक/नागरिक बनाने की. मुक्तिबोध में सभ्यता समीक्षा है तो रघुवीर में लोकतंत्र समीक्षा.
महेश वर्मा की यह कविता, तब जब कि आत्म-तुष्ट निजता और आत्म-तुष्ट सामाजिकता के बाहुल्य में संकोच की कविता है, वह सामाजिक भाषा में प्रशिक्षित न होने को बिना अपराधबोध के स्वीकार करती है.
यह संकोच और स्वीकार उसकी नैतिकता है. और यही वह चीज़ है जिसके कारण हमेशा साथ रहती है यह कविता. विनम्रता और संकोच से कायल करती हुई, मेरे जैसे दिशाज्ञान से वंचित जैसे-तैसे कवि को बिना डराये कुछ सिखाती हुई.
अन्य भी अनन्य है.

4

महेश वर्मा की कविता मेरे लिए 'निजी'रूप से कविता की उम्मीद की कविता है. उससे आलोक पुतुल के 'रविवार.कॉम'पर परिचय हुआ था और तब से वह उम्मीद बढ़ती ही रही है. उनकी कविता को मैंने 'हिंदी कविता का छत्तीसगढ़'कहा है - 'अपने बारे में दूसरों की अटकलों से बेपरवाह:  जीवन और कला की अपने ढंग से बहती एक नदी, अपने ढंग से होता हुआ एक आदिवास.'  बाद में इसी कॉलम में यह कहा गया है कि महेश वर्मा, प्रभात और कुछ हद तक मनोज कुमार झा की कविता 'हिंदी कविता का छत्तीसगढ़'है. महेश छत्तीसगढ़ में रहते हैं लेकिन ऐसा कहने में इस बात का बहुत योगदान नहीं है. इन तीनों (त्रयी प्रस्तावित करने में कुशल हिंदी के बुजुर्ग इसे २००० के बाद की कविता के लिए एक त्रयी का प्रस्ताव मान लें यद्यपि वे खुद तो ऐसा कभी करेंगे नहीं, वे तो यह मान ही चुके  हैं कि उनके बाद न कविता है, न प्रतिबद्धता न कला है तो सिर्फ़ 'मीडियाक्रिटी', 'मूर्खता'और 'पतन'. वैसे खुशी की बात है कि इस त्रयी को त्रयी के रूप में थोड़ी बहुत मान्यता मिलने के संकेत भी दिखे हैं). इस त्रयी की कविता इस अर्थ में छत्तीसगढ़ है कि इसमें मूल/आदिवास और साभ्यतिक के बीच निरंतर तनाव है. इसके पास पाठीय सार्वभौमिकता (textual universality) नहीं है, उससे एक तनाव है, कहीं कहीं उसका आकर्षण भी है. इनमें से कोई भी रघुवीर-नैतिकता या मुक्तिबोध-नैतिकता या आलोकधन्वा-समाधान की ओर अग्रसर नहीं है, उससे सीधे संवाद में भी नहीं है. इनमें पूर्व-आधुनिक समाजों की आवाज़ें हैं, उनका गौरवगान नहीं है, संग्रहालयीकरण नहीं है, किन्तु उनके आधुनिकीकरण की जटिलताओं की रंगतें हैं. इनके पास निश्चिन्त, आत्म-विश्वस्त आधुनिकता नहीं है, बल्कि आधुनिकता के नए या दमित विकल्पों की खोज की संभावनाएं हैं बिना गौरवगान या संग्रहालयीकरण के.
हो सकता है अंततः इनके यहाँ भी आत्म का सभ्यताकरण उसी तरह हो जैसे अन्यथा हुआ है. लेकिन अभी, बिल्कुल अभी विकल्पहीन नहीं है इनका संसार. 

गिरिराज किराड़ू की नई कविताएं

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ये गिरिराज किराड़ू के साथ-साथ मीर के अब्‍बूकी भी कविताएं हैं,  यानी  आदमी हो रहे दरख्‍़त की। इन्‍होंने गिरिराज किराड़ू की कविता होने में और भी बहुत कुछ जोड़ दिया है। कई नए प्रसंग हैं। कुछ नाटकीयता है। इन कविताओं में आए पद अर्थ से अधिक अभिप्राय को व्‍यक्‍त करते हैं,जिन पर कवि का पूरा अधिकार है – जैसे कि मीर के अब्‍बूकहना....कुछ और नहीं...अब्‍बू। गिरि पहली कविता में एक आरण्‍यक छंद के आकार नहीं लेने का उल्‍लेख करता है पर उसकी अगली ही कविता में हत्‍यारी ताक़तों की चपेट में आए नागरजीवन का एक  लोकछंद आकार लेता है और अपने समय के भीषणतम अंधेरे से उठ कर रामदासके समय के अंधेरे में गड्डमड्ड होने लगता – यानी एक आसन्‍न आपातकाल, विगत के आपातकाल की स्‍मृतियों में घुलने लगता है। जब कुछ दूसरे युवा कवि ख़ुद के किसी विरासत में न होने को भरपूर सेलिब्रेट कर चुके होते हैं, गिरिराज अचानक एक वारिस की तरह सामने आता है – यह समाज  और उसके पक्ष में एक विरल राजनैतिक समझ की विरासत है, जिसे कृतघ्‍न कवि मौलिकता के मूर्ख गर्व में छोड़ते जाते हैं – वे मनुष्‍यता के पक्ष में डेढ़ सदी से भी ज्‍़यादा समय से धड़क रहे एक जीवित विचार का तिरस्‍कार कर स्‍वयं दार्शनिक होना चाहते रहे हैं और जैसा कि दिख ही रहा है अंतत: कविता के मूर्ख विचारद्रोही शिल्‍पी भर बनकर रह  गए हैं।

गिरिराज की इन कविताओं में जीवन,समाज और राजनीति के विकट आख्‍यान हैं, जिन्‍हें उसने ख़ूब नरेट किया है। पाठक महसूस करेंगे कि कविता के उपकरण के रूप में यह नरेशन गद्य के नरेशन से अलग है। मैं विस्‍तार में जाने लगा हूं इसलिए यहीं थमकर इतना भर और कहता हूं कि पाठको सितम्‍बर 2013 में लिखी और छप रही इन कविताओं का महत्‍व कई तरह से है , इसे 2014 की पूर्वबेला के बयान की तरह भी देखें और सोचें कि दुखी और अद्वितीय होने का अभिनय चेहरे से गिरा कर फिर से कहो अपना प्रस्ताव जैसी पंक्ति का अभिप्राय क्‍या है।

ऐसा संयोग रोज़-रोज़ नहीं होता गिरि के अद्भुत गद्य के तुरत बाद उसकी कविताएं भी यहां छाप पाएं। तो इस संयोग के लिए और इन कविताओं के लिए गिरि को गले लगाकर एक बार भरपूर शुक्रिया भी कहना चाहता हूं।        
***
Mulberry Tree by Vincent Van Gogh

मीर के अब्बू  

हमने इसे बच्चों के लिए छोड़ दिया कि ये उनका इलाका है वे जो चाहे करें अब घर का यह छोटा-सा बगीचा एक छोटे-से आदिम जंगल में बदल चुका है अब यह एक अनोखा बगीचा है किसी और का बगीचा है हमारे जैसा यह नियम की नहीं कल्पना की जीत है कहता है एक पिता जिसे मालूम है यह झूठ है बगीचे और बच्चों के जंगली हो जाने का कसूर जिसका अपना है - यह मैं सुबह क्लास में पढ़ा के आया था

इस बात की बहुत खबर नहीं थी घर में क्या क्या जंगल हो चुका है खुद मेरे भीतर कितना बड़ा एक जंगल फैल आया है रोज जैसी एक कठिन शाम भूखी नशे में अपने को बिता देने के बहाने खोजती और कल्पना की जीत कि एक अरण्य है मेरे भीतर एक आरण्यक छंद जो कभी आकार नहीं लेता

अब यह अभिनय क्यों 

कल्पना की बेरहम जीत के फरेब में मुश्किल है मानना कि जीवन का आज्ञाकारी होना कोई अपराध नहीं हमसे नहीं होगी नई शुरुआत की शुरुआत यह लिखा हुआ भी अभी लिखते लिखते मिटता जा रहा है

बस सुबह का कोई अंदाज़ा नहीं वह कैसे होगी, कभी कभी वह सचमुच भी होती है
यह मैं परसों कहूँगा कि
- कल सुबह देखा अपने घर का दरख़्त इस बारिश में वह कैसे जंगल हुआ मुझे पता नहीं चला
उसके सफ़ेद फूल जितने सुन्दर शाखाओं पर हैं उतने ही नीचे ज़मीन पर गिरे हुए भी -
याद आया एक कैमरा भी है घर में उधार का
जो इतने दिन आँखों से नहीं दिखा शायद इससे दिख जाए
कैमरे को फ़र्क नहीं पड़ता वह किसकी तस्वीर खींच रहा है
एक दरख़्त हो रहे आदमी की या आदमी हो रहे एक दरख़्त की
ठीक से मुस्कुराना मेरे दरख़्त
मेरे मरने के बाद घर छोड़ मत देना
मेरे बेटे को मेरे जैसा मत होने देना - मुझे तुम्हारा नाम तक नहीं मालूम
अब से मैं तुम्हें मीर के अब्बू कहा करूँगा
*** 

तय था मैं मारा जाऊँगा

मेरा नाम बिलकिस याकूब रसूल
मेरा नाम श्रीमान सत्येन्द्र दुबे
मुझे कहते हैं अन्ना मंजूनाथ
माझा नाव आहे नवलीन कुमार
और रामदास है मेरा नाम उनको भी था ये पता
नहीं पूछा उनने मेरा नाम बोले बार बार वो रामदास रामदास रामदास
सीने पे हुए तीन वार मारा मुझको बीच बजार
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ थे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं

मेरा नाम बिलकिस याकूब रसूल
मेरा नाम श्रीमान सत्येन्द्र दुबे
मुझे कहते हैं अन्ना मंजूनाथ
माझा नाव आहे नवलीन कुमार
लोग कहते रामदास मुझे
और मेरा नाम मकबूल फ़िदा उनको भी था ये पता
नहीं पूछा उनने मेरा नाम
मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
तय था मैं मारा जाऊँगा तय था मैं मारा जाऊंगा
तय था मैं मारा जाऊंगा  तय था मैं मारा जाऊंगा
तय था मैं मारा जाऊंगा  तय था मैं मारा जाऊंगा
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ थे
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं

(साहिर और रब्बी के लिए जिसके साहिर के समकालीन वर्जन में दो पद जोड़ती है यह कविता. रब्‍बी के गाने का लिंक यह है - http://www.youtube.com/watch?v=h0EdbEsE0pw  और सभी जानते हैं कि 'रामदास'रघुवीर सहाय की कविता है )
*** 

अंत का आविष्कार: सन २०३० ईस्वी

1
ज़िस्म अब रेल से जुदा हो रहा है छत्तीस घंटे जो रेल ज़िस्म से एक रही जिसमें जन्मा यह जानलेवा बिछोह
खुद अब बिछड़ गयी है
अब एक नया शहर है ये
नया बिछोह
रेल से भी उन सब घूमते वाहनों और होटलों से भी जिनमें बसी गृहस्थी कुछ घंटों के लिए
कल वहाँ पहाड़ के आश्वासन में आज दरिया के पार हाइवे की बेचैनी में
प्रेम जैसे मामूली कामों के लिए वक्त का तोड़ा तो हमेशा रहना ही था

2
रेल अब धुल रही होगी
बारिश भी है पर बारिश में उसे नहीं देख पाऊंगा मैं जैसे नहीं देख पाउँगा वह चेहरा
जो प्रेम में सब कुछ को नहीं खुद प्रेम को गँवा चुके एक मनुष्य के चेहरे जैसा लग रहा होगा
अभी उम्मीद के एक गुरिल्ला हमले में ढलती शाम लगता है
जिससे मेरी पुरानी सब पहचान मिट गयी उस एक यात्रा के बाद
इस नये शहर में कुछ भी कर सकता हूँ
बेहूदे कवियों का एक विराट विश्व कविता समारोह
बस दो मिनट के नोटिस पर चुटकियों में करा सकता हूँ
अपने को देख लूं एक लम्हा ठीक से तो माँ पर कविता लिख सकता हूँ
चन्द्रमा को चंद्रकांत की तरह गिटार के माफ़िक बजा सकता हूँ
पृथ्वी पर हवा की तरह व्याप्त अन्याय को अपने दिल में दफ्न कर सकता हूँ उस पर एक फूल रोप सकता हूँ
कुछ भी कर सकता हूँ
यानी अभी इसी समय मर सकता हूँ
जिस रेल से बिछड़ गया उसके आगे सो सकता हूँ

3
तुमसे कैसे कहूँ कोई अंतिम वाक्य
कैसे दूं तुम्हें कोई सीख
एक जैसा जोर नहीं लग सका इस प्रेम में
कैसे कहूँ प्रेम सहवास और साहचर्य सब में
कुछ ऐसी कालिख रह जाती है
कुछ ऐसी दुष्टता और हिंसा जिसे हम नहीं सह पाते

कुछ सही है कोशिश की है सहने की
सब कुछ की कोमलता अपने हाथों नष्ट की है
हिंसा बेरहमी और उन्माद में
उसके बाद अब
लेकिन
केवल प्रेम है
अपने से ज़ख़्मी
अपने से रौशन

4
मत कहना कि मैं अब कभी न आऊँ

सुबह सात बजे ट्रेन में

दुखी और अद्वितीय होने का अभिनय चेहरे से गिरा कर फिर से कहो अपना प्रस्ताव
अगर यह कहना चाहता हो प्रेम करते हो मुझसे तो यह मत कहो कि जीवन तो मेरा पूरा हो चुका क्या तुम
मेरे साथ मर सकोगी कि तुम एक मृत्युसंगिनी की खोज में इस ट्रेन में बैठे हो मेरे पास
मेरे चेहरे पर मेरे कदमों की छाप है उसे अपने पर छप जाने दो
इस ट्रेन को गंतव्य पहुँच कर फिर शाम को लौट आने दो
अगर भूख लगी है तो पोहा खाओ और इस वाक्य में अलंकार के अभाव पर रीझ जाओ

अपने से पूछो क्या फिर शाम को इसी सीट पर बैठे मिलोगे मेरी बगल में
अपने सब अपमान याद करो और वे गवाहियाँ जो तुमने नहीं दी
याद करो उन सब को जो तुम्हारे सामने मारे गए

मुझे जल्दी नहीं अकेले रहने में मैं पारंगत हूँ अकेले छोड़ने में नहीं
तब तक तो तुम्हारे जीवन में अब हूँ ही जब तक तुम यह सब नहीं कर लेते
तब तक मैं वही करूंगी जो तुम
तुम्हें क्या लगता है दो मिनट के नोटिस पे संसार को छोड़ देने जितने बेज़ार तुम अकेले हो
अगर तुम ट्रेन से छलांग लगाओगे तो मुझे भी अपने पीछे पाओगे

देखा श्रीमान मृत्युसंगिनी पाने के लिए
दुखी और अद्वितीय होने के अभिनय की नहीं
दो मिनट के नोटिस और
ब्रह्ममुहूर्त में आधे घंटे की तपस्वी मेहनत से बनाया यह पोहा मेरे साथ खाने भर की दरकार है
*** 

अमित श्रीवास्‍तव की नई कविता

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ये ऐसे समय की कविता है जब मारे दिए जाने के लिए जन्‍म लेना भर काफ़ी होता है। समकाल की कड़ी पड़ताल अमित की इस कविता में है। यह अनुभव के सभी सरकारी-गैरसरकारी, सामाजिक, राजनैतिक और निजी स्‍त्रोतों के मिलने से बना एक शानदार काव्‍यात्‍मक बयान बन गयी है। हालांकि कविता में बयान बहुत नहीं होता। यह कविता भी बयान के परे एक शिल्‍प संभव करती है जो अब अनगढ़ कतई नहीं कहा जाएगा, उसे हम खुरदुरा कह सकते हैं। इस कविता में कथ्‍य और शिल्‍प के बीच हमारी पढ़त कई तरह के घर्षण सहती है, कहने ज़रूरत नहीं कि घर्षण से चिंगारियां निकलती हैं- यह इस कविता का अपना एक आक्रोश भरा डिक्‍शन है। इस आक्रोश को मैं धूमिल, कुमार विकल, चंद्रकांत देवताले आदि की परम्‍परा में देखता हूं, जो एक कठिन परम्‍परा है। अमित ने इस कविता में उसका वरण करने की कोशिश की है - इसके लिए मैं उनका स्‍वागत करते हुए इसे अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख रहा हूं। 
***  
  क्या आप जानते हैं  

क्‍या आप जानते हैं
कि सरकार में सर और कार
अलग अलग हिज्जे भी हो सकते हैं
भले किसी विदेशी भाषा के मायने
दो हिज्जों को कुछ नमकीन शक्ल दे सकने में समर्थ हों
पुर्जों की मिली जुली- साझी कारीगरी
बेहियाई की सीमा तक असमर्थ है
इनके पहले और आख़िरी उद्देश्य की पूर्ती में

कि देश के उत्तर में हिमालय नहीं
किसी शर्म का लोथड़ा पडा है
जो मुंह छिपाने की भरपूर कोशिशों में
शरीर को ही नंगा करता जा रहा है

कि यहाँ क़ानून अंधा नहीं होता
बस दिखता है
उसे सब दिखता है
पर सबूत नहीं दे सकता
कोइ गवाही नहीं उसके देखने की

कि जंगल में चली एक गोली
दो निशानों पर लगती है बहुधा
एक तरफ एक पीढी ख़ाक होती है
दूसरी ओर दो पेड़ गिरते हैं

कि आई पी एल में ओवर सात गेंदों का था
सातवीं गेंद हर ओवर के शुरुआत में फेंकी जाती थी
जो गोद में आ गिरती थी बिना बल्ला घुमाए
और कहीं शेयर सूचकांग ऊपर चढ़ जाता था

कि आदमी एक्सीडेंट में नहीं मरा कभी
किसी बीमारी से भी नहीं
वो मरा था क्योंकि जन्मा था
यहाँ

कि गरीबी, ह्त्या और बलात्कार
कविता नहीं हैं 
विचार नहीं
शब्द नहीं हैं सिर्फ
शब्दकोश से निकल कर
बाहर आ गए हैं इस्तेमाल को

कि रस्ते भर धूल है
उम्र भर उबकाई
शक्ल भर लिजलिजाहट
और उगला हुआ सा प्रश्न
कि ये वही मंजिल है क्या 
जिसकी तरफ़ चल पड़े थे हम

कि जिसकी बातों में चिकनाई है
सफे़दी झक्‍क चेहरे पर
उस की जेब में चाभी है
हाथ में छुरा

कि ये कविता नहीं
एकालाप नहीं
बकवास नहीं सरफिरे का

ना कलमबद्ध बयान
आई पी सी के छठवें अध्याय से घोषित
किसी राजद्रोही का
जो संविधान की प्रस्तावना पढ़ना जानता था  

किसी ईको सेंसिटिव जोन बिल का संलग्नक नहीं
जिसमे हैसियत है हर हर्फ़ पर
किसी की एक सौ तिरालिस रुकती है
और कोई टुकडा डीनोटीफाई हो जाता है ज़मीन का

ना गेरुई दाढी का एलान है
गर्जना भरपूर कि अब चौराहों पर जलेंगे क़त्ल के अलाव
एक चिपचिपी मर्दानगी नहीं ये
जिसे फाड़कर फेंक देना लाजिमी हो

ये तो महज डायरी के पिछले पन्नों पर

छितरी हुई लाश है....आस की !!   
***

अशोक कुमार पांडेय की नई कविता - न्‍याय

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अशोक इस बार न्‍याय की दस कविताओं के साथ उपस्थित है। गो उसकी हर कविता मनुष्‍यता के पक्ष में न्‍याय की अछोर-अटूट पुकार है लेकिन यह कविता न्‍याय की विडम्‍बनाओं का प्रतिलेख है। यह एक सरल समीकरण है कि न्‍याय होता तो उस पर कविता लिखने की नौबत ही नहीं आती। यानी कुछ नहीं है, इसलिए कुछ है। जिसे न्‍याय करना है उसे भी कहीं से पगार लेनी होती है कहकर अशोक एक क़दम में कचहरियों का त्रिलोक नाप आता है। इस कविता का खौलता-सा आक्रोश बेहद सधा हुआ है। युवा कवियों की अवांगर्दी को राजनैतिक और काव्‍यगत विशिष्‍टता मान लिए जाने के ज़माने में अशोक की वैचारिक प्रतिबद्धता उसे एक जटिल अनुशासन में बांधती है। वह कवियों के महान माने गए प्रोफ़ेटिक विज़न के आगे चुपके से यह एक मुश्किल रख देता है तो निकलने की राह नहीं मिलती - दिक्कत सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त। 

यही अशोक के कविकर्म का भी सच है कि भविष्‍य की कविता के रास्‍ते में वह अपनी कविता का वर्तमान रख देता है कमबख्‍़त।

***

न्याय

तुम जिनके दरवाजों पर खड़े हो न्याय की प्रतीक्षा में
उनकी दराजों में पियरा रहे हैं फ़ैसलों के पन्ने तुम्हारी प्रतीक्षा में 

(एक)

इंसाफ़ की एक रेखा खींची गयी थी जिसके बीचोबीच एक बूढ़ा भूखे रहने की ज़िद के साथ पड़ा हुआ था . वह चाहता था उसकी गर्दन से गुज़रे वह रेखा लेकिन इंसाफ़ का तकाजा था कि ठीक उसके दिल से गुज़री वह आरपार और लहू की एक बूँद नहीं बही.

लहू की एक बूँद नहीं बही !
और चिनाब से गँगा तक लाल हो गया पानी
इंसाफ़ बचा रहा और इंसान मरते रहे

हम एक फ़ैसले की पैदाइश हैं
और हमें उस पर सवाल उठाने की कोई इजाज़त भी नहीं.

(दो)

जो कुछ कहना है कटघरे में खड़े होकर कहना है
जो कटघरे के बाहर हैं सिर्फ सुनने का हक है उन्हें

यहाँ से बोलना गुनाह और कान पर हाथ रख लेना बेअदबी है.

(तीन)

जिसके हाथों में न्याय का क़लम है 
उसे भी कहीं से लेनी होती है पगार 
वह सबसे अधिक आज़ाद लगता हुआ 
सबसे अधिक ग़ुलाम हो सकता है साथी 

उस किताब से एक कदम आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं उसे
जिसे गुस्से में जला आये हो तुम अपने घर के पिछवाड़े 

उस पर सिर्फ नाराज़ न हो तरस खाओ...

(चार)

पुरखों ने कहा

तुम लोग साठ साल पहले जन्मी किताब पर इतना इतरा रहे हो?
मेरे पास छ हज़ार साल पुरानी किताब है जो छ करोड़ साल पुरानी भी हो सकती है.

फिर कोई पन्ना नहीं उलटा
और उस तलवारनुमा किताब ने उस जोड़े की गर्दन उड़ा दी.

उस किताब में इज्जत का पर्यायवाची ह्त्या था
और न्याय का भी!

(पाँच)

पुरखों के हाथ तक महदूद नहीं थी वह किताब

न्यायधीश ने कहा
ऊंची जाति के लोग बलात्कार नहीं करते
वंश सुधार के लिए तो न्याय सम्मत है नियोग
यह जो अफसर बन के घूम रहे हैं लौंडे तुम्हारे
बडजतियों  की ही तो देन हैं

होठों की कोरों से मुस्कराया वह
और न्याय की देवी की देह से उतरकर वस्त्र
भंवरी देवी के पैरों की बेडी बन गए.

(छः)

क़ानून सिर्फ इंसानों के लिए है
इंसानों की हैवानी भीड़ का केस लिए यह क्यों आ गए तुम न्यायालय में?

एक आदमी की हत्या का फ़ैसला अभी अभी छः सौ पन्नों में टाइप हुआ है
एक हज़ार लोगों की हत्या का मामला पांच साल बाद तय कर लेना चुनाव में.

(सात)

यह न्याय है कि यहाँ के फ़ैसले अहले हवस करेंगे
मुद्दई लाख सर पटके तो क्या होता है?

अपराध का नाम इरोम शर्मिला है यहाँ
न्याय का नाम आफ्सपा!

(आठ)

उनका होना न होना क्या मानी रखता था ?

वैसे इनमें से किसी ने नहीं की उनकी हत्या
शक़ तो यह कि वे थे भी कभी या नहीं
थे तो अपराधी थे और सिर्फ पुलिस के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता अपराधियों को

लक्ष्मणपुर बाथे न पहला है न आख़िरी
न्याय के तराजू की कील
न जाने कितनी सलीबों पर ठुकी है.

(नौ)

इस दरवाज़े से कोई नहीं लौटा ख़ाली हाथ
वे भी नहीं जिनके कन्धों पर फिर सर नहीं रहा

(दस)

इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया
भविष्य न्याय करेगा एक दिन

दिक्कत सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त
***

वंदना शुक्‍ल की नई कविताएं

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स्‍मृतियां

यादें
जीवन के नन्हें शिशु हैं
उम्र के साथ बढती जाती है
उनमें नमी
जैसे दरख्त की सबसे ऊंची पत्ती में
आसमान भरता जाता है
जैसे खीसे में चिल्लर का भार
या आँखों में पानी की तहें
या बादलों में हरापन ...
यादों में घर होते हैं और
कई बार कई कई घरों में रहते हैं हम
एक साथ
घर बदलने का मतलब
सारी दुनियां का बदल जाना है
कुछ यादों से वक़्त खरोंच लेता है उनके रंग 
अपने पैने नाखूनों से
कई यादों को पहचान पाते हैं हम
उनकी हंसी या गीलेपन से
कई चेहरे ऐसे भी होते हैं जो
छिपा जाते हैं
अपना रोना हमारी स्म्रतियों में  
***

क्यूँ नहीं ...!

क्यूँ नहीं होता कोई ऐसा ज़िंदगी में
जो कहीं नहीं होता पर
होता है हमारी यादों में सबसे ज्यादा  
भटकता रहता है गलियारों में आत्मा की
और हम ये दावा भी नहीं कर पाते
कि देखो
प्यार का चेहरा ऐसा होता है !
***

विवशता

संबंधों की भीड़ में 
एक अकेली स्मृति
किसी घनेरे दरख्‍़त की
सबसे ऊँची शाख पर अटकी
वो क्षत-विक्षत पतंग
अपने ही वजूद का ढाल बनी
जिद्द का हौसला लिए
जूझ रही है    
तूफानी हवाओं से
बरसाती थपेड़ों से
बदरंग से लेकर
चिंदी चिंदी होने तक ...
अपने अपनों से बहुत दूर तक
उखड़ी सांस को बचाए  
हालांकि
तुम असफल कलाकार निकले
लेकिन
‘’जीवन बचे रहने की कला है’’
सच कहा था तुमने नवीन सागर !
***

कुछ तो है

कुछ तो है जो डूब रहा है
आत्मा की नदी में
एक विचित्र-सी ध्वनि जिसकी सूरत
नदी से नहीं मिलती  
कुछ अजन्मे बच्चों की फुसफुसाहट
फैल रही है पृथ्वी पर
बात कर रहे हैं उन ख़ाली जगहों की
जहाँ वो खेलेंगे ...दौड़ेंगे
उन्होंने अभी बीहड़ का अर्थ नहीं जाना है  
***

भोपाल

कमला पार्क के आगे
सदर मंजिल के क़रीब से गुज़रता वो रस्ता
जो ले जाता था खिरनी वाले मैदान में
अब उसे इकबाल मैदान कहते हैं
यहाँ जाएँ तो जनाब ज़रूर देखिये वो  
लोहे का खम्भा
ये कोई बिजली का खम्भा नहीं है ना ही
बादशाहों का मन बहलाने वाला मलखंभ
कभी उठाते थे जो गर्दन
मुहं से वाह निकलना तय था  
खम्भे के ऊपर बैठा है
अल्लामा इकबाल का ‘शाहीन’
लोहे की मज़बूत तीलियों से बुना
स्वामीनाथन के पसीने की चमक
गाहे ब गाहे
अब भी लौक जाती है उसके हौसलों पर
धूप बारिश जाड़े में चमकता भीगता बैठा है वो
अपने पंख सिकोड़े
यूनियन कार्बाइड की गैस से लेकर
सूखी हुई झीलों से आती गर्म हवा तक
झेली है उसने
‘केसिट किंग’ के हत्यारों को देखा है
पनाह देते शहर को तो
मसूद की हत्या का भी
गवाह बना है वो
सुने हैं किस्से या देखा है 
शानी,दुष्यंत ,शरद जोशी ,कारंत,इकबाल मजीद, नवीन सागर,विनय दुबे जैसे
समर्पित भोपालियों को 
उनके खामोशी से चले जाने तक  
पर उसकी जिद्द तो देखो
बचा हुआ है वो अब तक !
बैठा है अब भी खम्भे पर पंखों को झटकारता
जितने बार फड़फडाता है अपने पंख
कुछ तीलियाँ बिखर जाती हैं ज़मीन पर
लोहे की हैं तो क्या हुआ ?
ध्यान से देखो तो लगता है अब
वो खम्भे पर कम हवा में ज्यादा है
कितना बदल गया है समय... वो सोचता है
और गिद्धों की प्रजातियाँ भी तो
कितनी नई नई उग आई हैं इस पुराने देश में?
***

एक ही रास्ता

ये मुल्क है मेरा
यहाँ मत्स्य कन्याएं हैं
बोतल में बंद जिन्न हैं
परियां हैं
समुद्र को पी जाने वाले ऋषि मुनि हैं
मार्टिन लूथर के वंशज हैं
जो कहते हैं औरतें चुड़ैल होती हैं
डेविल्स के साथ रहती हैं
इनके बच्चों का मार दिया जाना
ज़रूरी है और
बच्चे/बच्चियां मार दिए जाते हैं |
आबादी की हरियाली में
आकाश से बर्बादी की घोर बारिश झर रही है
और उधर धूप में पेड़ों से
सूखे हुए सन्नाटे...
विकास के जंगल में सभ्यता
धू धू कर जल रही है
मैं इतिहास की पीठ के पीछे छिप गई हूँ |
***

चौराहे –एक

चौराहों पर
महापुरुषों की मूर्तियाँ
चौराहों को सजाने के लिए नहीं होती
बच्चों को हिस्ट्री का पाठ पढ़ाने के लिए भी नहीं
जैसे नहीं होते शहीदों के स्मारक
खेतों /किसी छोटे कसबे के बाज़ार या
किसी घर के कच्चे आंगन में उनकी शहादत को
नमन करने के लिए  
बल्कि होते हैं ये उनके ज़ज्बे
और उनकी देशभक्ति की आत्मा को
उनका हश्र बताने के लिए
*** 

चौराहे-दो

चौराहे तो होंगे आपके शहर में भी
और उनके बीचों बीच होगी  
किसी महापुरुष के
मज़बूत हाथों में देश का संविधान थामे खडी कोई मूर्ति
या घोड़े पर सवार किसी
जांबाज़ राजा की मूर्ति ,हाथ में शमशीर लहराती हुई
मूर्ति का मज़बूत और आदमक़द होना
दरअसल उसके न होनेको बचा पाने की गारंटी नहीं होता 
चौराहों के आसपास से गुजरने वाले
जानते हैं ये सच
ये युग पुरुष
जब अपने इसी घोड़े पर सवार धूल चटाते होंगे
अपने दुश्मनों को
या
जब दहाड़ते होंगे ,तब होंगे संसद से सडक तक
पर अब तो  
वो बेबस है इन मूर्तियों में इतने कि
चीख़ तो क्या अपनी जगह से हिल भी नहीं सकते
चाहो तो देख लो उस गुलम्बर के आसपास
दिन दहाड़े हत्या करके किसी की
***

पीड़ा

देश के लिए /समाज के लिए यहाँ तक कि
इंसानियत के लिए
कितनी खर्च होती है बारूद /उम्मीद’और ऊर्जा
चीथड़े कर दी जाती है औरत की
इज्ज़त सरे बाज़ार ..
क्रोध में भिंच जाती हैं मुट्ठियाँ
आग में झोंक दिए जाते हैं वाहन ,घर और सपने
खून और पानी का रंग हो जाता है एक
लोग कहते हैं कि इन हालातों में तुम्हारी खामोशी
अखरती  है
मन में शक पैदा करने की हद तक ...
कैसे बताऊँ तुम्हे दोस्तों
कि मैं नहीं जाया कर सकती अपने शब्द
धुंए में तब्दील होने देने के लिए
ना ही गिरना चाहती हूँ अपनी ही नज़रों से
क्यूँ कि
नहीं नष्ट करना चाहती अपनी ऊर्जा
उन शक्तियों के लिए
जिन्हें लिए बैठा है इतिहास अपनी गोद में
एक लापता हो चुकी सदी से
कैसे बताऊँ तुम्हे मैं कि
नहीं सह सकती अपने शब्दों का अपमान मैं
जिन निहत्थे शब्दों का वापस लौट आना
लगभग तय है
तुम्हारी नाकाम कोशिशों की तरह
दोस्तों लौटने के लिए सिर्फ घर होता है
उम्मीदें नहीं ...
***

सच
तकलीफदेह नहीं होता /आशाओं का असफल हो जाना
चिंतनीय यह भी नहीं होता कि चंद मुट्ठी भर लोग
राज़ कर रहे हैं एक बड़ी आबादी पर
खतरनाक होता है आदमी की
स्वाभाविक/निश्छल हंसी का उससे
छीन लिया जाना |
***

युक्ति

मैंने छोड़ दिया है खुला भूख को
पशुओं द्वारा चर चुके खेत में
और बाँध दिया है अपनी आजादी को
अभिव्यक्ति के मज़बूत खूंटे से
छिपा दी हैं अपनी इच्छाएं और सपने
विवशताओं के सूखे जंगल में 
चंद कहानियों और बुजुर्गों की बुझ चुकी आँखों में से
बचाई हुई कुछ आंच से सुलगा रखी हैं अपनी साँसें
उम्मीद का अपना कोई
ईमान धर्म कहाँ होता है ?
***

पहचान

उसका नाम गीता है
भूल जाती है वो अक्सर अपना नाम
हो जाती है वो बहन जी सुबह बेटे को
स्कूल के रिक्शे में बैठाते रिक्शेवाले से
संभलकर रिक्शा चलाने का अनुरोध करती हुई
कभी सब्जे वाले से दो रुपये के लिए झगडती औरत
घर में झाडू पोंछा और भोजन बनाती हुई गृहणी
पति के पसंद का लहसुन का तडका दाल में लगाती पत्नी 
किसी पार्टी के चुनाव प्रचार में कई सपने आँखों में पाले हो जाती है जनता
और कभी मुन्नू की फीस के लिए
 दाल के डब्बे में बचाए गए पैसों में
कमी ढूंढती माँ
रात में पति से ‘’थकान ‘’ के लिए फटकार खाती निरीह -अबला
और फिर निढाल हो पति की बगल में लेटी
छत को ताकती हो जाती है एक चिंता
मुन्नू के सुबह के नाश्ते की और
घासलेट की लम्बी लाइन को अपनी आँखों में मूँद
पूरे दिन को अपनी रात पर ओढ़
सो जाती है वो
सपने में पूछती है खुद से
 क्या उसका नाम गीता
सुनकर चौंक जाने और बतौर सबूत के लिए ही
रखा गया था?
***

राजेन्द्र यादव के लिए

जातक कथाओं की तरह थी उस दरख्त की तमाम कहानियाँ 
उस बीहड़ जंगल का सबसे बूढा किस्सागो था वो
अनगिनत कहानियाँ फूटती थीं उसकी शाखाओं से
असंख्य कहानियाँ वो बनाता था अपने बीजों में
अभी कल तक वो पेड़ अपनी उम्र से ज्यादा घना हो रहा था
जबकि उसे ‘’पीडीगत लिहाज ‘’में हो जाना चाहिए था
सूखकर ठूंठ ,उसकी आँखों को उतार देना चाहिए था
रंगीन चश्मे और बेदखल कर देना था खुशबुओं को
अपने बुज़ुर्गियाना लिहाज़ से  ,
छोड़ देना था अपना तख्‍़तोताज़ जंगल के राजा का
पर 
फैल रही थीं उसकी शाखाएं दिशाओं के बाहर
अधीनस्थ झाड झंकाड और खरपतवारों को 
सैंकड़ों ख़ामियां नज़र आ रही थीं उसमे
चीख़ चीख़ कर बगावत को उछाल रहे थे वो उसकी जानिब 
पर मौसम अब भी उसी के आसपास मंडराते थे
धूप बारिश,वसंत जाड़े की ठिठुरन
वो जूझता रहा उनसे प्यार और तकलीफ से
उसकी एक शाखा पर लगा घोसला तो
कब का उजाड़ हो चुका था जिसे
कहा जाता था कि बचा कर नहीं रख पाया वो बूढा दरख्त ,पर
पूरे जंगल की तमाम चिड़ियाँ बाज कौए आ आकर बैठते थे 
उसकी शाखाओं पर और पाते आश्रय
शाम को उसकी सल्तनत में मच जाता शोर
चीखते कोसते चुहलबाजिया करते पक्षी
अपनी नुकीली चोंच और तीखे पंजों को
गड़ाते उसकी संतप्त आत्मा पर
उसी की डाल पर बैठे हुए |
वो अपनी तमाम बुजुर्गियत ,पीडाएं ,दुःख समेटे
चुपचाप सुनता रहता उनका रोष  
एक दिन जब उसे छोड़कर तनहा
एक एक कर सारे पक्षी उड़ गए बगलगीर दरख्त पर 
सो गए जाकर
वो बूढा पेड़ अपनी आत्मा पर सैंकड़ों तोहमतें
अपमान और पीडाएं लपेटकर
छोड़ कर अपनी जड़ें गिर गया ज़मीन पर
और अपने पीछे हज़ारों 
चीखें चिल्लाहटें शोर और प्रेम की कहानिया
छोड़ता गया ,कहानी की शक्ल में
....अब उसके ज़मींदोज़ जिस्म की शाखाओं पर
बैठे वही पक्षी जो उसे चले गए थे छोड़कर
बहा रहे हैं जार जार आंसू
पढ़ रहे हैं कसीदे ...
जिसकी कभी दरकार नहीं रही उस बूढ़े पेड़ को
अपनी सदाशयता की तरह 
***


अहम्मन्य हुलफुल्लेपन के [अंतर्]राष्ट्रीय दुष्परिणाम - विष्‍णु खरे

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(इस लेख को मेल द्वारा भेजते हुए सूचित किया गया है कि इसे मूलत: जनसत्‍ता के लिए लिखा गया था किन्‍तु जनसत्‍ता सम्‍पादक द्वारा यह हवाला देते हुए कि इस विषय पर बहुत कुछ छापा जा चुका है और इस लेख विशेष के लिए अब जगह नहीं रह गई है, इसे लौटा दिया गया। पहले भी जनसत्‍ता से इस तरह के उत्‍तर आशुतोष कुमार, गिरिराज किराड़ू, अशोक कुमार पांडे आदि नए लेखकों को मिलते रहे हैं। 

बहरहाल, वरिष्‍ठ कवि विष्‍णु खरे को अख़बार द्वारा मिले जवाब को मैं अत्‍यन्‍त खेदपूर्वक इस तरह पढ़ता हूं कि एक ज़माने से हमारे बहुत प्रिय रहे जनसत्‍ता नामक अख़बार में अब उन साहित्यिक बहसों के लिए कोई जगह नहीं रह गई है, जिन्‍हें उसके सम्‍पादक अपने मन-मुताबिक संचालित नहीं कर सकते। इस लेख को हमें भेजने के लिए खरे जी का आभार। इसे अनुनाद पर शब्‍दश: लगाया जा रहा है)
***
मुझे लोक- या आंचलिक भाषाओं का मरजीवड़ा कहलाए जाने की कोई पछाँही बीमारी नहीं है किन्तु कभी-कभी कथित बोली-बानियों के कुछ शब्द कतिपय सन्दर्भविशेषों में बहुत कारगर हो उठते हैं.हमारे बुंदेलखंड में अतिरिक्त या ‘’मूर्ख’’ उत्साहीलालों के लिए ‘हुलफुल्ला’ विशेषण चलता है और शायद उसी अर्थ में ‘हुड़ुकलुल्लू’ को भी हिंदी में कई,विशेषतः युवा,लेखकों ने अंगीकार किया है.इधर एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण हादसा पेश आया है कि यह दोनों शब्द बहुत याद आ रहे हैं.

हिंदी जगत को स्मरण होगा कि मित्रवर अशोक वाजपेयी ने [‘कभी-कभार’,9 जून] उसे सूचित किया था कि वह इस ‘’रवीन्द्रनाथ ‘गीतांजलि’ नोबेल-पुरस्कार शती-वर्ष’’ के उपलक्ष्य में ‘सैयद हैदर रज़ा प्रतिष्ठान’ के तत्वावधान में एक विश्व कविता समारोह करने जा रहे हैं जिसके लिए उन्होंने भारत के राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री से आर्थिक सब्सिडी माँगी है.उनके द्वारा आयोज्य इस वैश्विक अनुष्ठान में कितने देशों से कौन-से कवि-कवयित्रियाँ आनेवाले थे यह अशोक ने ज़ाहिर नहीं किया था – शायद इसलिए भी कि वे स्वयं इतने विदेशी भागीदारों को या तो जानते न थे या अनेक कारणों से उनके नाम तय नहीं कर पाए थे.

चूंकि मेरे लिखे पर उचित ही व्यापक रूप से ध्यान नहीं दिया जाता इसलिए यह कैसे कहूँ कि उसी हिंदी जगत को यह भी स्मरण होगा कि अगले ही रविवार [16 जून]को मैंने अशोक के प्रस्तावित विश्व काव्य मेले का रवीन्द्रनाथ के बहाने विरोध किया था और यह सवाल उठाए थे कि किसी जीवित,संपन्न चित्रकार को अमर और समृद्धतर बनाए जाने के उद्देश्य से खड़े किये गए निजी ट्रस्ट या फाउंडेशन द्वारा आयोजित किसी अंतर्राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन को कोई भी सरकार आर्थिक मदद क्यों देगी – विशेषतः तब जबकि उसी सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा सौ प्रतिशत पोषित एक ऐसी अकादेमी भी मौजूद है [अब पिछले कई वर्षों से वह मिनिस्ट्री और वह अकादेमी कैसी है और उनके मंत्री/अध्यक्ष/सचिव आदि कैसे रहते चले आए हैं यह एक अलग बहस है] जिसका काम ही ऐसी साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करना है और जिसका कार्यालय पिछली आधी सदी से ऐसे भवन में है जिसका नाम कवि रवीन्द्र पर ही है ? ऐसे किसी भी जलसे पर एक करोड़ रुपए से कम क्या खर्च होगा– अशोक में सब ऐब होंगे पर उनमें कंजूसी शामिल नहीं है,उनके यहाँ पैसा शराब की तरह बहाया जाता रहा है - और इतनी बड़ी रक़म सरकार द्वारा किसी निजी प्रतिष्ठान के सी ई ओ को कैसे सैंक्शन की जा सकती है,भले ही वह ‘अधिकारी’ उसी मंत्रालय में एक वरिष्ठ आइ ए एस अफ़सर रहकर रिटायर क्यों न हुआ हो ?

लेकिन रज़ा फाउंडेशन के पैसे और पद,अपने पूर्व-आइ ए एस होने के आत्म-विश्वास और अपनी निजी प्रतिभा के हुब्रिससे मुग्ध अशोक ने इस विश्व-काव्यायोजन के प्रयोजन हेतु ‘पी आर’ तथा प्रतिभा-आखेट के लिए एक ‘यूरोप-टूअर’ बना ही डाला और वहाँ विभिन्न देशों,राजधानियों-महानगरों,साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं की यात्राएँ कीं.मित्रों और पूर्व-परिचितों से भी मिले. उन्हें यकीन था कि उनके प्रतिष्ठान को सरकारी अनुष्ठान-राशि मिल जाएगी और उन्होंने दाएँ-बाएँ आश्वासन और निमंत्रण बाँटने शुरू कर दिए.

अब जब कोई ऐसा ‘सैल्फ-फिनान्स्ड’ व्यक्ति यूरोप में सही ‘नेम-ड्रॉपिंग’ सहित अपनी कर्नल ब्लिम्प-नुमा,’सूडो-ऑक्सब्रिज’ इंग्लिश बोलता हुआ इतने आत्म-गौरव से लबरेज़ घूमता है तो आमतौर पर भरोसा हो जाता है कि इस तरह के विज़िटिंग-कार्ड वाला, इतना डाइनैमिक 70-वर्षीय ‘’अधेड़’’आदमी ‘फ्रॉड’ तो नहीं हो सकता. यूँ भी अशोक ‘फ्रॉड’ नहीं हैं.उन्हें अपने आयोजन पर इतना विश्वास था कि उन्होंने सबको इसी दिसंबर की तारीख भी दे दी.लिहाज़ा उनके दावतनामों या तज़वीज़ों पर फ़ौरन यकीन किया गया,कुछ लोगों ने टिकट भी बुक कर लिए और कुछ संस्थाएँ अपनी-अपनी सरकारों से अपने कवियों के लिए ग्रांट लेने की अर्ज़ियाँ भी देने लगीं.यूरोप में इन बातों को बहुत संजीदगी से लिया जाता है और महीनों पहले योजनाएँ बनानी पड़ती हैं.
यह ठीक-ठीक मालूम नहीं हो पाया है कि अशोक ने रज़ा फाउंडेशन की ओर से कितने और कौन से कवियों और देशों को निमंत्रण या प्रस्ताव दिए.सिर्फ़ दो प्रमाणित जानकारियाँ हैं कि एक छोटे-से देश की बड़ी काव्य-प्रतिभा को उन्होंने पक्की चिट्ठी दी और दूसरे एक छोटे-से मुल्क से कहा कि वह दो कवियों को भेजने की तैयारियाँ कर ले, ख़त पहुँचा दिया जाएगा.

इधर दैवदुर्विपाक से कुछ ऐसा हुआ कि शायद अशोक का महत्वाकांक्षी प्रस्ताव राष्ट्रपति या/और प्रधानमंत्री कार्यालय से होता हुआ संस्कृति मंत्रालय के तार्किक गलियारों तक पहुँचा जहाँ वह  सिद्धांततः तो मान लिया गया किन्तु इस तरमीम के साथ कि सारा कार्यान्वयन साहित्य अकादेमी अपनी सुविधा से करेगी,पूरा विशेष बजट उसी को मिलेगा,वही जवाबदेह होगी,एक उच्चस्तरीय स्टियरिंग कमेटी ज़रूर बनेगी जिसमें संस्कृति मंत्रालय के सर्वोच्च अधिकारियों के साथ अशोक वाजपेयी [हिंदी],सीताकांत महापात्र [ओड़िया],के.सच्चिदानंदन [मलयालम],सितांशु यशस्चंद्र [गुजराती] आदि होंगे.अशोक के निमंत्रण जिन कवियों को भेजे जा चुके हैं उनके सम्मान की यथासंभव  रक्षा की जाएगी किन्तु अन्य कवियों और मुल्कों की उनकी फ़ेहरिस्त को रद्द माना जाएगा.

यह सत्यापित नहीं हो पाया है किन्तु सुना है मंत्रालय में ऐसी अफ़वाह है कि उपरोक्त पहले तीन कवियों का एक गुप्त महत्वाकांक्षी एकल अजेंडा स्वयं को विश्व मंच पर नोबेल पुरस्कार के भारतीय उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने का भी हो सकता है, इसलिए एक विचित्र किन्तु सत्य शर्त यह भी लगा दी गयी है कि कमेटी के कवि-सदस्य प्रस्तावित विश्व-काव्य-मंच पर स्वेच्छा से अपनी कविताएँ नहीं पढ़ेंगे.यूँ भी जहाँ इस सम्मेलन में चालीस विदेशी कवियों के पहुँचने  की आशंका है वहाँ भारत को सिर्फ़ दस का कोटा अलॉट है जिसके लिए राशन की दूकान पर केरोसीन की आमद जैसी फ़ौज़दारी होगी.

लेकिन यूरोप में अशोक की अदूरदर्शी,ग़ैरज़िम्मेदाराना,आपत्तिजनक,लगभग आपराधिक गतिविधियों के दुष्परिणाम उन कवियों और देशों को झेलने पड़ रहे हैं जिन्होंने रज़ा फाउन्डेशन के इस नुमाइंदे पर विश्वास कर लिया.जिस प्रतिभागी को वह दिसंबर का पत्र दे आए थे उसे अब अकादेमी का 4-9 फरवरी का निमंत्रण मिला है,जब उसे दक्षिण अमेरिका के एक बड़े कविता-समारोह में जाना ही है और इधर उसने दिसंबर का दो व्यक्तियों का भारत का टिकट ले रखा था .अशोक अब अपनी लज्जा ढाँपने के लिए उसे दिल्ली से कहीं बहुत दूर किन्हीं संदिग्ध जेबी भगिनी-संस्थाओं के सामने कविता पढ़ने भेज रहे हैं लेकिन स्वाभाविक है कि वह बेहद नाराज़ और परेशान है.इतने बड़े काव्य-व्यक्तित्व के साथ यह सरासर धोखाधड़ी है.अशोक ने उनसे कोई क्षमा-याचना भी नहीं की है.

यह मामला तो एक व्यक्ति के साथ था लेकिन दूसरे में तो अशोक ने एक राष्ट्रीय साहित्यिक संस्थान के साथ दुर्व्यवहार किया है.अव्वल तो यह समझना मुश्किल है कि उन्होंने भले ही कविता में समृद्ध किन्तु अपेक्षाकृत  एक छोटे देश को दो निमंत्रणों का प्रलोभन क्यों दिया क्योंकि उस पैमाने पर तो शायद जर्मनी और फ्रांस सरीखे देशों से उन्होंने दस-दस कवि बुलाए होंगे.उस संस्थान ने अपने मंत्रालय से दिसंबर की भारत-यात्रा के लिए दो कवियों के वास्ते अनुदान लेने की कार्रवाई शुरू कर दी लेकिन जब अशोक ने उनसे सारे संपर्क तोड़ लिए तो घबरा कर उन्होंने पूछताछ शुरू की और उन्हें पता चला कि साहित्य अकादेमी अशोक की लिस्ट के कवियों को आमंत्रित कर चुकी है और उनके देश से कोई नाम नहीं है.इस संस्थान ने अपनी साख खोई हो या न खोई हो,यह उनके राष्ट्रीय साहित्य की अवमानना तो है ही.पता नहीं वह किसको क्या जवाब दे रहे होंगे.

इस बात की औपचारिक जाँच होनी चाहिए कि अशोक ने किस आधार पर किन कवियों और देशों को निमंत्रित किया था.साहित्य अकादेमी और संस्कृति मंत्रालय को न केवल इन तथ्यों को उजागर करना चाहिए बल्कि सैयद हैदर रज़ा,अशोक वाजपेयी और रज़ा ट्रस्ट के जेबी ट्रस्टियों से प्रभावित देशों और विदेशी कवियों से लिखित,सार्वजनिक क्षमा-याचना करवानी चाहिए.भारत के विदेश मंत्रालय और भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् [आइ.सी.सी.आर.] को इस घटना को एक उदाहरण बना कर दिल्ली-स्थित सारे दूतावासों को एक गश्ती-पत्र लिख कर चेताना चाहिए कि वे और उनके सम्बद्ध संस्थान इस तरह के निमंत्रणों और उन्हें देने वाली संस्थाओं की पूरी जाँच कर लिया करें.इस विश्व कविता समारोह में तो ऐसा पत्र बँटवाना ही चाहिए ताकि वह कवियों के माध्यम से ही सारे देशों और अंतर्राष्ट्रीय साहित्य-बिरादरी में प्रसारित हो जाए.अशोक की विचारहीन अहम्मन्यता से विदेशों मे पहले से ही पिटी हुई भारत की छवि पर एक और दाँचा लगा है.इधर भारत में कई ‘भाषा’ या  ‘विश्व’ साहित्य और फिल्मादि समारोह कुकुरमुत्तों की तरह सर उठा रहे हैं जिनके प्रच्छन्न उद्देश्य एकदम प्रकट हैं.यह सही है कि उनसे सम्बद्ध अत्यंत संदिग्ध और दुर्बुद्धि स्त्री-पुरुषों के लिए कई दरवाज़े खोल दिए गए हैं लेकिन दिग्भ्रमित उत्साह में सैयद हैदर रज़ा और अशोक वाजपेयी के नाम भी  उन उचक्के माफ़ियाओं के साथ जुड़ने के मोहताज क्यों दिखें ?

कुल 1364 शब्द
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ऐन्द्रिक भावों का स्पर्श, जैसे कि कविता : विजेन्‍द्र की कविता पर युवा कवि अरुणाभ सौरभ

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It is midnight
I keep awake, all by myself
To see the midnight colors, they
Have silent is vibrant and
Rhythm eloquent-      The midnight colors- Vijendra
              
अगर आप कविताओं मे रंग संयोजन, दृश्य-बिम्ब और तूलिकाओं के सघन स्पर्श को महसूस करना चाहते हैं और चित्रकारी में कविता तलाश करना-चाहते हैं तो हमारी हिन्दी के एक विरल कवि हैं-विजेंद्र। ना सिर्फ़ कविता रचकर बल्कि कविता में जीकर,कविता  के अंतःसौंदर्य को चित्रकारी में अभिव्यक्त करने की क्षमता रखते हैं। लैटिन के महान कवि होरेस का वह कथन इनके संदर्भ में बिलकुल प्रासंगिक हो जाता है कि-‘’चित्र मूक कविता है। इस संदर्भ में आलोचक जीवन सिंह का कहना है-‘’विजेंद्र स्वयं चित्रकला को कविता का पूरक मानते हैं।...चित्र कविता का पूरक इस अर्थ में भी है कि दोनों में सघन ऐंद्रिकता का बोध होता है।आधी रात के रंग(The midnight colors)शीर्षक कविता की अंतिम पंक्तियाँ इसी सघन ऐंद्रिकता और विरल भावबोध का प्रमाण है-जिसमें कविता और कला का भेद-अभेद मिट जाता है।सौंदर्य गुलाबी हर्ष के साथ अवतरित हुआ है और मन कविता में लगा है।इस तरह अपने आप अपनी पेंटिंग पर कविता लिखने का या अपनी कविता पर पेंटिंग बनाने का अद्भुत काम इस कवि ने किया है-आधी रात के रंगजैसे अनूठे संग्रह में। जहाँ कविता और कला एक दूसरे में संगुम्फित हो गयी है।
                    जबकि मैं महसूस करता हूँ
                    सुर्ख रंग की चीखें
                    आह्लाद भूरे रंग का
                    काले का भ्रूभंग
                    गुलाबी रंग का हर्ष ।
                    ये आधी रात के रंग
                    एक साथ मिलकर
                    नीरवता तोड़ते हैं
                    वे रात के ढुलकते बालों को
                    काढ़ रहे हैं।
अपनी पेंटिंग पर कविता टैगोर ने भी लिखी है और बाद में अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किया है। इसी का विस्तार विजेंद्र के यहाँ हुआ है।जहाँ विजेंद्र ने कालिख से सनी रात में चित्रकारी का नायाब नमूना पेश किया है तो चाँद के उजास में कविता लिखने की हिम्मत का उदाहरण भी दिया है।हिन्दी और अँग्रेजी दोनों भाषाओं में एकसाथ यह काम अपने आप में ऐतिहासिक भी है,समीचीन भी,प्रासंगिक भी।   
                विजेंद्र जी के कवि-कर्म को अर्द्धशताब्दी पूरे होने को है।अपने लम्बे काव्य-जीवन में इन्होने बहुत कुछ लिखा है-वह भी प्रचुरता के साथ।सिर्फ़ कविता में नहीं बल्कि गद्य में भी-पर सबके केंद्र में या तो कविता है या कविता को लेकर गंभीर चिंतन!त्राससे लेकर बुझे स्तंभों की छायाअर्थात 1966 से लेकर 2012 तक इनके कविता संग्रहों की प्रचुर दुनिया है।तेईस कविता-संग्रहों की भरी-पूरी दुनिया से इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।कवितायें उत्कृष्ट हैं,मजबूत हैं,सुगठित हैं तो कवितायें साधारण भी,कमजोर भी,अनगढ़ भी हर तरह की कवितायें इनके यहाँ हैं।भले ही सारी रचनाएँ इनकी उत्कृष्ट नही हो,हालांकि किसी भी कवि की सारी रचनाएँ उत्कृष्ट नहीं होतीं चाहे महान से महान कवि ही क्यों ना हो?तो फिर विजेंद्र से इस तरह की उम्मीद लगाना भी उनकी रचनाशीलता के साथ खिलवाड़ करना है।इनके लेखन की भी अपनी सीमा है-जैसे कि सभी की।बात ये महत्वपूर्ण है कि इन्होने निरंतरता में सर्जना की है और बेहतर रचा है।
                 भीगे डैनों वाला गरुण 2010 में बोधि प्रकाशन से पुस्तक-पर्व योजना के तहत एक सेट में प्रकाशित हुआ संग्रह है।जिसकी कीमत मात्र दस रुपए है,और यह लगभग विजेंद्र की प्रतिनिधि कविताओं का संग्रह है।इसमें इनकी 1969 से लेकर 2009 तक की कवितायें हैं।इतने लम्बे समय की कविताओं में मुख्यतःइनकी लोकधर्मी चेतना,जीवनानुभावों की विविधता,जनसंघर्षों के प्रति आस्था,जीजीविषा,कविताई का स्थापत्य,संवेदना का सुसंगत और सुगठित रूप एक साथ देखने को मिल जाता है।इन कविताओं की दुनिया में सम्बन्धों का संयोजन है,जो एक खास तरह के मानवीय सरोकार के साथ जिनसे कविताओं में रचनात्मक शक्ति का विकास हुआ है।मनुष्यों के छल-छद्म,पाखंड और सम्बन्धों में धोखाधड़ी,काईंयापन से कवि हृदय का त्रस्त होना भी स्वाभाविक है।संवेदनहीन दुनिया से कवि को चिढ़ है-इसीलिए कवि जब आँख खोलकर दिल टटोलता है तो मन मसोसकर रह जाता है,फिर कविता लिखता है-
          किसके पाँव पखारूँ भाया
           किसकी करूँ मनौती
           जिसको भी गले लगाऊँ
           करता दिखे कनौती .......
विजेंद्र के अनुभवों की दुनिया भी एकदम विरल है,जिस अनुभव में सम्पूर्ण जीवन का यथार्थ अलग-अलग समय में अलग-अलग ढंग से प्रेषित होता है।अनुभवों के विस्तार से विजेंद्र कविता को भावों के उच्चतम स्तर तक ले जाते हैं।वे सूक्ष्म-से सूक्ष्म वस्तुओं को कविता में ले आने की ताक़त रखते हैं। साथ ही गहरे मानवीय सरोकार और तरल भावावेग से युक्त ये कविताएं लोक के जीवन के सौंदर्य को रचने का दावा करती है। इन कविताओं की त्वरा और ताक़त सर्वथा भिन्न और देखने योग्य है।इसी संग्रह में एक कविता है-एक बच्चे के जन्म पर।इस कविता में आवाज़ के माध्यम से कवि ने सम्पूर्ण ब्रह्मांड में एक बच्चे के जन्म के समय की आवाज़ को पूर्वजों और वंशजों के बीच से गुंजित कराते हैं।दरअसल में इसी आवाज़ का नाम परंपरा है,जिसे कवि पूर्वजों से ग्रहण कर वशजों को वितरित करना चाहता है।या यूं कहिए कि पूर्वजों से सुनी आवाज़ को वंशजों से सुन लेना ही यहाँ परंपरा-बोध है।यह कविता भावात्मक विस्तार की ऊचाइयाँ छूकर अनुभव जगत में प्रकृतिक अवयवों से संवाद कर एक भरी-पूरी अनोखी दुनिया में अनायास प्रवेश कर जाती है, जहाँ कविता और चित्र का भेद मिट जाता है।कुछ पंक्तियाँ देखिये-
              ये पठारों की तरह कठोर, पतझर की तरह सूखी
              और वर्षा की तरह गीली।
              मैंने कई बार इन्हें अपने निजी प्यार की संज्ञा दी है
              आदमी  के मुक्त होने से पूर्व
              सारा देश इन्हें हवाओं के साथ सुनता है........
                     इस एक कविता में कवि ने एक-एक पंक्ति में नए-नए अर्थबोधों को पिरोकर रख दिया है।पाठ में सुरुचि उत्पन्न करनेवाली यह कविता बिम्ब-सृष्टि में गज्झिन है।प्रत्येक पंक्ति में नए-नए प्रतीको को सँजोया गया है-उपमा की सहजता के साथ।उपमा कालीदासस्यवाली शास्त्रीय उक्ति यहाँ चरितार्थ हो जाती है।
                    एक बच्चे के जन्म परकविता में ही कवि आगे कहता है-जिन आवाजों को वे सदियों से सुन रहे हैं वे समुद्र की तरह विशाल और मरुस्थल की तरह उतप्त हैं।कवि ने आवाज़ों के उद्गम-स्थल धरती के गर्व को माना है।इसीलिए पृथ्वी के जितने अवयव हैं सबसे कवि ने उस आवाज़ को चीन्हने में सहायता ली है।पठार,मरुथल,समुद्र,पतझर,वर्षा से लेकर हवाओं की तरह यानि सभी प्रकृतिक वस्तुओं से निःसृत आवाज़ है-वह।या सभी प्राकृतिक वस्तुएँ उस आवाज़ को(ध्वनि को)शक्ति देती है,ऊर्जा ग्रहण कराती है।ये बांक की तरह पैनी और फूलों की तरह नरम है,ठीक अगली पंक्ति में घने जंगल कटते समय जाड़े की अंधेरी रात में उस आवाज़ को सुनना-पूरी प्रकृति को बचाने की कवि की युक्ति नहीं तो और क्या है?
                   कवि की प्रतिबद्धता आगे गहरे अर्थों में मानवीय हो जाती है जब कवि बच्चों की हंसी,माँ के प्यार और दोस्त की सच्चाई की संज्ञा से उस प्यार को पहचानता है।हर बार लौह-शृखलाओं की आकृतियों का उभरना यहाँ पर साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध लड़ते सर्वहारा की संगठित शक्तियों का प्रतीक है।काँटेदार तारों के क्रूर बाड़े,धातुओं का चुपचाप पिघलना उसकी बेचैनी,जहरीले हथियारों से पड़े भद्दे निशान की तरह है वो आवाज़ जिसको कवि सुनता जाता है।एक आदमी का किसी और के लिए फसल काटकर अपना जिस्म सुखाने का अर्थ स्पष्ट है कि श्रम से पसीना किसी और का बहे और श्रम का लाभ कोई और ले जाये।आगे कवि लिखता है-‘’रात में खादर का किसान खेत में पानी काटता है/जब माँ बच्चों को दूध पिलाती है/जब मैं तुम्हारे सूखे बालों में गुड़हल का फूल खौंसता हूँ...’’यह उस सर्वहारा की आवाज़ के साथ अपना संतुलन बैठाकर आवाज़ों का संतुलन बनाना भी वैज्ञानिक साउंड थेओरी का विस्तार लगता है,जिसका वेवलेंथ कोंस्टेंट नहीं है।कवि अपनी आँखों से जंगल के उस मनुष्य को भी देख लेता है जो काले-काले नरकंकाल हैं ,जिसके घने बाल उसके जिस्म ढकने के काम आते हैं।कवि उस मनुष्य की बात करता है जो डार्विन की विकसवादी अवधारणा में कहीं बहुत पीछे छूट गया हाशिये का मनुष्य है,जिन्हे आदिवासीकी संज्ञा दे दी गयी है।उस आदिवासी समाज के पक्ष में कवि का खड़ा होना उन्हें वाजिब कवि तो बनाता ही है,साथ-ही-साथ उन्हें मुकम्मल मनुष्य भी बनाता है।एक बच्चे का जन्म कवि के लिए उस विराट का आगमन है जो सम्पूर्ण मनुष्यता,अखिल विश्व और पूरे ब्रह्मांड के कण-कण को प्रभावित करनेवाली भविष्योनमुखी स्वर का द्योतक है।
                     विजेंद्र की कविताओं की दुनिया इतनी विस्तृत है(और इतनी प्रचुरता में इनका लेखन है) जिसपर लिखना दुरूह कार्य तो है ही।पर जहां तक मेरी दृष्टि जा पायी है उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि विजेंद्र हमेशा अनछूए विषयों को ही कविताओं में छूते हैं।सारी अनछूई वस्तुएँ इनकी कविताओं की विशेषता बन जाती है तो कहीं पर वह अर्थ के विपरीत अर्थों को भी ग्रहण कर लेती है।इससे कविताओं के अंदर कभी भावों सरलीकरण हो जाता है तो कहीं पर अर्थ दोष भी उत्पन्न हो जाता है।
                   इनके अंदर लोक की गहरी समझ और विश्व कविता का गंभीर अध्ययन दोनों है,जिससे इनकी कविताओं की रचना-प्रक्रिया मजबूत होती गयी है,शिल्प सुगठित होता गया है,भाषा निखरती गयी है। विजेंद्र के सौंदर्य दृष्टि की जितनी प्रशंसा की जाय कम है,सौंदर्यशास्त्र पर व्यवस्थित चिंतन भी इनहोने किया है।सौंदर्यशास्त्र भारतीय चित्त और कविताशीर्षक पुस्तक इसी बात का प्रमाण है।इस पुस्तक के बहाने भी विजेंद्रजी ने सौंदर्यशास्त्र की अवधारणा का भारतीय चित्त और कविता के इसपर प्रभाव का बहुत सफलतापूर्वक रेखांकन किया है।इसमे सौंदर्य के दार्शनिक आधार से लेकर तुलसीदास को जातीय क्लैसिक की पहचान करनेवाले कवि के रूप में चिन्हित किया गया है।
                        विजेंद्र की कविताओं की बिम्ब सृष्टि में एक साथ सभी ज्ञानेद्रियाँ प्रभावित होती हैं कविताओं की बदौलत।प्रतीकों का उपयोग भी कवि ने एक सुशिक्षित कवि के रूप मे किया है।कविताओं में दृश्यात्मक्ता इतनी कि कविता और चित्रकारी एक दूसरे के पूरक हों।स्यानी चिड़िया’,’कठफोडवा’,’भीगे डैनों वाला गरुण’,’अगर मेरे पंख होतेआदि कविताएँ कवि के पक्षी प्रेम को एक तरफ दर्शाती है तो निर्द्वंद्व और निर्भीक स्वर के प्रति कवि की प्रतिबद्धता को इंगित करती है।यहीं से जीवन और जगत के प्रति एकनिष्ठ जीवटता आती है।जहां छल,छद्म,पाखंड के लिए कोई जगह नहीं है।निर्भ्रांत भावों से मुक्तिकामी स्वरों की पहचान करने में विजेंद्र सक्षम रहे हैं,तदनुरूप बिम्ब भी गढ़ लेते हैं,भाषा भी निर्मित कर लेते है।जहाँ जीवन और कविता एक-दूसरे में संगुंफित हो जाती है।
         ‘’अब ये मुझे लगा
           पंख देह की शोभा नहीं
           मेरा जीवन है ....’’
पंछी के बहाने कवि जीवन-सौंदर्य रचने का दावा लेकर मुक्ति की कामना करते हैं।वैसी कामना जिसकी गूंज पारंपरिक रूप से हिन्दी कविता में सुनाई देती रही है-लेकिन पंख दिये हैं तो आकुल उड़ान में विघ्न ना डालो.....’’कठफोडवाकविता की आखिरी पंक्ति देखिये-
         मुझे लगा तू आज़ाद होकर भी
          क़ैद है
          इतने खुले वन में
          कहीं-न-कहीं-क़ैद! क़ैद!
रेत के बड़े-बड़े निर्जन टीले पर उगने वाले फूल मरगोजापर भी कवि विजेंद्र ने कविता लिखी है।जिसका खिलना वसंत के आगमन की सूचना है।हर अनछूई वस्तुओं पर लिखी इनकी कविता हमे उस लोक में ले जाती है जहाँ से वस्तुएँ जीवन की अनिवार्यता का एहसास कराती है।
                 विजेंद्र जी ने न सिर्फ लोकधर्मी चेतना से ओत-प्रोत कविताएँ लिखी है बल्कि लोकधर्म की समकालीनता की दुर्लभ व्याख्या भी इनहोने की है।जिसके बहाने कवि लोक-संवेदना का शास्त्र पाठक के सामने रखने में सक्षम हुआ है।इसीलिए ये कविता की रचना-प्रक्रिया के शास्त्र को रचने वाले विरल समकालीन रचनाकार हैं।इसीलिए समकालीन कविता पर होने वाली हर बहस में विजेंद्र का नाम आना अस्वाभाविक नहीं है।कारण है विजेंद्र की बहुमुखी प्रतिभा और विस्तीर्ण काव्य-संवेदना के साथ-साथ विरल लोक-शिल्प।विजेंद्र की कवितायें रेगिस्तान के बंजारों के उस लोकगीत की तरह है जिसे जीवन गा रहा है।इनकी चित्रकारी उस आमूर्त अभिव्यक्ति में निर्मित कला का प्रमाण है,जिसमें मानव जीवन अपने हर स्वरूप में मौजूद है।इसीलिए इस अद्भुत शिल्पकार के पास भावों का ऐसा ऐंद्रिक स्पर्श है जिसके कोर-कोर में जीवन भी है और उसकी गतिशीलता भी.......  

समकालीन कविता के कोनों और हाशियों की ओर ध्यान खींचती आलोचना - महेश चंद्र पुनेठा

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आज की आलोचना विशेषकर व्यवहारिक आलोचना का एक बड़ा संकट है-उसे न पढ़े जाने का।विडंबना यह है कि इसका कारण इसके लिखे जाने में ही छुपा है। आज जिस प्रायोजित और चलताऊ(बिना पढ़े ही) ढंग से व्यवहारिक आलोचना लिखी जा रही है उसने इसकी गंभीरता और विश्वसनीयता को गहरा धक्का पहुँचाया है।जब पाठक को पता हो कि अमुक आलोचना किसी कवि विशेष को उठाने या गिराने के उद्देश्य से लिखी गई है तब भला वह उसको पढ़कर अपना समय खराब क्यों करे?ऐसे बहुत कम आलोचक हैं जो इस क्षेत्र में पूरी तैयारी और जिम्मेदारी के साथ काम कर रहे हैं तथा अपने आलोचना धर्म का ईमानदारी से निर्वहन कर रहे हैं।उन बहुत कम आलोचकों में से एक नाम है- जितेन्द्र श्रीवास्तव। वह मूल रूप से एक कवि हैं लेकिन आलोचना के क्षेत्र में किए जा रहे लगातार हस्तक्षेप ने उन्हें एक गंभीर और ईमानदार आलोचक के रूप में पहचान दी है।आज वह कविता और आलोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय हैं। सद्य प्रकाशित विचारधारा नए विमर्श और समकालीन कविताआलोचना की उनकी पाँचवी पुस्तक है। विषयवस्तु की दृष्टि से इस पुस्तक को मोटे रूप में पाँच हिस्सों में बाँटकर देखा जा सकता है। पहले हिस्से में समकालीन हिंदी कविताःनई चुनौतियाँसमकालीन हिंदी कविता की भारतीयताविषयक आलेख ,दूसरे हिस्से में हिंदी की दलित कविता का मूल्यांकन, तीसरे हिस्से में स्त्री-दृष्टि और कविता ,चौथे हिस्से में वरिष्ठ पीढ़ी के कवियों तथा पाँचवे में नब्बे के दशक के बाद के कवियों की कविताओं का मूल्यांकन।

वह समकालीन हिंदी कविता की नई चुनौतियों से अपनी बात प्रारम्भ करते हैं। उनके अनुसार कविता के सामने पहली चुनौती उसका गद्यमय होते जाना है। इस संकट के लिए वह उन लोगों को जिम्मेदार मानते हैं जो ‘‘कविता की मूल प्रकृति को दरकिनार करते हुए पाठकीय आकांक्षाओं को कालापानी देते हुए कुछ-कुछ कविता लिखते रहते हैं और उसे कविता कहते हैं।ये वे लोग हैं जो कविता की आदि ताकत लोकऔर लोकतत्वसे घृणा करते हैं।’’ दूसरी चुनौती वह संप्रेषणीयता को मानते हैं जिसके चलते नब्बे के बाद पाठक और श्रोता कम हुए हैं।उनका यह प्रश्न तर्कसंगत है कि कविता के नाम पर अर्थहीन प्रयोग और लद्धड़ गद्य कोई क्यों पढ़ना चाहेगा? इनके अलावा ग्रामीण जीवन के यथार्थका कविता में न के बराबर आना,कविता को खेल समझने का प्रचलन बढ़ना,कविता के पास अपना मुक्कमल आलोचक न होना आदि उनके अनुसार कुछ अन्य चुनौतियां हैं।इन चुनौतियों और उनके कारणों पर अपने आलेख में जितेन्द्र ने विस्तार से चर्चा करते हुए इस निष्कर्ष में पहुँचे हैं कि कविता कभी समाप्त नहीं होगी। आलोचक का यह विश्वास दरअसल मानव की संवेदनशीलता और अच्छाई पर विश्वास है।

लोकधर्मी कवि-आलोचक जितेन्द्र को अपनी जड़ों से गहरा लगाव है। वह जड़ों से जुड़े रहने का महत्व भी समझते हैं। इसलिए वह कविता में भारतीयता,स्थानीयता तथा लोकतत्व की पड़ताल करते हैं। उनका लोक और लोकतत्व को कविता की आदि ताकत मानना यूँ ही नहीं है। उनके लिए भारतीयता का मतलब भूमंडलीकरण की आंधी में अपने साहित्य की निजता का भावबोध है। वह कवियों को अनुभवों के अनुवाद और अनुवाद की भाषा से बचने की सलाह देते हैं। ऐसा वही आलोचक कह सकता है जिसको अपनी पहचान को बचाए रखने की अहमियत पता हो।उनका यह मानना सही है कि हिंदी कविता का मूल चरित्र ही भारतीय रहा है।उसके शब्द-शब्द से भारतीयता झांकती है। हिंदी में मानवीय संबंधों पर लिखी गई कविताओं का नजरिया ठेठ भारतीय है। जितेन्द्र अपनी इस मान्यता की पुष्टि में हिंदी कविताओं के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। कविताओं को सामने रखकर बात करना आलोचना की एक सही पद्धति है। अन्यथा आलोचना के अमूर्त होने खतरा रहता है। इस संदर्भ में वे त्रिलोचन,केदारनाथ सिंह, असद जैदी ,एकांत श्रीवास्तव, रघुवीर सहाय, अनामिका, राकेश रंजन,राजेश जोशी,बद्रीनारायण,अरुण कमल, देवी प्रसाद मिश्र,विष्णु खरे,मंगलेश डबराल,उदय प्रकाश, स्वप्निल श्रीवास्तव आदि कवियों की कविताओं का उद्धरण करते हैं। लेकिन वह यह कहना नहीं भूलते हैं कि स्थानीयता और विश्वबोध ही किसी रचना को वृहत्तर धरातल निर्मित करते हैं।

एक अच्छी बात यह है कि जितेन्द्र ने कवियों के साथ-साथ कवयित्रियों पर भी बराबर ध्यान दिया है। स्त्रियों द्वारा लिखी जा रही और स्त्रियों पर लिखी गई दोनों कविताएं उनके नजरों से ओझल नहीं होती हैं। उनका मानना है कि युवा कवियों में स्त्री जीवन के प्रति पूरी संवेदनशीलता और प्रगतिशीलता दिखाई देती है। इस पुस्तक का एक बड़ा हिस्सा स्त्री विमर्श पर है। आलोचक किसी भी कवि की कविताओं का मूल्यांकन करते हुए उसकी स्त्री विषयक कविताओं को रेखांकित करना नहीं भूलता। इस पुस्तक में स्त्री दृष्टि और कवितापर तीन आलेख हैं जिनमें वर्तमान में हिन्दी कविता में जिन कवयित्रियों की प्राणवान उपस्थिति है उन सभी की कविताओं का सम्यक विश्लेषण है। एक आलेख में रघुवीर सहाय की स्त्रियों से संबंधित कविताओं में स्त्री-जीवन की विडंबनाओं और स्त्रियों के संघर्ष की पड़ताल की गई है। इन आलेखों की खासियत है कि इनमें केवल कविता पर बात न होकर भारतीय समाज में स्त्री जीवन की दशा,उसमें आ रहे परिवर्तन और उसके संघर्ष पर भी बात हुई है। इससे स्त्रियों के प्रति आलोचक के दृष्टिकोण का पता भी चलता है। अच्छी बात यह है कि इन आलेखों में आलोचक न केवल स्त्री जीवन की त्रासदी बल्कि इस त्रासदी से मुक्ति का रास्ता भी बताता चलता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि स्त्री स्वाधीनता तभी पूर्ण होगी जब पितृसत्तात्मक व्यवस्था का अंत होगा। जब वह इस सामंती ढाँचे से मुक्त होगी। लेकिन वह इस बात से भी भली-भांति परिचित हैं कि बहुत संभव है कि स्त्रियां सामंती ढाँचे से मुक्ति की आकांक्षा में पूँजीवादी जाल में फंस जाएं। इसलिए जरूरी है कि वे इस पड़ाव को भी लांघें-अपनी सचमुच की आजादी के लिए।

स्त्री विमर्श की तरह दलित विमर्श को भी प्रस्तुत पुस्तक में पर्याप्त स्थान मिला है। दलित जीवन से जुड़े कवि हीरा डोम से लेकर नई पीढ़ी में रचनारत दलित कवियों की चर्चा यहाँ हुई है। इसमें जितेन्द्र नए सौदर्यशास्त्र का प्रश्न उठाते हैं और उसके गढ़े जाने का कारण बताते हैं। उनका मानना है कि हिंदी का दलित साहित्य महानता के स्याह अंधेरे के विरूद्ध उजाले का संदेहवाहक है। उनका यह विश्लेषण  बिल्कुल सही है कि ‘‘ पूरा का पूरा दलित साहित्य वर्ण विद्रोहका साहित्य है। यही वजह है कि शोषितों-वंचितों के पक्ष में खड़ा मार्क्‍सवादी सौंदर्यशास्त्र भीदलित साहित्यको समझने एवं समझाने में पूर्णतः सक्षम नहीं हो पाया है।’’ उनकी इस बात से मेरी भी पूरी सहमति है कि दलित साहित्य के विश्लेषण में वर्गकी समझ से अधिक भारतीय जाति व्यवस्थाऔर उसकी क्रूरताकी समझ आवश्यक है।’’ वह दलित साहित्य की उपयोगिता को कुछ इस तरह रेखांकित करते हैं कि एक दलित सर्वहाराकी पूर्ण मुक्ति तभी संभव होगी जब सामाजिक और मनोगत संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन होगा.....दलित साहित्य इस परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रहा है और उसका सौंदर्यशास्त्र इसी संघर्ष की कोख से पैदा हुआ है।’’ इस तरह दलित साहित्य की पड़ताल के उनके अपने औजार हैं। बहुत सारे आलोचकों का आरोप है कि दलित कविता में कला का अभाव है। उसमें कवि के कच्चे अनुभव अनुभूति में नहीं बदल पाए हैं बल्कि कोरे अनुभव अधिक व्यक्त हुए हैं। लेकिन जितेन्द्र इससे भिन्न मत रखते हैं-कला कम हो लेकिन जीवन खूब हो तो कविता बन जाती है।वह एक ऐसी कविता होती है जिसके निश्चित सामाजिक निहितार्थ होते हैं। वह मनुष्य की सहचर बनती है। उनकी यह मान्यता इस बात का प्रमाण है कि जितेन्द्र साहित्य चिंता की अपेक्षा जीवन चिंता के आलोचक हैं।उनकी आलोचन में जीवन से निकटता और यथार्थ से लगाव दिखाई देता है। वह जीवन के सवालों से मुटभेड़ करते हैं। उनका जीवन से जुड़ाव ही है जो उन्हें लोक और जनपद प्रेमी बनाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं मान लिया जाय कि जितेन्द्र कविता में कलात्मकता की उपेक्षा करते  हैं। वह इस बारे में बिल्कुल साफ हैं,‘‘सही अर्थों में कवि कहलाने का हक उसी को है जो वैचारिकता और कलात्मकता के रसायन को बूझता-समझता हो और यह जानता हो कि किस कविता में कितनी कला और कितना विचार होना चाहिए।’’ वह कविता में कला,जीवन और विचारों की अविच्छिन्न संगत की माँग करते हैं। 

युवा आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव की कोशिश है कि श्रेष्ठ सृजनात्मकता को रेखांकित किया जाय और कविता में चित्रित घनघोर निराशा के गर्भगृह में बैठी आशा की पहचानकराई जाए। यह पुस्तक उसी दिशा में किया गया एक महत्वपूर्ण प्रयास है। यह किताब इस अर्थ में अलग है कि इसमें वरिष्ठ ही नहीं कनिष्ठ से भी कनिष्ठ पीढ़ी के उन कवियों को भी इसमें शामिल किया गया है जिन्होंने 21वीं सदी के पहले दशक में लिखना प्रारम्भ किया। इसमें एक ओर जहाँ वरिष्ठ पीढ़ी के कवियों की ताकत की तो दूसरी ओर नई पीढ़ी की संभावनाओं की जाँच पड़ताल की गई है। आलोचक का सकारात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान गया है। यह काम आग्रहों व पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर किया गया है। वह कविता के पास पूरी सजगता किंतु विनम्रता के साथ जाते हैं।हर कवि की विशिष्टता, संवेदनशीलता, पक्षधरता, दृष्टि, काव्य-प्रकृति, काव्य-भूमि, काव्य-चेतना ,काव्य-क्षमता,मूल पहचान को रेखांकित करना तथा कवि की काव्य-प्रविधि को समझना-समझाना आलोचक का अभिप्रेत रहा है। वे कवि की बेचैनी को पकड़ने की कोशिश करते हैं।हिंदी कविता के ताप,उसकी कोमलता और सामथ्र्य से परिचित कराते हैं। इस तरह कविता विरोधी या कविता के वर्तमान परिदृश्य से निराश लोगों को जोरदार उत्तर देते हैं। वह समाज के यथार्थ से कविता में मौजूद यथार्थ की तुलना करते हैं जो उन्हें सही निष्कर्षों तक पहुँचाती है।

इस किताब की एक विशेषता यह है कि इसमें कविता पर ही नहीं अपने समय-समाज की गतिकी और काव्यशास्त्र पर भी बात की गई है।विभिन्न कवियों की कविताएं कैसी हैं पर तो जितेन्द्र की टिप्पणी है ही साथ ही एक अच्छी कविता और आलोचना कैसी होनी चाहिए ? बड़ी कविता कब सृजित होती है? किसी कविता के मूल्यांकन के लिए क्या आवश्यक है? कोई कविता अपने पाठकों को कब बाँधती है? कला के संतुलित आग्रह और कलावादी होने में क्या अंतर है?बिना आवरण के समय का सच कविता में कैसे आता है? आदि प्रश्नों का भी वह जबाब देते हैं।

युवा आलोचक जितेन्द्र श्रीवास्तव आलोचना के दायित्व पर भी यत्र-तत्र अपनी राय व्यक्त करते चलते हैं। आज की कविता में समाजोन्मुखता की अभिधात्मक प्रस्तुति की वाहवाही के खतरे से आलोचना को सतर्क करते हैं। वे कहते हैं,‘‘ऐसे में होता यह है कि बहुत से आलोचक रचना में कहीं गहरे रचे-बसे यथार्थ को समझने-समझाने के बजाय उसे वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं और ऐसे में कई बार अच्छी रचनाएं उचित व्याख्या से वंचित हो जाती हैं।’’

जितेन्द्र की आलोचना पद्धति की विशेषता है कि वह किसी भी कवि का मूल्यांकन  उसकी जमीन से जोड़कर करते हैं।लोक और जनपद की जटिलताओं और समस्याओं की तलाश कविता में करते हैं। वह देखते हैं कि कवि की जड़ें अपनी जमीन में कितनी गहरी और फैली हुई हैं। उनका विश्वास है कि जो अपनी मिट्टी-पानी और बानीसे प्रेम नहीं करता समझिए वह किसी से प्रेम नहीं करता। कवि को उसके मुहावरे से पहचानने की कोशिश करते हैं। चेहरा विहीन समय में कवि के चेहरे की तलाश करते हैं। वह लोक के नाम पर बिदकने वाले आलोचकों में से नहीं हैं।वह इस बात को देखना जरूरी मानते हैं कि ‘‘कोई रचनाकार स्थानीयता को समझते हुए वैश्विक हो रहा है अथवा बिना किसी आधार के लगातार हवा में उड़ रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि आधारहीन वैश्विकता वायवीय होती है और कई बार मनुष्य विरोधी भी। किसी कवि के संदर्भ में स्थानीयता को चिह्नित करना इसलिए जरूरी होता है कि यह लक्षित किया जा सके कि उस कवि की जमीनक्या है?’’ वह भाषायी शुद्धता के आग्रही नहीं हैं। लोक के शब्दों का प्रयोग उन्हें भाता है।लोक संदर्भों का स्वागत करते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि जितेन्द्र किसी कवि की कविताओं पर लिखते हुए उसके अंचल का उल्लेख करना नहीं भूलते हैं। लोक’ ‘लोकचिल्लाने वाली नहीं बल्कि लोकमें जो घट रहा है उस पर गहरी नजर रखने वाली कविता उनकी पसंद है। वह मानते हैं किसी कवि की स्थानीयता उसके द्वारा प्रयुक्त साक्ष्यों,प्रतीकों,बिंबों और शब्दों में प्रकट होती रहती है।

इस बात की प्रशंसा करनी पड़ेगी कि जितेन्द्र में अपने समकालीनों को पढ़ने,समझने और सराहने की पूरी उदारता है। अकुंठ भाव से उन पर लिखते हैं। युवा कविता को लेकर हमारे वरिष्ठ आलोचकों का जो निराशावादी और उदासीनता भरा भाव है उसको लक्ष्य करते हुए वह इस बात से इंकार करते हैं कि युवा कविता में नया कुछ नहीं हो रहा है। उन्होंने युवा कविता पर लिखे गए अपने लंबे आलेख समय की आँखमें लिखा है ,‘‘युवा कविता तो पूरे तेवर के साथ अपनी चमक बिखेर रही है।उसमें यदि लोकतत्व वाले कवि हैं तो नागर जीवन की बिडंबनाओं को अभिव्यक्त करने वाले भी। ये कवि बदलते गाँवों और बदलते शहरों के चरित्र तो पहचान ही रहे हैं,साथ ही अपने समय की सबसे बड़ी चुनौती बाजार को बारीकी से समझने का प्रयास कर रहे हैं। उससे उत्पन्न होने वाली त्रासदी बहुत प्रभावशाली ढंग से हिंदी कविता में आ रही है।.....ये कवि जीवन और समाज के उन कोने-अंतरों की ओर जाने का साहस रखते हैं,जिधर या तो पूर्ववर्ती गए नहीं हैं या बहुत कम गए हैं। इन युवा कवियों-कवयित्रियों की आवाज में बनावटी तल्खी नहीं है।’’ साथ ही वह इस बात को भी नजरअंदाज नहीं करते कि कुछ युवा कवियों द्वारा कुछ वरिष्ठ कवियों की अंधाधुंध नकल की जा रही है। वह उन्हें सचेत करते है कि नए कवियों को यह समझना होगा और उससे जितनी जल्दी हो सके मुक्त होना होगा इसी से वह अपना मार्ग बनाने की ओर अग्रसर होंगे। वह इस बात की प्रशंसा करते हैं कि,’’ ‘दिल्लीके तमाम शोर के बावजूद अभी भी छोटे-छोटे कस्बों,गांवों और शहरों में रह रहे कवि लगातार सार्थक रच रहे हैं।..उन पर दिल्ली का कोई आतंक नहीं है और जिन पर है ,वे नष्ट हो रहे हैं।’’ दिल्ली में रहते हुए इस तरह दिल्ली का विरोध करना उनके साहस का परिचायक है।

आज आलोचना के सामने विश्वसनीयता का संकट है।प्रायोजित आलोचना ने उसके  सामने इस संकट को खड़ा किया है। जितेन्द्र अपनी निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ आलोचना से इस परिदृश्य पर दमदार हस्तक्षेप करते हंै। अच्छी बात है कि वह किसी भी कवि पर लिखते हुए न किसी हड़बड़ी में दिखते हैं और न अतिरिक्त महत्व देने के अंदाज में। उनकी आलोचना कवि की पूरी संरचना का पता बता देती है। उनका यह कहना कि प्राणवान रचना यदि कंदराओं में भी पड़ी हो तो उन्हें ढूँढ जाना चाहिए। उनकी आलोचकीय प्रतिबद्धता और ईमानदारी का प्रमाण है। आज हिंदी साहित्य में विशेषकर कविता को ऐसे ही आलोचकों की आवश्यकता है क्योंकि आलोचना में जैसा भाई-भतीजावाद,गुटबाजी,मठबाजी,प्रायाजित आलोचना कार्यक्रम चल रहा है। उसके चलते जरूरी और अच्छी कविता बुरी कविता में खोती जा रही है। इस पुस्तक की खूबी है कि इसमें उन कोनों और हाशियों की ओर भी ध्यान दिया गया है जो अक्सर उपेक्षा के शिकार होते हैं। सत्ता केंद्रों से बाहर रचनारत कवियों पर भी पूरी नजर डाली गई है।फलस्वरूप कुछ कम चर्चित कवियों की भी चर्चा यहाँ हुई है बावजूद इसके, कुछ चर्चित वरिष्ठ और युवा कवि छूट गए हैं जो थोड़ा खटकता है।

जितेन्द्र की आलोचना एकेडमिक बोझ से दबी हुई नहीं है। भाषा आम पाठक के अनुकूल है।उनकी भाषा में पंडिताऊपन और ऊबाउपन नहीं है। वह पाठक को उलझाते नहीं बल्कि कविता के मर्म तक पहुँचने में उसकी मदद करते हैं।पूरे समय और समाज की आलोचना करते हैं। इसका परिणाम यह है कि उनकी आलोचना कविता के प्रति अनुराग पैदा करने के साथ-साथ जीवन के प्रति भी अनुराग पैदा करती है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद समकालीनल हिंदी कविता पर उनसे आगे और अधिक गहराई और विस्तार से विश्लेषण की अपेक्षा बढ़ गई है।यह किताब निश्चित रूप से हिंदी कविता पर बातचीत के लिए एक ठोस आधार प्रदान करेगी।  
***

विचारधारा नए विमर्श और समकालीन कविता: जितेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशकः किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली।
मूल्यःपाँच सौ रुपए।
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संपर्कः महेश चंद्र पुनेठा शिव कालोनी पियाना वार्ड पो-डिग्री कालेज जिला- पिथौरागढ़ पिन- 262501 (उत्तराखंड)
मोबाइल:  09411707470

वंदना शुक्‍ल की दो नई कविताएं

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मेरे लिए वंदना शुक्‍ल का नाम आज की कविता में कुछ अलग तरह से लिखनेवाले कवियों में हैं। उनकी भाषा, कविता का बाहरी और भीतरी ढांचा अलग है। उनके पास जीवन और कविता को देखने की अपनी दृष्टि है। कथ्‍य में एक ख़ास सांद्रता है, जो बांध लेती है। उन्‍होंने अपनी दो नई अप्रकाशित कविताएं अनुनाद को भेजी हैं, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूं।

इधर पहल-94 में वंदना शुक्‍ल की एक महत्‍वपूर्ण कहानी मुमुक्षु भी आई है, जिसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है।  

अभी जहां हूं वहां नेट की गति इतनी नहीं कि प्राप्‍त रचनाओं में उर्दू के वर्णों को पूरी तरह सम्‍पादित कर सकूं, इसलिए इन ग़ल‍तियों के खेद है।
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एक कविता
 
एक कविता   ....
आधी रात के घुप्प अँधेरे में
क्षितिज पर टंगी एक नन्ही झिर्री से    
उतरती रहस्य की नीली रोशनी 
फैलती समूची धरती पर 
जिब्रान के हर्फों की काया पहन 
एक कविता .... 
किसी खंडहर हो चुके काल की अंतिम सीढ़ी पर
बैठी एक अनाकृत आकृति(छाया )    
अपने पैरों के नीचे की ज़मीन को
मजबूती से थामे
बिना किसी दीवार के सहारे  
ओक्तोवियो पॉज़ की कल्पना सी .........
एक कविता  .....
किसी बूढ़ी दीवार में से फूटा लावारिस पीपल का पौधा 
अपने हिस्से की गीली ज़मीन  को तकता हुआ 
अनवरत ....
कन्फ्युशियस के मौन विराट में धंसता
एक कविता  ....
सैंकड़ों असंभावनाओं व् निराशाओं के बीच
रखती है अपनी यात्रा जारी
कल्पना की आँखों से
रंग बिरंगे महकदार फूलों की क्यारियों को छूती 
निस्पृह ..निशांत
सुर्ख नीले, ध्यान मग्न आसमान को देखते हुए
वर्डस वर्थ के अतीतजीवी स्वप्नीं से गुज़रती  
एक कविता  ....
उतरती है
असत्य के खिलाफ
नैतिकता के आंगन में 
तमाम अनिश्चितताओं को नकारती हुई
वोल्टेयर मौन्तेस्क्यु के विचारों की सीढ़ियों से
एक कविता ....
गढ़ सकती है परिभाषा
अंधेरों की जो 
किसी रोशनी के खिलाफ न होकर
एक परलौकिक धुंधलके की ठंडी गुफा में
दाखिल हों रही हो रिल्के और हैव्लास की
मशाल के पीछे 
एक कविता
रचती है
निस्सारता की काली रेखाओं से
एक अप्रतिम छवि 
गणेश पाइन की काल्पनिक म्रत्यु की दीवार पर
एक कविता ...
 खोल सकती है हज़ारों परतें
मन की
 प्याज के छिलकों की तरह 
चेखव की कहानियों के
पात्रों सी
एक कविता
उगा सकती है संभावनाओं की नई पौध 
नेरुदा माल्तीदा ,अम्रता इमरोज़ या
लीडिया एव्लोव व् चेखव के प्रेम गाथाओं की नर्म ज़मीन पर  
या
 डुबा के अपनी उम्मीद 
अश्रु की स्याही में
लिख सकती है
करुना के पन्ने पर
अपना सच/संवेग  
मुक्तिबोध के दुह्स्वप्नों सी
वो उग सकती है
घुप्प अंधेरी गुफा में दीपक बनकर
पूर सकती है पूरी प्रथ्वी को 
नील-श्वेत अलौकिक चौंध से 
आबिदा परवीन की उन्मुक्त खनकदार आवाज़ के सहारे  
वो....
झरती है ऊँचे पर्वत से
पिघलती चांदी के झरने के साथ  
अंधेरी रात में खामोश 
खुद से गुफ्तगू करते हुए
निर्मल वर्मा के गद्य में
एक कविता
 बतिया सकती है स्वप्न में
‘’हकीम सानाई की ‘’हदीकत-उल-हकीकत’’ से
या
 अल्लाह के बन्दों की ज़मात के साथ गुज़रती
किसी घने जंगल में 
एकांत-चांदनी से प्रेमालाप करती हुई
एक कविता 
बजती है किसी नदी के किनारे
उदास ...धीमे धीमे
बीथोवन के संगीत सी
एक कविता 
 काल को पूरा जीकर 
नियति को परिणिति की देहरी तक विदा कर
लौट सकती है
हेमिंग्वे के निस्सारता बोध से 
एक बार फिर नई स्रष्टि रचने को
एक कविता.....
*** 


छत्र छाया
 
नई सदी का आगाज़ कुछ अलग सा था इस बार
पुरानी किसी सदी के इंतज़ार की बनिस्बद
भूमंडल,विश्व बाज़ार ,वैश्वीकरण ,उत्तर औपनिवेशिक जैसे
कई नए नवेले शब्द अंखुआ रहे थे नई सदी की भुरभुरी ज़मीन पर  
लगा कि
नया ज़न्म ले रहा हो कोई युग धरती पर
फलांग रहे थे एक सदी की रेखा हम
एक चमकदार बाज़ार सजा धजा बैठा इंतजार कर रहा था
हमारी इच्छाओं का ,उस पार  
नहीं था अब पहले सा
छूटे हुए को मुड़कर देखते डरते हुए
आगे की धुंधली मशाल के पीछे पीछे सर झुकाए
चलते चले जाना या
कुंठित मौन के घने प्रायश्चित के तले
अपनी मौत को बहुत धीमे धीमे
मरते हुए देखना ...
हम अपनी आजादी एक अप्रतिम उपलब्धि -सी मुट्ठी में भींचे
चले तो आये थे इस नयेपन की ज़मीन पर
लेकिन ये आजादी एक दुह्स्वप्न सी
कुछ अलग सी स्वछंदता लेकर अवतरित हुई
सब तरफ नया नया
पुराने को क़त्ल करता नया
नए को पछाड़ता नया
नए को दबोचता एक और नया
पुराना भौंचक है नया उत्साहित
पुराना चमत्कृत है नया अन्वेषित
इस पुराने नए के बीच कुलबुला रहे है
संस्कार /परम्पराएँ
एक अँधेरे कोने में सिमट सहम
खड़े हैं आदर्श
गनीमत है अब तक
बची हैं कुछ खँडहर किम्वदंतियां
एक उजाड़ इतिहास की विस्मृति से झांकती  
सुनों ज़रा बाज़ार के शोरगुल से तनिक दूर जाकर 
नयों के दिमाग के बंद दरवाजों को खटखटाती हुई
कह रही हैं वो फुसफुसाकर
 बंद कर पिछली सदी का द्वार 
आधुनिकता की मज़बूत चाहरदीवारी के बावजूद
नहीं बचा पाओगे एक  
संपन्न धरोहर की अदद बसाहट
..........
 बच्चे नहीं जानते कि ज़मीन का उपियोग  
गगनचुम्बी इमारतों ,तरन पुष्कर ,
एक क्रिकेट के मैदान ,किसी आमसभा स्थल
या फिर आन्दोलन या धरनों की जगह के अलावा
भी कुछ होता है जैसे हल, खेत,
उस पर मटर की हरी भरी फलियाँ और
 ,सरसों की फसल ,गेहूं की सुनहली बालियाँ लहलहाना  
बच्चे नहीं जानते कार्टून फिल्मों के
 कूदते फांदते असंभव को संभव करते
नकली चमत्कारिक किरदारों के पीछे की असली कहानियाँ
नौजवानों के लिए
शिक्षा का मतलब एक अदद नौकरी
और पैसो की खनखनाहट के सिवा भी
कुछ होता होगा ..शायद ही जानते होंगे वो ...
बाहुबल या
छीनकर हासिल करने की बडबोली बातें तो
बिखरी पडी हैं धरती पर
लेकिन इसी दुनियां के शब्दकोष में
 प्रेम भी एक शब्द हैं ये भी
देह के अलावा
कम ही जाना है उन अधेड़ होते बच्चों ने
..........
देशभक्ति का अस्तित्व अब
गुलामी के दिनों की भूली बिसरी स्म्रतियां हैं
और देशभक्त का पर्याय कुछ अदद
चुनावी नारे
आजादी का अभिप्राय परम्पराओं से मुक्ति और
महापुरुष (अथवा महादेवियाँ )अब मैदानों ,पार्कों या
चौराहों पर बनी मूर्तियों की संख्याओं में
समाहित हैं
मूर्तियों को खंडित करने ग्रंथों को बेरहमी से
नष्ट करने और कला संस्कृति को अपने
प्रतिशोध की आग में जला डालने के इतिहास को
औरंगजेब ,गजनबी आदि के रूप में पढ़ते हैं बच्चे  
देखो नफरत से कैसे ख़त्म की जाती हैं नस्लें ?
पढ़ते हैं बावरी मस्जिद का हश्र और रामजन्मभूमि का महत्व ....
 देखो धर्म निरपेक्षिता के ऐसे उड़ते हैं परखच्चे
आजकल बच्चे नहीं जानते कि
 हत्याओं,चुनावी गणित,घोटालों और
भ्रष्टाचार के अलावा भी होता होगा देश का कोई वुजूद
वो देश को इसी तरह पहचानते हैं
क्यूँ उस अंधे बहरे वाचाल इतिहास के अँधेरे तहखानों को  
बच्चों के रोशन आसमान से जोड़े रखना चाहते हैं हम?
क्यूँ बच्चों की ताज़ी अन्खुआइ जिज्ञासाओं को
एक डरावनी परिणिति में तब्दील कर देने को आमादा हैं
हमारी विवशताएँ
हमारी अनियंत्रित लिप्साएं  
क्यूँ नहीं हम बच्चों को
जीने देते बच्चों की तरह  
..........
खाते पीते घरों के बच्चे आज
चपाती का मतलब जानते हैं
गेहूं का आकार नहीं देखा उन्होंने
वो रोज़ पीते हैं कॉर्नफ्लेक्स दूध में डालकर ,पर
खेत में उगती सुनहरी मक्का नहीं देखी उन्होंने अभी तक
शुद्ध आटे से बनी दो मिनिट में तैयार हो जाने वाली
जादुई मैगी खाते हैं वो रोज़ नाश्ते में ,पर
गेहूं पीसने की चक्की से अनभिग्य हैं वो
आज के बच्चों को नहीं पता
एक अदद नौकरी के लिए
कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे उसे ?
किस तरह बचाकर रखना पड़ेगा अपना ज़मीर
और इज्ज़त इस पाखंडी परिवेश में ?
कितने प्रायश्चित कितने बार करने पड़ेंगे
इस देश और दुनियां में खुद को बचाए रखते हुए
अनभिज्ञ मासूमियत की भी आखिर
एक सीमा (उम्र)तो होती ही है
..........
**** 
दोनों तस्‍वीरों के लिए गूगल इमेज का आभार।

सूत्र सम्‍मान : समारोह का संक्षिप्‍त विवरण, सम्‍मानित कवि सौरभ राय का वक्‍तव्‍य और कविताएं

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इस वर्ष का सूत्र सम्‍मान सौरभ राय को दिया गया। उनकी कविताएं पाठक पहले अनुनाद पर पढ़ चुके हैं। अनुनाद कवि को सम्‍मानित होने की बधाई देता है और उनसे सम्‍मान के साथ मिली जिम्‍मेदारी को पूरी वैचारिक प्रखरता से निभाने की उम्‍मीद भी रखता है।


समारोह का संक्षिप्‍त विवरण

28 दिसंबर 2013 को बस्तर प्रान्त के जगदलपुर शहर में ठा. पूरन सिंह सूत्र सम्मान का कार्यक्रम संपन्न हुआ। इस साल का सूत्र-सम्मान बैंगलोर के कवि सौरभ राय को प्रदान किया गया। कार्यक्रम में सौरभ राय के माता पिता भी उपस्थित थे, जो झारखण्ड से आये थे।

इस साल कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार एवं कवि डॉ. प्रेमशंकर रघुवंशी थे, और कार्यक्रम की अध्यक्षता जोधपुर के चर्चित आलोचक एवं 'कृति ओर'के संपादक रमाकांत शर्मा ने की। सौरभ राय की कविताओं पर 'सर्वनाम'के संपादक रजत कृष्ण, और जगदलपुर के युवा आलोचक आशीष कुमार ने अपना अपना वक्तव्य पढ़ा। इसी परिसर में विभिन्न कवियों की काव्य रचनाओं पर कुंवर रविन्द्र के कविता-चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी, जो बेहद चर्चित हुई। इस कार्यक्रम में जम्मू से आये कवि अग्निशेखर और बाँदा से आये केशव तिवारी उपस्थित थे। छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय ग़ज़लकार राउफ परवेज़, वरिष्ठ कवि नरेंद्र श्रीवास्तवमांझी अनंतविकास यादवत्रिजुगी कौशिकनिर्मल आनंद, नसीर अहमद सिकंदर, घनश्याम शर्मा सहित कई कवि एवं गणमान्य उपस्थित थे। 

इसी अवसर पर जगदलपुर के जेल अधीक्षक राजेंद्र गायकवाड़ भी उपस्थित थे, जिनकी देख-रेख में कारागार के कैदी भाइयों ने मिलकर दो काव्य-संग्रहों एवं एक पत्रिका का प्रकाशन किया। कार्यक्रम में विशाखापट्टनम के कवि संतोष अलेक्स की कविता संग्रह 'पाँव तले की मिट्टीऔर धमतरी के कवि युगल गजेन्द्र के काव्य-संग्रह 'वे कभी विरोध नहीं करते'का विमोचन, एवं विजय सिंह द्वारा सम्पादित महत्वपूर्ण पत्रिका 'समकालीन सूत्र'के नये अंक का लोकार्पण हुआ, जिसकी छपाई से लेकर जिल्दबन्दी का काम कैदियों ने ही किया। अगले दिन जेल के प्रांगण में तमाम कैदियों के बीच जगदलपुर आये कवियों ने काव्य पाठ किया। जेल के अँधेरे में जी रहे कैदियों के जीवन में साहित्य एवं काव्य की रोशनी भरने का यह एक ऐतिहासिक प्रयास था।

वक्‍तव्‍य और नई कविताएं 


मैंने कोई वक्तव्य तैयार नहीं किया है। न ही यह सोच कर आया था कि कोई बड़ी बात करूँगा। वरिष्ठों से लेकर अग्रज कविगणआज हम सब एक जगह पर उपस्थित हैं, जो स्वतः इस बात का प्रमाण है कि हमारे विचार मिलते हैं। हम कहीं भी हो सकते थे इस समय। कोई शौपिंग कर रहा होता, कोई प्रचलित फ़िल्म देख रहा होता, लेकिन हम देश के अलग अलग कोने से आकर बस्तर में एकत्र हुए हैं, यह प्रमाण है कि हमारे विचार मिलते हैं। पूरी तरह नहीं तो 80-90 प्रतिशत तो मिलते ही हैं। और जो 10 प्रतिशत विघटन है, यही तो है हमारी कविता, हमारी अलग अलग सोच का रहस्य! अगर हमारी समूची सोच एक जैसी हो जाए तो हमारी बातें और कवितायेँ भी एक जैसी हो जाएँगी। मेरे लिए कविता कुछ है, और आपके लिए कुछ और। ऐसे में अकादमिक बातें न कर के मैं कुछ अपनी बात करूँगा।

मैंने अपनी पहली कविता 8 साल के उम्र में लिखी, और वह थी - 'चेरापूंजी में सूखा पड़ा / एवेरेस्ट पर बाढ़ चढ़ा / काल नाचे ताता थैय्या / हंसिये मत / जब काटेंगे पेड़ तो ऐसा ही होगा भैय्या'बेहद साधारण सी कविता थी, लेकिन अपनी उम्र के हिसाब से ठीक-ठाक थी। पर मेरे परिवार के लोगों और शिक्षकों को इसमें कविता कम, सामान्य ज्ञान अधिक दिखलाई पड़ा। और देखते देखते मैं अपनी कक्षा का क्विज़ मास्टर बन गया। अपने सामान्य ज्ञान, विज्ञान के प्रति रुझान के कारण कई प्रतियोगिताएं जीतीं, स्कूल में, कॉलेज में अच्छे नंबर लाता रहाऔर इंजीनियर बन गया। लेकिन इन सबके बीच कवितायेँ ज़िंदा रहीं। अंतर्मुखी था और काफी समय तक अपनी माँ और 4-5 मित्रों के बाहर मैं इन कविताओं को शेयर करने से भी बचता रहा। मुझे विदेशी फिल्मों का शौक था, जिन्हे मैं कॉलेज में रहते हुए डाउनलोड करके देखता था - अकीरा कुरोसावा, सत्यजीत राय, गोडार्ड इत्यादि की फिल्में। इन्ही से मैंने इमेजरी सीखी।

किताबें भी खूब पढ़ता था, लेकिन अंग्रेज़ी की ज्य़ादा। मार्क्सगोर्की, मायकोव्स्की, कामू, सार्त्र से मुझे विचार मिले - ये सब ऑनलाइन पढ़ता था, अब खरीद कर पढ़ता हूँ। स्कूल कॉलेज में जो थोड़ा बहुत हाथ खर्च मिलता था, उससे कुछ प्रिय हिंदी कवियों की किताबें खरीदीं और इन्ही को बार-बार पढ़ते हुए मैंने डिक्शन पाया। इंजीनियरिंग के दूसरे साल तक मैंने लगभग 400 कविताएँ लिख दी थीं, लेकिन कोई भी कविता कहीं छपी नहीं थी, न ही मैंने इन्हे कहीं छपने के लिए भेजा था। इन्हीं दिनों मेरी सहपाठी और मित्र विद्या (जिससे मेरी अप्रैल, 2014 में शादी होने वाली है) ने सुझाया कि इनको संग्रह के रूप में आना चाहिए। बैंगलोर में रहते हुए, हिंदी के प्रकाशकों के बारे में मैं कुछ नहीं जानता था, लेकिन संकल्प इंडिया फाउंडेशन से जुड़े होने की वजह से डिजाइनिंगछपाई, जिल्दबन्दी इत्यादि का काम जानता था। संकल्प एक संगठन है, जो कर्णाटक में रक्तदान को बढ़ावा देने को पिछले दस सालों से कार्यरत है। थैलेसेमिया से पीड़ित सरकारी अपस्ताल के 400 बच्चों को हम हर महीने समय पर निर्बाध और निशुल्क रक्त और दवाइयां देने का काम भी कर रहे हैं। संकल्प में मेरा एक काम पर्चे इत्यादि छपने का भी था, जिसकी वजह से संकल्प से जुड़े मेरे मित्रों और विद्या ने मिलकर मेरे पहले संग्रह -'अनभ्र रात्रि की अनुपमा'का प्रकाशन किया। इसके पैसे मेरे बाबा (पिता) ने दिए, जिनका प्रोत्साहन मुझे हमेशा मिलता रहा। यह एक स्वप्रकाशित संग्रह था जो वर्ष 2009 में आया। तब मैं इक्कीस साल का था।

इसके बाद मेरे दो और काव्य संग्रह 'उत्तिष्ठ भारत' 2011 में, और 'यायावर'दिसंबर 2012 में क्रमशः छपकर आये, जो स्वप्रकाशित थे। यायावर के छपने तक भी यह कवितायेँ किसी पत्र पत्रिका में नहीं छपी थीं। इन्ही दिनों मेरे एक मित्र ने कुछ कविताएँ हँस के सम्पादक राजेंद्र यादव जी को भेजीं, जिन्होंने इनको अपने जनवरी 2013 के अंक में स्थान दिया। इसी तरह फिर ये कवितायेँ 2013 में वागर्थ, वसुधा, कृति ओर, सर्वनाम, इत्यादि पत्रिकाओं; और पहली बार, अनुनाद जैसे ब्लॉगों में भी छपीं। कुछ प्रिय अग्रज एवं वरिष्ठ कवियों से बातचीत भी हुई, जिन्होंने प्रोत्साहित किया, और कंस्ट्रक्टीव सुझाव भी दिए। साहित्यकारों में एक अद्भुत समन्वय, एकजुट संघर्ष और आत्मीयता दिखलाई पड़ी। कुछ प्रिय कवियों के सुझाव से अपना उपनाम 'भगीरथ'भी हटा लिया। संग्रहों के संशोधित संस्करणों में, जहाँ से काफी कविताएँ निकाली जा रहीं हैं, यह बदलाव भी मुकम्मल होगा।

इन दिनों मैं पहले की तरह हड़बड़ाकर नहीं लिखता, और हर कविता को यथोचित समय भी देता हूँ। छपने का मोह शुरू से ही नहीं था, और अब कविताएँ पहले से अधिक फाड़ने भी लगा हूँ। कविता मेरे लिए एक संघर्ष रहा है, खुदको जानने, और अपने आसपास में होने, और जीवन को देखने समझने का साधन। और आप सबके आशीर्वाद और मार्गदर्शन से अगर इस सम्मान से जुड़ी अस्मिता और मानक की रक्षा कर पाया, तो यह मेरा सौभाग्य होगा।
*** 
होने में
बर्फ देख सोचता - इसकी नियति पानी 
पानी देख नहीं लगा पाता अनुमान 
बर्फ बादल या सागर ?
ईमारत देख शिकायत करता - ढह जाएगी 
मलबा देख नहीं जान पाता घर कैसा रहा होगा ?
दीगर विषयों से मुश्किल इतिहास 
कितनी रातें बीती ? सुबह कब होगी ?
समय में कहीं भी रहूँ, सोचता यही भोर !
मैं होने में समय तलाशता और होना मुझमें तलाशता समय 
क्यों कैसे और कहाँ के पार 
तलाशता 'कब'का जवाब 

लकीर से कागज़, कागज़ से इंसान के बाद 
तलाशता अस्तित्व का चौथा पहलू 
सड़क पार करता सड़क की लम्बाई, मेरी चौड़ाई 
सामने आती ट्रक की ऊंचाई जानने के बाद 
पूछता ट्रक की गति, सड़क का इतिहास -
इसी सड़क से गुज़रे किसी राजा के रथ से नहीं टकरा पाया था मैं 
और ट्रक मेरे समय में होकर भी रुका हुआ था 
अपने पूरे वज़न से कोशिश की थी समय को रोकने की 
और रुका हुआ था
ट्रक के समय से गुज़रता हुआ कोशिश कर रहा था 
रथ के समय से गुज़रने की 
राजा के समय मेरा कौन था ?
मेरा कोई पुरखा 
गुज़रा होगा जयकारे के बीच अपना होना तलाशता 
राम के समय भी लड़ा होगा रावण के दल से 
उसे शायद रामायण कंठस्थ ही न हो 
- मेरे समय में होने का यह सबसे बड़ा प्रमाण था 

आदिमकाल में जब पृथ्वी पानी था 
अमीबा मैं; बाइनरी फिशन से बंटा होगा देशों की तरह 
अलग अलग विलुप्त प्रजातियों से गुज़रता 
मेरा होना जागा होगा किसी दिन ख़ुदको कीड़े में रूपांतरित देख 
जंगल में कंद-मूल तलाशते - दौड़ना से देखना ज़रूरी 
- सोच पहली बार खड़ा हुआ होगा दो पैरों पर 
झिझककर हाथ मिलाने से इंकार करने की मुद्रा में फिर किया होगा 
बहाना पीठ दर्द के इवोल्यूशन का 
अपंग नवजात, हाथ की लकीरों पर हँसता 
दुबक गया होगा अँधेरे में चार पैरों पर
धारागत; फिर संगठित अंतःकरण के दलदल में खेत जोत 
घर बना, धर्म बोल, देश के नाम पर कितनी बार 
समय में अलग-अलग पक्ष से लड़ा मरा पैदा हुआ होगा 
पुश्तों पीढ़ियों से लाखों प्रजातियों में 
अनिश्चित समय पर निरुद्देश्य सम्भोग प्रजनन 
जाती नस्ल के नियमों को जोड़ता तोड़ता 
मेरा होना लगभग न होना 
असंख्य शुक्रकणों में अनंतकाल से चयनक्रम का विलक्षण परिणाम 
मेरा समय उसके समय में निराकार सा 
जिसे देख चौंका होगा वह बार-बार 

मेरा होना 
लड़ रहा होगा लगातार मुझतक पहुँचने को 
और पिघले बर्फ, ढही इमारतों से गुज़रकर 
इस अस्तित्व तक पहुँचने की मेरी लड़ाई 
मेरे होने में 

शादी का फोटोग्राफर
उसकी लेन्स जिधर घूमती 
ऊंघते लोग भी मुस्कुरा देते 
मंत्र पढ़ता पंडित भी बोल उठता ज़ोर ज़ोर से 
दूल्हा दुल्हन मौसा मौसी काका और बच्चे 
चौकन्ने होकर करते कोशिश सामान्य दिखने की 
कोई धीरे से फुसफुसाता - 'वो समय का वकील
बीते समय के प्रमाण जेब में लिए फिरता है'
थोड़ी देर बाद कौंधता कैमरा और 
निर्वात में झांकते समय को एक फलैश में चीर 
दर्ज़ कर लेता 
लोग सोचते - मैं ज़यादा तो नहीं मुस्कुराया ?
आँखें बंद तो नहीं थी ?
भूत का डर 
जन्म लेता यहीं से !

समय से नाख़ुश 
वो हर नयी तस्वीर देख बड़बड़ाता 
कर्वेचर एक्सपोज़र टीन्ट को गालियां देता 
अलग अलग कोण से किसी की गरदन दायें 
बच्चों को शांत औरतों को आगे 
तीन सौ साथ डिग्री के विचार को पांच x सात इंच में समेटने का करता 
बेहद महत्वपूर्ण काम 

बिदाई के वक़्त भी अलग-थलग सा रहता 
पिता के अँधेरे में तेज़ रोशनी 
रोतीमाँ के झरते आंसुओं को लपक कर खुश होता 
उन समयों को थाम लेता जो सदियों तक सबको हंसाती रहेंगी 
वो जानता बेटी के जाने के बाद घर एक खाली नेगेटिव होता है 
कैमरा रोता 
और पूरे माहौल में मज़बूत उपस्थिति दर्ज़ करता सा 
लगभग अनुपस्थित निराकार 
नेपथ्य से झांकता 
अचानक कहता -
स्माइल प्लीज़ ! 



छुट्टियों में घर
छुट्टियों में घर चला 
अपने घर अपने बाबा के घर चला 
उतना ही चला जितना घर मेरा था 
साल में एक बार घर मेरा घर था 
घर का एक कमरा कमरे का एक टेबल 
उससे छिटकी रोशनी उससे दूर होता अँधेरा मेरा था 
छुट्टियों में घर को फुर्सत थी मुझे अपनाने की 
और मुझे थी फुर्सत अपना लिए जाने की 
जिस घर में पैदा नहीं हुआ बड़ा नहीं हुआ 
वह घर मुझमें पैदा होने की 
बड़े होने की पुरज़ोर कोशिश कर रहा था 

घर से मेरे पसंद की खुशबू आ रही थी
(आज मेरे पसंद की सब्जी बनी होगी 
की जायेगी मेरे पसंद की बातें 
घर में अनधिकृत गाँव में नए कपड़े पहन 
मैं बन जाऊंगा गाँव का राजा बाबू 
छोटी छोटी चीज़ों में बड़े अर्थ ढूंढता मैं बड़ा 
बच्चों से बतियाउंगा सबको पसंद आऊंगा)

घर के बाहर का रास्ता मेरी परछाई थी 
शांत ठंडी काली टेढ़ी मेढ़ी सी 
रास्ते में जगह जगह गड्ढे थे 
अपने रोज़मर्रा के झमेलों में चिंतामग्न 
कुछ से अनजान कुछ मैं भूल चूका था
मेरे गड्ढों में पानी नहीं कीचड़ था 
अपनी परछाई पर चल
घर का दरवाज़ा खटखटाता सोच रहा था 
किसी अनजान आदमी ने दरवाज़ा खोला तो क्या कहूँगा ?

मेरा घर मुझमे प्रवेश कर रहा था 

मेरे हिस्से की कवयित्री 
मेरे हिस्से की कवयित्री कई हिस्सों की स्त्री है 
अन्य पुरुष से खुद को देखती 
अधीर, जड़ इतनी बूढ़ी कि लगभग एक बच्ची 

लोगों को और लोगों के पार देखती 
सुनती शब्दों को और निःशब्दों को भी 
बूढ़ों की किलकारियों से चिढ़ती 
बच्चियों की ख़ामोशी में नाराज़ 
कविता के नीचे अपना नाम पढ़ सोचती यह तो पुरुष !
इतनी सादी कि लगभग घमंडी 
खुदको गालियां देती 
बारिश की शाम खिड़की के शीशे पर बहते पानी को 
आंसू समझ कर रो पड़ती 
दूसरों की तारीफ़ पर हंसती
बुदबुदातीमन और शरीर की उसकी ग़ैर ज़िम्मेदार हँसी
अराजक अनुगामी निराकार हंसी;
वो पार्टियों में घबरायी हंसती 
स्त्री की आँखों में झाँकती 
विचारों के पिंजरे को आँखों से टटोल सोचती चेहरा दृष्टि कैसे बने ?
पुरुषों की बात काट ठिठकती गलत नस काटने के बिम्ब में 
स्त्री को देखती, परिधान समेत 
सोचती क्या है इसके पास जो मेरे पास नहीं 
बोध और यथार्थ के बीच तलाशती वो सब जो कर सकती 
अभी इसी वक़्त मौका मिले अगर 
आदर्श के लिए खड़ी रह सकती 
कोई गिराने की कोशिश करे अगर 
कोई इमारत से गिरे तो बचा सकती 
जलते हुए को जान पर खेल बुझा सकती 
वह सब कर सकती जो पुरुष करने की बात करते 
अलक्षित नायिका सोचती असाधारण जीवन सरल 
साधारण जीवन में ढूंढती कई कई व्यवधान 
खुद के जीवन में अनवांछित मेहमान 
मेज़बान को इतनी बार धन्यवाद बोलती 
कि रह जाती लगभग चुप्प

वो चाहती लिखना भयमुक्त पत्थर के पेड़ के नीचे बैठ 
अनादतन चाहती आदतें
बेंच के ऊपर बैठ ऊपर परिस्थिति 
रुकी हुई और बदलती तेज़ रहस्यमय और अनावरित 
जहाँ शब्द भिनभिनाते लफंगों की तरह
वो सोचती कविता चलने में 
बगल गुज़रते एक ही बिम्ब को रोज़ देखती 
एक ही पंक्ति से वो सब तराशती जो कविता नहीं 
आखिर में बचता अवसान; हाथ 'कुछ नहीं'; 
कभी लिखती इसलिए कि काले सूरज से लिख सके सफ़ेद दीवार पर 
कविता के नीचे बना सके दिल,लिख सके नाम 
फिर रो पड़ती अचानक - मैं दोषी ! कविता का गर्भपात !
ढूंढने लगती वो एक पुरुष जहाँ नहीं पहचानी जा सकती 
बगीचे में टहलते फ़कीर को शराबखाने ले जाती 
बोतल के पार लकीर को झुर्रियां, अँधेरे को झोपड़ी देख
लिखती – ‘मैं गरीब नहीं; संसाधनों की कमी में 
रोटी देख ललचती अकेली नागरिक’ 
जन्म लेती उसके गर्भ में एक और स्त्री 
शिव में काली ब्रह्मा में सरस्वती
पिंजरे में घूमती लट्टू पुतलियां 
थक लुढ़क जाती आँखों में वापस;
रात भर उसकी प्रसव पीड़ा सिसकती 
खिड़की में रहने वाले कृत्रिम सूरज को
उसकी आँखों को, आवाज़, रातों और सपनों को 
दूसरी तरफ की मज़बूत दीवार पर लिखती रात भर;
उसके दृश्य उतने ही बिम्ब 
जितने उसके शब्द 
हर रात वो आधी रात पर रंगती 
स्त्रीत्व का 
पुरुषार्थ 


बुखार में गिरना 
मैं हो रहा हूँ नगण्य में तल्लीन 
रंग काले और लाल; रात के वन-वे ट्राफिक को 
पीछे से देखता लगातार गिर रहा हूँ 
सुलगते कोयले से अगिनत बिम्ब उठ रहे हैं
एक दूसरे के प्रतिबिम्ब में झांकते तलाश रहे हैं वे 
यथार्थ का रहस्य 

मैं पुरुष प्रतीक सागर के बीच लेटा हुआ 
एक ठंडा सांप सूखे पत्ते सा नीचे सरसरा रहा है 
और एक स्त्री धो रही है मेरे सिर पैर 
सामान्यीकरण के दुराभाव में दिन गिन रहा
सोमवार को सोमवार पुरुष को पुरुष स्त्री को स्त्री बोल रहा हूँ 
देख रहा हूँ धूल जमता ख़ुद पर 
धुल खतरनाक इसी के नीचे दब गयी कई कई सभ्यताएँ 
बुखार में मेरा मन उछल कर खुदको झाड़ रहा है 
और शरीर धीरे धीरे बदल रहा है 
किसी विलुप्त सभ्यता के धसकते पिरामिड में 

पूर्ण भाटे सा गले से फिसलता 
बुखार का स्वाद चिकन सूप
(हाँ मान्साहारी)
शाकाहारी को सिर्फ जानवरों के भले अंत की चिंता !
मुझे मौत की क्या परवाह ? जितना कवि उतना आदमी 
जानवर खा बुखार मना रहा हूँ; कविता के पहले ड्राफ्ट की तरह अपठनीय 
जल रहा है मस्तिष्क; रोशनी में 
प्रवेश करने का सोच दीये के इर्द गिर्द फड़फड़ा रहा हूँ 
मर चुका हूँ और घृणित उन सबसे -
टेबुल बिस्तर फर्श किताबें - जो ज़िंदा रहेंगे 
अपने हिस्से की रोशनी में सुबह ठन्डे शाम तक गर्म 
कपकपाता सोच रहा हूँ - ज़िंदा रहना सचमुच एक अमानवीय स्थिति है 

मेरे जीवन के मुंह में धंसा पारा परिप्रेक्ष्य में गिर रहा है 
गिर रहे हैं रंग रोशनी रक्तचाप 
और गिर रहा हूँ बुखार में मैं ।
***


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