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सुजाता की कविताएं

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मेरा सुजाता से पहला परिचय चोखेरबाली ब्लाग की वजह से है और दूसरा फेसबुक पर। इतना जानना भी इस मायने में पर्याप्त है कि मैंने उन्हें फेसबुक पर कुछ तीखी लेकिन सार्थक बहसों में उलझा पाया है। वे बहसें बताती हैं कि बोलने वाला किस ज़मीन पर खड़ा है। जाहिर है कि सुजाता का रचना संसार उन कई बेचैन प्रश्नों से बनता है, जिन्हें सुविधा के लिए  स्त्रीप्रश्न कह दिया जाता है। सुन्दर और समतामूलक समाज के निर्माण से जुडे़ स्वप्नों सरीखे वे प्रश्न समाज के अंधेरे में चिनगियों की तरह बिखरते जाते हैं। वे एक अनिवार्य आग का पता देते हैं। बहुत बदलकर भी समाज कमोबेश वही रह गया है, जिसे सुजाता ही नहीं, हम सभी प्रश्नांकित करते रहे हैं। इधर ब्लाग और फेसबुक पर मैंने उन्हें पढ़ते हुए पाया कि सुजाता की कम दिखाई देने वाली कविताओं में भी उनका स्वर एक जिरह जगाता है, बहुत ऊंची पौरुषेय तानों में गिरह लगाता है, उस स्वर में ख़ुद को सुलझा लेने और चमत्कार पैदा कर देने की हड़बड़ी नहीं है। निष्कर्षों के मारे हमारे जीवन के बारे में कहते हुए किसी निष्कर्ष तक तुरत पहुंच सकने का लक्ष्य भी सुजाता ने नहीं रखा है। इन कविताओं में सतत् चलते जीवन संघर्षों और जिरह करते संवादों के लिए ज़रूरी अवकाश है। जिन कवियों से अनुनाद एक सार्थक वैचारिक रचनायात्रा की उम्मीद रखता है, सुजाता उनमें हैं।  

सुजाता ने अनुनाद के अनुरोध पर यह नौ कविताएं उपलब्ध कराईं हैं, इसके लिए आभार और अनुनाद पर उनका स्वागत।
*** 

नहीं हो सकेगा प्यार तुम्हारे-मेरे बीच

नहीं हो सकेगा प्यार तुम्हारे-मेरे बीच
क्योंकि ज़रूरी है एक प्यार के लिए एक भाषा ...
इस मामले में
धुरविरोधी
तुम और मैं।

जो पहाड़ और खाईयाँ हैं  मेरी तुम्हारी भाषा के बीच
उन्हें पाटना समझौतों की लय से सम्भव नहीं दिखता मुझे अब
इसलिए तुम लौटो तो मैं निकलूँ खंदकों से
आरम्भ करूँ यात्रा
भीतर नहीं ..बाहर ..
पहाड़ी घुमावों और बोझिल शामों में
नितांत निर्जन और भीड़-भड़क्के में
अकेले और हल्के

आवाज़ भी लगा सकने की  तुम्हें
जहाँ न हो सम्भावना ।
न कंधे हों तुम्हारे
जिन पर मेरे शब्द पिघल जाते हैं सिर टिकाते ही
और फिर  आसान होता है
उन्हें प्यार में ढाल देना

नहीं हो सकता प्यार तुम्हारे मेरे बीच
क्योंकि कभी वह मुकम्मल आ ही नहीं सकता मुझ तक जिसे तुम कहते हो
आभासी रह जाता है वह ।
किसी जालसाज़ ने प्रिज़्म मे बदल दिया है मेरे दिमाग को
तुम्हारे शब्दों को जो
हज़ारों रंगीन किरनों में बिखरा देता है।
*** 

आज,अभी

कितना मुलायम दीखता है दलदललेकिन उसमे
धँसते धँसते जब धँसने ही वाली हो नाक भी
तब पूरा दम लगाकर भी निकला नही जा सकता इससे बाहर ।

मैंने नहीं खोजे थे अपने रास्ते और अपने दलदल भी नही चुने थे
आज़माए रास्तों पर से गुज़रने वाली पुरखिनें 
लिख गयीं थीं कुछ सूत्र किसी अज्ञात भाषा में 
जिनका तिलिस्म तोड़ने के लिए मरना ज़रूरी था मुझे

सो मरी कई बार ...
बार बार ...

और अब सुलझ गए हैं कई तिलिस्म  
समझ गई हूँ कि
मेरे रास्तों पर से निशान वाली पट्टियाँ 
उलट देते थे वे जाते जाते 
मार्ग सुझाने का चिह्न शास्त्र भी
अपने ही साथ लिए फिरते थे वे-  जंगल के आदिम शिकारी !

अनुगमन करना मेरे लिए विकल्प तो था
पर एकमात्र नहीं
इसलिएसहेज लेना रास्तों पर से फूल-कंद 
अनुगमन की ऊब से निजात देता था। 
पीडाएँ गाती  थीं समवेत और मुक्त कर देता था नाच लेना बेसुध !

यह आसान मुझ पर कितना मुश्किल बीता 

इसकी कहानी नही सुनाने आयी हूँ मैं ।
मुझे पूछना है तुमसे साफ –साफ कि पिछली पीढियों में अपनी धूर्तता की कीमत
कभी किसी पीढी मे तो तुम चुकाओगे न तुम !
करना ही होगा न साहस तुम्हें ?
तो वह आज और अभी ही क्यों न हो !  
*** 

अगर गुफा नहीं होती मैं...

अगर नहीं होती मैं गुफा
तो नदी बन जाती एक दिन।

जितना डरती रही
उतना ही सीखा प्यार करना
और गुम्फित हो जाना।

गुफाएँ चलती नहीं कहीं ,आश्रय हो जाती हैं ।
शापित आस्थाएँ अब भी वहाँ
दिया जलाती हैं कि गुफाएँ पवित्र ही रहें ।
इसलिए अगर नहीं होती लता मैं
तो बाढ़ हो जाती क्या एक दिन?
एक परी, तितली या पंखुरी
सूने गर्भगृह की पवित्र देहरी पर पड़ी

कभी नहीं हो पाती वह मैं
जो हो सकती हूँ आज !
हवा हो जाती शायद
लेकिन सिर्फ़ बाढ़ हो पाती हूँ अक्सर !
क्या करूँ कि एक भी अच्छा शब्द नहीं बचा है मेरे लिए।
उन्माद है,प्रलाप जैसा है कुछ ,जाने क्या है  !
तुम ऊब न जाओ
इसलिए चलो फिर से गाएँ वही कविता
जिसमें मैं बन जाती थी चिड़िया और तुम भँवरा।
तुम्हारी गुनगुनाहट सेमैं प्यार सीखने लगूँगी फिर से।

सच कहूँ ?
तुम भ्रमर नही होते तो मैं नहीं गाती कभी कविता
मैं गद्य रचती।
तुम्हे एक यह भी ग़लतफ़हमी है कि सिर्फ़ कविता लिखती है
या चित्र बनाती है बार-बार छिली गई पेंसिल
देखो,बार बार उघाड़ी जाकर वह नुकीली हो गई है
और हत्यारिन !
इसलिए शब्दसाज़ होना होगा
मुझे हीअबकी बार।

तलाशने होंगे मुझे फिर से
वे छंद जो गुफासरिता से बहते हैं
और चिड़िया - या जो भी कुछ
मैं बनूँगी अबकी बार-वह जब तक बेदख़ल है आलोचना से
तब तक बार बार पढ़नी होगी हमें वही कविता
जिसमें तुम बनते थे बादल और
धरती हो जाती थी मैं।
***

भरा होना भी रीत जाना ही है

हर सुबह जगती है कुछ नए अंधेरे कोने सिरजती हुई 
उजाला कभी नही रच पाता पूरा का पूरा उजास 
दूर, किसी किनारे तुम्हें छोड़ कर लौटती हूँ ऐसे
जैसे तमाम पिछली रातें कईं सालों से मेरे भीतर ही डूबती हों हर शाम

बारिशें धो नही पातीं खुशबुओं की स्मृतियाँ जो तुम लिख देते हो
हाथों पर 
जब थामते हो सकुचा कर कोई बोझ मेरी उंगलियों मे उलझा हुआ 
किसी भार का छिटक जाना हलका नही करता पूरा का पूरा जैसे 
ऐसे भीगना मैंने सूखने जैसा पाया है अक्सर !

देखो, ये ज़हर से नीला हुआ समंदर 
कितनी सदियों से ग्लानियों की अनगिन धाराएँ मिली हैं इसमे आकर 
फिर भी लपकता है चाँद को  देखकर
कितना बेशर्म है! 
इसे अब भी डूब जाने की ख्वाहिश है ?

बहुत भरा है यह भीतर ...
इतना कि उबकाइयाँ इसकी लहरों में रह रह आती हैं बालू तक सुबह शाम
उगल देतीं हों कोई सीप , शंख , मोती
पर अथाह होना 
अक्सर एक अनबूझ अकेलापन है 
भरा होना भी रीत जाना ही है सम्भावनाओं से
नहीं जाते उधर गोताखोर सुना है ,जहाँ सुंदर शैवाल नही हैं !
***
  
भागना था मुझे

भागना था मुझे बहुत पहले 
लगभग उन्हीं वक़्तों में 
जब सोचती थी -'भागना कायरता है'

लेकिन भागना हिम्मत भी होती है उन वक़्तों में
जब भागा जाता है 
असह्य व्यवस्थाओं के निर्मम मकड़जाल से बचकर
जब भाग निकलते हैं हमउनके पास से 
जिनकी कुण्ठाएँ धीरे धीरे ग्रस लेंगी हमारे व्यक्तित्व को 

भाग जाना बहुत बहादुरी है 
उन कमज़ोर पलों में जब 
अत्याचारी के चरणों में शीशझुकाए रखने की आदत पड़ने लगी हो
और उस हिम्मत के पल में भी 
जबउसे बदल देने का मूर्ख दम्भ जागने लगा हो

गढ़ने के लिए अपने मुहावरे हर एक को
भागने की कायरता या हिम्मत का निर्णय 
अपनी पीठ पर उठाना होता है 
इसलिए भागना था मुझे बहुत पहले 

अब इन वक़्तों में 
जब कि उन खूँखार चेहरों से नकाब हट गए हैं
उनकी ढिठाई आ गई है सबके सामने 
हद्द है 
कि न भाग पाने की अपनी स्वार्थी कायरता को 
मैंने उधारी शब्दों की परछाईं में अभी अभी देख लिया है।
*** 

भाषा को देना होगा मेरा साथ

बेगै़रत भाषा से 
आजकल मुझे चिढ़ हो गई है 
मेरे शब्दों के खाँचे वह
तुम्हारे दिए अर्थों से भर देती है बार बार 
नामुराद !
देखो ,
जब जब तुमने कहा -आज़ादी 
क्रांतिकारी हो गए,
द्रष्टा ,चेतन ,विचारक !
मैंने धीमे स्वर में 
धृष्टता से बुदबुदाया -
स्वतंत्रता !
और भाषा चौकन्नी हो गई 
इतिहास चाक चौबंद ।

जन्मी भी नही थी जब भाषा
तब भी 
मैं थी
फिर भी इतिहास मेरी कहानी 
नहीं कह पाता आरम्भ से।
किसी की तो गलती है यह ! 
भाषा या इतिहास की ?

मैं यही सोचती थी
कि जो भाषा में बचा रह जाएगा ठीक ठाक 
उसके इतिहास में बचने की पूरी सम्भावना है 
लेकिन देख रही हूँ 
भाषा का मेरा मुहावरा 
अब भी गढे़ जाने की प्रतीक्षा में है ।
इतिहास से लड़ने को 
कम से कम भाषा को तो 
देना होगा मेरा साथ ।
*** 
भाषा मे बनती औरत

चुस्त टीशर्ट मे जब वह आया 
उसके चेहरे पर से गायब था आदमी 

कुहनी मारकर वे मुझे बोलीं-
बड़ा औरतबाज़ है ,
बच कर रहना ,
तुम्हें औरत होने की तमीज़ नही है।
और इस तरह धकिया दिया उन्होंने
भाषा मे बनती औरत को
थोड़ा और नीचे
और निश्चिंत हो गईं 
कि अब कुछ गलत नहीं हो सकेगा ।

लेकिन कभी वापस नहीं जा सकीं घर वे
औरत होने की शर्मिंदगी लिए बिना  
ठीक वैसे जैसे हर सुबह लौटती थीं 
एक ग्लानि लिए घर से ।
*** 
देह के परे 

दोपहरिया बरसात में मिलना मुझे
रोशनी भी होगी और
सब कुछ धुला धुला सा होगा जब 
धुल ही जाएगी शायद वह चाँदनी भी जिसमें
देह के पुराने रास्ते चलते चलते अचानक 
अनजान होने का भ्रम देने लगे थे
सोचा था कई बार ठिठकते 
सही भी जा रहे हैं ?
किसी से पूछा भी नहीं जा सकता था इस शहर में
जहाँ देह पाप भूमि है और प्यार उसमें आ बसा पागल-पापी ! 

बरसात में ही बस शर्मिंदा रहता है यह शहर
नज़रें चुराए भागता बदहवास
इसके कमज़ोर पलों में मुझे तुमसे जानना है 
कि ऐसा क्या नया उग आया है मन में 
जो देह की भाषा का ककहरा भी दोहरा नहीं पाता बिना भूले
इस  शहर के बरसाती गड्ढों की कीचड़ से बचकर
कितना मुश्किल है चले  जाना देह  के परे। 
*** 
 
यहआमरास्तानहीं है।

जब हवा चलती है हिलोरें लेता है चाँद
और मैं उनींदी सी  होकर भूल  जाती  हूँ  उतारकर 
रख  देना जिरहबख्तर  सोने  से  पहले ।

यहआमरास्तानहीं है।

यहजगह-  जिसेतुमनींदकहते हो
यहाँ जाना होता है निष्कवच ,बल्कि निर्वस्त्र
खोल कर रखने होते हैं वस्त्रों के भीतर
मन पर बँधे पुराने जीर्ण हुए कॉर्सेट ।

कुछ शब्द किसी रात जो  गाड़ दिए  थे चाँद  के गड्ढों में
वे घरौंदा बनाते उभर आए हैं मेरे होठो पर उनींदी बडबडाहट की तरह
कभी उधर जाना तो लेते जाना इन्हें वापिस क्योंकि
मिलेंगे और न जाने कितने सपने ,गीत ,पुराने प्रेम,पतंगे और खुशबुएँ

खुद  में  खुद  को ढूँढना खतरनाक है सो मैं बेआवाज़ चलना चाहती हूँ
कहीं रास्ते  मे टकरा  न जाए वह भी जिसे कभी किया था वादा
कि -हाँ ,मैं चलूँगी चाँद पर ...लेकिन हवा में टँगी रह गई ।

इन रास्तों पर गुज़र कर हवा भी न बचे शायद
लेकिन क्या निर्वात की भी अपनी जगह नहीं होती होगी  ?
तब तो रहना होगा वहीं उसी निर्वात में निर्वासित !

चलो कम से कम वहाँ भय नहीं निर्वसन होने का
निष्कवच हो जाने का  भी खटका नहीं होगा
कोई तो गीत पूरा  होगा ही भटकाव की तरह 
यूँ भी तो आम रास्तों पर चलकर नहीं मिलती
अपनी नींद
अपना निर्वात
निर्वसन स्व
निष्कवच मन !
**** 



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