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हम पानी में नहीं कर्ज में डूबे थे - रोहित ठाकुर की कविताऍं

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कवि का कथन

मेरा मानना है कि साहित्य स्वयं का , अपने परिवेश के मूल्यांकन और पुनः मूल्यांकन का आधार देती है ।घर से अत्यधिक आत्मीयता से जुड़ा हुआ हूँ, जीवन और उसके आस-पास की घटनाओं में मैंने रागात्मकता को ढूंढा जो कविता में स्वाभाविक रूप से आ गया । प्रारंभ से ही कविता के विषय के रूप में जीवन की साधारण घटनाओं ने आकर्षित किया । यह एक मायने में ज़रूरी भी है , यही साहित्यिक का या कविता का लोकपक्ष है । 

कविता को मैं घनीभूत पीड़ा को व्यक्त करने का माध्यम मानता हूँ  । यह अपनी बात पाठकों से त्वरित कह सकती है । यह स्मृति भ्रंश का समय है । कविता अपनी तरल प्रकृति के कारण सहज रूप से ग्राह्य है।सम-सामयिक जीवन में हम में से अधिकांश लोग संतापों से, अभावों से, पीड़ा पराजय, निराशा, हताशाओंकी स्थिति में जीवन पथ पर गतिशील हैं और अपनी सामर्थ्य से अपनी-अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं। यह एक असमाप्त युद्ध है जो इस युग की वास्तविकता है ।

कोई भी कवि जो सजग है अपने परिवेश और आज की स्थितियों से प्रभावित होकर ही रहेगा और उसकी लेखनी ध्वनित करेगी समय विशेष की स्थिति , नैतिकता और संकटों को । मेरा मानना है कि तीव्र जीवन बोध कविता के लिए अनिवार्य है । कवि या रचनाकार का एक निजी स्पेस भी होता है । मैं मूल रूप से नौस्टेलजिक हूँ । मेरी  कविताओं में यह जाहिर भी होता है । 

मैं स्वयं को खोए हुए चीजों का कवि मानता हूँ । जीवन में जो अभाव है वह मुझे कविता लिखने को प्रेरित करती है ।

मैं अपने मरने के सौंदर्य को चूक गया

एक औरत मुजफ्फरपुर जंक्शन के प्लेटफ़ार्म पर 
मरी लेटी है 
उसका बच्चा उसके पास खेल रहा है 
बच्चे की उम्र महज़ एक साल है 
एक औरत के गोद में बच्चा है 
वह अपने मरे पति की तस्वीर 
दिखा रही है किसी अखबार वाले को दिल्ली में 
उस औरत की उम्र महज़ पंद्रह साल है 
एक मजदूर लड़की अपने घर से कुछ दूर 
सांस उखरने से मर गईं महाराष्ट्र में 
कुछ बारह - तेरह साल की थी वह 
एक रबड़ कारखाने में काम करने वाला मजदूर 
बिहार आते समय ट्रक दुर्घटना में मर गया 
एक युवा पीढ़ी का कामगार ही तो था वह 
मैं उन में से किसी की भी जगह मर गया होता 
और 
उनमें से कोई एक भी जीवित होता
मेरे मरने का सौंदर्य देखने लायक होता  |

पैर नहीं दिशाएँ थक कर बैठ गई है इस देश मे

दिशाएँ थक कर बैठ गई है 
इस देश में 
पैर नहीं 
पूरब से पैदल घर आ रहे थे लोग  
तेज़ रफ़्तार से आती किसी गाड़ी ने ठोकर मार दी 
पश्चिम से कोई लड़का रेलवे स्टेशनों के नाम को याद करते हुए 
साइकिल हाँकता हुआ पूरब पहुँचा
उसी दिशा से कोई गर्भवती औरत चलते हुए सड़क पर जन्म देती है बच्चे को 
और 
चल देती है उत्तर दिशा में 
उत्तर दिशा की ओर ध्यान से देखो 
सभी दिशाओं से चले आ रहे हैं पैदल चलकर लोग 
दक्षिण से कोई पश्चिम जा रहा है 
भूख को भूल कर घर को याद करता है 
एक परिवार अपने घर से महज कुछ दूरी पर दुर्घटना में मारा गया 
वे दक्षिण दिशा से आ रहे थे 
एक थकी औरत अनवरत चल रही है 
उसे भी उत्तर दिशा की ओर जाना है 
उसके काँधे पर एक बच्चा बैठा है 
नींद में बच्चे का सिर 
सभी दिशाओं में डोल रहा है  |
 
पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी

पृथ्वी की असीम पीड़ा में 
पेड़ निरपेक्ष खड़े हैं 
चिड़िया नहीं जानती है 
मनुष्यों की भाषा में दुःख के गीत 
पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी 
रेलगाड़ी में बैठकर कोई दुःख से पार पाता है 
कई पुलों से गुज़र कर सुख के छोर को छू कर 
दुःस्वप्न की तरह 
पृथ्वी की पीठ पर खड़ी है रेलगाड़ी 
चलती-फिरती रेलगाड़ी के किस्से 
जीवन का शुक्ल पक्ष है  |

समय को कीड़ा लग गया है


समय को चाट रहा है कीड़ा 
पैर को सड़क चाट रही है 
शरीर को चाट रही है भूख
मनुष्य की आवाज़ को चाट रही है दीवार 
दीवार को चाट रही है सीलन 
आईना चाट रहा है चेहरे की दिव्यता
पिता की हताशा 
चाट रही है बच्चों की चंचलता 
चकित हूँ 
दीमक किताब को नहीं 
मनुष्यता को चाट गया है  
माँ कहती है  - समय को कीड़ा लग गया है  |

उस आदमी के लिए जो सात दिनों में पैदल चलकर दिल्ली से दरभंगा पहुँचता है

बेटी ने कहा स्कूल बंद है 
मैंने धीमी आवाज़ में कहा काम बंद है 
कहा नहीं जाता पर -
कह गया यह शहर छोड़ कर जाना है 
बेटी से पूछता हूँ -
दिल्ली से दरभंगा पैदल चलकर जाना है 
तुम चल सकोगी 
बेटी कहती है खिलखिला कर -
मेरी उँगलियों को पकड़ कर वह जा सकती है दूर 
बहुत दूर 
हम लोग पैदल चल रहे हैं  |

गतिहीन दुनिया में गतिशील है एक साइकिल सवार

एक गतिहीन दुनिया में 
गतिशील हैं बच्चे 
एक छोटा सा लड़का 
अपने आँगन में निरंतर चला रहा है साइकिल 
उसके चेहरे पर जो मुस्कराहट है 
उसे मैं अपने जीवन की कार्यसूची में शामिल कर रहा हूँ 
कविता में नहीं 
आपके कानों में यही कहना चाहता हूँ 
साइकिल सवार हाँकता रहे अपनी साइकिल 
गोल  - गोल 
पृथ्वी की परिधि से बाहर भी सुनाई दे उसकी हँसी  |
 
मेरी जेब खाली थी शेष नहीं था कुछ कहना

मेरे पास कुछ नहीं था 
एक गुलमोहर का पेड़ था सरकारी जमीन पर 
पास की पटरी से गुजरती हुई ट्रेन की आवाज थी 
रिक्शा वालों की बढ़ती भीड़ थी 
चिड़ियाँ नहीं थी उनकी परछाईयाँ दिखती थी 
गिटार बजाता एक लड़का था जो खाँसता बहुत था 
हम पानी में नहीं कर्ज में डूबे थे 
हम कविताएँ नहीं गाली बकते थे 
हमें याद है हमारे कपड़े में कुल मिलाकर पांच जेबें थीं
एक में कमरे की चाभी 
दूसरे में घर की चिट्ठी 
तीसरी - चौथी और पाँचवीं खाली  |

लालटेन

क्या आया मन में की रख आया 
एक लालटेन देहरी पर 
कोई लौटेगा दूर देश से कुशलतापूर्वक 

आज खाते समय कौर उठा नहीं हाथ से 
पानी की ओर देखते हुए 

कई सूखते गलों का ध्यान आया  |

घर स्थिर है जंग लगी साइकिल की तरह

कोई था जो अब नहीं रहा 
कोई है जो अपनी दिव्यता का शिकार हुआ 
मारा गया कोई अपनी चुप्पी में 
कोई अतीत की चिड़ियों के पीछे भागा 
एक घर है जो रहा स्थिर 
जंग लगी साइकिल की तरह  |

घर

घर लौटना हो नहीं सका 
किसके स्वप्न में नहीं आता घर 
कौन घर नहीं लौटता 
कितना अच्छा था हमारा घर 
पर हम लौट नहीं सके  
चलते हुए ठेस किसे नहीं लगती
पर हम तो मर गए  |

मिलना

उसके शरीर में 
ख़ून की जगह आँसू थे 
उससे जब भी मिला 
महसूस किया 
आषाढ़ के मौसम की नमीं 
अपने आस-पास   |

परिचय
जन्म तिथि  - 06 / 12 / 1978
विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं बया, हंस, वागर्थ, पूर्वग्रह ,दोआबा , तद्भव, कथादेश, आजकल, मधुमती आदि में कविताएँ प्रकाशित 
विभिन्न प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों  - हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, अमर उजाला आदि में कविताएँ प्रकाशित ।
कविताओं का मराठी और पंजाबी भाषा में अनुवाद प्रकाशित ।
पत्राचार का पता  - रोहित ठाकुर 
C/O – श्री अरुण कुमार 
सौदागर पथ 
काली मंदिर रोड के उत्तर 
संजय गांधी नगर  , हनुमान नगर  , कंकड़बाग़ 
पटना, बिहार  
पिन – 800026
मोबाइल नम्बर - 6200439764
मेल  : rrtpatna1@gmail.com
रोहित ठाकुर




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