केशव तिवारी मेरे बहुत प्रिय कवि हैं, जिनकी कविता के महत्व पर बातचीत मुझे हमेशा हमारी आज की कविता के हित में बहुत ज़रूरी लगती रही है। युवा आलोचक सुबोध शुक्ल ने अनुनाद के लिए इस दायित्व को स्वीकार किया है। इस लेख के लिए मैं सुबोध को शुक्रिया कहता हूं और अनुनाद पर उनका दिल से स्वागत करता हूं। अनुनाद को उनसे आगे और भी सहयोग की उम्मीद है।
‘और यदि तुम अपना जीवन वैसा नहीं बना सकते
जैसा चाहो
तो इतना करो कम से कम : उसे सस्ता मत बना दो.’ (कॉन्स्टेनटीन कवाफ़ी)
कविता भाषा में बुनी कोई ट्रिक नहीं है जो अनुभवों की अराजक आसक्ति और भावनाओं की मनुष्यधर्मी फैंटसी के बीच, किसी किस्म का अपरिहार्य और वैज्ञानिक संतुलन बनाने का हठधर्मी प्रयास करे. वह प्रगति और विचार की चौतरफा अकुलाहटों की मजमालगाऊ अदालती कार्यवाही भी नहीं है जो फैसले और न्याय के किसी प्रतियोगात्मक अनुबंध में बंधी है. वह सिर्फ एक वस्तुधर्मी फासला है- सहजता का कृत्रिमता से, सहिष्णु सादगी का निरंकुश अलौकिकता से और आत्मीय स्वभाव का एक अमानवीय आदत से. वह उम्मीदों के सामंती व्यापारीकरण के विरुद्ध अपने समय के अधूरेपन को भरती है; प्रतिपक्ष के सांस्कृतिक औजारों को पैना करती है, और मज़ाक में तब्दील होते जाते युग-सत्य को अपने पाँव पर खड़ा होने का अभय देती है. कोई दोराय नहीं कि हर कविता अपने युग के सुविधाजीवी अकेलेपन के क्रूर मौन को तोड़ने और रेखांकित करने वाली, एक अयाचित और विश्वस्त परियोजना रही है.
केशव हस्तक्षेप के कवि हैं. उनकी कविता का भूगोल, प्रतिरोध के कामचलाऊ हिस्सेदारी वाले क्लास-रूम संघर्षों के बाहर शुरू होता है. ये कविताएँ निर्वासित समझी जा सकती हैं, असहिष्णु भी और साथ ही साथ अधीर भी. पर ये तीनों ही तत्व उनकी कविता का एक खबरदार लोक-धर्म और मेहनतकश यथार्थ निर्मित करते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि ये कविताएँ घरौंदों और कोटरों में छिपे-सहमे जीवन का दुस्साहसिक बयान तो हैं ही साथ ही दस्तावेज हैं उन बेशुमार दहलीजों का जिनके आँगन छीन लिए गए. वे प्रतिरोध के बुनियादी जीवन-सन्दर्भों को, एक समूची आत्मनिर्वासित सामाजिकता के अनुभव-बोध से जोड़ते हैं. जिसके कारण, सामाजिक विन्यास की एक अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त संस्कृति अपने पूरे खुरदुरे और ऊबड़खाबड़पन के साथ सामने आती है. यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि केशव तिवारी में प्रतिरोध का स्वर जितना मुखर है उतना ही सांकेतिक भी. और इन दोनों ध्रुवों को कविता के केन्द्रीय अक्ष पर साधने में, तकनीकी रूप से वे न तो किसी भड़काऊ मिथ का इस्तेमाल करते और न ही किसी भाषिक इंजीनिअरिंग का.
बिना किसी नाटकीय कौतूहल और हवा-बांधू चमत्कार के, ये कविताएँ तुरंत हाथ थामती हैं और साथ चलने लगती हैं. यह एक वजह है कि केशव जी की कविताओं में प्रतिरोध, किसी सपाट भागदौड़ और चालबाज़ आतुरता की पैदाइश नहीं है, वह परिवेश के संभावित खतरों में जनजीवन के खंडित परिचयों का स्पेस है और साथ ही अपने समानांतर आदर्शों की यथार्थ मनोभूमि की तलाश है. इन कविताओं से गुज़रते हुए इन बातों का ध्यान रखना होगा कि प्रतिरोध की तमाम वैचारिक संरचनाओं और प्रतीकधर्मी शिल्पों के सहारे इसे न तो पहचाना जा सकता है न खोला जा सकता है.
यह वक़्त ही / एक अजीब अजनबीपन में जीने / पहचान खोने का है / पर ऐसा भी तो हुआ है / जब-जब अपनी पहचान को खड़ी हुई हैं कौमें / दुनिया को बदलना पड़ा है / अपना खेल – ‘गड़रिया’
बहुत दिनों से नहीं लिखी कोई कविता / पढी भी नहीं कोई किताब / सोचता रहा कथरी के चीलरों / के बारे में / सड़कों पर घूम रहे / पागल कुत्तों के बारे में / मैले के ढेर पर पिले / सूअरों के बारे में / न जाने क्या-क्या सोचता रहा मैं / देखता रहा बंद कमरों में / सन्न पड़े बच्चों को / पहली बार लगा / सन्नाटा भूख से भी / खतरनाक है – ‘ पहली बार लगा’
यहाँ संघर्ष के निजी सत्य और विरोध की पाठकीय ऊष्मा भर से, कविता की आंतरिक इच्छा-शक्ति की पड़ताल संभव नहीं है. घेराव की बौखलाई भागीदारियों से दूर केशव जी की कविताओं में प्रतिरोध इसीलिये एक वैकल्पिक सहभागिता के बतौर आता है. जीवन के शिल्प में वे स्वयं को उकेरते हैं और यहीं से कविता अपनी ऑर्गेनिक चुनौतियों में प्रतिरोध का अर्थ ढूंढना शुरू करती है. यही कारण है कि उनकी कविताओं में प्रतिरोध किसी मुद्रा या स्वांग की तरह नहीं बल्कि एक जीवन-शैली की तरह प्रवेश करता है- भले ही वह कितनी विडंबना और अनमनेपन से भरी हो. इन कविताओं से होकर कितनी ही पूर्व भ्रांतियों और निश्चल आग्रहों के थोथे कर्मकांड सरकते हैं, ढीले पड़ते हैं. प्रतिरोध को क्रोध और हिंसा की उद्विग्न मनः प्रवृत्तियों से जोड़ने वाले तैयारशुदा चिंतन, किस तरह अनजाने में ही उसे एक आत्मकेंद्रित और सामूहिक रूप से विस्थापित चेतना में तब्दील करते जाते हैं, इसके स्पष्ट खुलासे उनकी कविता में एक रचनात्मक शिलालेख की तरह मौजूद हैं.
एक सांसत जो / हमारे भीतर पल रही थी / वह यहाँ तक भी / पहुँच चुकी है /___/ एक तरफ कांक्रीट / पत्थरों से सजा बाज़ार है / दूसरी तरफ / बचे रहने का संकट- ‘वक़्त का आईना’
अनगिनत रातों की / कालिख है मेरे चेहरे पर / तमाम अपराधों का / बोझ है मेरे कन्धों पर / एक मुरझाया फूल / एक टूटा शीशा, सरमाया है मेरा / कविता में तमाम झूठ, पूरे / होशो हवास में बोलता रहा हूँ / तुम्हें दिखाए और देखे सपनों का / हत्यारा मैं खुद / एक गलत जगह गढ़ा / दिशासूचक मैं / ये लो मेरी गर्दन हाज़िर है / तुम ले आओ / दारो रसन अपना – ‘ मैं खुद’
ये कविताएँ एक नागरिक के व्यवहारतः अपरिभाषित रह जाने की पीड़ा भी हैं. एक समूची परम्परा को नज़रंदाज़ करते चले जाने के ऐसे चालबाज़ सूत्र महानगरीय आत्ममुग्ध धुंधलके और ग्रामीण-कस्बाई बोध को, निर्वासन की जबरन शर्मिंदगी से भर दी गई संस्कृति तक फैले हैं. एक निःशब्द उपेक्षा से भरी यह आंचलिक तिलमिलाहट और ऐतिहासिक पेशेवरपन का शिकार होता बुनियादी लोकबोध, इसी अवांछित सांस्कृतिक दुर्घटना का आघात है. और संभवतः इसीलिये त्रासद और वैमनस्य से भरी राजनीतिक बदनसीबी और असमर्थ संवेदनाओं के प्रतियोगितापरक न्यौते के बीच पिसने के लिए अभिशप्त भी है.
इन कविताओं का चेतना -स्तर और भाव-संकुलता दोनों ही अभिव्यक्ति के व्यापक परिवृत्त में मानवीय संभावनाओं के विपुल स्तरीय अंतरालों को पाटने का काम करता है. ध्यान रहे कि इन अंतरालों का मूल्यांकन ये कविताएँ देश-काल के एक संगठित दायरे में मनोवेग और लोक आवेग के सिलसिले में करती हैं. इससे युगीन प्रतिमानों के आपसी द्वंद्व अपने वस्तुगत विश्वासों के साथ, अपनी सहज प्रतिक्रिया में ‘तनाव’ का आलोचनाधर्मी पाठ तैयार करते हैं. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि तनाव, केशव जी की कविताओं में लोकधर्मी पक्षधरता की एक रागात्मक चेष्टा के रूप में सामने आता है. यह उनकी कविता का ऐसा चारित्रिक अनुशासन है जो कविता को प्रतिगामी समसायिकता से निकालकर एक जुझारू तात्कालिकता में तब्दील कर देता है. ये कविताएँ यही वजह है कि उल्लास,निराशा और स्वप्न को एक साथ यथार्थगामी जिजीविषा में कायांतरित करती चलती हैं.
बाबा के लिए इसका मतलब / एक लद्दी बनिया था जो / गाँव-गाँव घूम कर / अनाज के बदले देता था नमक / कुछ और छोटी-छोटी चीज़ें / _/ पिता के लिए यह एक / भरा पूरा बाज़ार था जो / बुला रहा था ललचा रहा था / _/ मेरे लिए यह एक तिलिस्म है / जिसका एक हाथ मेरी गर्दन पर / और दूसरा मेरी जेब में है – ‘बाज़ार’
इन कविताओं में सभ्यता की उन आधारभूत समस्याओं से टकराव हैं जिनमें लंबवत व्यवस्थागत गतिरोध है; जो निरंतर परिवर्तित अनुभूतियों के अस्थायी परिणामों के ज़रिये, समाधानों के पारंपरिक रूप से प्रचलित मानकों को नकारने का माद्दा रखती हैं. एक परिपक्व और संवेदनशील सौंदर्यशास्त्र की लोकानुकूलित सापेक्षता, इन कविताओं को कैसे भी विज्ञापित आत्मविश्वास और शास्त्रीय जिम्मेदारियों के कुहासे से अपनी पूरी नैष्ठिक सदाशयता के साथ खींचकर बाहर ले आती है. ये कविताएं हमारे अपने होने का स्वाद हैं. अपने जीवन के विभाजित अन्तः साक्ष्यों का एकत्रीकरण हैं. अपने बहिरंग में ये जितनी सर्वग्रासी दुविधा और संक्रामक वस्तुस्थिति को उजागर करती हैं उतनी ही एक सिलसिलेवार अंतर्मुखता की सामाजिक प्रक्रिया में पैवस्त, विरोधाभासी रोमानों और आकस्मिक प्रचार-प्रसंगों के संगीन सत्य की भी पड़ताल करती हैं. एक कंटीली और प्रश्नाकुल सार्वजनिकता में स्थानिक उद्वेगों और आकस्मिक जीवन-आवेगों को गहराई से पकड़ती केशव तिवारी की कविता हमारी उन स्वाभाविक अनुगूंजों और विस्मित भाव की गवाह हैं जिनकी उपस्थित अपने परसेप्शन में जितनी अमूर्त है उतनी ही अपनी कंडीशनिंग में प्रत्यक्ष.
ज़िंदा हूँ कि एक कवि / होने का अहसास ज़िंदा है / आज ढोल की तरह टांग दिया है / तुमने खूंटी पर / कल नगाड़े की तरह / तुम्हारे सर पर मुनादी करूंगा / अपने समय का कवि हूँ / समय का सवार नहीं हूँ मैं – ‘ अपने समय का कवि’
चने को घुन खा रहा है / लोहे को खाए जा रहा है जंग / मित्र अब शिष्ट हो रहे हैं / पहले की तरह बेचैन नहीं दीखते / कविता की आत्मा से / जोंक की तरह चिपक गए हैं भांड / हत्यारे राजघाट पर प्रायश्चित्त कर रहे हैं / सधे हुए मिरासियों की तरह / राजपथ पर दौड़ते-दौड़ते / इस बूढ़े घोड़े की घिस चुकी है नाल / इसकी टापों से रिस रहा है खून – ‘इन दिनों’
इसलिये वहाँ न तो कैसी भी नियतिधर्मी सहूलियतें हैं और न ही बौद्धिक किस्म की कोई कुलीन सी दिखने वाली चालू दुश्चिंता. उनकी चिंता मनुष्यता की उस पारिस्थितिकी को बचाने की है जिसमें हमारी सुपरिचित जीवनानुभूतियों के एकाग्र संयोजन हैं और संवेदनात्मक अर्थोंमेष की ठोस सम्वहनीयता मौजूद है. अपनी कहन में चुनौतियों के ऐसे केन्द्रीय-विन्यास और जनव्यक्तित्व के वृहत्तर आयामों में बहुवचनीयता का कोऑर्डिनेशन ही उनकी कविताओं का संयमित और विवेकशील लोक-जीवन तैयार करता है.
(मेरे भीतर भटक रही है / एक वतन बदर औरत / अपने गुनाह का सबूत / अपनी लिखी किताब लिए / दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र / का नागरिक मैं / उसे देख रहा हूँ सर झुकाये –‘ एक औरत’)
लोक, भारतीय सन्दर्भों में, विशेषतया हिन्दी कविता में, अवधारणात्मक रूप से और साथ ही विमर्श की दृष्टि से सर्वाधिक अधीरता से प्रयोग में लाया जाने वाला बोध है. बहुतेरे इकहरे और अंतर्विरोधी हस्तक्षेपों के चलते, लोक एक आलोचनात्मक जिरह और नैतिक रेटौरिक का तो विषय बनता चला गया पर जीवन -दृष्टि की व्यापक वैचारिकी का हिस्सा बनने से रह गया. लोक, वस्तुतः भाव,विचार और संवेदना के आवयविक तर्क-संगठन में एक अविकल जीवेषणा का प्रतिबद्ध रूपांतरण है. यह रूपांतरण भाषा,इतिहास और परम्परा तीनों स्तर पर सामूहिक और मिले-जुले रूप में ही होता है. लोक-चेतना, ऐन्द्रिक रूप से अन्तःसंगठित होते हुए भी विचार और वस्तु के स्तर पर विभाजित दिख सकती है. और शायद इसी वजह से लोक से जुड़े हुए सामाजिक संवाद बहुधा सरलीकरण का शिकार हो जाते हैं. लोक की अभिधा तक पहुँचने के लिए शुद्धतावाद के क्लासिकी चातुर्य और तथाकथित आत्मग्रस्त भद्र पर्यावरण की तरकीबों से भरी व्यंजना को बेधना होगा. यहाँ इस बात को टेक की तरह मानकर चला जाय कि लोक भाव किसी इश्तिहारी भाषा का कोई भावुक प्रलाप नहीं जो संघर्ष के दैन्य आशयों और प्रतिकार की किसी अपराध-चेतना से ग्रस्त है. असल में वह हमारे जीवन-राग की सांस्कृतिक अन्वीक्षा है. सभ्यताओं के नैसर्गिक अन्तःसंघर्षों के बीच हमारी खांटी और ठेठ जीवनी-शक्ति की प्राप्ति है या कहें कि उस अवचेतन की समीक्षा है जिसे प्रगति के गलाकाट नैरेटिव और विकास के मसीहाई यूटोपिया ने कहीं गहरे दफन कर दिया. लोक इसी मसीहाई ढिठाई के विरुद्ध गुमनाम ‘साधारण’ का समूचे बुनियादी अल्हड़पन के साथ प्रतिरोध है. केशव जी की कविताएँ यथार्थ के इस मानवीय मुहावरे का जीवन के आत्मसंघर्ष में अनुसंधान हैं, सृजन की भूमिका की शिनाख्त हैं. इन कविताओं का स्वर, रचना के आचरणगत सौभाग्य का लोक भाषा में पुनरागमन है. निश्चित ही प्रतिरोध की अस्मिता और जन-संवेदना का वस्तु-संसार, उनकी कविताओं में असहमति के तमाम मुखर आयामों और समय के नैमित्तिक मूल्यांकन के साथ प्रवाहित होता है. सरोकारों की आत्मतृप्त करुणा के बाजारू विश्व में कवि अपने इसी, दुनियावी स्तर पर अप्रासंगिक मान लिए गए क्षोभ और क्रोध के बुनियादी संतुलन को साधते हैं.
जिस गली में कभी / दुनिया के हर रास्ते ख़त्म होते थे / एक दिन उसी गली से / रास्ते खुले भी /जब प्रेम डहरी पर डटा / दरिद्र हो जाए / और मन डाड़ी मार का तराजू / चेहरों पर सिर्फ अतीत की / इबारतें रह जाएँ / और वर्तमान खाली सपाट / जमुना में समाती केन का दृश्य / आँखों में लिए हम / कब तक जी सकते हैं / इतना ही सोचकर होता है संतोष – ‘रास्ते’
यह संतुलन, ध्यान रहे कि उसी त्रासद राजनीतिक मंशा के आततायी निहितार्थों के बीच साधा गया है जिसने पूंजी की जालसाज़ आशाओं और सत्ता के उतावलेपन से भरे भागीदारी वाले नुक्ते को लोक-विश्वासों की एकाग्र-स्थायी समष्टि से मिलाने का प्रयास किया. केशव जी में राजनीति के इस दोमुंहेपन और भौतिकता के नियोजित पाखण्ड की गहरी पहचान है. वे बातचीत करने वाले कवि हैं. बिना किसी सैद्धांतिक आडम्बर और व्यावहारिक घटाटोप के वे समाज के उस आख़िरी आदमी से एक सरल और उतना ही साहसिक संवाद स्थापित करते हैं. सामन्ती मूल्यों के अतिरंजित भावावेग के सामने उनकी कविता का पुरुषार्थ अपने तमाम बेख़ौफ़ सवालों और बेफिक्र फैसलों के साथ सामने आता है.
हालांकि रोजमर्रा के दृश्य-बिम्ब, छवियाँ, और ब्यौरों का आनुपातिक आत्म-संयम उनकी कविता में अपने आधारभूत तापमान के साथ, बिना किसी औचक आरोह-अवरोह के मौजूद है पर उनके बीच व्याकुलता,संत्रास,संदेह और आघात की अन्तः वेदनाएं एक सान्द्र विवेक-शक्ति का निर्माण करती हैं जिसके ज़रिये उनकी कविता तक पहुँच और भी सुगम और बेधड़क हो जाती है. इसके साथ ही गौरतलब बात यह है कि इन कविताओं की आक्रामकता उल्लेखनीय रूप से नियंत्रित है. वह न तो किसी यांत्रिक पराक्रम की आत्मरति से ग्रस्त है( जैसी अधिकाँश प्रगतिशील कविताओं का हश्र है) न ही पराजय-बोध के किसी दकियानूसी नैतिक दांव से.
किस किस को बताता / अपनी उदासी का सबब / किस किस से पूछता एक ऐसी उदासी / जिसमें बेचैनी न हो / हर तरफ फ़ैली / एक मित्र ने कहा कामरेड / बिना वजह की उदासी भी एक रूमान है / मैं उसे देखता रहा / वजहों पर बहस क्या करता / बेवजह कुछ करने में भी सुकून है उसे क्या बताता / ऊँट सी तानी गर्दन लिए / कोई कब तक रह सकता है /वैसे बगुलों सी झुकीं गर्दनें / देख कर भी डर जाता हूँ मैं – ‘उदासी’
वह अभिव्यक्ति में किसी भी दार्शनिक ढोंग और किसी भाग्यवादी भितरघात की मुद्रा से सर्वथा भिन्न हैं. कविता, केशव तिवारी के लिए स्वयं को अधिक से अधिक मानव में बदलते जाने की जद्दोजेहद है. विशेष बात है कि घर,द्वार,चौपाल,अमराई, खेत की मेंड़ से लेकर दिल्ली की सडकों तक फैला उनका कवि, सत्ताजनित और तंत्रजनित आभिजात्य के ठन्डे और खामोशपन को उनके सभी संज्ञा और विशेषण रूपों के साथ बेनकाब करता है. ‘गड़रिया’, ‘ईसुरी’, ‘दिठवन एकादशी’ से लेकर कश्मीर के विस्थापितों तक, बांदा से लेकर अफगानिस्तान तक, जितना भी कुछ है वह सब-कुछ उस सचेतन लोक-लय का क्षैतिज विकास है जिसमें हमारे एक से सपने और एक से ही धोखे हैं. भूगोल की कलाएं और सीमाओं के स्थापत्य, मानवता के आकाश और ज़मीन के ऐन्द्रिक साम्य को विवादास्पद बना सकते हैं, विभाजित कर सकते हैं पर झुठला नहीं सकते. यही कारण है कि केशव, परिवेश के आवेशित अनुभव-बोध को उसके संकोची अंतर्मुख और एक प्रामाणिक इच्छा-शक्ति के साथ देखने का प्रयास करते हैं. रूपांतरण की यह प्रक्रिया वैचारिक स्तर पर जितनी रचनात्मक है भौतिक स्तर पर उतनी ही प्रयोगशील भी. ये कविताएँ आत्मानुभूति को सह-अनुभूति के साथ संयुक्त करती चलती है जिससे कि अतीत और वर्तमान, स्थानिकता के सिलसिले में एक समूची जातीय-चेतना का भाग लग सकें.
हम बच भी गए तो / कब तक बचे रहेंगे / उन लोगों के बिना / जो हमारी अनुभूतियों में विश्वास की तरह ज़िंदा हैं / वे इस धरती के / सबसे बहादुर लोग थे / जो किसी जंग या मुहिम में नहीं / दूध और सब्जी बेचते हुए मारे गए – ‘ कब तक बचे रहेंगे’
कभी डाकू / कभी पुलिस / इस चक्की में तो तुम / दाने मात्र हो / इस चक्की को / आखिर चला कौन रहा है / तुम्हें कौन समझा रहा है / कि / बिरादरी में ही है / तुम्हारी मुक्ति / वह जो तुम्हारे बीच से / लखनऊ में जाकर बैठ गया / उसके लिए तुम, डाकू पुलिस / सिर्फ उसकी सफलता के / औज़ार हो / जिसे वह समय-समय पर मौके हिसाब से आजमाता है – ‘स्वांग’
उनकी कविता से जुडी हुई जो सबसे बेचैन चाहना है वह यह कि वर्ग तथा इतिहास को देखने की जो आम नस्लीय व्यवस्था है वह वैज्ञानिक चेष्टाओं के साथ पनपने लगे. केशव जी अपनी कविता का व्याकरण सांस्कृतिक वातावरण के सम्मिलित अभिप्रायों के बीच रेखांकित करते हैं. जिससे कि उनके स्वभावगत द्वंद्व के अचेतन पहलू सार्वजनिक अस्मिताओं के तद्भव संयोजनों में बदल जाते हैं .वे कविता को उस अर्जित अन्तरंग की जागरूक स्वायत्तता के बतौर अपनाते हैं जो अमूर्त रूप से एक जिद्दी सहानुभूति को एक रागात्मक संचेतन में रूपांतरित कर देती है. उनकी कविता, सम्प्रेषण के अकेलेपन और समझ की हठधर्मिता से भी जूझती है. उनके लोक का आयाम बहुत सारी सामासिक परतों के अंतरजाल बुनता है जिससे विचार और भावुकता के पारस्परिक टकराव एक सार्वकालिक जनधर्मी विरासत को जन्म देते हैं. न तो समकालीनता के विश्रृंखलित तर्कों के आधार पर न ही प्रगतिशीलता के राजनैतिक उपभोगवाद के आधार पर ही, केशव जी कहीं से समझौतावादी दीखते हैं. यह ध्यान रखा जाय कि समझौतावादी कहने के यहाँ निषेध से ज़्यादा स्याह अर्थ होंगे. चाहे वह किसी किताबी इतिहास की ठंडी अनास्था हो या किसी असहिष्णु वर्तमान का कुंठित समीकरण, कैसी भी चापलूस और कलाबाज़ शर्तों की आमद वे कविता में स्वीकार नहीं करते. कविता की अंदरूनी जलवायु में प्रकृति तत्व को एक लोकतंत्रात्मक कायदे की तरह सम्मिलित करने की पीछे भी उनकी यही मंशा रही है, जिससे कविता का शारीरिक दायरा और मानसिक चौहद्दी निश्चित होने लगती है और चूंकि कवि इस प्रक्रिया में अपने को एक रसायन की तरह इस्तेमाल कर रहा होता है, अनुभूति और चेतना की सांयोगिक उपलब्धि का प्रथम भोक्ता भी वही बनता है. यहाँ यह दृष्टव्य है कि अनुभूति और चेतना का आलोचनात्मक साक्षात्कार ही सामाजिक-राजनीतिक अंतर्धाराओं में यथार्थ के हमेशा से नज़रंदाज़ कर दिए जाते रहे रूपक की पुनर्व्याख्या सिद्ध होता है.
क्षत्रप अपने को आश्वस्त समझें / अभी उनके छत्र और चंवर सुरक्षित हैं / अदीबों को आदाब है / विरुदावली के स्वरों में / जनता के दुखों का गान जारी रखें / दिल्ली के दुःख से / अवगत रखें दुनिया को / फिलहाल तो हमारा दुःख / अड़तालीस के तापमान पर / जंगली मकोइयों की तरह पक रहा है / हमारे पाँव इस पठारी ज़मीन से / निकलने की तैयारी कर रहे हैं / आप की पैदा की हीनता पर / थूकने का साहस पैदा कर रहे हैं हम / जिस दिन अपने मनुष्य होने के / सम्मान का पा लेंगे एहसास / तब दिल्ली में चढ़कर / करेंगे दिल की बात / तब तक तो आश्वस्त रहे आप – ‘ फिलहाल आश्वस्त रहें आप
आधुनिकता, स्वतन्त्रता और मुक्ति के स्वप्नशील आदर्शों की खुशामदी खामोशी और अवसरवादी बर्बरता की बदस्तूर नमकहलाली में व्यस्त और पस्त सृजनधर्मिता के दौर में, केशव तिवारी आरोप और बहस की एक वैचारिक मर्यादा का अनिवार्य और मानीखेज पर्यावरण रचते हैं. ध्यान रहे कि वे जिस भाषा में एक बेलौस हमलावर लिख रहे हैं उसी भाषा में एक आत्मिक प्रेमी भी. जिस धारणा से अन्धकार की कालिमा कुरेद रहे हैं उसी अवधारणा से एक मशाल भविष्य का सारांश भी. वे उन बहुत थोड़े से कवियों में हैं जो रचनात्मक विडम्बनाओं की स्व-चयनित और सक्षम बिरादरी के साथ-साथ एक शालीन प्रतिक्रियाधार्मिता और दो-टूक निर्भीकता का निर्वहन बिना किसी आतंकी अट्टहास या किसी वैरागी बुदबुदाहट के कर जाते हैं. यही केशव जी की कविताओं का संवेग और गाम्भीर्य है जो उन्हें भाषा की उस मौन आस्था पर लाकर खड़ा करता है जो ज़मीन के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर उसके अबोध धूसरपन और भीने मटमैलेपन में शामिल होने की कोशिश करता है.
ऐसा नहीं है कि केशव तिवारी आदर्श के किसी संभ्रमित अवकाश का फायदा उठा रहे हैं, असल में वे एक विचारशील यथार्थ को उसकी स्मृतिधर्मी वर्जना से बाहर खींच कर ला रहे होते हैं. यह उनकी कविता का अभीष्ट ही नहीं अदब भी है. एक ऐसे वक़्त में जहां जीवन मूल्य की बातें, चिडचिडेपन से भरे मनोवेग का वेदनामय दुस्साहस बन कर रह जाने वाली हों वहाँ केशव जी उन अबोध आग्रहों के सामर्थ्यशील बल को आवाज़ दे रहे होते हैं जिनकी सुदूरगामिता कितने ही बेसुध विश्वासों और मताग्रही भावुकता को समय की सामूहिक नियति के साथ बंधक बना डालती है. केशव जी की कविता में न तो ऐसी कोई अन्तःविह्वल अतीत की संक्रमणशील दुश्चिंता है और न ही किसी अमूर्त समय की भविष्यधर्मी आश्वस्ति. वे प्रतितर्कों की भाषा में नहीं रचते. ज़बान लड़ाने वाली क्रांतिधर्मिता और चाबुक चलाने वाली वैचारिक मुद्रा में उनका विश्वास नहीं है. वे बोध के समकालीन मैकेनिज्म के साथ अनुभवगत परम्पराजन्यता को कन्फ्रांट करते हैं. जिससे समाज और व्यक्ति का अपना वस्तुपरक औचित्य, इतिहास और सभ्यता की अटूट श्रृंखला में जीवन के गुणात्मक बिम्ब की रचना करता है.
एक फ़तवा आता है और / सारा-का-सारा मुल्क / दाढ़ियों के जंगल में / तब्दील हो जाता है / एक दूसरा फ़तवा आता है और / चमकते चाँद काले लबादे में ढँक / सहम कर कोनों में दुबक जाते हैं / तीसरा फ़तवा आता है / अपने को धरती के सबसे मजबूत / कहने वाले कुछ लोगों के द्वारा / वे अचानक / एक पत्थर की मूर्ति से / डर गए थे और / उस पर मोर्टारों और तोपों से हमले / आख़िरी फ़तवा आता है / दुनिया के सबसे शातिर / सपेरे के द्वारा / कि मेरे ही पाले नागों ने अब / बीन की धुन पर / नाचना बंद कर दिया है / मुझे ही फुफकारने लगे हैं / पहले इनके डँसे लोगों के लिए / दो पल का मौन रखा जाय / फिर इन्हें नष्ट कर दिया जाय / हाँ, पालतू नागों की तलाश जारी रखी जाय – ‘अफगानिस्तान-२’
केशव तिवारी की कविता का मर्म यही है. उनकी कविता का गहरा सांगठनिक तनाव इस बात का द्योतक है कि एक विस्मित ऐंद्रिकता की औपचारिक आस्वादधर्मिता का मिला-जुला समाजशास्त्र, किस तरह मानवीय परिवृत्त में, जीवन-विवेक और जीवन-यथार्थ के लोक-संपृक्त परिप्रेक्ष्य को उद्घाटित कर जाता है. वे इस लोक-मन की टूट, कदम-कदम पर होती इसकी कातर पराजय और संत्रस्त घुटन को भली-भाँति जानते-बूझते हैं. लगभग अप्रासंगिक होती जाती मानवीय संवेदना में, लगातार हाशिये पर ढकेले जाते साहचर्य-बोध और आदिमपन का शिकार होते जा रहे जिज्ञासु संसाधनों के बीच करुणा और प्रेम के एक जातीय कुनबे को संचित और सुरक्षित रखने की टटकी भावना को केशव जी ने अपनी कविताओं में एक विवेचनात्मक संगति दी है. इसे अन्यथा शब्दों में कहें तो तो उनकी कविताएँ एक निजी और सार्वजनिक उठापटक की जनधर्मी विसंगति से निकल, ऐसी सिंथेटिक जनपक्षधरता के वातायन को निर्मित करती है जिसे संघर्षशील लोकरूप के वैज्ञानिक आत्मचिंतन के रूप में देखा जा सकता है. इन सब के बीच यह बात ध्यान रहे कि केशव जी के ठेठपन को उजड्डता न मान लिया जाय. वे चिंतन और समझ की एकायामी कलात्मकता और एकरस भाव-बोध के कवि नहीं है. उनकी कहन में सामुदायिकता तो है पर गिरोहबंदी नहीं है. भाषा और शैली की कैसी भी आयातित दस्तक पर वे कान नहीं धरते. उनकी कविता में व्यक्ति-सत्य और वर्गीय सत्य के रेखांकन स्पष्ट हैं. जैविकता और सामाजिकता की एक कंडेंस्ड समझ और परम्परा में आधुनिकता की एक वाजिब दखल के साथ ही, वह इस कविता के नागरिक बनते हैं- अभिव्यक्ति के गुपचुप या अवसरवादी दुरभिसंधियों से पूरे ऐन्द्रिक ताप में भिड़ते हुए.
मैं तुम्हारी भूख पर / कविता लिखूंगा / और कवि हो जाऊंगा / तुम्हारी मौत पर मर्सिये/ गाऊंगा और / चर्चा में बना रहूँगा / तुम्हारे लिए... / कागज़ पर लडाइयां लडूंगा / और योद्धा होने के गुमान में / फूला फिरूंगा / तुम्हारी मजबूरियों में भी / क्रान्ति तलाशूंगा / और अमर हो जाऊंगा – ‘और अमर हो जाऊंगा’
और शायद यही वजह है कि केशव जी की कविताएँ अपने उग्र संकल्पों में आत्म-स्वीकृति और आत्मानुशासन की समावेशी ऊर्जा में कभी-कभी विभक्त होती सी लगती हैं, लेकिन सम्वेदनधर्मी सदिच्छा और आकांक्षाओं का सहानुभूतिपरक आत्म-विश्लेषण उन्हें विस्थापित होने से बचा लेता है. जिससे कि इन कविताओं का हमारी आहत आशाओं और भयग्रस्त मानस से एक पारिवारिक रिश्ता सा कायम हो जाता है. पारिवारिक यों कि जनजीवन के जटिल आत्मीय बोध और स्वतन्त्रता के अन्तर्निहित तर्क उनकी कविताओं के उस बुद्धिसंगत और भावप्रवण उद्योग्धार्मिता के कॉमन-सेन्स को बनाते हैं जो जीवन की यथातथ्य विषमताओं की आदिम अभीप्सा के बीच एक प्रतीकात्मक संगति का निर्माण करते हैं. अवधारणाओं पर अवलंबित कसरती नज़रियों और मनुष्यता को किसी यांत्रिक ऐतिहासिकता के अटैचमेंट के रूप में देखने वाली एक समूची काव्य-परम्परा के बीच केशव तिवारी की कविता, प्रचलन के अटपटेपन और बोलचाल की संकल्पित भाषिक चेतना की एक तहजीब की तरह सामने आती है. और सरोकारों की एकान्तिक मनः स्थितियों के आधार पर पैदा किये जा रहे जाली दायित्वबोधों का नैतिक भय, सभी अप्राकृतिक अनुरक्तियों के साथ ख़ुद को उजागर करता चला जाता है.
जब भी देखता हूँ / तुम समय के क्रोशिये लिए / विश्वास के धागे से / बुनती ही रहती हो / भविष्य के सपने / टांकती ही रहती हो / मनपसंद फूल / सोचता हूँ कितना अटल है / तुम्हारा विश्वास / इस अनिश्चित भविष्य पर / वर्तमान के त्रास को / नकारते हुए भी / तुम डालती ही जा रही हो / भविष्य के नए फंदे / समय के क्रोशिये पर – ‘जब भी देखता हूँ’
एक ऐसे वक़्त में जहां जीवन और मृत्य के प्रश्न, सौन्दर्यबोध के स्टैटिक और लगभग कायर सवालों के सामने, संस्कृति-विरोधी और अनैतिहासिक माने जाने लगे हों; जहां संघर्ष,शक्ति,चेतना, करुणा एक गैरमुमकिन समाज के मुहावरों में तब्दील होते जा रहे हों;केशव तिवारी की कविताएँ आस्था के समानांतर संसार में, संवेदनाओं की भौतिकी को प्रार्थना की तरह दर्ज़ करती हैं. इसमें कोई दोराय नहीं कि उनकी कविताएँ मौजूदा सामजिक अनिश्चितता से मोहभंग हैं. किसी काल्पनिक तटस्थता के रूपवादी संशयों और आमोदधर्मी उद्वेलनों के विजातीय आदर्शवाद को वे समसामयिक विन्यास की चेतन-परिधि में संयोजित करने का प्रयास करते हैं. और साथ ही साथ उन उत्तरदायित्वहीन सत्तावादी प्रयासों को इतिहास-बोध के अनिवार्य अंतरालों के बीच चीन्हने का प्रयास करते हैं जिससे एक निरंतर अन्तः विवशता का शिकार होती जाती सांस्कृतिक परिस्थिति को, वर्तमान के सरलीकरण के खतरे से बचाया जा सके. ये कविताएँ एक निर्दोष सहजीवन की तलाश हैं - बिना किसी तिलिस्मी जमघट और जीवन-सत्य के नियतिधर्मी समाधानों के, प्रतिरोधी लोक-संवेदनों की एक ईमानदार और मांसल जीवनासक्ति बनाती हुईं
जीवन में कितना कुछ छूट गया / और हम विचार की बहंगी उठाये / आश्वस्त फिरते रहे / नदी पर कविता लिखी / और ज़िन्दगी के कितने / जल से लबालब चौहडे सूख गए / समय नजूमी की पीठ पर / पैर रख निकल जाता है / और अतीत खोह में पड़ा कराहता है / जिसने प्रेम किया / एक अथाह सागर थहाता रहा / जिसने प्रेम परिभाषित किया / किताबों में दब के मर गया – ‘ विचार की बहंगी
ये जनतांत्रिक प्रतीतियों की स्वाभाविक अपेक्षाओं की कविताएँ भी हैं. अहर्निश हमारे उस विलुप्त सौन्दर्यबोध की समकालीन परिपक्वता की सकारात्मक और निश्छल जांच-पड़ताल है. यही कारण है कि उनकी कविताओं में प्रेम, एक अपराजेय मनोबल के रूप में सामने आता है और वे प्रेम को न तो किसी स्नायविक रति-प्रसंग के उन्मादी शोर-शराबे की तरह चित्रित करते हैं और न ही किसी भावुक प्रत्याशा के अनमने पश्चाताप की तरह. प्रेम उनकी कविताओं में एक रचनात्मक अन्तः गठन और युग-प्रवृत्ति के पर्यवेक्षण की तरह प्रयुक्त होता है. उल्लेखनीय बात यह है कि प्रेम का यह परिस्थितिगत संस्पर्श और ममत्व से भरा स्नेहालेप केशव जी की कविता में, एक संतप्त और संकोची आक्रोश के आंतरिक भूलेबिसरेपन के बीच किसी विकासधर्मी क्षतिपूर्ति की तरह प्रवेश करता है. वहाँ प्रेम सवाल भी है, समाधान भी. हास भी है, विलाप भी और यही संभवतः संवेदन और अनुभवों के स्वावलंबी विश्व का पुनःसृजन भी है.
केशव जी की कविताएँ हमारे चिरपरिचित आख्यानों की सहूलियत से भरे सुहाने सुखान्त का एंटी-क्लाइमेक्स हैं- अपनी पीठ पर वक़्त की करवट अंकित किये हुए और छाती पर आस्था के अरण्य बोते हुए.
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सुबोध शुक्ल / ४- एफ, नवाब यूसुफ़ रोड, सिविल लाइन, इलाहाबाद,२११००१ / सेल – ०९४५१३२२१७२, ०८४००७९१६९३