Quantcast
Channel: अनुनाद
Viewing all articles
Browse latest Browse all 437

कविता जो साथ रहती है 4: प्रभात की कविता : गिरिराज किराड़ू

$
0
0


विस्थापन और आत्मबोध की दूसरी कथा


अपनों में नहीं रह पाने का गीत

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा

क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं
***

1

हिन्दी कविता में विस्थापन के कई वृतांत है, जिनमें सबसे लोकप्रिय लेकिन एक स्तर पर निराश और खिन्न करने वाला (इरिटेटिंग) वृतांत केदारनाथ सिंह के यहाँ हैः – काव्यनायक शहर आ गया है, जाहिर ही काम करने (प्रोफेसर बनने?) आया है और इसको लेकर एक नपातुला, अपनी गतिकी में लगभग डिजाईनर जान पड़ने वाला अपराध बोध उसके भीतर स्थायी हो गया है.केदारजी के काव्यनायक की समस्या अक्सर यह है कि वह अपने ड्राईंगरूम में कुल्हाड़ी कहाँ रक्खे या गाँव से आये दोस्त या कार्यकर्ता से नज़रें कैसे मिलाये. यह खिन्न इसलिये करता है कि इसमें काव्यनायक की स्थिति नियतिवत है – वह अपनी विस्थापित अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं करेगा और इसी कारण जो पीछे रह गया – गाँव – उसकी अवस्था में भी नहीं. उसकी अवस्था भी उसके लिये नियतिवत ही है. हालाँकि ऐन इसी कारण एक दूसरे स्तर पर केदारजी की कविता ‘विकास’ का कुछ पठन विधियों से मार्मिक महसूस होने वाला सबआल्टर्न आख्यान भी बनती है. लेकिन मेरी अपनी पढ़त में यह काव्यनायक ठीक से हमदर्द नहीं बन पाता क्यूंकि उसे अपने अपराधबोध से ही मुक्ति नहीं मिलती. गाँव अपने प्रभाव में छिन चुके स्वर्ग (लॉस्ट पैराडाईज) जैसी मिथकीयता हासिल कर लेता है और बिल्कुल एंथ्रोपोलॉजिकल स्तर पर आपको नस्लीय ढंग की कल्पना के फेर में ले लेता है जिसका परिणाम गाँव और शहर के बीच दिव्य और दानवीय की बाईनरी में होता है.

पहाड़ से रोजी रोटी के लिये मैदान आये मंगलेश डबराल के यहाँ विस्थापन के ज्यादा अंतःसंवादी विवरण हैं, मंगलेश ज्यादा डायलेक्टिकल हैं केदारजी के बरक़्स. बद्री नारायण में भी इस वृतांत के कई रूप हैं लेकिन एक तरह की वर्जिन मासूमियत से परिभाषित, किंचित रोमानी 'लोक' वहाँ भी है. प्रभात की यह कविता विस्थापन की कथा दूसरे छोर से कहती है. इस कविता के काव्यनायक को विस्थापित करने वाले ‘बाहरी’/ ‘पराये’/ ‘दूसरे’ नहीं है, ये ‘अपने’ हैं जिन्होंने उसे विस्थापित किया हैः

उन्होंने मुझे इतना सताया
कि मैं उनकी दुनिया से रेंगता आया
मैंने उनके बीच लौटने की गरज से
बार-बार मुड़कर देखा
मगर उन्होंने मुझे एकबार भी नहीं बुलाया

ये है जन्नत की हक़ीक़त. ये गाँव या लोक की रोमानी मिथकीयता के बरक़्स उसका बेरहम रोजमर्रा है. विस्थापन की यह प्रतिकथा कविता में ऐसी सघन प्रत्यक्षता से आती है कि आप इस यातना के ताप से झुलसने लगते हैं. कवि ने चार बार सोचके ‘रेंगने’ जैसी क्रिया का प्रयोग किया है या यह पहली स्वाभाविक च्वॉयस थी? ‘गरज’ के दूसरे अर्थ, उसकी ‘व्यंजना’ के बारे में सोचा था उसने?

ऐसे अलग हुआ मैं अपनों से
ऐसे हुआ मैं पराया

अपने इस तरह अलग होने ‘पराये’ होने, सपनो के बिखरने का सादृश्य कवि के पास यह हैः

समुदायों की तरह टूटता बिखरता गया
मेरे सपनों का पिटारा

‘सपनों का पिटारा’ यहाँ अभिधा में है या मुहाविरे में? यह आत्म-कथा है या समुदाय-कथा? क्या यह वही समुदाय है जिसने उसे इतना सताया या कोई दूसरा? इस काव्यनायक को सताने वाले भी इसके ‘अपने समुदाय’ के हैं. यह कविता अन्य का दानवीकरण (Demonization) करने से इंकार करती है (और यह कहते हुए यह नोट करना प्रासंगिक हो सकता है कि इस कविता का ऑथर एक जनजातीय समुदाय से आता है) और इस तरह विस्थापन के साथ साथ आधुनिकता और विकास का एक दूसरा वृतांत बन जाती है. यह कविता यहाँ, इस बिंदु, पर समाप्त हो जाती तो भी एक मुकम्मिल संरचना, एक मुकम्मिल रचनानुभव होती लेकिन इसका उत्तरार्द्ध इसे पूर्णतर रचना बनाता हैः

अकेलेपन की दुनिया में रहना ही पड़ा तो रहूँगा
मगर ऐसे नहीं जैसे बेचारा
क्योंकि मेरी समस्त यादें
सतायी हुई नहीं हैं

सबआल्टर्न प्रत्याख्यानों में स्मृति की एक बेहद महत्वपूर्ण, रणनीतिक भूमिका है. स्मृति प्रतिरोध की, पुनर्निर्माण की सामग्री भी है, विधि भी. क्या यह पहला सबआल्टर्न काव्य-स्वर है जो कह रहा है, ‘मेरी समस्त यादें सतायी हुई नहीं हैं’ और इस तरह दूसरों द्वारा अपने अधूरे, एकांगी निरूपण/प्रतिनिधित्व के मुकाबले ज्यादा संश्लिष्ट, मनुष्य होने की संपूर्णता का क्लेम करने वाले आत्म का आविष्कार करता है. और यह कवि की निजी उपलब्धि मात्र नहीं है, यह सामुदायिक प्रक्रियाओं को सक्रिय करने वाला ‘आत्म’-बोध है.

2

प्रभात की कविता मेरे लिये प्रेरक और शिक्षाप्रद रही है. उस पर मैंने पहले भी लिखा है, शायद उसकी लगभग हरेक कविता पर एक निबंध लिख सकता हूँ. प्रभात, महेश वर्मा, और कुछ हद तक मनोज कुमार झा की कविता मुख्यधारा के रैह्ट्रिकल/रेवोल्यूशनरी हाईवे से दूर अपने अपने ढंग से ‘कविता का छत्तीसगढ़’ है.  

3

कुछ लिंक्सः




Viewing all articles
Browse latest Browse all 437

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>